________________
३२०
आनन्द प्रवचन : भाग ११
दौड़ाता हुआ उधर से गुजरा । घोड़े को तेज दौड़ता देख बच्चे और स्त्रियाँ भयभीत होकर मार्ग से हटकर एक ओर हो गये। कनकमंजरी भी डरकर एक ओर किसी दीवार से सटकर खड़ी हो गई। घुड़सवार की इस लापरवाही पर कनकमंजरी को मन ही मन बहुत रोष आया, पर वह कर क्या सकती थी?
भोजन लेकर जब वह पिता के पास पहुँची । पिता ने अपना काम बन्द करके कूची एक ओर रखी और कहा-"बेटी ! मैं जरा शरीर-चिन्ता से निवृत्त होकर आता हूँ, उतने तू इस चित्र को बारीकी से देख ।"
पिता की इस अदूरदर्शिता पर कनकमंजरी मन ही मन बहुत झं झलाई, पर चुप रही। चित्रकार लोटा लेकर बाहर गया कि पीछे से कनकमंजरी ने उसी भींत पर तूलिका से 'मयूरपिच्छ' का चित्र बनाया। रंगों की मोहकता और कला की चतुरता ने मयूरपिच्छ में मानो जान डाल दी। दूर से वह मयूरपिच्छ ऐसा लगने लगा, मानो वह हूबहू मयूरपिच्छ हो।
उधर से चित्रशाला का निरीक्षण करता-करता राजा भी कक्ष में आ पहुँचा, जहाँ मयूरपिच्छ चित्रित था। राजा ने दूर से ही मयूरपिच्छ को देखा तो ऐसा लगा कि सचमुच मोर की पांख ही रखी हो । राजा ने उसे उठाने के लिए ज्यों ही हाथ बढ़ाया, त्यों ही राजा का हाथ भींत से टकराकर रह गया, राजा को अपने दृष्टिभ्रम पर बहुत लज्जा आई । राजा के इस अज्ञानपूर्ण आचरण पर कनकमंजरी जोर से हंस पड़ी-“मेरी खाट के चारों पाये पूरे हो गये।"
कनकमंजरी के उपहास पर राजा मन ही मन अपमानित-सा लज्जित-सा महसूस करने लगा। साथ ही 'खाट के चारों पाये पूरे हो गये' इस वाक्य से वह अत्यधिक विस्मित भी हो रहा था। राजा ने उससे पूछा-“भद्र ! क्या मैं पूछ सकता हूँ कि तुम्हारी खाट के चार पाये कौन-कौन से हैं और कैसे पूरे हो गये ?"
कन्या मुक्त हास्य बिखेरती हुई बोली-"हाँ, हाँ, आपने जब पूछ ही लिया तो मैं भी बताये देती हूँ कि मेरी खाट के चार पाये कौन-कौन-से हैं ? सुनिये महाराज ! मैंने इस संसार में चार विचित्र मूर्ख देखे हैं, वे ही मेरी खाट के चार पाये हैं।"
राजा ने पूछा-"कौन-कौन-से ?"
कनकमंजरी-“पहला मूर्ख यहां का राजा है, जिसने युवा और वृद्ध चित्रकार की क्षमता को जाने बिना ही सबको एक जितनी भूमि चित्र बनाने के लिए दी है। यह तो सब जानते हैं कि युवा शरीर में जो स्फूर्ति होती है, वह वृद्ध एवं जीर्ण शरीर में कैसे हो सकती है ? युवक अधिक देर तक काम कर सकता है, जबकि वृद्ध थोड़ी देर तक काम करके ही थक जाता है । फिर भी राजा वृद्ध और युवक की स्थिति का विवेक किये बिना दोनों को एक समान भूमि पर चित्र बनाने का समान ही पारिश्रमिक देता है। इसलिए पहला मूर्ख राजा है, जो मेरी खाट का पहला पाया हो गया।"
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org