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________________ पुत्र और शिष्य को समान मानो ३०१ "ऋषिवर ! ये इस तुच्छ ऋषिचरण-रज के शिष्य हैं । मैंने अपने हृदय की अनुभूति से सींच-सींचकर इन्हें विकसित किया है । आर्य संस्कृति के पवित्र संस्कार कूटकूटकर भरे हैं। आप इनकी जैसे चाहें परीक्षा ले लीजिए।" जाबाल ऋषि ने कहा"ऋषिवर ! इन राजकुमारों की परीक्षा की आवश्यकता नहीं है। इनका चरित्र ही स्पष्ट बोल रहा है। आपके पवित्र कर-कमलों द्वारा किये संस्कार-सिंचन से इनका जीवन-तरु अद्भुत रूप से पल्लवित-पुष्पित-फलित हुआ है । सचमुच आपके ये शिष्य योग्य हैं । ये अपने उज्ज्वल चरित्र से जगत् को प्रभावित करने वाले हैं । इनका निर्मल जीवन और आदर्श धन्य है।" योग्य शिष्य गुरु को पुत्र से भी बढ़कर प्रिय . इस प्रकार एक सच्चे गुरु ने योग्य शिष्य को पाकर अपनी सर्वस्व विद्याएं उसे दे दी और जीवन-निर्माण के साथ योग्य विद्वान् बना दिया । योग्य शिष्य स्वयमेव गुरु को अपने गुणों से आकर्षित करके पुत्र का अधिकार पा लेता है। आत्मानुशासन में योग्य शिष्य की पहचान इस प्रकार बताई गई है भव्यः किं कुशलं ममेति विमशन दुःखान् भृशं भीतिमान्, सौख्येषी श्रवणादिबुद्धिविभवः श्रुत्वा विचार्य स्फुटम् । धर्मशर्मकरं वयागुणमयं युक्त्यागमाभ्यां स्थितम्, गृह्णन धर्मकथां श्रुतावधिकृतः शास्यो निरस्ताग्रहः ॥७॥ -योग्य शिष्य वह होता है, जो भव्य हो, अपना कल्याण किसमें है ? इसका विचार करता हो, दुःखों से डरता हो, सुखेच्छुक हो सुनने (शुबषा, श्रवण, ग्रहण, धारणा, विज्ञान, ऊहापोह, तत्त्वज्ञान) आदि में रुचि रखता हो, युक्ति और आगम से निश्चित दयागुणमय सुखकर धर्म का आचरण करता हो, धर्मकथा को रुचिपूर्वक ग्रहण करता हो, शास्त्रों में पारंगत हो और दुराग्रही न हो। जहाँ ये गुण नहीं होते, वहाँ शिष्य योग्य नहीं समझा जाता। एक उदाहरण लीजिये आचार्य क्षीरकदम्ब अपने पुत्र पर्वत और शिष्य नारद दोनों को समान भाव से पढ़ाते थे। परन्तु पर्वत की बुद्धि अहंकार और दुविनय के कारण मलिन होती जा रही थी। एक दिन पर्वत ने अपनी माता से शिकायत की-"माँ, पिताजी मेरे प्रति भेदभाव रखते हैं, वे मुझे भलिभाँति नहीं पढ़ाते, नारद को अच्छी तरह पढ़ाते हैं। इस कारण नारद मुझ से अधिक बुद्धिमान होता जा रहा है। अहंकारवश मुझे छेड़ता रहता है, और नीचा दिखाने की कोशिश करता है । आज जब हम समिधा लेने गये थे, तो उसने मुझे तरह-तरह से अपमानित किया।" पुत्र के प्रति माता का मोह जाग उठा । पुत्र के अपमान से दुःखित माता (गुरुपत्नी) ने अपने पति से शिकायत की-“यह तो आपका रवैया ठीक नहीं कि आप अपने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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