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________________ अतिमानी और अतिहीन असेव्य १६७ सामने वह अपनी झूठी शेखी बघारने लगा तो रम्भा पुरुष वेश में तेली के यहाँ से नवल के पहने हुए चिकने कपड़ों की जो पोटली लाई थी, उन कपड़ों को लेकर आई और कहने लगी-"मुझे पहचानते हैं। मैं आपका वही व्यापारी मित्र हूँ, जिसने आपको धन दिया था, और वेश्या, तेली आदि के चंगुल से आपको छुड़ाया था।" नवल समझ गया कि यह रम्भा ही थी, जिसने मुझे धन दिया और तेली के यहाँ से छुड़वाया। तब एकदम हर्षावेश में आकर 'प्रिये' सम्बोधन करके उसे बाहुपाश में जकड़ लिया। नवल ने रम्भा से कहा-"अब तक मैं भ्रम में था। मुझे माफ करो, रानी ! अब मैं कदापि तुम्हारे जूते नहीं मार सकता । मेरा पिछला सब बकाया भर पाया। मुझे प्रसन्नता है कि तुमने मेरी सारी शेखी अपनी बुद्धिमत्ता से उतार दी।" हां, तो बन्धुओ ! मैं कह रहा था कि जो व्यक्ति अहंकार के हाथी पर चढ़कर दूसरों के साथ अमानवीय व्यवहार तक करने को उद्यत हो जाता है, उसे आखिर मुंह की खानी पड़ती है । नवलकुमार को अहंकार का सबक मिल गया। अहंकार क्यों, किस बात का ? मनुष्य अहंकार किस बात का करता है ? संसार की सभी वस्तुएं नाशवान हैं। कोई भी वस्तु स्थायी नहीं । फिर अहंकार क्यों ? क्या क्षणिक वस्तुओं के अहंकार से उसके बहं की तृप्ति हो जाती है ? कदापि नहीं। क्या किसी मनुष्य का नाम रहा है ? नहीं। फिर भी मनुष्य अपने अहंकार को चरितार्थ करने के लिए अधिक नाम फैलाना चाहता है । अहं का रोग पागलपन है। वह नामबरी के मोह में, अहंकार के मद में पागल होकर न जाने कितने-कितने अनर्थ ढहाता है। इसीलिए एक कवि चेतावनी के स्वर में कहता हैस्वप्न संसार है, रहना दिन चार है, मान करना नहीं। हो"मान० ॥ध्रुव।। फूल फूला कि भौंरे आने लगे, लूटने के लिए गीत गाने लगे। फूल था भूल में, मिल गया धूल में, मान करना नहीं । स्वप्न॥१॥ रूप यौवन भी सन्ध्या में ढल जाएगा, और यौवन-नशा भी उतर जाएगा। इनमें मतवाला बन, मेरे भोले सज्जन, मान करना नहीं ।। स्वप्न"" ॥२॥ सरसराता फव्वारे का जल जो चढ़ा, मैंने देखा कि वोह सर के बल गिर पड़ा। नेचर देती है दण्ड, रहा किसका घमंड, मान करना नहीं। स्वप्न" ॥३॥ भावार्थ स्पष्ट है । वास्तव में मनुष्य अपने अहंकार को सन्तुष्ट करने के लिए अपना नाम और नामबरी चाहता है। १ जैन इतिहास की एक प्रेरक घटना है-भारतवर्ष का प्रथम चक्रवर्ती सम्राट भरत छहों खण्ड जीतकर अपनी विजय-पताका फहराता हुआ ऋषभकूट पर्वत पर पहुँचा । वहाँ वह विशाल शिलापट्टों पर अपनी दिविजय की स्मृति में अपना नाम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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