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________________ १४६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ इसी अवसर पर श्रुतजलधि नामक आचार्यं अपनी शिष्य मण्डली सहित पधारे। राजा ने उनकी देशना सुनी और भुवनानन्द कुमार को राजपाट सौंपकर दीक्षा ली । चम्पकमाला ने भी अपने पुत्र को धर्मपुनीत उपदेश देकर आनन्दश्री आर्या के पास भागवती दीक्षा ले ली। उसके साथ अनेक रानियों ने भी दीक्षा ली । यों अरिकेसरी राजर्षि और चम्पकमाला साध्वी ने क्रमशः घातीकर्म क्षय करके मोह समुद्र पार करके केवलज्ञान पाया और अन्त में दोनों मुक्ति को प्राप्त हुए । बन्धुओ ! यह है देव, गुरु और धर्म के प्रति दृढ़श्रद्धारूप बोधिलाभ के लिए सांसारिक प्रलोभनों और आकर्षणों का तुच्छ लाभ छोड़ने का चम्पकमाला का ज्वलन्त उदाहरण ! देखिये अमृतकाव्य संग्रह में बोधिबीज का महत्त्व - पामिवो सुलभ जग, पुद्गलजनित सुख, दुरलभ एक बोधिबीज समकित है । बिन क्रिया सब, अंक बिन शून्य सम छार पर लीपन ज्यों जानिये अहित है || ये ही भव बास ते निकासी शिव - वासी करे, हरे दुःखदोष भरे कोष निज वित्त है । भाई शुद्ध भावना यों ऋषभजिनन्दनन्द, पाए अमीरिख शिव सम्पत्ति अमित हैं || भावार्थ स्पष्ट है । इससे व्यवहार सम्यक्त्व (बोधि ) लाभ की महत्ता और दुर्लभता का अनुमान लगा सकते हैं । इसमें भी श्रद्धा के दीप को अखण्ड प्रज्वलित रखना बहुत कठिन है । कितनी ही कसौटी, अग्नि परीक्षा तथा एवं कष्टों के उतार-चढ़ाव की घाटियों में से गुजरना पड़ता है, तब कहीं सम्यक्त्वरत्न सुरक्षित रहता है । सम्यक्त्व को निर्दोष एवं निःशल्य रखने के लिए तथा उसका उत्तरोत्तर विकास करने के लिए इसके आठ अंगों का पालन करना आवश्यक है । 'आठ अंग ये हैं - ( १ ) निःशंकता, (२) निष्कांक्षता, (३) निर्विचित्किसा, (४) अमूढदृष्टि, (५) उपबृंहण, (६) स्थिरीकरण ( ७ ) वात्सल्य (८) प्रभावना । इन सब के अर्थ आप जानते ही हैं । जिसे सम्यक्त्व प्राणों से भी बढ़कर प्रिय है, बाह्य अमृत से भी बढ़कर आभ्यन्तर अमृत - सम है । इस लाभ को पाकर यों ही फेंक देना कितनी मूढ़ता है। योगीराज आनन्दघनजी सम्यक्त्व -लाभ की परम मस्ती में गाते हैं— अब हम अमर भए न मरेंगे । या कारण मिथ्यात्व दियो तज, क्योंकर देह धरेंगे ? ध्रुव ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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