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________________ वन्दनीय साधुः कब और कब नहीं ? २६५. वन्दनीय साधु के स्वभाव की महक २६६. साधुः राष्ट्र का प्राण. राष्ट्ररत्न २६८. वन्दनीय साधु को वन्दन करने का फल-महाविदेह क्षेत्र के विजयसेन राजकुमार का दृष्टान्त २७०. साधु-वन्दना की अन्तर्गत प्रक्रि याएं २७१ । ७६. ममत्वरहित ही दान-पान हैं २७३-२८७ ममत्व रहित कौन और कैसे ? १७३, विवशता का त्याग, त्याग नहीं २७४, स्वक्श त्याग ही त्याग है २६४, निर्ममत्व एवं सममत्व की पहचान २७५, राजर्षि और किसान के त्याग का अन्तरदृष्टान्त २७६, आई हुई भोग्य सामग्री को ठुकराने वाले संत तुकाराम २७६, समत्वधारक हो, वही निर्ममत्व साधु २८१, दान का अधिकारीः अकिंचन साधु २८२, दान का लक्षण २८३, निर्ममत्व अकिंचन साधु की पहचान २८३, निर्ममत्व साधु को दान देने का फल २८४, वसुतेज का दृष्टान्त २८५, सुखविपाक सूत्र आदि में सुपात्र दान का वर्णन २८६ । ७७. पुत्र और शिष्य को समान मानो २८८-३०४ गुरु-पद की सार्थकता २८८, गुरु शब्द का अर्थ २८६, गुरु द्वारा शिष्य का अज्ञानान्धकार मिटाना–दृष्टान्त ८८६, गुरु और शिष्य दोनों निःस्पृह हों, तभी लक्ष्य प्राप्ति २६१, गुरु द्वारा शिष्यों के दोष दूर करना–दृष्टान्त २६२, गुरु-पद के उत्तरदायित्व से दूर २६३, उत्तरदायित्वपूर्ण गुरुओं के लक्षण २६५, आवश्यकता : यथार्थ गुरु की, योग्य शिष्य की २६६, माता-पिता का हृदयः सद्गुरु का सर्वोपरि गुण २६७, गुरु : जीवन का निर्माता कलाकार २६६, योग्य शिष्य गुरु के गौरव को बढ़ाते हैं ३००, योग्य शिष्य गुरु को पुत्र से भी बढ़कर प्रिय १०१, नारद-पर्वत का दृष्टान्त ३०१, गृहस्थ-पुत्र से भी बढ़कर सुयोग्य शिष्य ३०३, शिष्य के प्रति गुरु का व्यवहार ३०४। ७८. ऋषि और देव को समान मानो ३०५-३१७ ऋषि कौन ? ३०५, ऋषि का स्वभाव ३०७, समतायोग ऋषिः जीवन का मूल मंत्र, ऋषिः त्रिकालाबाधित द्रष्टा ३१०, ऋषिः आत्मानुभूति के मार्गदर्शक ३११, ऋषिः पाप-बिशोधक ३१२, ऋषि: बोध-प्राप्ति के केन्द्र ३१३, ऋषि के सात आभूषण (गुण) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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