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________________ प्रेमराग से बढ़कर कोई बन्धन नहीं १०६ एक बार रात को पेट दर्द का बहाना बनाकर श्वास को ऊपर चढ़ा लिया। अब तो उसकी पत्नी घबराई—यह क्या हुआ ? पति की अपमृत्यु, वह भी आधीरात में ? अब मेरा सहारा गया। परन्तु अभी से रोना शुरू कर दूंगी तो आस-पास की सभी महिलायें इकट्ठी हो जायेंगी। ऐसे में न तो घर के अस्त-व्यस्त पड़े सामान को व्यवस्थित कर सकूँगी, न ही कुछ खा-पी सकूँगी । भूख और थकान के मारे मेरे बुरे हाल हो जायेंगे । अतः उस गृहिणी ने सारे कमरों को व्यवस्थित किया, फिर बिलौना करना, दही जमाना, भंस दुहना आदि सब काम निपटा लिया। फिर सोचा-घी तो ताजा तैयार है ही, पड़े-पड़े उसमें बदबू आने लगेगी, इससे तो अच्छा है कि मैं इसका उपयोग कर लू। उसने चूल्हा जलाया, खूब घी डालकर चूरमा बनाया, उसके ६ बड़ेबड़े लडडू तैयार किये, साथ में दाल भी बनाई । दो बड़े-बड़े लडडू और दाल खाकर उसने पेट भर लिया। सेठ अपनी पत्नी का यह सारा नाटक वहीं लेटे-लेटे देख रहा था। सेठ को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था, किन्तु था सब प्रत्यक्ष । सूर्योदय होने में थोड़ी सी देर थी कि सेठानी ने दो बड़े लडडू एक कपड़े में बांधकर अपनी गोद में रख लिए, और दो छींके में रख दिये । फिर उसी छींके के नीचे बैठकर रोने लगी स्वर्ग सिधातां साह्यबा ! कांइक कहता जाज्योजी। अर्थात्-पतिदेव ! आप तो स्वर्ग में जा रहे हैं, मुझे भी कुछ कहते जाइये। सेठ ने सोचा-अभी अच्छा मौका है, इसे कहने का। बाद में तो पड़ोसी इकट्ठे हो जायेंगे । अतः उसने उस दोहे की पूर्ति इस प्रकार की खोला माह्यलो खट जावे तो छींके परलो खाज्योजी॥ -यदि गोद में रखे लडडू समाप्त हो जायें तो छींके पर रखे हुए खा लेना । सेठानी ने जब यह सुना तो चुप होकर लज्जा के मारे वह धरती में गड़ी जा रही थी। यह नकली प्रेमराग सेठ के लिए विरक्ति का कारण बन गया । इसीलिए बृहदारण्यक उपनिषद् में तो स्पष्ट बताया है पति-पत्नी और पुत्र अपने स्वार्थ के लिए ही एक-दूसरे से प्रेम करते हैं, न कि उनके हित के लिए। 'रागान्ध मनुष्य अपने हिताहित को नहीं देखता।' पति को अपनी पत्नी के प्रति राग सुखकर मालूम होता है, परन्तु राग के समान संसार में कोई दुःख नहीं है। किसी शहद से लिपटी हुई तलवार को चाटने वाला मनुष्य जैसे-उसके परिणाम को नहीं सोचता, वैसे ही राग में लिप्त अविवेकीजन उसके दुःखद परिणाम का विचार नहीं करता। योगशास्त्र की भाषा में कहूँ तो __ "पिशाचा इव रागाद्याश्छलयन्ति मुहुर्मुहुः।" -रागादि पाप पिशाच की तरह आत्मा को बार-बार धोखा देते हैं। . नन्दागायक २//५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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