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७६. ममत्वरहित ही दान- पात्र हैं
प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ !
आज मैं ऐसे उत्तम जीवन की झाँकी दिखलाना चाहता हूँ जो ममता-मूर्च्छा से रहित । ऐसा निर्ममत्वपूर्ण जीवन जिस महान् आत्मा का होता है, वही दान का उत्कृष्ट पात्र है । ऐसे निर्ममत्व स्वभावी महान् साधक को दान देकर लाभ उठाना चाहिए । गौतमकुलक का यह ६२वाँ जीवनसूत्र है । इस जीवनसूत्र का संकेत है— जे निम्ममा ते पडिलाभियव्वा
जो ममत्वरहित साधु पुरुष हैं, उन्हें दान देकर लाभ उठाना चाहिए। ममत्वरहित पुरुष कौन हैं, उन्हें दान देने से क्या लाभ है ? दान भी कब, कैसे, किस विधि से और किस वस्तु का देना चाहिए ? आइये, हम इस सम्बन्ध में गहराई से चर्चा कर लें ।
ममत्वरहित कौन और कैसे ?
ममत्व जहाँ होता है, वहाँ निःस्पृहता, त्यागवृत्ति, निरपेक्षता, निराकांक्षता नहीं होती । ममत्व होता है, वहाँ वस्तुओं का संग्रह करने की वृत्ति होती है । उस व्यक्ति को बार-बार अपने द्वारा संगृहीत वस्तु को सहेजकर रखने की, उसकी सुरक्षा की, और कोई चुरा न ले जाये, इस बात की चिन्ता रहती है । अगर वस्तु का वियोग हो गया या वह नष्ट हो गई तो फिर उसके मन में आतं ध्यान - रौद्रध्यान होगा । इसलिए ममत्व ही सारे खुराफातों की जड़ है । जिसके मन-वचन-कर्म में ममत्व नहीं रहेगा, 'मैं' और 'मेरापन ' वस्तु से हट जायेगा, उसे न तो संग्रह करने की चिन्ता रहेगी, न ही सहेजकर रखने की या सुरक्षा की चिन्ता रहेगी। किसी के द्वारा वस्तु के चुरा ले जाने, या वस्तु के नष्ट हो जाने पर भी उसे आर्त्त ध्यान - रौद्रध्यान नहीं होगा, वह अपनी समत्ववृत्ति में लीन रहेगा ।
जब मनुष्य ममत्वरहित हो जाता है तब उसे सिर्फ अपनी ज्ञान-दर्शन- चारित्र की साधना, शुद्धात्मा की आराधना आदि करना ही रहता है । इसके लिए उसे समय भी काफी मिलता है, निश्चिन्तता भी रहती है, क्योंकि जो व्यक्ति ममत्व का त्याग कर देता है, अपने घर-बार, कुटुम्ब - परिवार, जाति-कुल- प्रान्त - भाषा और राष्ट्र के प्रति या धन-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद आदि सबका ममत्व छोड़कर साधुत्व या संन्यास अंगी - कार लेता है, उसे अपने उदर-भरण की या शरीर - निर्वाह की स्वयं चिन्ता नहीं करनी पड़ती है । समाज उसकी स्वतः चिन्ता करने लगता है, उसमें इतना आत्म-विश्वास या
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