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________________ जितात्मा ही शरण और गति-१ २१ विक सुखवृद्धि और स्वावलम्बिता के लिए 'संयम' का पथ बताया। यद्यपि संयम शब्द सुनते ही आप लोग झटपट यही अर्थ लगाने लगते हैं कि साधु जीवन अंगीकार कर लेना, घर-बार, कुटुम्ब-परिवार और धन-सम्पत्ति सब कुछ छोड़कर साधु बन जाना परन्तु संयम का ऐसा संकुचित अर्थ ही नहीं है अपितु उसका व्यापक अर्थ है ब्रह्मचर्य; जिसके अन्तर्गत इन्द्रियों और मन; वासना और विकारों या सभी प्रकार की कामोत्तजना पर नियंत्रण आ जाता है। इसलिए संयम में पुरुषार्थ करने वाला विजितात्मा कहलाता है। कहते हैं, परमाणु शक्ति को धारण करने वाला बम इतनी शक्तिशाली धातु का बना होता है कि बाहरी आघात का उस पर कोई असर नहीं होता है। इतनी कठोर और सुदृढ़ धातु का आवरण उस पर न चढ़ाया जाए तो किसी भी क्षण उसका विस्फोट होने का खतरा रहता है । मनःशक्ति के संगठित होने से आत्मा की चैतन्य शक्ति भी बढ़ती है। इस शक्ति को धारण करने के लिए बलिष्ठ शरीर की आवश्यकता होती है। उपनिषद् के अध्यात्मवादियों ने कहा है "बलवति शरीरे बलवान् आत्मा निवसति" "नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः" -बलवान् शरीर में ही बलवान् आत्मा का निवास होता है। -बलहीन इस आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता। अतः आत्मविजय के साधक को बलिष्ठ शरीर के लिए अपनी शारीरिकमानसिक शक्तियों, आवेगों आदि पर नियंत्रण करना आवश्यक है। एक ओर से शक्ति को सतत तप, संयम, सहिष्णुता के लिए श्रम से, साधना से और एकाग्रता से संचित करना और दूसरी ओर से इन्द्रिय और मन के छिद्रों को विविध विषय-कषायों के बीहड़ में स्वच्छन्द विचरण करने से रोकना अनिवार्य है। इस प्रयत्न और पुरुषार्थ का फल संयम से ही मिलता है । जो अपने आवेगों, आवेशों, वासनाओं और निकृष्ट इच्छाओं को वश में रखता है, वही आत्मविजय का सच्चा अधिकारी है । आवेगों और उत्तेजनाओं को, तथा वासनाओं और विषयासक्ति को निरन्तर काबू में रखने का नाम ही संयम है, उस संयम के लिए पुरुषार्थ करना ही जितात्मा का लक्षण है । आवेग और वासनाएं मन में होती हैं, फिर उनका प्रभाव और प्रतिक्रिया इन्द्रियों पर पड़ती है। इसलिए संयम में पुरुषार्थी को अवांछित बातों और विपरीत परिस्थितियों से सतत जूझने की मानसिक दक्षता होनी चाहिए। ये अनिष्ट बातें उसके मस्तिष्क को उत्तेजित न कर सकें, यही संयम की कसौटी है। भारतीय संस्कृति के उन्नायकों ने संयम में पुरुषार्थ को जीवन का आवश्यक और दुर्लभ अंग बताया है। संयम को हम ब्रह्मचर्य का पर्यायवाची भी कह सकते हैं। वस्तुतः संयम-ब्रह्मचर्य के अभाव में मनुष्य के उत्कृष्ट जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। जिसका जितना अधिक संयम में पराक्रम होगा, उसका व्यक्तित्व उतना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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