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आनन्द प्रवचन : भाग ११
किसी-किसी मूर्ख में एक विशेषता होती है कि वह बिना अवसर अच्छा वक्ता बन जाता है, किन्तु मौके पर मौन धारण कर लेता है। अपना पाण्डित्य बताने के लिए मूर्ख वाचालता का सहारा लेता है । तिलोक काव्य संग्रह में मूर्ख के इस चिह्न का विश्लेषण करते हुए कहा हैलीक-सी जीभ को निकाले अविवेकी नर,
मूरख को मुख जैसे बिंबिका सो कहिये। निकसत वचन करूर विकराल व्याल,
सुणत श्रवण वेण तन-वन दहिये ।। बिना ही विचारे बात बोलत है टोल' सम,
भावे सो ही होय फिर फिकर न लहिये । कहत 'तिलोक' ऐसे मूढ़ के वचन जहर,
औषधी है मौनरूप चुपचाप रहिये । भावार्थ स्पष्ट है।
एक पण्डितजी थे। वे पढ़े तो थे, पर गुने नहीं थे। किस के आगे क्या कहा जाये ? किसको क्या सुनाया जाये ? इस बात का विवेक उनमें जरा भी नहीं था। एक बार वे एक गाँव में जा पहुँचे और गड़रियों के सामने वे सामवेद बहुत उच्चस्वर से पढ़ने लगे। गड़रिये बेचारे सामवेद में क्या जाने ? गडरियों ने समझा इस आगन्तुक के मुंह में कोई रोग हो गया है जिसके कारण यह जोर-जोर से चिल्लाता है । अनपढ़ गड़रियों ने उन्हें रोगी समझकर उनके शरीर पर पशु की तरह डाम लगा दिये । अब पण्डित जी चुप हो गये और पोथी-पत्रा समेटकर चुपचाप उस गाँव से नौ-दो-ग्यारह हो गये।
__ कहीं-कहीं किसी सज्जन को ऐसे मूर्ख से पाला पड़ जाता है, जो जानताबूझता कुछ नहीं है लेकिन अपनी डींग बहुत ज्यादा हाँकता है। ऐसे समय में मूों से पिण्ड छुड़ाने के लिए मौन के सिवाय कोई इलाज नहीं है।
एक बार अकबर बादशाह ने बीरबल से कहा- "बीरबल ! तुम बड़े चतुर और बुद्धिमान हो, तुम्हारे पिता तो न जाने कितने अक्लमंद और होशियार होंगे। मैंने कभी उनसे बातचीत नहीं की। कल उन्हें दरबार में साथ लेकर आना, मैं उनसे कुछ बातें करना चाहता हूँ।"
विचक्षण बीरबल भाँप गया कि बादशाह का क्या मकसद है ? अतः उसने कहा-"हजूर ! वे बहुत ही बूढ़े हैं, उनको यहाँ आने में बहुत दिक्कत होगी। उनसे जो बात करनी है वह कृपा करके मेरे से कर लीजिए।"
बादशाह-"नहीं बीरबल ! कल तो उनसे जरूर मिलाओ। मेरी दिली ख्वाहिश है कि उनसे कुछ अनुभव की बातें पूछु ।”
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