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________________ २३८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ ऐसे धार्मिक को आचारांग' में धर्मवेत्ता और ऋजु (सरल) कहा गया है . भगवती सूत्र में ऐसे दृढ़र्मियों के लिए कहा गया है 'धम्मिया, धम्मेण चेव वित्ति कप्पेमाणा....... वे धार्मिक होते हैं, अपनी जीविका भी वे धर्मपूर्वक करते हैं, व्यापार-व्यवसाय में वे कदापि अधर्माचरण नहीं करते । धर्म के लिए अपने प्राण तक न्योछावर करने में उन्हें हिचक नहीं होती। दृढ़र्मियों के ऐतिहासिक उदाहरणों में अर्हन्नक श्रावक, कामदेव श्रावक, हकीकतराय, गुरु तेगबहादुर, जिनदास श्रावक, सुभद्रा सती आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। अर्हन्नक श्रावक को धर्म से विचलित करने के लिए देवता ने बहुत प्रयत्न किया, परन्तु अर्हन्नक ने अपने धर्म को कतई न छोड़ा, न ही अन्तःकरण के किसी कोने में अधर्म को अपनाने या धर्म का त्याग करने को बिलकुल तैयार न हुए । कामदेव श्रावक पर देव ने भयंकर से भयंकर उपसर्ग किये, मगर वे अडिग रहे । सुभद्रा सती को धर्म छोड़ने के लिए उसके पति और ससुर आदि ने खूब कष्ट दिये, परन्तु वह अपने धर्म से न डिगी । जिनदास श्रावक के जब पाँच पुत्र देव के निमित्त से मारे गए, तब भी उसने धर्म नहीं छोड़ा। धार्मिकों का संग एवं सेवा : सुखप्रद इस प्रकार दृढ़र्मियों के सम्पर्क में रहने वाला उनका परिवार भी धर्म पर दृढ़ हो जाता है। उसमें भी सत्यता, ईमानदारी आदि धर्म के संस्कार कूट-कूटकर भर जाते हैं। ऐसा एक भी सच्चा धार्मिक जहाँ होगा, वह अपने आश्रितों को डूबने से बचा देगा, उसके पुण्य प्रभाव से सभी आफतें एक-एक करके दूर हो जाती है । एक धर्मात्मा अनेक पापियों को बचाये रखता है। एक बार २१ व्यक्ति बाग में गये थे, उनमें से एक दृढ़धर्मी धर्मात्मा था, उसको हटाते ही बीसों पर बिजली गिर गई। इसलिए धार्मिकों का सत्संग, उनकी सेवा में निवास, उनका सम्पर्क सदैव सुखदायी होता है। उनकी सेवा में रहने से कष्ट भी कष्ट नहीं प्रतीत होता । उनकी सेवा करने का लाभ तो भाग्य से ही मिलता है । धार्मिकों की सेवा पुण्य का खजाना बढ़ा देती है, जिससे सुख की प्राप्ति अनायास ही होती है । ऐसे धार्मिक दो कोटि के व्यक्ति हो सकते हैं, जो श्रु तचारित्र धर्म का पालन करते-कराते हैं—व्रती श्रावक और महाव्रती साध । इन दोनों में उत्कृष्ट धार्मिक महाव्रती साधुवर्ग है। जिनकी सेवा महाफलदायिनी होती है । इसलिए महर्षि गौतम ने कहा है 'जे धम्मिया ते खलु सेवियव्वा' १. आचारांग ३/१— 'धम्मविऊ उज्ज' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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