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प्रमराग से बढ़कर कोई बन्धन नहीं
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गान्धारी के दिमाग में नहीं आये । उसकी तीव्रतम अभिलाषा आम खाने की हो रही थी । कहते हैं— श्रीकृष्णजी उस समय पास ही खड़े थे, उन्होंने गान्धारी का यह झूठा पुत्र-प्र ेम का नाटक देखा तो वे हँसी को रोक न सके । श्रीकृष्ण का उन्मुक्त हास्य जब सुनाई दिया तब गान्धारी को अपना भान हुआ । पर अब वह बोले भी क्या ? वह अपने प्राणप्रिय नौनिहालों की छाती पर जो खड़ी थी ।
यह है — पुत्रों के प्रति माता के प्र ेमराग के नाटक का ज्वलन्त उदाहरण । दाम्पत्य प्र ेममूलक राग : दुःखजनक – कभी-कभी राग दाम्पत्य प्र ेममूलक होता है, कभी होता है किसी भी सुन्दर स्त्री के प्रति कामवासनामूलक अथवा यह किसी स्त्री का अपने पति के प्रति वैसा राग न होकर अपने प्र ेमी के प्रति होता है । बादशाह शाहजहाँ का मुमताजमहल के प्रति ऐसा ही प्र ेमराग था । उसी प्रमराग के नशे में उसने ताजमहल बनवाया । यद्यपि यह दाम्पत्य ममूलक राग था । परन्तु इस प्रेमराग का अन्त दुःखद होता है । ऐसा व्यक्ति अपनी प्रेमिका के वियोग में झूरता रहता है, आर्त्तध्यान करता रहता है । ऐसे राग से पल्ले कुछ नहीं पड़ता, उलटा मन में संक्लेश होता रहता है । जिस पत्नी के प्रति ऐसा राग होता है, उसके चरित्र के प्रति उसका पति सदैव शंकाशील रहता है, और उसके मोह में पागल होकर अपने दैनिक कर्त्तव्यकर्मों को भी भूल जाता है । इसीलिये चाणक्यनीति में कहा गया है—
यस्य स्नेहो भयं तस्य, स्नेहो दुःखस्य भाजनम् । स्नेहमूलानि दुःखानि तत्तं त्यक्त्वा वसेत् सुखम् ॥
- जिसका किसी में स्नेह ( प्र ेमराग) होता है, उसी को भय होता है | अतः स्नेह दुःख का भाजन है । जितने भी दुःख होते हैं, उनके मूल में स्नेह होता है । इसलिये स्नेह को छोड़कर सुख से रहना चाहिए ।"
एक ऐसे ही पत्नी - प्र ेमरागान्ध पति का उदाहरण लीजिए
मुझे आपके बिना
कहा - "हमें तो
एक ठाकुर था । वह अपनी पत्नी पर इतना मुग्ध था कि जब देखो तब अपनी ' पत्नी की लोगों के सामने प्रशंसा किया करता था । उसकी पत्नी भी ठाकुर के समक्ष यही कहा करती थी - मैं आपके बिना जिन्दा नहीं रह सकती। भोजन जरा भी अच्छा नहीं लगता । ठाकुर के मित्रों ने ठाकुर से लगता है, आपकी पत्नी झूठे प्र ेम का स्वांग करती है । आप एक बार परीक्षा करके देखिये । असलियत सामने आ जायेगी ।" ठाकुर ने एक दिन ठकुराइन के प्र ेम की परीक्षा लेने का विचार किया । ठकुराइन से कहा - " मैं आज घोड़े पर सवार होकर लड़ाई में जा रहा हूँ, मुझे कुछ महीने लग जायेंगे, तुम अच्छी तरह रहना ।" ठकुराइन बोली- “आपके वियोग में मुझे एक-एक दिन काटना भारी पड़ेगा । परन्तु आपको युद्ध में अवश्य जाना है, इसलिए मैं रुकावट भी नहीं डालती, पर जल्दी ही
१. चाणक्यनीति १ / ५
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