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ममत्वरहित ही दान-पात्र हैं
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साधु जब साधुजीवन की दीक्षा लेता है, तब क्या करता है ? घर-बार आदि पदार्थों पर जो ममत्व है, मेरापन है, तथा उसी ममत्व के कारण बार-बार संभालने, सुरक्षा करने, बढ़ाने आदि की चिन्ता लगी रहती है, उन सबका त्याग करता है। वह 'अप्पाणं वोसिरामि' करके शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तुओं के प्रति जो ममत्व है, उसका त्याग करता है, अर्थात् हृदय से इन सब पदार्थों के प्रति ममत्व का त्याग करता है।
जो साधु मन से ममत्व-बुद्धि को नहीं छोड़ता, उसे पद-पद पर जीने का, शरीर का तथा शरीर से सम्बद्ध आहार-वस्त्र आदि का मोह-ममत्व सताया करता है। वह इन्हीं सांसारिक पदार्थों की उधेड़बुन में रचा-पचा रहता है, न तो वह आत्मकल्याण की बात सोच पाता है, और न ही विश्वकल्याण की। मुख से वह भले ही उच्चारण कर ले कि मैं सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् व्यवहार करता हूँ, मैं किसी से कुछ नहीं चाहता, परन्तु पद-पद पर वह इसी ममत्व के जाल में फंसकर अपने देह-गेह, अनुयायी आदि की चिन्ता करता रहता है । उसकी यह चिन्ता तब तक नहीं मिटती और वह आध्यात्मिक विकास भी तब तक नहीं कर पाता, जब तक देहासक्ति में
राजस्थान के संत सुन्दरदासजी ने ठीक ही कहा हैगह तज्यो पुनि नेह तज्यो, पुनि खेह' लगाइके देह संवारी । मेघ सहै सिर सीत सहै, तन धूप सहै जु पंचागनि बारी ॥ भूख सहै, रहि रूख तरै, पर 'सुन्दरदास' समै दुःख भारी। डासन छोड़ि के कासन ऊपर, आसन मारि पै आस न मारी ।।
भावार्थ स्पष्ट है। जो साधु का स्वांग रचकर आशा-तृष्णा को नहीं मारता, उन्हें मन में लिये फिरता है, समझ लो वह अभी तक ममत्व के पिंजरे में बंधा है ।
निर्ममत्व एवं स-ममत्व की पहचान प्रश्न होता है, किसी साधक के मस्तक पर कोई साइनबोर्ड तो लगा हुआ नहीं होता कि यह साधु निर्ममत्व है या स-ममत्व है, फिर इन दोनों की पहचान और विवेक कैसे किया जा सकता है ? मेरो नम्र दृष्टि से स्थूलदृष्टि से इन दोनों की पहचान होनी कठिन है; मुख्यतया दोनों के व्यवहार एवं वृत्ति-प्रवृत्ति पर से ही इनका निर्णय हो सकता है। जो कुछ मन-मस्तिष्क में होता है, वह या तो चेष्टाओं तथा प्रवृत्तियों पर से या व्यवहार पर से ज्ञात हो सकता है। मनुष्य चाहे कितना ही छिपा ले, कितना ही कूट-कपट कर ले या दम्भक्रिया कर ले, आखिर तो उसकी किसी न किसी दिन कलई खुलकर ही रहती है।
बाह्यदृष्टि में कई साधक घर-बार, कुटुम्ब-कबीला, धन-सम्पत्ति आदि का ममत्व
१. राख
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