SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चुगलखोर का संग बुरा है २१३ चुगलखोर के चक्कर में पड़ने से कैसे गृहस्थाश्रम बिगड़ता है, इसके लिए एक प्राचीन दृष्टान्त सुनिये चन्द्रकान्त सेठ और नर्मदा सेठानी दोनों पति-पत्नी में अच्छा प्रेम था। सेठानी पतिव्रता, सेवाभावी और सरलस्वभावी थी। सेठ चन्द्रकान्त भी अपनी पत्नी के प्रति विश्वस्त और आश्वस्त था, इसलिए उस पर सारी गृहस्थी का भार डाल रखा था। इसी गाँव में मावली नाम की एक बुढ़िया रहती थी। उससे इनका प्रेम देखा न गया। उसने सोचा-किसी तरह से इन दोनों में कलह पैदा करना चाहिए । एक दिन नर्मदा घर में अकेली थी। यही मौका अच्छा समझकर मावली बुढ़िया पहुँची, बोली-“बहन ! क्या कर रही हो?" "बर्तन मांज रही हूँ। कहो कैसे आई, बुढ़िया मां ।" नर्मदा ने कहा । बुढ़िया ने बातें बघारते हुए कहा-“नर्मदा ! गजब हो गया। तुम जैसी सुलक्षणा, कुलीन एवं सुशील लड़की को तुम्हारे माता-पिता ने डुबो दिया।" ___ नर्मदा-'कहो, क्या हो गया ? कुछ कहो तो सही।" मावली-'जिस पति के साथ तुम्हारी शादी की गई है, पता है, वह किस जाति का है ?" नर्मदा-“वह महाजन है।" मावली-“फूट गये भाग्य ! तुम्हें अभी तक पता ही नहीं है ? वह तो खारिया है, जाति का खारिया ! तुम्हारे पिता ने जरा-सा भी विचार नहीं किया। हाय ! अब क्या हो ?" नर्मदा- "अरे बुढ़िया मां ! यह क्या बकती हो?" मावली-“मैं बकती नहीं हूँ। सच्ची बात कहती हूँ। अगर मेरी बात पर तुम्हें विश्वास न हो तो तुम खुद परीक्षा करके देख लो। तुम इसका शरीर चाटना, अगर खारा लगे तो समझना कि खारिया है। हाथ कंगन को आरसी क्या ?" यों मावली बुढ़िया कान में जहर उगलकर चल दी। बुढ़िया की बात पर नर्मदा को पक्का विश्वास हो गया । बुढ़िया अब वहाँ से सेठ चन्द्रकान्त के पास जा रही थी। संयोगवश सेठ उसे रास्ते में ही मिल गये । बुढ़िया ने उनसे पूछा- “सेठ ! कहाँ जा रहे हो ?" चन्द्रकान्त-“यही घर की ओर जा रहा था बुढ़िया मां ! तुम कहाँ चली ?" मावली-“यों ही तुम्हारी तरफ आरही थी।" चन्द्रकान्त-"क्यों, कुछ कहना था ?" मावली ने पहले तो टालमटूल की फिर सेठ ने आग्रहपूर्वक पूछा-"कुछ तो काम होगा, बुढ़िया मां ! निःसंकोच बताओ न !' मावली-"बस, तुमसे ही अकेले में कुछ कहना था । बात यह थी कि मुझे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy