Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
Catalog link: https://jainqq.org/explore/002532/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् .. (हिन्दी अनुवाद सहित) वाचना प्रमुख प्रधान संपादक आचार्य तुलसी आचार्य महाप्रज्ञ संपादक/अनुवादक आगम मनीषी मुनि दुलहराज Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि दुलहराजजी श्रमिकवृत्ति के मुनि हैं। वे मुनि बनकर मेरे पास आए। तब से लेकर अब तक सतत उनकी श्रमनिष्ठा को अखंडरूप में देख रहा हूं। यह सौभाग्य की बात है कि उन्होंने श्रम की साधना में कभी थकान का अनुभव नहीं किया। आचार्य तुलसी ने आगम-संपादन के भगीरथ कार्य को हाथ में लिया और उसके संचालन का दायित्व मुझे दिया। उस दायित्व की अनुभूति में मुनि दुलहराजजी अनन्य सहयोगी बने रहे। आगम-संपादन के कार्य में वे पहले दिन से संलग्न रहे और आज भी इस कार्य में संलग्न हैं। उनकी श्रमनिष्ठा और संलग्नता ने ही उन्हें आगम-मनीषी के अलंकरण से अलंकृत किया है। इस संपादन कार्य से पूर्व वे व्यवहारभाष्य का अनुवाद और संपादन भी कर चुके हैं। वह भाष्य भी साढ़े चार हजार से अधिक गाथाओं का विशाल ग्रंथ है। यदि मन की विशालता हो तो सागर की विशालता को भी मापा जा सकता है। मेरी दृष्टि में ये भाष्य ग्रंथ सागर की उपमा से उपमित किए जा सकते हैं। इनको नापने का प्रयत्न निष्ठा, साहस और दत्तचित्तता का कार्य है। मुनि दुलहराजजी इस कसौटी में सफल हुए हैं। उनका वर्तमान आगम का वर्तमान है। उनका भविष्य भी आगमका भविष्य बना रहे। आचार्य महाप्रज्ञ Jan Education International viainalihiraniam Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोत्थु भगवओ महावीरस्स बृहत्कल्पभाष्यम् (हिन्दी अनुवाद सहित) खण्ड -१ (गाथा १ से ३६७८) नम्र सूचन इस ग्रन्थ के अभ्यास का कार्य पूर्ण होते ही नियत समयावधि में शीघ्र वापस करने की कृपा करें. जिससे अन्य वाचकगण इसका उपयोग कर सकें. वाचना प्रमुख गणाधिपति तुलसी प्रधान संपादक आचार्य महाप्रज्ञ संपादक/अनुवादक आगम मनीषी मुनि दुलहराज सहयोगी मुनि राजेन्द्रकुमार मुनि जितेन्द्रकुमार जैन विश्व भारती, लाडनूं Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : जैन विश्व भारती लाडनूं - ३. ३०६ (राज.) • जैन विश्व भारती, लाडनूं ISBN: 81-7195-132-5 सौजन्य : सेठिया परिवार (दुधोड़ - बैंगलोर) द्वारा उनके संसारपक्षीय चाचा आगम मनीषी मुनि दुलहराजजी के दीक्षा के साठवें वर्ष - प्रवेश पर । प्रथम संस्करण : २००७ मूल्य : ५००/- (पांच सौ रुपया मात्र) पृष्ठ संख्या : ३७८+६८=४४६ टाईप सेटिंग : म प्रिण्ट एण्ड आर्ट मुद्रक : पायोराईट प्रिण्ट मीडिया प्रा. लि. उदयपुर Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BRHATKALPABHASYAM (With Hindi Translation) PART.1 Vachanapramukh Ganadhipati Tulsi Chief Editor Acharya Mahaprajna Editor/Translator Agama Manishi Muni Dulaharaj Assisted by Muni Rajendra Kumar Muni Jitendra Kumar JAIN VISHVA BHARATI, LADNUN Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publishers : Jain Vishva Bharati Ladnun - 341 306 (Raj.) © Jain Vishva Bharati, Ladnun ISBN: 81-7195-132-5 Courtsey : Sethia Family (Dudhor-Banglore) On the eve of entry into Sixtyeth year of the ascetic life by their uncle Agama-Manishi Dulharaj ji. First Edition : 2007 Price : 500/ Pages : 378+68=446 Type Setting : Sarvottam Print & Art Printed by : PAYORITE PRINT MEDIA PVT. LTD. UDIPUR Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण ।।१।। पुट्ठो वि पण्णा-पुरिसो सुदक्खो, आणा-पहाणो जणि जस्स निच्चं । सच्चप्पओगे पवरासयस्स, भिक्खुस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ।। जिसका प्रज्ञा-पुरुष पुष्ट पटु, होकर भी आगम-प्रधान था। सत्य-योग में प्रवर चित्त था, उसी भिक्षु को विमल भाव से।। ।।२।। विलोडियं आगमदुद्धमेव, लद्धं सुलद्धं णवणीयमच्छं। सज्झायसज्झाणरयस्स निच्चं, जयस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ।। जिसने आगम-दोहन कर कर, पाया प्रवर प्रचुर नवनीत । श्रुत-सद्ध्यान लीन चिर चिंतन. जयाचार्य को विमल भाव से।। ।।३।। पवाहिया जेण सुयस्स धारा, गणे समत्थे मम माणसे वि। जो हेउभूओ स्स पवायणस्स, कालुस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ।। जिसने श्रुत की धार बहाई, सकल संघ में, मेरे मन में । हेतुभूत श्रुत-सम्पादन में, कालुगणी को विमल भाव से।। विनयावनत आचार्य तुलसी Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन छेदसूत्रों की श्रृंखला में एक सूत्र है-कल्प। विषयवस्तु और आकार के कारण उसका नाम हो गया बृहद्कल्प। मूल प्राकृत, भाष्य प्राकृत भाषा में और टीका संस्कृत में। अपेक्षा थी इसका हिन्दी में अनवाद हो। इसकी पर्ति मनि दलहराजजी ने की। अपेक्षा अंग्रेजी अनुवाद की भी है। उसकी पूर्ति पर भी विचार किया जाएगा। स्वास्थ्य की अनुकूलता की स्थिति में मुनि दुलहराजजी इस कार्य का दायित्व निभा सकते हैं। 'बृहद्कल्पभाष्य' एक विशाल ग्रंथ है। यह ६४९० गाथाओं में निबद्ध है। विषयवस्तु की दृष्टि से आकर ग्रंथ है। इस आकर ग्रंथ के प्रथम और चरम बिन्दुओं को मिलाकर एक रेखा का निर्माण करन्म एक श्रमसाध्य कार्य है। ___मुनि दुलहराजजी श्रमिकवृत्ति के मुनि हैं। वे मुनि बनकर मेरे पास आए। तब से लेकर अब तक सतत उनकी श्रमनिष्ठा को अखंडरूप में देख रहा हूं। यह सौभाग्य की बात है कि उन्होंने श्रम की साधना में कभी थकान का अनुभव नहीं किया। आचार्य तुलसी ने आगमसंपादन के भगीरथ कार्य को हाथ में लिया और उसके संचालन का दायित्व मुझे दिया। उस दायित्व की अनुभूति में मुनि दुलहराजजी अनन्य सहयोगी बने रहे। आगम-संपादन के कार्य में वे पहले दिन से संलग्न रहे और आज भी इस कार्य में संलग्न हैं। उनकी श्रमनिष्ठा और संलग्नता ने ही उन्हें आगम-मनीषी के अलंकरण से अलंकृत किया है। इस संपादन कार्य से पूर्व वे व्यवहारभाष्य का अनुवाद और संपादन भी कर चुके हैं। वह भाष्य भी साढ़े चार हजार से अधिक गाथाओं का विशाल ग्रंथ है। यदि मन की विशालता हो तो सागर की विशालता को भी मापा जा सकता है। मेरी दृष्टि में ये भाष्यग्रंथ सागर की उपमा से उपमित किए जा सकते हैं। इनको नापने का प्रयत्न निष्ठा, साहस और दत्तचित्तता का कार्य है। मुनि दुलहराजजी इस कसौटी में सफल हुए हैं। उनका वर्तमान आगम का वर्तमान है। उनका भविष्य भी आगम का भविष्य बना रहे। आचार्य महाप्रज्ञ धनतेरस, वि. सं. २०६४ उदयपुर (राज.) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका जिनशासन कालजयी शासन है। इसकी चिरजीविता का मौलिक और पुष्ट आधार है-आगम। आगम का अर्थ हैआप्तवचन। यथार्थ ज्ञाता और यथार्थ वक्ता आप्त कहलाता है। उसे आगम भी माना गया है। वक्ता और वचन के अभेदोपचार से आगमपुरुष के वचनों को भी आगम कहा गया है। केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी और दसपूर्वी मुनि आगमपुरुष कहलाते हैं। किन्तु जिन आगमों के आधार पर जिनशासन आज भी अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखे हुए है, उनका संबंध तीर्थंकरों के साथ है। तीर्थंकरों द्वारा अर्थरूप में निरूपित तथा गणधरों एवं स्थविरों द्वारा गुंफित शास्त्र आगम की अभिधा को अलंकृत करते हैं। आगम मुख्यतः दो भागों में विभक्त हैं-अंग और अंगबाह्य। अंग बारह हैं। उनमें ग्यारह अंग मूलरूप में या थोड़ेबहुत परिष्कृत व परिवर्तित रूप में आज भी प्राप्त हैं। बारहवें अंग दृष्टिवाद में चौदह पूर्वो की विशाल ज्ञान-संपदा थी। वर्तमान में दृष्टिवाद प्राप्त नहीं है, पर उसके कतिपय अंश नियूंढ़रूप में उपलब्ध है। पूर्यों से नि!हण का काम कई समर्थ आचार्यों ने किया। इससे कुछ दुर्लभ परम्पराएं सुरक्षित रह गईं। अंगबाह्य आगमों में बारह उपांगों के नाम आते हैं। इनकी रचना कई स्थविर आचार्यों द्वारा की गई है। आगम-वर्गीकरण का एक क्रम इस प्रकार है-अंग, उपांग, मूल और छेद। प्रस्तुत संदर्भ में विमर्श का विषय छेदसूत्र बनते हैं। छेदसूत्रों की संख्या के बारे में विद्वानों में मतभेद है। विंटरनित्स के अनुसार छेदसूत्रों के प्रणयन का क्रम इस प्रकार है-कल्प, व्यवहार, निशीथ, पिंडनियुक्ति, ओघनियुक्ति और महानिशीथ।' अन्य जैन परम्पराओं में भी एकरूपता नहीं है। तेरापंथ धर्मसंघ की परम्परा में चार छेदसूत्र मान्य हैं-निशीथ, व्यवहार, बृहत्कल्प और दशाश्रुतस्कन्ध। जैन आगम ग्रंथों में छेदसूत्रों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन ग्रंथों में साधु जीवन में करणीय कार्यों की विधि और अकरणीय कार्यों के लिए निषेध का प्रावधान है। इसके साथ प्रमाद के लिए प्रायश्चित्त का भी विधान है। व्यवहारभाष्य के अनुसार अर्थ की दृष्टि से पूर्वगत को छोड़कर अन्य आगमों की अपेक्षा छेदसूत्र अधिक शक्तिशाली हैं। आगमों का व्याख्या साहित्य मूल आगम के गंभीर अर्थ को समझने के लिए उस पर व्याख्या ग्रंथ लिखने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। जैन आगमों पर अनेक विधाओं और भाषाओं में व्याख्या ग्रंथ लिखे गए हैं, जैसे-नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका, दीपिका, अवचूरि आदि। इनमें प्राकृत एवं संस्कृत भाषाओं का उपयोग किया गया है। कालान्तर में राजस्थानी, गुजराती आदि प्रादेशिक भाषाओं में भी टब्बा, वार्तिक, जोड़ आदि के रूप में व्याख्याएं लिखी जाती रहीं। छेदसूत्रों पर भी अनेक व्याख्याएं लिखी जा चुकी हैं। चार छेदसूत्रों में एक सूत्र का नाम 'बृहत्कल्प' है। नन्दीसूत्र में दी गई कालिकसूत्रों की सूची में कल्पसूत्र का उल्लेख मिलता है। कल्पसूत्र पर दो भाष्य लिखे गए बृहत् और लघु। उत्तरकाल में बृहत् शब्द कल्प का विशेषण बन गया। इस आधार पर सूत्र का नाम बृहत्कल्प हो गया। छेदसूत्र जैनाचार्यों की स्वतंत्र रचना नहीं है। ये नियूँढ ग्रंथ हैं। इनका नि!हण पूर्वो से किया गया है। १. A History of cannonical Literature of Jains P. 446. २. जम्हा तु होति सोधी, छेयसुयत्थेण खलितचरणस्स। तम्हा छेयसुयत्थो, बलवं मोत्तूण पुव्वगतं॥ (व्यभा. १८२९) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् सूत्रकार और भाष्यकार बृहत्कल्पभाष्य के टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने कल्प और व्यवहारसूत्र के बारे में प्रश्न उपस्थित किए हैं कि सूत्रकार, नियुक्तिकार और भाष्यकार कौन-कौन हैं ? इस प्रश्नत्रयी के समाधान में स्वयं टीकाकार ने लिखा है-चौदह पूर्वो में नौवां पूर्व प्रत्याख्यानपूर्व है। उसकी तीसरी आचार-वस्तु के बीसवें प्राभृत से इनका निप॑हण किया गया है। इस प्राभृत में साधु के मूलगुण और उत्तरगुण में प्रमाद होने पर उसकी विशुद्धि के लिए आलोचना, प्रतिक्रमण आदि दस प्रकार के प्रायश्चित्त का निरूपण किया गया है। समय के प्रभाव से धृति, बल, वीर्य, बुद्धि, आयुष्य आदि का ह्रास होने से पूर्वो का अध्ययन दुर्बोध हो गया। उस स्थिति में प्रायश्चित्तविधि का विच्छेद न हो, इस दृष्टि से साधुओं पर अनुग्रह करके चतुर्दशपूर्वी भगवान् भद्रबाहु स्वामी ने कल्पसूत्र और व्यवहारसूत्र का नि!हण किया और दोनों सूत्रों पर सूत्रस्पर्शिका नियुक्तियों की रचना की। नियुक्ति होने पर भी सूत्रों की शाब्दिक संरचना अर्थ की विशदता को देखते हुए अत्यधिक संक्षिप्त है। इधर दुःषमा काल के प्रभाव से मेधा, आयुष्य आदि गुणों में आने वाली न्यूनता के कारण ऐदंयुगीन लोगों के लिए वे दुर्बोध ही रहे। उनको समझना और धारणकर रखना कठिन हो गया। उन सूत्रों को सरलता से समझने और धारण करने के लिए भाष्यकार ने भाष्य का निर्माण किया।' आचार्य मलयगिरि ने भाष्यकार का उल्लेख अवश्य किया है, पर किसी नामांकित भाष्यकार को प्रस्तुत नहीं किया। यहां प्रश्न उठ सकता है कि उन्होंने ऐसा क्यों किया? संभव है, भाष्यकार के बारे में प्राचीन आचार्यों में मतैक्य नहीं रहा हो। इस विषय की विस्तृत चर्चा मुनिश्री दुलहराजजी और समणी कुसुमप्रज्ञाजी ने उनके द्वारा संपादित व्यवहारभाष्य के आमुख–'व्यवहारभाष्य : एक अनुशीलन' में की है। उन्होंने मुनि पुण्यविजयजी को उद्धृत करते हुए संघदासगणी को भाष्यकार स्वीकार किया है। इस मत की पुष्टि के लिए उनके द्वारा आचार्य क्षेमकीर्ति को भी उद्धृत किया गया है। संघदासगणी का अस्तित्व-काल विक्रम की पांचवीं-छठी शताब्दी माना गया है। भाष्य और उनका परिमाण आगम के व्याख्या साहित्य में नियुक्ति के बाद भाष्य का स्थान है। नियुक्ति दस ग्रंथों पर लिखी गई। नियुक्तियों की भांति भाष्य भी दस ग्रंथों पर लिखे गए हैं आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, बृहत्कल्प, पंचकल्प, व्यवहार, निशीथ, जीतकल्प, ओघनियुक्ति और पिंडनियुक्ति। " दस भाष्यों में बृहत्कल्प, निशीथ और व्यवहारसूत्र पर बृहत्काय भाष्य मिलते हैं। जीतकल्प, पंचकल्प और आवश्यक (विशेषावश्यक भाष्य) पर मध्यम, ओघनियुक्ति पर अल्प तथा दशवैकालिक, उत्तराध्ययन और पिंडनियुक्ति पर अत्यल्प परिमाण में भाष्य लिखे गए हैं। इन भाष्यों की गाथा संख्या इस प्रकार है१. बृहत्कल्पभाष्य-६४९० ५. पंचकल्पभाष्य-२६६६ २. निशीथभाष्य-६७०३ ६. जीतकल्पभाष्य २६०६ ३. व्यवहारभाष्य-४६९४ ७. ओघनियुक्तिभाष्य-३२२ ४. आवश्यकभाष्य ८. दशवैकालिकभाष्य-६३ • विशेषावश्यक भाष्य-३६०३ ९. उत्तराध्ययनभाष्य-३४ • मूलभाष्य-२५३ १०. पिंडनियुक्तिभाष्य-३७ प्रायः भाष्य मूलसूत्रों पर लिखे गए हैं। किन्तु दो भाष्य नियुक्ति पर लिखे गए हैं-पिंडनियुक्ति भाष्य और ओघनियुक्ति भाष्य। डॉ. मोहनलाल मेहता ने ओघनियुक्ति पर दो भाष्यों का उल्लेख किया है, पर वर्तमान में दूसरा बृहद्भाष्य अप्रकाशित है। १. बृभा. वृ. पृ. २। २. व्यभा. भूमिका पृ. ४३,४४। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका कल्पशब्द : अर्थमीमांसा नन्दीसूत्र के अनुसार प्रस्तुत आगम का नाम कल्पसूत्र है। वृत्तिकार ने कल्पशब्द के अनेक अर्थ बताते हुए एक श्लोक उद्धृत किया है सामर्थ्य वर्णनायां च, छेदने करणे तथा। औपम्ये चाधिवासे च, कल्पशब्दं विदुर्बुधाः। सामर्थ्य, वर्णन, छेदन, क्रिया, उपमा और अधिवास-इन अर्थों में कल्प शब्द प्रयुक्त हो सकता है। प्रत्येक अर्थ का उदाहरण के रूप में प्रयोग किया गया है, जैसेसामर्थ्य-वर्षाष्टप्रमाणश्चरणपरिपालने कल्पः समर्थ इत्यर्थः। आठ वर्ष की अवस्था वाला साधुत्व का पालन करने में समर्थ है। वर्णन-अध्ययनमिदमनेन कल्पितम, वर्णितमित्यर्थः। इस अध्ययन का वर्णन इसके द्वारा किया गया है। छेदन-केशान् कर्त्तर्या कल्पयति, छिनत्तीत्यर्थः । कैंची (कतरनी) से केश काटता है। क्रिया-कल्पिता मयाऽस्याऽऽजीविका कृता इत्यर्थः। मैंने इसके लिए आजीविका की व्यवस्था की। उपमा-सौम्येन तेजसा च यथाक्रममिन्दुसूर्यकल्पाः साधवः। सौम्यता और तेजस्विता के आधार पर साधुओं को क्रमशः चन्द्रमा और सूर्य से उपमित किया जा सकता है। अधिवास-सौधर्मकल्पवासी शक्रः सुरेश्वरः । देवेन्द्र शक्र सौधर्म नामक प्रथम स्वर्ग में वास करता है। कल्पसूत्र के प्रसंग में उपर्युक्त सभी अर्थों में कल्पशब्द का प्रयोग घटित हो सकता है।' भाष्यकार द्वारा कृत मंगल कल्प शब्द की व्याख्याविधि बताने के इच्छुक भाष्यकार ने अपने लक्ष्य की सफलता के लिए मंगल का प्रयोग किया है। मंगल के लिए उन्होंने नन्दी शब्द का प्रयोग किया है। यह पंचात्मक ज्ञान का प्रतीक है। पंचात्मक ज्ञान के अपेक्षा भेद से कई प्रकार किए गए हैं। प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से वह दो प्रकार का है। प्रत्यक्षज्ञान के तीन भेद हैं-अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान। परोक्षज्ञान के दो भेद हैं-आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान। श्रुतज्ञान के चौदह प्रकार हैं। अथवा श्रुतज्ञान के दो भेद हैं-अंगगत/अंगप्रविष्ट और अनंगगत/अंगबा। यहां प्रकृत है मंगलार्थ नंदी। उसका कथन करना चाहिए। मंगल के निमित्त पांच ज्ञानों की प्ररूपणा की गई। किन्तु यहां श्रुतज्ञान का अधिकार है, प्रसंग है। क्योंकि श्रुतज्ञान से ही शेष ज्ञानों का तथा अनुयोग का कथन होता है। यहां प्रदीप का दृष्टान्त ज्ञातव्य है। जिस प्रकार प्रदीप घट आदि पदार्थों का तथा स्वयं का प्रकाशक होता है, वैसे ही श्रतज्ञान शेष ज्ञानों तथा स्वयं का अनयोगकारक श्रुतज्ञान का अधिकार है। उस श्रुतज्ञान के भी उद्देशक, समुद्देशक, अनुज्ञा और अनुयोग-ये चार अंग होते हैं। प्रस्तुत प्रकरण में अनुयोग का अधिकार है। १. बृभा. वृ. पृ. ४। ३. बृभा. गा. १४८॥ २. बृभा. गा.३। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ अनुयोग / व्याख्या की विधि श्रुतज्ञान की प्राप्ति के लिए आचायों ने अनुयोग / व्याख्या की व्यवस्था की है। अनुयोग की विधि का निरूपण करते हुए भाष्यकार ने लिखा है पहली परिपाटी में सूत्र का कथन करना चाहिए। दूसरी परिपाटी में नियुक्तिमिश्रित सूत्र का कथन करना चाहिए । तीसरी परिपाटी में सम्पूर्ण अनुयोग का कथन करना चाहिए।' इस क्रम में पद, पदार्थ, चालना, प्रत्यवस्थान से विस्तृत कथन करना चाहिए। अनुयोग की यह विधि ग्रहण धारणा समर्थ शिष्यों के लिए है। मन्दमति शिष्यों के लिए अनुयोग की विधि यह है १. शिष्य गुरु की वाचना को मौन होकर सुने । २. दूसरी बार शिष्य गुरु की वाचना को हुंकार देकर सुने, वन्दना करे। ३. तीसरी बार शिष्य गुरु की बाचना सुनकर बाढकार करे यह ऐसा ही है, इस रूप में प्रशंसा करे। ४. चौथी बार प्रतिपृच्छा करे भंते! यह कैसे होता है? इस प्रकार प्रश्न करे। ५. पांचवीं बार विमर्श करे प्रमाण की जिज्ञासा करे। ६. छठी बार में शिष्य उपदिष्ट विषय का पारायण कर लेता है। ७. सातवीं बार में परिनिष्ठा को प्राप्त हो जाता है-गुरु की भांति व्याख्या करने में समर्थ हो जाता है।" सूत्र और अर्थ का पौर्वापर्य अनुयोग क्या होता है? और कब होता है? इस विषय में भाष्यकार का मन्तव्य यह है-अनु के साथ योग शब्द जुड़ने से अनुयोग शब्द बनता है। अनु का अर्थ है - पश्चात्भूत। अणु के साथ योग शब्द जुड़ने से अणुयोग शब्द निष्पन्न होता है। अणु का अर्थ है थोड़ा इस शब्द संयोजना के अनुसार जो पश्चात्कृत है, अल्प है, वह सूत्र है। सूत्र की रचना बाद में होती है तथा वह संक्षिप्त होती है, इसलिए उसे अणु / अनु कहा जाता है। अर्थ का कथन पहले होता है तथा वह विपुल / विस्तृत होता है, इसलिए अनणु/ अननु कहलाता है। आचार्य द्वारा अनुयोग की मीमांसा सुनकर शिष्य ने जिज्ञासा की पहले सूत्र होता है और प्रकाश / अर्थ उसके बाद होता है। लौकिक लोग भी यही चाहते हैं। सूत्र पेटी के सदृश होता है जैसे पेटी में अनेक वस्त्रों का समावेश होता है, वैसे ही सूत्र में अनेक अर्थपदों का समावेश होता है। लौकिक लोगों का अभिमत निम्नलिखित श्लोक से ज्ञात होता है बृहत्कल्पभाष्यम् पूर्व सूत्रं ततो वृत्तिर्वृत्तेरपि च सूत्रवार्तिकयोर्मध्ये ततो भाष्यं पहले सूत्र होता है फिर सूत्र की वृत्ति होती है । वृत्ति के बाद वार्तिक होता है। सूत्र और वार्तिक के मध्य में अपेक्षानुसार भाष्य का निर्माण किया जाता है। १. बृभा. गा. २०९ । २. बृभा. गा. २१० वृ. पृ. ६७ । वार्तिकम् । प्रवर्तते ॥ * शिष्य का तर्क यह है कि पेटी का उदाहरण सूत्र के संक्षिप्त होने को प्रमाणित नहीं करता, क्योंकि पेटी बड़ी होती है तभी उसमें अधिक वस्त्र समाते हैं। इससे पेटास्थानीय सूत्र में बहुत अर्थपदों का समावेश घटित हो जाता है। इस आधार पर पहले सूत्र और बाद में अर्थ की संगति बैठती है । " शिष्य के तर्क को निरस्त करने के लिए भाष्यकार ने कहा- अर्हत् अर्थ का कथन करते हैं । उसी को गणधर सूत्ररूप में ग्रथित करते हैं। अर्थ के बिना सूत्र कैसे हो सकता है? यदि होता भी है तो वह असंबद्ध होता है लौकिक शास्ता भी पहले अर्थ देखकर ही सूत्र की रचना करते हैं, क्योंकि अर्थ के बिना सूत्र की निष्पत्ति ही संभव नहीं है। ३. बृभा. वृ. पृ. ६२ । ४. बृभा. वृ. पृ. ६२। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ग्रंथकार ने एक तर्क यह दिया कि पेटी की तरह सूत्र विशद होता है और अर्थ थोड़ा होता है। प्रस्तुत उदाहरण भी ग्राम्य है। क्योंकि उसी पेटी से एक वस्त्र निकालकर अनेक पेटियों को बांधा जा सकता है। इसी प्रकार एक अर्थ से अनेक सूत्र पहले उसी अर्थ के आधार पर बनते हैं। इस दृष्टि से वस्त्रस्थानीय अर्थ ही महत्त्वपूर्ण घटित होता है।' व्याख्या के लक्षण अर्थ और सूत्र की मीमांसा के बाद सूत्र के लक्षण, दोष और गुण बताए गए हैं। गुण-दोष की चर्चा के अनन्तर सूत्र के उच्चारण की पद्धति का निर्देश है। उस पद्धति का अतिक्रमण होने पर संभावित कठिनाइयों को उदाहरणों के माध्यम से स्पष्ट किया गया है तथा प्रायश्चित्त का संकेत भी किया गया है। इस समग्र प्रकरण को भाष्य की वृत्ति के साथ पढ़ा जाए तो भाष्यकार की बहुश्रुतता स्वतः मुखर हो जाती है। शास्त्रोक्त विधि से सूत्र का पाठ करने पर उसकी व्याख्या का प्रसंग उपस्थित होता है। भाष्यकार ने व्याख्या के छह लक्षण बताए हैं-संहिता, पद, पदार्थ, पदविग्रह, चालना और प्रत्यवस्थान।२ मतान्तर से व्याख्या के पांच विकल्प निर्दिष्ट किए गए हैं-सूत्रोच्चारण, पद, पदार्थ, पदविक्षेप और निर्णयप्रसिद्धि। सामान्यतः पाठक के लिए उक्त शब्द दुर्बोध प्रतीत होते हैं, किन्तु वृत्ति और भाष्य का हिन्दी अनुवाद सामने होने पर ये बोधगम्य बन जाते हैं। भाष्यकार का उद्देश्य केवल कल्पसूत्र के सूत्रों की व्याख्या तक सीमित नहीं था। जिस किसी प्रसंग से उन्होंने अपने बहुमुखी ज्ञान को भाष्य की गाथाओं में पिरोने का प्रयास किया है। और तो क्या, संस्कृत-व्याकरण के अनेक पहलुओं को इतनी सहजता से गाथाओं में गूंथ दिया कि व्याकरण के सामान्य नियमों को समझने वाला भी उनके आधार पर व्याकरण के गंभीर ज्ञान को उपलब्ध कर सकता है। सूत्रग्रहण की अर्हता सूत्र के बारे में विशद विश्लेषण करने के बाद भाष्यकार ने सूत्र-ग्रहण की अर्हता और कल्पसूत्र को ग्रहण करने के योग्य परिषद् की परीक्षा के लिए चौदह दृष्टान्त प्रस्तुत किए हैं-शैलधन, कुटक, चालिनी, परिपूणक, हंस, महिष, मेष, मशक, जलौका, बिडाली, जाहक, गौ, भेरी तथा आभीरी।' प्रत्येक दृष्टान्त को भाष्य गाथाओं में ही कुछ विस्तार से बताया गया है। निष्कर्ष रूप में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि किन दृष्टान्तों के प्रतिरूप शिष्य वाचना के योग्य या अयोग्य होते हैं। अयोग्य शिष्यों को वाचना देने वाले और योग्य शिष्यों को वाचना न देने वाले आचार्य प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। परिषद् की परीक्षा विधि का निरूपण करने के बाद भाष्यकार ने उसके तीन प्रकार बतलाए हैं-ज्ञायक परिषद्, अज्ञायक परिषद् और दुर्विदग्ध परिषद्। इन तीनों परिषदों के स्वरूप एवं प्रकारों की भी विस्तृत चर्चा की गई है। इसी श्रृंखला में लौकिक तथा लोकोत्तर परिषदों के प्रकार भी समझाए गए हैं। समग्र प्रकरण को पढ़ने से प्रतीत होता है कि भाष्यकार की ज्ञान-चेतना कितनी विकसित थी। वृत्तिकार ने भी भाष्यकार के कथ्य को विस्तार से प्रतिपादित कर अपने प्रतिभा-कौशल का परिचय दिया है। प्रथम सूत्र की व्याख्या 'बृहत्कल्पसूत्र' का प्रथम सूत्र है-'नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा आमे तालपलंबे अभिन्ने पडिगाहित्तए'इस छोटे-से सूत्र की व्याख्या में भाष्यकार ने एक सौ पिच्यानवे गाथाएं लिखी हैं। छोटा-सा सूत्र और व्याख्या में इतना विस्तार अपने आप में एक आश्चर्य है। भाष्यकार ने सूत्र के प्रत्येक शब्द की समग्र रूप से शल्य-चिकित्सा की है। सूत्र की व्याख्या के लिए जो अनुशासन निर्दिष्ट किया गया है, उसका अनुसरण करते हुए चालना/प्रश्न का उत्थापन और प्रत्यवस्थान/समाधान का खुलकर प्रयोग किया गया है। १. बृभा. वृ. पृ. ६२,६३। २. बृभा. गा. ३०२। ३. बृभा. गा. ३०९। ४. बृभा. गा. ३२५-३२७। ५. बृभा. गा.३३४-३६३। ६. बृभा. गा. ३६४-३७२। ७. बृभा. गा. ३७८-३९८ वृ. पृ. ११२-११६। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् सूत्र में सर्वप्रथम 'नो' शब्द को अमांगलिक मानकर उसके प्रयोग को लेकर उठाए गए प्रश्न को यौक्तिक-विधि से समाहित किया गया है। निर्ग्रन्थ शब्द की मीमांसा में बाह्य ग्रंथ और आभ्यन्तर ग्रंथ-ये दो भेद किए गए हैं। बाह्य ग्रंथ को समझाने के लिए उसके दस प्रकार बताए हैं। आभ्यन्तर ग्रंथ के चौदह प्रकारों का उल्लेख हुआ है। इस प्रसंग में सैद्धांतिक दृष्टि से भी कुछ विवेचन किया गया है। प्रस्तुत विवेचन भाष्यकार की सैद्धांतिक अवधारणाओं को भी उजागर करता है।' आम शब्द की व्याख्या में भी भाष्यकार ने अनेक दृष्टियों का उपयोग किया है। सामान्यतः 'आम' शब्द का अर्थ होता है-अपरिपक्व/सचित्त। किसी भी निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी के द्वारा साधु जीवन स्वीकार करते समय सब प्रकार की प्रवृत्तियों का तीन करण और तीन योग से त्याग किया जाता है। सचित्त फल का स्पर्श, ग्रहण और भक्षण पापकारी प्रवृत्ति है। इस आधार पर हर अपरिपक्व फल साधु के लिए अग्राह्य और अभक्ष्य होता है। ऐसी स्थिति में अपरिपक्व तालप्रलंब फल के ग्रहण का प्रसंग ही उपस्थित नहीं होता। इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि शैक्ष साधुओं को विस्तार या स्पष्टता से समझाने के लिए इस सूत्र की रचना की गई है। यहां प्रश्न यह है कि सूत्र में सब प्रकार के आम फलों का निषेध होता तो वह बुद्धिगम्य हो जाता। किन्तु केवल प्रलंब फल का ही निषेध क्यों ? भाष्यकार ने अपनी ओर से यह प्रश्न तो उपस्थित नहीं किया। पर निक्षेप-पद्धति से 'आम' शब्द की व्याख्या के प्रसंग में भाव आम का अर्थ किया है-उद्गम, उत्पादन और एषणा दोष को भाव आम समझना चाहिए। इसी प्रकार पृथ्वीकायिक आदि जीवों का उपमर्दन रूप असंयम भी भावतः आम विधि है। क्योंकि इससे चारित्र अपक्व होता है। उक्त प्रश्न के समाधान हेतु सूत्रकार और भाष्यकार की विवक्षा को समझना आवश्यक है। प्रलंब और भिन्न शब्दों को भी निक्षेप-पद्धति से समझाया गया है। प्रलम्ब-ग्रहण की स्थिति के अनेक विकल्पों का निरूपण करके भाष्यकार ने उनका अलग-अलग प्रायश्चित्त भी बताया है। प्रायश्चित्त का आधार है-संयम-विराधना और आत्म-विराधना। ये दोनों प्रकार की विराधना कैसे होती है और कितनी विराधना होने पर क्या प्रायश्चित्त होता है, यह भी निर्दिष्ट किया गया है। प्रायश्चित्त की प्रस्तुत विधि का निर्देश किसी परम्परा के आधार पर किया गया है अथवा भाष्यकार ने अपनी मति से निर्धारण किया है, इसका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। मासकल्प विहार की विधि प्रथम उद्देशक के पांच सूत्रों में तालप्रलंब फल की ग्रहण विषयक विधि, निषेध और प्रायश्चित्त का विधान है। छठे सूत्र में ग्राम, नगर आदि में साधुओं के प्रवास-काल का विधान है। भाष्यकार ने नय और निक्षेपविधि से ग्राम शब्द का विशद विवेचन किया है। भावग्राम के निरूपण में उन्होंने तीर्थंकर, जिन (केवली), चतुर्दशपूर्वधर, दशपूर्वधर, असम्पूर्ण दशपूर्वधर, संविग्न, असंविग्न, सारूपिक, अणुव्रतधारी श्रावक, दर्शनश्रावक और सम्यग्दृष्टिपरिगृहीत प्रतिमा का ग्रहण किया है। यह पूरा प्रसंग ग्राम शब्द को विविध दृष्टिकोणों से समझने में सहायक बनता है।" सूत्र में समागत मास शब्द को भी निक्षेपविधि से समझाया गया है। मासकल्प विहार की विधि में भी एकरूपता नहीं है। जिनकल्पिक, शुद्ध परिहारिक, अहालंदक, गच्छवासी-स्थिरकल्पिक तथा आर्यिकाओं के लिए मासकल्प की विधि अलग-अलग बताई गई है। प्रस्तुत संदर्भ में जिनकल्पिक साधु की प्रव्रज्या, शिक्षा आदि का विस्तार से विवेचन किया गया है। शिक्षा के प्रसंग में भाष्यकार ने उदाहरणों के माध्यम से शास्त्रों के अध्ययन की आवश्यकता पर बल दिया है। आगमों के अध्ययन और स्वाध्याय में रुचिवर्धन की दृष्टि से यह प्रकरण बहुत उपयोगी है।६ आगम-अध्ययन का महत्त्व भाष्य गाथा ११४४-११४६ में शिष्य ने ज्ञान के प्रति उदासीनता प्रकट करते हुए जिज्ञासा की-'गुरुदेव मैं १. बृभा. वृ. पृ. २५७-७०। ४. बृभा. गा. १०९४-१११९ वृ. पृ. ३४३-३५०। २. बृभा. वृ. पृ. २७०-२७२। ५.बृभा.गा.११२६। ३. बृभा. गा. ८६१-८८९ ३. पृ. २७५-२८३। ६. बृभा. गा. १९३१। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका संयमयोगों में उद्यमशील हं, फिर मेरा पढ़ने से क्या प्रयोजन ?' आचार्य ने शिष्य को प्रतिबोध देने के लिए दो दृष्टान्त उपस्थित किए हैं: १. जैसे हाथी स्नान करने के पश्चात् अपने शरीर पर प्रचुर मात्रा में धूली डाल लेता है, वैसे ही संयम में अच्छी तरह उद्यमशील अज्ञानी साधु भी कर्ममल का उपचय करता है। २. जैसे हाथीपगा व्यक्ति जितने प्रमाण में खेत का निदान करता है, उससे भी अधिक धान्य को अपने पैरों से रौंद डालता है। इसी प्रकार श्रुतपाठ के बिना चारित्ररूपी सस्य को असंयमरूपी पंक में डाल देता है। श्रुत के अध्ययन से निष्पन्न होने वाले गुणों की चर्चा करते हुए भाष्यकार ने गाथा ११६२ में आठ गुणों का उल्लेख किया है-आत्महित, परिज्ञा, भावसंवर, नया-नया संवेग, निष्कम्पता, तप, निर्जरा और परदेशिकत्व। तप एवं निर्जरा का महत्त्व उजागर करते हुए उन्होंने लिखा है बारसविहम्मि वि तवे, सब्भिंतरबाहिरे कुसलदिढे। न वि अत्थि न वि अ होही, सज्झायसमं तवोकम्म॥ तीर्थंकरों द्वारा दृष्ट बाह्य और आभ्यन्तर रूप में विभक्त बारह प्रकार के तपःकर्म में स्वाध्याय के समान दूसरा कोई तपःकर्म न है और न होगा। जं अन्नाणी कम्मं खवेइ बहयाहिं वासकोडीहिं। तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ - ऊसासमेत्तेण॥' अज्ञानी जीव जिन कर्मों का क्षय अनेक कोटि वर्षों में करता है, उन्हीं कर्मों का क्षय तीन गुप्तियों से गुप्त ज्ञानी साधक उच्छवास मात्र कालमान में कर देता है। विभिन्न जनपदों में विहार करने से भाष्यकार की ज्ञान-चेतना और अनुभव-चेतना भी समृद्ध हो गई। अपनी इसी चेतना के द्वारा तत्कालीन कृषि-व्यवस्था और जीवन-निर्वाह की प्रक्रिया प्रस्तुत करते हुए उन्होंने लिखा है • लाट देश में वर्षा के पानी से धान्य की निष्पत्ति होती है। • सिन्धु देश में नदी के पानी से धान्य की निष्पत्ति होती है। • द्रविड़ देश में तालाब के पानी से धान्य की निष्पत्ति होती है। • उत्तरापथ में कुएं के पानी से धान्य की निष्पत्ति होती है। . बनास जनपद में बाढ़ के पानी से धान्य की निष्पत्ति होती है। • डिंभरेलक नगर में महिरावण नदी के पूर से धान्य की निष्पत्ति होती है। • कानन द्वीप में नौका द्वारा आनीत धान्य से जीवन-यापन किया जाता है। • मथुरा में धान्य के व्यापार से जीवन-यापन किया जाता है। • दुर्भिक्ष में मांसाहार जीवन-यापन का साधन बनता है। • कोंकण देश के मनुष्य पुष्प और फलभोजी होते हैं।" जिनकल्प की पांच तुलाएं जिनकल्प की साधना हर कोई साधक नहीं कर सकता। उसके लिए विशेष अर्हता का अर्जन आवश्यक माना गया है। जिनकल्प साधना की अर्हता प्रमाणित करने वाली पांच तुलाएं-भावनाएं बताई गई हैं-तप, सत्व, श्रुत, एकत्व और १.भा. गा.११४७,११४८वृ. पृ. ३५७,३५८। २. विस्तार हेतु देखें बृभा. गा. ११६३-११७१। ३. बृभा. गा. ११६९। ४. बृभा. गा. १९७०। ५. बृभा. गा. १२३९ वृ. पृ. ३८३,३८४। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . बृहत्कल्पभाष्यम् बल। इन पांचों भावनाओं का समीचीन रूप में प्रतिपादन करने के बाद भाष्यकार ने बताया है कि ये सारी भावनाएं धृति और बल से युक्त होती हैं। ऐसा कोई साध्य नहीं है, जो धृतिमान पुरुष सिद्ध न कर सके। वैयावृत्त्य/सेवा का महत्त्व मासकल्प विहार के प्रसंग में बीमार मुनि की वैयावृत्त्य का सांगोपांग विवेचन है। मुनियों के अनेक गच्छ होते थे। अपने या दूसरे गच्छ के किसी साधु की बीमारी के बारे में अवगति पाकर भी जो मुनि बीमार साधु के पास नहीं जाता, दूसरा रास्ता लेकर अन्यत्र चला जाता है, उस मुनि के आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। बीमारी की सूचना मिलने पर क्या करना चाहिए? इस विषय में भाष्यकार का दिशादर्शन यह है जह भमर-महुयरिगणा, निवतंती कुसुमियम्मि चूयवणे। ___ इय होइ निवइअव्वं, गेलन्ने कइवयजढेणं॥ जिस प्रकार भ्रमर और मधुकरी समूह कुसुमित आम्रखण्ड में मकरंद के लोभ से आते हैं, वैसे ही मुनि भी निर्जरालाभ का आकांक्षी होकर मायारहित होकर ग्लान की परिचर्या के लिए तत्काल उसके पास पहुंचे। ग्लान की सेवा करने से मुझे महान् निर्जरा का लाभ मिलेगा, ऐसा सोचने वाला श्रद्धावान् होता है। वह ग्लान के विषय में सुनकर सारे कार्य छोड़कर त्वरित गति से उसके पास पहुंचे और वहां नियुक्त उपचारकों से निवेदन करे-'भंते ! मुझे निर्देश दें कि मैं क्या करूं? आप मुझे किस कार्य में नियुक्त करना चाहेंगे? मैं इसी प्रयोजन से यहां आया हूं। मैं ग्लान की परिचर्या करूंगा अथवा ग्लान की सेवा में व्याप्त मुनियों की वैयावृत्त्य करूंगा। इस प्रकार करने से तीर्थ की अनुवर्तना और भगवान् की भक्ति होती है।' स्थविरों द्वारा प्रतिबोध संघ में अनेक मुनि होते हैं। सबकी मनोवृत्ति समान नहीं होती। अप्रशस्त मनोवृत्ति वाला मुनि स्वयं को परिचर्या करने में अक्षम अनुभव करता है। अपनी अक्षमता को प्रकट करते हुए कोई मुनि कहे-'मैं सर्वथा वराक/अशक्त हूं। ऐसी स्थिति में वहां ग्लान-परिचर्या में जाकर क्या करूंगा?' इस प्रकार कथन करने वाले मुनि को प्रायश्चित्त का भागी माना गया है। उक्त प्रकार की दुर्बल या अप्रशस्त मनोवृत्ति वाले मुनि को स्थविर प्रतिबोध देते हैं। उनके प्रतिबोध की भाषा यह है-आर्य! तुम ऐसा क्यों कहते हो? क्या तुम ग्लान का उद्वर्तन करना, खेलमल्लक को भस्म से भरना, संस्तारक बिछाना, रात्रि में जागरण करना, औषध आदि पीसना, भोजन-पात्रों को धारण करना, ग्लान तथा उसके परिचारकों की उपधि का प्रतिलेखन करना आदि काम भी करने में असमर्थ हो? जिससे अपने आपको अशक्त बता रहे हो।" महर्द्धिक/महत्त्वपूर्ण कौन ? जिनकल्पिक की प्रव्रज्या, शिक्षा, साधना आदि की सहज और प्रासंगिक विशद चर्चा के उपसंहार से भाष्यकार ने शिष्य की एक जिज्ञासा को मुखर होने का मौका दिया है। शिष्य ने पूछा-'गच्छ और जिनकल्पिक मुनि के मध्य कौन महर्द्धिक होता है?' आचार्य ने कहा-निष्पादक और निष्पन्न की अपेक्षा दोनों महर्द्धिक हैं। गच्छ सूत्रार्थ का प्रदाता है। उसी के आधार पर जिनकल्प होता है। गच्छ जिनकल्प का निष्पादक होने के कारण महर्द्धिक है। जिनकल्प ज्ञान, दर्शन और चारित्र में परिनिष्ठित होता है, इसलिए वह महर्द्धिक है। गच्छ और जिनकल्पिक की सापेक्ष महत्ता को प्रमाणित करने के लिए भाष्यकार ने दो महिलाओं और दो गायों के उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। प्रस्तुत विषय के उपसंहार में बताया गया है कि जिनकल्पिक गच्छ में ही तैयार होता है। विशिष्ट साधना के लिए वह आगे जाकर गच्छ निरपेक्ष हो जाता है, गच्छ से मुक्त हो जाता है। किन्तु गच्छ जिनकल्पिक १. बृभा. गा. १३२८-१३५७ वृ. पृ. ४०७-४१२। २. बृभा. गा. १८७३। ३. बृभा. गा. १८७७,१८७८। ४. बृभा. गा. १८८५। ५. बृभा. गा. १८८६ वृ. पृ. ५५१। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका साधुओं से रिक्त नहीं होता। रत्नाकर-समुद्र से अनेक प्रकार के रत्न निकालने पर भी उसको रत्नरहित नहीं किया जा सकता क्योंकि वह रत्नों का उत्पादक है। इसी प्रकार गच्छ रूपी रत्नाकर भी रत्न सदृश जिनकल्पिकों के विनिर्गत होने पर रत्नरहित नहीं हो जाता, क्योंकि वह बाद में भी दूसरे मुनियों को रत्नभूत बनाता रहता है।' विहार क्षेत्र की सीमा बृहत्कल्प के प्रथम उद्देशक का अंतिम सूत्र आर्य और अनार्य क्षेत्रों की सीमा का निर्धारण करने वाला है। मूलसूत्र में पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण-चारों दिशाओं में समनुज्ञात क्षेत्रों का उल्लेख है। पूर्व दिशा में अंग एवं मगध, दक्षिण दिशा में कौशाम्बी, पश्चिम दिशा में स्थूणा जनपद और उत्तर दिशा में कुणाला जनपद तक की सीमा निश्चित करके सूत्र में निर्दिष्ट किया गया है कि आर्यक्षेत्र इतना ही है, इसलिए इस सीमा से बाहर साधु-साध्वियों के लिए विहार करना विहित नहीं है। सूत्रकार का यह वचन भी सापेक्ष है, क्योंकि सूत्र का अन्तिम अंश बताता है कि इससे आगे भी विहार किया जा सकता है, पर आधार एक ही है-ज्ञान, दर्शन और चारित्र का विकास। यदि विकास की संभावना हो तो निर्धारित सीमा से आगे भी यात्रा की जा सकती है। उक्त सूत्र के महत्त्व को अभिव्यक्ति देते हुए भाष्यकार ने लिखा है-जो आचार्य प्रस्तुत प्रथम उद्देशक का अंतिम सूत्र नहीं जानता अथवा सारा कल्प अध्ययन नहीं जानता, उसके लिए भाष्यकार ने निम्ननिर्दिष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया है-चतुःशाला वाले घर के मध्यभाग में अथवा उसके प्रवेश और निर्गमन के स्थान पर दीपक जलाकर रख दिया जाता है तो वह दीपक सम्पूर्ण चतुःशाला को प्रकाशित कर देता है। उपाश्रय, शय्यातरपिण्ड और वस्त्र-रजोहरण बहत्कल्पसूत्र के द्वितीय उद्देशक में साधु-साध्वियों के प्रवास की दृष्टि से उपयुक्त और अनुपयुक्त उपाश्रय का विवेचन किया गया है। प्रथम बारह सूत्रों में उपाश्रय का वर्णन है। भाष्यकार ने ३२९० से ३५१७ तक की गाथाओं में उपाश्रयपद की व्याख्या की है। प्रस्तुत उद्देशक में दूसरा प्रसंग सागारिक-शय्यातर का है। शय्यातर कौन होता है? कब होता है? उसका पिण्ड कितने प्रकार का है? वह अशय्यातर कब होता है? आदि अनेक प्रश्न उपस्थित कर भाष्यकार ने पूरे विस्तार के साथ इस प्रकरण को प्रस्तुत किया है। लगभग एक सौ गाथाओं में यह प्रकरण गुंफित है। इसी प्रकार निर्हत शय्यातरपिण्ड, आहृत शय्यातरपिण्ड, अंशिकापिण्ड और पूज्यभक्त के बारे में विवेचन है। साधु के लिए कल्पनीय वस्त्रों और रजोहरणों की संक्षिप्त चर्चा के साथ दूसरा उद्देशक समास होता है। उपाश्रय, वस्त्र आदि का विधान तृतीय उद्देशक का प्रारंभ उपाश्रय के संबंध में विशेष निर्देश के साथ हुआ है। बिना कारण साधुओं को साध्वियों के उपाश्रय में तथा साध्वियों को साधुओं के उपाश्रय में जाने का निषेध किया है। अकारण उपाश्रय में जाने से संभावित दोषों की सूचना दी गई है। प्रस्तुत प्रसंग के बाद साधु-साध्वियों को वस्त्र कैसा लेना? कब लेना? किस क्रम से लेना आदि व्यवस्थाओं के बारे में विवरण दिया गया है। साधु-साध्वियों में परस्पर कतिकर्म-अभ्युत्थान और वन्दना की विधि इसी उद्देशक में वर्णित है। इसी प्रकार गृहान्तर में बैठना, शय्या-संस्तारक पुनः गृहस्थ को सौंपना आदि अनेक विषयों को विविध दृष्टियों से विश्लेषित किया गया है। सूत्रकार की संक्षिप्त सूचनाओं को भाष्यकार ने जिस रूप में प्रस्तुति दी है, उससे उस युग के साधु-साध्वियों की चर्या तथा सामान्य परम्पराओं का भी पूरा बोध हो सकता है। अनार्यदश बने विहारक्षेत्र भाष्य में वर्णित राजाओं के कथानक भारतीय इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण जानकारी देने वाले हैं। उदाहरण के रूप में सम्राट् सम्प्रति का प्रसंग यहां प्रस्तुत है-भाष्य के अनुसार राजा सम्प्रति सुविहित मुनियों का श्रावक हो गया। राजा ने एक बार सभी प्रात्यन्तिक-अनार्य देश के राजाओं को बुलाया और उनको विस्तार से धर्म-विषयक बात बताई। ३. बृभा. गा. ३२४४,३२४५। १. बृभा. गा. २१२२-२१२४ विस्तार हेतु देखें वृ. पृ. ६०७-६०९। २. बृसू. १९४७ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ बृहत्कल्पभाष्यम् उनको सम्यक्त्व प्राप्त कराई तथा उन्हें निर्देश दिया कि वे अपने देश में जाकर श्रमणों के प्रति भद्रक बने रहें, उनके प्रति भक्ति भाव रखे।" महाराज सम्प्रति ने उन राजाओं से कहा- 'यदि तुम मुझे स्वामी मानते हो तो सुविहित श्रमणों को प्रणाम करो। मुझे द्रव्य नहीं चाहिए। मुझे केवल श्रमणों को प्रणमन करना प्रिय है। वह प्रियता आप करें।' इस प्रकार निर्देश देकर सम्प्रति राजा ने एकत्रित सभी राजाओं को विसर्जित कर दिया। वे राजा अपने राज्य में गए। उन्होंने अमारी की घोषणा करवाई। उसके बाद वे क्षेत्र साधुओं के लिए सुविहार क्षेत्र हो गए। २ साधुओं ने राजा से कहा कि अनार्य देशों के लोग साधुओं के आचार-विचार, कल्प्याकल्प को नहीं जानते। इस स्थिति में वहां विहार कैसे हो सकता है? इस समस्या का समाधान करने के लिए राजा सम्प्रति ने अपने सैनिकों को साधु-सामाचारी का प्रशिक्षण देकर अनार्य देशों में भेजा । श्रमण वेशधारी सैनिक अनार्य देशों में गए। उन्होंने वहां एषणा के दोषों से शुद्ध आहार लिया। इससे वे क्षेत्र सम्यक्भावित हो गए। उन देशों में मुनि सुखपूर्वक विहार करने लगे। उस समय से वे अनार्य देश भी भनक हो गए।' महाराज सम्प्रति का सैन्यबल अपूर्व था । उसकी सेना प्रबल योद्धाओं से आकीर्ण तथा सर्वत्र अप्रतिहत थी । उस सेना ने समस्त विपक्षी सेनाओं को जीत लिया। ऐसे सैन्यबल से अन्वित महाराज सम्प्रति ने साधुओं को कष्ट देने वाले आन्ध्र, द्रविड़ आदि देशों को चारों ओर से सुखविहार के लिए उपयुक्त बना दिया । " वाचना के लिए अपात्र बृहत्कल्पसूत्र में तीन व्यक्तियों को वाचना के लिए अयोग्य माना गया है-अविनीत, विगयप्रतिबद्ध और कलह को उपशांत नहीं करने वाला। इन्हें वाचना क्यों नहीं देनी चाहिए? इसे स्पष्ट करते हुए भाष्यकार ने लिखा है कि अविनीत व्यक्ति बिना ज्ञान दिए भी स्तब्ध होता है। यदि उसे श्रुत दे दिया जाए तो फिर कहना ही क्या ? जो स्वयं नष्ट हो चुका है, वह दूसरों को नष्ट न करे, क्षत पर कोई नमक न छिड़के, इसलिए अविनीत को वाचना नहीं देनी चाहिए । गोयूथ स्वयं प्रस्थित है। अग्रगामी गोपाल जब उसको पताका दिखाता है तो उसका वेग बढ़ जाता है, यह श्रुति है। इसी प्रकार दुर्विनीत को ज्ञान देने से उसका अविनय बढ़ता ही है। रोग के तीव्रतर वेग में औषध शमनकारी नहीं होती और न वह निदान के अनुरूप ही होती है।" इसी प्रकार रसलोलुप और कलह को शांत नहीं करने वाला व्यक्ति भी वाचना के लिए अयोग्य है। अपात्रों / अयोग्यों को वाचना दी जाती है तो दूसरे शिष्य भी सोचते हैं, अहो ! अब हम भी ऐसे ही बनें। इस प्रकार दुर्विनय से प्रवर्तमान उनके द्वारा इहलोक और परलोक दोनों ही परित्यक्त होते हैं। इससे अनवस्था होती है। फिर कोई भी विनय आदि नहीं करता। " आतापना की साधना जैन मुनि के लिए आतापना एक प्रकार का तप है। प्राचीनकाल में अनेक मुनि सूरज की किरणों से तपी हुई शिला या धूली पर लेटकर आतापना लेते थे। इसी प्रकार दोनों हाथ ऊपर उठाकर सूरज के सामने खड़े रहकर आतापना लेने की भी परम्परा रही है तेजोलब्धि की उपलब्धि के लिए निरूपित साधना की प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण अंग आतापना ही है। मंखलिपुत्र गौशालक द्वारा तेजोलेश्या की प्राप्ति कैसे होती है? इस प्रकार की जिज्ञासा सुनकर महावीर ने उसकी पूरी विधि बताई । तीर्थ की स्थापना के बाद गणधर गौतम को इस विषय की जानकारी दी गई, वह पूरा प्रसंग भगवती सूत्र में विस्तार से मिलता है। भगवान् महावीर ने तेजोलब्धि प्राप्त करने की प्रक्रिया बताते हुए कहा जो एक मुट्ठीभर ९. बृभा. गा. ३२८३,३२८४ । २. बृभा. गा. ३२८६, ३२८७ । ३. बृभा. गा. ३२८८ । ४. बृभा. गा. ३२८९ । ५. बृसू. ४।