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आनन्द प्रवचन : भाग ११
उस छात्र ने गुरु की कृपा पाकर उनकी आज्ञानुसार इतनी तन्मयता और रुचि से पढ़ना प्रारम्भ किया कि वह पूरे एक सप्ताह तक खाने-पीने और सोने तक की सुध भूल गया। बहुत होता तो कभी थोड़ा-सा दूध वहीं पी लेता तथा बैठे-बैठे ऊंघकर अध्ययन करने लगता। भट्टारकजी सुब्बैया की वृत्ति-प्रवृत्ति का बराबर अध्ययन करते रहे । उसके मनोयोग की उन्होंने मन ही मन बहुत प्रशंसा की। जब देखा कि सप्ताह पूरा होने पर भी सुब्बैया को समय का भान न रहा, तब भटारकजी स्वयं उसके कक्ष में पहुँचे । पर वह ग्रन्थ में इतना डूबा हुआ था कि भट्टारकजी के आगमन को भी न जान पाया। इस प्रकार कुछ देर तक चुपचाप खड़े रहकर भटारकजी बोले-"सुब्बया ! इस ग्रन्थ के अध्ययन की अवधि पूरी हो चुकी । अब यह ग्रन्थ मुझे वापस लौटा दे।" सप्ताह पूरा होने की बात सुनते ही वह हड़बड़ाकर उठा और गुरुजी के चरण छुए। फिर अनिच्छापूर्वक वह ग्रन्थ उसके गुरुजी के हाथ में थमा दिया।
गुरु से अध्ययन करने और स्वयं अध्ययन करने में क्या अन्तर है ? इस बात की गहराई को वे ही जान पाते हैं, जिन्होंने स्वयं किसी ग्रन्थ को पढ़ने के बाद गुरु से उसी ग्रन्थ को पढ़ा हो । स्वयं पढ़कर भी प्रायः व्यक्ति अज्ञानान्धकार में डूबा रहता है, यह सुब्बया के उदाहरण से स्पष्ट प्रतीत होता है ।
भटारकजी ने सुब्बैया के अज्ञानान्धकार को दूर करने की दृष्टि से परीक्षासूचक प्रश्न किया-"वत्स सुब्बैया ! तूने पारद रसायनशास्त्र पूरा पढ़ लिया है, अब क्या करेगा ?" सुब्बया ने अपनी अव्यक्त अज्ञानान्धता को सूचित करते हुए अपनी योजना विस्तार से बताई कि किस प्रकार वह पारे से सोना बनाकर विशाल महल चुनवायेगा, मौज से रहेगा, अपने विरोधियों को नीचा दिखायेगा और समाज में आदरणीय-सम्माननीय बनेगा।
श्री भट्टारक गुरु ने उसकी अज्ञानान्धता का निवारण करने हेतु उपालम्भ के स्वर में कहा-"सुब्बैया ! क्या तू विद्वान होकर भी विषय-वासना और कषायों में डूबा रहेगा ? पापकर्मों के जाल में फंसकर क्या तू निरा पशु ही बना रहेगा और अन्त में जन्म-मरण के चक्र में परिभ्रमण करता हुआ नरक में जायेगा? क्या तेरी यह जीवनयोजना उचित है ?" सुब्बया ने कुछ सोचा; फिर वर्षों से संजोई हुई अपनी सांसारिक सुख की मनोकामना के कटुफल का संस्मरण कर वह चिन्ता में पड़ गया। उसे चिन्तित देख श्री भटटारक गुरु ने पुनः कहा-"वत्स ! मेरे पास ऐसे भी शास्त्र हैं, जो सांसारिक बन्धनों से मुक्त कराकर चिर दुःखी को शाश्वत सुखी बना दें, दीन-हीन को असीम शक्तिशाली बना दें ! संक्षेप में, आत्मा से परमात्मा बनने का गुर बताने वाले वे शास्त्र हैं ।"
सुब्बैया ने जीवन में पहली ही बार ऐसा अपूर्व सन्देश सुना था। सुनते ही उसके अन्तर में ज्ञान का प्रकाश हो गया, अज्ञानान्धकार अब पलायित हो चुका था।
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