________________
बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं - २
१४१
रानी चम्पकमाला - विभिन्न धर्म हैं, उनमें से आपको कौन-सा धर्म मान्य है ? अमरगुरु — " आप प्रसंगरहित बात कैसे कह रही हैं ?"
रानी - " मैंने प्रसंगोपात्त बात ही कही है; क्योंकि सभी कलाओं में प्रधान और इहलोक-परलोकसाधक कला तो धर्मकला है ।"
अमरगुरु — “धर्म के सम्बन्ध में क्या विचार करना है ? जिसके पूर्वपुरुष ने जिस धर्म का पालन किया है, वही उसका धर्म समझिये । माता दुःशील है या सुशील, इसका विचार करने से क्या प्रयोजन है ? इसी प्रकार रोगी को औषध से मतलब है, उसे वैद्य से क्या प्रयोजन ? वह चाहे जैसा हो, उससे मतलब नहीं; इसी प्रकार अपने गुरुप्रमुख ने यज्ञप्रमुख धर्म का जैसा प्रतिपादन किया है वही तो हमारे लिए प्रमाण है । दूसरी चिन्ता करने की हमें क्या जरूरत ?”
रानी चम्पकमाला - " आपने जो कुछ कहा, वह आपकी दृष्टि से ठीक होगा; परन्तु आप जैसे पण्डित का इस प्रकार बोलना उचित नहीं । देखिये, धर्म, अर्थ और काम, इन तीन पुरुषार्थों में धर्म परम पुरुषार्थ है; क्योंकि धर्म से ही अर्थ और काम निष्पन्न होते हैं । इस कारण धर्म का विचार तो अवश्य ही करना चाहिए। आपने जो पूर्वपुरुषक्रमागत को धर्म कहा, वह भी युक्तिसंगत नहीं, क्योंकि पूर्वपुरुष दरिद्र या रोगी हों तो क्या उनके पुत्र भी दरिद्रता और बीमारी को पकड़े रहेंगे, छोड़ेंगे नहीं ? इसी प्रकार माता का दृष्टान्त दिया, वह भी युक्तिसंगत नहीं है । माता दुःशील हो और उसका पुत्र उसका त्याग न करे तो वह माता अपने पुत्र को प्रायः मरवा डालती है । औषध का दृष्टांत भी यहाँ अयुक्त है । यहाँ वैद्यस्थानीय गुरु का ग्रहण करना चाहिए । गुरु भी वह, जो रागद्व ेषरहित हो, परमार्थ का ज्ञाता हो । वैसे गुरु तो स्वयं अरिहंत हैं । उनकी आज्ञानुसार चलने वाले, कालोचित यतनापूर्वक विचरण करने वाले, मत्सररहित गुरु सुसाधु (निर्ग्रन्थ) हैं । अथवा रागादि से रहित स्वयं अरिहंत भगवान् देव हैं, उनके जैसा कोई दूसरा देव नहीं है ।"
राजा - " इस विषय में कोई प्रमाण भी है ?"
रानी — जैनशास्त्रों के सिवाय अन्य सभी शास्त्रों में देव का वर्णन जो बताया फिर नई सृष्टि उत्पन्न करते
गया है, वह यों है— पहले वे सृष्टि का संहार करते हैं, हैं, स्त्री पास में रखते हैं, शस्त्र हाथ में धारण करते हैं, जाप के लिए हाथ में माला रखते हैं, इत्यादि; ये सब लक्षण रागद्व ेषयुक्त के हैं । इसलिए वैसे देव वीतराग नहीं हो सकते । "
इत्यादि युक्तियों से चम्पकमाला रानी ने सबको निरुत्तर कर दिया । राजा और अमरगुरु दोनों ने सम्यक्त्व प्राप्त किया । दोनों निश्चल चित्त हुए ।
एक बार अमरगुरु ने दुःस्वप्न देखकर सोचा कि अब मेरी उम्र थोड़ी हीं मालूम होती है | अमरगुरु राजा के साथ रानी चम्पकमाला से इसका निर्णय करने हेतु आये । चम्पकमाला ने कहा- आपकी आयु अब दस महीने की और है । अमरगुरु ने यह
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International