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आनन्द प्रवचन : भाग ११
तथा परिचय अंकित करना चाहता था । इस प्रबल नाम-कामना को सन्तुष्ट करने हेतु वहाँ पहुँचकर गौर से देखा तो मालूम हुआ-वहां परिचय अंकित करने की तो दूर रही। भरत इन तीन अक्षरों का नाम अंकित करने की भी जगह नहीं थी। हजारों-लाखों चक्रवतियों ने अपना-अपना नाम वहाँ अंकित कर रखा है। सोचा-किसी का नाम मिटाकर अपना नाम उस जगह खुदवा दूं ? ज्योंही भरत का हाथ उठा, किसी एक का नाम मिटाकर भरत नाम खुद गया; लेकिन उसी क्षण भरत के हृदयाकाश में विवेक की बिजली कौंधी जिसके प्रकाश में भरत ने सोचा-'आज तूने किसी का नाम मिटाया है, कल कोई तेरा भी नाम मिटा सकता है।' भरत की अन्तश्चेतना ने कहा'यह सब अहंकार का खेल है। वही मनुष्यों को विविध रूपों में नचाता है। इस विश्व के इस विशाल पट पर किसका नाम अमिट व अमर रहा है।' भरत का नामजनित अहंकार मिट गया। अहंकार : ध्वंसात्मक रूप में
मनुष्य सत्कार्य करके किसी को हानि पहुँचाये बिना सम्मान और यश प्राप्त करे यह किसी हद तक क्षम्य हो सकता है। किन्तु जब वह महत्त्वाकांक्षा से प्रेरित होता है, उसकी बड़प्पन की लालसा भूख बनकर किसी भी प्रकार से अपनी तृप्ति पाने के लिए तड़पने लगती है, तब वह पैशाचिक वृत्ति धारण कर लेता है। जब मनुष्य मनुष्यता की सीमा से बाहर आकर संसार पर बड़प्पन थोपना चाहता है; तब वह एकदम निन्द्य एवं घृणित बन जाता है। इस प्रकार के महत्त्वाकांक्षी लोगों की अहंकार वृत्ति मनुष्य को आततायी बना देती है।
सिकन्दर, तैमूर, नादिरशाह आदि जो भी महत्त्वाकांक्षी आक्रामक हुए हैं, जिन्होंने अकारण मानव-जाति का संहार किया है । वे अहंभाव से पीड़ित रहे हैं। यदि उनमें अहंभाव की प्रधानता न होती तो वे अपनी शक्तियों को किन्हीं ऐसे कामों में लगाते, जिनसे मनुष्य-जाति का हित साधन होता। रावण, कंस, हिटलर, हिरण्यकशिपु, नैपोलियन आदि आतंकवादी आक्रान्ता महत्ता की तृष्णा से पीड़ित थे । सद्गुणों के अभाव में जब उनकी महत्त्वाकांक्षा महत्ता नहीं पा सकी, पूजा-प्रतिष्ठा से वंचित रही, तब वे अकारण ही अपनी दुर्बलता को छिपाने के लिये दुनिया के दुश्मन बनकर अपनी महत्ता बलात् थोपने के लिए ध्वंस के मार्ग पर दौड़ पड़े। परन्तु क्या वे इतना सब रक्तपात करके और संसार को त्रास देकर कोई बड़प्पन प्रतिष्ठा या आदर सम्मान पा सके ? नहीं। माना कि उनमे साहस, शक्ति, मनोबल और विश्वास था; जिसके आधार पर वे संसार को आतंकित कर सके। किन्तु उनकी ये विशेषताय उनके लिए एक भी प्रशंसा का शब्द तथा प्रतिष्ठा का एक बिन्दु भी अर्जन कर सकी हैं ? कितना अच्छा होता, उन्होने अपनी विशेषताओं को ध्वंस म न लगाकर सृजन में लगाया होता, संहार के स्थान पर सेवा का मार्ग अपनाया होता, आतंक के स्थान पर प्रम को स्थान दिया होता तो जीवनकाल में उनकी पूजा प्रतिष्ठा होती ही, इतिहास
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