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६०. अनवस्थित आत्मा ही दुरात्मा
धर्मप्रेमी बन्धुओ!
आज मैं आध्यात्मिक विषय से सम्बन्धित प्रवचन के सिलसिले में अनवस्थित आत्मा के विषय में चर्चा करूंगा। वास्तव में, अनवस्थित आत्मा जैसे अपना ही
शत्रु होता है, वैसे ही अनवस्थित आत्मा दुरात्मा भी हो जाता है। महर्षि
गौतम ने इस जीवन-सूत्र में पुनः अनवस्थित आत्मा पर बताया है। यह जीवनसूत्र इस प्रकार है
अप्पा दुरप्पा अणवठ्ठियस्स अनवस्थित व्यक्ति की आत्मा ही दुरात्मा हो जाती है । गौतम कुलक का यह ४६वाँ जीवन-सूत्र है । इस सम्बन्ध में आज हम गहराई से विचार करेंगे ।
आत्मा को सदात्मा या दुरात्मा बनाना : अपने हाथ में भारत का प्रत्येक धर्म एवं आस्तिक दर्शन यह बात बहुत जोर-शोर से कह रहा है कि अपनी आत्मा को बनाना और बिगाड़ना प्रत्येक व्यक्ति के हाथ में है। वह चाहे तो आत्मा को भ्रष्ट और दुष्ट बना सकता है और वह चाहे तो आत्मा को उच्च और शिष्ट बना सकता है। किसी व्यक्ति के चेहरे या शरीर को देख कर आप सहसा यह अनुमान नहीं लगा सकते या निश्चित नहीं कह सकते कि कौनसा मानव चोर है और कौन-सा साहूकार; कौन दुरात्मा है, कौन सदात्मा; कौन बेईमान है, कौन ईमानदार; कौन कामी, क्रोधी, कपटी, कुटिल, लोभी या अभिमानी है और कौन शीलवान, क्षमाधारी, सरल, मृदु, सन्तोषी या निरभिमानी, नम्र है ?
मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि आलसी और उत्साही, सद्गुणी और दुगुणी, पापी और पुण्यात्मा, तुच्छ और महान, दुर्जन और सज्जन आदि का जो आकाशपाताल-सा अन्तर मनुष्य-मनुष्य के बीच दिखाई देता है, उसका मुख्य कारण उस व्यक्ति की मानसिक स्थिति ही है। यद्यपि परिस्थितियां भी कुछ हद तक इन भिन्नताओं में सहायक होती हैं, परन्तु उनका प्रभाव पाँच प्रतिशत है, पचानवे प्रतिशत कारण मनुष्य की अच्छी बुरी मनःस्थिति है। बुरी से बुरी-परिस्थितियों में पड़ा
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