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ऋषि और देव को समान मानो
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ऋषि को देवतुल्य कहने का एक विशेष कारण यह है कि ऋषियों में भगवद् गीता के १६वें अध्याय में कहे गये देवीसम्पदा के गुण होते हैं। जिनमें देवीसम्पदा के दिव्यगुण होते हैं, उन्हें देव कहने में कोई अत्युक्ति नहीं है। भगवद्गीता में वर्णित देवीसम्पदा के कुछ गुणों का मैं यहाँ उल्लेख करूंगा, उस पर से आप स्वतः समझ जायेंगे कि ऋषियों और देवों को एक समान सम्मान्य क्यों माना गया ? गीता में कहा गया है
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः । दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥ मार्दवं ह्रीरचापलम्.......
पार्थ ! सम्पदं देवीमभिजातस्य भारत ! -जिसमें अभय हो, चित्त (सत्त्व) की शुद्धि हो, ज्ञान योग व्यवस्थित हो, दान, दम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, सरलता, मृदुता, लज्जा, अचपलता आदि गुण हों, वह व्यक्ति देवी सम्पदा का अधिकारी होता है।
___ मैं इन देवीसम्पदा गुणों की व्याख्या की गहराई में अभी नहीं जाना चाहता। ऋषियों में देवीसम्पदा के ये गण कूट-कूटकर भरे होते हैं, इस दृष्टि से उन्हें देवतुल्य कहना कोई अनुचित नहीं है ।
__ जैसे लोक-व्यवहार में ब्राह्मण को 'भूदेव' कहा जाता है, वैसे ही शास्त्रों से ऋषि-मुनियों को 'धर्मदेव' कहा गया है । ऋषि धर्म के देव तो हैं ही। उनका सारा जीवन धर्म में रमण के कारण दिव्य होता है।
बन्धुओ ! इन्हीं सब कारणों को लेकर महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र में ठीक ही कहा है
रिसी य देवा य सम विभत्ता आप भी ऋषियों के देवतुल्य दिव्य जीवन से लाभ उठाइये, उनकी सेवा में पहुँचकर उनसे अपने जीवन की अटपटी समस्यायें सुलझाइये, उनसे धर्म-बोध प्राप्त कीजिए।
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