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आनन्द प्रवचन : भाग ११
इसलिए मेरा भी यह फर्ज हो जाता है कि मैं इस बाग को अधिकाधिक सुन्दर बनाऊँ ? मैं इस चक्कर में नहीं पड़ता कि मेरे मालिक कब आएंगे, अतः मैं अपने बाग को व्यवस्थित और रम्य बनाने में ही अपना श्रेय समझता हूँ। 'अभी मालिक यहाँ नहीं है;' यह सोचकर मैं निष्क्रिय होकर बैठा रहूँ, तो मेरे इस बाग की शोभा नष्ट हो जाएगी। फूल, फल, लता और हरे-भरे पौधों के बदले यहाँ कटीले झाड़. झंखाड़, निकम्मा घास-फूस और बेर खड़े हो जाएंगे । यदि मेरे मालिक अचानक आ भी जाएं तो वे बाग की शोभा देखकर आनन्दित हो उठेंगे। उनका आनन्द ही मेरे श्रम का पारितोषिक है।"
माली की अद्भुत कर्तव्यपरायणता की भावना देखकर यात्री दंग रह गया।
आप और हम सब अपने-अपने आत्मारूपी बाग के माली हैं। वैष्णव भाषा में कहूँ तो भगवान ने और जनदर्शन की भाषा में कहूँ तो महापुण्यरूपी राजा ने पूरे विश्वास के साथ इस आत्मारूपी उद्यान की सुरक्षा एवं सुव्यवस्था का कार्य हमें सौंपा है । परन्तु उस माली की तरह कौन अपने आत्मारूपी बाग को सुव्यवस्थित, सुन्दर और शोभायमान रखने के लिए सतर्क और सत्पुरुषार्थशील रहता है ? राजा या प्रभु की अनुपस्थिति में इस आत्मारूपी बगीचे का मालिक स्वयं आत्मा (जीव) ही है । जो इस बात को समझकर दत्तचित्त और आत्मस्थित या प्रभुध्यान में स्थित होकर इस आत्मारूपी उद्यान को ज्ञान-दर्शन-चारित्र एवं तप-संयम के पुरुषार्थ द्वारा सुन्दर, सुव्यवस्थित और श्रेष्ठ बनाता है, वही श्रेष्ठ आत्मा, विकसित आत्मा एवं मोक्ष-प्राप्ति योग्य आत्मा बनाने का पारितोषिक पाता है । इसके विपरीत जो अनवस्थित, लापरवाह एवं कर्तव्यहीन होकर आत्मारूपी उद्यान की सार-संभाल नहीं करता, इसे ज्ञानादि गुणों की वृद्धि के पुरुषार्थ से सुन्दर, सुव्यवस्थित बनाने का पुरुषार्थ नहीं करता, वह अपनी आत्मा को दुरात्मा, अविकसित आत्मा एवं पापात्मा बना लेता है, जिसका दण्ड उसे अनेक जन्मों तक विविध गतियों एवं योनियों में परिभ्रमण करने के रूप में मिलता है। भगवान या पुण्यराजा के प्रकुपित होने से फिर मनुष्यजन्म मिलना दुर्लभ हो जाता है।
- इसलिए यह तो मनुष्य के अपने हाथ में है कि वह अपनी आत्मा को दुरात्मा बनाए या सदात्मा, पापी बनाए या धर्मात्मा ! अनवस्थित आत्मा ही दुरात्मा बनता है
मनुष्य का सदात्मा या दुरात्मा बनना अपने हाथ में है; तब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आत्मा दुरात्मा कब बनती है ? महर्षि गौतम ने इसका सीमित शब्दों में उत्तर दे दिया है कि अनवस्थित आत्मा ही दुरात्मा बन जाती है।
___ आत्मा को दुरात्मा बनाने में अन्यान्य निमित्त कारण होंगे, परन्तु मूल कारण अनवस्थितता है। जब जीवन में अनवस्थितता आ जाती है, चित्त एक जगह, एक महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य कार्य में नहीं जमता, तब आत्मा उसका अनुवर्ती बनकर
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