६। ६. बृभा. गा. ५२०१। ७. बृभा. गा. ५२०२ । ८. बृभा. गा. ५२०९ । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका कुल्मासपिण्डिका खाता है, एक चुल्लू पानी पीता है, निरन्तर बेले-बेले की तपस्या करता है, आतापन-भूमि में सूर्य के सामने दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर आतापना लेता है, वह छह मास के अंतराल में संक्षिप्त विपुल तेजोलेश्या वाला हो जाता कल्पसूत्र के पांचवें उद्देशक में आतापना के तीन प्रकार बतलाए गए हैं-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य। निपन्न लेटकर आतापना लेना उत्कृष्ट आतापना है। निषण्ण-बैठकर आतापना लेना मध्यम आतापना है। स्थित-खड़े रहकर आतापना लेना जघन्य आतापना है।२ आतापना का प्रयोग वैदिक परम्परा में भी सम्मत रहा है। पंचाग्नि तप में एक अग्नि सूर्य की किरणों को माना गया है। इनका वैज्ञानिक महत्त्व भी है। वैज्ञानिक दृष्टि से की गई शोध का निष्कर्ष है कि सूर्य की किरणें मानव के शरीर और मस्तिष्क को स्वस्थ और पुष्ट रखती हैं। ये रोग-निवारक और कीटाणु-नाशक भी हैं। डॉ. चाल्स एफा हेलैन तथा लन्दन के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. डब्ल्यू. एम. फ्रेजर का मत है कि संसार में जितनी शक्तियां विकसित हैं, वे सब सूर्य के कारण विगत कुछ दशकों में सूर्यकिरण चिकित्सा से भी आश्चर्यकारी परिणाम सामने आए हैं। डॉ. हेगेन का अभिमत है कि रक्त का पीलापन, पतलापन, लोह तत्त्व की कमी, कमजोरी, पेशियों की शिथिलता, थकान आदि रोगों में सूर्य की सहायता से उपचार करना सरल है। सूर्य की रश्मियों से शरीर की प्रतिरोधात्मक शक्ति बढ़ती है। इस विषय में काफी अनुसंधान हुआ है और हो रहा है। वैज्ञानिक अनुसंधाता जैन आगम साहित्य में उपलब्ध तथ्यों को भी शोध का विषय बनाएं, यह अपेक्षित है। सूत्र और भाष्य का उपसंहार बृहत्कल्पसूत्र के अंतिम सूत्र में छह प्रकार की कल्पस्थिति बताई गई है-सामायिकसंयत कल्पस्थिति, छेदोपस्थापनीयसंयत कल्पस्थिति, निर्विशमान कल्पस्थिति, निर्विष्टकाय कल्पस्थिति, जिनकल्प कल्पस्थिति और स्थविर कल्पस्थिति। कल्पस्थान दस हैं-आचेलक्य, औद्देशिक, शय्यातरपिंड, राजपिंड, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मासकल्प और पर्युषणाकल्प। प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के शासन में छेदोपस्थापनीय चारित्र वाले साधुओं की दस प्रकार की कल्पस्थिति स्थितकल्प के रूप में मान्य की गई है। यह धुतरजाकल्प दस स्थान में प्रतिष्ठित होता है। प्रथम प्रलम्बसूत्र और अंतिम षड्विधकल्पस्थितिसूत्र तक सूत्रकार तथा भाष्यकार द्वारा साधु के आचार-विचार संबंधी अनेक तथ्य प्रस्तुत किए गए हैं। उनके संदर्भ में उत्सर्ग मार्ग और अपवाद मार्ग से भी विचार किया गया है। भाष्यकार के अनुसार उत्सर्ग में आपवादिक क्रिया तथा अपवाद में उत्सर्ग क्रिया करने वाला अर्हत् शासन की आशातना करता है और वह दीर्घसंसारी होता है। भाष्य के समापन में भाष्यकार ने मोक्षार्ह मुनि की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए लिखा है-अरहस्यधारक-अतीव रहस्यमय शास्त्रों को धारण करने वाला, सूत्रों का पारगामी, अशठकरण-मायापद से विप्रमुक्त, तुलासदृश, समित-पांच समितियों से समायुक्त, कल्प की अनुपालना करने वाला, दीपन-स्वसमय की दीपना करने वाला, आलस्य छोड़कर भगवद्वाणी को जन-जन तक पहुंचाने वाला होता है। वही ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करने वाला तथा संसार-भ्रमण को छिन्न करने वाला होता है। वह मोक्ष को प्राप्त होता है। १. भगवई श. १५७०। २. बृभा. गा. ५९४५, विस्तार हेतु देखें गा. ५९४६-५९४९। ३. बृभा. गा. ६३५७। ४. बृभा. गा. ६३६३। ५. बृभा. गा. ६३६४। ६. बृभा. गा. ६४८७। ७. बृभा. गा. ६४९०। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० उल्लेखनीय संघ रत्न छह हजार चार सौ नब्बे (६४९०) गाथाओं में ग्रथित बृहत्कल्पभाष्य भाष्य परम्परा में एक उल्लेखनीय ग्रंथ है। बृहत्कल्पसूत्र पर भाष्य से पहले नियुक्ति लिखी गई थी। वर्तमान में नियुक्ति और भाष्य दोनों मिलकर एक ग्रंथ हो गए। टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने इस बात का उल्लेख करते हुए लिखा है- 'सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्तिर्भाष्यं चैको ग्रन्थो जातः । " इस उल्लेख से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि टीकाकार मलयगिरि के समय तक छेद सूत्रों की नियुक्तियों का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रहा। बृहत्कल्प भाष्य पीठिका सहित छह खण्डों में प्रकाशित है। प्राचीन भारतीय संस्कृति, सभ्यता, इतिहास, परम्परा आदि की दृष्टि से प्रस्तुत ग्रंथ का अपना महत्व है। साध्वाचार के विधिनिषेधों के निरूपण क्रम में ग्रंथकार ने प्रासंगिक रूप में तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक, भौगोलिक, चिकित्साशास्त्रीय, आर्थिक, व्यावहारिक आदि विभिन्न परिस्थितियों का भी समीचीन अंकन किया है। भाष्यकार जैन मुनि थे। मुनिचर्या का पालन करते हुए उन्होंने अनेक जनपदों में परिव्रजन किया था और लोकजीवन का अध्ययन भी किया था, ऐसा प्रतीत होता है। उनके विशालकाय भाष्य को पढ़ने वाले सहज ही इस सचाई से परिचित हो सकते हैं। जैन शासन की सेवा ग्रंथ रचना अपने आप में एक साधना है जिस युग में मुद्रण व्यवस्था का विकास न हो, स्वाध्याय के लिए ग्रंथ सुलभ न हो और लेखन सामग्री का भी पर्याप्त विकास नहीं हुआ हो, उस युग में ऐसे विशालकाय ग्रंथ की रचना तो किसी भी प्रकार की विशिष्ट तपस्या से कम नहीं है। ऐसी तपस्या वे ही कर सकते हैं, जिनके ज्ञानावरणीय कर्म का विशेष क्षयोपशम हो, मानसिक एकाग्रता सधी हुई हो, धृतिबल एवं मनोबल मजबूत हो ग्रंथ की रचना में कितना समय लगा, इसका कोई उल्लेख नहीं है। प्रस्तुत ग्रंथ को आदि से अन्त तक पढ़ने में भी कई वर्ष बीत जाते हैं। इस आधार पर कल्पना की जा सकती है कि ग्रंथकार ने कितने वर्षों के समय और श्रम का इसमें नियोजन किया होगा इस बात को गौरव के साथ स्वीकार किया जा सकता है कि उन मनीषी आचार्यों ने ऐसे ग्रंथ रत्नों का सृजन कर जैन शासन की महान् सेवा की है। बृहत्कल्पभाष्यम - अनुवाद : एक श्रमसाध्य कार्य भाष्य की भाषा प्राकृत है। क्योंकि उस युग में प्राकृत भाषा जनभाषा थी। किन्तु इन शताब्दियों में प्राकृत भाषा के पाठक और अध्यापक खोजने पर भी कम मिलते हैं। आम आदमी के लिए तो प्राकृत भाषा विदेशी भाषा की भांति अपरिचित है। ऐसी स्थिति में उस भाषा में निबद्ध गंभीर ग्रंथों के स्वाध्याय का स्वप्न देखना भी कठिन है। स्वाध्याय के अभाव में ज्ञान की परम्परा विच्छिन्न होने की संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। यह एक ऐसी समस्या है, जिसका सामना प्राचीन भाषा में रचित सभी धर्म ग्रंथों को करना पड़ रहा है। इस समस्या का एकमात्र समाधान है - युगीन भाषा (हिन्दी, अंग्रेजी आदि) में उनका अनुवाद | १. बृभा. वृ. पृ. २। किसी भी ग्रंथ का अनुवाद मूल ग्रंथ की रचना से अधिक श्रमसाध्य है। स्वतंत्र लेखन में लेखक की ऐसी कोई प्रतिबद्धता नहीं होती, जिससे उसको दूसरों का अनुगमन करना पड़े। तीव्र अनुभूति और अन्तर को उघाड़ने की अकुलाहट का योग होने पर सृजन-चेतना जीवंत हो जाती है। उन क्षणों में लेखक / कवि अपनी कलम की नोक कागज पर टिकाता है तो वह अनिरुद्ध गति से चलती रहती है किन्तु भाषान्तर करते समय ग्रंथ की भाषा में ही नहीं, ग्रंथकार के भावों में भी अवगाहन करना जरूरी हो जाता है। बृहत्कल्पभाष्य जैसे बृहत्तम ग्रंथ का अनुवाद कार्य तो समय-साध्य और श्रमसाध्य ही नहीं, विशिष्ट मेधा-साध्य भी है, क्योंकि इसकी रचनाशैली संक्षिप्त होने के साथ विशिष्ट परम्पराओं, परिभाषाओं और सांकेतिक उदाहरणों से अनुस्यूत है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका अनुवादक के प्रति तेरापंथ धर्मसंघ में आचार्य तुलसी ने आगम - सम्पादन का स्वप्न देखा । आगम- सम्पादन का गुरुतर कार्य प्रारंभ हुआ। इसके वाचनाप्रमुख स्वयं आचार्य तुलसी रहे। सम्पादक और विवेचक की भूमिका में आचार्य महाप्रज्ञ का कर्तृत्व मुखर हुआ। बत्तीस आगमों के साथ उनके व्याख्या - साहित्य के सम्पादन और अनुवाद का काम भी करणीय था । आगम मनीषी मुनिश्री दुलहराजजी प्रारंभ से ही आगमों के सम्पादन, हिन्दी अनुवाद, टिप्पण लेखन आदि कार्यों में संलग्न रहे हैं। गहरी संकल्पनिष्ठा, श्रमनिष्ठा और गंभीर अध्यवसायशीलता से उन्होंने आगम सम्पादन के क्षेत्र में नएनए क्षितिज उद्घाटित करने में सफलता प्राप्त की सफलता की उसी श्रृंखला की एक कड़ी है-बृहत्कल्पमाष्य का हिन्दी अनुवाद | ५ फरवरी २००४, चौपड़ा गांव (महाराष्ट्र) में आचार्य महाप्रज्ञ के वरद करकमलों से जिस कार्य की सिद्धश्री लिखी गई, ८ दिसम्बर २००६, उदासर (राजस्थान) में उस पर पूर्णविराम लगा दिया गया । २ वर्ष, दस महीने और आठ दिन की छोटी-सी अवधि और समुद्र-मंथन जैसा गुरुतर कार्य । क्रियासिद्धि सत्त्वे भवति महता नोपकरणे- इस नीतिवाक्य के अनुसार अनुवादक ने समय के उपकरण को धता बताते हुए सफलता के शिखर पर आरोहण कर लिया। मुनिश्री दुलहराजजी ने ऐसा दुष्कर कार्य करके जैन वाङ्मय की अपूर्व सेवा तो की ही है, आगम रसिक पाठकों पर भी बहुत बड़ा उपकार किया है। उनकी यह सारस्वत साधना आगम साहित्य की अखूट सम्पदा को जन-जन के लिए उपयोगी बनाती रहे, यही अभीप्सा है। धनतेरस, वि. सं. २०६४ उदयपुर (राज.) २१ महाश्रमणी साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय जैन परंपरा में मुख्यरूप से चार भाष्य प्रचलित हैं-दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ। इनका निप॑हण पूर्वो से हुआ, इसलिए इनका बहुत महत्त्व है। इनके नि!हणकर्ता भद्रबाहु 'प्रथम' माने जाते हैं। निशीथ के निर्गृहण के विषय में मतैक्य नहीं है। कुछ वर्ष पूर्व व्यवहार भाष्य का संपादित पाठ के साथ, बीस-पचीस परिशिष्टों से युक्त, पदानुक्रम तथा भूमिका से संयुक्त संस्करण प्रस्तुत किया था। तत्पश्चात् जलगांव मर्यादा-महोत्सव पर व्यवहारभाष्य का सानुवाद संस्करण जनता के समक्ष आया। आचार्यप्रवर ने राजस्थान से अहिंसा-यात्रा के लिए प्रस्थान किया। उस यात्रा के दौरान गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश की यात्रा कर रहे थे। आचार्यप्रवर उस यात्रा के मध्य महाराष्ट्र के चौपड़ा गांव में पधारे। वहां विवेकानन्द हाई स्कूल में विराजना हुआ। मध्याह्न में आचार्यश्री ने अपने हाथों से बृहत्कल्पभाष्य का अनुवाद प्रारंभ करते हुए प्रथम श्लोक का अनुवाद अपनी हस्तलिपि से लिखा और फिर मुझे निर्दिष्ट करते हए फरमाया-अब तुम इस अनुवाद को आगे बढ़ाओ और पूरा करो। मैंने उसी दिन से यात्रा में भी इस कार्य को आगे बढ़ाया। वह दिन था ५ फरवरी २००४। यात्रा चलती रही। यात्रा में हम बीकानेर संभाग में आए। वहां उदासर में मैंने इस बृहद्काय ग्रंथ का अनुवाद संपन्न कर दिया। इस ग्रंथ में ६४९० गाथाएं हैं। इसके भाष्य के प्रणयिता संघदासगणी माने जाते हैं। टीकाकार इसकी टीका के दो रचयिता हैं-महान् टीकाकार आचार्य मलयगिरि और आचार्य क्षेमकीर्ति सूरी। आचार्य मलयगिरि ने प्रारंभिक ६०६ गाथाओं की टीका लिखी। फिर उससे विरत हो गए। आचार्य क्षेमकीर्ति ने उसे आगे बढ़ाया और पूरे भाष्य की टीका संपन्न की। टीका प्रशस्त और विस्तृत है। आचार्य मलयगिरि ने इसे बीच में क्यों छोड़ा, यह अन्वेषणीय है। आचार्य क्षेमकीर्ति ने लिखा 'श्रीमलयगिरिप्रभवो, यां कर्तुमुपाक्रामन्त मतिमंतः। सा कल्पशास्त्रटीका मयाऽनुसंधीयतेऽल्पधिया।' बृहत्कल्प पर लघुभाष्य और चूर्णि भी है। निशीथभाष्य और प्रस्तुत भाष्य की अनेक-अनेक गाथाएं समान हैं। टीकासंयुक्त भाष्य का प्रकाशन ___मुनि पुण्यविजयजी ने टीकायुक्त पूरे ग्रंथ को छह भागों में प्रकाशित किया है। उस संस्करण में पाठान्तरों का उल्लेख भी है। ८० पृष्ठों में पदानुक्रम दिया हुआ है, परन्तु वह इतना शुद्ध नहीं है। यत्र-तत्र त्रुटियां दृग्गोचर होती हैं। हमने पदानुक्रम को नए सिरे से तैयार किया है। इस ग्रंथ के अनुवाद कार्य में मुझे दो वर्ष और दस माह लगे। इस अवधि में यात्रा निरंतर चलती रही। प्रतिदिन विहार और नए-नए गांवों में निवास। पूरे यात्राकाल में अनुकूल स्थान मिलते या नहीं भी मिलते, परन्तु कार्य निरंतर चलता रहता। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् हमने संपूर्ण टेक्स्ट पुण्यविजयजी द्वारा संपादित ग्रंथ के अनुसार लिया है। कहीं-कहीं मूल पाठ और टीका में संवादिता नहीं है, फिर भी हमने मूल पाठ के साथ छेड़छाड़ नहीं की है। हमने पूर्वानुपर का अनुसंधान कर अनुवाद को आगे बढ़ाया है। छेदसूत्र का महत्त्व क्यों? शिष्य ने प्रश्न किया कि मूल आगमों के होते हुए छेदसूत्रों का क्या महत्त्व है? आचार्य कहते हैं-अंग, उपांग आदि मूलसूत्र हैं। वे मार्गदर्शक और प्रेरक हैं। परन्तु यदि साधु संयम में स्खलना करता है और वह अपनी स्खलना की शुद्धि करना चाहता है तो वे मूल आगम उसको दिशा-निर्देश नहीं दे सकते। दिशा-निर्देश और स्खलना की विशुद्धि छेदसूत्रों द्वारा ही हो सकती है। वे प्रायश्चित्तसूत्र हैं और प्रत्येक स्खलना की विशोधि के लिए साधक को प्रायश्चित्त देकर स्खलना का परिमार्जन और विशोधि कर साधक को शुद्ध कर देते हैं, इसीलिए उनका महत्त्व है। व्यवहारभाष्य का कथन है कि छेदसूत्रों के पाठ का ज्ञाता भी बहुत बलशाली और महत्त्वपूर्ण होता है और अर्थ का विज्ञाता शेष आगमों के विज्ञाता से भी श्रेष्ठ होता है, कारण है कि वही प्रायश्चित्त देने का अधिकारी होता है। उसके अभाव में साधक भटक जाता है और संघ से विमुख होकर संयमच्युत हो जाता है। इससे तीर्थविच्छेद की स्थिति आ जाती है। भाष्यों की वाचना के विषय में कहा जाता है कि हर किसी को, हर किसी वेला में इनकी वाचना नहीं देनी चाहिए। ये रहस्य सूत्र हैं। सामान्य आगमों से इनकी विषयवस्तु भिन्न है। इनमें उत्सर्ग और अपवाद-विषयक अनेक स्थल हैं। हर कोई उन स्थलों को पढ़कर या सुनकर पचा नहीं सकता और तब वह निर्ग्रन्थ प्रवचन से विमुख होकर स्वयं भ्रांत होकर, अनेक व्यक्तियों को भ्रांत कर देता है, इसीलिए इनकी वाचना के विषय में पात्र-अपात्र का निर्णय करना बहुत आवश्यक हो जाता है। गृहस्थों को तो इनकी वाचना देनी ही नहीं है, साधुओं में सभी साधु इनकी वाचना देने योग्य नहीं होते। छेदसूत्रों की वाचना के योग्य शिष्य निर्ग्रन्थ प्रवचन में शिष्य तीन प्रकार के माने गए हैं-परिणामक, अपरिणामक और अतिपरिणामक। जो परिणामक शिष्य हैं वे ही इनकी वाचना के योग्य होते हैं। शेष दो प्रकार के शिष्य अयोग्य माने जाते हैं, क्योंकि इन सूत्रों के रहस्यों को पचा पाना बहुत कठिन होता है। उसके लिए धैर्य, विचारों की गंभीरता और शालीनता चाहिए। हर एक शिष्य अपवादों को देखकर विचलित हो जाता है। उसमें निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति अन्यमनस्कता आ जाती है, मन संशयों से भर जाता है। __ जो मुनि द्रव्यकृत, क्षेत्रकृत, कालकृत और भावकृत को जिनेश्वर ने जैसे कहा है, उस पर वैसी श्रद्धा रखता है, वह परिणामक है और जो उन पर वैसी श्रद्धा नहीं रखता वह अपरिणामक है। जो वस्तु जिस रूप में जिस काल में ग्राह्य-रूप में कथित है, उसे आपवादिक रूप में ग्रहण करने की मति वाला शिष्य अतिपरिणामक होता है। इस विषय को भाष्यकार ने एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया है। एक आचार्य ने अपने तीन शिष्यों को बुलाया। उनमें एक था परिणामक, एक अपरिणामक और एक अतिपरिणामक। आचार्य उनकी परीक्षा करना चाहते थे। आचार्य ने कहा-'आर्यो! हमें आम चाहिए।' यह सुनकर परिणामक शिष्य बोला-'आम चेतन या अचेतन, भावित या अभावित, छोटे या बड़े, छिन्न या अछिन्न, कौन से आम लाऊं?' ___अपरिणामक शिष्य बोला-'आचार्यप्रवर! क्या आपके पित्त का प्रकोप हो गया है? आप आम लाने की बात कैसे कह रहे हैं? दूसरी बार ऐसा मत कहना। हम ऐसे सावध वचन सुनना नहीं चाहते।' अतिपरिणामक शिष्य बोला-'आप आम खाना चाहते हैं। आम का काल बीत चुका है। फिर भी मैं प्रयत्न कर आम ला दूंगा। क्या आपके लिए दूसरे फल भी ले आऊं?' Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय आचार्य तब कहते हैं- 'आर्यो। तुमने मेरे अभिप्राय को नहीं समझा। क्या मैं सचित आम मंगा सकता हूं? मैं कह रहा था कि शुक्लाम्ल लवण से भावित आम, छिन्न किया हुआ तथा भोजन के द्वितीय अंग के रूप मैं अर्थात् शाकरूप में पकाया हुआ आम लाना है।' इन तीनों में परिणामक शिष्य की मति आगमों से अनुमोदित और निर्ग्रन्थ प्रवचन के अनुकूल थी। ऐसे शिष्य को कल्प और व्यवहार का सूत्रार्थं सापवावरूप में जैसे गुरुमुख से सुना है, धारण किया है, उसी रूप में उसको दे और यदि सूत्र और अर्थ की व्यवच्छित्ति का प्रसंग आए वहां अन्यान्य शिष्यों को भी वह दिया जा सकता है। गच्छ के निस्तारण का क्रम भाष्य में स्थान-स्थान पर गण की अव्यवच्छित्ति के लिए अनेक प्रकार के उदाहरण दिए गए हैं। एक गच्छ में आचार्य, अभिषेक, भिक्षु, क्षुल्लक और स्थविर मुनि हैं। बाढ़, अग्निदाह, चौरों का उपद्रव, अवम दुर्भिक्ष, महान् अरण्य में भटक जाना, बुभुक्षा, ग्लानत्व आदि गाढ़ कारण में फंस जाने पर तीर्थ के अव्यवच्छेद के लिए, जो विशिष्ट मुनि होता है, वह किस विधि से उनका निस्तारण करे, इसको भाष्यकार ने विस्तार से समझाया है। आचार्य गच्छ के साथ एक नगर में स्थित थे। अकस्मात् एक दिन वहां बाढ़ का प्रकोप हुआ सारा नगर हाहाकार से व्याप्त हो गया । गच्छ बाद में बहने लगा। अब प्रश्न हुआ कि गच्छ में पांच घटकों में से किसकिसको बचाया जाए? इसके समाधान में कहा गया कि यदि साधु समर्थ हो तो पांचों घटकों का निस्तारण करे और यदि इतना समर्थ न हो तो क्या किया जाए ? भाष्यकार के सामने यह प्रश्न आया तो उन्होंने इसके समाधान में अनेक गाथाओं की रचना की। उन्होंने लिखा 'सव्वे वि तारणिज्जा, संदेहाओ परक्कमे संते। एक्क्कं अवणिज्जा, जाव गुरू तत्थिमो भेओ ।' यदि साधु में पराक्रम हो तो वह सभी को बचाए । यदि पराक्रम की न्यूनता हो तो स्थविर को छोड़कर शेष चार को बचाए। यदि उतना भी पराक्रम न हो तो क्षुल्लक को भी छोड़ दे, उतना भी सामर्थ्य न हो तो केवल दो को - आचार्य और अभिषेक को बचाए, उतना भी सामर्थ्य न हो तो केवल आचार्य को बचाए। क्योंकि आचार्य के रहने पर ही गच्छ की अव्यवच्छित्ति रह सकती है। इसी प्रकार आर्यायों के विषय में जानना चाहिए। इनके पांच भेद इस प्रकार हैं-प्रवर्तनी, अभिषेका, स्थविरा, भिक्षुणी, क्षुल्लिका। बाढ़ में इनका निस्तारण भी पूर्ववत् जानना चाहिए। प्रश्न होता है कि लोक में भी बाल वृद्ध और अपंग अनुकंपनीय होते हैं तो फिर उनको बचाने में प्राथमिकता क्यों नहीं? तरुण चिरजीवी होता है, स्थविर अल्पायुष्क वाला होता है अतः तरुण को बचाने से प्रवचन की वृद्धि होती है। तरुण गण का वृद्धिकर होता है, शिष्यों को सूत्रार्थ देने में समर्थ होता है, गण के लिए पात्र, वस्त्र आदि का उत्पादक होता है। जिज्ञासु ने पूछा- क्या इसमें व्युत्क्रम भी होता है ? हां, व्युत्क्रम भी होता है। जिसमें लाभ अधिक और व्यय कम होता है, उसको वणिग्भूत होकर हम व्युत्क्रम करते हैं। हम सोचते हैं किसको ग्रहण करने से प्रभूत लाभ और अल्प व्यय होता है, उसको हम प्राथमिकता देते हैं। जिस पात्र को बचाने से प्रवचन की प्रभावना और तीर्थ की अव्यवच्छित्ति हो सकती है, उसको प्रथमरूप से तारणीय मानते हैं और शेष दो नंबर में आते हैं। हम आर्याओं को बचाने के लिए प्राथमिकता से कार्य करते हैं, क्योंकि स्त्रियां स्वभावतः भयबहुल होती हैं वे दूसरों के संकट को देखकर पवन के संपर्क से लता की भांति कांपने लग जाती हैं, इसलिए स्त्रियां प्रथम तारणीय होती हैं। २५ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ बृहत्कल्पभाष्यम् अवग्रह इस प्रकार हम देखते हैं कि भाष्यकार प्रत्येक वस्तु के सैद्धांतिक रूप को भी मनोवैज्ञानिक रूप में प्रस्तुत करते हैं। इस भाष्य में अनेक स्थानों पर ऐतिहासिक घटनाक्रमों का उल्लेख हुआ है। 'अवग्रह' विषय में भाष्यकार ने भगवान् ऋषभ क समय के भरत का एक प्रसंग उद्धृत किया है। वह इस प्रकार है __ एक बार भगवान् ऋषभ अष्टापद पर्वत पर समवसृत हुए। महाराज भरत ने यह सुना और वे अपने परिवार के साथ दर्शन करने निकल पड़े। उनका पूरा दल-बल साथ था। पूरे ऐश्वर्य से मंडित होकर वे चले। उन्होंने सोचा भगवान् को वंदना कर, स्तुति कर, साधुओं को भक्तपान के लिए निमंत्रित करूंगा। इसलिए उन्होंने अपने साथ पांच सौ शकट भक्तपान से भर कर ले लिए। वे वहां आए, वंदना-स्तुति कर, भक्तपान ग्रहण करने के लिए निमंत्रित किया। भगवान् ने तब कहा 'पीलाकरं वताणं, एयं अम्हं न कप्पए घेत्तुं। अणवजं निरुवहयं, भुजंति य साहुणो भिक्खं।' 'भरत ! आधाकर्म, राजपिंड आदि भक्तपान व्रतों के लिए पीड़ाकर होते हैं, इसलिए वैसा भक्तपान साधुओं के लिए नहीं कल्पता। इसलिए प्रासुक और एषणीय भिक्षा साधु लेते हैं। वही कल्पनीय है।' भगवान् के ये वचन सुनकर भरत को अत्यंत मानसिक दुःख हुआ और वे खिन्न हो गए। उन्होंने सोचा'समणा अणुग्गहं मे, ण कुव्वंति अहो! अहं चत्तो-ओह! मैं मंदभाग्य हूं। ये श्रमण मेरे पर अनुग्रह नहीं कर रहे हैं। मैं इनके द्वारा परित्यक्त हो गया हूं।' देवेन्द्र ने उनके इस मानसिक कष्ट को जाना और उन्हें अपने स्वामित्व की सीमा का अवबोध देने के लिए भगवान् ऋषभ से अवग्रह के विषय में पृच्छा की। भगवान् कहते हैं-देवेन्द्र! अवग्रह पांच हैं देवेन्द्रावग्रह, राजावग्रह, गृहपत्यवग्रह, शय्यातरावग्रह, साधर्मिकावग्रह। अवग्रह का अर्थ है-स्वामित्व। देवेन्द्र जितने क्षेत्र का स्वामी होता है, उतना उसका अवग्रह है। इसी प्रकार चक्रवर्ती आदि महर्द्धिक पृथ्वीपति जितने क्षेत्र के प्रभुत्व का अनुभव करता है, वह उसका अवग्रह है। इसी प्रकार गृहपति अर्थात् सामान्य राजा, शय्यातर तथा सामान्य गृहस्थ-इनके अपने-अपने अवग्रह होते हैं, स्वामित्व की सीमा होती है। भगवान् से अवग्रह की बात सुनकर देवेन्द्र ने अपने अवग्रह में साधुओं को निमंत्रित कर उनके प्रायोग्य अन्न-पान का वितरण किया। यह सुनकर भरत बहुत प्रसन्न हुए और अपने अवग्रह में साधुओं को निमंत्रित कर उनके प्रायोग्य भक्त-पान दिया। सोचा-आज अनायास यह बड़ा लाभ प्राप्त हुआ है। उन्होंने संपूर्ण भारत में प्रासुक भक्तपान साधुओं को देने की व्यवस्था की। उत्सारकल्पिक शिष्य ने जिज्ञासा के स्वरों में पूछा-'भंते! आपने कुछेक कल्पिकों का विस्तार से वर्णन किया। जैसे पिंडकल्पिक, अवग्रहकल्पिक, लेपकल्पिक, विहारकल्पिक आदि। उनमें उत्सारकल्पिक का उल्लेख नहीं है।' आचार्य ने कहा-'उत्सारकल्पिक होता नहीं है।' शिष्य ने पुनः पूछा-'यदि उत्सारकल्पिक नहीं होता है तो फिर इस भाष्य में उसका नामोल्लेख कैसे किया गया है?' आचार्य ने कहा-'यद्यपि उत्सारकल्प व्यवहृत होता है, फिर भी उत्सारकल्प करना नहीं कल्पता। जो उत्सारकल्प करता है और जो उत्सारकल्प करवाता है-दोनों प्रायश्चित्त के भागी होते हैं।' उत्सारकल्प का अर्थ है-आगमों का इस प्रकार से अध्ययन-अध्यापन कराना कि आगमों के पूरे अंशों का अध्ययन न कर केवल आगमों का चंचुपात करना। इससे पढ़ने वाले को पूरा ज्ञान नहीं होता और वह अधूरे ज्ञान के आधार पर अपने-आपको वाचक, आचार्य या उपाध्याय के रूप में प्रस्तुत करता है। उस अधूरे ज्ञान से पग-पग पर पराभव का सामना करना पड़ता है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय २७ एक बार एक गांव में वाचक पदधारी आचार्य अपने शिष्यों के साथ आए। उन्होंने वहां अन्यान्य मत के वादियों को वाद में पराजित कर निर्ग्रन्थ प्रवचन का झंडा फहराया। पराजित वादियों के मन में ईर्ष्या की आग भभक उठी। वे पराजय का बदला लेने के लिए उतावले हो गए। उन्होंने जैनों से कहा हम एक बार वाद करना चाहेंगे। कछ दिनों बाद उत्सारकल्पिक वाचक वहां आए। वाद का आयोजन निश्चित किया गया। अन्ययथिक लोगों ने वाचक के ज्ञान की थाह लेने के लिए एक प्रच्छन्न वेषधारी प्रत्युपेक्षक को भेजा। उसने वाचक से प्रश्न किया-परमाणु पुद्गल में कितनी इन्द्रियां होती हैं? वाचक ने सोचा-वह परमाणु एक समय में लोकान्त तक चला जाता है। निश्चित ही वह पंचेन्द्रिय होना चाहिए। यह उत्तर सुनकर पर्यवेक्षक ने जान लिया कि यह वाचक केवल बाहर से गर्जना करता है, परन्तु है असार। अन्ययूथिक आए और उस वाचक के सामने गहरे प्रश्न रखकर उसे निरुत्तर कर डाला। उसे बहुत शर्मिन्दा होना पड़ा। जिनशासन की भी अवहेलना हुई। अधूरे ज्ञान का यह प्रभाव है। इसीलिए उत्सारकल्प मान्य नहीं है। उत्सर्ग-अपवाद इस प्रकार भाष्य साहित्य अनेक बिन्दुओं को स्पष्ट करता है और उनकी पूरी अवगति देता है। यह प्राचीन परंपराओं का संग्राहक और अवबोधक है। भाष्यों के अध्ययन से ऐसा लगा कि एक भी नियम बिना अपवाद के व्यवहृत नहीं है। सभी उत्सर्ग अपवाद से संवलित हैं। इन नियमों के अध्ययन से ऐसा लगता है कि इनका निर्माण गण की अव्यवच्छित्ति के लिए हुआ है। जैन आचार्यों का यह मुख्य उद्देश्य रहा है कि कोई भी व्यक्ति निर्ग्रन्थ प्रवचन से विमुख न हो। यदि कोई मुनि स्खलना करता है तो उसको प्रायश्चित्त देकर शुद्ध करे और स्खलनाजनित विषाद का निवारण कर उसे संयम में स्थिर करने का प्रयास करे। वह स्खलना को पलायन का बहाना न बनाए, इसका ध्यान रखे और उसको समझाए कि स्खलना होना बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात है, स्खलना हो जाने पर संभल जाना। सुनने की कला भाष्यकार ने भगवद्वचन और गुरुवचन को सुनने की सुन्दर विधि प्रतिपादित की है। वह इस प्रकार है निद्दा-विकहापरिवज्जिएण, गुत्तिदिएण पंजलिणा। भत्ती बहुमाणेण य, उवउत्तेणं सुणेयव्वं ।। अभिकंखंतेण सुभासियाई वयणाई अत्थमहुराई। विम्हियमुहेण हरिसागएण हरिसं जणंतेण॥ निद्रा और विकथा का परिवर्जन कर, गुसेन्द्रिय होकर, हाथ जोड़कर, भक्ति और बहुमानपूर्वक, उपयुक्त अर्थात् तल्लीन होकर सुनना चाहिए। सुभाषित वचन, जो अर्थ मधुर हों उनकी अभिकांक्षा करता हुआ मुनि विस्मित मुख से हर्षागत होकर, गुरु में भी हर्षातिरेक पैदा करता हुआ उनकी वाणी सुने। दो विशिष्ट परंपराएं मैं दो विशेष परंपराएं, जो भाष्यकाल तक प्रचलित थीं, उनकी ओर पाठक का ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा। (१) साध्वियों को वस्त्र-याचना की अनुज्ञा नहीं। (२) मतनिर्ग्रन्थ के शव का स्वयं मनियों द्वारा परिष्ठापन। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ बृहत्कल्पभाष्यम् प्रश्न होता है जब निर्ग्रन्थी को वस्त्र-याचना की अनुज्ञा नहीं है तो फिर उनके वस्त्र की पूर्ति कैसे होती थी? जब साध्वियां भिक्षा के लिए घर-घर जा सकती हैं तो वस्त्र की भिक्षा के लिए क्यों नहीं जा सकती? उन्हें वस्त्र मिलता भी है, परन्तु परंपरा के अनुसार उन्हें वस्त्र लेने की आज्ञा नहीं है। वे अपनी आवश्यकता आचार्य को बताती हैं और आचार्य उनकी उस आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। आचार्य उन्हें पूछते हैं-वर्षाकल्प और अन्तरकल्प आदि में से आपके पास कौनसी उपधि नहीं है? वह उपधि पहले से आचार्य के पास हो तो वह साध्वियों को दे और यदि न हो तो लब्धिसंपन्न मुनियों को इस कार्य में व्याप्त कर कहे-'आर्यो! संयतियों के प्रायोग्य वस्त्र की गवेषणा करो।' वे जाते हैं और वस्त्रों को ग्रहण कर आचार्य को समर्पित कर देते हैं। वे वस्त्र परिभुक्त या सुगंधमय हों तो उनका कल्प करे, धोए और फिर उनको अपने पास रखें। अर्थात् उन वस्त्रों का प्रक्षालन कर, सात दिन तक पास में रखें। यदि उनमें कोई दोष या विकृति न लगे तो गणधर उन वस्त्रों को लेकर जाए और प्रवर्तिनी को दे दे। प्रवर्तिनी उन वस्त्रों को, जिन-जिन आर्याओं को आवश्यक हों उनको दे। कुछेक मुनि वस्त्र-आभिग्राहिक होते हैं। वे स्वयं आचार्य के समक्ष आकर कहते हैं-'हम वस्त्रों की गवेषणा करेंगे।' आचार्य की आज्ञा प्राप्त कर वे जाते हैं, वस्त्र लाकर आचार्य को समर्पित कर देते हैं। जो वस्त्र सुगंधमय हों, अपरिभुक्त हों, फिर भी उनको प्रक्षालित कर, सात दिन तक रखकर, स्थविर मुनि उनको पहन-ओढ़कर परीक्षा करते हैं। यदि उनमें कोई अभियोग-विकार न हो तो उसे गणधर गणिनी-प्रवर्तिनी को दे देते हैं। यदि गणधर स्वयं आर्याओं को देते हैं तो वे प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। वस्त्र-ग्रहण इनकी निश्रा में करे-आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी और गणधर। इन सबके अभाव में प्रवर्तिनी स्वयं जाकर लाए। यदि आचार्य आदि अन्यान्य मुनि गण-कार्यों में व्याप्त हों तो स्थविरा आर्यिका प्रवर्तिनी की निश्रा में वस्त्र याचित करे, किन्तु तरुण साध्वियों के लिए वस्त्र-ग्रहण का सर्वथा निषेध है। यदि तरुण साध्वियों को उनके ज्ञातिजन वस्त्र-ग्रहण के लिए निमंत्रित करे, तो भी वे स्वयं जाकर वस्त्र न लाएं। प्रवर्तिनी स्वयं वहां जाकर वस्त्र लाए। यदि कोई न हो तो सामान्य साधु की या गृहस्थ की भी निश्रा ली जा सकती है। यदि प्रवर्तिनी न हो तो अभिषेका, गणावच्छेदिनी की निश्रा ली जा सकती है। यदि इनका भी अभाव हो तो साध्वियां परस्पर एक-दूसरे की निश्रा में वस्त्र ग्रहण कर सकती हैं। यदि एकाकी साध्वी कहीं स्थित है और उसे कोई गृहस्थ वस्त्र के लिए निमंत्रित करे तो उसे कहे-मेरा शय्यातर या ज्ञाति वस्त्र के लक्षण जानते हैं, अतः उनके द्वारा परीक्षित यह वस्त्र मैं ले सकूँगी। तब वह प्रान्त वस्त्रदाता अपने दंभ के प्रगट होने के भय से दूसरे वस्त्र लाकर सामने रखता है। वह कहता है-पहले वाला वस्त्र अन्य साध्वी को दे दिया आदि। ऐसे व्यक्ति का वस्त्र नहीं लेना चाहिए। प्रश्न होता है कि मैथुन के लिए वस्त्र देने वाले को कैसे पहचाना जाए? भाष्यकार कहते हैं 'वेवहु चला य दिट्ठी, अण्णोण्णनिरिक्खियं खलति वाया। देण्णं मुहवेवण्णं, ण याणुरागो य कारीणं॥' - उनके सामान्यतया ये लक्षण होते हैं-उनका शरीर प्रकंपित होता है, दृष्टि चल होती है। वह परस्पर दृष्टि मिलाने का प्रयत्न करता है। उसकी वाणी स्खलित होती है। मुख पर दीनता और वैवर्ण्य परिलक्षित होता है तथा उसका अनुराग हृष्टपुष्ट लक्षण वाला नहीं होता। (२) मुनियों के शव का मुनियों द्वारा परिष्ठापन भाष्यकाल तक निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी के कालगत होने पर शव के दाहसंस्कार की विधि नहीं थी। शव का स्थंडिलभूमी में परिष्ठापन किया जाता था। इसलिए जिस गांव या नगर में साधु-साध्वी जाते, वहां सबसे पहले स्थंडिलभूमी और शव-वहनकाष्ठ की गवेषणा करते, उसकी प्रत्युपेक्षा करते, जिससे अचानक मृत्यु हो जाने पर भी कोई कठिनाई नहीं होती थी। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ सम्पादकीय शव-परिष्ठापन के लिए तीन स्थंडिलभूमियों की प्रत्युपेक्षा करे। एक गांव के निकट, दूसरी उससे कुछ दूर और तीसरी उससे भी दूर। अथवा तीन दिशाओं में दक्षिण, पूर्व, पश्चिम दिशा में, एक-एक स्थंडिल की प्रत्युपेक्षा करे। तीन स्थंडिल इसलिए कि कभी कोई एक स्थंडिल को अपना खेत बना लेता है। दूसरे स्थंडिल में सेना का पड़ाव हो सकता है। तीसरा स्थंडिल जल से आप्लावित हो सकता है। इसलिए प्रथम दिशा में एक महास्थंडिल की प्रत्युपेक्षा करनी चाहिए। अस्थंडिल में शव का परिष्ठापन करने से अनेक दोष हो सकते हैं, होते हैं। शव को परिष्ठापित करने पर दिशाओं के आधार पर हानि-लाभअपरदक्षिण (नैर्ऋति) दिशा में प्रचुरान्न-पानवस्त्र का लाभ। दक्षिण दिशा में भक्तपान की अप्राप्ति। पश्चिम दिशा में उपकरणों की अप्राप्ति। दक्षिणपूर्व (आग्नेयी) दिशा में-गण में 'तू-तू-मैं-मैं' की स्थिति। अपरोत्तर (वायवी) दिशा में-कलह। पूर्व दिशा में गणभेद या चारित्रभेद। उत्तर दिशा में ग्लानत्व। पूर्वोत्तर (ईशान) दिशा में एक और साधु का मरण। शव को आच्छादित करने के लिए सफेद वस्त्र ढाई हाथ चौड़ा और चार हाथ लंबा या कुछ और अधिक लंबा-चौड़ा होना चाहिए। वह सुगंधित तथा साफ होना चाहिए। ऐसे तीन वस्त्र होते हैं। एक वस्त्र शव के नीचे, एक शव को ढंककर डोरे से कसकर बांधा जाता है और तीसरा-उत्कृष्टतर ऊपर डाला जाता है। शव को मलिन वस्त्रों से ढंकने पर अपवाद होता है। जिस वेला में मृत्यु होती है उसी समय शव का निष्काशन कर देना चाहिए। जागरण, बंधन और छेदन-यह सारी विधि संपन्न कर देनी चाहिए। जब तक मृतक का शरीर वायु के द्वारा आक्रान्त न हो, अकड़ नहीं जाता तब तक जीवमुक्त शरीर के हाथ, पैर लंबे किए जा सकते हैं, मुंह और नयनों को संपुट कर दिया जाता है। उस शव के पास जितनिद्र, उपायकुशल, औरसबली, कृतकरण, अप्रमादी और अभीरू मुनि बैठे रहते हैं। हाथों और पैरों के अंगूठों को डोरा बांधे। अक्षत देह में व्यन्तर का प्रवेश हो सकता है, अतः अंगुली के मध्य में चीरा दे। यह छेदन है। इतना करने पर भी यदि कोई प्रान्त देवता उस कलेवर में प्रविष्ट हो जाए और कलेवर उठकर बैठ जाए तो मुनि वामहस्त से प्रश्रवण का कलेवर पर सिंचन करे और कहे ओ गुह्यक! सोचो, समझो। मूढ़ मत बनो, प्रमाद मत करो। संस्तारक से मत उठो। यदि वह कलेवर अन्य देवता द्वारा अधिष्ठित हो और वह विकरालरूप दिखाकर भयभीत कर रहा हो, अट्टहास करता हो तो वही विधि अपनाए और शव का प्रस्रवण से सिंचन करे। शव-वहनकाष्ठ से शव को स्थंडिल भूमी में ले जाते समय एक सूत्रार्थविद् मुनि मात्रक में पानक और कुश लेकर शव के आगे-आगे चले, मुड़कर न देखे। जिस दिशा में गांव हो उस दिशा में शव का सिर करना चाहिए। गांव की ओर शव के पैर करने से अमंगल होता है और लोग गर्दा करते हैं। शव के नीचे बिछा हुआ तृण संस्तारक सम हो, विषम न हो। ऊपर में विषम हो तो आचार्य का, मध्य में विषम हो तो वृषभ का और नीचे विषम हो तो मुनियों का मरण या ग्लानत्व हो सकता है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = बृहत्कल्पभाष्यम् यदि तृण न मिले तो चूर्ण अथवा नागकेशर से 'ककार' और उसके नीचे 'तकार' करे अर्थात् 'क्त' करे। शव के पास यथाजात उपकरण-मुखपोतिका, रजोहरण, चोलपट्टक अवश्य रखे। न रखने पर कालगत मुनि जब देवलोक से अपने शव को देखता है तब मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकता है। वह शव उत्थित होकर जितने मुनियों का नाम ले, उन सबको लुंचन कराना चाहिए। वे मुनि गणभेद भी कर सकते हैं। कालगत साधु को परिष्ठापित कर उसी दिन मध्याह्न में या दूसरे दिन सूत्रार्थविद् मुनि उसकी शुभअशुभ गति को जानने के लिए शव का निरीक्षण करे। उसको देखने पर दुर्भिक्ष, सुभिक्ष आदि को भी जाना जाता है। शव को परिष्ठापित कर स्थान पर आकर कायोत्सर्ग करे। उपरोक्त सारी विधि भाष्यकाल तक मान्य रही है। शव को गृहस्थों को संभलाने, दाहसंस्कार आदि कब से प्रचलित हुए यह ज्ञात नहीं है। प्रस्तुत सूत्र में श्लोक ५४९७ से ५५६५ तक कालगत मुनि के परिष्ठापन संबंधी विधि-विधानों का उल्लेख है। आज यह विधि बहुत ही विचित्र और अव्यावहारिक लगती है। आर्याओं के लिए कौन सी विधि थी, यह भी अन्वेषणीय है। प्रतीत होता है कि यही विधि उनके लिए मान्य रही होगी। इस प्रकार भाष्यकार ने शव-परिष्ठापन विधि को विस्तार से समझाया है। उसके कुछेक बिन्दु ये हैं• शव के परिष्ठापन योग्य स्थंडिल का निरीक्षण। . परिष्ठापन योग्य दिशा और तद्गत उपघात। • कालगत भिक्षु के नीहरण योग्य वस्त्र। • कालगत भिक्षु की व्युत्सर्जन विधि। शोक करने का निषेध। • नक्षत्र के अनुसार कुश के पुतलों का निर्माण। • शव को स्थंडिल भूमी में ले जाते समय विस्मृतिवश आगे ले जाकर पुनः स्थंडिल भूमी में लाने की विधि। • शव के मस्तक को रखने की दिशा। • शव के नीचे तृण का संस्तारक करने की विधि। • शव के पास यथाजात वस्त्र न रखने से होने वाले दोष। • परिष्ठापन के पश्चात् कायोत्सर्ग करने की विधि। .शव को ले जाने के मार्ग से पुनः न लौटने का निर्देश। • शव में व्यन्तराविष्ट, भूताविष्ट हो जाने पर की जाने वाली विधि। . • आचार्य आदि प्रभावक मुनि या बृहद् कुटुम्ब वाले मुनि के कालगत होने पर की जाने वाली विधि। . रात्री में भी नीहरण की अनुज्ञा। • कालधर्म प्राप्त मुनि के वस्त्रों, पात्रों का व्युत्सर्जन। • दूसरे दिन मुनि के शव के अवलोकन से ज्ञात होने वाले निमित्तों से शुभ-अशुभ गति तथा अन्यान्य तथ्य। • शव-परिष्ठापन विधिपूर्वक न करने पर प्रायश्चित्त। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय अनुवादक की इयत्ता ___ मैंने बहद्कल्पभाष्य का अनुवाद प्रारंभ किया। स्थान-स्थान पर भाष्यकार ने तथा वृत्तिकार ने मूर्तिपूजक संप्रदाय की मान्यताओं का विस्तार से उल्लेख कर उनकी करणीयता को सिद्ध किया है। विषय है-चैत्य आदि, अनुयान रथयात्रामें करणीय कार्य, भावग्राम के अंतर्गत प्रतिमाओं का पूजन, तीर्थंकरों के जन्मकल्याणक आदि गांवों में जाने से दर्शन शुद्धि आदि होती है। इन तीर्थ स्थानों में जाने की प्रेरणा। यद्यपि हम इन सारी विधियों से सहमत नहीं है। फिर भी हमने यथावत् अनुवाद प्रस्तुत किया है, क्योंकि यह अनुवादक का धर्म है। वह जिस ग्रंथ का अनुवाद कर रहा है, वह उस ग्रंथ की गाथाओं में परिवर्तन या परिवर्द्धन नहीं कर सकता। वह टिप्पण में अपने अभिप्राय को स्पष्ट कर सकता है, परन्तु उनमें फेरबदल नहीं कर सकता। मैंने टिप्पण देने के बदले संपादकीय में इस विषय को स्पष्ट किया है। मैंने कुछ वर्षों पूर्व 'भरत बाहुबली महाकाव्यम्' का अनुवाद प्रस्तुत किया था। उसमें महाराज भरत द्वारा कृत चैत्यपूजा, मूर्तिपूजा तथा शाश्वत चैत्य का उल्लेख है। मैंने यथार्थ अनुवाद किया। इस अनुवाद को मूर्तिपूजक आचार्यों और मुनियों ने खूब उछाला और लिखा 'तेरापंथी मुनि ने मूर्तिपूजा स्वीकार कर ली है।' पेम्पलेट, परदों पर बड़े-बड़े अक्षरों में उसे छापा, प्रचार-प्रसार किया। आज भी कर रहे हैं। हमें इसकी चिंता नहीं। सब अपना अपना कर्म करते हैं। मैं विश्वास करता हूं कि पाठक अनुवादक की इयत्ता का अनुभव कर, यथार्थ को जानने का प्रयास करेंगे। कृतज्ञता-ज्ञापन कृतज्ञता-ज्ञापन का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। जो कोई मनसा, वाचा, कर्मणा कार्य में सहयोगी बनता है, कार्य का अनुमोदन करता है, उसका कार्य के प्रति अहोभाव उस कार्य की अथ/इति का संवाहक होता है। गणाधिपति तुलसी ने मुझे वि. सं. २००५ में दीक्षित किया और मुनि नथमलजी के पास संयम-साधना के गुर सीखने के लिए रखा। वे मेरे जीवन के संरक्षक, विबोधक और संवर्धक रहे। अव्यक्त व्यक्ति को व्यक्त बनाने की उनकी अपूर्व विधि है। वह प्रारंभ में कुछ अटपटी-सी लगती है, परंतु उसका पर्यवसान लाभदायी और सुन्दर होता है। यह आपातविरस और परिणाम-भद्रवाली विधि है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने इस विधि से मेरे जैसे अव्यक्त मुनि को व्यक्त बनाने का सफल प्रयास किया है। मैंने कुछ वर्षों पूर्व व्यवहारभाष्य का अनुवाद कर श्रीचरणों में भेंट किया। वह सारा कार्य यात्रा में संपन्न हुआ। 'अहिंसा-यात्रा' के संदर्भ में जब हम महाराष्ट्र की यात्रा पर थे तब एक दिन चौपड़ा गांव में रुके। वहां विवेकानन्द स्कूल में ठहरे और मध्याह्न में इस विशाल ग्रंथ के अनुवाद करने की अनुज्ञा प्राप्त करने श्रीचरणों में पहुंचा और अनुवाद प्रारंभ करने की प्रार्थना की। आचार्य प्रवर ने प्रथम गाथा का अनुवाद कर मुझे अनुगृहीत किया तथा मुझे पूरे ग्रंथ का अनुवाद करने की अनुज्ञा दी। यात्रा चलती रही, भिवानी तक निर्धारित थी। उसे आगे बढ़ाया गया और आज वह अपने छठे वर्ष में चालू है। इस महान् यात्रा के साथ जब गंगाशहर की ओर जा रहे थे तब मध्य में हम उदासर में रुके और मैंने ६४९० गाथाओं के इस महान् ग्रंथ का अनुवाद संपन्न किया, और उसकी पांडुलिपि तैयार करने में तत्पर हो गया। मेरे अनन्य सहयोगी मुनि राजेन्द्रकुमारजी तथा मुनि जितेन्द्रकुमारजी ने उस तत्परता को आगे बढ़ाने और उसको निष्ठा तक पहुंचाने में दत्तचित्त हो गए। यह कार्य मेरे से होने वाला नहीं था। वे दोनों इसके पीछे लगे और कार्य पूरा कर दिया। जब हम उदयपुर चातुर्मास के संदर्भ में वहां पहुंचे तब आचार्यश्री के श्रीचरणों में वह पांडुलिपि प्रस्तुत की। आचार्यश्री ने अपनी व्यस्तता के बावजूद उसका निरीक्षण किया और उस ग्रंथ के प्रति अहोभाव प्रगट किया। समय-समय पर उस ग्रंथ की भूरि-भूरि प्रशंसा भी की। ___ सायंकाल के समय युवाचार्यश्री ने उस पांडुलिपि का निरीक्षण किया और बहुत प्रसन्नता व्यक्त की। दूसरे दिन उन्होंने आचार्यश्री से निवेदन किया-गुरुवर! मैंने इस महान् ग्रंथ का अनुवाद देखा। यह एक विचक्षण कार्य संपन्न हुआ है। यह कार्य और इसके कर्ता-दोनों साधुवादाह हैं। इसमें प्रधानतः मुनि दुलहराजजी रहे और Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ बृहत्कल्पभाष्यम् शेष दो मुनि सहयोगी रहे। कुल मिलाकर ग्रंथ महत्त्वपूर्ण है, प्राचीन परंपराओं का दिग्दर्शक यह ग्रंथ अभूतपूर्व है। इसमें स्वाध्याय के लिए बहुत सामग्री है। साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभाजी को मैंने भूमिका के लिए निवेदन किया और आपने मेरे पर अनुग्रह कर मेरे निवेदन को स्वीकार कर लिया। उस समय आप चिकित्स्य थीं और मनोयोगपूर्वक स्वास्थ्य लाभ कर रही थीं। उसके पश्चात् विश्राम हेतु भुवाणा (उदयपुर) में स्थित 'महिला अहिंसा प्रशिक्षण केन्द्र' में पधार गईं। श्रावण और भाद्रपद मास विश्राम करने हेतु बीत गये। तदनन्तर विद्वत्तापूर्ण तथा पग-पग पर बहुश्रुतता का बोध देने वाली भूमिका का लेखन किया। आप केवल जैनवाङ्मय की विदुषी ही नहीं हैं अन्यान्य दार्शनिक ग्रंथों का भी तलस्पर्शी अध्ययन कर उनके उपनिषद्भूत तत्त्वों को आत्मसात् किया है। आपकी लेखनी विषय के अनुरूप नानारूप वाली होती है। जहां प्रसादगुण की अपेक्षा हो वहां प्रसादधर्मा और जहां दार्शनिक तत्त्वचर्चा का प्रसंग हो वहां दार्शनिक तत्त्वावगाहिनी होकर यह मन्दाकिनी आगे बढ़ती है। आपके इस अनुग्रह के प्रति मैं किन शब्दों में आभार व्यक्त करूं। आपका सदा से मुझे अनुग्रह प्राप्त होता रहा है, आज है और आगे भी रहेगा। मेरी यही मंगलकामना है कि आप अपनी वाग्मिता तथा लेखनी की प्रवहमानता को विराम न दें और गुरु के इस वरदान को संजोकर रखें। मुनिद्वय मुनि राजेन्द्रकुमारजी और मैं अनेक वर्षों से साथ-साथ रह रहे हैं। उनकी कर्मठता, सजगता और कार्य में लगे रहने की तमन्ना प्रशंसनीय है। वे मुख्यतः संस्कृत व्याकरण के विभिन्न अंगों के संपादन में लगे हुए हैं। उन्होंने उस कार्य में अपनी उपयोगिता सिद्ध कर अनेक ग्रंथों का संपादन किया है। वे अद्भूत खोजी, परिश्रमी और कार्य के प्रति प्रामाणिक हैं। उनकी कार्यक्षमता की चर्चा आचार्यप्रवर बहुधा करते हैं, क्योंकि वे सदा ही आचार्यश्री की सेवा में संलग्न रहे हैं और आज भी हैं। वे प्रथम दृष्ट्या 'गुरुसेवास्ति मामकीनं जीवनमंत्रं' यह मानकर सेवा की संलग्नता बनाए रखते हैं। जब अन्यत्र विहार होता है, गुरु सेवा छूट जाती है, तब उनकी छटपटाहट देखने योग्य होती है। 'सेवाधर्मः परमगहनः' इसको आत्मसात् कर 'सेवाधर्मः परमसुखदः परमसहजः'-ऐसा मानकर सेवाकार्य में संलग्न रहते हैं। वे निष्कामसेवी और निर्जराप्रेक्षी हैं। वे आजकल मेरी रुग्णावस्था के कारण मेरे उपचार में संलग्न हैं। प्रस्तुत ग्रंथ के कार्य में लगने से पूर्व उन्होंने अभी-अभी 'सिन्दूरप्रकरण' काव्य का सांगोपांग संपादन, अनुवाद कर हजारों व्यक्तियों को लाभान्वित किया है। इस कार्य से मुक्त होने के पश्चात् तथा व्याकरण के कार्य को पुनः प्रारंभ न करने के कारण वे बृहद्कल्पभाष्य के कार्य में लगे। ग्रंथ की परिसंपन्नता में दो विषय विशेष हैं। गाथानुक्रम और विषयानुक्रम। उन्होंने दोनों कार्य अपने हाथ में लिए और सर्वप्रथम गाथानुक्रम के परिशिष्ट को करने में लगे। यद्यपि मुद्रित इस ग्रंथ में गाथानुक्रम है। हमने पहले उसका निरीक्षण किया। हमें लगा कि उसमें पाठगत और अनुक्रमगत अनेक त्रुटियां हैं। सबसे पहले मुनिजी ने पाठ की अशुद्धियों का परिमार्जन किया और फिर अनुक्रम को तैयार करने का उपक्रम प्रारंभ किया। एक मास की अवधि में पहले परिशिष्ट का कार्य संपन्न हो गया। श्लोकों की गणना में दो गाथाएं न्यून आ रही थीं। इस न्यूनता ने उनको झकझोर डाला। उनकी खोज में फिर १०-१५ दिन लगे और उन गाथाओं की खोज कर उन्होंने परिशिष्ट को संपन्न किया। दूसरे विषय में लगभग साढ़े छह हजार गाथाओं का विषय-सूचन करना था। समय लगा और चातुर्मास के प्रारंभ काल में वह संपन्न हो गया। ये दोनों बहुत श्रमसाध्य थे। मुनिजी ने इनको पूरा कर मुझे अनुगृहीत किया है। वे साधुवादाह हैं। उनकी कर्मजाशक्ति वृद्धिंगत होती रहे, यही मंगलभावना है। मुनि जितेन्द्रकुमारजी दीक्षाकाल से ही मेरे पास हैं। उनको दीक्षित हुए दस वर्ष हो गए। वे प्रारंभ से ही प्रतिभासंपन्न थे। यहां रहकर उन्होंने अपनी प्रतिभा को संवारा है, बढ़ाया है। वे प्रारंभ में विद्यार्थी बनकर आए Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय थे। तीन वर्ष तक क्रमिक अध्ययन का क्रम चला। उन्होंने संस्कृत भाषा को हस्तगत करना प्रारंभ किया। धीरेधीरे अन्यान्य कार्यों के प्रति उनकी रुचि बढ़ी, दक्षता तो पहले से ही थी, वह वृद्धिंगत हुई और वे क्रमिक शिक्षाक्रम को छोड़कर यदाकदा संस्कृत टीका और संस्कृत काव्यों का वाचन कर अपना ज्ञान बढ़ाते रहे। आज वे मेरे संपूर्ण कार्य के पर्यवेक्षक, यत्र-तत्र परामर्शक बने हुए हैं। अभी कुछ वर्षों पूर्व मैंने व्यवहार भाष्य का अनुवाद किया। उसकी पांडुलिपि तैयार करना, प्रूफ देखना आदि सारा कार्य उन्होंने संपन्न कर जलगांव में महोत्सव के अवसर पर पुस्तकरूप में उपहृत किया। तत्पश्चात् वे मेरे साथ बृहत्कल्पभाष्य में लग गए। मैं उनको भाष्य की टीका का वाचन कर अर्थ करने के लिए कहता वे अर्थ करते। धीरे-धीरे अभ्यास बढ़ता गया । अर्थ को पकड़ने की उनकी शक्ति बढ़ी और उन्हें यह प्रतीति होने लगी की नाममाला का ज्ञान अत्यंत आवश्यक है। आजकल इस ग्रंथ की पांडुलिपि को आद्योपान्त पढ़ने में लगे हुए हैं। सारे परिशिष्टों का परिमार्जन कर रहे हैं। मैं उनकी इस तत्परता के प्रति प्रणत हूं। कथा परिशिष्ट को साध्वीश्री दर्शनविभाणी ने तैयार किया है। ग्रंथगत प्राकृत तथा संस्कृत कथाओं का हिन्दी भाषा में अनुवाद कर ग्रंथ को सुबोध बनाया है। इसमें १५० कथाएं हैं। कहीं-कहीं भाष्य की गाथाओं में वे कथाएं हैं और वृत्तिकार ने उन्हें विस्तार से समझाया है मैं समझता हूं साध्वीजी का यह प्रथम प्रयास सफल रहा है। मैं उनके प्रति आभारी हूं। उनमें प्राकृत और संस्कृत भाषा को पढ़ने-समझने की शक्ति बढ़े, यही मंगलकामना है। नोखामंडी में लगभग एक माह तक रहे। वहां के डॉ. प्रेमसुखजी मरोठी इस ग्रंथ के कम्प्यूटराइज्ड कॉपी के लिए प्रयत्नशील रहे और उस प्रयत्न में सफल हुए। उन्होंने इस विशाल ग्रंथ के महत्त्व को समझा और इसके प्रति अत्यन्त प्रसन्नता व्यक्त की । विहार क्रम में हम संबोधि उपवन में पहुंचे वहां ध्यानयोगी मुनिश्री शुभकरणजी की सन्निध्य में लगभग ४५ दिन रहे ग्रंथ का कार्य आगे बढ़ा और निष्पत्ति तक पहुंच गया। 1 मैं किशन जैन को भी नहीं भूल सकता। वे सर्वोत्तम साहित्य संस्थान के कर्ता-धर्ता है और जैन विश्व भारती संस्था के साहित्य विक्रेता है। उन्होंने अपने कम्प्यूटर ऑपरेटर प्रमोद को हमारे पास भेजकर ग्रंथ की पांडुलिपि तैयार कराई। मैं उनके इस सहयोग को विस्मृत नहीं कर सकता। अन्त में हमने इस ग्रंथ को दो खण्डों में विभक्त किया है। पहले खण्ड में संपादकीय, भूमिका तथा पीठिका सहित प्रथम दो उद्देशक हैं। दूसरे खण्ड में तीसरे उद्देशक से छट्ठा उद्देशक तथा चार परिशिष्ट हैं - १. कथा परिशिष्ट २. सूक्त और सुभाषित ३. आयुर्वेद और आरोग्य ४. गाथानुक्रम प्रथम खण्ड का विषयानुक्रम प्रथम खण्ड में, दूसरे का दूसरे में है। पुनश्च इस ग्रंथ के आकार लेने तक जिस किसी का भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग मिला है उनके प्रति भी मंगलकामना। शुभं भवतु, कल्याणमस्तु । १ अगस्त २००७ महाप्रत विहार, भुवाणा (उदयपुर) मुनि दुलहराज ३३ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय मुझे यह लिखते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि 'जैन विश्व भारती' द्वारा आगम-प्रकाशन के क्षेत्र में जो कार्य हआ है, वह अभूतपूर्व तथा मूर्धन्य विद्वानों द्वारा स्तुत्य और बहुमूल्य बताया गया है। ___ हम बत्तीस आगमों का पाठान्तर शब्दसूची तथा 'जाव' की पूर्ति से संयुक्त सुसंपादित मूलपाठ प्रकाशित कर चुके हैं। उसके साथ-साथ आगम-ग्रंथों का मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद प्राचीनतम व्याख्या-सामग्री के आधार पर प्रस्तुत हुआ है। उसमें सूक्ष्म ऊहापोह के साथ विस्तृत मौलिक टिप्पण तथा अनेक परिशिष्टों से मंडित संस्करणों को भी सम्मिलित किया गया है। इस श्रृंखला में दसवेआलियं, उत्तराध्ययन, सूयगडो, ठाणं, नंदी, समवाओ आदि अनेक आगम ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं और विशाल ग्रंथ भगवई के चार खंड प्रकाशित होकर जनता के सामने आ चुके हैं। भाष्य लिखने की परम्परा बहुत प्राचीन रही है। आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने संस्कृत में 'आयारो' का भाष्य लिखकर भाष्यजगत् में एक नूतन कार्य किया है। वह कार्य भाष्य परम्परा को अक्षुण्ण बनाने का श्रमसाध्य प्रयत्न है। आचारांग भी मूलपाठसहित हिन्दी और अंग्रेजी में प्रकाशित हो चुका है। प्रस्तुत ग्रंथ 'बृहत्कल्पभाष्यम्' आगम व्याख्या साहित्य की बहुमूल्य धरोहर है। छेदसूत्रों में यह बृहत्काय ग्रंथ है। इसमें ६४९० गाथाएं गुंफित हैं। बहुश्रुत वाचना-प्रमुख आचार्यश्री तुलसी एवं आचार्यश्री महाप्रज्ञ के नेतृत्व में आगमसंपादन का भगीरथ कार्य हो रहा है। आगम साहित्य के इस महान् अभिक्रम में आगम मनीषी मुनिश्री दुलहराजजी प्रारंभ से ही जुड़े रहे हैं। वे श्रद्धेय आचार्यश्री महाप्रज्ञ के अंतेवासी बहुश्रुत संत हैं। उन्होंने इस विशाल ग्रंथ का संपादन एवं अनुवाद किया है। मुनिश्री ने इस ग्रंथ की निष्पत्ति में जो श्रम किया है वह ग्रंथ के अवलोकन से स्वयं स्पष्ट होगा। इससे पूर्व मुनिश्री द्वारा संपादित/अनूदित सानुवाद व्यवहारभाष्य भी प्रकाशित हो चुका है। प्रस्तुत ग्रंथ की विशालता देखते हुए इसे दो खण्डों में विभक्त किया है। पहले खण्ड में संपादकीय, भूमिका तथा पीठिका सहित प्रथम दो उद्देशक समाविष्ट हैं। दूसरे खण्ड में तीसरे उद्देशक से छट्ठा उद्देशक तथा चार परिशिष्ट संलग्न हैं। इस ग्रंथ की भूमिका महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभाजी ने अपने बहुमूल्य समय का नियोजन कर लिखी है। संपादन में मुनि राजेन्द्रकुमारजी, मुनि जितेन्द्रकुमारजी सहयोगी रहे हैं। उन्होंने इसे सुसज्जित करने में अनवरत श्रम किया है। इसकी कंपोजिंग में सर्वोत्तम प्रिण्ट एण्ड आर्ट के श्रीकिशन जैन एवं श्रीप्रमोद प्रसाद का योग रहा है। ऐसे सुसम्पादित आगम ग्रंथ को प्रकाशित करने का सौभाग्य जैन विश्व भारती को प्राप्त हुआ है। आशा है पूर्व प्रकाशनों की तरह यह प्रकाशन भी विद्वज्जनों की दृष्टि में अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा। १ नवम्बर २००७ उदयपुर (राज.) सुरेन्द्र चोरड़िया अध्यक्ष, जैन विश्व भारती, लाडनूं Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका ३७ ३८ v४०m.ww.Goow Www. ૪૨ गाथा संख्या विषय पीठिका तीर्थंकरों को नमस्कार और बृहत्कल्पभाष्य के विषय में निर्देश। नंदी और मंगल का अपेक्षाकृत भेदानुभेद। चार प्रकार के मंगल और नंदी। नाम मंगल का विवेचन। ७,८ स्थापना मंगल का विवेचन। ९,१० द्रव्य तथा भाव मंगल का विवेचन। पदार्थ मात्र में चारों निक्षेपों का स्वीकरण। १२ नाम इन्द्र का लक्षण। स्थापना इन्द्र का लक्षण तथा नाम स्थापना में अंतर। द्रव्य इन्द्र का लक्षण। भाव इन्द्र का लक्षण। १६-१८ इन्द्र पद के भाव निक्षेप में विपर्यास और उसका समाधान। नाम इन्द्र तथा स्थापना इन्द्र में और द्रव्य इन्द्र तथा भाव इन्द्र में अंतर। २०,२१ मंगलाचरण करने का प्रयोजन और उसकी सिद्धि के लिए उपचार का निर्देश। तद्गत 'नृप-निधिविद्या-मंत्र' आदि के दृष्टांत। ग्रंथ के आदि, मध्य तथा अंत में मंगल क्यों? मंगल करने से अनवस्था दोष क्यों नहीं होता इसका समाधान। नंदी के चार निक्षेप। प्रत्यक्ष ज्ञान और परोक्ष ज्ञान का लक्षण। २६,२७ वैशेषिकों द्वारा स्वीकृत प्रत्यक्ष ज्ञान के लक्षण में दूषण। उदाहरण सहित। २८ इन्द्रियों से ग्राह्य ज्ञान लैंगिकज्ञान है। २९ प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान की व्याख्या। दोनों ज्ञानों के प्रकार। गाथा संख्या विषय ३१-३३ द्रव्यतः अवधिज्ञान का स्वरूप और सीमा। ३४ क्षेत्रतः, कालतः और भावतः अवधिज्ञान का स्वरूप। ३५,३६ मनःपर्यवज्ञान का स्वरूप। केवलज्ञान कब प्राप्त होता है। केवलज्ञान का स्वरूप। आभिनिबोधिक ज्ञान का लक्षण। आभिनिबोधिक ज्ञान के प्रकार। श्रुतज्ञान का लक्षण। श्रुतज्ञान के प्रकार। अक्षरश्रुत के प्रकार। ४४,४५ संज्ञाक्षरश्रुत तथा लब्ध्यक्षरश्रुत का स्वरूप तथा लब्ध्य क्षश्रुत के प्रकार। अनुपलब्धि और उपलब्धि के प्रकार। अत्यन्त अनुपलब्धि का सोदाहरण लक्षण। सामान्य अनुपलब्धि का सोदाहरण लक्षण। विस्मृति अनुपलब्धि का सोदाहरण लक्षण। सादशतः और विपक्षतः उपलब्धि का सोदाहरण लक्षण। उभयतः (सादृशतः-विपक्षतः) उपलब्धि का सोदाहरण लक्षण। ५२ औपम्यतः उपलब्धि का सोदाहरण लक्षण। ५३ आगमोपलब्धि का सोदाहरण लक्षण। पांचों उपलब्धियां संज्ञी में ही होती हैं और तीनों अनुपलब्धि असंज्ञी में होती हैं। व्यञ्जनाक्षर का लक्षण। ५६,५७ व्यञ्जनाक्षर के भिन्न-भिन्न आधार से होने वाले प्रकार। ५८ अभिधेय से अभिधान की भिन्नता। अपने अर्थ से अभिधान की अभिन्नता। व्यञ्जनाक्षर के दो-दो पर्याय। WW Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ बृहत्कल्पभाष्यम् १०८ गाथा संख्या विषय स्व पर्याय और पर पर्याय में परस्पर संबद्धता और असंबद्धता। अक्षर के प्रमाण व उसके स्वरूप का निरूपण। पुद्गलास्तिकाय के आश्रय से गुरु, लघु आदि पर्यायों पर विचार। पुद्गलास्तिकाय में गुरुलघु द्रव्य सबसे कम। प्रज्ञा के आधार पर गुरु लघु पर्याय का पृथक्करण। अगुरुलघु पर्याय परिमाण का चिंतन। चारों अरूपी अस्तिकाय अनंत अगुरुलघु पर्यायों से संयुक्त। ज्ञान सर्वाकाश प्रदेशों से अनंतगुणा अधिक। ज्ञान अक्षर है। ज्ञानावरणीय कर्म अनंत अविभक्त आवरण से आवृत। ज्ञान का अनन्तवां भाग सदा उद्घाटित। स्थावरकायिक में ज्ञान अव्यक्त। अनक्षर श्रुत के प्रकार। अनक्षरश्रुत का उदाहरण सहित विवेचन। संज्ञी की परिभाषा। कालिक्युपदेशिकी संज्ञा वाले प्राणियों के मानसिक व्यापार कैसे? मनोद्रव्य द्वारा प्रकाशन में भाव विषयक उपयोग। असंज्ञी प्राणियों में विषयों का उपयोग मंद। असंज्ञी प्राणी और मूर्च्छित प्राणी की तुलना। ८३,८४ चेतना भाव की तुल्यता होने पर भी असंज्ञी में विषयावग्रह में पटुता नहीं। हेतुवाद की दृष्टि से संज्ञी और असंजी। ८६,८७ दृष्टिवाद की अपेक्षा संज्ञी और असंज्ञी। स्वामित्व की अपेक्षा लौकिक और लोकोत्तरिक श्रुत में सम्यक् मिथ्या की भजना। मनःपर्यवज्ञान पर्यन्त अवाय। सम्यक्त्व के पांच प्रकार। सर्वप्रथम कर्मों की बंध-स्थिति। मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति में आयुष्य के अतिरिक्त सर्व कर्मों की स्थिति उत्कृष्ट। सम्यग्दर्शन की अन्तरायभूत ग्रंथी का भेदन कब? करण (परिणाम विशेष) के तीन प्रकार। तीनों करणों का कार्य। गाथा संख्या विषय ९६ करणों के आधार पर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के आठ उदाहरण। ९७ यथाप्रवृत्तिकरण में संबंधित (प्रस्तर) दृष्टांत। ९८ सम्यक्त्वलाभ के दो उपाय। तद्गत 'पथ' एवं 'ज्वर' का दृष्टांत। ९९ अपूर्व करण से संबंधित 'वस्त्र' तथा 'जल' का उदाहरण। १००,१०१ अभव्य ग्रंथि के पास पहुंच कर दूर कैसे होते हैं ? भव्य ग्रंथ भेद कर आगे कैसे बढ़ते हैं ? समाधान के लिए 'पिपीलिका' दृष्टान्त। १०२,१०३ तीनों करणों से संबंधित तीन 'पुरुषों' का दृष्टान्त। १०४ सर्व संसारी जीवों के साथ त्रिकरणों की योजना। १०५ दृष्टान्तगत स्तब्ध पुरुष का उपनय। १०६ अनिवृत्तिकरण द्वारा प्राप्त सम्यक्त्व की श्रावकत्व से मोक्ष तक क्रमशः संप्राप्सि। १०७ उपशमश्रेणी और क्षपक श्रेणी दोनों एक साथ एक भव में नहीं हो सकती। उपशमक सम्यक्त्वदृष्टि कौन कहलाता है ? १०९ मिथ्यात्व के तीन प्रकार। ११० अधिगम और नैसर्गिक सम्यक्त्व प्राप्ति के लक्षण। मिथ्यात्व पुद्गलों के तीन पुंज। पुद्गल पुंजों में संक्रमण संभव। ११३-११६ कौनसा पुंज किसमें संक्रमण कर सकता है? इसका विवेचन। ११७ क्षपक, त्रिपुंजी, द्विपुंजी आदि कौन होता है ? ११८ उपशम सम्यक्त्वी कौन? उपशांत मिथ्यात्व कालान्तर के बाद पुनः उद्भूत हो जाता है। १२० उपशांत मिथ्यात्व में 'इलिका' का दृष्टांत। मिथ्यात्व उदयावलिका में प्रविष्ट होने पर अंतर्मुहूर्त तक औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति। १२२ औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति में 'दवाग्नि' का उदाहरण। १२३ औपशमिक सम्यक्दृष्टि जीव के शेष कर्मों का उदय निष्प्रभ। १२४ नैरयिक साता का अनुभव कब करते हैं ? १२५ सम्यक्त्व लाभ से ज्ञान लाभ। ११२ १२१ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका गाथा संख्या विषय १२६ १२७ १२८ १२९ १३० १३१ १३२ १३३ १३४ १३५,१३६ १३७ १३८ १३९ १४० १४१ १४२ १४३ १४४ १४५,१४६ १४७ १४८ १४९ १५० १५१ १५२ १५३ १५४ १५५,१५६ १५७ १५८ मिथ्यात्व के त्यक्त होने पर अज्ञान ज्ञान में परिणत हो जाता है। सास्वादन सम्यक्त्व कब और कैसे ? उपशम सम्यक्त्व से च्युत सम्यकदृष्टि कैसे ? इस प्रश्न का समाधान । मिश्र ( क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि) कब बनता है? वेदक सम्यक्त्वी कौन कहलाता है ? क्षायक सम्यक्त्व कब प्राप्त होता है ? अभिन्न दशपूर्वी से चौदहपूर्वी पर्यन्त नियमतः सम्यक्त्वी होते हैं। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में विवेक । सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के लक्षण । श्रुतज्ञान अनादि अनंत या सादि सान्त ? पांच स्थानों से प्रतिपात । पांच प्रतिपालों का विवेचन। श्रुत नियमतः जीव भी है और तीन स्थानों से श्रुत की जीव में भजना भी । क्षेत्र की अपेक्षा से श्रुत सादि और सपर्यवसित कब ? कहां ? प्रज्ञापक के आधार पर श्रुत सादि और सपर्यवसित। श्रुतज्ञान अनादि और अपर्यवसित कैसे ? गमिक और अगमिक श्रुत का विवेचन । अंगश्रुत और अनंगश्रुत का विवेचन | 'भूतवाद' अर्थात् दृष्टिबाद का अध्ययन स्त्रियों के लिए अनुज्ञात क्यों नहीं ? श्रुतज्ञान की प्ररूपणा में पहले अक्षरश्रुत तथा अनक्षर श्रुत का ग्रहण | श्रुतज्ञान से ही शेष ज्ञानों का कथन संभव। अनुयोगाधिकार की द्वार गाथा। निक्षेप किसका ? अनुयोग के सात निक्षेप । द्रव्य आदि अनुयोगों के प्रभेद । द्रव्यानुयोग के दो प्रकार । जीव द्रव्यानुयोग का विवेचन । अजीव द्रव्यानुयोग का विवेचन । द्रव्य पर्यायात्मक होते हैं। द्रव्य और द्रव्यों से अनुयोग | गाथा संख्या विषय १५९-१६२ १६३, १६४ १६५ १६६ १६७,१६८ १६९ १७० १७१ १७२ १७३ १७४ १७५, १७६ १७७ १७८ १७९ १८० १८१ १८२ १८३ १८४ १८५ १८६ १८७ १८८ १८९ १९०,१९१ क्षेत्र और क्षेत्रों से अनुयोग कैसे ? कलानुयोग का कथन और सोलह वचनों का अनुयोग | वचन से और वचनों से अनुयोग का विवेचन । भावानुयोग का कथन | भाव से और भावों से अनुयोग का विवेचन किन्तु क्षायोपशमिक का भावों में अनुयोग नहीं। ३९ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का परस्पर समवतार कैसे ? द्रव्य और भाव, आधार और आधेय हैं। द्रव्य अनुयोग और अननुयोग विषय में वत्स और गाय का दृष्टान्त क्षेत्र अनुयोग और अननुयोग विषय में कुब्जा का दृष्टान्त | काल अनुयोग और अननुयोग विषय में स्वाध्याय का दृष्टान्त । वचन अनुयोग और अननुयोग विषय में बधिरोल्लाप और ग्रामेयक का दृष्टान्त । भाव अनुयोग और अननुयोग विषय में सात दृष्टान्त | एकार्थिकों के प्रयोग से होने वाले गुण । सूत्र के दश एकार्थक । द्रव्यश्रुत और भावश्रुत । चौदह प्रकार का अक्षरश्रुत । द्रव्य सूत्र और भाव सूत्र के प्रकार । द्रव्य ग्रंथ और भाव ग्रथ के प्रकार । सिद्धान्त की परिभाषा और उसके प्रकार । सर्वतंत्र सिद्धान्त का स्वरूप । प्रतितंत्र सिद्धान्त का स्वरूप। अधिकरण सिद्धांत का स्वरूप । अभ्युपगम सिद्धान्त का स्वरूप। द्रव्य शासन और द्रव्य आज्ञा । भाव शासन और भाव आज्ञा । द्रव्य वाक् और भाव वाक् क्या ? उपदेश, प्रज्ञापना और आगम का निक्षेप । अनुयोग के पांच एकार्थक | निरुक्त का अर्थ | अनुयोग, नियोग, भाषा आदि के दृष्टान्त । सूत्र की परिभाषा Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् २३१ ०० गाथा संख्या विषय १९२ अर्थ महान् कैसे? १९३ अर्हत् अर्थ का ही कथन करते हैं। १९४ नियोग की परिभाषा। १९५ पत्रक और दंडिका दोनों संयुक्त रूप में अर्थ के सहायक। १९६ जैसा सूत्र वैसा अर्थ। १९७,१९८ भाषक, विभाषक और व्यक्तिकर की उदाहरण से अभिव्यक्ति। व्यक्तिकर है वार्तिकर। व्यक्तिकर के विषय में 'चार मंखपुत्रों' का दृष्टान्त। २०१ व्यक्तिकर की योग्यता। २०२,२०३ क्या सभी तीर्थंकरों की प्ररूपणा समान है? शिष्य का प्रश्न। आचार्य का समाधान। २०४ अनियत और नियत क्या? २०५,२०६ निरुक्त, निक्षेप आदि की प्ररूपणा सर्व अर्हतों की समान। 'शकट, गंत्री' का दृष्टान्त। २०७ आत्मांगुल के आधार पर क्षेत्र विभाग से तुल्य उपलब्धि। २०८ विधि शब्द के एकार्थक। २०९,२१० शिष्यों की पटुता के आधार पर अनुयोग की विधि। २११-२१४ अनुयोग विधि से संबंधित प्रश्न और आचार्य द्वारा समाधान। २१५ एकान्त अयोग्य शिष्य के वाचक सात दृष्टान्त। २१६,२१७ दारु (लकड़ी) का दृष्टान्त। २१८ धातु का दृष्टान्त। २१९ व्याधि का दृष्टान्त। २२० बीज का दृष्टान्त। २२१ कांकटुक (कोरडू) का दृष्टान्त। २२२ सामुद्रिक लक्षण के ज्ञाता का कथन। २२३ स्वप्नशास्त्री का दृष्टान्त। २२४ पहले अयोग्य पश्चात् योग्य विषयक प्रतिपक्ष के उदाहरण। २२५,२२६ अग्नि का दृष्टान्त। २२७ बालक और व्याधि का दृष्टान्त। २२८,२२९ सिंहशिशु, द्विपर्णवृक्ष तथा करील का दृष्टान्त। २३० स्थूलबुद्धि शिष्य क्रमशः बुद्धि को वृद्धिंगत कर निपुण होगा। गाथा संख्या विषय स्थूल से प्रारंभ कर सूक्ष्म में निपुणता की प्राप्ति। इसके सात दृष्टान्त। २३२ संवेगकर और निर्वेदकर आगम की वाचना दे। २३३ अनुयोग ग्रहण करने वाला शिष्य और ग्राहक आचार्य का उद्यम। २३४,२३५ गाय और दोहक विषयक चतुर्भगी। आचार्य और शिष्य विषयक चतुर्भंगी। २३६-२३८ चतुर्भंगी का विवेचन। २३९ उद्यमी आचार्य प्रमादी शिष्य को अनुयोग में प्रवृत्त करता है। आर्य कालक का दृष्टान्त। अनियुक्त आचार्य को उद्यमी शिष्य अनुयोग में प्रवृत्त कर देता है। २४० नियुक्त आचार्य दोनों समय अनुयोग करे। नियुक्त शिष्य उसे सुने। २४१-२४४ अनुयोग दाता के गुण। २४५ गुणी और गुणहीन के वचनों की स्थिति। २४६-२५५ अनुयोग किस सूत्र का? प्रस्तुत में कल्प और व्यवहार सूत्र का। इन विषयक जिज्ञासा और समाधान। २५६,२५७ अनुयोग के चार द्वार और उनके निरूपण का कारण। २५८,२५९ अनुयोगद्वार का एक द्वार-उपक्रम। लौकिक द्रव्योपक्रम का निरूपण। २६० लौकिक द्रव्योपक्रम। २६१ लौकिक कालोपक्रम। लौकिक अप्रशस्त भावोपक्रम और तीन दृष्टान्त। २६३,२६४ लौकिक प्रशस्त भावोपक्रम। २६५-२७० छह प्रकार का शास्त्रीय उपक्रम और प्रस्तुत का समवतार। २७१,२७२ निक्षेप के तीन प्रकार। २७३ नाम विक्षेप के छह प्रकार। २७४ भाव कल्प के पांच प्रकार। २७५ सूत्रालापक निक्षेप का प्रसंग होते हुए भी सूत्रानुगम का कथन। २७६ अनुगम के तीन द्वार। लक्षणयुक्त सूत्र ही सिद्ध । २७७ सूत्र के लक्षण। २७८-२८१ सूत्र के बत्तीस दोष। २८२-२८७ सूत्र के गुण और उनकी व्याख्या। २८८ सूत्रोच्चारण विधि। २६२ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D४१ विषयानुक्रमणिका= गाथा संख्या विषय २८९ अहीनाक्षर-हीन के दो प्रकार। एक बहिन का उदाहरण। २९० सूत्र के अर्थ की व्यापत्ति कैसे? २९१ विद्याधर का दृष्टान्त। २९२-२९४ राजपुत्र कुणाल का दृष्टान्त। २९५ कामिक सरोवरवासी बंदर का दृष्टान्त। २९६ व्यत्यानेडित का अर्थ और उसके भेद। २९७ स्खलित और मीलित के भेद। २९८,२९९ स्खलित, मीलित आदि से सूत्रोच्चारण करने पर निष्पन्न प्रायश्चित्त। ३००,३०१ प्रायश्चित्त के प्रकार व उनका विवेचन। ३०२-३०८ संहिता, पद, पदार्थ आदि सूत्र की व्याख्या के छह प्रकार। उनका स्वरूप और उनके प्रयोग की विधि। ३०९ व्याख्या के पांच प्रकार। ३१०-३१३ सूत्र की अनेक व्याख्याएं। अनुसरण के प्रकार और वणिक् के अंधे पुत्र का दृष्टान्त। ३१५-३१८ सूत्र के तीन प्रकार व उनकी व्याख्या। उत्सर्ग और अपवाद की परिभाषा। ३२०,३२१ उत्सर्ग से अपवाद में आने वाले भग्नव्रत हैं या नहीं? शिष्य द्वारा प्रश्न। आचार्य का दृष्टान्त के साथ समाधान। ३२२ अल्प क्या उत्सर्ग या अपवाद ? ३२३,३२४ उत्सर्ग और अपवाद स्वस्थान और परस्थान कब? ३२५, ३२६ पद द्वार और पदार्थ द्वार। ३२६/१/२ तद्धित और सामासिक द्वार। आख्याति पदार्थ और मिश्र पदार्थ। ३२८ आक्षेप और निर्णयप्रसिद्धि का अर्थ। ३२९ अर्थ का वशवर्ती है पद। ३३०-३३३ गुणयुक्त सूत्र की अर्हता। ३३४ कल्प व्यवहार के ग्रहण-योग्य परिषद् की परीक्षा के लिए चौदह दृष्टान्त। ३३५,३३६ मुद्गशैल पर्वत का दृष्टान्त। ३३७ मुद्गलशैल सम शिष्य को सूत्र सिखाने के दोष। ३३८ सूत्र का अव्यवच्छित्तिकारक शिष्य कौन ? ३३९-३४२ कुट के आधार पर शिष्यों का ग्रहण और अग्रहण। गाथा संख्या विषय ३४३-३५२ शिक्षणीय और अशिक्षणीय शिष्य की पात्रता और अपात्रता का विवेचन। ३५३-३५५ चार चतुर्वेदी ब्राह्मण और एक गाय का दृष्टान्त। ३५६-३५९ कृष्ण की चार भेरियां और भेरिपाल। ३६०,३६१ आभीरी का दृष्टान्त और अयोग्य शिष्य। ३६२,३६३ योग्य शिष्य को वाचना न देने और अयोग्य शिष्य को देने से आचार्य को प्राप्त प्रायश्चित्त। ३६४ परिषद् के प्रकार। ३६५ परिषद् का स्वरूप। ३६६ कल्पाध्ययन ग्रहण करने की योग्यता। ३६७,३६८ अजानती परिषद् का स्वरूप। दुर्विदग्धा परिषद् के प्रकार। ३७० किंचित्मात्रग्राही का लक्षण। ३७१,३७२ पल्लवग्राही का लक्षण व दृष्टान्त। ३७३-३७५ मूर्ख आचार्य कैसे? ३७६,३७७ दुर्विदग्ध शिष्य और दुर्विदग्ध वैद्यपुत्र की तुलना। ३७८-३८३ लौकिक पर्षद् के पांच प्रकार व उनका स्वरूप। ३८४ लौकोत्तर पर्षद् की व्याख्या। ३८५,३८६ लौकोत्तर बुद्धिपर्षत् के कार्य। ३८७-३८९ लोकोत्तर मंत्री परिषद् का स्वरूप और भंगनादित कार्य की व्याख्या। ३९० संघ के अपराधी को दंड देने का अधिकार संघ को है राजा को नहीं ? ३९१ श्रमण-श्रमणियों का शल्योद्धरण करने के लिए चतुःकर्णा आदि राहस्यिकी पर्षद् । ३९२,३९३ श्रमण की गुरु के समक्ष आलोचना करने की विधि। ३९४,३९५ श्रमणी की गुरु के समक्ष आलोचना करने की विधि। ३९६-३९८ आलोचना के समय साथ रहने वाले श्रमण श्रमणी की योग्यता। ३९९-४०१ कल्प और व्यवहार की वाचना के योग्य छत्रान्तिका पर्षद्। ४०२ बहुश्रुत के प्रकार और स्वरूप। ४०३,४०४ चिर प्रव्रजित के प्रकार और स्वरूप। ४०५ कल्पिक के बारह प्रकार। ४०६ सूत्रकल्पिक का स्वरूप और योग्यता। सर्वश्रुतानुपाती कब ? कैसे? ४०७ तीन वर्ष की अपूर्णता पर श्रमण क्या पढ़े ? ३२७ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ = गाथा संख्या विषय ४०८ अर्थ कल्पिक का स्वरूप और योग्यता। ४०९,४१० उभय कल्पिक का स्वरूप और योग्यता। ४११ उपस्थापना योग्य शिष्य का स्वरूप। अयोग्य शिष्य को उपस्थापना देने पर आचार्य को प्रायश्चित्त। ४१२ षड्जीवनिकाय के पांच अधिकार। ४१३ द्रव्य कल्प के छह प्रकार। उपस्थापना कल्प का स्वरूप। ४१५,४१६ विचारकल्पिक का स्वरूप। ४१७ स्थंडिल के अर्थाधिकार। ४१८ अचित्त, सचित्त और मिश्र स्थंडिल के भेद। ४१९ स्थंडिल संबंधी चतुभंगी। ४२०-४२४ आपात-असंलोक आदि स्थंडिलों का वर्णन। ४२५-४२९ अस्थंडिलों का उपयोग करने से निष्पन्न प्रायश्चित्त। ४३०-४३७ स्थंडिल भूमी में स्त्री, पुरुष, नपुंसक, पशु आदि के आपात से होने वाले उपसर्ग व उनसे होने वाले दोष। ४३८-४४१ काल और अकाल संज्ञाभूमि में जाने की विधि और प्रायश्चित्त। ४४२-४४४ विशुद्ध संज्ञाभूमी के लक्षण। ४४५ स्थंडिल भूमि के १०२४ भंग। ४४६ औपघातिक स्थंडिल के प्रकार। ४४७ विषम स्थंडिल के दोष। ४४८ स्थंडिल और अस्थंडिल का विवेक। ४४९ विस्तीर्ण व दूरावगाढ़ स्थंडिल का प्रमाण। ४५० आसन्न स्थंडिल के प्रकार। ४५१ बिल आदि युक्त अस्थंडिलों का उपयोग करने से समुत्पन्न दोष। ४५२-४५५ अविधि पूर्वक अस्थंडिल में व्युत्सर्ग करने से निष्पन्न प्रायश्चित्त। ४५६,४५७ शौचार्थ जाने वाले मुनि के लिए दिशा विवेक और स्थायिका विवेक। ४५८ कृमियुक्त कुक्षि वाले मुनि की उत्सर्ग क्रिया का विवेक। ४५९ शौचार्थी मुनि अपने उपकरण कैसे धारण करे। आलोक स्थंडिल के तीन प्रकार। छहकाय की विराधना से निष्पन्न प्रायश्चित्त। = बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय ४६२-४६९ प्रथम लक्षण स्थंडिल के अपवाद में द्वितीय आदि स्थंडिल की अनुज्ञा तथा वहां जाने की विधि। ४७० स्थंडिल कल्पिक के स्वरूप का वर्णन। ४७१ पात्र लेप लाने के लिए योग्य कौन ? ४७२ पात्र लेप शास्त्रविहित व तीर्थंकरों का उपदिष्ट। ४७३-४७५ लेप ग्रहण में उपघात व होने वाली विराधना। ४७६-४८० अलेपकृत पात्र से होने वाली विराधना। ४८१-४८७ लेप की अनुज्ञा। लिंपन की यतना और शिष्य द्वारा किए गए प्रश्न और उनका समाधान। ४८८-४९० पात्र लेप आचार्य की अनुज्ञा से। ४९१-४९६ लेप ग्रहण की विधि। . ४९७,४९८ राजा के शकटों से लेप ग्रहण की विधि। ४९९-५०६ अन्य शकटों से लेप ग्रहण की विधि तथा रात्रि संबंधी लेपग्रहण की विधि। ५०७ अमित लेप ग्रहण की अनुज्ञा नहीं। ५०८ लेपग्रहण संबंधी प्रायश्चित्त। ५०९,५१० लेप ग्रहण करने के पश्चात् गुरु को दिखाकर अन्य मुनियों को आमंत्रण दे। ५११-५१६ पात्र लेपन की विधियां। ५१७-५२० लेप लिप्त पात्र की परिकर्म विधि। ५२१,५२२ लेपयुक्तपात्र को आतप में रखने की विधि। जघन्यतः और उत्कृष्टतः पात्र के कितने लेप? ५२४ 'तज्जात लेप' क्या? ५२५ द्विचक्रलेप क्या? ५२६ कौन सा लेप इष्ट ? क्यों? ५२७ पात्र लेप का उद्देश्य संयम। सती-असती का दृष्टान्त। ५२८,५२९ नौबंध, स्तेनकबंध तथा जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट लेपों का स्वरूप। ५३० लेपकल्पित कौन? ५३१,५३२ पिण्डकल्पिक का स्वरूप। ५३३-५३५ उद्गम के अनेक प्रकार और उनके दोष संबंधी प्रायश्चित्त। उत्पादन दोष संबंधी प्रायश्चित्त। ५३७ एषणा दोष संबंधी प्रायश्चित्त। ५३८ निक्षिप्त संबंधी प्रायश्चित्त। पिहित संबंधी प्रायश्चित्त । ५४० संयोजना संबंधी प्रायश्चित्त। ५४१ शय्या के प्रकार। ५२३ ५३६ ५३९ ४६० Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका -४३ ६५५ गाथा संख्या विषय ५४२,५४३ शय्याकल्प के प्रकार व उनसे निष्पन्न प्रायश्चित्त। ५४४-५५३ वसति को शून्य छोड़ने से उत्पन्न दोष। ५५४-५६४ बाल मुनि को वसतिपाल के रूप में बिठाकर जाने से उत्पन्न होने वाले दोष। ५६५,५६६ वसति की रक्षा के लिए योग्य-अयोग्य का कथन। विविध प्रसंगों में वसति की रक्षा कैसे की जाए। इसका विवेचन। ५८० शय्याग्रहण कल्पिक कौन? ५८१-५८३ वसति के सात मूलकरण और सात उत्तरकरण। ५८४-५८६ मतान्तर से अन्य उत्तरकरण व उनसे निष्पन्न प्रायश्चित्त। ५८७ वसति के मूलकरण और उत्तरकरण संबंधित चतुर्भंगी। ५८८-५९२ सप्रत्यवाय वसति का स्वरूप और उसमें रहने से प्राप्त होने वाला प्रायश्चित्त। ५९३-६०२ शय्या के नौ प्रकार। उनमें रहने आदि से निष्पन्न प्रायश्चित्त व उनमें रहने की यतना। ६०३-६०५ वस्त्र कल्पिक की परिभाषा। ६०६-६०८ वस्त्रों का स्वरूप, ग्रहण विधि और अविधि से निष्पन्न प्रायश्चित्त। ६०९-६१४ गच्छवासी मुनियों की वस्त्रग्रहण की चार प्रतिमाएं तथा जिनकल्पिक मुनियों की दो प्रतिमाएं और उनका विवेचन। ६१५,६१६ वस्त्र आनयन के योग्य मुनि का कथन। वस्त्र ग्रहण के लिए आचार्य जाएं तो प्रायश्चित्त। ६१८ वस्त्र प्राप्ति के लिए गीतार्थ के साथ जाना। । ६१९,६२० गमन से पूर्व कायोत्सर्ग क्यों ? और उसकी संपन्नता का निर्देश। ६२१,६२२ कायोत्सर्ग आदि पदों में अविधि करने पर प्रायश्चित्त। ६२३ वस्त्र ग्रहण से पहले पूरी पृच्छा न करे तो दोष। ६२४,६२५ पृच्छा करने के कारण। ६२६-६२८ प्रक्षेपक दोष किन-किन स्थानों में। ६२९ प्रक्षेपण और निक्षेपण में अंतर। ६३० छिन्न और अच्छिन्न निक्षेपण में विवेक। ६३१ दूर देश में चले गए साधु के स्थापित वस्त्र परिष्ठापनीय। गाथा संख्या विषय ६३२-६४२ ये वस्त्र किसके हैं? इस प्रश्न को सुन द्रमक दुर्भग, भ्रष्ट आदि के मन में उत्पन्न अप्रीति व उसको उपशांत करने का उपाय। ६४३-६४७ पृच्छा से शुद्ध वस्त्र ग्रहण की अनुज्ञा। ६४८ प्राप्त वस्त्रों का विभाजन कैसे? ६४९-६५२ द्रव्य पात्र व भाव पात्र के प्रकार। पात्र ग्रहण और कारण में विपर्यास होने पर प्रायश्चित्त। ६५४ पात्र गवेषणा की चार प्रतिमाएं। तीन प्रकार के पात्रों का स्वरूप। उज्झित पात्रों के चार प्रकार। क्षेत्रोज्झित पात्र का स्वरूप। ६५८ कालोज्झित पात्र का स्वरूप। ६५९ भावोज्झित पात्र का स्वरूप। ६६० पात्र के उत्पादन (प्राप्ति) विषयक आठ पृच्छाएं। ६६१ दृष्ट और रिक्त पात्र ग्रहण योग्य। ६६२ कृतमुख और वहमानक पात्र ग्रहण योग्य। ६६३ प्रासुक अन्न आदि से संसृष्ट व आर्द्र तथा गृही द्वारा उत्क्षिप्त पात्र ग्रहण योग्य। प्रकाशमुख वाला पात्र ग्राह्य। ६६५-६६७ तीन बार प्रस्फोटन किया गया पात्र शुद्ध तथा प्रस्फोटन की विधि। ६६८ पात्र के मूलगुण और उत्तरगुण की चतुर्भगी। अवग्रह के पांच प्रकार। ६७० कौन सा अवग्रह बलीयान्। ६७१ प्रत्येक आग्रह के चार-चार प्रकार। इनमें भी क्षेत्र की प्रधानता। ६७२-६७६ अवग्रह के स्वामित्व का चिंतन। ६७७,६७८ विभिन्न अवग्रहों में जघन्य और उत्कृष्ट का विवेचन। ६७९,६८० गृहपति द्वारा सारे अवग्रह की अनुज्ञा देने पर भी मुनि सीमा का निर्धारण करे। ६८१ द्रव्यावग्रह का कथन। ६८२,६८३ देवेन्द्र आदि अवग्रह का कालमाण। ६८४ भावावग्रह का स्वरूप। भावावग्रह के दो प्रकार। ६८६ ज्ञात और अज्ञात अवग्रह का विवेक। ६८७ इक्कड, कढिण आदि के संस्तारक ग्रहण करने पर प्रायश्चित्त। ६८५ www mm Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् ६८८ ७१० गाथा संख्या विषय दो प्रकार के विहार की अनुज्ञा। ६८९-६९१ गीतार्थ की योग्यता व गीतार्थ कौन ? ६९२ निश्रा का विवेक ६९३ जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट गीतार्थ का स्वरूप। ६९४,६९५ एकल विहार के दोष और उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त। ६९६,६९७ एकल विहार के लिए मंद कौन? ६९८-७०२ एकाकी विहार के दोष। ७०३,७०४ अबहुश्रुत और अगीतार्थ को गच्छ का भार सौंपने पर प्रायश्चित्त। ७०५-७०७ गणदायक तथा गणधारक की चतुर्भंगी व उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त विधि। ७०८८ आचार्य की योग्यता का कथन। ७०९ प्रायश्चित्त का करणत्रय और योगत्रय से परिहार करने वाला कौन? छेद प्रायश्चित्त के दो प्रकार और उनकी व्याख्या। ७११ मूल आठवां प्रायश्चित्त तथा छेद और मूल में भेद। ७१२ अनवस्थाप्य और पारांचिक से प्रायश्चित्त दस प्रकार का। ७१३,७१४ सुलभ बोधि कौन? ७१५ शिष्य का प्रश्न-बारह कल्प में उत्सारकल्प का उल्लेख क्यों नहीं? ७१६ उत्सारकल्पिक में होने वाले दोष। ७१७ उत्सारवाचक के कारण जिनशासन की अपभ्राजना। उत्सारवाचक आचार्य की घटना। ७१८ उत्सारकल्पिक की अज्ञानता। ७१९-७२३ उत्सारकल्पिक के लगनेवाली योग विराधना का कथन तथा सियार का दृष्टान्त। ७२४ उत्साररूपकृत आचार्य से होने वाले दोष। ७२५ वाचक पद की हीलना कब और कैसे? ७२६ उत्सारकल्पिक के अनन्त जन्म-मरण निमित्तभूत कर्मरजों का बंधन। ७२७,७२८ क्रमपूर्वक सूत्र का अध्ययन करने से लाभ। ७२९-७३१ उत्सार कल्प है ही नहीं तो लाभ कहां से आया ? शिष्य का प्रश्न और उसका समाधान। ७३२ उत्सारणा कल्प करा सकने की अर्हता किसमें ? ७३३-७३६ उत्सार कल्प के योग्य कौन? ७३७,७३८ अन्य मत के आधार पर उत्सार कल्पिक के गुण। गाथा संख्या विषय ७३९ गुणों से रहित को उत्सारकल्प करवाने वाले आचार्य को प्रायश्चित्त। ७४० उत्सार कल्प करवाने का कारण। ७४१ उत्साकल्प मुनि की वस्त्रैषणा कैसे? ७४२ एक व्यक्ति अनेक व्यक्तियों के पुण्य का हनन कर सकता है। रक्तपट भिक्षु का उदाहरण। ७४३ वस्त्रों का उत्पादन कैसे? ७४४ दृष्टिवाद का उत्सार क्यों ? ७४५,७४६ उत्सारकल्प में स्वाध्यायिकी की काल-मर्यादा। ७४७-७५० उत्सारकल्पिक को आचार्य किस प्रकार की सुविधा दे? इसका विवेचन। ७५१ चंचल के चार प्रकार। ७५२ गति चंचल की व्याख्या तथा स्थान चंचल के प्रकार। ७५३,७५४ भाषा चंचल के प्रकार और व्याख्या। ७५५ भाव चंचल की व्याख्या। ७५६ किन कारणों से चारों चंचलताएं विहित ? ७५७,७५८ अनवस्थित के दो प्रकार और विवेचन। ७५९ मेधावी के तीन प्रकार। ७६० परिश्रावी और अपरिश्रावी का कथन। अमात्य और बटुकी का दृष्टान्त। ज्ञायक और विनीत को सूत्र की वाचना न देने पर प्रायश्चित्त। ७६२,७६३ छेदसूत्र के अर्थ के लिए अयोग्य ? ७६४-७६६ द्रव्य और भाव तिन्तिणिक के प्रकार और व्याख्या। ७६७ चलचित्त का विवेचन। ७६८ गाणंगणिक की व्याख्या व उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त। ७६९ दुर्बल चारित्री की व्याख्या। ७७० परिभाषी आचार्य का विवेचना ७७१ मंदधर्मा श्रमण अपवादपद की स्पृहा करता है। ७७२,७७३ आचार्य का परिभव करने वाले शिष्य के दो प्रकार और उनकी व्याख्या। ७७४ वामावर्त्त की व्याख्या। ७७५ पिशुन की व्याख्या तथा उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त। ७७६ आदिम अदृष्टभाव की व्याख्या। ७७७,७७८ सामाचारी के दो प्रकार और उनकी व्याख्या। ७६१ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका गाथा संख्या विषय ७७९ ७८० ७८१.७८२ ७८३ ७८४.७८५ ७८६,७८७ ७८८, ७८९ ७९० ७९१ ७९२ ७९३ ७९४ ७९५ ७९६-८०२ ८०३,८०४ ८०५ ८०६ ८०७ ८०८ ८०९,८१० ८११ ८१२ ८१३ ८१४ ८१५ ८१६ अर्थमंडली की विधि | शिष्य का प्रश्न ज्येष्ठ कौन ? इसका समाधान । मंडली की विधि को वितथ करने पर प्राप्त प्रायश्चित्त । आगमों के लिए तरुणधर्मा कौन ? तरुणधमार्थ का विवेचन | गर्वित की व्याख्या । प्रकीर्णप्रज्ञ का स्वरूप | निह्नवी का स्वरूप । तितिणिक आदि को सूत्रार्थ देने पर प्रायश्चित्त । क्षेत्र, काल और पुरुष का भलीभांति जानकर ही गुह्य का प्रकाशन | अनुज्ञात और अननुज्ञात के आधार पर चतुभंगी । परिणामक, अपरिणामक और अतिपरिणामक तीनों में प्रतिषेध किनका ? परिणामक का स्वरूप | अपरिणामक का स्वरूप | अतिपरिणामक का स्वरूप । मति के आधार पर तीनों का स्वभाव व आम्र के दृष्टांत के आधार पर उनकी परीक्षा सुनने की कला । कल्प और व्यवहार की वाचना किनको ? कब ? पहला उद्देशक तालपलंब पदं सूत्र १ निर्ग्रन्य कौन ? सूत्र में स्थित 'नो कप्पई' का विवेचन । प्रलंब क्या ? सारी अनुज्ञा मंगल नहीं, सारा प्रतिषेध अमंगल नहीं। इसका विवेचन । सूत्र मांगलिक ही है। सूत्र दर्पण के समान मंगल रूप । सूत्र में यदि सर्व निषेध हो तो शिष्य की कल्पना सही। प्रतिषेध के छह निक्षेप । नोकार से प्रतिषेध करने का कारण। प्रतिषेधक में चार वर्णों की व्याख्या । गाथा संख्या विषय ८१७ ८१८ ८१९,८२० ८२१ ८२२ ८२३ ८२४ ८२५ ८२६,८२७ ८२८ ८२९ ८३० ८३१ ८३२ _८३३-८३५ ८३६ ८३७ ८३८ ८३९ ८४० ८४१-८४३ ८४४-८४६ ८४७,८४८ ८४९ ८५० ८५१ ८५२ ८५३-८५७ ८५८ ८५९,८६० ८६१ ૮૬૨ प्रतिषेधक वर्णों का निदर्शन। नकार से प्रतिषेध का ज्ञान । संयोग, समवाय, सामान्य और विशेष चार प्रकार के नकार का विवेचन | अकार और नोकार से केवल वर्तमान काल का ही प्रतिषेध | 'नोकार' शब्द का औचित्य । भाव ग्रंथ के प्रकार । सग्रंथ और निर्ग्रन्थ का विवेक । बाह्य ग्रंथ के दस प्रकार । क्षेत्र, वास्तु का विवेचन | ४५ धन, धान्य और संचय का विवेचन । मित्र, ज्ञाति तथा संयोग का विवेचन । यान, आदि बाह्य ग्रंथ का विवेचन। चौदह प्रकार का आभ्यन्तर ग्रंथ । निर्ग्रन्थ कहलाने का कारण । उपशमश्रेणी में कौन १ सराग संयमी निर्ग्रन्थ कैसे ? निष्कषायी कौन ? मुनि उपकरण आदि ग्रहण करते हुए भी बाह्य ग्रंथ से मुक्त कैसे ? 'आम' शब्द के निक्षेप । द्रव्य आम का विवेचन । पर्याय आम के प्रकार व विवेचन | भाव आम के प्रकार और उनका विवेचन । ताल शब्द के चार निक्षेप तथा विवेचन | प्रलंब के चार निक्षेप तथा विवेचन । ताल, तल और प्रलंब का स्वरूप । मूल प्रलंब के उदाहरण | अग्र प्रलंब के उदाहरण । शिष्य द्वारा प्रश्न - मूल तथा अग्र प्रलंब का प्रतिषेध है तो क्या शाखा आदि लेना कल्पता है या नहीं ? आचार्य द्वारा समाधान | भिन्नपद के चार निक्षेप भाव और द्रव्य के भिन्न- अभिन्न के आधार पर चतुर्भगी। मंगों के आधार पर प्रायश्चित परीत्त प्रलंग और अनन्तकायिक प्रलंब ग्रहण में प्रायश्चित्त का विवेक। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =बृहत्कल्पभाष्यम् ९३१ ९३३ गाथा संख्या विषय ८६३,८६४ प्रलंब प्रासि के प्रकार। ८६५-८७१ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आधार पर वसतिवाले प्रदेश में प्रलंब आदि ग्रहण के प्रायश्चित्त। ८७२,८७३ कोट्टक क्या? प्रलंब ग्रहण के लिए जाते हुए चार पदों से सोलह भंगों की रचना। ८७४,८७५ सोलह भंगों में शुद्ध अशुद्ध का विवेक। ८७६ पुष्ट आलंबन में अशुद्ध भंग भी शुद्ध। ८७७-८८० सोलह भंगों में यथायोग्य प्रायश्चित्त का निरूपण। ८८१-८८४ कोट्टकादि में अकेले मुनि के जाने से होने वाली आत्मविराधना व उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त। ८८५-८८९ सहायक के भेद तथा इनके साथ जाने पर निष्पन्न प्रायश्चित्त। ८९० अरण्य तथा अन्यत्र ग्रहण की तरह तत्र ग्रहण में भी प्रायश्चित्त। ८९१ तत्रग्रहण के प्रकार तथा उनके भेद। ८९२-८९४ सपरिग्रह के तीन प्रकार तथा इनका स्वरूप। ८९५-९०३ प्रलंबयुक्त आराम के भद्र या प्रान्त स्वामी का मुनि के प्रति व्यवहार तथा उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त। ९०४,९०५ बिना आज्ञा प्रलंब ग्रहण करने पर मुनि की होने वाली प्रताड़ना और तद्जन्य प्रायश्चित्त। आराम के विविध स्वामी। ९०७ सचित्त प्रलंब के विषय में प्रक्षेपण, आरोहण और पतन ये द्वार पूर्ववत्। ९०८,९०९ सचित्त के प्रकार तथा हस्त प्राप्त प्रलंग को वृक्ष से तोड़ने से निष्पन्न नाना प्रायश्चित्त। ९१० काष्ठ या पत्थर फेंक कर प्रलंब गिराने से निष्पन्न प्रायश्चित्त। प्रक्षेपण से षट्कायविराधना। ९१४ प्रलंब के लिए प्रक्षेपण आदि करता हुआ मुनि षट्काय विराधक क्यों? ९१५ क्षेपण संबंधित दोष। वृक्ष पर आरोहण करने से उत्पन्न दोष व प्रायश्चित्त। ९१९,९२० प्रान्त प्रलंब स्वामी द्वारा मुनि के वस्त्रों का अपहरण तथा तद्जन्य दोष और प्रायश्चित्त। ९२१-९२३ प्रलंब स्वामी द्वारा पकड़ लिए जाने पर होने वाले दोष व उनसे निष्पन्न प्रायश्चित्त । गाथा संख्या विषय ९२४ आज्ञाभंग गुरुतर दोष कैसे? ९२५-९२७ निषिद्ध परिहार न करने वाले मुनि का संसार में सर्वस्व विनाश। इस विषयक राजा का दृष्टान्त। ९२८,९२९ अकार्य में प्रवृत्त कौन? ९३० प्रलंब सेवी मुनि असंयम से स्पृष्ट। प्रलंब सेवी ज्ञानी होते हुए भी अज्ञानी। ९३२ ज्ञान के अभाव में न दर्शन और न चारित्र। वनस्पति का आदि कौन? ९३४,९३५ बीजसेवी आत्मवधक कैसे? ९३६ प्रलंब ग्रहण से प्रायश्चित्त किसको? शिष्य का प्रश्न । आचार्य का समाधान। ९३७ सारणा रहित गण निस्सार। ९३८ गच्छ की सारणा से विकल गणी का परित्याग। ९३९ किस राज्य की प्रजा उच्छंखल? ९४० सात व्यसनों का कथन। ९४१,९४२ गच्छ की सारणा संबंधी चतुभंगी और उनमें शुद्ध अशुद्ध का विवेक। ९४३ लौकिक और लोकोत्तर सार का कथन। ९४४ कार्य सिद्ध न होने के कारण। ९४५-९४९ उपाय से कार्य की संपत्ति और अनुपाय से कार्य की विपत्ति का निदर्शन पूर्वक विवेचन। ९५० काल की हीनता या अधिकता से कार्य करने वाला गीतार्थ भी दोषी। कालकारी गीतार्थ के विशिष्ट गुण। ९५२,९५३ गीतार्थ प्रतिसेवना क्यों करता है? तद्विषयक उसका चिंतन। ९५४ प्रतिसेवना सकारण या निष्कारण कैसे? ९५५ वस्तु और अवस्तु कौन? वस्तुभूत ही प्रतिसेवना के अधिकारी। ९५६ शक्ति के दो प्रकार तथा 'परिरय' का अर्थ। ९५७ इहलोक फल और परलोक फल का स्वरूप। ९५८ ओजा कौन व उसके प्रकार। ९५९ गीतार्थ महावैद्य की तरह श्लाघ्य। ९६०,९६१ क्या गीतार्थ तीर्थंकर और केवली के तुल्य होता है? शिष्य का प्रश्न और आचार्य का समाधान। ९६२ गीतार्थ के ज्ञान की आंशिक तुलना केवली से। श्रुतकेवली तथा सर्वज्ञ प्रज्ञप्ति-प्रज्ञापना में तुल्य। ९०६ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका गाथा संख्या विषय ९६४ ९६५ ९६६ ९६७-९७२ ९७३, ९७४ ९७५ ९७६ ९७७ ९७८, ९७९ ९८० ९८१ ९८२ ९८३,९८४ ९८५ ९८६,९८७ ९८८ ९८९,९९० ९९१,९९२ ९९३ ९९४ ९९५ ९९६ ९९७-१९९ १००० १००१ १००२ अप्रज्ञापनीय भाव और प्रज्ञापनीय भावों का अल्पबहुत्व | चतुर्दशपूर्वधर परस्पर षट्स्थानवर्ती । श्रुतकेवली और केवलज्ञानी तुल्य कैसे ? तथा श्रुतकेवली प्रकाशन किससे करते हैं ? अनन्त कायिक वनस्पति के लक्षण तथा परीत्तजीवी वनस्पति के लक्षण । लवण आदि पदार्थ अचित्त कब ? कैसे ? परिणमन के कारण । वनस्पति प्रकरण में लवण आदि का ग्रहण क्यों ? शिष्य का प्रश्न आचार्य का समाधान | आहार की निष्पति में केवल वनस्पति का ही उल्लेख क्यों ? उदकयोनिक उदक में, उष्णयोनिक आतप में चिरकाल तक सचित्त । पत्र आदि जीव विप्रमुक्त होने की पहचान | ग्रहण और प्रक्षेपण की चतुभंगी । तुल्य जीवों के घात पर अलग-अलग प्रायश्चित्त क्यों? समाधान और म्लेच्छ दृष्टान्त । प्रायश्चित्त पृच्छा आदि की द्वार गाथा । अनन्त वनस्पति और परीत वनस्पति में प्रायश्चित्त की भिन्नता क्यों ? प्रशस्त और अप्रशस्त कौटुंबिक दृष्टान्त | भिन्न प्रलंब ग्रहण में क्या दोष ? कन्यान्तः पुर रक्षक का दृष्टान्त । देवद्रोणी दृष्टान्त | प्रलंब एषणीय न मिलने पर अनेषणीय का ग्रहण | मद्यप का दृष्टान्त । प्रलंब ग्रहण वर्जनीय क्यों ? सभी धर्म अनुगुरु किन्तु देशसाधर्म्य से । प्रवचन अनुधर्म ही आचरणीय है । भगवान् महावीर की घटना का उल्लेख । यही समूचा गम - प्रकार नियमतः साध्वियों के लिए । सूत्र २ 'कल्पते भिन्नम्' का विवेचन । कारणिक सूत्र रचना और कारण । गाथा संख्या विषय १००३, १००४ पूर्वसूत्र में प्रलंबराक्षण प्रतिषिद्ध फिर इस सूत्र में कल्पनीय कैसे ? शिष्य द्वारा प्रश्न । १००५,१००६ दृष्टान्त से अर्थसिद्धि क्यों ? आचार्य का समाधान | १००७ अर्थ की स्पष्टता दृष्टान्त के द्वारा । १००८, १००९ शिष्य द्वारा प्रस्तुत दृष्टान्त से उसी का समाधान । प्रलंब सेवन अहितकर कब ? बिना दृष्टान्त अर्थ का निर्णय संभव नहीं । १०१० १०११ १०१२-१०१६ मरुक दृष्टान्त । १०१७ १०१८ मरुक दृष्टान्त का उपनय । ऊर्ध्वदर के प्रकार व ऊर्ध्वदर और सुभिक्ष की चतुर्भंगी । १०१९,१०२० अध्वप्रतिपन्न होने के आगाढ़ कारण। १०२१.१०२२ अध्वकल्पस्थिति की जानकारी देनी आवश्यक। न देने पर आचार्य आदि को प्रायश्चित्त । ग्लानत्व के प्रकार । रोग और आतंक में अंतर | १०२५,१०२६ आगाढ़ और अनागाढ़ ग्लानत्व में ग्रहण अग्रहण का विवेक। वैद्य विषयक द्वार गाथा । आठ प्रकार के वैद्य व रोग का प्रतिकार पूछने के लिए वैद्य के पास जाने की विधि। १०२३ १०२४ १०२७ १०२८ १०२९ १०३० रोगों के प्रतिकार में प्रयुक्त द्रव्य । अपरिणामक भिक्षु को समझाने के लिए भंडी और पोत की उपमा । १०३१, १०३२ वैद्य द्वारा निर्दिष्ट आलेप ग्रहण करने की विधि । निथिनीयों के लिए भी यही गम प्रकार। १०३३ ४७ १०३४ १०३५ १०३६ १०३७ सूत्र ३.५ पक्व के चार निक्षेप । भाव पक्व की व्याख्या । पक्व ग्रहण श्रमणों के लिए दोषप्रद । प्रस्तुत सूत्र तीसरे और चौथे भंग के प्रसंग में है। १०३८-१०४० श्रमणियों के लिए अविधि भिन्न या भिन्न प्रलंब ग्रहण का निषेध तथा उसके छह भंग । १०४११०४२ श्रमणियों के भंगानुसार प्रायश्चित्त । १०४३,१०४४ प्रलंब सूत्र का कथन न करने व उसको स्वीकार न करने पर प्रायश्चित्त । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय गाथा संख्या विषय १०४५ श्रमणियों के महाव्रतों के विषय में शिष्य की १०८०,१०८१ पूर्वाचार्यों द्वारा गृहीत धान्य, फल आदि का पृच्छा । ग्रहण कल्पनीय। १०४६ जैन परंपरा में श्रमण-श्रमणियों के महाव्रत का १०८२ अशस्त्रोपहत पृथुक अनाचीर्ण। तुल्य निर्देश। १०८३ मिश्रोपस्कृत, निर्मिश्रोपस्कृत के ग्रहण की विधि । १०४७ दोनों वर्गों में मैथुन की भावना का उद्भव करने १०८४ आधाकर्म संबंधी दो आदेश। वाली वस्तु का प्रतिषेध। १०८५ दोनों वर्गों के लिए प्रलंब ग्रहण विधि समान। १०४८ दोनों वर्गों में प्रतिषिद्ध वस्तुओं का भिन्न-भिन्न मासकप्प पदं निर्देश। सूत्र ६ १०४९ निदान (कारण) का परिहार आवश्यक। १०८६,१०८७ प्रस्तुत सूत्र में वसति विधि का वर्णन। १०५० स्त्री और पुरुष के मोहोद्भव में रस, गंध की १०८८ सूत्रगत 'से' 'वा' का अर्थ। तुल्यता तथा शब्द, रूप और स्पर्श में भजना। १०८९ नगर, खेट, कर्बट और मडंब की व्याख्या । १०५१ कौतूहली रानी का दृष्टान्त। १०९० पत्तन के प्रकार तथा द्रोणमुख की व्याख्या। १०५२ अभिन्न तथा अविधि भिन्न प्रलंब ग्रहण करने पर १०९१ निगम, राजधानी, आश्रम तथा निवेश की श्रमणियों को प्राप्त प्रायश्चित्त। व्याख्या। १०५३,१०५४ पादकर्म व हस्तकर्म करने से उत्पन्न होने वाले १०९२ संबोध, घोष, अंशिका आदि की व्याख्या। दोष। १०९३ पुटभेदन की व्याख्या। १०५५ अविधिभिन्न तथा विधिभिन्न की प्ररूपणा। १०९४ ग्राम शब्द के नौ निक्षेप। १०५६ अविधिभिन्न और अभिन्न प्रलंब के दोषों में १०९५ कौन सा नय किस ग्राम को द्रव्य ग्राम कहता समानता। है ? इसका समाधान तथा शब्द नय के तीन १०५७ विधिभिन्न प्रलंब का ग्रहण भी केवल कारणिक। विकल्प। १०५८ तीन कारणों का कथन। १०९६-११०० ग्राम की व्याख्या के विविध नय। १०५९ प्रलंब ग्रहण का कल्प। ११०१ ऋजुसूत्र नय के अनुसार ग्राम शब्द की व्याख्या। १०६० तोसली में भिन्न तथा अभिन्न प्रलंब ग्रहण करने ११०२-११०८ ग्राम संस्थान के बारह प्रकार तथा उनकी का कल्प। व्याख्या। १०६१ देश के दो प्रकार और तोसली में प्रलंब अत्यधिक ११०९-११११ संस्थानों की व्याख्या के अनेक नय। क्यों? १११२ भूतग्राम आतोद्यग्राम के विविध भेद। १०६२ सहिष्णु और भीत परिषद् की चतुर्भगी। मातृग्राम तथा भावग्राम का विवेचन। १०६३ श्रमणियों के परिपालन का निर्देश। १११४ भावग्राम कौन-कौन से? १०६४,१०६५ अवमौदर्य के समय साध्वियों की व्यवस्था कैसे १११५ तीर्थंकर भावग्राम क्यों? की जाए? १११६ क्या सम्यक्दृष्टि परिगृहीत प्रतिमा भी भाव १०६६ विधिभिन्न प्रलंब की अप्राप्ति में स्थविरा साध्वी ग्राम है? द्वारा करणीय कल्प। १११७,१११८ प्रतिमा को भावग्राम मानने पर निह्नवों को १०६७ तरुण श्रमणियों को भिन्न प्रलंब ही क्यों ? भावग्राम माने? शिष्य द्वारा प्रश्न। आचार्य द्वारा १०६८-१०७४ त्रिविध गण (संयत, संयती तथा तदुभय) द्वारा समाधान। परिगृहीत क्षेत्र में यतना का विवेक और विवेचन। प्रस्तुत सूत्र में ग्राम का कौन सा अधिकार? १०७५ स्वग्राम तथा परग्राम में ग्रहण करने की विधि। ११२० ग्राम पद की प्ररूपणा करने पर अनुपूर्वी से नगर १०७६ प्रमाण प्राप्त आहार का परिमाण। आदि की प्ररूपणा करनी आवश्यक। १०७७-१०७९ शुद्ध ओदन आदि अप्राप्ति में प्रलंब ग्रहण की ११२१ परिक्षेप पद के छह निक्षेप। विधि। ११२२ द्रव्य परिक्षेप के तीन प्रकार व उनकी व्याख्या। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका गाथा संख्या विषय ११२३ अचित्त द्रव्य परिक्षेप तथा क्षेत्र परिक्षेप के उदाहरण | ११२४ काल परिक्षेप नगर कौनसा ? ११२५ भाव परिक्षेप नगर कैसे ? ११२६ मास शब्द के छह निक्षेप । ११२७- ११३० द्रव्य मास आदि भाव मास पर्यन्त मासों का ११३१ ११३२ ११३३ प्रव्रज्या कौन ग्रहण करता है ? ११३४,११३५ धर्म क्या ? कथन कौन करता है ? शिष्य द्वारा प्रश्न आचार्य का समाधान । ११३६,११३७ भव्य रूपी कमल विकस्वर, अभव्य रूपी कुमुद अवयुद्ध नहीं। धर्म और धर्मोपदेष्टा का व्युत्क्रम क्यों ? प्रश्न का समाधान | धर्म सुनाने का क्रम । व्युत्क्रम से सुनाने पर प्रायश्चित | ११३८ ११३९ स्वरूप | जिनकल्पिक आदि श्रेणियों के मासकल्प संबंधी विधि में नानात्व | जिनकल्पिक कल्प की द्वार गाथा । १९४०, ११४१ व्युत्क्रम से सुनाने के दोष ११४२ ११४३ ११६२ ११६३ ११६४ ११६५ यति धर्म का उपयोगिता । प्रव्रजित व्यक्ति के लिए शिक्षा तथा उसके दो प्रकार । १९४४ ११४८ शिष्य को गुरु के द्वारा शिक्षा की प्रेरणा । संयममार्ग के लिए शिक्षा के प्रयोजन की क्या आवश्यकता ? शिष्य के द्वारा जिज्ञासा आचार्य के द्वारा वृष्टान्तपूर्वक समाधान । १९४९-१०५३ गुरु की विद्यमानता में श्रुतग्रहण करने से क्या लाभ? विविध दृष्टान्तों के द्वारा ज्ञान क्रिया की सिद्धि का प्रतिपादन । ११५४-११५९ श्रुत तीसरा चक्षु क्यों ? अनेक दृष्टान्तों से आचार्य द्वारा समाधान । ११६०,११६१ आगम अध्ययन क्यों करना चाहिए ? श्रुत अध्ययन से अष्ट गुणों की प्राप्ति का निर्देश | भवसागर में परिभ्रमण का हेतु श्रुत साधना का प्रतिपादन क्यों ? उसकी अनभ्यास । आत्महित के परिज्ञान की आवश्यकता क्यों ? श्रुत का जिज्ञासु किन गुणों से समाहित होता है ? गाथा संख्या विषय ११६६-११७० भाव, संवर, संवेग, संयम मार्ग की निष्कम्पता, स्वाध्याय रूप तप की वृद्धि, तथा निर्जरा से फलित का निर्देश | परदेशकत्व के गुण | ११७१ ११७२, ११७३ जिनकल्पिक का कालमान? उसका ज्ञान कैसे ? शिष्य का धूलीदृष्टान्त तथा चिक्खलदृष्टान्त के द्वारा प्रतिवाद | ११७४,११७५ परम्परा से आने वाले श्रुत की परिहानि कैसे ? आचार्य द्वारा उसका समाधान । ११७६-११८० समवसरण की रचना कहां, कब, कैसे और कौन करते हैं? उसका वर्णन ! समवसरण रचना में भिन्न-भिन्न देवेन्द्रों की भूमिका | ११८२, १९८३ समवसरण में तीर्थकरों गणधरों के प्रवेश की विधि तथा उनके बैठने आदि की व्यवस्था। तीनों दिशाओं में देवकृत प्रतिरूपक। तीनों दिशाओं में तीर्थंकर के रूप की अनुकृति का वर्णन। ११८१ ११८४ १९८५-१९८८ तीर्थंकर और गणधरों के पश्चात् अतिशायी मुनि, वैमानिक देवियां आदि के बैठने, खड़े रहने ११८९ ११९० ११९१ ११९२ ४९ ११९३ ११९४ ११९५ का क्रम । समवसरण में विभिन्न देवों के पारस्परिक व्यवहार का वर्णन तथा ईर्ष्या, मत्सर भाव, भय, संत्रास यंत्रणा, विकथा आदि का अभाव। समवसरण में तिर्यञ्च, यान- वाहन आदि की व्यवस्था का वर्णन | तीर्थंकर की धर्मदेशना का प्रयोजन और उसका प्रभाव । सामायिक के चार प्रकार । चार गतियों में कौन प्राणी कौनसी सामायिक ग्रहण करता है ? देवों में सम्यक्त्व प्रतिपत्ति का नियम । धर्मदेशना से पूर्व तीर्थंकर का तीर्थ को नमस्कार तथा धर्मदेशना का लाभ । तीर्थंकर द्वारा तीर्थ को प्रणाम करने का हेतु तथा तीर्थकर नामगोत्र कर्म के वेदन का उपाय। समवसरण को देखने की इच्छा से श्रमण के आने की मर्यादा तथा नहीं आने पर प्रायश्चित्त का विधान । . Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० गाथा संख्या विषय १९९६ १२०० तीर्थंकर की रूप संपदा तथा संहनन आदि की देव, गणधर आदि के साथ तुलना । १२०१ १२०३ तीर्थंकर के सर्वोत्कृष्ट रूप प्राप्ति का कारण। सभी श्रोता प्राणियों के संशय की एक साथ व्युच्छित्ति करने का उपाय। क्रमपूर्व व्याकरण दोष के निवारण के लिए युगपद् व्याकरण का कथन तथा उसके गुण । १२०४ १२०६ तीर्थंकर की एक ही भाषा का भिन्न भिन्न भाषाओं में परिणमन कैसे ? श्रोता पर उसका प्रभाव कैसा ? १२०७-१२१० भगवान् के विहरण संबंधी तथा आगमन संबंधी सूचना देने वालों को चक्रवर्ती आदि के द्वारा प्रीतिदान तथा उसके गुण । १२११,१२१२ देवमाल्य बलि का विधान । १२१३, १२१४ बलि का कौनसे द्वार से प्रवेश भगवान् को अलि उपहृत करने का विधान । देवता आदि पौरजनों द्वारा बलि लेने की विधि | बलि लेने का लाभ | १२१५-१२१७ तीर्थंकर के धर्मदेशना करने का काल और गणधर के धर्मदेशना का काल । गणधर की धर्मदेशना का लाभ और गुण । १२१८-१२२० तीर्थंकर के समीप अध्ययन करने में व्याक्षेप और अर्थग्रहण की नियमा १२२१-१२२५ सूत्र के प्रकार सूत्र अर्थ की नस होने पर देशाटन का प्रयोजन क्यों? आचार्यपद के योग्य व्यक्ति को वैशदर्शन की नियमा १२२६-१२३१ देश दर्शन के विविध गुण और उनका विस्तार | १२३४ १२३२,१२३३ आचार्य की पर्युपासना से लाभ । भव्य आचार्य का देशदर्शन से लाभ | १२३५ १२४० अतिशय के प्रकार और देवदर्शन का महत्त्व | १२४१,१२४२ द्वार गाथा का वर्णन | १२४३-१२४९ वर्षावर्जविहारी, सत्पुरुष, विद्यापुरुष और निपुण व्यक्तियों के लक्षण | १२५०-१२५३ भावी आचार्य की श्लाघ्यता क्यों ? उपसंपदा की व्याख्या के तीन प्रकार तथा उपसंपदा किसको, कब और उसका निषेध कब ? १२५४-१२६२ आत्मतुला के चार प्रकार । परतुला के चार प्रकार | पुत्रवधू दृष्टान्त द्वारा प्रतीच्छकों को प्रतिबोध । बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय १२६३-१२६७ संविग्न के दो प्रकार आलोचना कब तथा आचार्य के द्वारा सामाचारी का कथन । १२६८,१२६९ प्रतिस्मारणा का स्वरूप । १२७०-१२७४ प्रमाद का दंड । प्रमादाचरण से उपरत होने पर गच्छ से बहिष्कार तथा विनीत शिष्यों द्वारा आचार्य के प्रति विनय का प्रयोग । १२७५-१२७९ प्रमादी साधुओं के प्रति स्मारणाकरण से क्या प्रयोजन ? शिष्यों को स्थिर करने के लिए राजा का दृष्टान्त और स्मारणा कब ? १२८० १२८२ जिनकल्प स्वीकार करने से पूर्व आचार्य की आत्महित के लिए विचारणा आवश्यक । १२८३, १२८४ अभ्युद्यत विहार के तीन प्रकार तथा अभ्युद्यतमरण के तीन प्रकार। पहले किसका स्वीकरण। १२८५ १२८८ गण का निक्षेप इत्वरिक क्यों? इसका समाधान तथा जिनकल्प धारण करने की अर्हता का वर्णन । १२८९ - १२९२ भावना से भावित आत्मा के गुण तथा भावना के प्रकार । १२९३-१३२७ संक्लिष्ट भावनाओं के प्रकार तथा व्याख्या और उनके फल | १३२८-१३५७ प्रशस्त भावनाओं के प्रकार तथा उनकी व्याख्या । १३५८-१३७७ जिनकल्पी बनने से पूर्व उसकी चर्चा, स्वीकरणविधि, नवीन आचार्य की स्थापना तथा उसे शिक्षा | श्रमण संघ से क्षमायाचना आदि । १३७८-१४१२ सामाचारी के प्रकार तथा जिनकल्पिक मुनि की कौन सी सामाचारी ? २७ द्वारों से जिनकल्पिक मुनि का विस्तार से वर्णन । १४१३-१४२४ जिनकल्पी मुनियों की स्थिति का १९ द्वारों से वर्णन | १४२५.१४४५ शुद्ध परिहारिक और यथालंदिक मुनियों की जीवनचर्या, स्वरूप और मर्यादा । १४४६ १४५९ गच्छवासी मुनियों के पांच प्रकार और उनमें प्रव्रज्या शिक्षापन आदि में जिनकल्प की तुल्यता। उनके बिहार के लिए समय और मर्यादा और विहार के लिए गण की अनुमति आवश्यक आदि विधियां १४६०-१४७० गण को आमंत्रित नहीं करने पर अथवा आमंत्रित करने पर नहीं आने पर प्रायश्चित्त विधान । भिन्नभिन्न दिशाओं में वैयावृत्यकर, बालमुनि वृद्ध Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका गाथा संख्या विषय क्षपक, योगवाही और अगीतार्थ को कब और कहां किसको भेजने का विधान। भेजने और न भेजने पर प्रायश्चित्त विधान। १४७१,१४७२ गच्छ के रहने के लिए योग्य क्षेत्र की तलाश और वहां गमनविधि। १४७३-१४८९ उपद्रव रहित और अपाय रहित स्थान की गवेषणा तथा भिक्षा, औषध, उपाश्रय आदि की सुलभता-दुर्लभता आदि की गवेषणा। कौनसा प्रशस्तक्षेत्र कौन सा अप्रशस्तक्षेत्र। १४९०-१५०० श्रमण के पांच प्रकार। वसति की खोज। वास्तुविज्ञान के द्वारा वसति का परीक्षण। कौनसी वसति में लाभ तथा कौनसी में अलाभ ? उच्चार- प्रस्रवण आदि अनुज्ञात प्रदेश में करने का विधान। १५०१-१५१० शय्यातर की अनुमति से वसति में रहने का विधान अन्यथा नहीं। अतिथि मुनि के आतिथ्य सत्कार करने की विधि। महास्थंडिल की प्रत्युपेक्षा क्यों ? कैसे? उसके मांगलिक आमांगलिक की विचारणा। १५११,१५१२ गच्छवासी मुनियों द्वारा यथालंदिक मुनियों के लिए क्षेत्र की गवेषणा। १५१३-१५२० प्रतिलेखित क्षेत्र की अनुज्ञात विधि। १५२१-१५३० क्षेत्र-प्रत्युपेक्षकों द्वारा आचार्य के समक्ष क्षेत्र के गुण दोष आदि का निवेदन और गमनयोग्य क्षेत्र में जाने की निर्णय विधि। १५३१-१५४४ विहार करने से पूर्व शय्यातर को पूछने की विधि। बिना पूछे आज्ञाभंग आदि दोष और प्रायश्चित्त । विधिपूर्वक वसति के स्वामी को उपदेश और विहार के समय का सूचन। १५४५-१५५० विहार के लिए शकुन अपशकुन का चिंतन। १५५१-१५५३ विहार करते समय शय्यातर को धर्मकथन। आचार्य, बाल साधु आदि की उपधि वहन करने का निर्देश। १५५४ रात्री में विहार करणीय-अकरणीय की विवेचना। १५५५-१५६१ अनुज्ञात क्षेत्र में रहने की कालमर्यादा। अननुज्ञात क्षेत्र में निवास करने पर प्रायश्चित्त विधान। १५६२-१५६४ ग्राम प्रवेश करने की विधि। १५६५-१५६८ प्रशस्त शकुन और अप्रशस्त शकुनों की व्याख्या। १५६९-१५७२ आचार्य की वसति प्रवेश की विधि तथा धर्मकथी मुनि का कर्तव्य। गाथा संख्या विषय १५७३-१५७६ वसति प्रवेश के पश्चात् आचार्य के द्वारा सामाचारी और दान आदि कुलों की स्थापना की व्यवस्था। १५७७,१५७८ भक्तार्थियों की भक्तपान ग्रहण करने की विधि। १५७९-१५८१ गीतार्थ मुनियों द्वारा विविध कुलों की जानकारी तथा उनके गमनागमन की व्यवस्था। व्यवस्था न करने पर प्रायश्चित्त। १५८२-१५८८ आचार्य द्वारा स्थापनाकुलों की व्यवस्था। उनमें जाने का विधान तथा स्थापना कुलों में अनेक संघाटक जाने के दोष। १५८९,१५९० प्राघूर्णक साधुओं के चार प्रकार। १५९१ स्थापनाकुलों में न जाने के दोष। दृष्टान्त द्वारा उसकी पुष्टी। १५९२-१६०१ स्थापना कुलों में जाने योग्य और न जाने योग्य साधुओं का लक्षण। दोषयुक्त साधुओं को वहां भेजने पर अनेक प्रकार के दोषों की उत्पत्ति तथा भिक्षाटन के लिए जाने वाले मुनियों के गुण। १६०२-१६०८ श्रावकों को गोचरी की चर्या बताने के लाभ तथा एषणा दोषों की जानकारी द्वारा दोषों से बचाव। १६०९,१६१० प्रायोग्य द्रव्य के दो प्रकार। उनको ग्रहण करने की विधि। १६११-१६१४ एक गच्छ की स्थापनाकुलों में भिक्षाग्रहण की सामाचारी तथा देश-काल की अपेक्षानुसार भिक्षा के समय में भिक्षा-ग्रहण करने का प्रावधान। १६१५-१६२२ अनेक गच्छों की स्थापनाकुलों में भिक्षाग्रहण की विधि। १६२३-१६२६ दस प्रकार की सामाचारियां तथा स्थविरकल्प विषयक २७ द्वारों का उल्लेख। १६२७-१६३३ स्थविरकल्पी मुनियों की सामाचारी, श्रुत, संहनन, उपसर्ग, आतंक, वेदना, स्थंडिल, वसति आदि का विस्तार से वर्णन। १६३४-१६४७ स्थविरकल्पी मुनियों की क्षेत्र, काल, चारित्र, लेश्या आदि द्वारों से स्थिति। १६४८-१६५५ अभिग्रह के चार प्रकार। उनके आधार पर स्थविरकल्पी मुनियों के अभिग्रह का स्वरूप। १६५६-१६५९ गच्छवासी मुनियों की अतिरिक्त सामाचारी संबंधी द्वार। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ गाथा संख्या विषय १६६०-१६६९ प्रतिलेखना द्वार - वस्त्रादिक के प्रतिलेखन का काल, प्रतिलेखन के दोष, प्रायश्चित्त तथा प्रतिलेखन के अपवाद आदि। १६७०- १६७३ निष्क्रमणद्वार - गच्छवासी आदि की बाहर जाने और कितनी बार जाने की विधि । १६७४-१६९१ प्राभृतिकाद्वार - सूक्ष्म और बादर प्राभृतिका का वर्णन | गृहस्थ आदि के निमित्त तैयार अथवा साधुओं के निमित्त बने हुए घर, अथवा क्सति में रहना अथवा न रहने संबंधी विधि और प्रायश्चित्त । १६९२- १७०४ भिक्षाद्वार- विविध एषणाओं से भक्त पानक ग्रहण करने की विधि। गच्छवासी मुनि कब कितनी बार भिक्षा के लिए जाए? अथवा समुदाय रूप या अकेला जाए? एकाकी भिक्षाटन के दोष और प्रायश्चित्त विधान भिक्षार्थ पात्र आदि की मर्यादा | १७०५-१७४७ कल्पकरणद्वार - लेपकृत, अलेपकृत, द्रव्यार्थ पात्रकल्प ] लेपकृत अथवा अलपकृत द्रव्यों का विश्लेषण | विकृति अविकृति की विवेचना । पात्र लेप की विधि और उसका गुण । लेप का कल्प न करने पर प्रायश्चित्त तथा अनेक दोषों का प्रसंग पानक लाने के लिए बार-बार गृहपति के घर जाने पर स्व पर दोष । पात्र को धोने का कारण और उससे संबंधित प्रश्नोत्तरी । १७४८-१७६७ गच्छशतिकादिद्वार-सात प्रकार की सौवीरिणी का वर्णन प्रत्येक के सात साल भेद कृत कारापित से प्रत्येक के दो दो भेद कुल ९८ भेद । अवान्तर अनेक भेद आदि की विवेचना। १७६८-१७७० परिहरणा अनुयानद्वार-तीर्थंकर के समय सैंकड़ों गच्छों के एक साथ होने पर आधाकर्मिक दोषों का परिहरण कैसे ? शिष्य की जिज्ञासा। आचार्य द्वारा रथयात्रा आदि के द्वारा समाधान । १७७१,१७७२ अनुयान रथयात्रा में जाने की विधि - रथयात्रा यदि नगर में हो तो वहां जाने पर ईर्यासमिति के दोष | रथयात्रा में पहुंचने के बाद दोषों का वर्णन करने के लिए द्वार गाथा | १७७४- १७७७ चैत्यद्वार-चार प्रकार के चैत्यों का स्वरूप और उनका विवेचन | १७७३ गाथा संख्या विषय १७७८-१७८३ आधाकर्मद्वार - रथयात्रा के मेले में जाने वाले साधुओं को लगने वाला आधाकर्मिक दोष । उदगमदोष द्वार और शैशवार-रथयात्रा के मेले में जाने से साधुओं को लगने वाला उद्गम दोष और शैक्ष मुनियों की पथभ्रष्टता। स्त्रीद्वार और नाटकद्वार - रथयात्रा में जाने वाले साधुओं को स्त्री, नाटक देखने से लगने वाला दोष । संस्पर्शनद्वार- रथयात्रा में जाने से साधुओं को स्त्री आदि के स्पर्श से लगने वाला दोष । तन्तुद्वार-रथयात्रा में जाने से चैत्य का प्रमार्जन न होने पर प्रतिमाओं पर मकड़ी, मकड़ी का जाला भ्रमरी के घर आदि हटाने पर साधुओं को लगने वाला दोष तथा प्रायश्चित्त विधान | १७८४ १७८५ १७८६ १७८७ बृहत्कल्पभाष्यम् १७८८, १७८९ क्षुल्लकद्वार और निर्धर्मकार्यद्वार रथयात्रा के मेले में जाने से पार्श्वस्थ मुनियों, क्षुल्लकों को अलंकृत देखकर मैले, कुचेले क्षुल्लकों का पतित होना। समाधान देने वालों को धन आदि देने पर अनुमोदना दोष, नहीं देने पर वाद विवाद में वृद्धि और साधुओं का संघ से निष्कासन । १७९०-१८०१ वे कौन से कारण जिनसे रथयात्रा में जाना आवश्यक होता है, उनका वर्णन । १८०२-१८१५ रथयात्रा में जाने वाले मुनि के लिए करणीय आवश्यक निर्देश - जैसे चैत्यपूजा, भिक्षाचर्या की विधि आदि आदि । १८१६ पुरः : कर्मद्वार - पुरः कर्म के स्वरूप के लिए द्वार गाथा । १८१७-१८२० पुरः कर्म क्या? आचार्य द्वारा समाधान । १८२१ - १८२९ पुरःकर्म किसके और कब लगता है ? पुरः कर्म दोष संबंधी अष्टभंगी । पुरःकर्म किसलिए किया जाता है ? पुरः कर्म करने के पश्चात् उसके कल्पने का निरूपण । पुरः कर्म और उदकाद्रक दोष में अन्तर । १८३० आरोपणा द्वार - पुरः कर्म लेने संबंधी प्रायश्चित्त । १८३१-९८६९ परिहारणाद्वार सात प्रकार का अविधिनिषेध | पुरः कर्म लेने का निषेध और उससे संबंधित सात प्रकार के शिष्यों के सात अविधि निषेध रूप आदेश- प्रकार पुरःकर्म लेने संबंधी आठ विधिनिषेध | लौकिक व्यवहार में पुरः कर्म विषय में ब्रह्महत्या का दृष्टान्त | . Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका गाथा संख्या विषय १९१४ ग्लान साधु के लिए वैद्य के पास जाने संबंधी द्वार गाथा। १९१५-१९१८ ग्लान साधु को वैद्य के पास ले जाने की विधि अथवा वैद्य को ग्लान के पास लाने की विधि। १९१९,१९२० गमनद्वार-ग्लान साधु के लिए वैद्य के पास कौन जाए इसका विवेचन। १९२१ प्रमाणद्वार और उपकरणद्वार-ग्लान साधु के लिए वैद्य के पास जाने वाला साधु कैसा होना चाहिए, उसके लक्षण। १९२२-१९२४ शकुनद्वार-वैद्य के पास जाते समय प्रशस्त अप्रशस्त शकुन विचार। १९२५ वैद्य के पास जाने वाला बातचीत करे या मौन रखे? गाथा संख्या विषय १८७०-१८७३ ग्लान्यद्वार-ग्लान साधु का समाचार सुनने पर सभी कार्य छोड़कर वहां जाने का साधु का कर्तव्य। नहीं जाने पर प्रायश्चित्त विधान। १८७४ ग्लान द्वार की वक्तव्यता संबंधी द्वार गाथा। १८७५,१८७६ ग्लान साधु की सेवा के लिए जाने का विधान। उपेक्षा करने पर प्रायश्चित्त। १८७७-१८८२ ग्लान की सेवा महान् निर्जरा का हेतु-इस प्रकार की श्रद्धा से सेवा करने वालों के लिए सेवा का प्रकार। १८८३,१८८४ इच्छाकारद्वार-बिना बुलाए सेवा के लिए न जाना अथवा जाने पर वैयावृत्य करने का निषेध करने में आरोपणा रूप प्रायश्चित्त का विधान और महर्द्धिक राजा का दृष्टान्त। १८८५ अशक्तद्वार-ग्लान की सेवा करने में अपनी असमर्थता प्रकट करने वाले को शिक्षा। १८८६,१८८७ सुखितद्वार-ग्लान साधु की सेवा करने में दुःख मानने वाले को प्रायश्चित्त। १८८८,१८८९ अवमानद्वार-ग्लान परिचर्या के लिए जाने पर हम भी अवमान उद्गम आदि दोषों के भागी होंगे। अर्थात् ये दोष वहां होंगे इस प्रकार कहने वालों के लिए प्रायश्चित्त विधान। १८९०-१८९९ लुब्धद्वार-ग्लान साधु की सेवा में जाने वाले । लोलुप साधु उस क्षेत्र को बिगाड़ देते हैं। तब वहां ग्लान प्रायोग्य द्रव्य मिलना भी कठिन हो जाता है। ऐसे साधुओं के लिए प्रायश्चित्त का विधान। १९००-१९०६ अनुवर्तना ग्लानस्थद्वार-ग्लान की अनुवर्तना क्यों ? ग्लान साधु के लिए पथ्यापथ्य कैसे लाना, कहां से लाना, कहां रखना और उसे सुरक्षित रखने के लिए गवेषणा कैसे करनी आदि का विवेचन। १९०७ वैद्यानुवर्तना-स्वयं जानकार साधु ग्लान की स्वयं चिकित्सा करे अथवा वैद्य जानकार हो तो वैद्य को १९२६,१९२७ वैद्य के पास गीतार्थ साधु से क्रमशः श्रावक तक जाए और ग्लान साधु की बीमारी का क्रमवार निवेदन करे। १९२८,१९२९ वैद्य द्वारा रोगी के लिए कथनीय सारे कार्य करणीय। १९३०,१९३१ वैद्य के कहे अनुसार पथ्य की व्यवस्था करनी आवश्यक किन्तु यदि वे न मिले तो पुनः वैद्य से परामर्श १९३२ ग्लान साधु को बिना देखे औषधि का निर्देश नहीं किया जा सकता इस दृष्टि से वैद्य का उपाश्रय में आगमन। १९३३ उपाश्रय में आगत वैद्य के साथ आचार्य आदि की यतना। १९३४-१९३६ अभ्युत्थान द्वार, आसन द्वार और दर्शनाद्वार उपाश्रय में वैद्य के आने पर आचार्य का उठना उनको आसन देना तथा ग्लान साधु को दिखाने की विधि । अविधि होने पर दोष और प्रायश्चित्त। १९३७ चिकित्सा के चतुष्पाद। ग्लान साधु के लिए औषधि का प्रबंध-कौन करे? प्रश्न का समाधान। १९३८-१९४७ भृतिद्वार, आहारद्वार और ग्लानाहारद्वार-वैद्य की व्यवस्था तथा औषधि आदि व्यवस्था करने की विधि। १९४८-१९६० गांव से वैद्य को बुलाने की विधि। उसके खान पान आदि के लिए विशिष्ट विधि। १९६१-१९६२ ग्लान अथवा असंयमी वैद्य का वैयावृत्य क्यों ? प्रश्न का समाधान। पूछे। १९०८-१९१० रोगोपचार के लिए उपवास चिकित्सा का विधान। १९११,१९१२ वैद्य के आठ प्रकार तथा मतान्तर के अनुसार वैद्य के आठ प्रकार। १९१३ संविग्न गीतार्थ वैद्य अथवा कुशल वैद्य को छोड़कर असंविग्न अगीतार्थ वैद्य और अकुशल वैद्य से चिकित्सा कराने पर प्रायश्चित्त । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ गाथा संख्या १९६३ १९६४ विषय ग्लान साधु की शरीर शुश्रूषा संबंधी विधि | ग्लान विषयक और वैद्य विषयक-दो प्रकार की अनुवर्तना । १९६५,१९६६ बाहर से आए हुए वैद्य द्वारा दान-दक्षिणा मांगने पर उसे विशिष्ट विधि द्वारा दातव्य | वास्तव्य वैद्य द्वारा दक्षिणा की याचना करने पर पश्चात्कृत व्यक्तियों द्वारा धन दिलाने की विधि । वास्तव्य और आगन्तुक वैद्यों द्वारा वस्त्र याचना करने पर उन्हें देने की विधि | वैद्य को वस्त्र न मिलने पर न्यायालय द्वारा विहित वस्त्रों को देने की विधि । १९६९, १९७० वैद्य आदि के रुपये मांगने पर उसको देने की विधि अथवा अपवाद पद न्यायालय में जाने पर अहिरण्यक विधि । ग्लान के नीरोग हो जाने पर ग्लान और उसके प्रतिचारक को अपवाद आदि सेवन के कारण प्रायश्चित्त । १९६७ १९६८ १९७१ ग्लान के प्रायोग्य द्रव्यविषयक तथा वैद्यविषयक अनुवर्तना का उपसंहार । १९७३-१९८० ग्लान साधु को एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाने के कारण तथा एक समुदाय के ग्लान साधु की सेवा के लिए दूसरे समुदाय में फेरबदली। १९८१-१९८८ ग्लान की उपेक्षा करने वाले साधुओं और ग्लान की सेवा करवाने में आचार्य यदि उपेक्षा करते हैं। तो दोनों को प्रायश्चित | १९७२ १९८९-१९९७ संयत के चार प्रकार । आठ स्थानों से ग्लान का परित्याग करने पर प्रायश्चित्त विधि | १९९८-२००१ आचार्य, कुल, गण द्वारा ग्लान की प्रतिचर्या करने का कालमान । २००२-२०१३ ग्लान का परित्याग करने की स्थिति होने पर भी परित्याग न करने का विधान ग्लान को छोड़ने की बात कहने पर भी प्रायश्चित्त । आचार्यों द्वारा मधुर आश्वासन । निर्ग्रन्थ मुनियों के गुण । ग्लान को न त्यागने के लाभ । २०१४,२०१५ वाचना के लिए यथालंदिक मुनियों के साथ प्रतिबंध तथा उनके साथ बंदन व्यवहार की विधि। २०१६, २०१७ आचार्य के स्थान पर यथालंदिक के रहने से दोष तथा उनके रहने की आचार्य की यथालंदिक मुनि के पास जाने की विधि | गाथा संख्या विषय २०१८ २०१९ २०२० २०२१ २०२२ २०२३ बृहत्कल्पभाष्यम् यथालंदिक मुनियों द्वारा कृतिकर्म कब ? यथालंदिक मुनि और उनकी मास कल्प की मर्यादा। एक वसति में एक मास से अधिक रहने पर दोष । अपवाद की स्थिति के वसति और भिक्षा विषयक यतना की अनुपालना । २०२४-२०२७मासकल्प में मास से अधिक, चतुर्मास के चार मास से अधिक रहने पर प्रायश्चित्त । कालमर्यादा से अधिक एक स्थान में रहने से अनेक प्रकार के दोषों की विवेचना । २०२८-२०३३ आपवादिक कारणों के कारण काल मर्यादा से अधिक भी एक क्षेत्र में रहा जा सकता है। वहां वसति विभाग से भिक्षाचर्या की विधि । सूत्र ७ २०३४ - २०४६ ग्राम, नगर आदि तथा किल्ले के अन्दर और बाहर दो विभाग में वसति होने पर ऋतुबद्ध काल में अन्दर और बाहर मिलाकर दो मास एक क्षेत्र में रहा जा सकता है। तृण, फलक आदि बाहर ले जाने की विधि । अविधिपूर्वक ग्रहण करने में दोष और प्रायश्चित्त वृद्ध यथालंविक मुनि के प्रति आचार्य की वाचना देने की मर्यादा। यथालंदिक मुनि के पास आचार्य के जाने पर उनके भक्तपान करने की विधि । आचार्य के गमन की असमर्थता में विविध स्थानों में वाचना देने की पद्धति । सूत्र ८ २०४७ निर्ग्रन्थियों की निर्ग्रन्थ के समान वक्तव्यता । २०४८, २०४९ निर्ग्रन्थियों के गणधर की प्ररूपणा आदि की द्वार गाथा । २०५२ २०५०,२०५१ संयतियों का गणधर कैसा हो ? उसके लक्षण । साध्वियों के प्रायोग्य क्षेत्र की गवेषणा गणधर द्वारा करने का विधान | २०५८ २०५९ २०५३-२०५५ साध्वियों द्वारा क्षेत्र प्रत्युपेक्षा करने से निष्पन्न दोष तथा आचार्य को प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष । २०५६,२०५७ आर्याओं के लिए प्रत्युपेक्षणीय क्षेत्र । श्रमणियों की वसति का विवेक । मतान्तरानुसार श्रमणी वसति का स्वरूप । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका गाया संख्या विषय श्रमणियों की क्सति कैसी हो ? २०६० २०६१,२०६२ मतान्तरानुसार श्रमणियों के शय्यातर का स्वरूप । स्थंडिल भूमि के चार प्रकार । २०६३ २०६४-२०६८ श्रमणियों के योग्य-अयोग्य स्थंडिल भूमियों का विवेक | २०६९, २०७० उपद्रव आदि अवसरों में साध्वियों को निर्धारित क्षेत्र तक पहुंचाने की विधि । विहार करते हुए कायिकी तथा संज्ञानिवृत्ति की यतना । २०७२,२०७३ अवमानना की दृष्टि से मात्रक आदि ग्रहण करने की विधि तथा परिष्ठापन की आज्ञा । वारक को अन्तर्लिप्त न करने से जीव विराधना । निर्ग्रन्थियों के लिए कायिकी करने में अपेक्षित २०७१ २०७४ २०७५ यतना । २०७६ - २०७९ साध्वियों का आहार विभाग और आहार करने की विधि। २०८०-२०८२ आर्यिकाओं का सौहार्द्रपूर्ण अवस्थिति देखकर लोगों के द्वारा महिमा मंडन । २०८३ २०८६ प्रत्यनीक व्यक्ति के द्वारा तरुणी साध्वी को अभिद्रुत होने पर बचाव करने के विविध उपाय। उपद्रुत होने पर यदि साध्वियां गुरुणी को नहीं कहती हैं तो प्रायश्चित्त । २०८७ २०८८ भिक्षा गमन के लिए वृद्ध और तरुणी साध्वियां कितनी होनी चाहिए ? लोगों में विविध तर्कणा । २०८९ २०९१ साध्वियों की गमनविधि तथा साध्वियां स्थविरा और तरुणियां कहां और उनके खड़े रहने की विधि कोठे के द्वार से बाहर खड़ी स्थविरा द्वारा प्रत्यनीक द्वारा उपद्रव उत्पन्न होने पर तरुणी साध्वी की रक्षा का उपाय। रूपवती साध्वी की रक्षा के लिए विविध उपाय । २०९३ - २०१७ तीन आदि के समूह में भिक्षा ग्रहण करने के लाभ। परस्पर विरोधी भोजन ग्रहण करने पर संयमोपघात और आत्मोपपात । २०९८,२०९९ वेद के तीन प्रकार । उदाहरण द्वारा उनका स्पष्टीकरण | २०९२ गाथा संख्या विषय २१००-२१०२ स्त्रीलिंग की रक्षा का प्रयोजन तथा अत्यधिक यतना करने के कारण। २१०३-२१०५ साधुओं को एक मास और साध्वियों को दो मास रहने की अनुज्ञा क्यों ? उसका समाधान । एक स्थान में दो मास से अधिक रहने पर प्रायश्चित | सूत्र ९ २१०६-२१०८ सपरिक्षेप तथा सबाहिरिका क्षेत्र में आर्यिकाओं के रहने की मर्यादा। २१०९-२१२४ गच्छ और जिनकल्पी में महर्द्धिक कौन ? विविध दृष्टान्तों द्वारा उसका समाधान । एगत्तवासविधिनिसेध-पदं सूत्र १० २१२५, २१२६ ग्राम, नगर आदि क्षेत्रों में श्रमण कहां रहे? सूत्रकार द्वारा समाधान । २१२७ वगड़ा, द्वार एवं निर्गम प्रवेश पद की व्याख्या । २१२८-२१३१ द्वारपद और निर्गम-प्रवेशपथ-इन दोनों में से एक का कथन क्यों नहीं? शिष्य द्वारा प्रश्न, आचार्य का समाधान | एक बगड़ा एक बारवाले क्षेत्र में निर्यन्थनिर्ग्रन्थी का रहना निषिद्ध तथा उसके दोष । एक वगड़ा और एक द्वार वाले क्षेत्र में पहले एक श्रमण वर्ग अथवा श्रमणी वर्ग ठहरे हुए हों तो वहां बाद में आकर ठहरने वाले को प्रायश्चित्त और दोष २१३२ ५५ २१३३ २१३४ जहां पहले श्रमणी स्थित है यदि वहां भिक्षा की सुलभता जानकर कोई आचार्य गच्छ को लेकर उस क्षेत्र में ठहरता है तो उन्हें प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष २१३५-२१५३ गच्छ के रहने योग्य क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा के लिए भेजे हुए श्रमणों द्वारा श्रमणी भावित क्षेत्र की जानकारी आचार्य, उपाध्याय, वृषभ, भिक्षु आदि उसकी कांक्षा करे तो प्रायश्चित्त । द्रव्याग्नि और भावग्नि का स्वरूप । २१५४-२१५६ साधु-साध्वियों के मोह (वेद) का उदय कैसे ? कृषक के उदाहरण से उसका समाधान । २१५७-२१६२ मोह के उदित होने पर उसका निरोध क्यों नहीं? योद्धा और गारुडिक दृष्टान्त द्वारा गुरु से समाधान । . Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा संख्या विषय २१६३-२१७२ पृथक् वसति में रहने वाली साध्वियों का परिहार किया जा सकता है,परन्तु गृहणियों का नहीं। क्योंकि उनसे ही भक्तपान, औषधि आदि की प्राप्ति होती है। मुनियों का संसर्गजा दोष से बचा नहीं जा सकता। आचार्य द्वारा विविध उदाहरणों से उसका प्रतिवाद। २१७३-२१८० एक वगड़ा-एक द्वार वाले ग्राम-नगर आदि में साथ रहने वाले श्रमण-श्रमणियों के विचारभूमी आदि में आते जाते, एक दूसरे से मिलने और देखने के निमित्त से होने वाले दोष तथा लोगों में उठने वाली तर्कणा से निष्पन्न प्रायश्चित्त। २१८१-२१९३ एक द्वार वाले ग्राम-नगर आदि में साथ में रहने वाले श्रमण-श्रमणियों के विविध प्रयोजनों से जाते या निर्गमन विषयक चतुभंगी तथा उसके आश्रित प्रायश्चित्त के पांच आदेशों का वर्णन। २१९४-२२०४ एक द्वार वाले गांव-नगर आदि में श्रमणियों के रहने पर यदि वहां श्रमण रहते हैं तो श्रमणियों के विचारभूमी-भिक्षाचर्या आदि के निमित्त से होने वाली परितापना तथा तद्विषयक भोगिक दृष्टांत और प्रायश्चित्त। २२०५-२२१७ एक द्वार वाले गांव-नगरादि में श्रमणियों के होने पर कुलस्थविरों द्वारा नगरद्वार पर स्थित आचार्य से वहां रहने का कारण पूछना। निष्कारण रहने पर प्रायश्चित्त और उस क्षेत्र से निष्कासन। कारणवश वहां ठहरे हुए हों तो यतनापूर्वक विचारभूमी, भिक्षाचर्या आदि की व्यवस्था। २२१८-२२३१ वास्तव्य और आगन्तुक साधु-साध्वियां यदि कारणवश एक ग्राम में रहें तो वहां कलह के प्रसंग संभावित। गणिनी, प्रवर्तिनी और गणधर द्वारा शान्ति के लिए प्रयत्न। परस्पर क्षमायाचना के बाद विशोधि। २२३२-२२३४ अनेक द्वार रूप एक वगड़ा में जो दोष लगते हैं उनके वर्णन के लिए द्वारगाथा। २२३५-२२४० वृत्ति द्वारा अंतरित स्थान में भी साधु-साध्वियों का एक साथ रहना निषिद्ध। परस्पर वार्ता, कुशलक्षेत्र आदि से संयमच्युत की संभावना और मोह की वृद्धि आदि दोष। २२४१-२२४४ साध्वियों के अभिमुख द्वार वाले उपाश्रय के पास साधुओं को रहने का निषेध क्यों? बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय २२४५-२२५७ ऊंचे, नीचे स्थान में साधु-साध्वियों के रहने से एक दूसरे को देखने का प्रसंग। उससे लगने वाले दोष तथा उनसे संबंधित विभिन्न प्रायश्चित्त तथा अनेक आदेश। २२५८-२२६३ कामवेग के दस प्रकार। तथा उनके वेगों का क्रमशः प्रायश्चित्त का निरूपण। २२६४-२२७१ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के अत्यधिक निकट रहने पर रात्री में धर्मकथा आदि करने की विधि। धर्मकथा सुनने पर अनुराग, संकेत आदि दोषों की संभावना। प्रवचन की मधुरता से श्रमणी द्वारा प्रशंसा। श्रमण-श्रमणी को आपस में देखने से प्रीति, रति, विश्वास, प्रणय आदि की उत्पत्ति। भग्नव्रत होने पर अवधावन करे तो आचार्य को प्रायश्चित्त। २२७२-२२७७ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के अशिव, दुर्भिक्ष आदि कारणों से अकस्मात् संयती क्षेत्र में आने पर निरुपहत वसति की मार्गणा करने का विधान। उसके अभाव में संयती क्षेत्र में यतनापूर्वक रहने की विधि। २२७८-२२८७ जिस गांव के अनेक वगड़ा और प्रवेश-निर्गमन द्वार एक हो वहां रहने वाले श्रमण-श्रमणियों के तीसरे भंग वाली अर्थात् आपात असंलोक वाली विचारभूमी भीतर न होने पर बहिर्गमन का प्रसंग। एक द्वार होने के कारण दोनों के आने-जाने और मिलने से लगने वाले दोष और तद्विषयक कुसुंभरक्तवस्त्र का दृष्टान्त। सूत्र ११ २२८८,२२८९ ग्राम-नगरादि में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के रहने के लिए भिक्षाभूमि, स्थंडिलभूमि, विहारभूमि आदि जहां पृथक्-पृथक् हो वहीं यतनापूर्वक रहने का विधान। २२९०-२२९४ निर्ग्रन्थों के लिए पार्श्वस्थ आदि संयतियां दोषकारी। वहां मुरुण्डदूत का दृष्टान्त। आवणगिहादिसु वासविधिनिसेध-पदं सूत्र १२ २२९५,२२९६ पृथग् वगडा और पृथक् द्वार वाले क्षेत्रों में रहने वाली साध्वियों को कौन से उपाश्रय कल्पनीय ? २२९७-२३०३ आपणगृह, रथ्यामुख, शृंगाटक, चतुष्क, चत्वर अंतरापण आदि पदों की व्याख्या तथा भिन्न भिन्न Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका गाथा संख्या विषय स्थानों में बने उपाश्रयों में रहने वाली श्रमणियों के स्थानानुरूप प्रायश्चित्त का विधान। २३०४-२३१० आपणगृह आदि में ठहरी साध्वियों के तरुण व्यक्तियों, वेश्याओं, विवाह तथा राजा आदि को देखकर भुक्तभोगों का स्मरण आदि होने वाले दोष। २३११-२३१९ सार्वजनिक स्थानों में ठहरी हुई श्रमणियों को देखकर तरुणों के मन में तर्कणा, मोहोदय, कुलगृह की अवमानना तथा उचित उपाश्रय के अभाव में अनुचित उपाश्रय में रहना पड़ रहा है, इस प्रकार का लोकापवाद। २३२०-२३२४ निर्दोष वसति की गवेषणा। उसके अभाव में श्रमणियों को कहां-कहां ठहरने का विधान। सूत्र १३ २३२५ मुनियों के लिए भी पूर्वोक्त नियम। उसके अभाव में अन्य स्थानों में भी यतनापूर्वक रहने का निर्देश। अवंगुयदुवार-उवस्सय-पदं सूत्र १४ २३२६-२३३३ बिना कपाट के खुले उपाश्रयों में साध्वियों को रहने का निषेध तथा वहां उद्भूत होने वाले दोष। यदि अपवाद रूप में रहना पड़े तो वहां रहने की विधि और रक्षा। २३३४-२३३८ दरवाजे की रक्षा करने वाली प्रतिहारी साध्वी कैसी हो? उसके गुण और कार्य। २३३९-२३४२ अनावृत उपाश्रय में साध्वियों के सोने का क्रम तथा विधि। २३४३-२३४७ अनावृत उपाश्रय में जागना, मोक का विसर्जन, काल की प्रतिलेखना और स्वाध्याय की क्रम विधि। २३४८,२३४९ चोरी के लिए अथवा मैथुन के लिए अथवा दोनों के लिए प्रतिश्रय में आए हुए व्यक्ति को निकालने के लिए साध्वियों द्वारा करणीय विधि। २३५०-२३५२ अध्वनिर्गत मार्ग में सुरक्षित द्वारवाला उपाश्रय न मिलने पर खुले द्वार वाले उपाश्रय में साध्वियों के रहने की विधि। उपसर्ग के समय तरुण अथवा वृद्ध साध्वी को उसका निवारण किस प्रकार करना चाहिए? उसकी विधि। गाथा संख्या विषय सूत्र १५ २३५३,२३५४ साधु को उपाश्रय के द्वार को ढंकने का निषेध। ढंकने से त्रस जीवों के अभिघात का प्रसंग। प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग का दोष। २३५५ आगाढ़ कारण में यतनापूर्वक द्वार बंद करने का कल्प। २३५६-२३६० जिनकल्पी और स्थविरकल्पी की द्वार संबंधी पृथक्-पृथक् विधियां और कारण। कारणवश द्वार बन्द न करे तो उससे होने वाले दोष। २३६१ कपाटों को रजोहरण से प्रमार्जित कर खोलने अथवा बंद करने की विधि। घडीमत्तय-पदं सूत्र १६ २३६२,२३६३ निग्रन्थियों को घटीमात्रक रखना और उसका उपयोग करने का कल्प। ग्रहण नहीं करने पर प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष। २३६४ निर्ग्रन्थियों के घटीमात्रक का स्वरूप। सूत्र १७ २३६५ निग्रन्थों को घटीमात्रक रखना और उसका उपयोग करना नहीं कल्पता। ग्रहण करने पर प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष। २३६६,२३६७ प्रमाण और परिहरण के दो दो प्रकार। उनकी व्याख्या। २३६८-२३७० निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को घटीमात्रक रखने का कारण और उसके अभाव में होने वाले विकल्प। चिलिमिलिया-पदं सूत्र १८ २३७१ घटीमात्रक की तरह चिलिमिलिका ग्रहण तथा यतना का निर्देश। २३७२-२३८१ धारण और परिहरणा का अर्थ। चिलिमिलिका के द्वार। चिलिमिलिका उपग्रहकारी क्यों? उसके पांच प्रकार। प्रत्येक का अलग-अलग प्रमाण । प्रत्येक के उपयोग के भिन्न-भिन्न प्रकार। उपयोग न करने पर प्रायश्चित्त और संयम तथा आत्मविराधना से निष्पन्न प्रायश्चित्त। २३८२ उपाश्रय में निवास करने वाली साध्वियों के लिए चिलिमिलिका का उपयोग और उससे लाभ। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = गाथा संख्या विषय दगतीर-पदं सूत्र १९ २३८३,२३८४ दकतीर सूत्र की विस्तृत व्याख्यार्थ द्वार गाथा। दकतीर पर बैठने सोने आदि से प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष। २३८५,२३८६ दकतीर विषयक परिभाषाएं और उससे संबंधित सात आदेश। २३८७ दकतीर पर बैठने, खड़ा होने आदि से होने वाले अधिकरणादि दोष। २३८८-२३९८ अधिकरणादि दोषों का स्वरूप तथा साधुओं के कारण से जंगली जानवरों का पलायन, षड्काय की विराधना, अनाचार का सेवन आदि होने का प्रसंग। २३९९ दकतीर पर होने वाली दस प्रवृत्तियां। उनसे निष्पन्न प्रायश्चित्त। २४००-२४१२ निद्रा, निद्रानिद्रा आदि का स्वरूप। दकतीर के दो प्रकार। वहां रहकर दस स्थानों की सेवना करने वाला आचार्य, उपाध्याय, भिक्षु, स्थविर क्षुल्लक-इन पांच निर्ग्रन्थों और प्रवर्तिनी, अभिषेका, भिक्षुणी, स्थविरा, क्षुल्लिका-इन पांच निर्ग्रन्थियों के लिए प्रायश्चित्त के विविध आदेश। २४१३-२४१५ यूपक का स्वरूप और उससे लगने वाला प्रायश्चित्त। २४१६-२४१९ पानी के किनारे आतापना लेने से लगने वाले दोष। २४२०-२४२५ दकतीर, यूपक पर रहने और दकतीर पर आतापना लेने का अपवाद और यतना। चित्तकम्म-पदं सूत्र २०,२१ २४२६,२४२७ सचित्र उपाश्रय में निग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को रहने का निषेध तथा चौथे महाव्रत के खंडित होने की संभावना। जागरिका और स्वाध्याय आदि के अभाव से होने वाले दोष। २४२८-२४३० निर्दोष तथा सदोष चित्रकर्म का स्वरूप। वहां रहने पर आज्ञाभंग आदि दोष। अपवाद में वहां रहने की आज्ञा। २४३१ आचार्य, उपाध्याय और वृषभ आदि प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका और भिक्षुणी के बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय निर्दोष अथवा सदोष चित्रकर्म उपाश्रय में रहने से प्रायश्चित्त। २४३२ सचित्र उपाश्रय में चित्रों को देखकर मन में संकल्प-विकल्प तथा परस्पर कलह की उदीरणा। २४३३ तीन बार वसति की गवेषणा करने पर अध्वनिर्गत मुनि अथवा साध्वी को चित्रकर्म युक्त उपाश्रय में रहने की विधि और वहां रक्षणीय यतना। सागारिय-निस्सा-पदं सूत्र २२,२३ २४३४ दोषमुक्त आलय में सागारिक निश्रा में रहने की अनुज्ञा। २४३५-२४३८ सागारिक निश्रा के बिना साध्वियों को नहीं कल्पता-इस प्रकार प्रवर्तिनी को नहीं बताने पर आचार्य को प्रायश्चित्त। उसी प्रकार प्रवर्तिनी द्वारा भिक्षुणियों को न बताने पर भिक्षुणियों को आने वाला प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष। २४३९-२४४२ आर्याएं कैसे और किससे परिगृहीत-अपरि गृहीत होती हैं ? विविध उदाहरणों के द्वारा स्पष्टीकरण। २४४३-२४४५ अपवाद की स्थिति में सागारिक अनिश्रित वसति में रहने का विधान। साधु साध्वी की रक्षा कैसे करे? साध्वी के लिए उपयुक्त वसति की व्यवस्था कैसे करे आदि का निर्देश। रक्षा करने • वाले साधु के गुण। सूत्र २४ २४४६ साधु कब निश्रा अथवा कब अनिश्रा में रहे ? अकारण निश्रा में रहने पर तथा कारण में अनिश्रा में रहने पर साधु को प्रायश्चित्त। २४४७ । निष्कारण सागारिक की निश्रा में रहने से निर्ग्रन्थ के होने वाले दोष। २४४८ आपवादिक स्थिति में निर्ग्रन्थों को सागारिक निश्रा में रहने का विधान। सागारिय-उवस्सय-पदं सूत्र २५ २४४९ पूर्वसूत्र से अतिप्रसंग दोष न हो इसलिए प्रस्तुत सूत्र का प्रारंभ। २४५० सागारिक पद का निक्षेप। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका गाथा संख्या विषय २४५१-२४५४ सागारिक का द्रव्य निक्षेप। उसके प्रकार, स्वरूप और उससे होने वाले संबंधित प्रायश्चित्त। २४५५-२४६४ द्रव्य सागारिक से युक्त उपाश्रय में निवास करने वाले साधु-साध्वियों को होने वाली मनःस्थिति और उससे निष्पन्न दोष। २४६५ अब्रह्मचर्य का कारण है-रूप, औदारिक और दिव्य। मन-वचन-काय के आधार पर नौ नौ भेद। कुल अठारह प्रकार का अब्रह्म भावसागारिक। २४६६,२४६७ रूप अथवा रूपसहगत अब्रह्म भावसागारिक का स्वरूप। रूप और रूपसहगत का तात्पर्य। रूप के तीन प्रकार-दिव्य, मानुष्य और तैरश्च। पुनः एक-एक के तीन प्रकार। इन सबके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद से तीन प्रकार। २४६८,२४६९ दिव्य प्रतिमाओं के प्रकार। २४७०-२४८५ दिव्य प्रतिमायुक्त उपाश्रय में रहने से निर्ग्रन्थ- निर्ग्रन्थियों के लिए आने वाले प्रायश्चित्त के दो प्रकार। इनका विस्तार से वर्णन और इनसे निष्पन्न विविध प्रायश्चित्त। २४८६-२४९० यदि अप्रतिसेवी को भी प्रायश्चित्त मिले तो फिर अप्रायश्चित्ती कौन होगा? कोई कर्मबंधन से मुक्त नहीं होगा। यदि अपराध में लघुतर दंड और आज्ञाभंग में गुरुतर दंड, यह क्यों? शिष्य की जिज्ञासा। आचार्य द्वारा समाधान। आज्ञा के विषय में मौर्य दृष्टान्त। २४९१-२४९३ बहुश्रुत मुनि की भांति यदि कोई निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी दिव्य प्रतिमायुक्त उपाश्रय में रहे तो वहां नानात्व दोष होने का निर्देश। २४९४-२५०३ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के देव सन्निहित प्रतिमा वाले उपाश्रय में रहने से तीन कारणों-प्रलुब्ध, प्रत्यनीकता तथा भोगार्थी से लगने वाले दोष और उनसे निष्पन्न प्रायश्चित्त। २५०४,२५०५ देव सन्निहित प्रतिमाओं के प्रकार। २५०६-२५०८ सन्निहित देवियों के चार प्रकार तथा उनसे संबंधित चार दृष्टान्त। २५०९-२५१५ शिष्य की जिज्ञासा-प्राजापत्य परिगृहीत, कौटुंबिक परिगृहित और दंडिकपरिगृहीत प्रतिमाओं में कौन सी गुरुतर ? गुरु के द्वारा समाधान। २५१६-२५२६ मनुष्यणी के तीन प्रकार जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। प्रत्येक के तीन भेद-प्राजापत्य गाथा संख्या विषय परिगृहीत, कौटुम्बिक परिगृहीत और दंडिक परिगृहीत। उन-उन स्थान में रहने से निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थियों को लगने वाले स्थान निष्पन्न तथा प्रतिसेवना विषयक दोष और प्रायश्चित्त। २५२७-२५३३ मानुषी के चार विकल्प। उनके उदाहरण तथा उनसे संबंधित प्रायश्चित्त और दोष। २५३४-२५४३ प्राजापत्य, कौटुम्बिक और दंडिक आधिपत्य वाली तिर्यंच स्त्रियों के जघन्य, मध्यम आदि प्रकार। उन स्थानों में रहने से निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को आने वाले स्थान और प्रतिसेवना संबंधी दोष और प्रायश्चित्त। २५४४-२५४६ सुखविज्ञप्य-सुखमोच्य आदि तिर्यंच स्त्री के चार प्रकार तथा उनके उदाहरण। मनुष्य के साथ मैथुनसेवन का सिंहनी का दृष्टान्त। २५४७ निर्ग्रन्थियों के लिए भी द्रव्य, भाव सागारिक की नियमा। पुरुष प्रतिमा वाले यावत् पुरुष तिर्यंच स्थान में श्रमणियों को रहने का निषेध। वहां रहने से दोष तथा अनुराग के दृष्टान्त। २५४८-२५५० सागारिक उपाश्रय में रहने के अपवाद और उससे संबंधित यतनाएं। सूत्र २६-२९ २५५१ निर्ग्रन्थ-निर्गन्थी विषयक विभागशः सूत्र-कथन। २५५२-२५५५ (२५वें) सूत्र में कही बात यदि (२६-२९) सूत्रों में कही गई है तो फिर इन सूत्रों की रचना निरर्थक है? क्योंकि इन सूत्रों में भी वही प्रसंग है, शिष्य की जिज्ञासा। आचार्य का समाधान। २५५६-२५७७ सविकार पुरुष से संबंधित अथवा निर्विकार पुरुष से संबंधित उपाश्रय में रहने से लगने वाले दोष। कारणवश सागारिक से संबंधित उपाश्रय में रहना पड़े उससे संबंधित यतनाएं और अपवाद। २५७८-२५८२ श्रमणी संबंधी सागारिक सूत्र की व्याख्या निर्ग्रन्थसूत्रों की व्याख्या के सदृश। पडिबद्धसेज्जा-पदं सूत्र ३० २५८३ जिस उपाश्रय के नजदीक में गृहस्थ रहता हो उस प्रतिबद्धशय्या में निर्ग्रन्थों को रहने का निषेध । २५८४-२५८६ प्रतिबद्ध पद का निक्षेप। भाव प्रतिबद्ध के चार प्रकार। द्रव्य और भाव प्रतिबद्ध पद की चतुर्भंगी और उनसे संबंधित विधि-निषेध। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० गाथा संख्या विषय २५८७ साधुओं के परस्पर विकथा करना द्रव्य क्रिया का फलित, भावक्रिया का नहीं। २५८८ - २५९१ निर्ग्रन्थों के द्रव्यतः प्रतिबद्ध भावतः अप्रतिबद्ध रूप पहले भंग वाले उपाश्रय में रहने से लगने वाले अधिकरणादिदोष । उनका स्वरूप और उनमें होने वाली यतनाएं। भावतः प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने पर प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष भाव प्रतिबद्ध उपाश्रय के चार प्रकार। प्रस्रवण, स्थान, रूप और शब्द प्रतिबद्ध की षोडशभंगी । २५९४-२६१३ निर्ग्रन्थों को द्रव्यतः अप्रतिबद्ध भावतः प्रस्रवण स्थान- रूप शब्द प्रतिबद्ध रूप दूसरे भंग वाले उपाश्रय में रहने के दोष । उनका स्वरूप और उनसे संबंधित अनेक यतनाएं। २६१४,२६१५ निग्रन्थों को द्रव्य भाव प्रतिबद्ध रूप तीसरे भांगे वाले उपाश्रय में रहने से लगने वाले दोष आदि तथा द्रव्य भाव अप्रतिबद्ध भांगे वाले उपाश्रय की निर्दोषता का कथन । सूत्र ३१ २६१६ निर्ग्रथीविषयक प्रतिबद्ध शय्या सूत्र की व्याख्या । २६१७-२६२० द्रव्य प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने वाली निर्यन्थियों को लगने वाले दोष, यतना आदि । २६२१-२६२८ भाव प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने वाली श्रमणियों को लगने वाले दोष, यतना आदि तथा 'पूपलिकाखादक' का उदाहरण । गाहावइकुलमज्झवास-पदं २५९२ २५९३ सूत्र ३२ गृहपतिकुलमध्यवास- निन्यों को गृहपतिकुल के बीचोंबीच रहने का निषेध । २६३०-२६३२ मध्य के दो प्रकार । उनकी व्याख्या तथा दोनों के निर्वाही और अनिर्वाही भेद से दो-दो प्रकार और उनकी व्याख्या । उपरोक्त चारों प्रकारों के तीनतीन भेद इन तीनों में निर्ग्रन्थों को रहने का निषेध | वहां रहने पर प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष । २६३३-२६४४ निर्ग्रन्थों को शाला में रहने के कारण होने वाली क्रियाएं और लगने वाले दोष २६४५-२६५२ निर्ग्रन्थों को शाला के मध्य अपवरक, वलभी अथवा अन्यत्र गृहमध्य में रहने से होने वाली २६२९ गाथा संख्या विषय क्रियाएं और लगने वाले दोष । इनके अतिरिक्त अतिगमन, अनाभोग, अवभाषण, मज्जन और हिरण्य-इन पांच द्वारों से निरूपण । २६५३ - २६५८ निर्ग्रन्थों को छिंडिका में रहने से लगने वाले दोष । २६५९-२६६७ शाला, मध्य और छिंडिका बार संबंधी यतनाएं। सूत्र ३३ २६६८- २६७५ श्रमणियों को गृहपतिकुल के बीचोंबीच रहने का निषेध । तथा उनके शाला आदि में रहने वाले दोषों का वर्णन तथा प्रस्तुत सूत्र की सार्थकता । विओसवण-पदं २६७६ २६७७ बृहत्कल्पभाष्यम् सूत्र में 'च' शब्द से और 'भिक्षु' से किसका ग्रहण ? २६७८, २६७९ क्षामित, व्यवशमित, विनाशित और क्षापितएकार्थिक तथा प्राभृत, प्रहेनक और प्रणयन ये नरक के एकार्थवाची इच्छा और आढा शब्द का अर्थ | २६८०,२६८१ अधिकरण के चार प्रकार | द्रव्यविषयक अधिकरण के चार प्रकार उनका स्वरूप | २६८२-२६८४ भावाधिकरण का स्वरूप उससे जीव किस प्रकार पृथक् पृथक् गति में जाता है, उसकी व्याख्या । २६८५-२६८८ व्यवहार नय से द्रव्य के चार प्रकार तथा निश्चय नय से उसके प्रकार। दोनों नय की अपेक्षा से द्रव्य का गुरुत्व, लघुत्व और अगुरुलघुत्व का स्वरूप | २६८९-२६९१ जीव कर्मों को बांधने में स्वतंत्र और कर्मों के उदय में परतंत्र, यह कैसे ? आचार्य द्वारा समाधान | जीव कर्मों को खपाते हैं वे कर्म उदीर्ण होते हैं या अनुदीर्ण ? उनका स्वरूप | २६९३ - २६९७ भावाधिकरण की उत्पत्ति के पांच हेतु । उनका निरूपण । २६९२ सूत्र ३४ गृहपति के मध्य में साधुओं का रहना अकल्प्य और साध्वियों का कल्प्य यह कैसे ? अथवा कलह क्यों ? समाधान | २६९८, २६९९ साधु के द्वारा साधु को कुपित करने पर तथा उपहास करने पर, कलहकारक को उत्तेजित और कलह कराने में सहायक होने पर और उनकी उपेक्षा करने पर प्रायश्चित्त । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका= २७१५ गाथा संख्या विषय २७०० भिक्षु, वृषभ उपाध्याय और आचार्य के कलह करने पर प्रत्येक को प्रायश्चित्त का विधान। २७०१-२७०५ उपेक्षा, उपहास, उत्तेजना, सहायक पदों की व्याख्या। २७०६,२७०७ अधिकरण-कलह की उपेक्षा करने पर होने वाला अनर्थ। उसका निदर्शन। २७०८-२७११ अधिकरण के दोष। उनकी विवेचना। कलह के होने पर अथवा समाप्ति पर होने वाले दोष। २७१२ निश्चयनय के अनुसार चारित्र का स्वरूप। संसारभ्रमण को बढ़ाने वाला कौन? २७१३,२७१४ कर्कश अधिकरण-कलह होने पर पार्श्वस्थित मुनियों द्वारा कलह को उपशांत करने की विधि और उपदेश। देशोनपूर्वकोटी वर्षों में अर्जित चरित्र को एक मुहूर्त में नष्ट करने वाला कौन ? २७१६,२७१७ दो मुनियों के परस्पर कलह करने पर आचार्य द्वारा पक्षपात करने पर प्रायश्चित्त। पक्षपात की स्थिति में दूसरे शिष्य का चिंतन और कथन का प्रकार। २७१८-२७३० उपशांत मुनि के द्वारा अनुपशान्त मुनि के विषय में आचार्य को निवेदन। आचार्य द्वारा अनुपशान्त को प्रज्ञापित करने के लिए पर के निक्षेप का प्रयोग। 'पर' शब्द के भेद-प्रभेद तथा निक्षेप। उनकी विवेचना। २७३१ अधिकरण कलह करने से संबंधित अपवादपद। चार-पदं सूत्र ३५ २७३२,२७३३ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को चातुर्मास काल में एक गांव से दूसरे गांव में जाने के कल्प का निषेध । २७३४ वर्षावास के दो प्रकार-प्रावृड़ और वर्षारात्र। साधु-साध्वियों को उनमें विहरण करने पर प्रायश्चित्त और वर्षारात्र के पूर्ण होने पर विहार न करने पर प्रायश्चित्त। २७३५-२७३७ साधु-साध्वियों को वर्षावास में विहार करने पर लगने वाले आज्ञा-विराधनादि दोष तथा अभिघात आदि होने वाली अनेक आपदाएं। २७३८-२७४७ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को वर्षावास में विहरण संबंधी आपवादिक कारण और उनसे संबंधित यतनाएं। आपवादिक कारणों का स्वरूप। गाथा संख्या विषय सूत्र ३६ २७४८ ऋतुबद्ध काल में विहार संबंधी सूत्र। २७४९,२७५० निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को हेमंत तथा ग्रीष्मऋतु में विहार नहीं करने से होने वाले दोष और विहार के लाभ। . २७५१-२७५८ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को हेमंत तथा ग्रीष्मऋतु में विहार मार्ग में आने वाले मासकल्प के योग्य ग्राम, नगरादि को छोड़कर अन्यत्र विहरण करने का निषेध। उनसे लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त। उससे संबंधित आपवादिक कारण। वेरज्ज-विरुद्धरज्ज-पदं सूत्र ३७ २७५९ निर्ग्रन्थ-निन्थियों को विरुद्धराज्य में विहरण करने का निषेध। २७६०,२७६१ वैराज्य, विरुद्धराज्य आदि की व्याख्या तथा वहां गमनागमन करने का निषेध। २७६२ वैर शब्द के छह निक्षेप। भाववैर संबंधी महिष, वृषभ आदि के दृष्टान्त। २७६३,२७६४ अराजक, यौवराज्य, वैराज्य और द्वैराज्य-इन चारों की व्याख्या तथा उनका स्वरूप। २७६५ विरुद्धराज्य की व्याख्या तथा वहां जाने से होने वाले दोष। २७६६-२७८३ विरुद्धराज्य में गमनागमन कितने प्रकार से हो सकता है। उसके ६४ भांगे। वहां जाने से आज्ञाभंग आदि दोष। २७८४-२७९१ वैराज्य में गमनागमन के आपवादिक कारण और उनसे संबंधित यतनाएं। ओग्गह-पदं सूत्र ३८ २७९२,२७९३ विरुद्धराज्य में भिक्षार्थ गया हुआ मुनि वस्त्र आदि ग्रहण करने पर आचार्य की अनुज्ञा से उपभोग करने की विधि। २७९४-२७९६ वस्त्र के दो प्रकार। निमंत्रणावस्त्र का स्वरूप। उससे संबंधित पृच्छादि सामाचारी। उसके विरुद्ध आचरण से आने वाला प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष। २७९७-२८०२ पृच्छादि सामाचारी के विरुद्ध निमंत्रणा-वस्त्र ग्रहण करने पर लगने वाले दोष, शंका और विराधना आदि से प्राप्त होने वाला प्रायश्चित्त। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૨ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय २८०३-२८०७ बिना पूछे वस्त्रग्रहण पर स्त्री द्वारा निमित्त आदि की पृच्छा। ना कहने पर पुनः वस्त्रों की याचना। छिन्न वस्त्र न लेने पर राजकुल में व्यवहार। वृक्ष के दृष्टान्त से समझाना। २८०८,२८०९ निमंत्रणावस्त्र की शुद्धता का स्वरूप। २८१०-२८१३ निमंत्रणावस्त्र के ग्रहण के अवग्रह की मर्यादा। सूत्र ३९ २८१४ स्थंडिलभूमि में निर्गत निर्ग्रन्थ को कोई वस्त्रादिक की विज्ञप्ति करे तो उन वस्त्र आदि को जांच कर आचार्य के पास उपस्थित करे। उनकी आज्ञा लेने के पश्चात् रखने या पुनः लौटाने की विधि। सूत्र ४०,४१ २८१५-२८१९ साध्वी यदि स्वयं के लिए वस्त्र आदि ग्रहण करे तो उससे आने वाला प्रायश्चित्त और लगने वाले दोष तथा पट्टक का दृष्टान्त। ૨૮૨૦ निर्ग्रन्थी के लिए गणधर द्वारा वस्त्र की परीक्षा और पश्चात् उनको वस्त्र देने की विधि। २८२१ संयतिओं को स्वयं के लिए वस्त्र लेने की अनुज्ञा होने पर प्रस्तुत सूत्र की सार्थकता कैसे ? शंका का समाधान। २८२२-२८२९ निन्थियों के लिए वर्जनीय-अवर्जनीय स्थान। वस्त्रों के उपयोग की विधि। २८३०-२८३५ वस्त्र से होने वाला लाभ-अलाभ के परिज्ञान का उपाय और शुभाशुभ फल का निर्देश। राइभोयण-पदं सूत्र ४२ २८३६ रात्रीभक्तव्रत का भग्न होने पर सभी महाव्रतों की विराधना का प्रतिपादन। २८३७ रात्री में भोजन ग्रहण करने का वर्जन। २८३८ रात्री तथा विकाल पद की व्याख्या। तद्विषयक दूसरे आचार्यों का मत। २८३९,२८४० बयालीस दोषों में रात्री भोजन का प्रतिषेध नहीं फिर छठे व्रत में उसका प्रतिषेध क्यों ? शंका का समाधान। २८४१-२८४८ रात्री में भोजन ग्रहण करने से भगवान् की सर्वज्ञता के प्रति शंका। मिथ्यात्व, संयमविराधना गाथा संख्या विषय आदि दोष तथा प्राणवध, महाव्रतादि विषयक शंकादि दोष। २८४९-२८७१ रात्रि भोजन विषयक चतुभंगी। उसका विस्तृत स्वरूप। उससे संबंधित सामान्य तथा नौ संस्थित प्रायश्चित्त। ૨૮૭ર रात्रिभोजन ग्रहण संबंधित आपवादिक कारण। २८७३,२८७४ ग्लानाश्रित रात्रीभक्तग्रहण विषयक चतुभंगी और उसके आपवादिक कारण। २८७५ क्षुधित, पिपासित और असहिष्णु के लिए रात्रीभक्तग्रहण विषयक अपवाद । २८७६ चन्द्रवेध सदृश अनशन करने वाले मुनि के लिए रात्रीभक्तग्रहण विषयक अपवाद। २८७७,२८७८ अध्वाद्वार से संबंधित ऊर्ध्वदर और सुभिक्ष आश्रित चतुभंगी। प्रथम और तीसरे भंग में अध्वगमन से प्रायश्चित्त विधान। २८७९-२८८१ प्रथम तृतीय भंग में ज्ञान-दर्शन-चारित्र निमित्त देशान्तरगमन की अनुज्ञा। २८८२,२८८३ विहार मार्ग में साथ में ले जाने वाले उपकरण। २८८४-२८८७ चर्म उपकरणों के नाम। उनका स्वरूप और उनका उपयोग। २८८८,२८८९ लोह-उपकरण के नाम तथा शस्त्रकोश का स्वरूप। उनके उपयोग। २८९० नंदी भाजन और धर्मकरक का स्वरूप और उपयोग। २८९१,२८९२ परतीर्थिक-उपकरणों (गुलिका-खोल) का स्वरूप और उपयोग। २८९३ अध्व निर्गत मुनि के विहारोपयोगी उपकरणों को साथ न ले जाने पर प्रायश्चित्त और दोष। २८९४,२८९५ प्रस्थान करते समय शकुनावलोकन। सिंहपर्षद्, वृषभपर्षद् और मृगपर्षद् का स्वरूप। २८९७-२९०० सार्थ के साथ प्रस्थित मुनियों को अटवी के मध्य सार्थवाह के द्वारा छोड़ देने पर उनको समझाने की विधि तथा भिक्षा आदि न मिलने पर उसको प्राप्त करने की विधि। २९०१-२९०५ विहार मार्ग में सिंहादिपर्षदों का आगे-पीछे चलने का क्रम। २९०६ मार्ग निर्गत मुनि की भक्तपान की प्राप्ति न होने पर उसको एषणाविषयक विधि। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =६३ विषयानुक्रमणिका= गाथा संख्या विषय २९०७,२९०८ मार्ग में सूर्योदय से पूर्व या सूर्यास्त के पश्चात् गीतार्थ संविग्न की अन्य सार्थ में भिक्षा लेने की विधि। २९०९,२९१० चोरपल्ली में भक्तपान ग्रहण करने की विधि और अविधिपूर्वक भिक्षा ग्रहण से प्रायश्चित्त। २९११-२९१७ उजड़े या खाली गांव में भिक्षा लेने की विधि। अविधि से भिक्षा ग्रहण में प्रायश्चित्त। उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य द्रव्यों का स्वरूप। २९१८,२९१९ नीचे गिरे हुए प्रलंब तथा वृक्ष के ऊपर प्रलंब विषयक चर्चा व कल्पनीय का विवेक। २९२० नन्दि पद की व्याख्या। २९२१-२९२३ आहार-पान संबंधी यतनाएं। २९२४-२९२६ रात्री में अप्रत्युपेक्षित भूमी में उच्चार-प्रस्रवण का व्युत्सर्ग करने और शय्या-संस्तारक आदि ग्रहण करने से प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष। २९२७-२९३४ रात्रि में वसति आदि ग्रहण संबंधी अपवाद। २९३५-२९४२ रात्री में गीतार्थ निर्ग्रन्थों के लिए वसति ग्रहण की विधि। २९४३-२९५७ गीतार्थ के साथ अगीतार्थ निर्ग्रन्थों के होने पर रात्री में वसतिग्रहण की विधि। अंधकारमय वसति में प्रतिलेखन हेतु प्रकाश मंगवाने संबंधी यतनाएं। २९५८-२९६८ ग्राम के बाहर वसति ग्रहण संबंधी यतनाएं। आचार्य, गच्छ, कुल, गण, संघ आदि की रक्षा के लिए कृत दोषों की शुद्धीकरण का उपाय। सूत्र ४३ २९६९ रात्री में वस्त्रग्रहण करना अकल्पनीय। २९७०-२९७३ रात्री में वस्त्रग्रहण संबंधी प्रायश्चित्त तथा अपवाद। २९७४,२९७५ चोरों के चार प्रकार। २९७६-२९७८ चोरों द्वारा गृहस्थों के वस्त्र लूटे जाने पर उनको वस्त्रादि देने की विधि। २९७९-२९८१ चोरों द्वारा निर्ग्रन्थ तथा निर्ग्रन्थी में से किसी एक के वस्त्र लूटे जाने पर उनकी एक दूसरों को वस्त्र लेने-देने की विधि। २९८२-३००० श्रमण-गृहस्थ, श्रमण-श्रमणी, समनोज्ञ और अमनोज्ञ-इन युगलों में किसी के भी वस्त्र लूटे जाने पर उनके आपस में एक दूसरे को वस्त्र देनेलेने की विधि। गाथा संख्या विषय ३००१ हताहृतिक वस्त्रों को रात्री में ग्रहण करना कल्पनीय। ३००२-३००४ अध्वगमन के कारण। ३००५-३००७ मार्ग में आचार्यसंरक्षण की विधि और उसके कारण। ३००८ चोरों के चार प्रकार। ३००९-३०१३ चोरों द्वारा श्रमण श्रमणियों के वस्त्र चुराए जाने पर भद्रिक सेनाधिपति द्वारा वस्त्रों को पुनः भेजना अथवा साथी चोरों को वस्त्र देने के लिए भेजना। वे भय के कारण उपाश्रय के बाहर, या प्रस्रवण भूमि में वस्त्रों को फेंक कर चले जाते हैं। उन फेंके गए वस्त्रों को लेने की विधि। ३०१४-३०२२ यदि चोराधिपति अथवा पापी चोर आचार्य को मारने की इच्छा करे तो आचार्य को गुप्त रखने की विधि। ३०२३-३०३७ चौरों द्वारा चुराए गए उपधि आदि की चोर-पल्ली में गवेषणा करने की विधि । उपधि को इधर-उधर फेंके जाने पर उनको ग्रहण करने या ग्रहण न करने से दोषों के अल्पबहुत्व की जानकारी। अद्धाण-पदं सूत्र ४४ ३०३८,३०३९ हृताहृतिक आदि प्रयोजन से रात्रीगमन का निषेध। ३०४० अर्थापत्ति के आधार पर मुनि को दिन में विहरण करने की अनुज्ञा। ३०४१,३०४२ अध्वा के दो प्रकार। रात्रिविषयक मान्यता से संबंधित दो परम्पराएं। ३०४३-३०५० रात्री में विहार करने पर मिथ्यात्व, उड्डाह तथा संयम और आत्मविराधना आदि दोष और उनसे संबंधित अपवाद। ३०५१,३०५२ पथ के दो प्रकार-छिन्नाध्वान्तर, अछिन्नाध्वान्तर। उनका अर्थ। ३०५३-३०६० रात्री में पंथरूप अध्वगमन से लगने वाले दोषों का स्वरूप तथा मार्गोपयोगी उपकरण न रखने से लगने वाले दोष। ३०६१-३०६५ अपवाद में अध्वगमन संबंधी कारण और अध्वोपयोगी उपकरणों को न लेने पर योग्य सार्थ की प्रत्युपेक्षा की विधि। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय गाथा संख्या विषय ३०६६-३३६८ सार्थ के पांच प्रकार। कौनसे सार्थ में निर्ग्रन्थ- ३१७७-३१८२ संखड़ी में जाने से कब दोष होते है और कब निर्ग्रन्थियों को जाने से लाभ तथा उनके साथ नहीं। आचार्य द्वारा समाधान। जाने की विधि। ३१८३-३१८९ अनाचीर्ण संखड़ियों के विविध प्रकार। उनका ३०६९-३०७९ सार्थ की अर्हता तथा उसके गुणों की जानकारी स्वरूप और उनसे प्रायश्चित्त। करने की विधि। ३१९०-३२०६ संखड़ी में जाने योग्य आपवादिक कारण तथा ३०८० आठ प्रकार का सार्थवाह तथा आठ प्रकार के उनसे संबंधित यतनाओं के प्रकार। आदियात्रिक-सार्थ संरक्षक। एगागिगमण-पदं ३०८१-३०८५ अध्वगमन में सार्थ संबंधी ५१२० भांगे। सूत्र ४५ ३०८६-३०९१ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों की सार्थवाह से अनुज्ञा लेने ३२०७ विचारभूमी में एकाकी निर्ग्रन्थ का जाना वर्जित। की विधि तथा भिक्षा, भक्तार्थना, वसति, स्थंडिल ३२०८-३२१७ विचारभूमी के दो प्रकार। रात्री में अकेले निर्ग्रन्थ आदि विषयक यतनाओं का स्वरूप। को वहां जाने से लगने वाले दोष तथा उनसे ३०९२-३०९८ अध्वगमन उपयोगी अध्वकल्प का स्वरूप तथा संबंधित अपवाद और यतनाएं। लेने न लेने का विवेक । तविषयक प्रायश्चित्त। ३२१८-३२२१ रात्री में विहारभूमी-स्वाध्यायभूमि में जाने की ३०९९-३१०३ अध्वकल्प का उपयोग निर्दोष अथवा विधि और यतनाएं। आधाकर्मिक भोजन लेना निर्दोष ? सूत्र ४६ ३१०४-३१३८ अध्वगमन से संबंधित अशिव, दुर्भिक्ष राजद्विष्ट ३२२२-३२२४ अकेली निग्रन्थी को विचारभूमी में जाने आदि व्याघात और उनसे लगने वाली यतनाओं पर प्रायश्चित्त तथा स्त्री स्वभाव का वर्णन। का विस्तृत वर्णन। ३२२५-३२३४ निर्ग्रन्थी के योग्य उपाश्रय और उससे संबंधित ३१३९ साधु-साध्वियों को संखड़ी में जाना दिन में भी यतनाएं और अपवाद। नहीं कल्पता फिर रात्री में कैसे? ३२३५-३२३९ श्रमणीयोग्य विहारभूमी विषयक यतनाएं और ३१४०,३१४१ संखड़ी का तात्पर्य। उसमें जाने से निर्ग्रन्थ अपवाद। निर्ग्रन्थियों को प्रायश्चित्त। आरियखेत्त-पदं ३१४२-३१४८ दिवस और पुरुषों की अपेक्षा से संखड़ी के प्रकार सूत्र ४७ तथा उनसे संबंधित प्रायश्चित्त। ३२४०-३२४३ समनुज्ञात क्षेत्र को छोड़कर शेष क्षेत्रों में ३१४९,३१५० संखड़ी जहां होती थी उन पुरातन स्थानों के विहार करने की वर्जना। द्रव्य, क्षेत्र, काल और नाम। भाव विषयक प्रतिषेधात्मक सूत्रों का नामांकन ३१५१-३१५४ माया, कपट, लोलुपता आदि कारणों से संखड़ी पूर्वक उल्लेख। में जाने से प्रायश्चित्त। ३२४४-३२५८ आर्यक्षेत्र विषयक प्रथम उद्देशक के अंतिम सूत्र ३१५५-३१५७ संखड़ी वाले गांव आदि में जाते समय मार्गगत अथवा संपूर्ण कल्पाध्ययन को नहीं जानने वाला लगने वाले दोषों का स्वरूप। अथवा जानने पर उसे आचार में नहीं लेने वाला ३१५८-३१६२ संखड़ी वाले गांव में पहुंचने के पश्चात् वसति, आचार्य की अयोग्यता का निदर्शन। सर्पशीर्ष परतीर्थिक तर्जना आदि निमित्तों से लगने वाले और वैद्यपुत्र का दृष्टान्त। दोष। ३२५९,३२६० कल्पाध्ययन का अजानकार आचार्य की ३१६३-३१६७ संखड़ी वाले गांव में पहुंचने पर आवश्यक, अयोग्यता को प्रकट करने वाला वैद्यपुत्र का स्वाध्याय, प्रत्युपेक्षण, भोजन, भाषा, विचार दृष्टान्त। और ग्लानत्व विषयक दोषों का वर्णन। ३२६१,३२६२ भगवान् महावीर ने कब और कहां आर्यक्षेत्र से ३१६८-३१७६ संखड़ी वाले ग्राम में न जाकर यदि श्रमण बाहर संबंधित इस सूत्र की प्ररूपणा की-उसका रहता है तो उससे लगने वाले दोष। उनसे उल्लेख। आर्यक्षेत्र की सीमा। विहार भूमी का संबंधित शिष्य-आचार्य की प्रश्नोत्तरी। कल्प। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका= गाथा संख्या विषय ३२६३-३२६५ आर्य पद के निक्षप के १२ प्रकार और उनका स्वरूप। आर्य जनपद और उनकी राजधानियों का नामांकन। ३२६६-३२६९ आर्यक्षेत्र में श्रमण-श्रमणियों के विहार का कारण। ३२७०-३२७४ भगवान् महावीर के काल की अपेक्षा से आर्यक्षेत्र का निरूपण। आर्य क्षेत्र के बाहर विहरण करने में लगने वाले दोष और स्कन्दक का उदाहरण। ३२७५-३२८९ ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि की वृद्धि और रक्षा हेतु आर्यक्षेत्र के बाहर विहरण की आज्ञा और उससे संबंधित संप्रतिराजा का दृष्टान्त। ३२९०-३२९२ निग्रंथ-निग्रंथी कैसे उपाश्रय में रहे? उसकी निरवद्यता का प्रतिपादन। दूसरा उद्देशक उवस्सए बीज-पदं ३२९३ उपाश्रय शब्द के चार निक्षेप। ३२९४ द्रव्य और भाव उपाश्रय का स्वरूप। ३२९५ उपाश्रय के एकार्थिक। ३२९६ वगडा के प्रकार तथा भाव वगडा का स्वरूप। ३२९७-३३०१ रहने योग्य और रहने अयोग्य उपाश्रय की जानकारी। ३३०२,३३०३ उत्क्षिप्त, विक्षिप्त, व्यतिकीर्ण, विप्रकीर्ण और यथालंद पदों की व्याख्या। ३३०४-३३०९ बीजाकीर्ण उपाश्रय में रहने से आने वाला प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष, संयम और आत्मविराधना। सूत्र २ ३३१०-३३१२ राशीकृत, पुंजीकृत, कुलिकाकृत, पिहित, मुद्रित बीज वाले उपाश्रय में अगीतार्थ के रहने से आने वाला प्रायश्चित्त तथा उन पदों की व्याख्या। अपवाद में वहां रहने की यतना। ३३१३-३३२५ सूत्र में अगीतार्थ अथवा गीतार्थ का निर्देश न होने पर एक को अनुज्ञा तथा दूसरे को प्रतिषेध ? यह कैसे? शिष्य की जिज्ञासा। आचार्य का नाना सूत्रों के स्वरूप द्वारा समाधान। ३३२६,३३२७ उत्सर्गसूत्र और अपवादसूत्र का विषय और उनका स्वस्थान। गाथा संख्या विषय ३३२८-३३३१ शिष्य और आचार्य के संवाद के द्वारा उत्सर्ग और अपवाद सूत्र के रहस्य का प्रतिपादन। ३२३२ बीजाकीर्ण उपाश्रय में रक्षणीय तीन प्रकार की यतनाएं। ३३३३-३३६० अगीतार्थ के लिए तीनों प्रकार की अयतना का स्वरूप। ३३६१,३३६२ गीतार्थ मुनि निष्कारण धान्यशाला में रहे तो प्रायश्चित्त। ३३६३,३३६४ वसति मार्गणा के बाद भी अप्राप्त हो तो गीतार्थ को धान्यशाला में रहने की आज्ञा। ३३६५-३३६७ अनुज्ञापना की यतना विषयक विवेक। ३३६८-३३७१ धान्यशाला में रहने की विधि। ३३७२-३३७५ स्वपक्ष यतना में आचार्य (गीतार्थ) द्वारा रक्षणीय विवेक। ३३७६,३३७७ परपक्ष यतना का स्वरूप। द्वारबंद करने की विधि। ३३७८-३३८७ धान्य चुराने वालों को साधुओं द्वारा प्रतिबोधित करने की विधि। ३३८८-३३९२ चोर को जानते हुए भी उसका स्वरूप न बताएं। चोर के सामने मौन रहने का कारण। सूत्र ३ ३३९३-३३९५ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी के लिए कौन सा उपाश्रय अकल्पनीय ? कोष्ठागुप्त, पल्यागुप्त, मालागुप्त आदि पदों की व्याख्या। ३३९६-३४०१ वर्षावास के लिए किस प्रकार के उपाश्रय में रहने से अगीतार्थ मुनि के लिए प्रायश्चित्त का विधान और अयतना का स्वरूप। उवस्सए वियड-पदं सूत्र ४ ३४०२,३४०३ मद्य आदि से प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने का निषेध। ३४०४,३४०५ 'हुरत्था' शब्द का अर्थ और 'परिहार पद' को छेद पद के बाद रखने का कारण। ३४०६ सुरा और सौवीर में अन्तर। ३४०७-३४१२ सुरा युक्त उपाश्रय में वास करने से अगीतार्थ को प्रायश्चित्त और वहां होने वाली अयतना का स्वरूप। ३४१३-३४१८ सुरायुक्त उपाश्रय में रहने वाले गीतार्थ मुनि के आश्रित स्वपक्ष-परपक्ष संबंधी यतना का स्वरूप। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय उवस्सए उदग-पदं ३४१९ मदिरा के साथ पानी का संबंध । ३४२० शीतोदक-उष्णोदक, प्राशुक-अप्राशुक की चतुर्भंगी तथा उनसे युक्त उपाश्रय में रहने से प्रायश्चित्त। ३४२१-३४२९ शीतोदक से युक्त उपाश्रय में रहने से अगीतार्थ के लिए अयतना का स्वरूप। उवस्सए जोइ-पदं सूत्र ६ ३४३० अग्नि पानी दोनों परस्पर प्रतिपक्षी कैसे? ३४३१,३४३२ 'हुरत्था' शब्द का अर्थ आदि। ३४३३-३४५८ ज्योति का स्वरूप। वहां रहने से लगने वाले दोष। प्रतिलेखन, प्रमार्जन आदि पदों के द्वारा निरूपण। तत्संबंधी प्रायश्चित्त और यतनाएं। उवस्सए पईव-पदं सूत्र ७ ३४५९,३४६० 'हुरत्था' शब्द का अर्थ आदि। ३४६१-३४७३ दीपक के दो प्रकार। उनसे युक्त उपाश्रय में रहने से लगने वाले दोष। प्रतिलेखना, प्रमार्जना आदि द्वारों द्वारा उनकी स्खलना। तद्विषयक प्रायाश्चित्त एवं वहां रक्षणीय यतनाएं। उवस्सए असणाइ-पदं सूत्र ८ ३४७४-३४७७ प्रस्तुत सूत्र में गृहीत पिण्ड, लोचक, फाणित, शष्कुली, शिखरिणी आदि पदों की व्याख्या। ३४७८,३४७९ पिण्ड आदि से आकीर्ण उपाश्रय में रहने वाले निग्रंथ-निग्रंथियों के लिए प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष। सूत्र ९ ३४८० कुतूहल वश भोज्य पिंड खाने की संभावना। सूत्र १० ३४८१ आचार्य द्वारा पूर्वदृष्ट पिंड सन्निचय का कथन। ३४८२,३४८३ अवलिप्त, पिहित या मुद्रित पिंड वाले उपाश्रय में वर्षावास में रहना कल्पनीय अन्यथा प्रायश्चित्त। आगमणगिहादिसु वास-पदं सूत्र ११ ३४८४,३४८५ श्रमणियों का आगमनगृह, विवृतगृह, वंशीमूल, गाथा संख्या विषय वृक्षमूल अथवा अभ्रावकाश स्थानों में रहना अकल्पनीय और रहने पर प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष। ३४८६-३४९८ आगमनगृह की व्याख्या तथा वहां रहने से लगने वाले विविध दोष और प्रायश्चित्त का विधान। ३४९९-३५०३ विवृतगृह, वंशीमूल तथा वृक्षमूल और अभ्रावकाश स्थान में रहने से लगने वाले दोष। ३५०४-३५०९ अपवाद स्वरूप श्रमणियों को आगमनगृह आदि स्थानों में रहने की विधि। सूत्र १२ ३५१०-३५१७ निग्रंथों के रहने योग्य आगमनगृह आदि का स्वरूप और तत्र रहने की विधि। सागारिय-पदं - सूत्र १३ ३५१८ दोषों से विवर्जित उपाश्रय में अनुज्ञापूर्वक रहने का विधान। ३५१९,३५२० शय्यातर कौन? कब ? उसका पिंड कितने प्रकार का तथा अशय्यातर कब ? किस मुनि से संबंधित शय्यातर परिहर्तव्य और सागारिक पिंड के दोष आदि की प्रश्नावली। ३५२१-३४२४ सागारिक के पांच एकार्थक नाम तथा उनकी व्याख्या। ३५२५ शय्यातर का स्वरूप। ३५२६ सागारिक द्वारा संदिष्ट एक या अनेक के आधार पर चतुर्भगी। ३५२७-३५३१ शय्यातर कब अथवा कब नहीं, इस विषय में अनादेश और शास्त्रसम्मत्त आदेश। ३५३२-३५३५ शय्यातर के कल्प्य-अकल्प्य पिंड आदि का स्वरूप और उसके प्रकार। ३५३६-३५३८ शय्यातर कब नहीं होता? उसका स्वरूप तथा आदेश और अनादेश की विवेचना। ३५३९ शय्यातर कब वर्जनीय होता है ? रसापण दृष्टांत द्वारा उसकी पुष्टि। ३५४०-३५४९ तीर्थंकरों द्वारा शय्यातरपिण्ड का निषेध। उसके लेने पर तीर्थंकर की आज्ञाभंग आदि आठ दोषों का वर्णन। ३५५०-३५५५शय्यातर पिंड के कल्पनीय होने के कारणों का वर्णन। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका= गाथा संख्या विषय ३५५६ अनेक शय्यातर वसति होने पर उनसे शय्यादिक ग्रहण संबंधी चर्चाएं। ३५५७-३५६२ एक वसति के पिता-पुत्र दोनों के स्वामी होने पर, उनसे पिंडादिक ग्रहण करने की यतनाएं और लगने वाले दोषों का स्वरूप। ३५६३-३५६७ शय्यातर के देशान्तर जाने पर उसकी अनेक पत्नियों वाली वसति से पिंडादि ग्रहण संबंधी यतनाएं और दोषों का वर्णन। ३५६८ देशान्तर जाने का इच्छुक कोई व्यक्ति यदि गांव के बाहर रहता है उससे पिंडादिक ग्रहण करने की कल्पनीय-अकल्पनीय विधि। ३५६९-३५७३ देशान्तर के लिए प्रस्थित वणिक् से पिंडादिक ग्रहण संबंधी यतनाएं और उनका संखड़ी, अटवी आदि पदों द्वारा निरूपण। ३५७४-३५७८ महत्तर, अनुमहत्तर ललितासन, कटुक और दंडपति से परिगृहीत गोष्ठियों का वर्णन। उनसे संबंधित वसति, पिंड आदि ग्रहण करने की यतनाएं आदि। ३५७९-३५८१ शय्यातर के गोकुल से दूध आदि ग्रहण करने की कल्पनीय विधि। ३५८२-३५८४ अपवाद पद में अनेक शय्यातर होने पर एक शय्यातर की स्थापना। शेष शय्यातरों का भक्तपान कल्पनीय। सूत्र १४ ३५८५ संसृष्ट पिंड ग्रहण की वर्जना। ३५८६ वानव्यंतर को बलि चढ़ाने के लिए किए हुए भक्त का ग्रहण-अग्रहण दोषकारी। ३५८७ 'संखड़ी' के प्रकार। उसमें शय्यातर का भोजन मिश्रित न हो तो उसका ग्रहण कल्पनीय। ३५८८-३५९१ भद्रक और प्रान्त शय्यातर का चिंतन। ३५९२ प्रान्त शय्यातर के पिंड को ग्रहण न करने का परिणाम। ३५९३-३५९५ अन्य भोजन से संसृष्ट शय्यातर के पिंड को ग्रहण करने के अनेक दोषों का वर्णन। सूत्र १५,१६ ३५९६ शय्यातर के वाटक से बाहर निष्कासित असंसृष्ट पिंड लेने में दोष। ३५९७ सागारिक दृष्ट का परिहार करने के कारण। ३५९८ संसृष्ट पिंड का ग्रहण अनुज्ञात कब और कैसे? गाथा संख्या विषय ३५९९ प्रसंग आदि दोष कब नहीं ? ३६००-३६०२ सागारिक पिंड की कल्पनीयता कब और कैसे? सूत्र १७ ३६०३-३६०५ असंसृष्ट को संसृष्ट करने में प्रायश्चित्त का विधान तथा संयम और आत्मविराधना आदि दोष। ३६०६ संयत भाजन में डाला हुआ द्रव्य का अपहरण होने पर कर्मबंध विषयक मत-मतान्तर। कर्मबंध कब तक? उसका समाधान। ३६०७ संयत द्वारा स्पृष्ट भोजन से होने वाले दोष। ३६०८ संसृष्ट भोजन कराने, अनुमोदना करने से लगने वाले दोष। ३६०९,३६१० लोकोत्तर मर्यादा और लौकिक मर्यादा का अतिक्रमण होने पर अथवा स्वयं करने तथा दूसरों से करवाने पर प्रायश्चित्त। ३६११ एक द्रव्य को दूसरे में प्रक्षिप्त करने पर कलह आदि दोषों की उत्पत्ति। ३६१२ स्वयं संयती संसृष्टपिंड कब कर सकती हैं ? ३६१३ संसृष्ट किससे कराया जाए? उसकी प्रज्ञापना। ३६१४,३६१५ गीतार्थ-अगीतार्थ मुनियों के कौन सा सागारिक पिंड ग्रहणीय ? संसृष्ट कराने का हेतु। सूत्र १८,१९ ३६१६ आहृत सागारिक पिंड का प्रतिपादन। ३६१७-३६२४ आहृतिका का अर्थ तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से उसका स्वरूप तथा अवान्तर भेद। ३६२५ पहले और चौथे भंग के आधार पर कुछ आचार्यों की सागारिक द्वारा अपरिगृहीत आहृतिका के ग्रहण के कल्पनीयता की पुष्टि। ३६२६ कुछेक आचार्यों की प्ररूपणा-जो आहृतक शय्यातर के घर से निष्कासित है, दूसरों के हाथ में है, वह कल्पनीय है। ३६२७-३६३० आचार्य द्वारा सूत्र में विधि, वारणा और विधि से निरूपण तथा पूर्वापर विरुद्ध और पारंपरिक अर्थ से युक्त प्रमाण सूत्र की संगति का निर्देश। ३६३१ अगीतार्थ सागारिक आहृतिका पिंड का ग्रहण क्यों करते है ? ३६३२-३६३४ आहृतिका कब और कैसे कल्पनीय होती है? उसका वर्णन। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा संख्या विषय सूत्र २०,२१ ३६३५-३६३७ निर्हृतिका का अर्थ। उसके चार विकल्प। कौन सा विकल्प शय्यातरपिंड, कौन सा नहीं? उसके ग्रहण के दोष और शय्यातर की विविध सोच। ३६३८ शय्यातर का पिंड सात कारणों से ग्रहणीय। ३६३९ अगीतार्थ मुनियों के लिए आहृतिका या निर्हृतिका लेने का विधान तथा गीतार्थ के लिए सागारिक पिंड। ३६४० अगीतार्थ मुनि द्वारा आहृतिका और निहृतिका का वर्जन करने पर सूत्र साक्ष्य से तथ्य का प्रतिपादन। ३६४१ धर्मसंघ में व्यक्ति प्रमाण का स्वरूप। ३६४२ कृतघ्नता का स्वरूप। चन्द्रमा और कुमुद का उदाहरण। सूत्र २२,२३ ३६४३,३६४४ सागारिक के अंशिका पिंड के कल्प्य-अकल्प्य की विवेचना। ३६४५ अंश और भाग की एकार्थता। अविभक्त अंशिका और अव्यवच्छिन्न अंशिका में अन्तर। ३६४६-३६५१ अनिगूढा अंशिका, सागारिक अंशिका, यंत्र विषयक अंशिका, भोज्य विषयक अंशिका, क्षीर विषयक अंशिका, मालाकार अंशिका का स्वरूप। उनके ग्रहण की कल्प्य-अकल्प्य विधि। ३६५२ अपवाद रूप में सागारिक अंशिका की ग्रहण विधि। सूत्र २४ ३६५३ द्रव्य से विभक्त अथवा अविभक्त की कल्प्याकल्प्य विधि। =बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय ३६५४ सागारिक पिंड के विभाग का स्वरूप। ३६५५ पूज्यभक्त की परिभाषा और उसके एकार्थक नाम। ३६५६,३६५७ चेतित, प्राभृतिका, उपकरण, निष्ठित, निसृष्ट, प्रातिहारिक, अप्रातिहारिक आदि पदों की व्याख्या और उनके एकार्थक नाम। सूत्र २५-२७ ३६५८ निष्ठित उपकरणों का ग्रहण अकल्पनीय। वत्थ-पदं सूत्र २८ ३६५९ उपकरण का अधिकार। ३६६०-३६६३ यतियों को पांच प्रकार के वस्त्र कल्पनीय। जंगिक, सानक, पोतक और तिरीडपट्ट वस्त्रों का स्वरूप। ३६६४-३६७२ उपधि-वस्त्रों के परिभोग की विधि, उनकी संख्या और अपवाद आदि। मर्यादा के अतिक्रम में प्रायश्चित्त का विधान। रयहरण-पदं सूत्र २९ ३६७३ मध्यम उपधि रजोहरण का प्रकरण। ३६७४ रजोहरण की व्याख्या और उसके पांच प्रकार। ३६७५ वच्चकचिप्पक और मुंजचिप्पक का स्वरूप। ३६७६-३६७८ रजोहरण पंचक के ग्रहण का क्रम। परिपाटी के विपरीत ग्रहण करने पर प्रायश्चित्त। और्णिक रजोहरण की प्रशस्यता क्यों ? उसकी अप्राप्ति में उत्क्रम का विधान। