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मानन्द प्रवचन : भाग ११
इसलिए गुरु माता-पिता से भी बढ़कर उपकारी है । संत कबीर गुरु द्वारा शिष्य के निर्माण का तरीका बतलाते हैं
गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है, घड़-घड़ काढ़े खोट ।
अन्तर हाथ सहारा दै, बाहर वाहै चोट ।।
सचमुच, पितातुल्य गुरु अपने पुत्रतुल्य शिष्य रूपी घट को कुम्हार के समान बाहर से घड़-घड़कर और अन्दर से हाथ रखकर खोट निकालता है । भारतीय संस्कृति में पाँच प्रकार के पिता माने गये हैं
जनेता चोपनेता च यश्च विद्यां प्रयच्छति ।
अन्नदाता भयनाता पंचते पितरः स्मृताः ॥ ये पांच पिता कहे गये हैं-(१) जन्मदाता पिता, (२) पालक या अभिभावक पिता, (३) विद्यादाता, (४) अन्नदाता और (५) भयत्राता। योग्य शिष्य गुरु के गौरव को बढ़ाते हैं
प्रस्तुत सन्दर्भ में अध्यात्मविद्या-प्रदाता पिता के रूप में गुरु है, जो अपने शिष्य को पुत्र की तरह शिक्षण-प्रशिक्षण देकर तैयार करता है।
सच्चा गुरु पितृहृदय रखकर अपने शिष्यों को कितना तैयार कर देता है ? गुरु के उपदेश का योग्य शिष्यों के जीवन पर कैसा प्रभाव पड़ता है ? यह साकेत (रामायण) में वर्णित एक प्रसंग से समझिए -
चित्रकूट में राम-भरत मिलन का अद्भुत भव्य दृश्य । भरत राम से आग्रह कर रहे थे-वापस अयोध्या चलकर राज्य संभालने का और राम भरत को शासक बनाने पर कटिबद्ध थे। दोनों में से कोई भी एक दूसरे की बात मानने को तैयार न था। लक्ष्मण और शत्रुघ्न हतप्रभ-से खड़े थे । ऋषिगण भाइयों की इस त्यागवृत्ति और निःस्पृहता के देख कर मन ही मन प्रफुल्लित हो रहे थे। तभी हंसकर ऋषि जाबाल ने कहा-“मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ कि जिस राज्य के लिए लोग पितृवध तक करने में संकोच नहीं करते, उसी राज्य को देने के लिए द्वन्द्व हो रहा है, देने को दोनों भाई तैयार हैं, पर लेने को कोई नहीं।"
ऋषि जावाल के ये वचन सुनकर भरत ने कहा-"ऋषिवर ! आप जैसे गुरुमों की हमें यही शिक्षा मिली है कि नश्वर राज्य लक्ष्मी के लिए क्षुद्रपुरुष ही जघन्य कृत्य करते हैं, जिनका कुल निम्न होता है, जिन्हें गुरुओं की उचित शिक्षा नहीं मिलती, वे ही राज्य प्राप्ति को अपना लक्ष्य मानते हैं।"
_जाबाल ने वशिष्ठ ऋषि की ओर मुस्करा कर देखा। इस मुस्कराहट का अर्थ वे समझ गये। वे भी खिलखिलाकर हंसे और बोले
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