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________________ जो धार्मिक, वे ही सेवापात्र २२५ अपना चौका भ्रष्ट नहीं होने देते । और मांस भी तभी खाता हूँ, जिस दिन शराब पी लेता हूँ, और शिकार खेलकर किसी जीव को मार लाता हूँ।" आगन्तुक-"राम !राम ! शराब भी पीते हो तुम ! तब तो तुम पूरे असुर हो । और शिकार खेलकर निर्दोष पशुओं का वध क्यों करते हो ?" ब्राह्मण-पुत्र—अजी ! शराब भी तभी पीता हूँ, जिस दिन जुए में जीत जाता हूँ। रोज-रोज नहीं पीता । और फिर शराब पीने में कौन-सी बुराई है ? यह तो टॉनिक है । भोजन को पचा देती है ।" आगन्तुक—“हरे-हरे ! जुआ भी खेलते हो, तुम ?' ब्राह्मण-पुत्र- "जुआ तो बिना किसी प्रकार की हिंसा किये, झूठ बोले या चोरी किये बिना धन कमाने का सात्त्विक धंधा है । इसमें क्या बुराई है ? और जुआ भी मैं तभी खेलता हूँ, जब चोरी का माल आ जाता है ?" आगन्तुक—'अरे पापी ! चोरी भी करते हो तुम? यह तो महापाप है।" ब्राह्मण-पुत्र-"चोरी तो बहुत ही आसान धंधा है। जो धनाढ्य लोग कृपणतावश दान नहीं करते, गरीबों की सहायता व सेवा नहीं करते; उन्हें सबक सिखाने तथा गरीबों में धन वितरण करने हेतु ही मैं चोरी करता हूँ। फिर चोरी भी तब करता हूँ, जिस दिन वेश्या के यहाँ जाता हूँ।" आगन्तुक-"अरे पापात्मा ! क्या तू वेश्यागमन भी करता है ?" ब्राह्मण-पुत्र–वेश्या तो सारे नगर की वधू है, यह तो किसी एक के साथ परिणीत नहीं है, जब कभी कामोद्रेक होता है तो वेश्या के यहाँ जाकर शान्त कर आता हूँ। और वेश्या के यहाँ भी तभी जाता हूँ, जब कोई पराई स्त्री मेरे चंगुल में नहीं फँसती।" आगन्तुक-"अरे पातकी ! तू पराई स्त्रियाँ भी ताकता है ? ऐसा पाप करने से तू किस जन्म में छूटेगा ?" ब्राह्मण-पुत्र—“जो परस्त्री, मुझे चाहती हो, मेरे पर मुग्ध हो उसी के साथ संगम करता हूँ, अन्य स्त्री के साथ नहीं । और परस्त्री के पास भी तभी जाता हूँ, जब हराम का पैसा आ जाता है।" आगन्तुक-'तो फिर तुम कहाँ के धर्मात्मा हो? तुम्हारे नखशिख में धर्म का लेश भी नहीं है।" ब्राह्मण-पुत्र-"हम पूरे धार्मिक हैं। देखिए, हम चोटी-जनेऊ रखते हैं, मन्दिर में जाते हैं, आरती करते हैं, पूजा-पाठ करते हैं, अपने चौके में किसी भी अछूत को घुसने नहीं देते।" क्या आपकी अन्तरात्मा ऐसे नकली धार्मिक को धार्मिक कहेगी ? इसी प्रकार कई बार वास्तविक धार्मिक और नकली धार्मिक में अन्तर करना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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