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प्राणिहिंसा से बढ़कर कोई अकार्य नहीं २-दूसरा द्रव्य से भी हिंसा करता है, भाव से भी। ३–तीसरा भाव से हिंसा करता है, द्रव्य से नहीं। ४-चौथा न द्रव्य से हिंसा करता है, न भाव से ।
पूर्वोक्त तीन दृष्टान्त क्रमशः प्रथम, द्वितीय और तृतीय भंग के स्वामी के हैं। चौथा भंग शून्य है।
__एक व्यक्ति मच्छीमार है, वह घर से मछली पकड़ने का जाल लेकर चला है। नदी में जाल डालने पर चाहे वह एक भी मछली न पकड़ सका हो, फिर भी भाव से उसने मछलियों की हिंसा कर दी है, इसलिए वह हिंसा का भागी हो गया, भले ही उसने एक भी मछली न पकड़ी हो या न मारी हो । अथवा एक व्यक्ति ऐसा है जिसने स्वयं हिंसा नहीं की है, दूसरा ही व्यक्ति उसके किसी दुश्मन को मार रहा है, किन्तु जिस समय वह दूसरा व्यक्ति उसके शत्रु को मार रहा है, उस समय वह खड़ा-खड़ा कह रहा है—“अच्छा हुआ, इसको तो ऐसी ही सजा मिलनी चाहिए थी। यह इसी दण्ड के योग्य है।" इसमें मारने वाले को तो फल मिलता ही है, किन्तु जिस व्यक्ति ने बिलकुल प्रहार नहीं किया है, केवल दूसरे के द्वारा की जाने वाली हिंसा का जोरशोर से समर्थन— अनुमोदन करता है इसलिए हिंसा न करने पर भी ऐसा व्यक्ति हिंसा के फल का भागी हो गया।
.. एक अप्रमत्त साधु या वीतरागी साधु हैं, नदी पार करते हैं, किन्तु बहुत ही यतनापूर्वक; फिर भी कई जल-जन्तु उनके पैर के नीचे भाकर (कुचल कर) मर जाते हैं, इतना होने के बावजूद भी उनके हिंसाजन्य पापकर्म का बन्ध नहीं होता और न ही उस हिंसा का फल मिलता है ?'
हिंसा का लक्षण निष्कर्ष यह है कि हिंसा का विशेषतः संकल्पजा हिंसा का जब तक व्यक्ति त्याग नहीं करता, तब तक चाहे वह हिंसा न कर सके, किन्तु हिंसाजन्य पाप तो उसे लगता ही रहेगा। इसीलिए पुरुषार्थ सिद्ध युपाय में बताया गया है कि व्यक्ति बाहर में हिंसा चाहे कर सके या न कर सके, किन्तु अगर क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह आदि के वश हिंसा का परिणाम मन में आ गया तो हिंसा हो जाती है। जैसे—दियासलाई जलती है, तब वह चाहे दूसरों को जला सके या व्यक्ति सावधान हो तो न भी जला सके, परन्तु उसका अपना मुंह तो जल ही जाता है, उसी प्रकार कोई व्यक्ति दूसरों को हानि पहुंचा सके या न पहुँचा सके, दूसरों को मार सके या न मार सके । खुद अपने आप में आत्महिंसा तो कर ही लेता है। जब भी रागादि या कषायादि का भाव उत्पन्न हुआ कि स्वहिंसा हो जाती है ।
१ अविधायापि हिंसा, हिंसाफलभाजनं भवत्येकः ।
कृत्वाप्यपरो हिंसा, हिंसाफलभाजन न स्यात् ॥-पुरु० सि० ५१॥
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