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________________ मृत और दरिद्र को समान मानो ३५१ देने वाले ! किसी को गरीबी न दे, मौत दे दे, मगर बदनसीबी न दे। छीन ली हर खुशी और कहा कि न रो, गम हजारों लिये, दिल भी देने थे सौ। करके हम पै सितम, खुश न हो। देने वाले......... ....।। छोड़कर यह जहाँ; बोल जाएँ कहाँ, कोई गमख्वार है, न कोई मेहरबाँ । खुद कहें खुद सुनें दासताँ दासताँ ।। देने वाले" जैसे लोग मृत व्यक्ति से घृणा करते हैं, कोई उसे घर में नहीं रखता वैसे ही दरिद्र का हाल हो जाता है । दरिद्र को देखते ही लोग उसे नफरत भरी दृष्टि से देखते हैं, उसे दुरदुराते हैं। यह कुत्ते का सा अपमानित जीवन स्वाभिमानी के लिए मरण से भी बदतर है । दरिद्रावस्था में मनुष्य किस प्रकार मृतवत् होकर मृतक का-सा कष्ट सहता है ? इसे समझने के लिए एक प्राचीन कथा लीजिए सारण उज्जयिनी का प्रमुख जुआरी था। एक दिन वह जुए में सर्वस्व हार गया। उसके यहाँ एक टाइम खाने के लिए भी भोजन न रहा। अतः सारण रात को नगर में घूमता-घूमता एक बनिये के घर के बाहर पिता-पुत्र की परस्पर होती हुई बातचीत सुनने के लिए खड़ा रहा। पिता कह रहा था-"बेटा ! हमें विपत्तिनिवारणार्थ कुछ धन सुरक्षित रखना चाहिए।" पुत्र बोला-"हाँ, पिताजी ! ऐसा ही करें ।" पिता बोला-"दस हजार स्वर्णमुद्राएँ हम श्मशान में गाड़ देते हैं।" यह बात सारण जुआरी ने सुनी । वह उनसे पहले ही श्मशान में जाकर जहां मुर्दे पड़े थे, उनके पास सो गया। थोड़ी देर में पिता-पुत्र दोनों द्रव्य लेकर श्मशान में पहुँचे, जमीन पर थली रखी । पिता ने कहा-"बेटा ! चारों ओर देख आ। कोई कपटी देख लेगा तो गड़ा हुआ द्रव्य निकालकर ले जायेगा ।" पुत्र ने जाकर देखा तो मुर्दो के बीच में सारण को भी देखा, भलीभांति परखा, नाक तथा मुह पर हाथ रखकर देखा, श्वास की हवा निकलती न देखी, फिर हिलाकर देखा। पिता के कहने पर दूसरी बार फिर गया, उसकी टाँगें खींचकर घसीटा, उछाला और एक ओर डाला, फिर भी वह मुर्दे की तरह न हिला न डुला । पिता से आकर सारी बात कही। पिता ने कहा-"बेटा ! उसके नाक-कान काटकर ले आ। फिर पता लगेगा।" पुत्र ने वैसे ही किया, पर धूर्त बोला नहीं । पिता-पुत्र दोनों को निश्चय हो गया कि यह मुर्दा ही है, अतः उस धन को जमीन में गाड़कर दोनों अपने घर आये। इधर धूर्त सारण ने जमीन में गड़ा हुआ धन निकाला और अपने घर आया। एक दिन सेठ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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