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________________ आनन्द प्रवचन : भाग ११ अवश्य ही उसके माध्यम से प्रभावित हुई, किन्तु नेपोलियन का व्यक्तित्व अपने उद्देश्य में सफल न हो सका । जिस मुख्य महत्ता एवं प्रतिष्ठा के लिए वह लालायित था, वह प्राप्त न हो सकी। इसके बदले इतिहास में बह आलोचना, निन्दा, भर्त्सना तथा अपवाद का पात्र अवश्य बन गया। अगर नेपोलियन ने अहंकार के वशीभूत न होकर उचित मार्ग में अपनी शक्ति लगाई होती तो शायद वह संसार के महानतम व्यक्तियों में गिना जाता । २०० निष्कर्ष यह है कि अहंकार या गौरवभाव जब अतिमात्रा में मानवता की सीमा लांघ जाता है, तो वह राग-द्वेष, प्रतिहिंसा, प्रतिद्वन्द्विता, ईर्ष्या, स्पर्धा तथा अपात्रता से दूषित हो जाता है और विष बनकर अपने आश्रयदाता को नष्ट कर डालता है । गर्व : अनेक रूपों में मानव-मन के अन्तस्तल में छिपा हुआ अहंभाव भी अनेक रूपों में बदल-बदल - कर जीवन के अनेक प्रसंगों पर अभिव्यक्त होता रहता है । कभी वह अपने शरीर के सौन्दर्य, रंग-रूप, बल आदि पर अभिमान करता है, तो कभी वह जाति और कुल का गर्व करता है । कभी वह अपने ज्ञान, लाभ ( प्राप्ति), ऐश्वर्य ( प्रभुत्व ) या तपस्या के मद से अभिभूत हो जाता है । इतना ही नहीं, आध्यात्मिक या धार्मिक क्षेत्र में भी इस मद ने अपना पैर पसारा है । जो साधक वर्षों से साधना कर रहा है, उसके जीवन में भी तप, जप, स्वाध्याय, शास्त्रज्ञता, क्रियाकाण्ड-पालन आदि का अहंकार या धमका । दान, शील और संवर आदि के क्षेत्र में भी अहंकार ने घुसकर उस क्षेत्र को विकृत कर दिया । जिसने सनत्कुमार चक्रवर्ती की तरह रूप का गवं किया, उसका गर्व भी चूरवर हो गया । जाति और कुल का अभिमान भी मिट्टी में मिल जाता है। उच्चजाति और उच्चकुल का होने के साथ उसमें सम्यग्ज्ञान-दर्शन- चारित्ररूप रत्नत्रय है तो उसे जातिकुल का अभिमान करने की जरूरत ही नहीं है । अगर रत्नत्रय नहीं है तो भी जाति और कुल के अभिमान क्या मतलब सिद्ध होगा ? जाति और कुल तारने वाले नहीं है, बल्कि इनका अभिमान डुबोने वाला है । बल का अभिमान भी वृथा है । जो पहलवान जवानी में अपनी शक्ति पर इतराता था, बुढ़ापे में सारी शक्ति क्षीण हो जाने के कारण उसका सारा घमंड चूर हो जाता है। किसी का बल स्थायी नहीं है, फिर उसका अहंकार करने से क्या लाभ ? एक ठाकुर साहब के भन्तःपुर में तेलिन आया-जाया करती थी । ठकुरानी उसके साथ स्नेह रखती थी। वह बार-बार मजाक में कहा करती थी- “ ठकुरानी जी ! आपके ठाकुर कितने दुबले-पतले हैं ? क्या आप उन्हें पूरा खाना नहीं खिलातीं 1 मेरा पति तेली देखिये कितना बलिष्ठ है, मोटा-ताजा है ?" ठकुरानी हँसकर कह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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