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________________ बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं-२ १४५ ऐसा कार्य न करें । दयावान् पुरुष का यह काम नहीं है। लोगों के समक्ष अपने पापकर्मों को प्रकट करना कितना दुष्कर है, जिसे यह परिव्राजिका कर रही है, दूसरों को बचाने के लिए यह अपना प्राणत्याग करने को तत्पर है । फिर इसने तो सम्यक्त्व अंगीकार कर लिया है, अतः आपकी सामिक बहन हुई, इसके प्रति वात्सल्य रखना चाहिए।" यों राजा को शान्त करके चम्पकमाला अपने स्थान पर आई। परिवाजिका भी अब नियमित रूप से चम्पकमाला से धर्मश्रवण करने लगी। इधर चम्पकमाला को चूडामणि ग्रन्थ से पता लगा कि राजा की भूतपूर्व पटरानी दुल्लहदेवी अपना प्राणत्याग करना चाहती है तो चम्पकमाला स्वयं उसके पास गई. उसे सान्त्वना दी और धर्मध्यान में दिवस व्यतीत करने को कहा। दुल्लहदेवी ने भी चम्पकमाला के चरणों में नमनकर उसका अत्यन्त आभार माना। राजा भी अब चम्पकमाला के प्रति विशेष प्रीति रखने लगा। उसके परामर्श के अनुसार दान, धर्म, साधर्मी वात्सल्य, धर्मश्रवण, धर्माराधन आदि करने लगा। रानी चम्पकमाला के क्रमशः भुवनानन्द और करसिंह नामक दो पुत्र हुए तथा प्रियंवदा नाम की एक पुत्री हुई। एक दिन अवसर देखकर रानी चम्पकमाला ने राजा से कहा- "स्वामिन् ! अब आपको महापुरुषों के मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।" राजा ने कहा- 'तुम्हारी बात युक्तियुक्त है, परन्तु अभी मोहकर्मवश मैं तुम्हारे मुखकमल के दर्शन का प्यासा हूँ।" रानी— “ऐसा न कहिये । मैं बताऊँ उस प्रकार से अपनी आत्मा को प्रतिबोध दीजिए-'हे आत्मन् ! तू दुर्लभ मनुष्य-जन्म पाकर स्त्री के मोह में पड़कर क्यों हार रहा है ? स्त्री के शरीर में कौन-सी सुन्दरता देख रहा है ? जो इस शरीर के बाहर है उसे अन्दर करें और जो अन्दर है, उसे बाहर कर दें तो इसे कौए, कुत्त चूथें, ऐसा है । फिर स्त्री शरीर में है क्या ? हडडी, मांस, चर्म, रक्त, मल, मूत्र से यह महादुर्गन्धित व घिनौना है ! जैसा तेरा चित्त स्त्री में अनुरक्त है, वैसा ही जैनधर्म में अनुरक्त हो तो उसी भव में संसार का क्षय कर सकता है। स्त्री के प्रति स्नेह विद्युत के समान चंचल है। रे आत्मन् ! अति कठिनता से प्राप्त जिनशासन को क्यों व्यर्थ हार रहा है ? मदोन्मत्त हाथी की तरह क्यों विषयों के बीहड़ वन में भटककर सुशीलता रूपी वनराजि नष्ट कर रहा है ? धिक्कार है, तेरी महानता को ! धर्मामृत पाकर भी हलाहल विषय विष पी रहा है । अज्ञान-मोहवश मारक विषय-सुख को सुख मान रहा है !' इस प्रकार आप आत्मा को समझाकर जन्म-जरा-मृत्युदुःखहारक संवेग - रसायन पीजिए।" चम्पकमाला के वचन सुनकर राजा विरक्त हो गया । चम्पकमाला से कहने लगा-तुमने मुझे मिथ्यात्व के कीचड़ से निकाला, जिससे मुझे सर्वत्र सुख का कारणरूप धर्म प्राप्त हुआ। अब मैं शीघ्र ही स्वपरकल्याण के लिए उद्यम करूंगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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