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आनन्द प्रवचन : भाग ११
परमात्म-विश्वास बढ़ जाता है कि वह किसी भी स्थिति में चिन्ता नहीं करता कि अब मेरा क्या होगा ? मुझे अन्न, वस्त्र या रहने के लिए मकान मिलेगा या नहीं ? वैसे तो जब से वह गृहादि पर से ममत्व छोड़कर साधु-दीक्षा ले लेता है, तभी से उस महान् आत्मा को भिक्षा करके आहारादि प्राप्त करने का अधिकार मिल ही जाता है । परन्तु उसे यह अधिकार नहीं मिलता कि वह गृहस्थों के यहाँ से बढ़िया-बढ़िया खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने या रहने की सामग्री चाहे या प्राप्त करने की इच्छा करे। न ही गृहस्थों पर दवाब डाले कि मुझे तुम्हें अमुक प्रकार का आहारादि देना ही पड़ेगा, नहीं दोगे तो मैं शाप दे दूंगा अथवा तुम्हारा सम्प्रदाय छोड़ दूंगा अथवा गृहस्थों को यह धमकी दे कि मुझे अमुक-अमुक पदार्थ नहीं दोगे तो नरक में जाओगे, या मरकर पशुपक्षी की योनि में चले जाओगे । जिसने अपना गृहादि छोड़ दिया ऐसे साधु का अपने अनुयायी वर्ग, शरीर, वस्त्र आदि पर से अभी ममत्व नहीं छूटा है; अच्छा खाने-पीने, पहनने और रहने की लालसा को अभी तक मन में संजोये हुए है । वह जैन शास्त्रों की भाषा में त्यागी नहीं है । जैसा कि दशवकालिकसूत्र (२/२) में कहा गया है
वत्थगंधमलंकारं, इत्थीओ सयणाणि य ।
अच्छन्वा जे न भुजंति, न से चाइ ति वुच्चइ ।। -जो साधक स्वाधीन रूप में वस्त्र, सुगन्धित पदार्थ, आभूषण, सुन्दर स्त्रियाँ और शय्यादि अच्छी-अच्छी भोग सामग्री का उपभोग नहीं कर पाता, उसे त्यागी नहीं कहा जा सकता।
. तात्पर्य यह है कि जिस साधक ने एक बार तो सब भोग सामग्री छोड़ दी है, किन्तु जगह-जगह गृहस्थों के यहाँ उन्हें देख-देखकर मन में उनकी प्राप्ति की लालसा करता है, मन ही मन असन्तोष से कुढ़ता रहता है, मगर प्राप्त करना उसके वश की बात नहीं है, वह साधक वास्तव में त्यागी नहीं है। वह त्याग की ओट में अन्दर-अन्दर भोग-वृत्ति का पोषण करता रहता है। परन्तु जिस साधक के अधीन ये उपभोग्य पदार्थ हैं या वह प्राप्त कर सकता है, मगर हृदय से जो उन्हें त्याग देता है वही सच्चा त्यागी है । आगे की गाथा इसी बात को स्पष्ट करती है
जे य कंते पिए भोए लद्ध विपिटिठ कुव्वइ ।
साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ त्ति वुच्चइ ॥ -जो साधक कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ स्वाधीन भोग (भोग सामग्री) प्राप्त होने पर उनकी ओर पीठ कर देता है, उनका हृदय से त्याग कर देता है, वही त्यागी कहलाता है।
___ यहाँ इन भोग्य पदार्थों के त्याग करने का अर्थ केवल छोड़ देना नहीं है, क्योंकि कौन-से ये पदार्थ पकड़े हुए थे, जो इन्हें छोड़ देना है ? इसलिए इसका रहस्यार्थ यह है कि इन पदार्थों के प्रति जो ममत्व या लालसा चिपकी हुई थी, उसको मन से त्यागना ही वस्तुतः त्याग है ।
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