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________________ ३४४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ करने के लिये उस पर नारियल आदि चढ़ाते हैं, दीपक जलाते हैं, फूल चढ़ाते हैं और ढोंग तथा आडम्बर करते हैं । परन्तु ऐसा करने से अशुभकर्मों का नाश नहीं होता, नही पुण्य प्रबल होता है । फिर भाग्य के द्वार कैसे खुल सकते हैं ? भाग्य के बिना दरिद्रता कैसे दूर हो सकती है ? भाग्य खुलते हैं - दान देने से, जो कुछ भी अपने पास मन, वचन, तन, धन और साधन की शक्ति और क्षमता है, उन्हें निःस्वार्थ भाव से परहित में लगा देने से, अभिमान न करने से, शक्तियों का मद न करने से, चोरी, जुआ आदि दुर्व्यसनों से दूर रहने से तथा फैशन - विलास, व्यर्थ के आमोद-प्रमोद आदि में अत्यधिक खर्च न करने से; न्याय, नीति, ईमानदारी, सत्यता आदि पर चलने से । परन्तु आलसी और अकर्मण्य लोग भाग्य का ताला खोलने की इन चाबियों को न अपनाकर सीधे ही ईश्वर, भगवान या देवी- देवों को मनाने दौड़ते हैं । ऐसा करने से न तो भाग्य ही खुलता है और न ही दरिद्रता दूर होती है । एक पाश्चात्य विचारक Hunter (हंटर ) ने ठीक ही कहा है Idleness travels slowly and poverty soon overtakes him. "आलस्य धीरे-धीरे यात्रा करता है, और दरिद्रता शीघ्र ही उस पर हावी हो जाती है ।" वास्तव में दान आदि करने से तथा नैतिकतायुक्त पुरुषार्थं करने से ही भाग्य खुलते हैं, दरिद्रताजनक अशुभकर्म दूर होते हैं । परन्तु देखा जाये तो आज अधिकांश लोग दरिद्रता का रोना रोते हैं, भाग्य को कोसते रहते हैं, परन्तु वे भाग्य खुलने एवं दरिद्रता को दूर करने के लिये कोई पुरुषार्थं नहीं करना चाहते । अधिकांश लोग फैशन के पुतले बनकर अपना बहुत-साधन फूँक देते हैं । अगर प्रत्येक परिवार में फैशन और विलास का वार्षिक खर्च जोड़ा जाये तो वार्षिक खर्च कम से कम दो हजार रुपये तो होगा ही । फिर सौन्दर्य प्रसाधन एवं तेल, साबुन, सेंट, पाउडर, क्रीम, स्नो आदि का खर्च अतिरिक्त है । इसके अतिरिक्त बढ़िया वस्त्रों, आभूषणों एवं सूटबूट आदि में भी प्रतिवर्ष हजारों रुपये उड़ाये जाते हैं । दुर्व्यसन के नाम पर मद्य, सिगरेट, बीड़ी, तम्बाकू आदि में प्रति परिवार हजारों रुपयों का खर्च है । यह तो प्रत्येक परिवार के खर्च का अनुमानित व्यय का लेखा-जोखा है । यदि सारे भारत का वार्षिक अपव्यय का हिसाब लगाया जाए तो करोड़ों-अरबों तक जा पहुँचेगा । एक ओर तो इतना अपव्यय, दूसरी ओर विवाह, मृत्यु उत्सव आदि कई कुरूढ़ियों में दिखावा तथा प्रदर्शन करके करोड़ों रुपयों का धुंआ भारतवर्ष में किया जाता है । तीसरी ओर मध्यमवर्गीय परिवारों की दयनीय हालत यह है कि कमाने वाले एक दो हैं तो खाने वाले हैं— दस । स्त्रियाँ अक्सर कमाने नहीं जातीं, लड़के-लड़कियाँ आजीविका का कोई काम प्रायः नहीं करते । यही कारण है कि वे दुःख, दुर्भाग्य और दारिद्रय का चक्की में पिसते रहते हैं । ऊपर से कमर-तोड़ महंगाई है, वह भी दरिद्रता की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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