________________
२
आनन्द प्रवचन : भाग ११
हुआ मनुष्य अपनी कुशलता और विशेषता; अपनी मानसिक क्षमता और दक्षता के द्वारा उन बाधाओं को पार करके देर-सबेर अच्छी स्थिति प्राप्त कर लेता है। अपनी आत्मा में निहित शक्तियों, सदगुणों, सद्विचारों एवं सत्प्रयत्नों द्वारा कोई भी मनुष्य बुरी से बुरी परिस्थिति को पार करके ऊंचा उठ सकता है, अपनी आत्मा को उच्च विकसित और श्रेष्ठ बना सकता है। किन्तु जिसकी मनोभूमि निम्न श्रेणी की है, जो दुर्विचारों, दुर्बुद्धि, दुगुणों और दुष्प्रवृत्तियों से ग्रसित है, अगर उसके पास कुबेर जितनी सम्पदा और इन्द्र जैसे ठाठ-बाट और वैभव-विलास होंगे तो भी वह सदात्मा नहीं बन सकेगा। यहीं नहीं, सम्पत्ति और सुख-सामग्री भी उसके पास अधिक दिन नहीं टिक सकेगी, वह नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगी।
इसलिए यह बात निश्चित है कि मनुष्य अपने मन को सुधारे, उन्नत दिशा में पुरुषार्थ करे तो वह अपनी आत्मा को श्रेष्ठ बना सकता है, और वह चाहे तो मन की आदतों को बिगाड़कर, उसका गुलाम बनकर अपनी अच्छी आत्मा को भी दुरात्मा बना सकता है । दूसरे लोग अपना कहना न मानें यह हो सकता है, पर यदि व्यक्ति स्वयं ही अपनी बात को न माने, इसका कारण बहानेबाजी एवं लापरवाही के सिवाय और क्या हो सकता है ? अपनी मान्यताओं को व्यक्ति स्वयं ही कार्यरूप में परिणत न करे तो फिर उसके स्त्री-बच्चों, मित्रों, पड़ोसियों या सारे संसार से यह कैसे आशा रखी जा सकती है कि वे समझेंगे और सुधरेंगे।
बाहर की अस्वच्छता साफ करने में कुछ अड़चनें हों, यह बात समझ में आ सकती है। मगर अपने घर को, अपने मन-मन्दिर को भी साफ-सुथरा न बनाये जा सकने में कौन-सी बहानेबाजी चलेगी ? यह कार्य कोई गुरु या देवता आकर कर देगा, यह सोचना व्यर्थ है । हर व्यक्ति स्वयं को सुधार या बिगाड़ सकता है । दूसरे लोग इस कार्य में कुछ मदद कर सकते हैं लेकिन रोटी खाने, शौच जाने, विद्या पढ़ने आदि की तरह मन को सुधारकर आत्मा को श्रेष्ठ बनाने का प्रयत्न भी उसे स्वयं करना पड़ेगा। एक के बदले दूसरा रोटी खा लिया करे या दूसरा शौच हो आया करे, यह असम्भव है; इसी प्रकार यह भी संभव नहीं है कि दूसरे के वरदान या आशोर्वाद से व्यक्ति की मानसिक अस्वच्छता दूर हो जाये । यह कार्य उसे स्वयं ही करना होगा। इस दृष्टि से मनुष्य अपनी आत्मा को सदात्मा और दुरात्मा बनाने के लिए स्वतंत्र है । एक प्रसिद्ध कवि ने बहुत ही सुन्दर प्रेरणा दी हैं
मेरे मधुवन में आम लगा, फल' खाऊँ कौन मना करता ?
आँगन में गंगा बहती है, उठ न्हाऊँ कौन मना करता ? ॥ ध्रुव ॥ है अचरज इसका ही घर पर, क्यों अपनी नजर नहीं जातो? क्यों सड़े-गले बाजारों के फल' खाने को मति ललचाती ? अपनी निधि पर अपनी प्रभुता, दिखलाऊँ कौन मना करता ? ॥१॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org