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जो धार्मिक, वे ही सेवापात्र २२८
वही सच्चा धार्मिक है, जो धर्म को शास्त्रों या धर्मग्रन्थों में न ढूँढ़कर जीवन में ढूँढता है, धर्ममय आचरण में ही जिसे धर्म की उपलब्धि होती है । आचारांग सूत्र में चुस्त धार्मिक और सुस्त धार्मिक का लक्षण इस प्रकार बताया गया है— 'धम्म अणुज्जतो सीयलो, उज्जुत्तो उण्हो'
धर्म में उद्यमी - क्रियाशील व्यक्ति - उष्ण-- गर्म है, और उद्यमहीन शीतल यानी ठंडा है ।
वास्तव में सच्चा धार्मिक वह है, जो आडम्बर नहीं करता, धर्ममय जीवन जीता है, नीति, न्याय, दया, क्षमा, सेवा, परोपकार, अहिंसा, सत्य आदि धर्म के तत्त्वों को जीवन में रमाता है, इनका आचरण करता है । जो धर्म में उद्यत है, वही धार्मिक है, जो धर्माचरण न करके केवल धर्म की बातें करता है, वह धार्मिक नहीं
है ।
धार्मिक की पहिचान
प्रश्न होता है, सच्चे धार्मिक की पहिचान क्या ? यह तो आप पूर्व विवेचन से समझ गये होंगे कि केवल क्रियाकाण्डी होने से, अमुक वेशभूषा से या अमुक चिन्हों से ही किसी को धार्मिक नहीं कहा जा सकता । न ही धर्म शास्त्रों को रट लेने, धर्म पर भाषण दे देने या धर्म पर लेख लिख लेने या कविता बना देने से ही कोई धर्मात्मा कहला सकता है । इसी प्रकार अनुयायियों की भीड़ इकट्ठी कर लेने, या यन्त्र-मंत्रतन्त्र या जादू-टोने द्वारा लोगों को आश्चर्यचकित कर डालने, या कोई चमत्कार दिखा देने से भी कोई धार्मिक कहला नही सकता ।
आज अधिकांश व्यक्ति धर्मात्मा की कसौटी चमत्कार या किसी आश्चर्यचकित कर देने वाले काम को ही मानते हैं । संसार सुख-शान्ति पाने के लिए तप, त्याग, अहिंसा आदि धर्म से युक्त सीधा और सरल मार्ग प्रायः नहीं चाहता, वह धर्मात्मा की परीक्षा करना चाहता है -- किसी चमत्कार से ।
खेद है, दुनिया के अधिकांश लोग आश्चर्यचकित कर देने वाले व्यक्ति को धार्मिक मानकर श्रद्धा करते है । जो उसकी समझ में नहीं आता, या जिसे वह स्वयं नहीं कर सकता, उसे बताने वाले को धर्मात्मा कह बैठता है, फिर चाहे वह ठग, धोखेबाज या पापी ही क्यों न हो ?
धर्म का ध्येय है - प्राणिमात्र को सुख-शान्ति अथवा उनके दुःख- सन्तापों को अधिकाधिक कम करना, जीवन जीने की सच्ची राह बताना । जो व्यक्ति इस प्रकार शुद्ध धर्म की राह पर स्वयं चलता है, धर्म की कसौटी पर अपनी प्रत्येक मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियों को कसकर क्रिया करता है; निरापद भाव से स्थायी सुख-शांति के लक्ष्य की ओर बढ़ता जाता है, जो व्यक्ति शरीर रक्षा, धन-रक्षा तथा अन्य भौतिक पदार्थों की रक्षा से बढ़कर धर्म-रक्षा - शुद्ध सद्धर्म की रक्षा करने में तत्पर रहता है; वह सच्चे माने में धार्मिक है । वह ऐसा धर्म कार्य सेवा से, सान्त्वना से, बौद्धिक परामर्श में या उपदेश से भी कर सकता है ।
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