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आनन्द प्रवचन : भाग ११
मैं अब क्रमशः प्रत्येक अर्थ पर संक्षेप में अपने विचार प्रस्तुत करूंगा ।
जितात्मा : पुरुषार्थ पर विजयी
यों तो मनुष्य भौतिक क्षेत्र में आज अथक पुरुषार्थं कर रहा है । भौतिक विज्ञान आज एक से एक बढ़कर नित नये आविष्कारों के सम्बन्ध में पुरुषार्यरत है । पाश्चात्य देश भौतिक प्रयत्न की दौड़ में आज सबसे आगे हैं । भारतवर्ष भी पश्चिम का अनुकरण करके इस दिशा में काफी गति प्रगति कर रहा है । परन्तु भौतिक क्षेत्र में पुरुषार्थ करने वाले व्यक्ति को यहाँ जितात्मा नहीं कहा गया है। यहाँ तो उसी पुरुषार्थ का या यत्न का स्वीकार किया गया है, जो आध्यात्मिक क्षेत्रीय हो; यहाँ पुरुषार्थजयी या प्रयत्नजयी उसे ही कहा गया है, जो आत्मसंयम में पुरुषार्थ करने से पीछे न हटता हो, अनवरत अथक प्रयत्न उसी दिशा में करता हो, बन्धन ( कर्मबन्धन) से मुक्त होने (मोक्ष पाने) के पुरुषार्थं में सतत रत हो। जिसके सामने आलस्य, अकर्मयता, पुरुषार्थहीनता, परमुखापेक्षिता या पराश्रयता एक क्षण भी टिक न सकती हो, संयम में पुरुषार्थ करने में वह अपने मन, वचन और तन तीनों को एकजुट करके पूरी शक्ति से जुटा हुआ हो संयमलक्षी पुरुषार्थ में वह कदापि बहानेबाजी, टालमटूल, कालक्षेप, या उपेक्षा न करता हो; बल्कि नई-नई स्फुरणा से वह अदम्य उत्साह, दृढ़ मनोबल, अविचल धैर्य, स्पष्ट सम्यग्दर्शन, अमिट विश्वास, अटूट साहस एवं परिपक्व विचारों का पाथेय लेकर अभीष्ट ध्येय की ओर सतत गतिशील रहता हो । इस पुरुषार्थ के मार्ग में आने वाले विघ्नों, संकटों, बाधाओं, असुविधाओं, भय और प्रलोभनों के आक्रमणों से वह कभी न घबराता हो । इस अनुपम पुरुषार्थ से वह कभी थकता न हो, न ऊबता हो, और न ही श्रद्धाहीन होकर, या फल प्राप्ति न होने से यथार्थ श्रय मार्ग छोड़कर लुभावना प्रोय-मार्ग पकड़ता हो । अविद्या उसे बहका नहीं सकती, विघ्नबाधाएं उसे रोक नहीं सकती । वह अपने लक्ष्यानुकूल मार्ग पर सतत यात्रा करता रहता है । यही उसकी पुरुषार्थजयिता का प्रमाण है; यही उस पुरुषार्थविजेता, यत्नविजयी की पहचान है । ऐसे विजितात्मा संयम में पुरुषार्थ के इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि उनके प्रत्येक श्वासोच्छ्वास में स्वतः ही संयम का स्वर निकलता है ।
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श्रमण भगवान् महावीर इस प्रकार के अप्रतिम पुरुषार्थी एवं सतत जागरूक रहकर अनायास ही संयम में पराक्रम करते थे। जब वे लाढ देश जैसे अनार्य एवं कठोर प्रदेश में गये, तब उनके संयम पालन के पुरुषार्थ में अनेकानेक विघ्न-बाधाएँ आईं, बहुत-सी यातनाएं, परीषह और उपसर्ग की सेनाएं उन पर हमला करने आईं, किन्तु वे उनसे जरा भी विचलित हुए बिना आत्मजयी बनकर टिके रहे ।
संयम में पुरुषार्थं करने वाले जितने भी महामनीषी संसार में आये, उन्होंने अपनी सुख-सुविधाओं की कोई परवाह नहीं की । सुख-सुविधाएं बढ़ाने से सुख नहीं कढ़ता, बल्कि नई-नई चिन्ताएं, समस्याएं और आफतें खड़ी होती है, मनुष्य को हर बात में परावलम्बी और परमुखापेक्षी बनना पड़ता है । इसीलिए तीर्थंकरों ने वास्त
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