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________________ १६० आनन्द प्रवचन : भाग ११ बस, तुलसीदास जी को वचन का यह तीर लग गया । वे उलटे पैरों लौट गए । कामभक्त से वे रामभक्त बन गए । यह सच है कि वे अपनी पत्नी पर ही कामान्ध थे, किन्तु कामान्धता के साथ जो पत्नी के पास पहुँचने का उनका संकल्प था, वैसा ही संकल्प परस्त्रीगामी कामान्ध में हुआ करता है । ऐसी भयानक स्थिति में संकल्प पूर्ण होना, अथवा न होना, दोनों बातें भयंकर हैं | पूर्ण होने पर पतन और पाप का कुण्ड है और निष्फल होने पर क्रोध, प्रतिहिंसा, द्वेष और उसके राक्षसी परिणाम ! संकल्प का दूसरा अर्थ है - कल्पनाओं में डूबे रहना । श्रृंगाररसपूर्ण बाहियात उपन्यास पढ़कर, गन्दे सिनेमा, नाटक आदि या वेश्याओं आदि का नृत्य देखकर या अश्लील नारी चित्र देखकर मन में कामचेष्टापूर्ण दृश्यों की कल्पना में निमग्न रहना भी संकल्प है । ७. अध्यवसाय - किसी अप्राप्य स्त्री को प्राप्त करने के लिए पापपूर्ण प्रयत्न करना; संकल्प के अनुसार चेष्टा करना अध्यवसाय है । परस्त्री के प्रति इस प्रकार का अध्यवसाय करने वाले व्यक्ति के ज्ञान, शील, लज्जा और मर्यादा आदि गुणों को फाँसी लग जाती है । इसमें मनुष्य राक्षस बनकर छल से, बल से, युक्ति से, प्रलोभन से, यहाँ तक कि भय दिखाकर पराई नारी को अपने पास बुलाने की पापपूर्ण चेष्टा कर बैठता है । इस पापकार्य में जो भी रोड़े अटकाता है, उसे मार डालने का प्रयत्न किया जाता है। चाहे वह विघ्न डालने वाला उसका लड़का ही क्यों न हो अथवा उस स्त्री का पति या अन्य प्रेमी भी क्यों न हो । पापपूर्ण अध्यवसाय करने वाला व्यक्ति राक्षस-सा बन जाता है, वह हिताहित, कार्य- अकार्य नहीं देखता । मनोनीत परस्त्री को पाने के लिए हर सम्भव चेष्टा करता है । कई प्रेमी अपनी मनोनीत प्रेमिका को पाने में असफल होने पर आत्महत्या भी कर बैठते हैं । कई प्रेमिका के इन्कार करने पर उसे भी गोली का शिकार बना डालते हैं । कई बार परस्त्रीगामी कामुक व्यक्ति अत्यधिक व्यभिचारपूर्ण जीवन व्यतीत करने के बाद जब अत्यन्त शक्तिहीन हो जाते हैं, तब भी परस्त्रीगमन सम्बन्धी कलुषित विचार उनके पापी मानस में मँडराते रहते हैं । परन्तु बुढ़ापे में एक राजा साहब थे । वे अपनी जवानी में बड़े लम्पट थे । उनकी स्वयं व्यभिचार करने की शक्ति खत्म हो चुकी थी । फिर भी कुछ खुशामदी लोग उनके पीछे लगे रहते थे और अपनी तथा पराई बहू-बेटियों को राजासाहब की सेवा में ले आते थे । राजा साहब स्वयं तो कुछ करने योग्य न थे । वे उन स्त्रियों को अपने उन सेवकों को बाँट देते और फिर उन्हें स्वच्छन्दता और निर्लज्जता से व्यभिचार करने की आज्ञा दे देते थे । खुद सामने बैठकर इस तमाशे को देख-देखकर अपनी हवस मिटाते थे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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