SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७४. पूछो उन्हीं से, जो पण्डित हों धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं ऐसे जीवन की चर्चा करना चाहूँगा, जो पाण्डित्य-पूर्ण जीवन जीते हैं, जिनसे जीवन की महत्त्वपूर्ण समस्याओं पर पूछा जा सके, समाधान किया जा सके । गौतमकुलक का यह ६०वाँ जीवनसूत्र है । वह इस प्रकार है जे पंडिया ते खलु पुच्छियव्वा - जो पंडित हैं, उनसे ही पूछना चाहिए । पंडित कौन और कैसा होता है ? इस सम्बन्ध में मैं पहले कह चुका हूँ । फिर भी उसके अन्य पहलुओं पर विचार कर लेना आवश्यक है पण्डित शब्द ब्राह्मण अर्थ में रूढ़ यद्यपि पण्डित और विद्वान् शब्द एक ही अर्थ के द्योतक हैं तथापि भारतवर्ष में खासकर हिन्दू समाज में वे दोनों एक अर्थ में प्रचलित नहीं हैं । यहाँ मुख्यरूप से पण्डित केवल विद्वान् को नहीं कहा जाता, अपितु भारत के ब्राह्मण जातीय हर व्यक्ति को पण्डित कहा जाता है, फिर वह चाहे विद्वान् हो या अविद्वान् । ब्राह्मण कुल में जन्मा हुआ निरक्षर व्यक्ति भी पण्डित कहलाता है । कोई ब्राह्मणेतर संस्कृत का विद्वान् हो, तो भी उसे पण्डित कहते हुए वर्ण व्यवस्था - वह भी जन्मना वर्णव्यवस्था के पक्षधर घबराते हैं । हमें इसका प्रत्यक्ष अनुभव है । हमारे पड़ोस में एक ब्राह्मण रहते थे, वे बेचारे अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे । थोड़ा बहुत पूजा-पाठ कर लेते थे । किन्तु उन्हें गाँव के बहुत से लोग कहा करते थे -- पाँव लागू पण्डितजी ! परन्तु कोई ब्राह्मणेतर विद्वान् होता उसे वे लोग अपने संस्कारवश न तो पण्डितजी कहते थे और न ही उन्हें प्रणाम करते । बैंक में एक जैन पण्डितजी का खाता था । चैक भुनाने जब वे जाते तो बैंक का क्लर्क उन्हें पूछता था - " आप तो जैन हैं, पण्डित कैसे हैं ? " यद्यपि संस्कृत मध्यमा उत्तीर्ण हो जा जाने पर पण्डित की उपाधि से उसे अलंकृत किया जाता है । वह अपने नाम के पूर्व पण्डित शब्द लगा सकता है । फिर भी रूढ़ समाज उसे पण्डित कहने से सकुचाता है । काशी में एक डाक्टर साहब जाति से ब्राह्मण थे, वह एक जैन पण्डित को ब्राह्मण जानकर नमस्कार करते थे, पर जब उन्हें पता चला कि वे ( जैन विद्वान् ) जैन हैं, तब उन्होंने नमस्कार करना बन्द कर दिया, शास्त्रीजी कहने लगे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy