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________________ ऋषि और देव को समान मानो ३११ नहीं, परन्तु अधिकांश विरोध में था कि शास्त्र छापे नहीं जाने चाहिए। छापे जाने शास्त्रीय ज्ञान के पर शास्त्रों की आशातना होगी आदि-आदि; किन्तु आचार्यश्री • व्यापक प्रचार का महालाभ सोचकर विरोध की परवाह न करते हुए बत्तीस शास्त्रों के हिन्दी अनुवाद का बीड़ा उठाया और शीघ्र ही उसे कार्यान्वित कर दिखाया । सेठ ज्वालाप्रसादजी ने ३२ ही शास्त्रों को प्रकाशित करवाया और इस प्रकार पूज्य • अमोलक ऋषिजी महाराज की दूरदर्शिता ने काल के प्रभाव पर विजय प्राप्त की । ऋषि : आत्मानुभूति के मार्गदर्शक राजा जनक को अध्यात्म विद्या का ज्ञान तो ऋषि पंचशिख से हो चुका था, किन्तु वे आत्मानुभव नहीं कर सके थे । आत्मानुभव की उन्हें तीव्र उत्कष्ठा थी । अतः घोषणा कराई - घोड़े की रकाब में पैर रखकर घोड़े पर सवार होने जितने समय में जो मुझे आत्मानुभव करा दे, उसे मैं अपना गुरु मान लूंगा ।" अनेक ऋषियों के हृदय में राजा जनक के गुरु बनने की इच्छा हुई, पर इतने थोड़े समय में आत्मानुभव कराने की शर्त असम्भव मानकर चुप हो गये । ऋषि अष्टावक्र ने यह बीड़ा उठाया । राजा जनक ने अश्व मँगाया और बोले – “मैं अपना पैर घोड़े की रकाब में रखता हूँ, आप आत्मानुभव काराएँ । कुछ ?" अष्टावक्र – “ ठहरो राजन् ! पहले गुरु-दक्षिणा दो ।" जनक - "माँगिये गुरुदेव ! क्या दक्षिणा चाहिये आपको ? धन, गाएँ या और अष्टावक्र -"मुझे न धन चाहिये न और कुछ, मुझे तो आपके मन, वचन, काया तीनों गुरुदक्षिणा में चाहिए ।" राजा जनक चकित होकर कहने लगे--"यह तो बड़ी कठिन गुरुदक्षिणा है ।" अष्टावक्र - " आत्मा का अनुभव भी तो बड़ा कठिन है ।" राजा जनक - " पर मेरे सांसारिक व्यवहार फिर कैसे चलेंगे ?" अष्टावक्र - " आत्मानुभव के बाद आप अपने मन-वचन-काया का उपयोग कर सकोगे । मैं तुम्हें स्वतन्त्र कर दूंगा ।" इस बात पर राजा जनक तैयार हो गये । ज्योंही वे अश्व पर सवार होने को तैयार हुए ऋषि अष्टावक्र ने रोका - " ठहरो नरेश ! आप शरीर गुरु-दक्षिणा में दे चुके हैं, रंचमात्र भी न हिलिये, स्थिर खड़े रहिये । राजा स्थिर खड़ा हो गया । तब कहा - " अब एक भी शब्द बोलने की इजाजत नहीं है । मौन होकर बाणी को अबरुद्ध कर दो ।" 1 राजा ने वाणी को भी रोक लिया। अब वह मन से चिन्तन करने लगा तो ऋषि ने फिर टोका - " मन का व्यापार बन्द करिये। मेरी आज्ञा बिना कुछ भी सोच नहीं सकते ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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