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________________ २२८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ कोई क्षति नहीं पहुँची । गाँव के लोग दौड़े हुए आए और उस महिला को वे अपने साथ ससम्मान गाँव ले गए। वहाँ और कुछ बचा ही न था । यह घटना धर्म का अंचल पहने हुए तथाकथित धार्मिक और सच्चे माने में धार्मिक की स्पष्ट विभाजक रेखा खींच देती है । शास्त्रों को रट लेने मात्र से कोई भी व्यक्ति धार्मिक नहीं हो जाता, नही केवल शास्त्र में लिखे अनुसार आचरण कर लेने मात्र से ही कोई धार्मिक होता है । अगर कोई व्यक्ति शास्त्रों के रहस्य को न समझे, उसमें लिखी हुई बात को द्रव्य, क्ष ेत्र, काल और भाव तथा अपनी योग्यता, पात्रता और क्षमता देखे बिना ही शब्दशः अनुसरण करने लग जाये और उस क्रियाकाण्ड के नाम पर अपने अनुयायियों को आकृष्ट कर ले, इतने मात्र से धार्मिक कहलाने का अधिकारी नहीं हो जाता । सच्चा धार्मिक धर्ममय जीवन जीता है । वह धर्ममय जीवन, अनुभवयुक्त जीवन होता है । सच्चा धार्मिक आडम्बर और प्रदर्शन नहीं करता । न ही जोर-जोर से चिल्लाकर या 'धर्म खतरे में है' का नारा लगाकर व्यर्थ दूसरे धर्म के लोगों को मारता - काटता है । सच्चा धार्मिक सच्चा मानव होता है, वह किसी पर धर्म के नाम से अन्याय-अत्याचार नहीं करता, न ही धर्म को अपनी बपौती समझकर दूसरों के लिए कभी द्वार बन्द करता है । जैसे प्रेम के सम्बन्ध में मैं आपसे विस्तृत रूप से कहूँ और आप में से कोई व्यक्ति खड़ा होकर प्र ेम की दुनिया में कूद पड़े, दूसरा एक व्यक्ति पुस्तकालय में जाकर प्रेम के सम्बन्ध में जितनी भी पुस्तकें हों, उन्हें पढ़ ले और रिसर्च करने लग जाय । ये दोनों प्रेम की खोज करने निकले हैं । बताइए, प्र ेम किसको और कहाँ मिलेगा ? दोनों में से एक प्र ेम की खोज में स्वयं को मिटा देने और अर्पण करके प्रेमी जीवन जीने लगा है, जबकि दूसरा प्रेम को शास्त्रों में ढूँढ़ता है ? वह शास्त्रों के पन्ने उलटपुलटकर प्रेम की जानकारी भले ही पा ले किन्तु प्रेम का वास्तविक अनुभव क्या उसे हो सकेगा ? बल्कि मैं तो समझता हूँ, वह शास्त्र और ग्रन्थ पढ़-पढ़कर दिमाग में बहुत-सी जानकारी भर लेगा और अहंकार से लिप्त होकर कहेगा कि मैंने प्रेम को समझ लिया है और पा लिया है। जबकि दूसरा व्यक्ति तो प्रेम का पूर्ण अनुभव पाने के लिए स्वयं को मिटा देने की तैयारी करके गया है, वह निरहंकार बनकर प्रेममय जीवन जीता हुआ प्र ेम की वास्तविक खोज और प्राप्ति कर सकेगा । इसी प्रकार जो व्यक्ति धर्म को शास्त्रों में ढूंढता है, अनेक धर्मशास्त्र पढ़ लेता है, अनेक धर्मग्रन्थों का स्वाध्याय कर लेता है, इतने से क्या वह धर्म को - शुद्ध धर्म को पा सकेगा ? कदापि नहीं । शुद्ध धर्म को वही पा सकता है, जो धर्मशास्त्र पढ़कर विवेकयुक्त आचरण करता है । धर्म जीवन में उतारने की वस्तु है, जो व्यक्ति धर्ममय जीवन जीता है, वही धर्म को पा सकेगा । तथागत बुद्ध की भाषा में कहूँ तो - ' जो व्यक्ति बहुत से धर्मशास्त्र पढ़ता है, परन्तु उनके अनुसार आचरण नहीं करता, वह उस ग्वाले के समान है, जो दूसरों की गायों को ही गिनता रहता है ।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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