________________
६८. बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं—२
प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ !
आज मैं आपके समक्ष पिछले जीवनसूत्र पर ही प्रकाश डालूंगा । पिछले प्रवचन में बोधिलाभ के तीन अर्थों पर विश्लेषण करके मैंने बताया था कि बोधिलाभ क्यों दुर्लभ है ? तथा वह परमलाभ क्यों है ?
अब बोधिलाभ के अवशिष्ट दो अर्थों पर भी सांगोपांग चिन्तन कर लें, ताकि साधक जीवन का यह महत्त्वपूर्ण सूत्र भली-भाँति हृदयंगम हो जाये । व्यवहारसम्यग्दृष्टि का लाभ भी दुर्लभ
व्यवहारसम्यक्त्व को भी बोधि कहते हैं । तथारूप बोधि का लाभ भी दुर्लभ है । यह बोधिलाभ का चौथा अर्थ है ।
व्यवहारसम्यक्त्व का दूसरा नाम श्रद्धा भी है । श्रद्धा का नाम सम्यक्त्व है । जैसा कि सम्यक्त्वग्रहण के
देव, गुरु और धर्म के प्रति पाठ में कहा गया है
अरिहंतो मह देवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो । जिणपणत्तं तत्तं, इअ सम्मत्तं मए गहियं ॥
- अर्थात् अरिहन्त ( वीतराग सर्वज्ञ) मेरे देव हैं, यावज्जीवन सुसाधु मेरे गुरु हैं, जिन प्रज्ञप्त जो तत्त्व हैं—वह धर्म है । इस प्रकार मैंने सम्यक्त्व का ग्रहण - स्वीकार किया |
उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यक्त्व का लक्षण बताते हुए कहा है
तहि आणंतु भावाणं, सब्भावे उवएसणं ।
भावेण सद्दहंतस्स, समत्तं तं वियाहियं ॥
- जीव, अजीव आदि जो नौ तथ्यरूप तत्त्व हैं, उन तथ्य ( तत्त्व) रूप भावोंसद्भाव से उपदिष्ट पदार्थों पर भाव से जो श्रद्धा करता है, उस श्रद्धा को ही सम्यक्त्व कहा गया है ।
Jain Education International
अरिहन्त उक्त तत्त्वों के प्ररूपक हैं, सुसाधु उन तत्त्वों के उपदेशक हैं, और तत्त्व (पूर्वोक्त नौ) हैं ही, अथवा अरिहन्तों द्वारा प्ररूपित रत्नत्रयात्मक धर्म है । इन तीनों पर दृढ़ श्रद्धा रखना व्यवहारसम्यक्त्व है । व्यवहारसम्यक्त्व भी इसलिए दुर्लभ है कि इसके साथ भी पांच अतिचार (दोष) मिलकर इसे दूषित और व्यर्थ बना डालते हैं, वे पाँच अतिचार ये हैं-शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, विपरीत दृष्टि प्रशंसा, विपरीत
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org