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परम आल्हाद है कि महामहिम आचार्य सम्राट राष्ट्रसन्त आनन्द ऋषिजी महाराज ने प्रस्तुत ग्रन्थ रत्न पर मननीय प्रवचन प्रदान कर जन-जन का ध्यान इस ग्रन्थ रत्न की ओर केन्द्रित किया है । आचार्य प्रवर ने अपने 'जीवन की परख' नामक प्रथम प्रवचन में 'गौतम कुलक' ग्रन्थ के सम्बन्ध में बहुत ही विस्तार से विवेचन किया है । जो उनकी बहुश्रुतता का स्पष्ट प्रमाण है ।
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परम श्रद्ध ेय आचार्य सम्राट को कौन नहीं जानता । साक्षर और निरक्षर, बुद्धिमान और बुद्ध, बालक और वृद्ध, युवक और युवतियाँ सभी उनके नाम से परिचित हैं । वे उनके अत्युज्ज्वल व्यक्तित्व और कृत्तित्व की प्रशंसा करते हुए अघाते नहीं हैं । श्रमण संघ के ही नहीं, अपितु स्थानकवासी जैन समाज के वरिष्ठ आचार्य हैं, उनके कुशल नेतृत्व में एक हजार से भी अधिक श्रमण और श्रमणियाँ ज्ञान-दर्शन चारित्र की आराधना कर रहे हैं । लाखों श्रावक और श्राविकाएँ श्रावकाचार की साधना कर अपने जीवन को चमका रहे हैं । वे श्रमणसंघ के द्वितीय पट्टधर हैं । उनका नाम ही आनन्द नहीं अपितु उनका सुमधुर व्यवहार भी आनन्द की साक्षात प्रतिमा है । उनका स्वयं का जीवन तो आनन्द स्वरूप है ही । आप जब कभी भी उनके पास जायेंगे तब उनके दार्शनिक चेहरे पर मधुर मुस्कान अठखेलियाँ करती हुई देखेंगे । वृद्धावस्था के कारण भले ही शरीर कुछ शिथिल हो गया हो किन्तु आत्मतेज पहले से भी अधिक दीप्तिमान है । उनके निकट सम्पर्क में जो भी आता है वह आधि, व्याधि, उपाधि को भूलकर समाधि की सहज अनुभूति करने लगता है, यही कारण है कि उनके परिसर में रात-दिन दर्शनार्थियों का सतत जमघट बना रहता है । दर्शक अपने आपको उनके श्री चरणों में पाकर धन्य - प्रसन्न अनुभव करने लगता है ।
भारतीय साहित्य के किसी महान चिन्तक ने कहा है कि भगवान यदि कोई है तो आनन्द है । 'आनन्दो ब्रह्म इति व्यजानात् ( उपनिषद) मैंने जान लिया है, आनन्द ही ब्रह्म है | आनन्द से ही परमात्म तत्व के दर्शन होते हैं । जब आत्मा परभाव से हटकर आत्म-स्वरूप में रमण करता है तो उसे अपार आनन्द प्राप्त होता है । सच्चा आनन्द कहीं बाहर नहीं, हमारे अन्दर ही विद्यमान है । आचार्य सम्राट अपने प्रवचनों में, वार्तालाप में उसी आनन्द को प्राप्त करने की कुंजी बताते हैं । भूलेभटके जीवनराहियों का सच्चा पथ-प्रदर्शन करते हैं आचार्य सम्राट के प्रवचनों को सुनने का मुझे
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अनेक वार अवसर प्राप्त हुआ
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मानस पर कोई प्रभाव नहीं
है और उनके प्रवचन साहित्य को पढ़ने का सौभाग्य भी मुझे मिला है जिसके आधार से में यह साधिकार कह सकता हूँ कि आचार्य सम्राट एक सफल प्रवक्ता हैं । यों तो प्रत्येक मानव बोलता है, पर उसकी वाणी का दूसरों के पड़ता, पर आचार्य सम्राट जब भी बोलना प्रारम्भ करते हैं तो श्रोतागण मन्त्रमुग्ध हो जाते हैं । श्रोताओं का मन-मस्तिष्क उनकी सुमधुर भावधारा में प्रवाहित होने लगता है । आचार्यप्रवर की वाणी में शान्त रस, करुण रस, हास्य रस, वीर रस की सहज अभिव्यक्ति होती है । उसके लिए आपश्री को प्रयास करने की आवश्य
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