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________________ १०८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ एक आचार्य ने राग के पर्यायवाची शब्दों का निरूपण करके राग का स्वरूप अभिव्यक्त कर दिया है इच्छा मूर्छा कामः स्नेहो गाय॑ममत्वमभिनन्द । अभिलाष इत्यनेकानि रागपर्याय वचनानि ॥ अर्थात्-इच्छा, मूर्छा, काम, स्नेह, गार्थ्या, ममत्व, अभिनन्द, अभिलाष ये अनेक शब्द राग के पर्यायवाची हैं । तात्पर्य यह है कि इच्छा से लेकर अभिलाष तक जितने शब्द हैं, वे राग के अर्थ को प्रस्फुटित करते हैं, ये राग के ही विभिन्न रूप हैं। प्रेमराग वस्तुतः प्रेम का एक रंग है, एक बार जिसके जाल में फंस जाने पर मनुष्य का निकलना अत्यन्त कठिन होता है। फिर भी यह कहा जा सकता है, कि अधिकांश प्रेमराग नकली प्रेम का रंग होता है, जो रहस्य खुलने पर उतर जाता है। सांसारिक एवं पौद्गलिक सुखासक्त मानव प्रायः इसी प्रमराग के यान में बैठकर अपनी जीवनयात्रा प्रारम्भ करते हैं, लेकिन वह यान अधबीच में ही धोखा दे देता है। मुख्यतया यह प्रेमराग पति-पत्नी में हुआ करता है। पति अपनी पत्नी में अनुरक्त रहता है और पत्नी में अपने पति में । इस प्रेमराग में दोनों ओर स्वार्थ पलता है। पति सोचता है, पत्नी मेरे प्रति अनुरागिणी बनकर मेरी पुजारिन हो जाये, मेरी आज्ञा में चले, मेरे इशारे पर नाचे, मैं कहूँ वहाँ जाये-आये, मेरे रागरंग में बाधक न बने, मेरी सुख-सुविधाओं के लिए अपना श्रमरस निचोये, मेरे प्रति पूर्णतः वफादार रहे। इसी प्रकार पत्नी सोचती है कि पति मेरे प्रति पूर्ण अनुरक्त रहे, वह कहीं किसी और के प्रेम में न पड़ जाये, वह मेरी माँगें पूरी करे, मेरी फरमाइशों की पूर्ति करे, मेरी इच्छाओं में बाधक न बने, मेरी गृहस्थी को सुखी बनाने के लिए सदा प्रयत्नशील रहे; हम अच्छा खायें, अच्छा पहनें, अच्छे रहन-सहन से रहें। इतना ही नहीं, पति मेरे प्रति कभी अनमने-से न रहें, मेरे किसी कार्य में बाधक न बने। ___ जहाँ दोनों में से किसी का प्रेमराग कच्चा होता है, या सीमा का अतिक्रमण कर देता है, वहाँ वह गृहक्लेश, अविश्वास एवं द्वष-घृणा आदि में परिणत होता है। यह एक जाना-माना सिद्धान्त है कि जहाँ राग होगा, वहाँ उतने ही अनुपात में द्वेष प्रच्छन्न या सुषुप्त होगा । जब रागभाव पलायन करने लगता है, तब उसके रिक्तस्थान की पूर्ति के लिए द्वष, घृणा या वर-विरोध आदि भाव आ धमकते हैं; और राग के आसन पर वे जम जाते हैं। पत्नी का पति के प्रति प्रेमराग मुझे एक रोचक दृष्टान्त इस सम्बन्ध में याद आरहा है-एक सेठ अपनी पत्नी के प्यार में इतना बाबला हो रहा था कि उसके सिवाय उसे कुछ सूझता ही नहीं था। उसका दृढ़विश्वास था कि मेरा क्षण-दो क्षण का वियोग भी इसके लिए असह्य है । किसी ने उसे कर्तव्यबोध कराते हुए कहा-"पत्नी के प्रति आप इतने रागान्ध मत बनिये, आप चाहें तो इसकी परीक्षा कर लीजिए, आपको उसकी असलियत का पता लग जायेगा।" उस मित्र के परामर्शानुसार उक्त व्यक्ति ने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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