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________________ २३० आनन्द प्रवचन : भाग ११ सच्चा धार्मिक किसी भी प्राणी को दुःखी देखकर चुपचाप नहीं खड़ा रहेगा; उसका हृदय दूसरे के दुःख को देखकर करुणा एवं सहानुभूति से उमड़ पड़ेगा, वह दूसरे के दुःख को अपना दुःख समझने लगेगा । जो मनुष्य दूसरे को दुःखी देखकर सहानुभूति करने या करुणा करने के बजाय उपेक्षापूर्वक कहता है—“अपने किये कर्म का फल भोग रहा है। मैं उसके और उसके कर्मफल-भोग के बीच में क्यों पड़ें; वह व्यक्ति दयाहीन है, धार्मिक नहीं है; फिर भले ही वह कितना ही पूजा-पाठ, स्वाध्याय-ध्यान करता हो। एक बार काशी में विश्वनाथ का मेला था। विश्वनाथजी के मन्दिर में एक सोने का थाल आया। साथ ही आकाशवाणी भी हुई.---'जो व्यक्ति सच्चा धर्मात्मा होगा, वही प्रभु का सच्चा भक्त होगा, और जो सच्चा भक्त होगा उसे ही यह सोने का थाल भेंट दिया जाए। सच्चे धर्मात्मा की पहचान यह है कि उसका हाथ लगते ही यह थाल अत्यधिक चमकने लगेगा, परन्तु जो सच्चा धर्मात्मा नहीं होगा, उसका हाथ लगते ही थाल लोहे या पीतल-सा दिखाई देने लगेगा।' इस आकाशवाणी को सुनकर पण्डों ने सोचा-यह थाल हमें तो हजम नहीं हो सकेगा, क्योंकि हममें ऐसी धार्मिकता तो है नहीं । अत: मेले में जाहिर उद्घोषणा करके जो सच्चा धार्मिक निकले, उसे दे डालना चाहिए । यह सोचकर एक पण्ड ने एक उच्च स्थान पर खड़े होकर घोषणा की—'एक सोने का थाल भेंट देना है, जो व्यक्ति सच्चा धार्मिक हो उसे । उसकी पहचान है कि उसका हाथ लगते ही यह थाल चमकने लगेगा।' जिसने भी यह घोषणा सुनी, उसके मुंह में पानी भर आया । एक तो सोने का थाल और फिर धर्मात्मा का पद, यह दोहरा लाभ, भला किसे आकर्षित नहीं करता। सभी लोग विश्वनाथ-मन्दिर के पास इकट्ठे होने लगे। सर्वप्रथम लाखों का दान करने वाला एक सेठ आगे आया। उसने अपने दानधर्म का बखान करके पुजारी से कहा—'मैं ही इस थाल को पाने का अधिकारी हूं।' पुजारी ने ज्यों ही उसके हाथ में थाल दिया, त्यों ही वह काला पड़ गया। थाल काला होते ही सेठ का चेहरा भी काला हो गया। वह लज्जित होकर पछताता हुआ नीचे मुंह करके चलता बना । उसे अपनी भूल समझ में आ गई कि मैं दान तो करता है, लेकिन उसके साथ कई कामनाएँ सँजोकर; दान के साथ अहंकार भी करता हूं कि मुझ-सा दानी-धर्मात्मा कोई है ही नहीं । उसके पश्चात् एक तिलक-छापा लगाए भक्तजी आए । वे रोज मन्दिर में पूजापाठ करते थे, पर उनका जीवन कई दुर्व्यसनों से भरा था। केवल पूजा-पाठ करने के कारण वे अपने आपको धार्मिक समझते थे। उनके आग्रह पर पण्डे ने ज्यों ही उनके हाथ में थाल दिया, थाल काला पड़ गया। वे भी शर्मिन्दा होकर चल दिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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