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आनन्द प्रवचन : भाग ११
ऋषि, मुनि, संन्यासी एवं साधु के लिए तो सारा विश्व कुटुम्ब बन जाता है । अब मेरे लिए तो सभी सरीखे हैं। इस भारत देश में मेरे गृहस्थपक्षीय संतान की अपेक्षा भी अधिक गरीब रहते हैं, आप कहिए, उन्हें छोड़कर मैं इसे कैसे मदद कर सकता हूँ । आप कहते हैं कि संस्था से मदद दिला दीजिए । परन्तु संस्था तो जनता की मिल्कियत है । मैं तो इस संस्था का एक तुच्छ सेवक हूँ। जो जनता की मिल्कियत के ट्रस्टी हैं, वे संस्था के धन का ऐसा दुरुपयोग नहीं कर सकते । जिस दिन ट्रस्टीगण ऐसी संकीर्णता में डूबकर जनता के धन का दुरुपयोग करेंगे, उस दिन जनता का विश्वास उन पर से उठ जाएगा । जनता के पैसे का मनमाना उपयोग करना जनता के साथ द्रोह करना है ।"
स्वामीजी की बात सुनकर सेवक ने नम्रभाव से अपना तर्क प्रस्तुत किया" स्वामीजी ! आप चाहें तो सब कुछ कर सकते हैं । जब आपने गृह त्याग किया था, तब जो अर्थराशि आप घर से लाये थे, वह सब आपने संस्था को ही सौंपी थी । उस रकम में से आप इसे मदद करिए । "
स्वामीजी ने जरा जोश में आकर कहा - " वाह भाई वाह ! गृहत्याग करते समय मैंने जो रकम साथ में ली थी, वह मेरे हक की थी । हक से अधिक रकम मैंने नहीं ली । सच कहूँ तो आज की शिक्षा से गरीबों का सर्वनाश करने की युक्ति-प्रयुक्ति काही ज्ञान मिलता है, ऐसी शिक्षा के लिए तो मैं किसी को भी कुछ देने में खुश नहीं हूँ । सच्ची शिक्षा प्राप्त करनी हो तो वर्धा आश्रम में जाकर रहें और अध्ययन करके लोकसेवा में लग जाए ।" यों कहकर स्वामीजी अपने कार्य में मग्न हो गए । यह है, ऋषि के द्वारा क्षुद्र स्वार्थ की दृष्टि का त्याग करके सर्वार्थदृष्टि की सतत जागृति ।
ऋषि : त्रिकालाबाधित द्रष्टा
ऋषि किसी जमाने से बँधा हुआ नहीं होता, उस पर काल का प्रतिबन्ध नहीं होता । वह सभी युगों का होता है ।
ऋषि काल की गतिविधि को भलीभाँति जानता है । त्रैकालिक सत्य का वह द्रष्टा है । उसमें काल की गतिविधि को परखकर काल को बदलने की शक्ति है ।
आचार्य पूज्यश्री अमोलक ऋषि महाराज के जीवन की एक घटना लीजिये । स्थानकवासी जैनसम्प्रदाय में अब तक शास्त्र छापने की प्रथा प्रचलित न थी । हस्तलिखित टब्बों के आधार पर शास्त्रवाचन की प्रथा थी । हस्तलिखित शास्त्र सर्वसुलभ नहीं थे । हैदराबाद निवासी सेठ ज्वालाप्रसादजी ने आचार्यश्री ने प्रार्थना की“आपश्री स्थानकवासी सम्प्रदायमान्य ३२ शास्त्रों का शुद्ध हिन्दी में अनुवाद कर देने की कृपा करें । मैं उन्हें छपवाकर सर्वत्र स्थानकवासी जैनसंघों को भेजने का प्रयत्न करूंगा, जिससे शास्त्रज्ञान का प्रचार हो ।"
आचार्यश्री के समक्ष भूतकाल विरोध में खड़ा था, वर्तमानकाल भी पूरा तो
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