SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं-२ १४३ तत्पश्चात् ज्यों ही राजा ने रानी चम्पकमाला के आवास भवन में प्रवेश किया त्यों ही विद्या ने वहाँ एक पुरुष दिखाया। राजा उसे गौर से देखने लगा, इतने में ही वह पुरुष अदृश्य हो गया। राजा सहसा विस्मित होकर सोचने लगा-'मालूम होता है, इसके रूप पर मोहित किसी विद्याधर के द्वारा प्रार्थना करने पर इसने उसे स्वीकार कर लिया है। धिक्कार है स्त्री-स्वभाव को! स्त्री को किसी भी तरह वश में नहीं किया जा सकता । जिन-प्रवचन में अनुरक्त, निर्मल कुलोत्पन्न, धैर्यधारिणी स्त्री भी जब कुशील-सेवन करती है, तब दूसरी स्त्रियों की तो बात ही क्या ।' अतः राजा चम्पकमाला रानी से विरक्त होकर सोचता है-'यह अब भोगयोग्य तो नहीं है, किन्तु इसने मुझे जैनधर्म प्राप्त कराकर महान् उपकार किया है, उसका प्रत्युपकार लाखों जन्मों तक नहीं किया जा सकता, अतः इसके साथ प्रतिदिन वार्तालाप तो करना, परन्तु सहवास नहीं।' यों राजा अब प्रतिदिन अनमना-सा होकर रानी चम्पकमाला के पास जाता है, थोड़ी बहुत इधर-उधर की बातें करता है, कुछ क्षण शय्या पर बैठता है और वापस लौट आता है, सहवास की बात तक नहीं करता। रानी ने राजा के मन्दस्नेही होने के कारण का चूड़ामणि ग्रन्थ से पता लगाया तो मालूम हुआ कि यह सब उस परिव्राजिका की करतूत है, फिर भी उसने परिवाजिका पर लेशमात्र भी क्षोभ नहीं किया—'अपने ही भोगान्तराय कर्म ६ महीने तक हैं। यह बेचारी तो उन कर्मों को भुगवाने में निमित्त बनी है। फिर इसमें अन्तराय ही क्या है ? अज्ञानी जीव मोहवश अनादिकाल से विषयभोग में रचा-पचा रहता है । मुझे अनायास ही धर्माचरण का अवसर मिला है, इसलिए मुझे धर्म में पुरुषार्थ करना चाहिए । धर्म ही समस्त सुखों का कारण है।' यों सोचकर वह विशेषरूप से धर्म क्रियाएं व धर्मध्यान करती हुई समय व्यतीत करने लगी। महद्धिक आदि दासियों ने उसके प्रति राजा के निःस्नेह होने का कारण पूछा तो उसने विषयभोगों से सहज विरक्ति की बात समझाई। एक दिन राजा से चम्पकमाला रानी ने कहा-'हे नरचूड़ामणि, आप कितने गुणग्राही हैं कि आपने प्रत्यक्ष दोष देखकर भी मेरे प्रति इतना स्नेह रखा; और भोग का परित्याग कर दिया । चूड़ामणि ग्रन्थ के आधार से मैंने जान लिया कि आपने मेरे शयनकक्ष में एक पुरुष को देखा, संसार में मेरी अपकीर्ति हुई। अतः आप लोक प्रतीति कराने हेतु, मेरी कोई कठोर अग्नि परीक्षा करवाइये । जिससे मेरा अपयश दूर हो।" राजा ने परिजनों तथा पौरजनों के समक्ष रानी के अपवाद का जिक्र किया, साथ ही अग्निपरीक्षा का भी। पौरजनों ने कहा-“पामरजनों के कहने मात्र से ऐसा न कीजिए।" राजा ने कहा-"किस-किसका मुह बन्द किया जाये । अतः अग्निपरीक्षा से वह शुद्ध हो जाये तो अच्छा है।" अतः राजा ने रानी को बुलाने भेजा । वह भी पौषध पार कर विधिपूर्वक जाप करके शिविकारूढ़ होकर दिव्य स्थान पर आई । सारा अन्तःपुर तथा पौर-नर-नारीगण रानी की अग्निपरीक्षा देखने के लिए वहाँ जमा हो गये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy