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पुत्र और शिष्य को समान मानो २६१
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उसे अपूर्व ज्ञाननिधि मिल गई । भट्टारक गुरु ने उसके अन्तश्चक्षु खोल दिये । वह आश्चर्य से गुरु के मुख की ओर देखने लगा । फिर सहसा उनके चरण पकड़कर गद्गद् कण्ठ से बोला – “पूज्य गुरुदेव ! अब मैं आपकी शरण में हूँ । मुझे उबारिये । मैं तो नर से पशु बनने की योजना बना रहा था, कंकड़-पत्थर से झोली भर रहा था, अज्ञानवश सांसारिक बन्धनों में बँधकर दुःखी होने का संकल्प कर रहा था । आपने मुझे ज्ञान का प्रकाश देकर मेरी आँखें खोल दीं, मेरा अज्ञानान्धकार दूर किया । अब मेरा उद्धार कीजिये और मुझे शाश्वत सुख पाने की योजना बताइये ।" इस प्रकार वह श्रीगुरु के चरण-कमल युगल को अपने आँसुओं से धोने लगा ।
श्री भट्टारकजी ने उसे योग्य शिष्य समझकर उठाया, अध्यात्मविद्या के अध्ययन की ओर उसकी शक्तियाँ लगा दी पारद रसायनशास्त्र को कभी न स्मरण करने की प्रतिज्ञा की । उस ताड़पत्रलिखित रसायनशास्त्र को पाकशाला की तब से कारंजा में आध्यात्मिक ग्रन्थ ही शेष रहे हैं । में प्रवीण बनकर अनेक जिज्ञासुओं का आज्ञानान्धकार होने के बाद वहाँ की भट्टारक गद्दी का सुयोग्य
गले लगाया और इस पर सुब्बैया ने भट्टारकजी ने भी ज्वालाओं को भेंट कर दिया । मेधावी सुब्बंया ने अध्यात्मविद्या मिटाया और गुरु के स्वर्गस्थ उत्तराधिकारी बन गया ।
बन्धुओ ! गुरु-पद के महान् उत्तरदायित्व को समझकर श्री भट्टारकजी ने सुब्बैया के अज्ञानान्धकार को मिटा दिया और ज्ञान के प्रकाश से उसे सुपथ पर
लगाया ।
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प्रश्न यह है कि इस भावान्धकार को कौन मिटा सकता है ? जो स्वयं यथार्थ ज्ञान से प्रकाशमान हो, वही दूसरों को प्रकाश देकर उनके अज्ञानतिमिर को मिटा सकता है । जिसमें ज्ञान का प्रकाश नहीं है, जो स्वयं काम, क्रोध, मद, मोह, मत्सर आदि अज्ञानति दुर्गुणों का शिकार बना हुआ है, वह दूसरों के अज्ञान और मोह आदि को कैसे मिटा सकता है ? जैसे प्रदीप स्व-पर- प्रकाशक होता है, इसी प्रकार गुरु भी स्व-पर- प्रकाशक होना चाहिये । जिस प्रकार प्रदीप स्वयं ज्योतिर्मान होकर ही अन्य को ज्योति प्रदान करता है, अदृश्य या अव्यक्त पदार्थों को आलोकित करता है, इसी प्रकार जो स्वयं ज्ञान और चारित्र से ज्योतिर्मान हों, और अन्य को भी ज्ञान और चारित्र की ज्योति प्रदान करते हों, वे ही सद्गुरु हैं ।
गुरु और शिष्य दोनों निःस्पृह हों, तभी लक्ष्य प्राप्ति
दीपक के प्रकाश से अन्धकारजनित भय नष्ट हो जाते हैं, वस्तुओं का यथार्थ ज्ञान हो जाता है, भयस्थल, भयंकर प्राणी और खतरनाक पदार्थों को देखकर उनसे बचने का यत्न किया जाता है, तथा सीधे मार्ग पर चला जा सकता है, इसी प्रकार जो महान् आत्मा अपनी ज्ञानप्रभा से शिव्य के अज्ञानजनित भयों को नष्ट करता है, जीवादि पदार्थों का यथार्थ बोध प्रदान करता है, साधना में पतन के भयस्थल, साधना.
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