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________________ १४४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ इधर कारणिक पुरुषों ने आग सुलगाई । उसमें प्रचुर तेल डालते ही आग की लपटें उठने लगीं। कड़ाह चढ़ाया, उसमें ज्योंही उड़द डाले त्यों ही प्रलयकाल की अग्नि के समान विशाल अग्निज्वालाएं भभक उठीं। लपटें आकाश को छूने लगी, महलों के शिखर तड़तड़ करके टूटने लगे। लोगों में भगदड़ मच गई। सर्वत्र लोग हाहकार मचाने लगे । सती से रो-रोकर, भयभीत होकर पुकार करने लगे- "हे माता ! हे सती ! हे देवी ! इस अनाथ नगरी को बचाओ, अविनीत लोगों के प्रति महान् पुरुष उपेक्षा नहीं करते।" इस पर शासनदेवता ने आकाशवाणी की-“यह तो बहुत थोड़ा है । तुम लोगों ने चन्द्रकला के समान निर्मलचरित्र स्त्री की बदनामी की, उसका फल तो भोगना ही पड़ेगा । तुम सब अपनी आत्मा के शत्रु बने हो।" _यह कोलाहल सुनकर राजा बोला-“रानी ! तुम्हारा शील स्फटिक-सम उज्ज्वल है, उस पर मूढ़ लोगों ने कलंक चढ़ाया, उसी पापरूप वृक्ष का फल भोग रहे हैं। अब तो तुम्हारी कृपा के सिवाय और कोई शरण नहीं है।" यह सुनकर रानी चम्पकमाला ने कहा-“यदि अरिकेसरी राजा के सिवाय और कोई पुरुष मेरे मन में न बसा हो तो यह अग्नि बुझ जाये तथा ये सभी लोग जो जलने से घबरा रहे हैं, वे स्वस्थ हों।" यों कहते ही शासनदेवता ने ऐसा ही किया। जो देवता कुतूहलवश भक्तिभाववश आये थे, उन्होंने भी रानी का जय-जयकार किया। पुष्पवृष्टि की, देवदुन्दुभि बजाई । चन्दन की माला के तोरण बंधाए । आबालवृद्ध हर्षित होकर कहने लगे-चम्पकमाला चिरंजीवी हो । देवों ने उत्सव किया । नगर का अद्भुत कौतुक देखकर भयभीत परिव्राजिका पश्चात्ताप करने लगी'हा ! मैं ही इस अनर्थ का मूल हूँ। अतः अब तो मरण ही श्रेयस्कर है । मैं इस भयंकर पाप को करने वाली हूँ। मुझे अपने पाप का फल अप्रतिष्ठान नरक में भोगना पड़ेगा।' यों सोचकर वह अग्नि-परीक्षास्थल पर आई और दोनों भुजाएं ऊंची करके कहने लगी-“मैं महापापिनी दुश्चरित्रा हूँ। मुझे जो कुछ दण्ड देना चाहें, दें। जिनशासन की जय हो, महासती की जय हो, जिनके प्रताप से प्रत्यक्ष दिव्य चमत्कार हुआ।" यों कहकर चम्पकमाला के चरणों में पड़कर कहने लगी-“देवी ! आपका शील विजयी हो। आप सम्यक्त्व में दृढ़ हैं। आज से आपकी कृपा से मुझे भी सम्यक्त्व प्राप्त हो गया। आपके जो देव, गुरु और धर्म हैं, वे ही मेरे रहेंगे।" यों सम्यक्त्व ग्रहण करके उसने चम्पकमाला पर चढ़ाए हुए कलंक के सम्बन्ध में अपना अपराध स्वीकार किया। राजा ने जब उससे पूछा कि 'तुम्हें यह दुष्कृत्य क्यों करना पड़ा ?' तो उसने कहा-"मैंने चम्पकमाला को नीचा दिखाने के लिए ऐसा किया था। मैं ही कूट-कपट की खान हूँ। जो भी दण्ड दें, मैं भोगने को तैयार हूँ।" राजा ने जब सुभटों को पापिनी परिवाजिका पर गर्मागर्म तेल छींटने को कहा और सुभट इसके लिए उद्यत हुए तो चम्पकमाला ने राजा को रोकते हुए कहा-"स्वामिन् ! रोको, रोको इन्हें । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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