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________________ प्राणिहिंसा से बढ़कर कोई अकार्य नहीं १ गया था। उन्होंने स्वयं चलाकर युद्ध नहीं किया था। इसलिए चेडा राजा को उस महाहिंसा का भी मन्दफल मिला।' दो आदमी एक साथ एक ही प्रकार की हिंसा कर रहे हैं, उनमें से एक के परिणाम अन्यन्त तीव्र (क्रूर) हैं, उसे उसका फल तीव्र मिलता है, जबकि दूसरे के परिणाम मन्द हैं, तो उसे उसका फल मन्द मिलता है। - उदाहरण के तौर पर-दो जल्लाद हैं। उन्हें किसी अपराधी को फाँसी पर चढ़ाने का आदेश मिला। उनमें से एक ने अपना कर्तव्य समझकर अपराधी के प्रति मन में दुर्भाव न लाते हुए मन्दभाव से फांसी लगाने की पूर्व तैयारी की, लेकिन दूसरे ने कर्तव्य भावना को ताक में रखकर अपराधी के प्रति दुर्भाव लाकर ऋ रतापूर्वक फांसी लगाई। दोनों जल्लादों के एक ही हिंसा कार्य में प्रवृत्त होते हुए भी दोनों के भावों में अन्तर होने के कारण दोनों के फल में अन्तर पड़ा। पहले जल्लाद को मन्दभावों के कारण हिंसा का मन्दफल मिला, जबकि दूसरे जल्लाद को तीव्र एवं क्रूर भावों के कारण तीव्रफल ।। इसी प्रकार कई दफा हिंसा करने से पहले ही (हिंसा के भाव आ जाने से) फल मिल जाता है, कई दफा हिंसा की जा रही हो, उस समय तत्काल फल मिलता है, कई दफा हिंसा कर लेने के बाद फल मिलता है, कई बार हिंसा प्रारम्भ करना चाहते हुए भी न करने (कर पाने) पर भी हिंसा के परिणामों के कारण फल मिलता है । इन चारों के क्रमशः उदाहरण लीजिए (१) एक आदमी ने अपने शत्रु को देखकर मन ही मन उसे मार डालने का विचार किया। जब शत्रु नजदीक आया तो उसने मारने के विचार वाले व्यक्ति को देखते ही छुरा निकाल कर उसके पेट में भोंक दिया। वहीं उसका काम तमाम हो गया। यह है हिंसा करने से पहले ही (दूसरे को मारने के दुर्भाव आते ही) स्वयं की हत्या फल मिल जाने का उदाहरण ? (वर्तमान पत्रों में पढ़ी घटनाएँ ।) (२) एक सिक्ख ने बस में चढ़ते समय एक खरगोश को भागते देखा, उसने खरगोश को मारने के लिए छुरा निकाला । ज्यों ही वह खरगोश के छुरा मारने जा रहा था। तभी सहसा छुरा खरगोश के न लगकर उस सिक्ख के अपने हाथ पर पड़ा। हाथ कट गया । खून की धारा बह चली। यह है-हिंसा करते हुए तुरन्त हाथोंहाथ फल मिलने का उदाहरण । .१ एकस्याल्पाहिंसा ददातिकालेफलमनल्पम् । अन्यस्य महाहिसा स्वल्पफला भवति परिपाके ॥५२॥ एकस्य सैव तीवं दिशति फलं सैव मन्दमन्यस्य । ब्रजति सहकारिणोऽपि हिंसा वैचित्र्यमत्र फलकाले ॥५३॥ प्रागेव फलति हिंसा क्रियमाणा फलति, फलति कृतापि च । आरभ्यकर्तुमकृतापि फलति हिंसानुभावेन ॥५४॥ -पुरुषार्थ सिद्ध युपाय www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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