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________________ वन्दनीय हैं जो, वे साधु २७१ फिर मैं किनके पास वन्दन करने जाऊँगा ?” यों सोचकर चार घड़ी रात्रि शेष रहते ही राजकुमार मुनि-वन्दनार्थ चल पड़ा । वह थोड़ी-सी दूर चला होगा कि सुगन्धित हवा चलने लगी । आकाश में उज्ज्वल प्रकाश हुआ । गान्धार पर्वत पर जन- कोलाहल सुना तो मन में अत्यन्त हर्षित हुआ । कुछ आगे बढ़ा तो समतल एवं साफ की हुई पृथ्वी मिली । सुगन्धित जल और पुष्प की वृष्टि हो गई थी । देवी-देवों के झुंड के झुंड मिलकर स्तुति कर रहे थे - " अहो ! धन्य हो मुनिवर आपका अवतार ; आपने राग-द्वेष का क्षय किया (घाति) कर्मशत्रुओं की सेना जीती, संसार समुद्र को सुखा दिया ।" ये वचन सुनकर राजकुमार ने विचार किया — गुरुदेव को केवलज्ञान प्राप्त हो गया, प्रतीत होता है । अब ये जन्म-जरा-मृत्यु के दुःखों को काटकर शाश्वत सुख प्राप्त कर रहे हैं । तत्पश्चात् देवों ने सिंहासन की रचना की, जिस पर केवलज्ञानी मुनि विराजमान हुए । अब कुमार को पूरा निश्चय हो गया कि मुनिवर केवलज्ञानी हो चुके हैं। उसने वन्दना की । केवली मुनि ने देशना दी । देव, मानव आदि सब अपनी शंका प्रस्तुत करके समाधान पूछने लगे । राजकुमार ने अपनी शंका व्यक्त की - " भगवन् ! मेरा मित्र विभावसु अकस्मात् मरण-शरण हो चुका । मेरा हृदय उसके वियोग से अत्यन्त दुःखी है । वह मरकर कहाँ गया ? वह अब कहाँ-कहाँ जन्म-मरण करेगा ? सम्यक्त्व कब व कहाँ प्राप्त करेगा, मुक्ति कब प्राप्त करेगा ?" केवली मुनि ने मित्र के जन्मों का समस्त वृत्तान्त बताया कि गणिका के भव में जातिमद करने से वह कुत्ता बना फिर गधा, चाण्डाल- पुत्र, पुत्री, दासीपुत्र, दासीपुत्री, धोबी की पुत्री, धोबी - पुत्र यों अनेक भव करते-करते आनन्द नामक तीर्थकर से मोक्षबीज सम्यक्त्व प्राप्त करेगा । तत्पश्चात् असंख्य भवों में भ्रमण करके गान्धार देश का राजा बनेगा । अमरतेज आचार्य से दीक्षा ग्रहण करेगा । शुद्ध चारित्र पालन करके क्रमशः घातिकर्म क्षय करके केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्त करेगा ।" यह सुनकर राजकुमार को संसार से विरक्ति हो गई, माता-पिता से अनुमति प्राप्त करके इन्द्रदत्त मुनिवर से साधु दीक्षा अंगीकार की । शुद्ध चारित्र पालन करते हुए शास्त्राध्ययन करके गीतार्थ हुए। गुरु ने उन्हें आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया । ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए अनेक शिष्य बनाये । शुद्ध अध्यवसाय से मनः पर्याय ज्ञान उत्पन्न हुआ । क्रमशः मोक्ष प्राप्त किया । यह है, वन्दनीय साधु को वन्दन करने का अनेक गुण- प्राप्ति रूप सुफल ! साधु -वन्दना की अन्तर्गत प्रक्रियाएँ महर्षि गौतम ने उत्तम साधु को वन्दना करने का जो उपदेश दिया है, उसके पीछे एक महान् अर्थ छिपा हुआ है । जैनशास्त्रों में जो गुरुवन्दन का पाठ है, उसमें वन्दना के अन्तर्गत अनेक प्रक्रियाएं बताई गई हैं, और उन सबका समावेश 'मत्थएण वंदा' (मस्तक झुकाकर वन्दना करता हूँ) के अन्तर्गत किया है । वे प्रक्रियाएं क्रमशः इस प्रकार हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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