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________________ आनन्द प्रवचन : भाग ११ इसलिए हिंसा से विरत न होना अर्थात्-हिंसा करने का त्याग न करना, तथा हिंसा करने का परिणाम ये दोनों ही हिंसा के रूप हैं। इसीलिए हिंसा का लक्षण तत्त्वार्थसूत्र में बताया गया है ___ 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा' 'मद, विषय, कषाय, निद्रा (असावधानी) एवं विकथा आदि प्रमादयुक्त मनवचन-काया के योग से किसी प्राणी का प्राणघात करना हिंसा है। ___ जहाँ भी व्यक्ति के मन में, वचन में और काया में प्रमाद आया और उसके आश्रित हिंसा करने का परिणाम आया, वहीं हिंसा है। हिंसा के विविध विकल्प इससे पूर्व मैं हिंसा के अनेक विकल्प बता आया हूँ। और भी अनेक विकल्प हैं-हिंसा के । कभी-कभी ऐसा होता है कि तीव्र (क्रूर) परिणामों से एक व्यक्ति के द्वारा की गई थोड़ी-सी हिंसा, विपाक (फलभोग) के समय बहुत अधिक फल देती है, जबकि दसरे व्यक्ति द्वारा मन्द परिणामों से की गई महाहिंसा भी विपाक के समय स्वल्प फल देकर रह जाती है । जैन इतिहासकारों का कहना है कि मैतार्य मुनि ने पूर्वभव में एक काचर को बहुत ही क्रू र भावों से छीला था, जिसके फलस्वरूप मैतार्य मुनि के भव में उन्हें सुनार के द्वारा मरणान्तक यातना भोगनी पड़ी। काचर एकेन्द्रिय वनस्पति है, उसकी हिंसा वैसे तो स्वल्प ही होती है, लेकिन क्रूरतापूर्वक उसे छीला गया था, इसी कारण उस हिंसा का महाफल मैतार्य मुनि को चमड़ी उधड़वाने के रूप में मिला । चेडा महाराज को हल्लविल्लकुमार को न्याय दिलाने तथा शरणागत-सुरक्षा के कारण कोणिक के साथ भयकर युद्ध लड़ना पड़ा, जिसमें एक करोड़ अस्सी लाख मनुष्यों का संहार हुआ। इतने पंचेन्द्रिय मनुष्यों का वध तीव्र कषायवश जान-बूझकर कोई दूसरा करता तो उसकी नरक के सिवाय कोई गति न होती, परन्तु चेडा महाराज को न्यायनीति और धर्म की दृष्टि से वह युद्ध करना पड़ा। युद्ध उन पर लादा व्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृत्तायाम् । नियतां जीवो मा वा, धावत्यग्ने ध्रवं हिंसा ॥४६॥ यस्मात् सकषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् । पश्चात् जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु ॥४७॥ अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥४४॥ हिसायामविरमणं हिंसापरिणमनमपि भवति हिसा। तस्मात् प्रमत्तयोगे प्राणव्यपरोपणं नित्यम् ॥४॥ -पुरुषार्थ सिद्ध युपाय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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