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका (गाथा १-८०५) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहे १. काऊण नमोक्कारं, तित्थयराणं तिलोगमहियाणं। कप्पव्ववहाराणं, वक्खाणविहिं पवक्खामि। त्रिलाक पूजित तीन को नम एका आट आय और वहार की मारव्या पायात ना पिणण महंगा चौपड़ा गांव (महाराष्ट्र) का प्रसिद्ध विद्यालय 'विवेकान्द स्कूल'। परम पूज्य आचार्य महाप्रज्ञ का अहिंसा-यात्रा के दौरान वहां पदार्पण। वि. सं. २०६०, माघ शुक्ला चतुर्दशी, (५ फरवरी, २००४) वार बृहस्पति का मंगल दिन। मध्याह्न कालीन वेला। पौने तीन बजे का समय। उस पावन वेला में पूज्यपाद लोकमहर्षि युगप्रधान आचार्य महाप्रज्ञ ने अपने पवित्र कर कमलों से इस विशालकाय ग्रंथ के अनुवाद का शुभारंभ करवाया और मुझे (मुनि दुलहराज को) इस कार्य को आगे बढ़ाने के लिए निर्देश दिया। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = बृहत्कल्पभाष्यम् २. सक्कयपाययवयणाण विभासा जत्थ जुज्जते जं तु। एक जीवद्रव्य अथवा अनेक जीवद्रव्यों में तथा अज्झयणनिरुत्ताणि य, वक्खाणविही य अणुओगो॥ उसके विपक्ष अर्थात् एक अजीवद्रव्य अथवा अनेक संस्कृत और प्राकृत भाषा के वचन (एकवचन, द्विवचन) अजीवद्रव्यों में जो मंगलसंज्ञा नियत होती है वह संज्ञामंगलजो जहां उचित हो, उनकी विभाषा-विवेचन करना तथा नाममंगल है। कल्प और व्यवहार-इन दोनों ग्रंथों के अध्ययननिरुक्त की ७. जा मंगल त्ति ठवणा, विहिता सब्भावतो व असतो वा। व्याख्यानविधि-यह अनुयोग है। तत्थ पुण असब्भावे, मंगलठवणागतो अक्खो। ३. नंदी य मंगलट्ठा, पंचग दुग तिग दुगे य चोइसए। ८. जे चित्तभित्तिविहिया, उ घडादी ते य हुंति सब्भावे। अंगगयमणंगगए, कायव्व परूवणा पगयं ॥ तत्थ पुण आवकहिया, हवंति जे देवलोगेसु॥ अनुयोग के प्रारंभ में मंगल के लिए नंदी का कथन करना जो सद्भूताकार अथवा असद्भताकार में मंगल की चाहिए। नंदी पांच ज्ञानात्मक है। ज्ञान पंचक दो भागों में स्थापना की जाती है, वह स्थापनामंगल है। अक्ष आदि में विभक्त है-प्रत्यक्ष और परोक्ष। प्रत्यक्ष ज्ञान के तीन भेद मंगल की स्थापना असद्भाव स्थापनामंगल है। चित्रभित्ति पर हैं-अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान तथा केवलज्ञान। परोक्ष ज्ञान के चित्रित घट आदि सद्भाव स्थापनामंगल हैं। जो देवलोक में दो भेद हैं...आभिनिबोधिकज्ञान तथा श्रुतज्ञान। श्रुतज्ञान के । चित्रभित्ति पर चित्रित घट आदि स्थापनामंगल होते हैं वे चौदह प्रकार हैं। अथवा श्रुतज्ञान के दो भेद हैं-अंगगत तथा यावत्कथिक (शाश्वत) होते हैं और मनुष्यलोक में होनेवाले वे अनंगगत अर्थात् अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य। उनकी प्ररूपणा इत्वरिक होते हैं। करनी चाहिए। यहां प्रकृत है-मंगलार्थ नंदी। उसका कथन ९. उत्तरगुणनिप्फन्ना, सलक्खणा जे उ होति कुंभाई। करना चाहिए। तं दव्वमंगलं खलु, जह लोए अट्ठ मंगलगा॥ ४. नंदी मंगलहेडं, न यावि सा मंगलाहि वइरित्ता। १०. गंतियं अणच्चंतियं च दव्वे उ मंगलं होइ। कज्जाभिलप्पनेया, अपुढो य पुढो य जह सिद्धा॥ तब्विवरीयं भावे, तं पि य नंदी भगवती उ ॥ नंदी-ज्ञानपंचक का कथन मंगल के लिए वक्तव्य है। वह जैसे लोक में आठ मंगल होते हैं, वैसे ही उत्तरगुणों से नंदी गंगल से व्यतिरिक्त नहीं है। कार्य, अभिलाप्य तथा निष्पन्न तथा लक्षणयुक्त कुंभ आदि द्रव्यमंगल होते हैं। ज्ञेय-ये कारण अभिलाप तथा ज्ञान से अपृथक् और पृथक्- द्रव्यमंगल अनैकान्तिक तथा अनात्यन्तिक होते हैं। इसके दोनों प्रकार से सिद्ध हैं। (इसी प्रकार नंदी मंगल से पृथक् विपरीत अर्थात् भावमंगल ऐकान्तिक और आत्यन्तिक होता भी है और अपृथक भी है।) है। वह भावमंगल है भगवान नन्दी। ५. नामं ठवणा दविए, भावम्मि य मंगलं भवे चउहा। ११. जह इंदो त्ति य एत्थं. त मग्गणा होति नाममादीणं। एमेव होइ नंदी, तेसिं तु परूवणा इणमो।। सव्वाणुवायि सन्ना, ठवणादिपया उ पत्तेयं ।। मंगल चार प्रकार का होता है-नाममंगल, स्थापनामंगल, (जहां केवल संज्ञा शब्द होता है वहां नाम, स्थापना आदि द्रव्यमंगल तथा भावमंगल। इसी प्रकार नंदी के भी चार चारों का समवतार होता है। जैसे किसी ने 'इन्द्र' शब्द का प्रकार हैं-नामनंदी, स्थापनानंदी, द्रव्यनंदी तथा भावनंदी। उन उच्चारण किया। यहां इस शब्द के साथ नाम आदि चारों की नाममंगल आदि की प्ररूपणा इस प्रकार है। मार्गणा होती है। संज्ञा शब्द सर्वानुपाती होता है। अर्थात इन्द्र ६. एगम्मि अणेगेसु व, जीवद्दव्वे व तव्विवक्खे वा। मात्र कहने से नामइन्द्र, स्थापनाइन्द्र, द्रव्यइन्द्र और ___मंगलसन्ना नियता, तं सन्नामंगलं होइ॥ भावइन्द्र-चारों ग्रहण होते हैं। स्थापना आदि पद प्रत्येक १. सामर्थ्य वर्णनायां च, छेदने करणे तथा। ४. मूलगुण की अपेक्षा उत्तरगुण से निष्पन्न। मूल गुण है-पृथ्वीकायिक औपम्ये चाधिवासे च, कल्पशब्दं विदुर्बुधाः॥ जीव-मिट्टी। उत्तरगुण है-कुंभकार द्वारा चक्र, दंड, सूत्र आदि के कल्प शब्द के छह अर्थ-सामर्थ्य, वर्णन, छेदन, करण, उपमा तथा प्रयत्न से निष्पन्न घट आदि। अधिवास। ५. पूर्ण कलश एकांततः सब के लिए मंगल है। परन्तु चोर और कृषक के २. विधिवद वपनाद् हरणाच्च व्यवहारः। यस्य नाऽऽभवति तस्य हापयति, लिए रिक्त घट शुभ होता है और गृहप्रवेश आदि में पूर्ण घट शुभ माना यस्य आभवति तस्मै ददाति व्यवहाराध्ययनवेत्तेति व्यवहारः। जाता है। अतः वह अनैकान्तिक है। ३. श्लोक में प्रयुक्त 'अपि' शब्द की यह ध्वनि है कि नंदी मंगल से किसी व्यक्ति ने शोभनद्रव्यों के शकुन से प्रस्थान किया और व्यतिरिक्त भी है। (वृ. पृ. ५) आगे उसने अशोभन द्रव्य देखे। इससे पूर्व का शुभ प्रतिहत हो गया। अतः वह आत्यन्तिक है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका अर्थात स्व-स्वपद के अनुसार व्यवस्थित होते हैं। वे परस्पर अनुगमनशील नहीं होते। १२. अत्ताभिप्पायकया, सन्ना चेयणमचेयणे वा वि। ठवणादीनिरविक्खा , केवल सन्ना उ नामिंदो॥ चेतन अथवा अचेतन द्रव्यों में स्वेच्छा से इन्द्र आदि संज्ञा की जाती है, वह स्थापना आदि से सापेक्ष होती है। स्थापना आदि से निरपेक्ष जो केवल संज्ञा होती है, उस अर्थ से निरपेक्ष होती है, वह नामइन्द्र है। १३. सब्भावमसब्भावे, ठवणा पुण इंदकेउमाईया। इत्तरमणित्तरा वा, ठवणा नामं तु आवकह॥ स्थापनेन्द्र के दो प्रकार हैं-सद्भाव स्थापनाइन्द्र और असद्भाव स्थापनाइन्द्र। अक्ष, वराटक आदि में इन्द्र की स्थापना असद्भाव स्थापनाइन्द्र है। इन्द्रकेतु आदि में इन्द्र की स्थापना सद्भाव स्थापनाइन्द्र है। स्थापना इत्वर और अनित्वर-दोनों प्रकार की होती है। नाम नियमतः यावत्कथिक ही होता है। १४. दब्वे पुण तल्लद्धी, जस्सातीता भविस्सते वा वि। जो वा वि अणुवउत्तो, इंदस्स गुणे परिकहेइ॥ जिसमें वह लब्धि अर्थात इन्द्र की लब्धि है, जो अतीत में इन्द्र था अथवा भविष्य में इन्द्र होगा, वह द्रव्यइन्द्र है। जो इन्द्र के गुणों को दूसरों को कहता है, जो अनुपयुक्त है वह भी द्रव्येन्द्र है। १५. जो पुण जहत्थजुत्तो, सुद्धनयाणं तु एस भाविंदो। इंदस्स व अहिगार, वियाणमाणो तदुवउत्तो॥ जो यथार्थ से युक्त है, वह भावेन्द्र है। यह शब्द आदि शुद्ध नयों द्वारा सम्मत है। अथवा जो इन्द्र शब्द के अधिकार- अर्थ को जानता हुआ उसमें उपयुक्त होता है, वह भावेन्द्र है। १६. न हि जो घड वियाणइ, सो उ घडीभवइ नेय वा अगी। नाणं ति य भावो त्ति य, एगट्ठमतो अदोसो त्ति। शिष्य ने कहा-जो घट को जानता है वह घटी नहीं होता और जो अग्नि को जानता है वह अग्नि नहीं होता। (इसलिए यह जो कहा गया कि जो इन्द्र के अर्थ को जानता है वह भावेन्द्र है, यह सही नहीं है।) आचार्य कहते हैं-ज्ञान, भाव, अध्यवसाय तथा उपयोग-ये एकार्थक हैं। अतः वह अदोष ह। १७. जमिदं नाणं इंदो, न व्वतिरिच्चति ततो उ तन्नाणी। तम्हा खलु तब्भावं, वयंति जो जत्थ उवउत्तो॥ 'यह इन्द्र है', ऐसा जो ज्ञान है उससे इन्द्रज्ञानी अतिरिक्त नहीं है। अतः जो 'इन्द्र' भाव में उपयुक्त है, उसे इन्द्रादिभाव कहते हैं। १८. चेयण्णस्स उ जीवा, जीवस्स उ चेयणाओ अन्नत्ते। दवियं अलक्खणं खलु, हविज्ज ण य बंधमोक्खा उ॥ (ज्ञान और ज्ञानी का अभेद न मानने पर ये दोष आते हैं।) चैतन्य का जीव से और जीव से चेतना का अन्यत्व मानने पर जीवद्रव्य लक्षणरहित हो जाएगा। (चेतनालक्षणो जीवः यह घटित नहीं होगा।) इस स्थिति में बंध और मोक्ष भी नहीं होगा। (क्योंकि अचेतन न बंधता है और न मुक्त होता है।) १९. जह ठवणिंदो थुव्वइ, अणुग्गहत्थीहिं तह न नामिंदो। एमेव दव्वभावे, पूयाथुतिलद्धिनाणत्तं॥ जैसे अनुग्रहार्थी व्यक्ति स्थापनाइन्द्र की स्तुति करते हैं, पूजा करते हैं, वैसे नामइन्द्र की नहीं करते। इसी प्रकार द्रव्यइन्द्र और भावइन्द्र में पूजा, स्तुति और लब्धि विषयक नानात्व है। (द्रव्यइन्द्र स्तुत्य और पूजनीय तथा उपयोगलब्धियुक्त नहीं होता। भावेन्द्र स्तुत्य और पूजनीय तथा उपयोगलब्धियुक्त होता है।) २०. विग्योवसमो सद्धा, आयर उवयोग निज्जराऽधिगमो। भत्ती पभावणा वि य, निवनिहिविज्जाइ आहरणा।। मंगल करने का प्रयोजन क्या है? मंगल के ये आठ प्रयोजन हैं-(१) विघ्नों का उपशमन (२) शिष्य के श्रद्रा की वृद्धि (३) शास्त्रों के धारण में आदर (४) शास्त्रविषयक उपयोग (५) ज्ञानावरणीय कर्म की निर्जरा (६) शास्त्रों का स्पष्ट-स्पष्टतर अधिगम (७) गुरु और शास्त्रों के प्रति भक्ति की वृद्धि (८) प्रभावना। इस विषयक ये उदाहरण हैं-नृप, निधि, विद्या आदि।' २१. जो जेण विणा अत्थो, न सिज्झई तस्स तविहं करणं। विवरीय अभावेण य, न सिज्झई सिज्झई इहरा। जो प्रयोजन जिस करण (साधन) के बिना सिद्ध नहीं होता, उस प्रयोजन को उसी साधन से करना चाहिए। विपरीत गन १. नृप कोई कार्यार्थी पुरुष राजा को प्रसन्न कर अपना प्रयोजन सिद्ध करना चाहता था। वह राजा के पास उपहार लेकर उपस्थित होता है और राजा को हाथ जोड़कर उसके चरणों में प्रणाम करता है। राजा प्रसन्न होता है और तब उस व्यक्ति का प्रयोजन सिद्ध हो जाता है। निधि, विद्या आदि-कोई व्यक्ति निधि का उत्खनन करना चाहता है अथवा किसी विद्या अथवा मंत्र की सिद्धि करना चाहता है तो वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार उपचार करता है। जैसे-द्रव्यतः वह पूष्पों के द्वारा उपचार करता है। क्षेत्रतः-श्मशान आदि स्थानों में, कालतः-कृष्णपक्ष की चतुर्दशी आदि तिथियों में और भावतः-प्रतिलोम और अनुलोम उपसगों को सहन करता है। इस उपचार के द्वारा वह निधि, विद्या और मंत्र को सिद्ध कर सकता है। इस उपचार के अभाव में कुछ भी सिद्ध नहीं होता। (वृ. पृ. १०) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =बृहत्कल्पभाष्यम् साधनों से अथवा साधनों के अभाव से वह प्रयोजन सिद्ध २६. केसिंचि इंदियाइं, अक्खाइं तदुवलद्धि पच्चक्खं। नहीं हो सकता। वह सिद्ध होता है अविपरीत साधनों के द्वारा। तं तु न जुज्जइ जम्हा, अग्गाहगमिंदियं विसए॥ २२. जयवि य तिट्ठाण कयं, तह वि ह दोसो न बाहए इयरो। कुछेक दार्शनिक (वैशेषिक आदि) इन्द्रियों को अक्ष मानते तिसमुन्भवदिटुंता, सेसं पि हु मंगलं होइ । ____ हैं। उनकी उपलब्धि-ज्ञान को वे प्रत्यक्ष मानते हैं। (वे कहते यद्यपि मंगल तीन स्थानों आदि, मध्य और अंत में किया हैं-'चाक्षुषादिविज्ञानं प्रत्यक्षम्')| उनका यह सिद्धांत उचित जाता है, फिर भी इतर अर्थात् अपान्तराल में अमंगल का नहीं है क्योंकि इन्द्रियां (पौद्गलिक होने के कारण) विषय दोष बाधा नहीं पहुंचाता। इसको सिद्ध करने के लिए यह की ग्राहक नहीं होती। दृष्टांत है। तीन द्रव्यों से अर्थात् गुड़, आटा और घृत से २७. न वि इंदियाई उवलद्धिमति विगतेसु विसयसंभरणा। मोदक बनता है। मोदक आदि, मध्य और अन्त में अर्थात् जह गेहगवक्खाई, जो अणुसरिया स उवलद्धा। पूरा मोदक मीठा-मीठा ही होता है। उसी प्रकार शेष शास्त्र इन्द्रियां उपलब्धिमान् नहीं हैं, क्योंकि विषय के अतीत भी मंगल ही मंगल है। हो जाने पर भी, उस विषय की स्मृति होती है, जैसे-गृह २३. न वि य हु होयऽणवत्था, न वि य हु मंगलममंगलं होइ। के गवाक्ष में उपलब्ध अर्थों का, गेहगवाक्ष के अतीत हो अप्पपराभिव्वत्तिय, लोणुण्हपदीवमादि व्व॥ जाने पर भी उन विषयों का स्मरण होता है। जो अनुस्मर्ता (शिष्य ने कहा-शास्त्र स्वयं मंगल है। नंदी शास्त्र से है, उसको वे विषय प्राप्त हो जाते हैं। (अर्थात आत्मा भिन्न नहीं है। उसे अन्य मंगल के रूप में प्रस्तुत करना अनुस्मर्ता है।) अनवस्था दोष है।) आचार्य कहते हैं-निश्चित रूप से २८. धूमनिमित्तं नाणं, अग्गिम्मिं लिंगियं जहा होइ। अनवस्था नहीं होती और न मंगल अमंगल होता है। तह इंदियाइलिंगं, तं नाणं लिंगियं न कह। आत्मपराभिव्यक्तितः अर्थात् नंदी स्वयं मंगल है और शास्त्र जैसे धूम के निमित्त से होने वाला अग्नि का ज्ञान लैंगिक भी उसको मंगल करता है अथवा शास्त्र स्वयं मंगल है और होता है, वैसे ही इन्द्रिय आदि लिंग हैं, उनसे होने वाला ज्ञान नंदी भी उसको मंगल करती है तो दोनों के योग से और लैंगिक कैसे नहीं होगा? अधिक मंगल होता है। जैसे दो लवणों का एकीकरण अधिक २९. अपरायत्तं नाणं, पच्चक्खं तिविहमोहिमाईयं। लवणता पैदा करता है। दो उष्ण एकत्रित होने पर वे उष्णतर जं परतो आयत्तं, तं पारोक्खं हवइ सव्वं ।। हो जाते हैं तथा दो प्रदीपों का प्रकाश मिलने पर प्रकाश की जो अपरायत्त ज्ञान है वह प्रत्यक्ष है। वह अवधिज्ञान आदि अधिकता होती है। वैसे ही दो मंगलों का एकत्रीकरण विशेष तीन प्रकार का है। जो परायत्त ज्ञान है, वह सारा परोक्ष है। मंगल को उत्पन्न करता है। ३०. ओहि मणपज्जवे या, केवलनाणं च होति पच्चक्खं। २४. नंदी चतुक्क दव्वे, संखब्बारसग तूरसंघातो। आभिणिबोहियनाणं, सुयनाणं चेव पारोक्खं॥ भावम्मि नाणपणगं, पच्चक्खियरं च तं दुविहं॥ प्रत्यक्ष ज्ञान तीन हैं-अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान तथा नंदी के चार निक्षेप हैं-नामनंदी, स्थापनानंदी, द्रव्यनंदी केवलज्ञान। परोक्ष ज्ञान दो हैं-आभिनिबोधिकज्ञान तथा तथा भावनंदी। द्रव्यनंदी है-शंख आदि बारह प्रकार का तूर्य श्रुतज्ञान। (वाद्य) संघात।' भावनंदी है-पांच ज्ञान। ज्ञानपंचक के दो ३१. विवरीयवेसधारी, विजंजणसिद्ध देवताए वा। प्रकार हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष। छाइय सेवियसेवी, बीयादीओ वि पच्चक्खा। २५. जीवो अक्खो तं पड़, जं वट्टति तं तु होई पच्चक्खं। ३२. पुढवीइ तरुगिरिया सरीरादिगया य जे भवे दव्वा। परतो पुण अक्खस्सा, वट्टतं होइ पारुक्खं॥ परमाणू सुहदुक्खादओ य ओहिस्स पच्चक्खा॥ जीव अक्ष है। उसके प्रति प्रवर्तित होने वाला ज्ञान अवधिज्ञान चार प्रकार का है-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः प्रत्यक्ष है। जो अक्ष से परतः ज्ञान होता है वह है परोक्ष। और भावतः। (आत्मा से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष है तथा इन्द्रिय और मन द्रव्यतः अवधिज्ञान-वेष का परिवर्तन करने वाले (नेपथ्य से होने वाला ज्ञान परोक्ष है।) का परिवर्तन करने वाले, गुटिका का प्रयोग करने वाले स्वर १. भंभा मुकुंद मद्दल, कडंब झल्लरि हुडुक्क कंसाला। को जानता है, वह है अक्ष-आत्मा। काहला तलिमा वंसो, पणवो संखो य बारसमो॥ अश्नुते-ज्ञानेन व्याप्नोति सर्वान ज्ञेयानिति अक्षः-जो ज्ञान के द्वारा २. अश्नाति-भुक्ते यथायोगं सर्वानानिति अक्षः-जो यथायोग सभी अर्थों सभी ज्ञेयों को जानता है, वह है अक्ष-आत्मा। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका 5 परावर्तन करने वाले वर्ण परावर्तन करने वाले) तथा जो विद्यासिद्ध, अंजनसिद्ध और देवता द्वारा छादित (परिगृहीत) हैं तथा जो बीज आदि हैं-इन सबको अवधिज्ञानी प्रत्यक्षतः जानता है। जो पृथ्वी में वृक्षों में तथा पर्वतों में द्रव्य है-निधियां हैं उनकी तथा जो शरीर आदि गत वन्य है, जो परमाणु हैं तथा जी सुख-दुःख आदि है इन सबको अवधिज्ञानी प्रत्यक्षतः जानता है। यह द्रव्यतः अवधिज्ञान है। असमत्तपज्जाया ॥ ३३. अच्चतमणुक्लद्धा वि ओहिनाणस्स हाँति पच्चक्खा। ओहिन्नाणपरिगया, दव्वा चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा अत्यंत अनुपलब्ध पदार्थ भी अवधिज्ञानी के लिए प्रत्यक्ष होते हैं। अवधिज्ञान के द्वारा जाने हुए पदार्थ असमासपर्यायवाले होते हैं अर्थात् द्रव्य के सारे पर्याय अवधिज्ञान के द्वारा जाने नहीं जा सकते। केवल केवलज्ञानी ही उन्हें जान सकता है। ३४. ख्रित्तिम्मि उ जावइए, पासइ दव्वाइं तं न पासइ या । काले नाणं भइयं, को सो दव्वं विणा जम्हा ॥ क्षेत्रतः अवधिज्ञान - जघन्यतः अथवा उत्कर्षतः जितने क्षेत्र के अवधिज्ञान की शक्ति प्राप्त है, वह उतने क्षेत्रगत रूपी द्रव्यों को देख सकता है, किन्तु उस क्षेत्र को नहीं देख सकता। (क्योंकि क्षेत्र अमूर्त होता है ।) कालतः अवधिज्ञान-कालविषयक अवधिज्ञान विकल्पित होता है-कभी होता है. कभी नहीं होता। वह ऐसा कौन-सा द्रव्य है जो द्रव्य की पर्याय के बिना अन्य काल द्रव्य हो ? क्योंकि काल द्रव्य की ही अवस्था विशेष है। कहा भी है'दव्वस्स चेव सो पज्जातो इति। अतः वह अवधिज्ञानी के प्रत्यक्ष होता है। पर्यायों में भी कुछेक पर्यायों को ही अवधिज्ञानी जान पाता है। भावतः अवधिज्ञान अवधिज्ञानी भावतः अनंत भावों को जानता है। यह अनंत सभी भावों का अनंतवां भाग है। ३५. तं मणपजवनाणं, जेण वियाणा सन्निजीवाणं । व मणिज्जमाणे, मणदव्वे माणसं भावं ॥ संज्ञी जीवों द्वारा मनन में व्याप्त मनोद्रव्यों को देखकर जिस ज्ञान से मानसिक भाव को जान लिया जाता है, वह मनः पर्यवज्ञान है। १. क्योंकि यहां यदि हम कालद्रव्य को समयक्षेत्र भावी स्वीकार करते हैं तो वह केवल समयमात्र का होता है और 'समयमात्र काल' अरूपी होने के कारण वह अवधिज्ञान का विषय नहीं बनता । य ३६. जाग य पिजणो वि हु, फुडमागारेहिं माणसं भावं । एमेव अत्थे ॥ तस्सुवमा, मणदव्वपमासिए सामान्य पुरुष भी स्फुट आकारों के द्वारा निश्चित रूप से मानसिक भावों को जान लेता है। इसी प्रकार मनः पर्यवज्ञानी के भी मनोद्रव्य द्वारा प्रकाशित अर्थ-विषयक उपमा जाननी चाहिए (अर्थात् सामान्य पुरुष की भांति ही मनःपर्यवज्ञानी भी मनोद्रव्यगत आकारों को देखकर उन-उन मानसिक भावों को जान लेता है।) ३७. पंकसलिले पसाओ, जह होइ कमेण तह हमो जीवो ॥ केवलं जाव ॥ आवरणे झिज्जते विसुज्झए पंकिल-गुदला पानी कतकचूर्ण के योग से क्रमशः साफ होता है, वैसे ही यह जीव भी अपने कार्मिक आवरणों को क्षीण करता हुआ तब पूर्ण शुद्ध होता है जब उसे कैवल्य की प्राप्ति होती है। २ ३८. दव्वादिकसिणविसयं, केवलमेगं तु अणिवारियवावारं, अणंतमक्किप्पियं 3 केवलन्नाणं । नियतं ॥ केवलज्ञान का विषय है समस्त द्रव्य । वह केवलअसहाय अर्थात् अन्य ज्ञान से निरपेक्ष, एक अनन्यसदृश, अनिवारित व्यापार अर्थात निरंतर उपयोगवाला, अनंत, अविकल्पित-विकल्परहित (भेदरहित) तथा नियत - सर्व कालिक होता है। ३९. पच्चक्ख परोक्खं वा, जं अत्थं ऊहिऊण निद्दिसइ । तं होइ अभिणिबोहं, अभिमुहमत्थं न विवरीयं ॥ प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष विषय की तर्कणा कर निश्चयपूर्वक कहता है, वह ज्ञान अर्थ के प्रति अभिमुख होने के कारण आभिनिबोधिक ज्ञान है जो अर्थाभिमुख नहीं होता वह आभिनिबोधिक ज्ञान नहीं है। ४०. अत्थानंतरचारिं नियतं चित्तं तिकालविसयं तु । अत्थे य पडुप्पण्णे, विणियोगं इंदियं लहइ ॥ वह दो प्रकार का है-इन्द्रियनिश्रित तथा अनिन्द्रियनिश्चित (मनोनिश्रित) मन अर्थानन्तरचारी होता है अर्थात् इन्द्रियाँ का अपने विषय में व्याप्त होने के पश्चात् मन व्यापृत होता है। वह नियतार्थविषय होता है अर्थात् एक काल में एक ही विषय में व्याप्त होता है, अनेक विषयों में नहीं। मन त्रिकाल अतीत, वर्तमान और भविष्य विषयवाला - २. यह जीव भी अपूर्वकरण गुणस्थान से प्रारंभ कर क्षपणश्रेणी में आरूढ़ होकर विशुद्ध-विशुद्धतर अध्यवसायों के प्रभाव से कर्मावरण को क्षीण करता हुआ कैवल्य को प्राप्तकर पूर्णरूप से घातीकर्मों से मुक्त हो जाता है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ==बृहत्कल्पभाष्यम् होता है। इन्द्रियां केवल वर्तमान अर्थ में ही विनियोग-व्यापृत होती हैं। ४१. मतिविसयं मतिनाणं, मतिपुव्वं पुण भवे सुयन्नाणं। तं पुण समतिसमुत्थं, परोवदेसा व सव्वं पि॥ मतिज्ञान मतिविषयक अर्थात् मति के अनुसार होता है। श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है। सारा श्रृतज्ञान दो भेदों में विभक्त हैं-स्वमतिसमुत्थ तथा परोपदेशसमुत्थ। (प्रत्येकबुद्ध तथा पदानुसारीप्रज्ञा वालों के श्रुतज्ञान स्वमतिसमुत्थ होता है और सामान्य व्यक्तियों के वह परोपदेशसमुत्थ होता है।) ४२. अक्खर सण्णी सम्म, साइयं खलु सपज्जवसियं च। गमियं अंगपविटुं, सत्त वि एए सपडिवक्खा ॥ परोपदेशसमुत्थ श्रुतज्ञान के चौदह प्रकार हैं। १. अक्षरश्रुत ८. अनादिश्रुत २. अनक्षरश्रुत ९. सपर्यवसितश्रुत ३. संज्ञिश्रुत १०. अपर्यवसितश्रुत ४. असंज्ञिश्रुत ११. गमिकश्रुत ५. सम्यकश्रुत १२. अगमिकश्रुत ६. मिथ्याश्रुत . १३. अंगप्रविष्ट ७. सादिश्रुत १४. अनंगप्रविष्ट । ४३. अक्खरतिगरूवणया, पढमनयादेसतो न तं खरति। अभिलप्पा पुण भावा, होति खरा अक्खरा चेव॥ अक्षर के तीन प्रकार हैं-संज्ञाक्षर, लब्धि-अक्षर तथा व्यंजनाक्षर। इन तीनों की प्ररूपणा करनी चाहिए। प्रथमनय अर्थात् नैगमनय के आदेशानुसार अक्षर कभी अपने स्वभाव से चलित नहीं होता। जो अभिलाप्य भाव हैं, वे दो प्रकार के हैं-क्षर और अक्षर। (क्षर हैं घट आदि तथा अक्षर हैं धर्मास्तिकाय आदि)। ४४. संठाणमगाराई, अप्पाभिप्पायतो व जं जस्स। लद्धी पंचविगप्पा, जस्सुवलब्भो उ जो अत्थो॥ अकार आदि का जो संस्थान है, वह संज्ञाक्षर है। अथवा अपने अभिप्राय से जिस अक्षर का जो संस्थान किया जाता है उसको संज्ञाक्षर कहते हैं। लब्ध्यक्षर के पांच प्रकार हैं, जैसे--श्रोत्रन्द्रियलब्ध्यक्षर, जिह्वेन्द्रियलब्ध्यक्षर, चक्षुरिन्द्रियलब्ध्यक्षर, घ्राणेन्द्रियलब्ध्यक्षर तथा स्पर्शनेन्द्रियलब्ध्यक्षर। (छठा है-नोइन्द्रियलब्ध्यक्षर।) पांच इन्द्रियों तथा मन के द्वारा जो उपलभ्य अर्थ है, उसके द्वारा जो अक्षरों की उपलब्धि होती है वह श्रोत्रेन्द्रिय आदि का लब्ध्यक्षर है। जैसे श्रोत्रेन्द्रिय से शंख शब्द सुना। उसके बाद जो दो अक्षरों 'शंख' की लब्धि है, वह श्रोत्रेन्द्रियलब्ध्यक्षर है। ४५. सामन्न विसेसेण य, दुविहुवलद्धी उ पढमिय अभेया। तिविहा य अणुवलद्धी, उवलद्धी पंचहा बिइया।। अथवा उपलब्धि (उपलब्ध्यक्षर) के दो प्रकार हैंसामान्य और विशेष। अर्थात् सामान्यलब्ध्यक्षर और विशेषलब्ध्यक्षर। जो प्रथम सामान्योपलब्धि है वह अभेदात्मक होती है। अनुपलब्धि के तीन प्रकार हैं और जो दूसरी-विशेष उपलब्धि है वह पांच प्रकार की है। ४६. अच्चंता सामन्ना, य विस्सुती होइ अणुवलद्धीओ। सारिक्ख विवक्खोभय, उवमाऽऽगमतो य उवलद्धी॥ ___ अनुपलब्धि के तीन प्रकार ये हैं अत्यंत से अर्थात् एकांत से, सामान्य से और विस्मृति से। उपलब्धि के पांच प्रकार ये हैं-सदृशता से, विपक्ष से, उभय से-सदृशता और विपक्ष-दोनों से, उपमा से तथा आगम से। ४७. अत्थस्स दरिसणम्मि वि, लद्धी एगंततो न संभवइ। दु8 पि न याणते, बोहिय पंडा फणस सत्तू।। पदार्थ को देखने पर भी अक्षरों की लब्धि एकांततः नहीं हो सकती। जैसे-बोधिक अर्थात् पश्चिम दिशावासी लोग 'पनस' को देखकर भी 'यह पनस है' ऐसा नहीं जान पाते। क्योंकि पनस उनके लिए अत्यंत परोक्ष है। इसी प्रकार पांडुमथुरावासी 'सत्तू' को देखकर भी 'ये सत्तू हैं', ऐसा नहीं जान पाते। (क्योंकि वहां सत्तू होते ही नहीं। यह एकांततः अनुपलब्धि है।) ४८. अत्थस्स उग्गहम्मि वि, लद्धी एगंततो न संभवति। सामन्ना बहुमज्झे, मासं पडियं जहा द8॥ पदार्थ को जान लेने पर भी, उसकी अन्य पदार्थ के साथ सामान्यता-सदृशता होने के कारण एकांततः उसे अक्षरलब्धि नहीं होती। जैसे बहूत धान्यों के बीच पड़े हुए उड़द को देख लेने पर भी, उसे उसका अक्षरलाभ नहीं होता। (यह सामान्य से अनुपलब्धि है।) ४९. अत्थस्स वि उवलंभे, अक्खरलद्धी न होइ सव्वस्स। पुव्वोवलद्धमत्थे, जस्स उ नामं न संभरति॥ पदार्थ का उपलंभ हो जाने पर भी सभी के उस विषयक अक्षरलब्धि नहीं होती। जिसको विवक्षित अर्थ विषयक पूर्व उपलब्ध नाम स्मृति में नहीं है तो उसे उस वस्तु की अक्षर. लब्धि नहीं होती। (यह विस्मृति से होने वाली अनुपलब्धि है।) ५०. सारिक्ख-विवक्खेहि य, लभति परोक्खे वि अक्खर कोइ। सबलेर-बाहुलेरा, जह अहि-नउला य अणुमाणे॥ कोई व्यक्ति पदार्थ के परोक्ष होने पर भी सादृश्य के कारण उसका वाचक अक्षर प्राप्त कर लेता है। जैसे कोई 'शाबलेय' (चितकबरी गाय आदि) को देखकर उसकी Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका सदृशता से बाहुलेय (काली गाय आदि) का ज्ञान कर लेता है। वह कहता है-ऐसा होता है 'बाहुलेय'। इसी प्रकार पदार्थ के परोक्ष होने पर भी विपक्षतः उसका वाचक अक्षर प्राप्त कर लेता है। जैसे-सर्प को देखकर नकुल का अनुमान तथा नकुल को देखकर सर्प का अनुमान हो जाता है। ५१. एगत्थे उवलद्धे, कम्मि वि उभयत्थ पच्चओ होइ। अस्सतरि खर-ऽस्साणं, गुल-दहियाणं सिहरिणीए॥ उभयधर्मवाली किसी एक वस्तु को देखकर दोनों वस्तुओं का प्रत्यय वाचक अक्षर प्राप्त हो जाता है। जैसे अश्वतर- खच्चर को देखकर गधे का और घोड़े का दोनों का ज्ञान हो जाता है। इसीप्रकार शिखरिणी को देखकर गुड़ और दही-- दोनों का अक्षरलाभ हो जाता है। ५२. पुव्वं पि अणु अणुवलद्धो, घिप्पइ अत्थो उ कोइ ओवम्मा॥ जह गोरेवं गवयो, किंचिविसेसेण परिहीणो।। पहले कोई पदार्थ अनुपलब्ध (अज्ञात) होने पर भी वह उपमा से गृहीत होता है, जैसे-गाय के सदृश होता है गवय।। वह किंचित् विशेषण से रहित होता है अर्थात् उसके गलकंबल नहीं होता। (वन में परिभ्रमण करते हुए किसी व्यक्ति ने गवय देखा। तत्काल उसे-'यथा गौस्तथा गवयः' की उपमा याद आ जाती है और उस उपमा से उसे गवय का अक्षरलाभ हो जाता है।) ५३. अत्तागमप्पमाणेण अक्खरं किंचि अविसयत्थे वि। भवियाऽभविया कुरवो, नारग दियलोय मोक्खो य॥ आप्तागम को प्रमाण मानने वाले व्यक्तियों के लिए अविषयभूत पदार्थों का भी अक्षरलाभ होता है। जैसे-भव्य- अभव्य, देवकुरु-उत्तरकुरु, नारक, देवलोक, मोक्ष-आप्तागम के प्रमाण के अनुसार इनका अक्षरलाभ ज्ञान होता है। यह आगमोपलब्धि है। ५४. ओसन्नेण असन्नीण अत्थलंभे वि अक्खरं नत्थि। अत्थो च्चिय सन्नीणं, तु अक्खरं निच्छए भयणा॥ असंज्ञी प्राणियों के अर्थलाभ-पदार्थ की उपलब्धि होने पर भी उनको उत्सन्न-एकांततः अक्षरलाभ नहीं होता। (वे नहीं जान पाते कि यह शंख का शब्द है।) संज्ञी जीवों के ही पदार्थ की उपलब्धि होते ही अक्षरलाभ हो जाता है। निश्चय करने में भजना-विकल्प है। (जैसे-यह शब्द शंख का ही है। यह शब्द शाऊँ का ही है-ऐसा निश्चय होता भी है और नहीं भी होता।) ५५. अत्थाभिवंजगं वंजणक्खरं इच्छितेतरं वदतो। रूवं व पगासेणं, वंजति अत्थो जओ तेणं॥ ईप्सित अथवा अनीप्सित (विवक्षित अथवा अविवक्षित) बोलते हुए व्यक्ति का जो अर्थाभिव्यंजक अभिधान होता है वह व्यंजनाक्षर है। प्रश्न है उसे व्यंजनाक्षर क्यों कहा जाता है? अभिधानाक्षर क्यों नहीं कहा जाता? जैसे अंधकार में स्थित रूप-घट आदि प्रकाश से व्यंजित होता है, प्रकट होता है, इस कारण से उसे व्यंजनाक्षर कहा जाता है। ५६. तं पुण जहत्थनियतं, अजहत्थं वा वि वंजणं दुविहं। एगमणेगपरिययं, एमेव य अक्खरेसुं पि॥ ५७. सक्कय-पाययभासाविणियुत्तं देसतो अणेगविहं। अभिहाणं अभिधेयातो होइ भिण्णं अभिण्णं च॥ व्यंजन के दो प्रकार हैं-यथार्थनियत तथा अयथार्थ । अथवा व्यंजन के दो प्रकार हैं-एक पर्यायवाला और अनेक पर्यायवाला। अथवा अक्षर आदि के आधार पर व्यंजन के दो भेद हैं-एकाक्षर तथा अनेकाक्षर।' अथवा व्यंजन के दो प्रकार हैं-संस्कृतभाषाविनिर्युक्त, प्राकृतभाषाविनियुक्त। अनेक देशों के आधार पर उसके अनेक प्रकार हैं। अभिधान अर्थात् व्यंजनाक्षर अभिधेय से दो प्रकार का होता है-भिन्न अथवा अभिन्न। ५८. खुर-अग्गि-मोयगोच्चारणम्मि जम्हा उ वयण-सवणाणं। ण वि छेदो ण वि दाहो, ण वि पूरण तेण भिण्णं तु॥ क्षुर, अग्नि, मोदक आदि के उच्चारण से तथा श्रवण से न मुंह का और न कान का छेदन होता है, न दाह होता है और न पूरण होता है। इसके आधार पर कहा जा सकता है कि अभिधेय से अभिधान भिन्न होता है। ५९. जम्हा उ मोयगे अभिहियम्मि तत्थेव पच्चओ होइ। ण य होइ सो अणत्ते, तेण अभिण्णं तदत्थातो॥ मोदक शब्द का उच्चारण करने पर, सुनने पर उसी में अर्थात् मोदक में ही प्रत्यय होता है। अन्यत्र में वह प्रत्यय नहीं होता। प्रत्यय होता है संबद्धता के कारण। अतः यह जाना जाता है कि अभिधान अपने अर्थ से अभिन्न होता है-संबद्ध होता है। ६०. एक्कक्कमक्खरस्स उ, सप्पज्जाया हवंति इयरे य। संबद्धमसंबद्धा, एक्केक्का ते भवे दुविहा॥ अनेक पर्याय-जीव, सत्त्व, प्राणी आदि। एकाक्षर-धी, श्री, आदि। अनेकाक्षर-वीणा, लता, माला आदि। १. यथार्थनियत-अन्वर्थयुक्त-क्षपयतीति क्षपणः आदि, अयथार्थ-नेन्द्र गोपयति तथापि इन्द्रगोपकः, न पलमश्नाति तथापि पलाशः। एक पर्याय-अलोक आदि। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० व्यंजन के एक-एक अक्षर के दो-दो प्रकार के पर्याय होते है स्वपर्याय और परपर्याय इन दोनों के दो-दो प्रकार हैंसंबद्ध और असंबद्ध । ६१. अत्थित्ते संबद्धा, होति अकारस्स पज्जया जे उ। ते चेव असंबद्धा, णत्थित्तेणं तु सव्वे वि ॥ अकार के जो स्वपर्याय हैं वे वहां अस्तित्व से संबद्ध हैं। नास्तित्व से वे ही सभी असंबद्ध हैं। ६२. एमेव असंता वि उ णत्थित्तेणं तु होंति संबद्धा । से चेव असंबद्धा, अत्थित्तेणं अभावत्ता ॥ इसी प्रकार परपर्याय न होने पर भी वे नास्तित्व से संबद्ध हैं। वे ही परपर्याय अस्तित्व की दृष्टि से असंबद्ध हैं, क्योंकि वहां उनके अस्तित्व का अभाव है। ६३. घडसहे घड ऽकारा, हवंति संबद्धपज्जया एते। ते चेव असंबद्धा, हवंति रहसद्दमादीसु ॥ 'घट' शब्द में 'घ' 'ट' और अकार हैं। उनके जो पर्याय हैं वे अस्तित्व से संबद्ध हैं। घट शब्द के वे ही अकार आदि पर्याय रथ आदि शब्दों में अस्तित्व की दृष्टि से असंबद्ध होते हैं। (तात्पर्य है कि रथ शब्द के जो स्वपर्यांय हैं वे अस्तित्व की दृष्टि से संबद्ध हैं क्योंकि वे वहां हैं। घट शब्द के स्वपर्याय नास्तित्व की दृष्टि से वहां असंबद्ध हैं, क्योंकि वे वहां नहीं हैं ।) ६४. संजुत्ता - ऽसंजुत्तं, इय लभते जेसु जेसु अत्थेसु । विणिओगमक्खरं ते सि होंति सम्भावपन्जाया । इस प्रकार घट, रथ आदि शब्दों में संयुक्त अथवा असंयुक्त अक्षर आदि जिन-जिन अर्थों में विनियोग को प्राप्त होते हैं, वे उनके सद्भाव पर्याय अर्थात् स्वपर्याय हैं, दूसरे परपर्याय हैं। ६५. णिच्छयतो सव्वगुरुं सव्वलहुं वा ण बिज्जते दव्वं । ववहारतो तु जुज्जति, बादरखंधेसु णऽण्णेसु ॥ निश्चयनय के अनुसार कोई भी द्रव्य सर्वगुरु अर्थात् एकांतगुरु अथवा सर्वलघु अर्थात् एकांतलघु नहीं होता। व्यवहारनय के अनुसार बादर स्कंध (अनंतप्रदेशी स्कंध ) सर्वगुरु और सर्वलघु होते हैं, दूसरे नहीं । ६६. तत्तो वग्गणाओ, सुहुमाण भवंतऽणंतगुणियातो । परमाणूण य एक्का, संखे संखेयरेऽसंखा || समस्त बादर स्कंध की वर्गणाओं से सूक्ष्म अनंत प्रवेशात्मक स्कंधों की वर्गणा अनंतगुणा अधिक है। समस्त १. अवर्ण के अठारह स्वपर्याय-हस्व, दीर्घ, प्लुत। प्रत्येक के तीन-तीन भेद-- उदात्त, अनुदात्त और स्वरित । प्रत्येक के दो-दो भेद-सानुनासिक, निरनुनासिक | इस प्रकार १८ भेद । बृहत्कल्पभाष्यम् परमाणुओं की वर्गणा एक है संख्येय प्रदेशों की वर्गणा संख्यात और असंख्येय प्रदेशों की वर्गणा असंख्यात है । (संख्यात के संख्यात भेद हैं और असंख्यात के असंख्यात भेद हैं। ६७. इय पोग्गलकायम्मी, सव्वत्थोवा उ गुरुलहू बच्चा उभयपडिसेहिया पुण, अनंतकप्पा बहुवियप्पा ॥ इस प्रकार पुद्गलास्तिकाय में गुरुलघु व्रव्य सबसे कम हैं तथा उभयप्रतिषेधित अर्थात् अगुरुलघु द्रव्यों के अनंत भेद हैं वे अनंतभेद विकल्पों के आधार पर होते हैं। ६८. ते गुरुलहुज्जाया, पण्णाछेदेण वोकसत्ताणं । जा बायरो जहण्णो, अणतहाणीए हार्यता ॥ वे गुरु लघुपर्याय प्रज्ञा के आधार पर पृथक-पृथक किए जाने पर सर्वोत्कृष्ट बादर स्कंध से अधस्तन बादर स्कंधों में अनन्तगुणहानि से तब तक ही हीयमान होते हैं जब तक कि जघन्य बादर स्कंध प्राप्त नहीं हो जाता। (अगुरुलघु पर्याय क्रमशः अनंतगुणवृद्धि से प्रवर्धमान होते हैं।) ६९. केण हवेज्ज विरोहो, अगुरुलहूपज्जवाण उ अमुत्ते । अच्चंतमसंजोगो, जहियं पुण तव्विवक्खस्स ॥ ( अमूर्त द्रव्यों के अगुरुलघु पर्याय परिमाण का चिंतन ) प्रश्न होता है कि अमूर्त द्रव्यों (धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय तथा जीवास्तिकाय में गुरुलघुपर्याय का विपक्ष अगुरुलघुपर्याय के एकान्ततः असंयोग में किसका विरोध है ? किस कारण से वे पर्याय नहीं होते? किसीका विरोध नहीं। (किसी के विरोध विनाशन के अभाव में सदा प्रति प्रदेश में अनंत अगुरुलघुपर्याय होते हैं ।) ७०. एवं तु अणतेहिं, अगुरुलहूपज्जवेहिं संजुत्तं । होइ अमुत्तं दव्वं, अरूविकायाण उ उ चउण्हं ॥ चारों अरूपी अस्तिकाय द्रव्यों में प्रत्येक अमूर्त द्रव्य अनंत अगुरुलघुपर्यायों से संयुक्त है। ७१. उवलद्धी अगुरुलहू, संजोग - सरादिणो य पज्जाया। एतेण हुता सव्वागासप्पएसेहिं ॥ जितने अगुरुलघुपर्याय (तथा गुरुलघुपर्याय) हैं, अक्षरों में जितने स्वरूपतः अथवा अभिलाप्यभेद से संयोग हैं, जो उदात्त आदि स्वरों से अभिलाप्यभाव हैं, जो शकुन आदि गत स्वर विशेष है-इन सबकी उपलब्धि होती है (यह प्रत्येक २. एकान्तगुरु होने पर वह द्रव्य एकान्ततः पतनधर्मा हो जाता है। एकान्तलघु होने पर वह द्रव्य एकान्ततः अपतनधर्मा हो जाता है। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका होता। की भिन्न-भिन्न होती है। इस प्रकार ज्ञान सर्वाकाशप्रदेशों से निवारण करने के लिए वह लाठी को जमीन पर पटकती है। भी अनंतगुणा अधिक है। यह सारा अनक्षरश्रुत है। ७२. णाणं तु अक्खरं जेण खरति ण कयाइ तं तु जीवातो। ७८. सन्नाणेणं सण्णी, कालिय हेऊ य दिट्ठिवाए य। तस्स उ अणंतभागो, न वरिज्जति सव्वजीवाणं॥ आदेसा तिण्णि भवे, तेसिं च परूवणा इणमो॥ ज्ञान अक्षर है, क्योंकि वह कभी भी जीव से क्षरित नहीं संज्ञी वह होता है जिसमें संज्ञान हो। इस विषयक तीन होता। सभी जीवों के ज्ञान का अनंतवां भाग कभी आवृत नहीं आदेश-मत हैं, जैसे-कालिक्युपदेशिकी, हेतूपदेशिकी और दृष्टिवादोपदेशिकी। उनकी प्ररूपणा यह है७३. एक्कको जियदेसो, नाणावरणस्स हुंतऽणतेहिं। ७९. खंधेऽणंतपएसे, मणजोगे गिज्झ गणणतोऽणते। अविभागेहाऽऽवरितो, सव्वजियाणं जिणे मोत्तुं॥ तल्लद्धि मणेति तहा, भासादब्वे व भासते॥ केवलज्ञानियों को छोड़कर शेष सभी जीवों का एक-एक प्रश्न होता है कि कालिक्युपदेशिकी संज्ञा वाले प्राणियों जीव प्रदेश ज्ञानावरणीय कर्म के अनंत अविभक्त आवरणों से के मानसिक व्यापार कैसे होता है? आचार्य कहते हैंआवृत होता है। मानसिक लब्धि से युक्त प्राणी मनोयोग्य अनंतप्रदेशी-संख्या ७४. जति पुण सो वि वरिज्जेज्ज तेण जीवो अजीवयं गच्छे।। से अनंत पुद्गलस्कंधों को ग्रहण कर मनन करता है। तात्पर्य सुट्ट वि मेहसमुदए, होति पभा चंद-सूराणं॥ है कि वह इन मनो द्रव्यों से ईहा, अवाय, मार्गणा कर भावों जैसे अत्यधिक मेघ समुदय से आवृत हो जाने पर भी को जानता है। तथा भाषालब्धि से युक्त प्राणी भाषा द्रव्यों को चांद और सूर्य की प्रभा उपलब्ध होती है, वैसे ही जीव का लेकर बोलता है। एक-एक प्रदेश कर्म से आवृत हो जाने पर भी, ज्ञान का ८०. रूवे जहोवलद्धी, चक्खुमतो दंसिए पगासेण। अनंतवां भाग सदा उद्घाटित रहता है। यदि वह भी आवृत इय छव्विहमुवओगो, मणदव्वपगासिए अत्थे।। हो जाए तो जीव अजीवता को प्राप्त हो जाता है, अजीव हो जैसे घट आदि पदार्थ प्रकाश से प्रकाशित होने पर जाता है। चक्षुष्मान् व्यक्ति के चक्षु से उनकी उपलब्धि होती है, वैसे ही ७५. अव्वत्तमक्खरं पुण, पंचण्ह वि थीणगिद्धिसहिएणं। मनोद्रव्य द्वारा प्रकाशित अर्थ (मनन किये हुए विषय) में छह णाणावरणुदएणं, बिंदियमाई कमविसोही॥ प्रकार का शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श तथा अतीत, अनागत पांचों स्थावरकायिक जीव स्त्यानगद्धिनिद्रा से भावित भावविषयक उपयोग होता है। (जो ईहा, अपोह आदि के होने के कारण तथा ज्ञानावरणीय का उदय होने के कारण द्वारा स्पष्टतर उपयोग होता है वह दीर्घकालिक्युपदेश से उनका अक्षर-ज्ञान अव्यक्त होता है। द्वीन्द्रिय आदि जीवों में संज्ञीश्रुत है। जिसके मनोद्रव्य का अभाव होता है, उसके ईहा क्रमशः वह विशुद्ध होता जाता है। आदि नहीं होते। वह असंज्ञी प्राणी है।) ७६. ऊससियं नीससियं, णिच्छूढं खासियं च छीयं च। ८१. एसेव य दिट्ठतो, नातिफुडे खलु जहा पगासेणं। णिस्सिंघियमणुसार, अणक्खरं छेलिआदीयं ॥ होउवलद्धी रूवे, अस्सण्णीणं तहा विसए। उच्छ्वसित, निःश्वसित, निष्ठत-थूकना, खांसी करना चक्षुलक्षण वाला यही दृष्टांत असंज्ञी प्राणियों के छींकना, निस्सिंघित-नाक से श्लेष्म निकालना, शेण्टित- अर्थावबोध में जानना चाहिए। जैसे चक्षुष्मान् व्यक्ति के भी सीटी बजाना, अनुस्वार आदि अनक्षरश्रत है। मंद प्रकाशित रूप-पदार्थ की उपलब्धि मंद होती है वैसे ही ७७. टिट्टि त्ति नंदगोवस्स बालिया वच्छए निवारेइ।। असंज्ञी प्राणियों के शब्द आदि विषय में उपयोग मंद होता है टिट्टि ति य मुद्धडए, सेसे लट्ठीनिवाएण॥ क्योंकि उनमें विशिष्ट मनोद्रव्य की उपलब्धि नहीं होती। खेत की रखवाली करने वाली नंद गोप की बालिका गाय ८२. अहवा मुच्छित मत्ते, पासुत्ते वा वि होइ उवलंभो। के बछड़े आदि का तथा हरिणों का निवारण करने के लिए ___ इय होति असन्नीणं, उवलंभो इंदिया जेसिं॥ 'टि-टि' आदि शब्द का उच्चारण करती है। शेष प्राणियों का अथवा मूर्छित, मत्त और प्रसुप्त प्राणी को जैसे अव्यक्त १. सव्वजीवाणं पि यणं अक्खरस्स अणंतो भागो निच्चुग्घाडिओ.........। जा होतऽणुत्तरसुरा, सव्वविसुलं तु पुव्वधरे॥ (वृ. पृ. २७) २. जिनका आगे विभाग नहीं किया जाता, ऐसे आवरण। वह ज्ञान द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर अनुत्तर वैमानिक जीवों तक ३. तं चिय विसुज्झमाणं, बिंदियमादि कमेण विन्नेयं । विशुद्ध होता जाता है। पूर्वधर में वह श्रुतज्ञान पूर्णविशुद्ध हो जाता है। -- Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् उपलभ होता है वैसे ही असंज्ञी प्राणियों में जितनी इन्द्रियां मिथ्यादृष्टि द्वारा परिगृहीत लोकोत्तर श्रुत भी मिथ्याश्रुत हो होती हैं उतने ही प्रकार का अव्यक्त उपलंभ होता है। जाता है। ८३. तुल्ले छेयणभावे, जे सामत्थं तु चक्करयणस्स। ८९. आभिणिबोहमयावं, वयंति तप्पच्चयाउ सम्मत्तं। तं तु जहक्कमहीणं, न होइ सरपत्तमादीणं॥ जा मणपज्जवनाणी, सम्मट्ठिी उ केवलिणो॥ ८४. एवं मणविसईणं, जा पडुया होइ उग्गहाईसु। आभिनिबोधिक का जो अपाय है, वह यथार्थविनिश्चय का तुल्ले चेयणभावे, न होइ अस्सणिणं सा तु॥ प्रतीक है। उसे पूर्वाचार्य सम्यक्त्व का प्रत्यय कहते हैं। इस छेदन करने की तुल्यता होने पर भी जो सामर्थ्य चक्ररत्न प्रत्यय से सम्यक्त्व मनःपर्यवज्ञानी तक घटित होता है। में होता है, वह यथाक्रमहीन शरपत्र आदि में नहीं होता। उससे आगे अपाय नहीं होता। केवली केवलज्ञान के प्रत्यय उसी प्रकार मनोग्राही विषय वाले प्राणियों में अवग्रह से ही सम्यग्दृष्टि हैं। आदि में जो पटुता होती है वह चेतना भाव की तुल्यता होने ९०. उवसमियं सासायण, खओवसमियं च वेदगं खइयं। पर भी असंज्ञी प्राणियों में नहीं होती। सम्मत्तं पंचविहं, जह लब्भइ तं तहा वोच्छ। ८५. जेसि पवित्ति-निवित्ती, इट्ठा-ऽणिद्वेसु होइ विसएसु। सम्यक्त्व पांच प्रकार का होता है-औपशमिक, सासादन ते हेउवाउ सन्नी, वेहम्मेणं घडो नायं॥ (सास्वादन), क्षायोपशमिक, वेदक और क्षायिक। इनकी जिन द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों में इष्ट विषय में प्रवृत्ति और प्राप्ति जैसे होती है, वैसे मैं कहूंगा। अनिष्ट विषय में निवृत्ति होती है, वे हेतुवाद से संज्ञी हैं। यहां ९१. बंधद्वितीपमाणं, सामित्तं चेव सव्वपगडीणं । वेधर्म्य से घट का दृष्टांत है।' को केवइयं बंधइ, खवेइ वा कित्तियं कोइ॥ ८६. होइ असीला नारी, जा खलु पतिणो न रक्खए सेज्ज। सबसे पहले कर्मों के बंध-स्थिति का प्रमाण कहना तं पि य हु होति सीलं, असोहणं तेण उ असीला॥ चाहिए। तदनन्तर सर्वप्रकृतियों की सत्ता के आधार पर ८७. एवं खओवसमिए, जे वटुंते उ नाणविसयम्मि। स्वामित्व का कथन करना चाहिए। फिर कौन कितनी ते खलु हवंति सण्णी, अण्णाणी होति अस्सण्णी॥ प्रकृतियों का बंध करता है और कौन कितनी प्रकृतियों का जो नारी पति की शय्या का संरक्षण नहीं करती, वह क्षय करता है, यह बताना चाहिए। अशीला होती है। यद्यपि पति की शय्या का अरक्षण शील है, ९२. आउयवज्जा उ ठिई, मोहोक्कोसम्मि होइ उक्कोसा। फिर भी वह अशोभन होने के कारण, वह नारी अशीला मोहविवज्जुक्कोसे, मोहो सेसा य भइयाउ॥ कहलाती है। मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति में आयुष्य कर्म इसी प्रकार ज्ञान के विषय में जो क्षायोपशमिक भाव में के अतिरिक्त शेष सभी कर्मों की स्थिति उत्कृष्ट होती है, सम्यग्ज्ञानी हैं, वे संज्ञी हैं और जो अज्ञानी हैं वे है। मोहविवर्ज अर्थात् ज्ञानावरणीय आदि कर्मों की असंज्ञी हैं। उत्कृष्ट स्थिति में मोहनीय तथा शेष कर्मों की स्थिति ८८. अंगा-ऽणंगपविट्ठ, सम्मसुयं लोइयं तु मिच्छसुयं। कदाचित् उत्कृष्ट होती है और कदाचित् नहीं। यह भजना है। आसज्ज उ सामित्तं, लोइय लोउत्तरे भयणा॥ ९३. अंतिमकोडाकोडीऍ होइ सव्वासि कम्मपगडीणं। स्वरूपतः अंग-अनंगप्रविष्ट श्रुत लोकोत्तरिक है। वह पलियाअसंखभागे, खीणे सेसे हवइ गंठी॥ सम्यकश्रुत है। लौकिक श्रुत मिथ्याश्रुत है। स्वामित्व की आयुष्य कर्म के अतिरिक्त शेष सभी कर्मप्रकृतियों की अपेक्षा लौकिक और लोकोत्तरिक श्रुत में सम्यक-मिथ्या की जब अंतिम कोटीकोटि स्थिति होती है और उसमें भी भजना है अर्थात् लौकिक श्रुत भी कभी सम्यक्श्रुत हो जाता पल्योपम के असंख्येयतम भाग के क्षीण होने पर, शेष हे और लोकोत्तर श्रुत भी कभी मिथ्याश्रुत हो जाता है। स्थिति वाले कर्म दलिकों के रहते सम्यग्दर्शन की अंतरायसम्यग्दृष्टि द्वारा परिगृहीत लौकिक श्रुत भी सम्यग्श्रुत और भूत ग्रंथी का भेदन होता है। १. वह दृष्टांत इस प्रकार है-द्वीन्द्रिय आदि प्राणी संज्ञी हैं क्योंकि पुरुष की भांति इष्ट विषय में उनकी प्रवृत्ति और अनिष्ट विषय में उनकी निवृत्ति देखी जाती है। जो संज्ञी नहीं हैं उनकी ऐसी प्रवृत्ति और निवृत्ति नहीं होती, जैसे घट। इसी प्रकार स्थावर जीवों की भी ऐसी प्रवृत्ति और निवृत्ति नहीं होती, अतः वे असंज्ञी हैं। इस प्रकार हेतुवाद के आधार पर संज्ञी और असंज्ञी का कथन किया गया। दृष्टिवादोपदेश के आधार पर कहा जा सकता है कि जो सम्यकदृष्टि हैं वे संज्ञी हैं, शेष सभी मिथ्यादृष्टि असंजी हैं। 'सम्मट्ठिी सन्नी, दिट्ठीवायस्स होति उवएसा। सेसा होति असन्नी, कालिय तह हेउसन्नी।।' Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका = ९४. तिविहं च होइ करणं, अहापवत्तं तु भव्व-ऽभव्वाणं। भवियाण इमे अन्ने, अपुव्वकरणाऽनियट्टी य॥ उस ग्रंथी का भेदन 'करण' (परिणाम विशेष) से होता है। करण के तीन प्रकार हैं। इसमें पहला है यथाप्रवृत्तिकरण। यह भव्य और अभव्य-दोनों प्रकार के जीवों के होता है। भव्य जीवों के ये अन्य दो करण-अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरण भी होते हैं। ९५. जा गंठी ता पढम, गंठिं समतिच्छतो अपव्वं तु। अनियट्टीकरणं पुण, सम्मत्तपुरक्खडे जीवे॥ जब तक ग्रंथी विद्यमान रहती है तब तक प्रथम--यथाप्रवृत्तिकरण रहता है। ग्रंथी का भेदन अपूर्वकरण में होता है। अनिवृत्तिकरण जीव को सम्यक्त्वाभिमुख कर, उसको सम्यक्त्व का लाभ करा देता है। ९६. नदि पह जर वत्थ जले, पिवीलिया पुरिस कोहवा चेव। सम्मइंसणलंभे, एते अट्ठ उ उदाहरणा॥ करणों के आधार पर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में ये आठ उदाहरण हैं-(१) गिरिनदी का प्रस्तर (२) पथ (३) ज्वर (४) वस्त्र (५) जल (६) पिपीलिका (७) पुरुष (८) कोद्रव। (इनका विस्तार आगे की गाथाओं में।) ९७. गिरिसरियपत्थरेहिं, आहरणं होइ पढमए करणे। एवमणाभोगियकरणसिद्धितो खवण जा गंठी॥ पहाड़ी नदी के प्रस्तर का उदाहरण प्रथम करण अर्थात् यथाप्रवृत्तिकरण से संबंधित है। जैसे पहाड़ी नदी के प्रवाह में कुछेक प्रस्तर गोल हो जाते हैं, कुछेक चतुष्कोण आदि आकार के हो जाते हैं। यह सारा स्वतः होता है। इसी प्रकार 'अनाभोगकरणसिद्धि' से अर्थात् बिना किसी स्वेच्छिक प्रयत्न से यथाप्रवृत्तिकरण के प्रभाव से जीव कर्मों की सुदीर्घ स्थिति का इतना क्षय कर देता है कि वह ग्रंथी तक पहुंच जाता है। ९८. उवएसेण सयं वा, नट्ठपहो कोइ मग्गमोतरति। जरितो य ओसहेहिं, पउणइ कोई विणा तेहिं।। सम्यक्त्व का लाभ दो प्रकार से होता है-उपदेश से तथा स्वतः। इसमें पथ का उदाहरण है। कोई व्यक्ति पथ से भटक गया। दूसरे के उपदेश से वह मूल मार्ग पर आ गया। कोई मार्ग से भटक जाने पर स्वतः ऊहापोह कर सही मार्ग को । पकड़ लेता है। कोई ज्वर से पीड़ित व्यक्ति किसी औषधि से ज्वर मुक्त हो जाता है और कोई बिना औषधि के भी रोगमुक्त हो जाता है। ९९. मइल दरसुद्ध सुद्धं, जह वत्थं होइ किंचि सलिलं वा। ___ एसेव य दिट्ठतो, दसणमोहम्मि तिविहम्मि॥ जैसे कोई वस्त्र अथवा पानी मलिन होता है, कोई थोड़ा स्वच्छ होता है और कोई कुछ स्वच्छ होता है। यही दृष्टांत त्रिविध दर्शनमोह विषयक जानना चाहिए। (अपूर्वकरण के कारण कुछ शुद्ध सम्यक्त्व रूप है, थोड़ा शुद्ध सम्यगमिथ्यात्वरूप है और वैसा ही मलिन मिथ्यात्वरूप है।) १००. अहभावेण पसरिया, अपुव्वकरणेण खाणुमारूढा। चिट्ठति तत्थ काई, पिपीलिया काई उड्डुति॥ १०१. पच्चोरुहणट्ठा खाणुआतो चिट्ठति तत्थ एवावि। पक्खविहूणातो पिवीलियातो उड्डुति उ सपक्खा। (प्रश्न है कि अभव्य जीव ग्रंथि के पास कैसे पहुंचते है ? वहां से फिर दूर कैसे हो जाते हैं ? भव्य जीव ग्रंथि का भेदन कर आगे कैसे बढ़ते हैं ? इसमें पिपीलिका का दृष्टांत है-) कुछ पिपीलिकाएं बिल से निकल कर स्वेच्छापूर्वक इधर-उधर घूमने लगीं। कुछ पिपीलिकाएं अपूर्वकरण के द्वारा स्थाणु पर चढ़ गईं। उनमें से कुछ पिपीलिकाएं स्थाणु पर ही ठहर जाती हैं और कुछ पिपीलिकाएं पांखें प्राप्त कर उड़ जाती हैं। कुछ पंखविहीन पिपीलिकाएं स्थाणु से उतरने के लिए वहीं स्थाणु पर ठहर जाती हैं और कुछ नीचे उतर जाती हैं। जिन पिपीलिकाओं के पंख आ जाते हैं, वे उड़ जाती हैं। (पिपीलिकाओं का इधर-उधर घूमना यथाप्रवृत्तिकरण से, स्थाणु पर आरोहण करना अपूर्वकरण से तथा उड़ना अनिवृत्तिकरण से होता है। इसी प्रकार जीव का ग्रंथि के पास गमन यथाप्रवृत्तिकरण से, ग्रंथि-भेदन अपूर्वकरण से तथा सम्यक्त्व प्राप्ति अनिवृत्तिकरण से होती है।) १०२. जह वा तिण्णि मणूसा, सभयं पंथं भएण वच्चंता। वेलाइक्कमतुरिया, वयंति पत्ता य दो चोरा॥ १०३. तत्थेगो उ नियत्तो, एगो थद्धो अतिच्छितो एक्को। कमगति अहापवत्तं, भिन्नेयर धावणं तइए। तीन मनुष्य साथ-साथ एक डरावने मार्ग पर चले। उनका मन भय से आक्रांत था। चलते-चलते वेला बीत न जाए, इसलिए वे तेज चलने लगे। इतने में ही वहां दो चोर आ गए। एक पथिक उनको देखते ही निवृत्त हो गया। दूसरा पथिक वहीं स्तब्ध होकर बैठ गया। तीसरा पथिक दोनों चोरों को पीछे छोड़कर उस स्थान से पलायन कर गया। पहले पुरुष की क्रमगति यथाप्रवृत्तिकरण, दूसरे पथिक का स्तब्ध हो जाना, भय से टूट जाना अपूर्वकरण तथा तीसरे पथिक का पलायन कर जाना अनिवृत्तिकरण है। १०४. एवं संसारीणं, जोए सव्वाइं तिन्नि करणाई। भवसिद्धिसलद्धीण य, पंखालपिवीलिया उवमा॥ इसी प्रकार सभी संसारी जीवों के साथ इन तीनों करणों की योजना करनी चाहिए। पर्वोक्त पंखवाली पिपीलिका Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = =बृहत्कल्पभाष्यम् की उपमा भवसिद्धिक तथा सलब्धिक जीवों के साथ दी ११०. कालेणुवक्कमेण व, जह नासति कोद्दवाण मदभावो। गई है। अहिगमसम्मं नेसग्गियं च तह होइ जीवाणं ।। १०५. दवण जिणवराणं, पूर्य अण्णेण वा वि कज्जेण। जैसे कभी कोद्रवों का मदनभाव-मादकता काल के सुयलंभो उ अभव्वे, हविज्ज थंभेण उवणीए॥ विपाक से नष्ट हो जाता है और कभी उपक्रम-उपाय से (तीन पुरुषों के दृष्टांत में जो पुरुष चोरों को देखकर उनका मदनभाव दूर हो जाता है। उसी प्रकार कुछेक जीवों के स्तब्ध हो गया था, उसके सदृश होता है ग्रंथि के निकट उपक्रम के द्वारा सम्यक्त्व प्राप्त होता है। वह अधिगम स्थित भव्य अथवा अभव्य। वहां संख्येय अथवा असंख्येय सम्यक्त्व होता है। किन्हीं जीवों के काल के परिपाक से स्वतः काल तक रहा जाता है। प्रश्न है वहां स्थित पुरुष के क्या सम्यक्त्व प्राप्त होता है। वह नैसर्गिक सम्यक्त्व होता है। लाभ होता है?) (इसका तात्पर्य है कि किन्हीं जीवों के अधिगम के कारण जिस स्तब्ध पुरुष का दृष्टांत में उपनय है, वह भव्य मिथ्यात्वपुद्गल सम्यक्त्व में बदल जाते हैं और किन्हीं जीवों अथवा अभव्य हो, उसे जिनेश्वर देव की पूजा-अर्चा देखकर के ये मिथ्यात्व के पुद्गल स्वतः बदल जाते हैं।) अथवा अन्य कार्य से श्रुतलाभ होता है। १११. सोऊणं अहिसमेच्च व, करेइ सो वड्डमाणपरिणामो। १०६. सम्मत्तम्मि उ लद्धे, पलियपुहृत्तेण सावगो होज्जा। मिच्छे सम्मामिच्छे, सम्मे वि य पोग्गले समयं॥ चरणोवसम-खयाणं, सागरसंखंतरा होति॥ केवलज्ञानी आदि प्रत्यक्षज्ञानियों से सुनकर अथवा जातिजिसने अनिवृत्तिकरण द्वारा सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया है, स्मृति आदि से सम्यक्त्व को प्रासकर कोई वर्धमान परिणाम वह पल्योपम-पृथक्त्व बीत जाने पर श्रावक होता है। उसके वाला जीव एक साथ मिथ्यात्व पुद्गलों के तीन पुंज कर लेता पश्चात् संख्यात सागरोपम के बीत जाने पर चरणलाभ होता है-मिथ्यात्वपुद्गल, सम्यग्मिथ्यात्वपुद्गल तथा सम्यक्त्व. है। फिर संख्यात सागरोपम बीतने पर उपशमश्रेणी का लाभ पुद्गल। और फिर संख्येय सागरोपम के व्यतीत होने पर क्षपकश्रेणी ११२. मिच्छत्ताओ मीसे, मीसस्स उ होज्ज संकमो दोसुं। और उसी भव में मोक्ष हो जाता है। सम्मे वा मिच्छे वा, सम्मा मिच्छं न पुण मीसं ।। १०७. एवं अप्परिवडिए, सम्मत्ते देव-मणुयजम्मेसु। (पूर्वोक्त पुद्गलों का परस्पर संक्रमण होता है, जैसे-) __ अन्नयरसेढिवज्ज, एगभवेणं च सव्वाइं॥ मिथ्यात्व पुद्गलों का मिश्र में संक्रमण होता है। मिश्र इस प्रकार देव और मनुष्यजन्म में जिनका सम्यक्त्व पुद्गलों का दो में संक्रमण होता है-सम्यक्त्व में तथा अप्रतिपतित रहा है, उनके लिए यह क्रम है। एक भव में ही मिथ्यात्व में। सम्यक्त्वी सम्यक्त्व में तथा मिथ्यात्वी यह सारा क्रम प्राप्त हो जाता है, केवल उपशमश्रेणी और मिथ्यात्व में। सम्यक्त्व से मिथ्यात्व में संक्रमण हो सकता है, क्षपकश्रेणी-दोनों एक साथ एक भव में नहीं हो सकतीं। मिश्र में संक्रमण नहीं होता। १०८. अप्पुव्वेण तिपुंज, मिच्छं काऊण कोद्दवोवमया। ११३. मिच्छत्ताओ अहवा, मीसं सम्मं च कोइ संकमइ। तिन्नि वि अवेययंतो, उवसामगसम्मदिट्ठीओ। मीसाओ वा सम्म, गुणवुड्डी हायतो मिच्छं। कोद्रव दृष्टांत की भांति अपूर्वकरण से मिथ्यात्व के तीन अथवा कोई जीव मिथ्यात्व से मिश्र में या सम्यक्त्व में पुंज कर अनिवृत्तिकरण के द्वारा प्रारंभ में ही क्षायोपशमिक संक्रमण करता है। कोई गुणवृद्धि-परिणामवृद्धिवाला जीव सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है। फिर कालान्तर में वह परिणामों मिश्र से सम्यक्त्व में संक्रमण करता है और हायक हीन के आधार पर मिश्र या मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है। जो परिणाम वाला जीव मिश्र से मिथ्यात्व में संक्रमण करता है। तीनों पुंजों का अवेदन करता है वह उपशमक सम्यक्त्वदृष्टि ११४. मिच्छत्ता संकंती, अविरुद्धा होति सम्म-मीसेसु। कहलाता है। मीसातो वा दुण्णि वि, ण उ सम्मा परिणमे मीसं॥ १०९. जह मयणकोदवा ऊ, दरनिव्वलिया य निव्वलीया य। मिथ्यात्व से सम्यक्त्व और मिश्र में संक्रांति अविरुद्ध है। एमेव मिच्छ मीसं, सम्म वा होति जीवाणं॥ मिश्र से (सम्यकमिथ्यात्व से) सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों कोद्रव तीन प्रकार के होते हैं-मदनकोद्रव, ईषनिर्वलित- में संक्रांति होती है। सम्यक्त्व से मिश्र में परिणमन नहीं होता। कोद्रव (ईषदपगतमदनभाव) और निर्वलितकोद्रव (सर्वथा- ११५. हायंते परिणामे, न कुणति मीसे उ पोग्गले सम्मे। मदनभावरहित)। इसी प्रकार जीव का मिथ्यात्व भी तीन न य सोहिया सि विज्जति केइ जे दाणि वेएज्जा। प्रकार का होता है-मिथ्यात्व, सम्यगमिथ्यात्व और सम्यक्त्व। सम्यग्दर्शन से हीयमान परिणाम वाला व्यक्ति मिश्र Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका पुदगलों को सम्यक्त्व पुद्गल नहीं कर सकता। उसके पास न कोई अन्य शोधित पुद्गल हैं जिनका तब वह वेदन कर सके। अर्थात् अधिकृत सम्यक्त्वपुद्गलों के निष्ठाकाल में वेदन कर सके। ११६. सम्मत्तपोग्गलाणं वेदेडं सो य अंतिमं गासं । पच्छाकडसम्मत्तो, मिच्छत्तं चेव संकमति ॥ सम्यक्त्व पुद्गलों के अंतिम ग्रास का वेदन कर लेने पर तथा वह पश्चात्कृत सम्यक्त्व होकर भी मिथ्यात्व में ही संक्रमण करता है। ११७. मिच्छत्तम्मि अन्खीणे, तेपुंजी सम्मदिट्टिणो नियमा । खीणम्मि उ मिच्छत्ते, दु-एकपुंजी व खवगो वा ॥ जिन सम्यकदृष्टि जीवों का मिध्यात्व क्षीण नहीं हुआ है वे नियमतः त्रिपुंजी होते हैं। मिथ्यात्व के क्षीण हो जाने पर वे द्विपुंजी अथवा एकपुंजी (मिश्रपुंज के क्षीण होने पर) हो जाते हैं। अथवा सम्यक्त्वपुंज का भी क्षय हो जाने पर वे क्षपक हो जाते हैं। ११८. उवसामगसेढिगयस्स होति उवसामियं तु सम्मत्तं । जो वा अकयतिपुंजो, अखवियमिच्छो लहइ सम्मं ॥ उपशम श्रेणीगत व्यक्ति में औपशमिक सम्यक्त्व होता है। अथवा जिसने पुंजत्रय नहीं किया है, अक्षपित मिथ्यात्व वाले व्यक्ति का भी औपशमिक सम्यक्त्व होता है। ११९. वाही सव्वछिन्नो, कालाविक्खंकुरु व्व ददुमो । उवसामगाण दोण्ह वि, एते खलु होंति दिट्टंता ॥ जो व्याधि सर्वथा छिन्न नहीं हुई है, वह कालान्तर में पुनः उद्भूत हो जाती है। दग्ध वृक्ष भी कालान्तर में पुनः अंकुरित हो जाता है। उसी प्रकार उपशांत मिथ्यात्व भी कालान्तर के बाद पुनः उद्भूत हो जाता है। अतः दोनों उपशमकों (११८ श्लोकमत) से संबंधित ये दोनों दृष्टांत हैं (उपशमश्रेणीगत औपशमिकदर्शनी का प्रतिपात देशतः अथवा सर्वतः होता है। औपशमिकदर्शनी का अवश्य ही सर्वप्रतिपात होता है। वह मिथ्यात्व को प्राप्त होता है।) १२०. आलंबणमलहंती, जह सद्वाणं न मुंचए इलिया। एवं अकयतिपुंजो, मिच्छं चिय उवसमी एति ॥ इलिका तृण के सहारे ऊपर चढ़ी। तृण के अग्रभाग तक वह चढ़ी, परंतु आगे आलंबन न होने के कारण वह अपने मूल स्थान पर आ गई, उसे नहीं छोड़ती। इसी प्रकार जो मिध्यात्व के तीन पुंज नहीं करता, वह उपशमी पुनः मिथ्यात्व को ही प्राप्त करता है। १. क्या सम्यक्त्व लाभ के समय श्रुत अज्ञान रहता है ? यदि हां तो मिथ्यादृष्टित्व का प्रसंग आएगा। यदि नहीं तो श्रुत अज्ञान भी केवल आभिनिबोधिकज्ञानी के होगा। यह उपयुक्त नहीं है। क्योंकि १५ १२१. खीणम्मि उदिन्नम्मी, अणुइज्जते य सेसमिच्छते। अंतोमुहुत्तकालं उवसमसम्म लहइ जीवो ॥ जो मिथ्यात्व उदयावलिका में प्रविष्ट हुआ है, उसके क्षीण हो जाने पर और शेष मिथ्यात्व का अनुदय होने पर जीव को अंतर्मुहूर्त काल का औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है (इसका कारण है मिध्यात्वदर्शन के वेदन का अभाव।) १२२. ऊसरदेसं वल्लयं च विन्झाह वणदवो पप्प | इय मिच्छस्स अणुदए, उवसमसम्मं मुणेयव्वं ॥ वनप्रवेश का दब वनाग्नि ऊपर प्रवेश को प्राप्त कर बुझ जाती है। इसी प्रकार मिध्यात्व के अनुदय से औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति जाननी चाहिए। १२३. जिम्हीभवंति उदया, कम्माणं अत्थि सुत्त उवदेसो । उपवायादी सायं, जह नेरइया अणुभवति ॥ दोनों प्रकार के औपशमिक सम्यकदृष्टि जीवों के शेष कर्मों का उदय भी निष्प्रभ हो जाता है। सूत्र का यह उपदेश है. जैसे नैरयिक जीव उपपात आदि में साता का अनुभव करते हैं। १२४. उबवाएण व सायं, नेरहओ देवकम्मुणा वा वि। अज्झवसाणनिमित्तं, अहवा कम्माणुभावेणं ॥ नैरयिक जीव (१) उपपात के अवसर पर (२) देवता द्वारा वेदना का उपशमन कर दिए जाने पर, (३) तथाविध शुभ अध्यवसान के निमित्त तथा (४) कर्मों के तथाविध अनुभाव के कारण साता का अनुभव करते हैं। १२५. विभंगी उ परिणमं, सम्मत्तं लहति मति - सुतोहीणि । तइभावम्मि मति - सुते, सुतलंभं केइ उ भयंति । विभंगज्ञानी सम्यक्त्व का परिणमन करता हुआ मति, श्रुत और अवधिज्ञान को प्राप्त करता है। विभंग के अभाव में मिथ्यादर्शनी सम्यक्त्व का परिणमन करता हुआ मति और श्रुत इन दो ज्ञानों को प्राप्त करता है। कुछेक जीवों में श्रुतलाभ की भजना है-विकल्प है। जिन्होंने श्रुत का अध्ययन किया है उन्हें श्रुतज्ञान होता है, दूसरों को नहीं । १२६. अन्नाण मती मिच्छे, जढम्मि मतिणाणतं जहा एइ | एमेव य सुयलंभो, सुयअन्नाणे परिणयग्मि ॥ मिथ्यात्व के त्यक्त होने पर मति अज्ञान मतिज्ञान में परिणत हो जाता है। इसी प्रकार श्रुत- अज्ञान के परिणत ( अपगत) होने पर श्रुतलाभ हो जाता है। ' १२७. उवसमसम्मा पडमाणतो उ मिच्छत्तसंकमणकाले । सासायणो छावलितो भूमिमपत्तो व पवडतो ॥ श्रुतज्ञान के बिना केवल आभिनिबोधिकज्ञान का अभाव होता है। कहा है-जत्थ मतिनाणं तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुयनाणं तत्थ मतिनाणं । दोवि एयाइं अण्णोष्णमणुगयाई' इति । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ मिथ्यात्व में संक्रमणकाल में उपशम सम्यक्त्व से गिरता हुआ जीव अभी भूमी को अप्राप्त है, अपान्तराल में है, ( उपशमसम्यक्त्व से गिर चुका है, परन्तु अभी तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हुआ है) उसमें जघन्यतः एक सामयिक और उत्कर्षतः षट आवलिक सास्वादन सम्यक्त्व होता है। १२८. आसदेउं व गुलं, ओहीरंतो न सुट्टु जा सुयति ॥ सं आयं सायंतो सस्सादो वा वि सासाणो ॥ प्रश्न होता है, जो उपशमसम्यक्त्व से च्युत हो गया है। उसे सम्यग्दृष्टि कैसे कहा जा सकता है ? कोई व्यक्ति गुड़ का आस्वाद लेकर सो गया। परन्तु अभी तक वह अच्छी तरह नींद नहीं ले पाया है, उसे तब भी गुड़ की मधुरता का स्वाद आता है। इसी प्रकार उपशमसम्यक्त्व से च्युत व्यक्ति को भी, मिथ्यात्व की अप्राप्ति तक उपरामगुण का वेदन होता है। सास्वादन शब्द की व्युत्पत्ति - 'सं आयं सायंतो, सस्सादो वा वि सासाणो अपनी आय प्राप्ति का आस्वादन अर्थात् अव्यक्त उपशमगुण का स्वादसहित अनुभव। वह है सास्वादन | १२९. जो उ उदिने खीणे, मिच्छे अणुदिन्नगम्मि उवसंते। सम्मीभावपरिणतो, वेयंतो पोग्गले मीसो ॥ जो मिध्यात्व के दलिक उदयप्राप्त हैं, उनको क्षीण कर तथा जो उदयप्राप्त नहीं हैं उनका उपशमन कर अर्थात् किंचित् सम्यक्त्वरूप में परिणत कर और किंचित् मूल मिथ्यात्वरूप में ही स्थित ऐसी अवस्था में सम्यक्त्वरूप में परिणत पुद्गलों का वेदन करने वाला मिश्र अर्थात् क्षायोपशमिक सम्यदृष्टि होता है। १३०. जो चरमपोग्गले पुण, वेदेती वेयगं तयं बिंति । केसिंचि अणादेसो, बेयगदिडी खओवसमो ॥ (जो दर्शनसप्तक को क्षीण कर चुका है और जो अनन्तरसमय में शायक सम्यक्त्वी होने वाला है उस समय वह जो सम्यग्दर्शन के चरम पुद्गलों का वेदन करता है, उस व्यक्ति के चरमपुद्गलों का वेदन वेदकसम्यक्त्व कहलाता है। कोई अर्थात् बोटिक आदि यह मानते हैं कि वेदकदृष्टि अर्थात् वेदकसम्यक्त्व क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि है। परन्तु यह मान्यता अनादेश है, उचित नहीं है। । १३१. दंसणमोहे खीणे, खयदिट्ठी होइ निरवसेसम्मि केण उ सम्मो मोहो, पडुच्च पुव्वं तु पण्णवणं ॥ दर्शनमोह के सम्पूर्णरूप से क्षीण होने पर क्षयदृष्टि अर्थात् क्षायक सम्यक्त्व प्राप्त होता है। १. निर्मदनीकृतकोद्रवों का ओदन भी मदनकोद्रवओदन कहलाता है। क्योंकि पूर्व में वे मदनयुक्त थे। इसी प्रकार सम्यक्त्व के वे पुदगल भी बृहत्कल्पभाष्यम् प्रश्न होता है कि मिध्यात्वदर्शन मोह हो सकता है, परंतु सम्यक्दर्शन मोह कैसे हो सकता है? आचार्य कहते हैं- पूर्व प्रज्ञापना के आधार पर ऐसा कहा गया है। १३२. चोद्दस दस य अभिन्ने, नियमा सम्मं तु सेसए भयणा । मति - ओहिविवच्चासो, वि होति मिच्छे ण उण सेसे ॥ चौदहपूर्वी से अभिन्नदशपूर्वी पर्यन्त - इनमें नियमतः सम्यक्त्व होता है। शेष अर्थात् किंचित् न्यून दशपूर्वधर आदि में उसकी भजना है- सम्यक्त्व भी हो सकता है और मिथ्यात्व भी मतिज्ञान और अवधिज्ञान के मिथ्यात्व में विपर्यास भी होता है, जैसे मतिज्ञान का मतिअज्ञान और अवधिज्ञान का विभंग अज्ञान । श्रुतज्ञान का विपर्यास पहले बताया जा चुका है। शेष अर्थात मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान में विपर्यास नहीं होता। १३३. दंसणमोग्गह ईहा नाणमवातो उ धारणा जह उ तह तत्तरुई सम्मं रोइज्जह जेण तं नाणं ॥ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में कौन विशेष है ? अवग्रह और ईहा दर्शन है तथा अवाय और धारणा ज्ञान है। दर्शन सामान्यावबोधात्मक होता है और ज्ञान विशेषबोधात्मक होता है जो तत्त्वों की जानकारी है वह सम्यग्ज्ञान है और जो तत्त्वों में रुचि है, श्रद्धा है, वह सम्यग्दर्शन है। वह ज्ञान को रुच्यात्मक बनाता है। १३४. सोच्चा व अभिसमेच्च व तत्तरुई चेव होइ सम्मत्तं । तत्थेव य जा विरुई, इतरत्थ रुई य मिच्छत्तं ॥ केवली आदि से सुनकर अथवा जातिस्मरण आदि से जानकर जो तत्त्व के प्रति रुचि होती है वह सम्यक्त्व है। तत्त्व में विरुचि और इतर अर्थात् अतत्त्व में रुचि होना मिथ्यात्व है। १३५. अब्वोच्छित्तिनयद्वा एवं तु अणाश्यं जहा लोए । वोच्छेयनया सादी, पप्प गईतो जहा जीवो ॥ अव्यवच्छित्तिनय (द्रव्यास्तिकनय) के मत के अनुसार श्रुतज्ञान अनादि है और अनंत है, जैसे लोक व्यवच्छेदनय (पर्यायास्तिकनय) के अनुसार श्रुतज्ञान सादि-आदिसहित और अंतसहित होता है, जैसे गति (देवगति नरकगति आदि) को प्राप्त जीव १२६. दव्वाहच वा, पडुच्च सादी व होज्जऽणादी वा , दव्यम्मि एमपुरिसं पडुच्च सादी सनिहणं च ॥ द्रव्य आदि चतुष्क द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आधार पर श्रुतज्ञान सादि अथवा अनादि हो सकता है। द्रव्य में अर्थात एक पुरुष की अपेक्षा से श्रुतज्ञान सावि और सान्त है। पूर्व में मिथ्यात्व के पुद्गल थे। वे दर्शनमोहक थे। अतः पूर्वभाव की प्रज्ञापना के अनुसार उन्हें दर्शनमोह कहा गया है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका १३७. पणगं खलु पडिवाए, तत्थेगो देवभावमासज्ज। वर्ण आदि अर्थात् वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, संस्थान ये मणुये रोग-पमाया, केवल-मिच्छत्तगमणे वा॥ प्रज्ञापनीय भाव हैं। इनकी प्रज्ञापना में श्रुतज्ञान भी उस-उस पांच स्थानों से श्रुतज्ञान का प्रतिपात होता है रूप में परिणत होता है, अतः वह सादि-सपर्यवसित है। (१) देवभाव से (२) रोग से मनुष्य का (३) प्रमाद से १४२. दव्वे नाणापुरिसे, खेत्ते विदेहाई कालो जो तेसु। मनुष्य का (४) कैवल्य से (५) मिथ्यात्वगमन। खयउवसम भावम्मि य, सुयनाणं वट्टए सययं ।। १३८. चउदसपुव्वी मणुओ, देवत्ते तं न संभरइ सव्वं। द्रव्यतः अर्थात् अनेक पुरुषों की अपेक्षा से, क्षेत्रतः देसम्मि होइ भयणा, सट्ठाणभवे वि भयणा उ॥ अर्थात् पांच महाविदेह में, कालतः अर्थात् उन्हीं क्षेत्रों में काल कोई चतुर्दशपूर्वी मनुष्य देवत्व को प्राप्त हुआ। उसे सारा की अपेक्षा से तथा भावतः अर्थात् क्षयोपशमभाव से श्रुतज्ञान श्रुत स्मृति में नहीं रहता। उस श्रुत की आंशिक स्मृति में सतत सर्वकाल में रहता है। इस प्रकार श्रुतज्ञान अनादि भजना है, विकल्प है। कुछ याद रहता है और कुछ नहीं। और अपर्यवसित है। मनुष्यभव में उस श्रुत की भजना है। प्रमाद के कारण भी १४३. भंग-गणियादि गमियं, जं सरिसगमं च कारणवसेणं। भजना है। केवलज्ञान होने पर श्रुतज्ञान का क्षय हो जाता है। गाहादि अगमियं खलु, कालिय तह दिट्ठिवाए य॥ मिथ्यादर्शन में जाने से सर्वश्रुत का अभाव हो जाता है। दृष्टिवाद गमिक है और कालिकश्रुत अगमिक है-यह १३९. नियमा सुयं तु जीवो, जीवे भयणा उ तीसु ठाणेसु। बहुलता की अपेक्षा से कहा जाता है। सुयनाणि सुयअनाणी, केवलनाणी व सो होज्जा॥ कालिकश्रुत और दृष्टिवाद में भंग-चतुभंगी आदि, श्रुत नियमतः जीव है। तीन स्थानों के आधार पर श्रुत की गणित आदि (आदि शब्द से क्रियाविशाल पूर्व में जो छंद कहे जीव में भजना है, विकल्पना है। वे तीन स्थान ये हैं-जीव कभी गए हैं, वे) तथा सदृशगम का ग्रहण किया गया है। तथा श्रुतज्ञानी होता है, कदाचित् श्रुत अज्ञानी और कदाचित कारणवश से अर्थात् अर्थवश से जो सदृशगम (जैसे निशीथ केवलज्ञानी। का बीसवां उद्देशक) है, वह गमिक है। शेष गाथा, श्लोक १४०. खित्ते भरहेरवए, काले उ समातो दोण्णि तत्थेव।। आदि अगमिक हैं। भावे पुण पण्णवगं, पण्णवणिज्जे य आसज्जा॥ १४४. गणहर-थेरकयं वा, आदेसा मुक्कवागरणतो वा। क्षेत्रतः पांच भरत और पांच ऐरावत में, कालतः उन्हीं धुव-चलविसेसतो वा, अंगा-ऽणंगेसु णाणत्तं॥ क्षेत्रों में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी-इन दो कालों में श्रुत जो श्रुत गणधरकृत है वह अंगप्रविष्ट है। जो श्रुत सादि और सपर्यवसित होता है अर्थात जब तक तीर्थंकरों के स्थविरों द्वारा रचित अथवा अंगों से नियूंढ है, जो आदेश हैं तीर्थ की अनुवृत्ति होती है तब तक श्रुत होता है, शेष काल में अर्थात् विषय संबंधी भिन्न-भिन्न मान्यताएं हैं, जो मुक्त नहीं। व्याकरण अर्थात् स्फुट वचन हैं-ये सारे अनंगप्रविष्ट हैं। भावतः प्रज्ञापक तथा प्रज्ञापनीय भावों के आधार पर श्रुत अथवा ध्रुव और चल की अपेक्षा से अंग और अनंग में सादि और पर्यवसित होता है। नानात्व है। अंग ध्रुव हैं और अनंग अध्रुव अर्थात् चल। १४१. उवयोग-सर-पयत्ता, ठाणविसेसा य हुति पण्णवगे। (द्वादशांग ध्रुव है क्योंकि उसका नियमतः नि!हण होता है। गति-ठाण-भेय-संघाय-वन्नमादी य भावम्मि॥ प्रकीर्णक चल हैं क्योंकि उनका कदाचित निर्यहण होता है प्रज्ञापक के आधार पर श्रुत सादि और सपर्यवसित होता और कदाचित् नहीं। वे अनंगप्रविष्ट हैं।) है, जैसे प्रज्ञापक का उपयोग कभी शुभ और कभी अशुभ १४५. जइ वि य भूयावादे, सव्वस्स वयोगयस्स ओयारो। होता है। उसका स्वर कभी उदात्त, कभी अनुदात्त और कभी निज्जूहणा तहा वि य, दुम्मेहे पप्प इत्थी य॥ त्वरित होता है। उसका प्रयत्न कभी एक समान नहीं रहता। यद्यपि 'भूतवाद' अर्थात् दृष्टिवाद में समस्त वचनगत स्थानविशेष अर्थात् आसन विशेष के आधार पर भावों का (श्रुत का) अवतरण है, फिर मंदबुद्धि वाले पुरुषों तथा स्त्रियों उत्पाद और विनाश होता है। को ध्यान में रखकर शेष अंगों तथा अनंगों का निर्वृहण किया प्रज्ञापनीय भावों के आधार पर श्रुत सादि और गया है। (यह स्पष्ट है कि प्रज्ञावती स्त्रियां भी दृष्टिवाद का सपर्यवसित होता है, जैसे-गति अर्थात् गति में सहायभूत पठन नहीं करतीं। क्योंकि-) धर्मास्तिकाय, स्थान अर्थात् स्थिति में सहायभूत अधर्मास्ति- १४६. तुच्छा गारवबहुला, चलिंदिया दुब्बला य धीईए। काय, पुद्गलस्कंधों का भेद, पुद्गलों का संघात, पुद्गलों के इति अतिसेसज्झयणा, भूयावादो उ नो थीणं ।। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =बृहत्कल्पभाष्यम् अतिशेष अर्थात् अतिशायी अध्ययन (महापरिज्ञा, स्वामित्व, करण तथा अधिकरण-इनसे एक (एक वचन) अरुणोपपात आदि) तथा भूतवाद--दृष्टिवाद का अध्ययन अथवा बहुत्व (बहुवचन) के आधार पर नाम और स्थापना स्त्रियों के लिए अनुज्ञात नहीं है। क्योंकि स्त्रियां तुच्छ, अनुयोग के अतिरिक्त शेष अनुयोगों का प्रत्येक के छह-छह गौरवबहुल, अस्थिर इन्द्रियों वाली तथा धृति से दुर्बल होती हैं। भेद होते हैं। जैसे-द्रव्य का, द्रव्यों का, द्रव्य से, द्रव्यों से, १४७. सुणतीति सुयं तेणं, सवणं पुण अक्खरेयरं चेव। द्रव्य में तथा द्रव्यों में अनुयोग द्रव्यानुयोग है। इसी प्रकार तेणऽक्खरेयरं वा, सुयनाणे होति पुव्वं तु॥ क्षेत्र, काल, वचन तथा भाव अनुयोगों के (प्रत्येक के) छह__ जो सुना जाता है वह श्रुत है। श्रवण अक्षर का भी होता छह भेद होते हैं। है और अनक्षर का भी होता है। इसलिए श्रुतज्ञान की १५३. दव्वस्स उ अणुओगो, जीवहव्वस्स वा अजीवस्स। प्ररूपणा में पहले अक्षर तथा अनक्षर (अक्षरश्रुत तथा एक्केक्कम्मि य भेया, हवंति दव्वाइया चउरो॥ अनक्षरश्रुत) का ग्रहण किया गया है। द्रव्यानुयोग दो प्रकार का है-जीव द्रव्य का तथा अजीव १४८. इत्थं पुण अहिगारो, सुयनाणेणं जतो हवति तेणं। द्रव्य का। प्रत्येक द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से चार-चार सेसाणमप्पणो वि य, अणुवयोग पईव दिळंतो।। प्रकार का होता है। मंगल के निमित्त पांच ज्ञानों की प्ररूपणा की गई थी। १५४. दव्वेणिक्वं दव्वं, संखातीतप्पदेसमोगाढं। उनमें भी श्रुतज्ञान का अधिकार है, प्रसंग है। क्योंकि काले अणादिनिहणं, भावे नाणाइयाऽणंता॥ श्रुतज्ञान से ही शेष ज्ञानों का तथा अनुयोग का कथन होता द्रव्य से जीव द्रव्य एक है, क्षेत्र से असंख्यप्रदेशावगाढ है। यहां प्रदीप का दृष्टांत वक्तव्य है। (जैसे प्रदीप घट आदि है, कालतः अनादि अनंत तथा भावतः ज्ञान आदि पर्याय पदार्थों का तथा स्वयं का प्रकाशक होता है वैसे ही श्रुतज्ञान अनंत है। जैसे-अनंत ज्ञानपर्याय, अनंत दर्शनपर्याय, अनंत शेष ज्ञानों तथा स्वयं का अनुयोग कारक है।) चारित्रपर्याय तथा अनंत अगुरुलघुपर्याय। १४९. निक्खेवेगट्ठ निरुत्त विहि पवित्ती य केण वा कस्स। १५५. एमेव अजीवस्स वि, परमाणू दव्वमेगदव्वं तु। तहार भेय लक्खण, तदरिह परिसा य सुत्तत्थो। खेत्ते एगपएसे, ओगाढो सो भवे नियमा। अनुयोग का निक्षेप, एकार्थक, निरुक्त, विधि, प्रवृत्ति, कौन १५६. समयाइ ठिति असंखा, ओसप्पिणीओ हवंति कालम्मि अनुयोग करे, किसका अनुयोग, अनुयोग के द्वार, उनके भेद, वण्णादि भावऽणंता, एवं दुपदेसमादी वि॥ सूत्र का लक्षण, उस सूत्र के योग्य, परिषद् तथा सूत्रार्थ यह इसी प्रकार अजीव द्रव्य का भी अनुयोग कहना चाहिए। द्वारगाथा का शब्दार्थ है। विस्तार आगे की गाथाओं में। जैसे परमाणु द्रव्यतः एक है, क्षेत्रतः नियमतः एक १५०. निक्खेवो नासो त्ति य, एगटुं सो उ कस्स निक्खेवो। प्रदेशावगाढ़ है, कालतः जघन्य स्थिति एक आदि समय तथा अणुओगस्स भगवओ, तस्स इमे वन्निया भेया॥ उत्कृष्टतः असंख्य अवसर्पिणीया-उत्सर्पिणीया होती हैं। निक्षेप और न्यास एकार्थक हैं। वह निक्षेप किसका करना भावतः उनमें अनंत वर्णपर्यव, अनंत गंधपर्यव, यावत् अनंत चाहिए? आचार्य कहते हैं भगवान अनुयोग का निक्षेप करना स्पर्शपर्यव होते हैं। इसी प्रकार द्विप्रदेशी आदि स्कंधों में चाहिए। उसके ये भेद वर्णित हैं। होता है। १५१. नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले य वयण भावे य। १५७. दव्वाणं अणुयोगो, जीवमजीवाण पज्जवा नेया। एसो अणुओगस्स उ, निक्खेवो होइ सत्तविहो। तत्थ वि य मग्गणाओ, णेगा सट्ठाण परठाणे॥ अनुयोग का यह सात प्रकार का निक्षेप होता है दो प्रकार के द्रव्यों का अनुयोग होता है-जीव द्रव्य का १. नामानुयोग ५. कालानुयोग और अजीव द्रव्य का। ये द्रव्य पर्यायात्मक होते हैं। उनको २. स्थापनानुयोग ६. वचनानुयोग जानना चाहिए। स्वस्थान और परस्थान में उन पर्यायों की ३. द्रव्यानुयोग ७. भावानुयोग। मार्गणा अनेक होती हैं।' ४. क्षेत्रानुयोग १५८. वत्तीए अक्खेण व, करंगुलादीण वा वि दव्वेण। १५२. सामित्त-करण-अहिगरणतो य एगत्त तह पुहत्ते य। अक्खेहि उ दव्वेहिं, अहिगरणे कप्प कप्पेसु॥ नामं ठवणा मोत्तुं, इति दव्वादीण छब्भेया॥ वर्ती (खटिका) की शलाका, अक्ष अथवा अंगुली से जो १. नैरयिक और असुरकुमार देवों के पर्याय अनन्त हैं। प्रश्न है, यह किस लोकाकाशप्रदेश तुल्यप्रदेशवाले होने के कारण। स्थिति से आधार पर कहा जाता है? दोनों द्रव्यार्थतया तुल्य हैं, प्रत्येक एक चतुःस्थानपतित, भावतः षट्स्थानपतित-इनमें दोनों तुल्य हैं। द्रव्य होने के कारण। प्रदेशार्थतया भी तुल्य हैं, प्रत्येक इसलिए दोनों में प्रत्येक के पर्याय अनन्त हैं आदि (व.प्र. ४८) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका अनुयोग किया जाता है वह द्रव्य से अनुयोग है। अनेक अक्षों से किया गया अनुयोग द्रव्यों से अनुयोग है। एक कल्प में स्थित होकर अनुयोग करना यह अधिकरण अर्थात् एक द्रव्य में होने वाला अनुयोग है। अनेक कल्पों में स्थित होकर अनुयोग करना यह द्रव्यों में होने वाला अनुयोग है। १५९. पन्नत्ति जंबुदीवे, खित्तस्सेमादि होइ अणुयोगो। __खित्ताणं अणुयोगो, दीवसमुदाण पन्नत्ती॥ जंबूद्वीप की प्रज्ञप्ति अथवा अन्य द्वीप की प्रज्ञप्ति-यह क्षेत्र का अनुयोग है। क्षेत्रों का अनुयोग-द्वीपसागरप्रज्ञप्ति अर्थात् अनेक द्वीपों और समुद्रों की प्रज्ञप्ति। १६०. जंबुद्दीवपमाणं, पुढविजियाणं तु पत्थयं काउं। . एवं मविज्जमाणा, हवंति लोका असंखिज्जा। पृथ्वीकायिक जीवों को मापने के लिए जंबूद्वीप प्रमाण का प्रस्थक बना कर पृथ्वीकायिक जीवों को माप-मापकर अलोक में फेंका जाए तो असंख्येय लोक होते हैं अर्थात् असंख्येय लोकाकाशप्रमाण अलोक खंड को पूरित करते हैं। (यह क्षेत्र से अनुयोग है।) १६१. ख्रित्तेहिं बहू दीवे, पुढविजियाणं तु पत्थयं काउं। एवं मविज्जमाणा, हवंति लोका असंखिज्जा॥ पृथ्वीकायिक को मापने के लिए 'बहु' अर्थात् तीन आदि द्वीपों का प्रस्थक बनाकर पृथ्वीकायिक जीवों को मापमापकर अलोक में फेंका जाए तो असंख्य लोक होते हैं अर्थात असंख्येय लोकाकाश प्रमाण अलोक खंड को पूरित करते हैं। (यह क्षेत्रों से अनुयोग है।) १६२. खित्तम्मि उ अणुयोगो, तिरियलोगम्मि जम्मि वा खेत्ते। ___ अड्डाइयदीवेसुं, अद्धछवीसाएँ खित्तेसु॥ क्षेत्र में अनुयोग, जैसे तिर्यक् लोक में अनुयोग जिस ग्राम, नगर अथवा उपाश्रय में अनुयोग। क्षेत्रों में अनुयोग जैसे-ढाई द्वीपों में अनुयोग अथवा साढा पचीस (२५) आर्य क्षेत्रों में अनुयोग। १. वायुकायिक जीवों के वैक्रियशरीर के अपहार का कालमानपल्योपम का असंख्येय भाग। शेष कायिक जीवों का-बद्ध औदारिक शरीर का, असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालमान में, अपहार। २. वचन के सोलह प्रकार 'लिंगतियं वयणतियं, कालतियं तह परुक्ख पच्चक्खं। उवणय, वणयचउक्कं, अज्झत्थिययं तु सोलसमं॥ जैसे (१-३) लिंग तीन-स्त्री, पुरुष, नपुंसक। (४-६) वचन तीन-एकवचन, द्विवचन, बहुवचन। (७-९) काल तीन-अतीत, वर्तमान, अनागत। १६३. कालस्स समयरूवण, कालाण तदादि जाव सव्वद्धा। कालेणऽणिलवहारो, कालेहि उ सेसकायाणं ।। काल का अनुयोग-समय की प्ररूपणा। कालों का अनुयोग-समयों अर्थात् समय, आवलिका आदि से समस्त काल (सर्वाद्धा) पर्यन्त। काल से अनुयोग, जैसे वायुकायिक जीवों का अपहार। कालों से-शेष कायिक जीवों का अपहार।' १६४. कालम्मि बिइयपोरिसि, समासु तिसु दोसु वा वि कालेसु। वयणस्सेगवयाई, वयणाणं सोलसण्हं तु॥ काल में अनुयोग, जैसे दूसरी पौरुषी में। कालों में अनुयोग, जैसे-अवसर्पिणी के तीन अरों में सुषमदुःषमा में, दुःषमसुषमा में, दुःषमा में तथा उत्सर्पिणी के दो अरों में-दुःषमसुषमा में तथा सुषमादुःषमा में। (छह प्रकार का कालानुयोग समाप्त)। वचन का अनुयोग-एक वचन, द्विवचन, बहुवचन। सोलह वचनों का अनुयोग। १६५. वयणेणाऽऽयरियाई, इक्केणुत्तो बहूहि वयणेहि। वयणे खओवसमिए, वयणेसु उ णत्थि अणुओगो।। वचन से अनुयोग-किसी आचार्य ने, भिक्षु ने अथवा श्रावक ने किसी आचार्य से कहा-'अनुयोग करो।' वह अनुयोग करता है। वचनों से अनुयोग, जैसे अनेक आचार्यों ने कहा-अनुयोग करो। वह अनुयोग करता है। क्षायोपशमिक वचन में स्थित का अनुयोग, वचन में अनुयोग है। उसके वचनों में अनुयोग नहीं होता, क्योंकि क्षायोपशमिक भाव का सर्वत्र एकत्व होता है, बहूत्व नहीं होता। १६६. भावस्सेगतरस्स उ, अणुयोगो जो जहट्टिओ भावो। दोमाइसन्निकासे, अणुयोगो होति भावाणं ।। औदयिक आदि भावों में से किसी एक में यथास्थित भाव है, उसका कथन भावानुयोग है। दो आदि भावों के संयोग में जितने विकल्प होते हैं, उनका कथन करना भावानुयोग है। १६७. भावेण संगहाईअन्नयरेणं दुगाइभावेहि। भावम्मि खओवसमे, भावेसु य नत्थि अणुयोगो॥ (१०) परोक्ष-जैसे वह। (११) प्रत्यक्ष-जैसे यह। उपनय वचन-स्तुति वचन। अपनय वचन-निन्दावचन । (१२) रूपवती स्त्री-उपनय वचन (१३) कुरूप स्त्री-अपनयवचन। (१४) रूपवती स्त्री किन्तु दुःशीला-उपनय-अपनय वचन। (१५) कुरूप स्त्री किन्तु सुशीला-अपनय-उपनय बचन। (१६) अध्यात्म वचन-जो मन में हो वही कहना। (बृ. पृ. ५०) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० बृहत्कल्पभाष्यम् एकाच संग्रहार्थता आदि पांच भावों में से किसी एक भाव से अनुयोग करना भाव से अनुयोग है। इन पांचों में से दो-तीन भावों से अनुयोग करना भावों से अनुयोग है। भाव में अनुयोग-क्षायोपशमिक भाव में। भावों में अनुयोग नहीं है, क्योंकि क्षायोपशमिक भाव का एकत्व ही है। १६८. अहवा आयाराइसु, भावेसु उ एस होइ अणुओगो। सामित्तं आसज्ज व, परिणामेसुं बहुविहेसुं॥ अथवा भावों में यह अनुयोग होता है, जैसे-आयारो आदि द्वादशांगों में जो भाव हैं, उनमें अनुयोग-भावों में अनुयोग है। अथवा स्वामित्व की अपेक्षा से बहुत परिणाम हैं, उनमें अनुयोग होना, अथवा क्षायोपशमिक भाव भी क्षण-क्षण में बहुविध होता है, उनमें व्यवस्थित की व्याख्या करना भावों में अनुयोग है। १६९. दव्वे नियमा भावो, न विणा ते यावि खित्त-कालेहि। खित्ते तिण्ह वि भयणा, कालो भयणाय तीसुं पि॥ (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का परस्पर समवतार कैसे?) द्रव्य में नियमतः भाव है। भाव के बिना द्रव्य नहीं होते। द्रव्य और भाव क्षेत्र और काल के बिना नहीं होते। क्षेत्र में द्रव्य, काल और भाव-इन तीनों की भजना है। उसमें काल समयक्षेत्र में होता है, अन्यत्र नहीं। इस प्रकार उसकी भजना है। द्रव्य और भाव भी लोकाकाश में होते हैं, अलोक में नहीं। इनकी भी भजना है। १७०. आधारो आधेयं, च होइ दव्वं तहेव भावो य। खित्तं पुण आधारो, कालो नियमा उ आधेयो॥ द्रव्य और भाव आधार और आधेय-दोनों होते हैं। द्रव्य भाव का आधार है और क्षेत्र का आधेय है। भाव काल का आधार है और द्रव्य का आधेय है। काल नियमतः आधेय होता है। उसका द्रव्य, क्षेत्र और भाव में अवस्थान होता है। १७१. वत्स(च्छ)ग गोणी खुज्जा, सज्झाए चेव बहिरउल्लावे। गामिल्लए य वयणे, सत्तेव य हुंति भावम्मिह॥ वत्स, गाय, कुब्जा, स्वाध्याय, बधिरोल्लाप, ग्रामेयक, वचन-ये द्रव्य संबंधी सात उदाहरण हैं। १७२. सावगभज्जा सत्तवइए य कुंकणगदारए नउले। कमलामेला संबस्स साहसं सेणिए कोवो॥ श्रावकभार्या, 'साप्तपदिक, कोंकणकदारक, नकुलक, कमलामेला, शंब का साहस, श्रेणिक का कोप-ये भाव संबंधी सात उदाहरण हैं। १७३. बंधाणुलोमया खलु, सुत्तम्मि य लाघवं असम्मोहो। सत्थगुणदीवणा वि य, एगट्ठगुणा हवंतेए॥ एकार्थिकों के प्रयोग से होने वाले ये गुण हैंबंधानुलोमता, सूत्र में लाघवता, असम्मोह-असंदिग्धता, शास्ता के गुणों का उद्दीपन। १७४. सुय सुत्त गंथ सिद्धंत सासणे आण वयण उवएसो। पण्णवणमागमे इय, एगट्ठा पज्जवा सुत्ते॥ श्रुत, सूत्र, ग्रंथ, सिद्धांत, शासन, आज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापना और आगम-ये सूत्र के दश पर्याय-एकार्थक हैं। १७५. दव्वसुयं पत्तग-पुत्थएसु जं पढइ वा अणुवउत्तो। आगम-नोआगमओ, भावसुयं होइ दुविहं तु॥ १७६. आगमओ सुयनाणी, सुओवउत्तो य होई भावसुयं । सो सुयभावाऽणन्नो, सुयमवि उवओगओऽणन्नं ।। द्रव्यश्रुत है-पत्रक, पुस्तकों में न्यस्त श्रुत तथा जो उनको अनुपयुक्त होकर पढ़ता है वह। भावश्रुत के दो प्रकार हैं-आगमतः और नोआगमतः। आगमतः भावश्रुत है श्रुतोपयुक्त अर्थात् श्रुतज्ञानोपयोगवान् श्रुतज्ञानी। वह श्रुतज्ञानी श्रुतभाव से अनन्य है तथा श्रुत भी उपयोग से अनन्य है। १७७. जं तं दुसत्तगविहं, तमेव नोआगमो सुयं होइ। सामित्तासंबद्धं, समिईसहियस्स वा जं तु॥ __ जो चौदह प्रकार का अक्षरश्रुत आदि कहा है वह पुरुषों में स्वामित्व से असंबद्ध अर्थात् पुरुषों से पृथक् विवक्षित श्रुत नोआगमतः भावश्रुत है। अथवा समितिसहित उपयुक्त पुरुष का जो श्रुत है वह नोआगमतः भावश्रुत है। १७८. पंचविहं पुण दव्वे, भावम्मि तमेव होइ सुत्तं तु। सच्चित्ताई गंथो, दव्वे भावे इमं चेव॥ द्रव्यसूत्र के पांच प्रकार हैं-अंडज, बोंडज, कीटज, बालज तथा वल्कज। भावसूत्र वही है जो पूर्वगाथा में कहा है। द्रव्य ग्रंथ के तीन प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र। भाव ग्रंथ है-यही कल्पाध्ययन। १७९. जेण उ सिद्धं अत्थं, अंतं यतीति तेण सिद्धंतो। सो सव्व-पडीतंतो, अहिगरणे अब्भुवगमे य॥ जो सिद्ध अर्थ को अंत तक ले जाता है अर्थात प्रमाणकोटि में आरूढ़ करता है, वह है सिद्धांत। द्रव्यतः वह सिद्धांत है पुस्तकों में न्यस्त और भावतः सिद्धांत के चार प्रकार हैं-सर्वतंत्रसिद्धांत, प्रतितंत्रसिद्धांत, अधिकरणसिद्धांत तथा अभ्युपगमसिद्धांत। द्रव्यसूत्र १ १. पांच भाव ये हैं-संगहट्टयाए, उवग्गहट्ठयाए, निज्जरट्ठयाए, सुय- २.क्षेत्र के बिना द्रव्य नहीं होता। तद्गत भाव भी क्षेत्र के बिना नहीं होता। पज्जवजाएणं, अव्वुच्छित्तीए। काल के बिना द्रव्य और भाव नहीं होते। ३,४. कथाओं के लिए देखें-कथा परिशिष्ट नं.३-१४। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका १८० संति पमाणाति पमेयसाहगाई तु सव्वतंतो उ। बेज्जवई य वसुमई, आपो य दवा चलो वाऊ ॥ प्रमेय को सिद्ध करने वाले प्रमाण हैं, पृथ्वी स्थिर है, पानी द्रव है, बायु चल है ये सर्वतंत्रसिद्धांत हैं अर्थात् सभी तंत्रों में ये अर्थ सिद्ध हैं। १८१. जो खलु सतंतसिद्धो, न य परतंतेसु सो उ पडितंतो निच्चमणिज्यं सव्वं, निच्चानिच्चं च इच्चाई ॥ जो अर्थ स्व-तंत्र में सिद्ध है, पर तंत्र में नहीं, वह प्रतितंत्र सिद्धांत है। जैसे सांख्य मानते हैं सब नित्य है, बौद्ध मानते हैं सब अनित्य है, जैन मानते हैं सब नित्यानित्य है। जह १८२. सो अहिगरणो जहियं, सिद्धे सेसं अणुत्तमवि सिज्झे । निच्चते सिद्धे अन्नत्ता ऽमुत्तसंसिद्धी ॥ जिसके सिद्ध होने पर अनूक्त भी सिद्ध हो जाता है वह है अधिकरणसिद्धांत। जैसे-आत्मा की नित्यता सिद्ध होने पर शरीर से उसकी अन्यत्वसिद्धि तथा अमूर्त्तत्व की सिद्धि भी हो जाती है। - १८३. जं अब्भुविच्च कीरह, सिच्छाएँ कहा स अन्भुवगमो उ। सीतो वही गयजूह तणगे मग्गु खरसिंगा ॥ जो अपनी इच्छा से किसी सिद्धांत को मानकर वादकथा में प्रवृत्त होता है, वह है अभ्युपगमसिद्धांत । जैसे किसी ने स्वेच्छा से मानकर कहा- अग्नि शीतल होती है, तृण के अग्रभाग पर गजयूथ है, मनु-जलकाक और गधे के सींग होते हैं। १८४. कडकरणं दबे सासणं तु दब्बे व दव्वओ आणा । दव्वनिमित्तं बुभयं दुत्रि वि भावे इमं चेव ॥ कृतकरण अर्थात् मुद्रा द्रव्यतः शासन है और वही द्रव्यतः आज्ञा है । अथवा द्रव्योत्पादन के निमित्त जो शासन और आज्ञा है वह द्रव्यशासन और द्रव्यआज्ञा है । भावशासन और भावआज्ञा यही कल्पाध्ययन है। १८५. दव्ववती दवाई जाएं गहियाई मुंबइ न ताव। आराहणि दव्वस्स वि. दोहि वि भावस्स पडिवक्खो ॥ भाषा के प्रायोग्य पुद्गलों को ग्रहण कर जब तक उनको भाषा के रूप में परिणत कर नहीं छोड़ा जाता तब तक वह द्रव्यवाक है अथवा द्रव्य की आराधनी वाक - यथार्थस्वरूप प्रतिपादिका भी द्रव्यवाक है। दोनों प्रकारों से भाववाक् का प्रतिपक्ष वक्तव्य है, जैसे- भाषायोग्य पुद्गलों को भाषा के १. (१) अनुयोग-सूत्र का अर्थ के साथ अनुकूल योग । (२) नियोग - निश्चित योग । (३) भाषा-अर्थ का कथन । २१ रूप में परिणत कर छोड़ना, यह नोआगमतः भाववाक है अथवा जो जीव के भाव ज्ञान आदि की आराधिका है, अथवा अजीव घट आदि के वर्णादिक की आराधिका है वह वाक नोआगमतः भाववाक है। १८६. दव्वाण दव्वभूओ, दव्वट्ठाए व विज्जमाईया | अह दव्वे उवएसो, पन्नवणा आगमे चैव ॥ वैद्य आदि रोगी को औषधि द्रव्यों का द्रव्यभूत अर्थात् अनुपयुक्त होकर द्रव्य-धन के निमित्त जो उपदेश देता है, प्रज्ञापना करता है तथा आगम-अर्थ का संग्रह करता है, यह सारा द्रव्यतः उपदेश, द्रव्यतः प्रज्ञापना और द्रव्यतः आगम है। १८७. अणुयोगो य नियोगो, भास विभासा य वत्तियं चैव । एए अणुओगस्स उ, नामा एगडिया पंच ॥ अनुयोग के ये पांच एकार्थिक हैं-अनुयोग, नियोग, भाषा, विभाषा और वार्त्तिक । १८८. निच्छियमुत्त निरुतं तं पुण सुत्ते य होइ अत्थे य। सुत्ते उबरिं वुच्छं, अत्यनिरुतं इमं तत्थ ॥ निरुक्त का अर्थ है- निश्चित कथन वह सूत्र का भी होता है और अर्थ का भी सूत्र विषयक निरुक्त आगे श्लोक ३१० मैं कहे जाएंगे। अर्थनिमित्त ये निरुक्त है१८९. अणु बायरे य उंडिय, पडिंसुया चेव अब्भपडले य वत्तिय चउक्कभंगो, निरुत्तादी वत्तणी व जहा ॥ अनुयोग में अणुत्व और बादरत्व का दृष्टांत, नियोग में उंडिका - मुद्रा विषयक भाषा में प्रतिश्रुत का दृष्टांत विभाषा में अभ्रपटल का दृष्टांत तथा वार्त्तिक के चार भंग हैं। उनका दृष्टांत है मंख विषयक। तथा निरुक्त आदि । वर्त्तनी - मार्ग का दृष्टांत | ( इनकी व्याख्या अगली गाथाओं में ) । १९०. अणुणा जोगो अणुजोगी, अणु पच्छाभावओ य थेवे य जम्हा पच्छाऽभिहियं सुतं थोवं च तेणाणू ॥ अनु के साथ योग- अनुयोग अनु का अर्थ है-पश्चात्मृत अणु के साथ योग - अणुयोग । अणु का अर्थ है - थोड़ा। इसलिए जो पश्चात्कृत है, अल्प है, वह है सूत्र (अर्थ अननु है, क्योंकि वह पूर्व उक्त है। वह बादर है, क्योंकि वह बहुत १९१. पुव्वं सुत्तं पच्छा, य पगासो लोइया वि इच्छंति । है।) पेलासरिसे सुत्ते, अत्थपया हुंति बहुया वि।। पहले सूत्र होता है, फिर प्रकाश अर्थात् अर्थ लौकिक लोग भी यही चाहते हैं। सूत्र पेटी के सदृश होता है। जैसी (४) विभाषा-विविध प्रकार से कथन करना। (५) वार्त्तिक- पूरे पद का अर्थगत विवरण । (बृ. पृ. ६१ ) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ पेटी में अनेक वस्त्रों का समावेश होता है। इसी प्रकार सूत्र में भी अनेक अर्थपदों का समावेश होता है। १९२. इक्कं वा अत्यपयं सुत्ता बहुगा वि संपयंसंति । उक्खित्तनायमाइसु, अयमवि तम्हा अणेगंतो ॥ एक अर्थपद भी अनेक सूत्रों में वर्णित होता है। उसका संप्रदर्शन- अर्थाभिव्यक्ति अनेक सूत्रों से होती है। जैसेउत्क्षिप्तज्ञात' आदि में 'अनुकंपा करनी चाहिए इस अर्थ विषयक अनेक सूत्र ग्रथित हैं। आदि शब्द से 'संघाट' (ज्ञाता) में कहा है वर्णवृद्धि के लिए आहार नहीं करना चाहिए यह भी अनेकांत वचन है। क्योंकि 'अर्थ महान् होता है'। १९३. अत्थं भासइ अरिहा, तमेव सुत्तीकरेंति गणधारी । अत्यं च विणा सुत्तं अणिस्सियं केरिसं होज्जा ॥ अर्हत अर्थ का कथन करते हैं। उसीको गणधर सूत्ररूप मैं ग्रथित करते हैं। बिना अर्थ के अनिश्रित सूत्र कैसा होता है ? वह असंबद्ध होता है। १९४. अहिगो जोगो निजोगो, जहाऽइदाहो भवे निदाहो त्ति। अत्थनिउत्तं सुत्तं, पसवइ चरणं जओ मुक्खो ॥ 'नि' आधिक्य के अर्थ में प्रयुक्त है। नियोग का अर्थ हे अधिक योग जैसे अतिदाह अर्थात् निदाह किसका किसके साथ आधिक्य ? इसका उत्तर है सूत्र का अर्थ के साथ सूत्रस्यार्थेन अधिक योग का फल क्या है? अर्थ के साथ अधिकता से नियुक्त सूत्र चारित्र का उत्पादक होता है। चारित्र से मोक्ष की प्राप्ति होती है। १९५. बच्छनियोगे खीरं, अत्थनियोगेण चरणमेवं तु । पत्तन दंडियमुभयं दंडियसरिसो तहिं अत्थो । जैसे बछड़े के नियोग से गाय दूध का प्रसवण करती है, वैसे ही अर्थ के नियोग से चारित्र का प्रसव होता है। पत्रक, दंडिका और उमय अर्थात पत्र भी दंडिका भी दंडिका के सदृश होता है अर्थ स्पष्टार्थ आगे तीन पुरुष राजा की सेवा में संलग्न थे। राजा ने उनकी सेवा से संतुष्ट होकर, निकटस्थ गांव में एक नया मकान उनको दिया । एक व्यक्ति उस गांव के राजपुरुषों के लिए एक पत्र लिखा कर ले गया। दूसरा व्यक्ति केवल राजमुद्रायुक्त पत्र लेकर गया और तीसरा व्यक्ति मुद्रायुक्त लिखा पत्रक लेकर गया। प्रथम दोनों खाली हाथ लौटे और तीसरे व्यक्ति को वह नया मकान मिल गया, क्योंकि उसमें नए मकान विषयक बात भी थी और वह मुद्रांकित भी था । (पत्रक सदृश है सूत्र, दंडिका सदृश है अर्थ । केवल पत्रक १. ज्ञाताधर्मकथा - ज्ञात १ । २. वही, ज्ञात २ । बृहत्कल्पभाष्यम अथवा केवल दंडिका प्रयोजनीय नहीं होती। दोनों एक साथ होने पर वे प्रयोजन सिद्ध करते हैं। इसी प्रकार सूत्र और अर्थ दोनों होते हैं तो वे चारित्र के साधक होते हैं। पृथक पृथक नहीं। १९६. डिसस्स सरिसं, जो भासइ अत्थमेगु सुत्तस्स । सामइय बाल पंडिय, साहु जईमाइया भासा ॥ जैसा शब्द किया जाता है, वैसा ही प्रतिशब्द होता है। जो जैसा सूत्र होता है, उसका वैसा ही एक अर्थ कहा जाता है। वह उसकी भाषा है। जैसे- समभाव है सामायिक । जो भूख-प्यास से आकुल होता है वह है बाल । जो पाप से डरता है अथवा जिसकी बुद्धि पंडा है वह है पंडित । मोक्षमार्ग का साधक है साधु । सर्वात्मना संयमानुष्ठान करने वाला होता है यति आदि शब्दों की यह भाषा है। १९७. एक्केणं एकदलं तहिं कथं बिईएण बहुतरगा । तइएण छाइयं तं, तिल्लं - ऽबिलमादुवाएहिं || १९८. एगपए दु-तिगाई, जो अत्थे भणह सा विभासा उ असइ य आसु य धावइ, न य सम्मइ तेण आसो उ ॥ एक छत्रकार ने अपने तीन शिष्यों को तीन छत्र और अभ्रपटल देते हुए कहा इनको अभ्रपटल से आच्छादित करो। एक शिष्य ने एक अभ्रपटलदल को छत्र पर लगाया। दूसरे शिष्य ने अनेक अभ्रपटलों से छत्र को आच्छादित किया। तीसरे ने अनेक अभ्रपटलों से छत्र को आच्छादित कर, तैल-अम्बा आदि पदार्थों से उस पर लेप कर उसको मजबूत बना डाला। प्रथम शिष्य सदृश होता है भाषक और द्वितीय शिष्य सदृश होता है विभाषक । जो एक शब्दपद में दो-तीन आदि अर्थों की अभिव्यक्ति होती है वह है विभाषा, जैसे- अश्नाति इति अश्वः जो खाता है वह है घोड़ा। अथवा आशु धावति न च श्राम्यतीति अश्वः जो तेज दौड़ता है पर धकता नहीं, वह है अश्व यह है विभाषक । उसका कथन है विभाषा । तीसरे शिष्य के सदृश होता है व्यक्तिकर। १९९. सामाइयस्स अत्थं, पुव्वधर समत्तमो विभासेइ । चउरो खलु मखसुया, वत्तीकरणम्मि आहरणा ॥ जो चतुर्दश पूर्वधर सामायिक का अर्थ समस्तरूप से कहता है, वह व्यक्तिकर अथवा वार्तिककर होता है। व्यक्तिकरण के विषय में चार मंखपुत्रों का दृष्टांत है। २००. फलगिको गाहाहिं बिइओ तहओ य वाइयत्येणं । तिन्नि वि अकुटुंबभरा, तिगजोग चउत्थओ भरइ ॥ ३. पढमसरिच्छो भासगो, बिइय विभासो य तइय वितिकरो। इति । (वृ. पृ. ६४ ) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका चार मंखपुत्र गांव में याचना करने के लिए घूमते । एक केवल फलक लेकर घूमता है, कुछ बोलता नहीं, दूसरा फलक के बिना केवल गाथाएं बोलता हुआ घूमता है और तीसरा बिना फलक लिए बिना गाथाओं का उच्चारण किए केवल अर्थ कहता है ये तीनों अकुटुम्बभर होते हैं, उन्हें कुछ भी नहीं मिलता। चौथा मंखपुत्र त्रिकयोग अर्थात् फलक के साथ, गाथाओं का उच्चारण तथा उनका अर्थ कहता हुआ घूमता है। उसे बहुत मिलता है और वह कुटुंबभर होता है। (इस दृष्टांत का उपनय इस प्रकार है-व्यक्तिकरण के चार विकल्प हैं - एक को सूत्र आता है, अर्थ नहीं। दूसरे को अर्थ आता है, सूत्र नहीं। तीसरे को दोनों ज्ञात हैं । चतुर्थ को न सूत्र याद है और न अर्थ इनमें प्रथम दो तथा चतुर्थ ये प्रथम तीन मंखपुत्रों के सदृश अपने प्रयोजन के साधक नहीं होते तीसरा व्यक्तिकर चौथे मंखपुत्र की भांति अपने प्रयोजन का साधक होता है।) २०१. जे जम्मि जुगे पवरा, तेसि समासम्मि जेण उम्महियं । परिवाडीण पमाणं, बुच्छं वत्तीकरो स खलु ॥ जो जिस युग में प्रधान होते हैं, उनके पास से जिस ग्रहणधारणा समर्थ शिष्य ने ज्ञानार्जन किया है, वह व्यक्तिकर होता है । ग्रहण विषयक परिपाटियों का प्रमाण आगे कहूंगा। २०२. निक्खेवा य निरुत्ताणि जा य कहणा भवे पगासस्स । जह रिसभाईयाऽऽहं किमेवं वज्रमाणो वि॥ निक्षेप, निरुक्त, अर्थ का कथन, एकार्थकों का कथन, जैसे ऋषभ आदि तीर्थंकरों ने किया है, क्या उसी प्रकार से वर्द्धमान ने भी किया है? हां, सबकी प्ररूपणा समान है। २०३. धिय- संघयणे तुल्ला, केवलभावे य विसमदेहा वि। केवलनाणं तं चिय, पन्नवणिज्जा य चरमे वि ॥ (शिष्य ने पूछा- ऋषभ आदि तीर्थंकरों की अवगाहना बहुत थी और भगवान् वर्द्धमान केवल सातरत्निप्रमाण के थे। फिर उनका वैसे ही प्ररूपण कैसे संभव है?) आचार्य कहते हैं-तीर्थंकर विषम देह वाले होने पर भी धृति, संहनन और केवल भाव में तुल्य होते हैं। जैसे ऋषभ आदि में केवलज्ञान था वैसा ही केवलज्ञान चरम तीर्थंकर वर्द्धमान का था। वे ही प्रज्ञापनीय भाव थे । इस प्रकार वे सब तुल्य थे। २०४. नायज्झयणाहरणा, इसिभासियमो पइन्नगसुया य । एए हुति अनियया निययं पुण सेसमुस्सण्णं ॥ ज्ञाताधर्मकथा के दृष्टांत, ऋषिभाषित तथा प्रकीर्णकसूत्रये सब अनियत होते हैं। शेष पुनः प्रायशः नियत होता है। २०५. जह सव्वजणवएसुं, एक्वं चिय सगडवत्तिणिपमाणं । विसमाणि य वत्थूणी, सगडाईणं तह निरुत्ता ॥ २३ यद्यपि शकट, गंत्री आदि विषम वस्तुएं हैं कुछ बड़ी होती हैं और कुछ छोटी, फिर भी सभी जनपदों में, समय के अनुसार शकटवर्त्तनी शकटमार्ग का एक ही प्रमाण होता है। सर्वत्र जुओ का प्रमाण चार हाथ है। शकटवर्त्तनी की भांति ही निरुक्त, निक्षेप आदि की निरूपणा भी सभी अहंतों की समान होती है। २०६. जइ वि य वत्थू हीणा, पुब्बिल्लरहेहिं संपयरहाणं । तह वि जुगम्मि जुगम्मी, सहत्थचउहत्थगा अक्खा ॥ यद्यपि पूर्वतर वस्तु रथों से वर्तमानकाल के रथ हीन हैं फिर भी प्रत्येक युग में स्वहस्त से चतुर्हस्तक जुने होते हैं। २०७ पुरिमेहिं जह वि हीणा, इंदियमाणा उ संपयनराणं । तह वियसि उवलब्द्धी, खित्तविभागेण तुल्ला उ ॥ यद्यपि पूर्वकाल के मनुष्यों से वर्तमान के पुरुषों की इन्द्रियां हीन प्रमाणवाली हैं, फिर भी आत्मांगुल के आधार पर क्षेत्रविभाग से इनकी तुल्य उपलब्धि है । २०८. अणुपुब्बी परिवाडी, कमो य नायो ठिई य मज्जाया। हो विहाणं च तहा, विहीऍ एगडिया हुति ॥ विधि शब्द के ये एकार्थिक हैं- आनुपूर्वी, परिपाटी, क्रम, न्याय, स्थिति, मर्यादा और विधान २०९. सुत्तत्थो खलु पढमो, बिइओ निज्जुत्तिमीसिओ भणिओ। तइओ य निरवसेसो, एस विही भणिय अणुयोगे ॥ अनुयोग की यह विधि कही गई है पहली परिपाटी में सूत्र का अर्थ कहना चाहिए। दूसरी परिपाटी में नियुक्तिमिश्रित उसका कथन करना चाहिए। (ये दोनों अध्ययन की परिसमाप्ति पर्यन्त कथनीय हैं।) तीसरी परिपाटी में संपूर्ण अनुयोग का कथन करना चाहिए अर्थात् पद, पदार्थ, चालना, प्रत्यवस्थान आदि से विस्तृत कथन करना चाहिए। (यह अनुयोग की विधि ग्रहण - धारणा समर्थ शिष्यों के प्रति है। ) सत्तमए ॥ २१०. मूयं हुंकारं वा, बाढक्कार पडिपुच्छ वीमंसा । तत्तो पसंगपारायणं च परिणि मंदमति के लिए अनुयोग की विधि यह है(१) शिष्य गुरु की वाचना को मूक होकर सुने, मौनभाव से सुने । (२) फिर हुंकार दे, वंदना करें। (३) बाढ़कार करे- ऐसी ही है यह यह प्रशंसा करे। (४) प्रतिपृच्छा करे-भंते! यह कैसे ? (५) विमर्श करे प्रमाण की जिज्ञासा करे। (६) शिष्य उपदिष्ट विषय का पारायण कर लेता है। (७) सातवें में वह परिनिष्ठा अर्थात् गुरु की भांति व्याख्या करने में सक्षम हो जाता है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ बृहत्कल्पभाष्यम् इस प्रकार गुरु मंद बुद्धिवाले शिष्यों के लिए, जैसे वे (लकड़ी), धातु, व्याधि, बीज, कांकटुक, लक्षण और स्वप्न। समझ सकें वैसे सात परिपाटियों में अनुयोग करे। (इनकी व्याख्या आगे के श्लोकों में)। २११. चोएइ राग-दोसा, समत्थ परिणामगे परूवणया। २१६. को दोसो एरंडे, जं रहदारूं न कीरए तत्तो। एएसिं नाणत्तं, वुच्छामि अहाणुपुव्वीए॥ को वा तिणिसे रागो, उवजुज्जइ जं रहंगेसु॥ शिष्य ने प्रश्न किया-भंते! आपने जो तीन परिपाटियों में एरंडद्रुम में कौन-सा द्वेष है कि उससे रथयोग्य लकड़ी समर्थ और परिणामक शिष्य को अनुयोग की प्ररूपणा करने नहीं बनाई जाती? तिनिश की लकड़ी के प्रति कौनसा राग है की बात कही है, और मंद परिणाम वाले को सात कि उसका उपयोग रथ के अंगों के निर्माण में किया जाता है? परिपाटियों में अनुयोग-प्ररूपणा का कथन किया है, क्या २१७. जंपिय दारूं जोग्गं, जस्स उ वत्थुस्स तं पि हुन सक्का। उससे राग-द्वेष का प्रसंग नहीं आता? मैं इन समर्थ और जोएउमणिम्मविउं, तच्छण-दल-वेह-कुस्सेहिं॥ असमर्थ शिष्यों का आनुपूर्वी से नानात्व कहूंगा। यद्यपि किसी वस्तु के योग्य कोई लकड़ी है, परंतु उसको २१२. मच्छरया अविमुत्ती, पूयासक्कार गच्छइ य खिन्नो। बिना निर्मापित किए उसे उपयुक्त स्थान में नियोजित नहीं दोसो गहणसमत्थे, इयरे रागो उ वुच्छेयो॥ किया जा सकता। लकड़ी के निर्माण की ये क्रियाएं हैं-तक्षण, ग्रहण करने में समर्थ शिष्य को तीन परिपाटियों में दल-समूचे काठ को दो-तीन पाटों ने फाड़ना, वेध और कुश अनुयोग कहना, यह द्वेष है। इसके कारण ये हैं- (जिसे वेध के प्रान्त में पिरोया जा सके।) (१) मत्सरता-यह बहुशिक्षित होने पर मेरा शत्रु बन जायेगा। (इसी प्रकार शिष्य के योग्य होने पर भी जब तक वह (२) अविमुक्ति-सूत्रार्थ समाप्त होने पर यह मुझे छोड़ देगा, सूत्रों से परिकर्मित नहीं होता, तब तक उसे कल्प या अन्यथा मेरे शिष्य परिवार में ही रहेगा। (३) पूजा- व्यवहार नहीं पढ़ाया जाता। यह राग-द्वेष नहीं हैं।) सत्कार-इसका पूजा-सत्कार बढ़ जाएगा। (४) खिन्न-यह २१८. एमेव अधाउं उज्झिऊण धाऊण कुणइ आयाणं। परिश्रांत होकर अन्य गच्छ में चला जाएगा। यह द्वेष है। न य अक्कमेण सक्का, धाउम्मि वि इच्छियं काउं॥ इतर अर्थात् मंदमति को सात परिपाटियों में अनुयोग देना इसी प्रकार राग-द्वेष के बिना अधातु को छोड़कर धातु को राग है, क्योंकि आप सोचते हैं कि इसका संपूर्ण अनुयोग ग्रहण करता है। धातु को भी अक्रम से इच्छितरूप में नहीं ढ़ाला नहीं दूंगा तो अनुयोग का व्यवच्छेद हो जाएगा। जा सकता, किन्तु क्रम से उसे वह रूप दिया जा सकता है। २१३. निरवयवो न हु सक्को, सयं पगासो उ संपयंसे। (इसी प्रकार अयोग्य शिष्यों का परिहार कर, योग्य कुंभजले वि हु तुरिउज्झियम्मि न हु तिम्मए लिट्ट॥ शिष्यों को भी क्रमशः श्रुत का ग्रहण कराया जा सकता है।) आचार्य कहते हैं-एक ही परिपाटी में सूत्र का निरवयव- २१९. सुहसज्झो जत्तेणं, जत्तासन्झो असज्झवाही उ। संपूर्ण अर्थ कभी भी संप्रदर्शित नहीं किया जा सकता। जैसे जह रोगे पारिच्छा, सिस्ससभावाण वि तहेव।। जल से भरे हुए एक कुंभ का पानी भी यदि लेष्टु पर उंडेला वैद्य रोग की परीक्षा करता है। वह परीक्षा कर जान लेता जाए तो भी वह उसको नहीं भिगो पाएगा। इसी प्रकार समर्थ है कि यह रोग सुखसाध्य है, यह प्रयत्न-साध्य है और यह शिष्य भी एक ही परिपाटी से संपूर्ण अर्थ का धारण नहीं कर व्याधि असाध्य है-प्रयत्न से भी साध्य नहीं है। परीक्षा के सकता। अतः तीन परिपाटियों से उसे अनुयोग देना अदोष है। पश्चात् वह राग-द्वेष के बिना तदनुरूप उपचार करता है। २१४. सुत्त-ऽत्थे कहयंतो, पारोक्खी सिस्सभावमुवलब्भ। इसी प्रकार शिष्य के स्वभावों को भी राग-द्वेष के बिना अणुकंपाएँ अपत्ते, निज्जूहइ मा विणस्सिज्जा॥ परीक्षण कर तदनुरूप प्रवृत्ति की जाती है। परोक्षज्ञानी आचार्य शिष्यों को सूत्र और अर्थ की वाचना २२०.बीयमबीयं नाउं, मोत्तुमबीए उ करिसतो सालिं। देते हुए, शिष्यों के आंतरिक भावों को जानकर, अपात्र ववइ विरोहणजोग्गे, न यावि से पक्खवाओ उ॥ शिष्यों का निर्वृहण करते हैं उन्हें सूत्रार्थ नहीं देते, यह कृषक बीज और अबीज को जानकर, अबीजों को जानकर कि श्रुत की आशातना आदि से उनका विनाश न हो छोड़कर शालि बीजों का वपन करता है। इस प्रवृत्ति में उगने जाए। यह द्वेषभाव नहीं है। . योग्य बीजों के प्रति कृषक का पक्षपात नहीं है। न उनके प्रति २१५. दारूं धाउं वाही, बीए कंकडुय लक्खणे सुमिणे। राग है और न अबीजों के प्रति द्वेष है। एगतेण अजोग्गे, एवमाई उदाहरणा॥ २२१. कंकडुए को दोसो, जं अग्गी तं तु न पयई दित्तो। एकांत अयोग्य शिष्य के वाचक ये उदाहरण हैं-दारु को वा इयरे रागो, एमेव य सुत्तकारस्स॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ पीठिका कांकटुक (कोरडू) धान्य को दीप्त अग्नि भी नहीं पका सकती, यह उसके प्रति अग्नि का द्वेष नहीं है। वह इतर धान्य को पका डालती है, यह उनके प्रति कोई राग नहीं है। इसी प्रकार सूत्र की वाचना देने, न देने में सूत्रकार की रागद्वेषयुक्त प्रवृत्ति नहीं होती। २२२. जे उ अलक्खणजुत्ता, कुमारगा ते निसेहिउं इयरे। रज्जरिहे अणुमन्नइ, सामुद्दो नेय विसमो उ॥ सामुद्रलक्षणज्ञाता अलक्षणयुक्त राजकुमारों का निषेध कर, लक्षणयुक्त राजकुमार को राजयोग्य मानता है। ऐसा करने वाला विषम-राग-द्वेषवान् नहीं होता। २२३. जो जह कहेइ सुमिणं, तस्स तह फलं कहेइ तन्नाणी। रत्तो वा दुट्ठो वा, न यावि वत्तव्वयमुवेइ॥ जो जैसा स्वप्न देखता है, कहता है, स्वप्नशास्त्री उसी का फल बताता है। वह रक्त या द्विष्ट होकर कोई बात नहीं कहता। २२४. अग्गी बाल गिलाणे, सीहे रुक्खे करीलमाईया। अपरिणयजणे एए, सप्पडिवक्खा उदाहरणा॥ अपरिणत शिष्य, जो कालान्तर में योग्य हो सकता है, इस विषयक अर्थात पहले अयोग्य और पश्चात् योग्य विषयक-ये प्रतिपक्ष उदाहरण हैं-अग्नि, बाल, ग्लान, सिंह, वृक्ष और करील आदि। २२५. जह अरणीनिम्मविओ, थोवो विउलिंधणं न चाएइ। दहिउं सो पज्जलिओ, सव्वस्स वि पच्चलो पच्छा। २२६. एवं खु थूलबुद्धी, निउणं अत्थं अपच्चलो घेत्तुं। सो चेव जणियबुद्धी, सव्वस्स वि पच्चलो पच्छा। जैसे अरणि से निर्मापित थोड़ी अग्नि विपुल इंधन को जलाने में समर्थ नहीं होती, पश्चात् वही अग्नि प्रज्वलित होकर सभी इंधन को जलाने में सक्षम हो जाती है। इसी प्रकार स्थूलबुद्धि वाला शिष्य विपुल अर्थ को ग्रहण करने में सक्षम नहीं होता, वही वृद्धिंगत बुद्धि वाला होकर समस्त शास्त्रों को ग्रहण करने में समर्थ हो जाता है। २२७. देहे अभिवडंते, बालस्स उ पीहगस्स अभिवुड्डी। अइबहएण विणस्सइ, एमेवऽहणुट्ठिय गिलाणे॥ शरीर की वृद्धि के साथ-साथ पीहक आहार की भी अभिवृद्धि होती है। यदि बालक को अतिबह आहार दिया जाता है तो वह विनष्ट हो जाता है। इसी प्रकार अभी-अभी रोग से मुक्त व्यक्ति के विषय में ज्ञातव्य है। (इसी प्रकार शिष्य भी अपनी योग्यता के अनुसार शास्त्रों को क्रमशः ग्रहण करता है। प्रारंभ से ही अतिनिपुण शास्त्रग्रहण से उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। २२८. खीर-मिउपोग्गलेहि, सीहो पुट्ठो उ खाइ अट्ठी वि। रुक्खो बिवन्नओ खलु, वंसकरिल्लो य नहछिज्जो॥ २२९. ते चेव विवढता, हंति अछेज्जा कुहाडमाईहिं। तह कोमला वि बुद्धी, भज्जइ गहणेसु अत्थेसु॥ सिंह शिशु प्रारंभ में दूध और मृदु मांस खाता है और पुष्ट होकर (बड़ा होकर) वह हड्डियों को भी चबाने लग जाता है। द्विपर्ण वृक्ष तथा वंशकरील ये दोनों प्रारंभ में नखछेद्य होते हैं। वे ही जब बड़े हो जाते हैं तब कुठार आदि से भी नहीं छेदे जाते। इसी प्रकार शिष्य की बुद्धि पहले कोमल होती है। उस समय वह गहन अर्थों में टूट जाती है। क्रमशः वह कठोर, कठोरतर हो सकती है। २३०. निउणे निउणं अत्थं, थूलत्थं थूलबुद्धिणो कहए। बुद्धीविवद्धणकर, होहिइ कालेण सो निउणो॥ निपुण शिष्य को निपुण अर्थ का कथन करे और स्थूलबुद्धि वाले शिष्य को स्थूल अर्थ का कथन करे। कालान्तर में वही स्थूलबुद्धि शिष्य अपनी बुद्धि को वृद्धिंगत कर निपुण होगा। (अन्यथा प्रारंभ में उसे निपुण अर्थ का बोध कराने पर उसकी बुद्धि का भंग हो सकता है।) २३१. सिद्धत्थए वि गिण्हइ, हत्थी थूलगहणे सुनिम्माओ। सरवेह-छिज्ज-पवए, घड-पड-चित्ते तहा धमए। हाथी को पहले स्थूल वस्तुओं के ग्रहण में निपुण किया जाता है। जब वह उसमें निर्मित हो जाता है तब वह उड़द के दानों का भी ग्रहण करने में सक्षम हो जाता है। इसी प्रकार स्वरवेध, पत्रच्छेद्यक, प्लवक, घटकारक, पटकारक, चित्रकारक तथा धमक के दृष्टांत हैं। २३२. जत्थ मई ओगाहइ, जोग्गं जं जस्स तस्स तं कहए। परिणामा-ऽऽगमसरिसं, संवेगकरं सनिव्वेयं॥ शिष्य की मति भी जैसे-जैसे जितना-जितना अवगाहन करती है, उसके योग्य जो शास्त्र हो उसको उस शास्त्र की वाचना देनी चाहिए। आगम के सदृश ही उसके परिणाम होंगे, इसलिए उसको संवेगकर और निर्वेदकर आगम की वाचना देनी चाहिए। २३३. गिण्हत-गाहगाणं, आइसुएस उ विही समक्खाओ। सो चेव य होइ इहं, उज्जोगो वन्निओ नवरं। ग्रहण करने वाले शिष्य और ग्राहक आचार्य के लिए आदिसूत्र-सामायिक में जो विधि समाख्यात है, वही विधि यहां भी वक्तव्य है। आचार्य शिष्यों को अनुयोग कहने में जो उद्यम करते हैं (तीन या सात परिपाटियों का) वह यहां विस्तार से वर्णित है। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ = =बृहत्कल्पभाष्यम् २३४. अणिउत्तो अणिउत्ता, अणिउत्तो चव होइ उ निउत्ता। नहीं होती। अथवा आचार्य अनुयोग का स्मरण करते हुए नि (ने)उत्तो अणिउत्ता, उ निउत्तो चेव उ निउत्ता॥ अथवा अनुयोग नष्ट न हो जाए इसलिए बार-बार उसका २३५. निउत्ता अनिउत्ताणं, पवत्तई अहव ते वि उ निउत्ता। गुणन (चितारना) करते हैं, तब अनायास अनुयोग की प्रवृत्ति दव्वम्मि होइ गोणी, भावम्मि जिणादयो हुंति॥ हो जाती है। प्रवृत्ति के दो प्रकार हैं-द्रव्यतः और भावतः। द्रव्यतः में २३९. सागारियमप्पाहण, सुवन्न सुयसिस्स खंतलक्खेण। गाय का दृष्टांत और भावतः में जिन आदि का दृष्टांत है। कहणा सिस्सागमणं, धूलीपुंजोवमाणं च॥ गाय और दोहक विषयक चतुर्भंगी शय्यातर को संदेश कहकर स्वर्णभूमी में अपने शिष्य के १. दोहक अनियुक्त, गाय भी अनियुक्त। शिष्य सागर के पास वृद्ध मुनि का व्याज से जाना। शिष्यों २. दोहक अनियुक्त, गाय नियुक्त। के पूछने पर शय्यातर का कहना। शिष्यों का स्वर्णभूमी में ३. दोहक नियुक्त, गाय अनियुक्त। जाना। गर्वोन्मत्त सागर के लिए धूलीपुंज की उपमा।' ४. दोहक नियुक्त, गाय भी नियुक्त। २४०. निउत्तो उभउकालं, भयवं कहणाएँ बद्धमाणो उ। इसी प्रकार आचार्य-शिष्य से संबंधित भी चतुर्भंगी होती गोयममाई वि सया, सोयव्वे हंति उ निउत्ता।। है। यह चतुर्भंगी अनुयोग विषयक है। तीसरे भंग के अनुसार नियुक्त आचार्य-दोनों समय अनुयोग कहते हैं। नियुक्त आचार्य अनुयोग में नियुक्त हैं, किन्तु शिष्य अनियुक्त हैं। शिष्य दोनों समय अनुयोग सुनते हैं। अनुयोग कहने वालों का आचार्य उन अनियुक्त शिष्यों को भी अनुयोग में प्रवृत्त करता दृष्टांत है भगवान् वर्द्धमान और श्रोतव्य में दृष्टांत हैं गौतम है। अथवा द्वितीय भंग में नियुक्त शिष्य अनियुक्त आचार्य को आदि। भी अनुयोग में प्रवृत्त कर देते हैं। २४१. देस-कुल-जाइ-रूवी, संघइणी धिइजुओ अणासंसी। (तीसरे और दूसरे विकल्प में अनुयोग की प्रवृत्ति होती अविकंथणो अमाई, थिरपरिवाडी गहियवक्को। है। प्रथम में सर्वथा नहीं होती और चतुर्थ भंग में वह अवश्य २४२. जियपरिसो जियनिहो, मज्झत्थो देस-काल-भावन्नू। होती है। आसन्नलद्धपइभो, नाणाविहदेसभासन्नू॥ २३६. अप्पण्हुया य गोणी, नेव य दुद्धा समुज्जओ दुर्छ। २४३. पंचविहे आयारे, जुत्तो सुत्तऽत्थतदुभयविहन्नू। खीरस्स कओ पसवो, जइ वि य सा खीरदा धेणू। आहरण-हेउ-उवणय-नयनिउणो गाहणाकुसलो।। २३७. बीए वि नत्थि खीरं, थेवं व हविज्ज एव तइए वि। २४४. ससमय-परसमयविऊ, गंभीरो दित्तिमं सिवो सोमो। अत्थि चउत्थे खीरं, एसुवमा आयरिय-सीसे॥ गुणसयकलिओ जुत्तो, पवयणसारं परिकहेडं। २३८. अहवा अणिच्छमाणमवि किंचि उज्जोगिणो पवत्तंति। अनुयोगदाता के गुण तइए सारिते वा, होज्ज पवित्ती गुणिते वा॥ १. देशयुत-आर्यदश में उत्पन्न। आर्यदेश की भाषाओं धेनु दूध देने वाली है, परंतु वह उस समय प्रश्नुत नहीं है ___ को जानने के कारण उसके पास अनेक शिष्य अध्ययन करने और दुहने वाला भी समुद्यत नहीं है तो दूध का प्रसव कैसे के लिए आते हैं। होगा? दूध कहां से मिलेगा? दूसरे भंग में 'दोहक अनियुक्त २. कुलयुत-विशिष्ट कुल में उत्पन्न होने के कारण वह है, गाय नियुक्त है' तो दूध प्राप्त नहीं होगा, अथवा गाय से स्वीकृत मार्ग का निर्वाहक होता है। टपकने वाली दूध की बूंदें ही प्राप्त होंगी। तीसरे भंग में ३. जातियुत-विनय आदि गुणों से संपन्न । 'दोहक नियुक्त है, गाय अनियुक्त है' इसमें भी दूध की प्राप्ति ४. रूपयुत-लोगों के लिए सत्करणीय। नहीं होगी। चौथे भंग में गाय और दोहक-दोनों नियुक्त हैं तो ५. संहननयुत-व्याख्या करने में नहीं थकता। दूध प्राप्त होगा। ६. धृतियुत-अतिगहन विषयों में भी भ्रांत नहीं होता। यह उपमा आचार्य और शिष्य से संबंधित अनुयोग के ७. अनाशंसी-आकांक्षा रहित। प्रसव के विषय में है। ८. अविकत्थन न अति न बहु भाषी। ___ अथवा अनुयोग की प्रवृत्ति में प्रवृत्त होने की इच्छा न होते ९. अमायी-माया से रहित। हुए भी, उद्योगी शिष्य प्रतिपृच्छा आदि के द्वारा आचार्य को १०. स्थिरपरिपाटी जिसमें अनुयोग की परिपाटियां उसमें प्रवृत्त कर देते हैं। तीसरे भंग में 'आचार्य नियुक्त हैं स्थिर हैं। किन्तु शिष्य अनियुक्त हैं। उस स्थिति में अनुयोग की प्रवृत्ति ११. गृहीतवाक्य-उपादेय वचन। १. पूरे कथानक के लिए देखें-कथा परिशिष्ट नं. १७। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका १२. जितपरिषद्-महानतम परिषद् में भी अक्षुब्ध। १३. जितनिद्र-नींद से अबाधित। १४. मध्यस्थ-पक्षपातशून्य। १५. देश-काल-भावज्ञ। १६. आसन्नलब्धप्रतिभ-शीघ्रउत्तरदाता। १७. आचारवान्-पांच प्रकार के आचार से युक्त। १८. सूत्र-अर्थ और तदुभय की विधि का ज्ञाता। १९. आहरण दृष्टांत, हेतु, उपनय तथा नय में निपुण। २०. ग्राहणाकुशल-प्रतिपादनशक्ति से युक्त। २१. ससमय-परसमयविद्-स्वसिद्धांत और परसिद्धांत का ज्ञाता। २२. गंभीर। २३. दीप्तिमान-तेजस्वी। २४. शिव--अकोपन अथवा कल्याणकर। २५. सोम-शांतिदृष्टि वाला। २६. सैंकड़ों गुणों से युक्त। २७. युक्त उपयुक्त कथन करने वाला। जो इन सभी विशेषताओं से युक्त होता है वह प्रवचन अर्थात द्वादशांगी के सार-अर्थ का कथन कर सकता है। २४५. गुणसुट्टियस्स वयणं, घयपरिसित्तु व्व पावओ भाइ। गुणहीणस्स न सोहइ, नेहविहूणो जह पईवो। जो मुनि गुणों में सुस्थित है उसका वचन घृतपरिसिक्त पावक की भांति शोभित होता है। गुणहीन का वचन शोभित नहीं होता जैसे तैलविहीन प्रदीप। २४६. जइ पवयणस्स सारो, अत्थो सो तेण कस्स कायव्यो। एवंगुणन्निएणं, सव्वसुयस्साऽऽउ देसस्सा ॥ यदि प्रवचन का सार अर्थ है तो उपरोक्त गुणान्वित अनुयोगदाता को किस सूत्र का अर्थ कहना चाहिए? क्या समस्त श्रुत का अर्थ कहना चाहिए, अथवा उसके एक अंश का श्रुतस्कंध आदि का? २४७. को कल्लाणं निच्छइ, सव्वस्स वि एरिसेण वत्तव्यो। कप्प-व्ववहाराण उ, पगयं सिस्साण थिज्जत्थं ।। कल्याण कौन नहीं चाहता? ऐसे गुणान्वित आचार्य को समस्त श्रुत का अर्थ कहना चाहिए। अपवादबहुल कल्प और व्यवहार सूत्र का अनुयोग ऐसे आचार्य ही कर सकते हैं और उन्होंने शिष्यों के स्थिरीकरण के लिए यह किया है। २४८. एसुस्सग्गठियप्पा, जयणाणुन्नातो दरिसयंतो वि। तासु न वट्टइ नूणं, निच्छयओ ता अकरणिज्जा। ऐसे गुणान्वित आचार्य द्वारा कल्प और व्यवहार का अनुयोग किए जाने पर शिष्य सोचते हैं ये स्वयं उत्सर्ग में स्थितात्मा हैं। इन दोनों सूत्रों में यतनापूर्वक प्रतिसेवना = २७ अनुज्ञात है-यह प्रदर्शित करते हुए भी स्वयं उनमें प्रवर्तित नहीं होते, केवल उत्सर्ग का ही आचरण करते हैं। अतः यह निश्चयपूर्वक ज्ञात होता है कि प्रतिसेवना का समाचरण नहीं करना चाहिए। २४९. जो उत्तमेहिं पहओ, मग्गो सो दुग्गमो न सेसाणं। आयरियम्मि जयंते, तदणुचरा केण सीइज्जा। जो मार्ग उत्तम पुरुषों द्वारा क्षुण्ण है, वह शेष पुरुषों के लिए दुर्गम नहीं होता, सुगम हो जाता है। जो आचार्य सूत्रनीति से यतमान होते हैं, उनके अनुचर शिष्य क्यों खिन्न होंगे? २५०. अणुओगम्मि य पुच्छा, अंगाई कप्प छक्कनिक्खेवो। सुय खंधे निक्खेवो, इक्केक्को चउव्विहो होइ॥ अनुयोग में अंग आदि की पृच्छा वक्तव्य है। उसके अनन्तर कल्प के छह निक्षेप तथा श्रुत और स्कंध-प्रत्येक के चार-चार निक्षेप कहने होते हैं। (यह द्वार गाथा है। व्याख्या आगे।) २५१. जइ कप्पादणुयोगो, किं सो अंगं उयाहु सुयखंधो। अज्झयणं उद्देसो, पडिवक्खंगादिणो बहवो।। ___ यदि कल्प आदि का अनुयोग है तो पृच्छा होती है कि क्या वह अंग है ? अथवा श्रुतस्कंध है ? अथवा अध्ययन है ? अथवा उद्देश है? इन अंगों आदि के प्रतिपक्ष बहुअंग आदि हैं। इसकी भावना यह है क्या कल्प या व्यवहार अंग है या बहुअंग? श्रुतस्कंध है या बहुश्रुतस्कंध? अध्ययन है या बहु अध्ययन? उद्देश है या बहु उद्देश ? तब आचार्य कहते हैं-इन अंगों के प्रतिपक्ष बहुत सारे अंग आदि हैं। २५२. सुयखंधो अज्झयणा, उद्देसा चेव हुंति निक्खिप्पा। सेसाणं पडिसेहो, पंचण्ह वि अंगमाईणं ।। आचार्य कहते हैं-श्रुतस्कंध, अध्ययन तथा उद्देश-ये तीन पक्ष निक्षेप्य होते हैं अर्थात् स्थाप्य और आदरणीय होते हैं। अंग आदि शेष पांचों का प्रतिषेध है, जैसे कल्प और व्यवहार न अंग है और बहुअंग हैं, श्रुतस्कंध है, न बहुश्रुतस्कंध हैं, अध्ययन है, न बहुअध्ययन हैं, न उद्देश है, बहुउद्देश हैं। २५३. तम्हा उ निक्खिविस्सं, कप्प-व्ववहारमो सुयक्खधं | __अज्झयणं उद्देस, निक्खिवियव्वं तु जं जत्थ॥ इसलिए मैं कल्प का निक्षेप करूंगा, व्यवहार का निक्षेप करूंगा, श्रुतस्कंध, अध्ययन और उद्देश-इन सबका निक्षेप करूंगा। जहां जो निक्षेसव्य है वहां नाम आदि चार प्रकार अथवा छह प्रकार का निक्षेप कहूंगा। (नामकल्प के छह प्रकार देखें गाथा २७३)। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २८ बृहत्कल्पभाष्यम् २५४. आइल्लाणं दुण्ह वि, सट्ठाणं होइ नामनिप्फन्ने। प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं-परिकर्म तथा संवर्तन __ अज्झयणस्स उ ओहे, उद्देसस्सऽणुगमे भणिओ॥ (वस्तुनाश)। प्रथम दो कल्प और व्यवहार के यथाक्रम षट्क और २५९. जेण विसिस्सइ रुवं, भासा व कलासु वा वि कोसल्लं। चतुष्क निक्षेप का स्वस्थान है-नामनिष्पन्न निक्षेप। अध्ययन परिकम्मणा उ एसा, संवट्टण वत्थुनासो उ॥ का चार प्रकार का निक्षेप ओघनिष्पन्न निक्षेप में कथनीय है। जिस उपाय से रूप, भाषा, कला और कौशल में उद्देश का निक्षेप अनुगम अर्थात् उपोद्घात नियुक्ति के अनुगम विशिष्टता आपादित होती है वह है परिकर्म और संवर्तन में कहा जायेगा। है-वस्तुनाश (जैसे बने हुए स्वर्णकटक को तोड़ देना, पुरुष २५५. नामसुयं ठवणसुयं, दव्वसुयं चेव होइ भावसुयं। को मार डालना।) एमेव होइ खंधे, पन्नवणा तेसि पुव्वुत्ता॥ २६०. नावाए उवक्कमणं, हल-कुलियाईहिं वा वि खित्तस्स। श्रुत शब्द के चार निक्षेप हैं-नामश्रुत, स्थापनाश्रुत, सम्मज्ज-भूमिकम्मे, पंथ-तलागाइएसुं तु॥ द्रव्यश्रुत और भावश्रुत। इसी प्रकार स्कंध शब्द के भी चार नौका आदि से नदी पार करना, हल, कुलिक आदि से निक्षेप होते हैं। इनकी प्रज्ञापना पूर्व अर्थात् आवश्यक में कर खेत का उपक्रमण करना, गृह आदि का संमार्जन करना, दी गई है। मंदिर आदि का भूमिकर्म करना, मार्ग का शोधन, तालाब का २५६. चत्तारि दुवाराई, उवक्कम निक्खेव अणुगम नया य। उत्खनन आदि से परिकर्म करना यह सारा क्षेत्रोपक्रम है। काऊण परूवणयं, अणुगम-निज्जुत्ति सुत्तस्स॥ २६१. छायाए नालियाइ व, कालस्स उवक्कमो विउपसत्थो। कल्प के चार अनुयोगद्वार हैं-उपक्रम, निक्षेप, अनुगम रिक्खाईचारेसु व, साव-विबोहेसु व दुमाणं ।। और नय। इनकी प्ररूपणा जैसे अनुयोगद्वार' सूत्र में की गई छाया से, नालिका-घटिका से काल का माप करना जो है, वैसे ही सूत्रानुगम तथा सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति अनुगम विद्वानों द्वारा प्रशंसित होता है-यह कालोपक्रम है। अथवा पर्यन्त करनी चाहिए। नक्षत्र, ग्रह आदि के चार-गति के परिज्ञान के आधार पर २५७. अद्दारगं अनगरं, एगद्दारे य होइ पलिमंथो। काल के शुभ-अशुभ को जानना, वृक्ष विशेष (शमी, इमली चउदारे तेण भवे, देस पएसे य छिंडीओ ॥ आदि) के स्वाप और विबोध (अविकास और विकास) के जिस नगर के द्वार नहीं होता, वह अनगर होता है। जिस आधार पर सूर्य के अस्त-उदय को जानना यह सारा नगर के केवल एक द्वार होता है, वह कुनगर है, क्योंकि वहां कालोपक्रम है। प्रवेश और निर्गमन में अनेक बाधाएं होती हैं। इसलिए नगर २६२. गणिगा मरुगीऽमच्चे, अपसत्थो भावुवक्कमो होइ। के चार द्वार होते हैं। वहां भी उनके देश और प्रदेश में अनेक आयरियस्स उ भावं, उवक्कमिज्जा अह पसत्थो॥ छिंडिकाएं-छोटे द्वार आदि होगी। अप्रशस्त भावोपक्रम के तीन उदाहरण हैं-गणिका, (इसी प्रकार जिस ग्रंथ का अनुयोगद्वार नहीं दिया जाता ब्राह्मणी और अमात्य। आचार्य के भाव के अनुसार वर्तन है वह एकांततः अगम्य होता है, वह अद्वार वाले नगर की करना, उनकी सेवा-सुश्रूषा करना प्रशस्त भावोपक्रम है। तरह है, एक अनुयोगद्वार कर लेने पर भी वह दुरधिगम २६३. जो जेण पगारेणं, तूसइ कार-विणयाणुवत्तीहिं। होगा, एक द्वार वाले नगर की भांति। इसीलिए अनुयोग के आराहणाइ मग्गो, से च्चिय अव्वाहओ तस्स। चार द्वार किए गए हैं।) आचार्य जिस प्रकार से तुष्ट होते हैं, वैसे कार-वैयावृत्त्य २५८. सच्चित्ताई तिविहो, उवक्कमो दवि सो भवे दुविहो। आदि करना तथा विनयानुवृत्ति का अनुपालन करना। आचार्य परिकम्मणम्मि एक्को, बिइओ संवट्टणाए उ॥ की आराधना का यह अव्याहत मार्ग है। (जैसे नगर के देश, प्रदेश में छिंडिकाएं होती हैं, वैसे ही २६४. आगारिंगियकुसलं, जइ सेयं वायसं वए पुज्जा। अनुयोग के अनेक अवान्तर भेद हैं। उपक्रम के दो भेद तह वि य सिं न विकूडे, विरहम्मि य कारणं पुच्छे।। है-लौकिक और शास्त्रीय। लौकिक के छह भेद हैं-नाम, वही शिष्य आचार्य की आराधना कर सकता है जो स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव।) आचार्य के आकार और इंगित को जानने में कुशल होता है। द्रव्य उपक्रम के तीन भेद हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र। आचार्य यदि कहे-कौआ सफेद होता है, तो भी वह शिष्य १. अनुयोगद्वार का अर्थ है-अर्थ के उपाय।-अनुयोगस्य-अर्थस्य द्वाराणि-मुखानि उपाया इत्यर्थः। (वृ. पृ. ७८) २. कथाओं के लिए देखें-कथा परिशिष्ट नं. १८.२०॥ आचाय जिर वही लि. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका - = २९ उसका प्रतिषेध न करे, उसको खंडित न करे। जब २६८. पज्जव पुव्वद्दिट्ठा, संघाया पज्जव-ऽक्खराणं च। आचार्य एकांत में हों, उनके पास जनता न हो, तब शिष्य मुत्तूण पज्जवा खलु, संघायाई उ संखिज्जा॥ नम्रतापूर्वक कारण पूले-भंते ! आपने कौए को सफेद क्यों कल्प के व्याख्यान में अनंत पर्यव हैं। उनको पहले बतलाया? अर्थात् नंदी सूत्र में उद्दिष्ट कर दिया गया है।' संघात के २६५. भावे उवक्कम वा, छव्विहमणुपुब्विमाइ वण्णे। दो प्रकार हैं-पर्यवों के तथा अक्षरों के। पर्यव संघात अनंत जत्थ समोयरइ इम, अज्झयणं तत्थ ओयारे॥ हैं। उनको छोड़कर, अक्षरों के संघात संख्येय हैं। भावोपक्रम (शास्त्रीय उपक्रम) के छह प्रकार जैसे-संख्येय अक्षर-संघात, संख्येय श्लोक, संख्येय वेष्टक हे--आनुपूर्वीभाव उपक्रम, नामभाव उपक्रम, प्रमाणभाव आदि। उपक्रम, वक्तव्यताभाव उपक्रम, अर्थाधिकारभाव उपक्रम तथा २६९. उस्सन्नं सव्वसुयं, ससमयवत्तव्वया समोयरइ। समवतारभाव उपक्रम। इनका वर्णन कर यह अध्ययन अहिगारो कप्पणाए, समोयारो जो जहिं एस॥ (कल्प) किस उपक्रम में समवतरित होता है, वहां उसका उत्सन्न-सर्वकाल सर्वश्रुत स्वसमय वक्तव्यता में समवतार करना चाहिए। समवतरित होता है। अर्थाधिकार की दृष्टि से मूलगुण और २६६. दुण्ह अणाणुपुव्वी, न हवइ पुव्वाणुपुब्विओ पढम। उत्तरगुण में दोष लगाने वालों के प्रायश्चित्त स्वरूप यह पच्छाणुपुब्वि बिइयं, जइ उ दसा तेण बारसमं ।। यथायोग्य (यथास्थान) समवतरित होता है। (आनुपूर्वी के तीन प्रकार हैं-पूर्वानुपूर्वी, पश्चादानुपूर्वी २७०. परपक्खं दूसित्ता, जम्हा उ सपक्खसाहणं कुणइ। तथा अनानुपूर्वी) नो खलु अदूसियम्मी, परे सपक्खंजसा सिद्धी। कल्प और व्यवहार ये दो अध्ययन हैं। इनकी अनानुपूर्वी श्रुत परसमय वक्तव्यता में भी समवतरित होता है नहीं होती। पहले की पूर्वानुपूर्वी और दूसरे की पश्चादानुपूर्वी क्योंकि परपक्ष के दोष बताकर स्वपक्ष की सिद्धि की जाती होती है। कुछ आचार्य कहते हैं-कल्प, व्यवहार और दशा- है। परपक्ष को दूषित किए बिना स्वपक्ष की अञ्जसा-प्रधानएक श्रुतस्कंध है। यदि दशा को गिना जाए तो पूर्वानुपूर्वी से रूप से सिद्धि नहीं होती। प्रथम और पश्चानुपूर्वी से बारहवां है। २७१. निक्खेवो होइ तिहा, ओहे नामे य सुत्तनिप्फन्ने। २६७. सव्वज्झयणा नामे, ओसन्नं मीसए अवतरंति। अज्झयणं अज्झीणं, आओ झवणा य तत्थोहे ।। जीवगुण नाण आगम, उत्तरऽणंगे य काले य॥ २७२. इक्किक्कं तं चउहा, नामाईयं विभासिउं ताहे। नामभाव उपक्रम में भावों का निरूपण होता है। प्रायः भावे तत्थ उ चउसु वि, कप्पज्झयणं समोयरइ॥ सभी अध्ययन मिश्रक-क्षायोपशमिक भाव में समवतरित निक्षेप के तीन प्रकार हैं-ओघनिष्पन्न, नामनिष्पन्न और होते हैं। अतः 'कल्प' भी क्षायोपशमिक नाम में अवतरित सूत्रालापकनिष्पन्न। ओघनिष्पन्न के चार प्रकार हैं-अध्ययन, होता है। यह प्रमाण के आधार पर जीवगुणप्रमाण में अक्षीण, आय और क्षपणा। इन चारों के नाम आदि के भेद से अवतरित होता है। जीव गुण के तीन भेद हैं-ज्ञान, दर्शन और चार-चार प्रकार हैं। कल्पाध्ययन इन चारों के अध्ययन चारित्र। यह अध्ययन ज्ञानगुण प्रमाण में आता है। यह प्रमाण विषयक भाव में समवतरित होता है। भी चार प्रकार का है-प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान। २७३. नामे छव्विह कप्पो, दव्वे वासि-परसादिएहिं तु। यह अध्ययन आगम के अंतर्गत आता है। आगम भी दो खेत्ते काले जहुवक्कमम्मि भावे उ पंचविहो। प्रकार का है लौकिक और लोकोत्तर। यह अध्ययन नामनिष्पन्न निक्षेप में इसका 'कल्प' नाम है। यह छह लोकोत्तरिक में समाविष्ट होता है। लोकोत्तरिक आगम के दो प्रकार का है-नामकल्प, स्थापनाकल्प, द्रव्यकल्प, क्षेत्रप्रकार हैं-अंगप्रविष्ट और अनंगप्रविष्ट। यह अंगप्रविष्ट में कल्प, कालकल्प और भावकल्प। द्रव्यकल्प है-वासी, परशु आता है। उसके भी दो प्रकार हैं-कालिक और उत्कालिक। आदि। क्षेत्रकल्प है-क्षेत्रोपक्रम। कालकल्प है-कालोपक्रम। यह कालिक में आता है। नयप्रमाण में इसका समवतार नहीं भावकल्प पांच प्रकार का है। होता। कालिकश्रुत में नयों का समवतार नहीं होता। २७४. छव्विह सत्तविहे वा, दसविह वीसइविहे य बायाला। संख्याप्रमाण में कालिकश्रुत परिमाण संख्या में समवतरित जस्स उ नत्थि विभागो, सुव्वत्त जलंधकारो से। होता है। भावकल्प के पांच प्रकार ये हैं-छह प्रकार का, सात १. नंदी : सव्वागासपएसग्गं सव्वागासपएसेहिं अणंतगुणियं पज्जवक्खरं निप्फज्जइ। अर Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० प्रकार का, दस प्रकार का बीस प्रकार का तथा बयालीस प्रकार का इनकी व्याख्या पंचकल्प में है जिसको इन पांचों का परिज्ञान नहीं है, उसके स्पष्टरूप से जड़ान्धकार है। २७५. पत्तो वि न निक्खिप्पर, सुत्तालावस्स इत्थ निक्खेवो । सुत्ताणुगमे वुच्छं, इति अत्थे लाघवं होइ ॥ यद्यपि यहां सूत्रालापक निक्षेप का प्रसंग प्राप्त है, फिर भी उसका निक्षेप न करके, सूत्रानुगम की बात कहूंगा। इस प्रकार करने से अर्थ लाघव होता है। २७६. लक्खणओ खलु सिद्धी, तदभावे तं न साहए अत्थं । सिद्धमिदं सव्वत्थ वि, लक्खणजुत्तं सुयं तेण ॥ अनुगम के तीन द्वार हैं- लक्षण, तव पर्षद और सूत्रार्थ लक्षणयुक्त की अर्थसिद्धि होती है। लक्षणहीन सूत्र की अर्थसिद्धि नहीं होती। यह सर्वत्र सिद्ध है। इसलिए सूत्र लक्षणयुक्त होता है। २७७. अप्परगंथ महत्वं, बत्तीसादोसविरहियं जं च। लक्खणजुत्तं सुत्तं अट्ठहि य गुणेहिं उववेयं ॥ सूत्र के लक्षण - अल्पग्रंथ अर्थात् अल्पअक्षरों से निबद्ध, महान् अर्थवाला, बत्तीस दोषों से रहित, आठ गुणों से उपपेत एस प्रकार का सूत्र लक्षणयुक्त होता है। २७८. अलियमुवघायजणयं, अवत्थग निरत्थयं छलं दुहिलं । निस्सारमहियमूणं, पुणरुत्तं वाहयमजुत्तं ॥ २७९. कमभित्र वयणभिन्नं विभत्तिभिन्नं च लिंगभिन्नं च । अणभिहियमपयमेव य, सभावहीणं ववहियं च ॥ २८०, काल जइच्छविदोसो, समयविरुद्धं च वयणमित्तं च । अत्थावत्तदोसो, हवइ य असमासदोसो उ। २८१. उवमा रूवगदोसो, परप्पवती य संधिदोसो य । एए उ सुत्तवोसा, बत्तीसं हृति बत्तीसं हुंति नायव्वा ॥ सूत्र के बत्तीस दोष ९. अलीक - यथार्थ का गोपन करने वाला । २. उपघातजनक | ३. अपार्थक- असंबद्ध अर्थवाला । ४. निरर्थक-अर्थहीन | ५. छलयुक्त वचन । ६. द्रोणशील। ७. निस्सार ८. अधिक यथार्थ तत्त्व से अधिक का निरूपक । ९. न्यून - यथार्थ के किसी अवयव से रहित । १०. पुनरुक्त दोष से युक्त । ११. व्याहत परस्पर बाधित । १२. अयुक्त। १३. क्रमभिन्न १४. वचनमिन्न। १५. विभक्तिभिन्न। १६. लिंगभिन्न । १७. अनभिहित-स्वसमय में अमान्य | बृहत्कल्पभाष्यम् १८. अपद-पद रहित । १९. स्वभावहीन । २०. व्यवहित-कुछ कहकर अन्य का विस्तार करना । २१. कालदोष काल का व्यत्यय करना । २२. यतिदोष पद के मध्य विश्राम रहित । २३. छविदोष - परुष शब्दों में सूत्र का निर्माण । २४. समयविरुद्ध किसी भी सिद्धांत के विरुद्ध वचन वाला। २५. वचनमात्र - कोई वचन कहकर उसीको प्रमाणित करना, जैसे- कहीं पृथ्वी पर कीलिका गाड़कर कहना कि यही भूमी का मध्य है। २६. अर्थापत्तिदोष । २७. असमासदोष प्राप्त समास के स्थान पर समासरहित पद कहना। २८. उपमादोष काजी की भांति ब्राह्मण सूरापन करें। २९. रूपकदोष - पर्वत रूपी है, अपने अंगों से शून्य होता है। ३०. परप्रवृत्तिदोष - बहुत सारा अर्थ कह देने पर भी कोई निर्देश नहीं देता। ३१. परदोष । ३२. संधिदोष- संधियों से शून्य पद | ये सूत्र के बत्तीस दोष ज्ञातव्य हैं। २८२. निहोस सारवंतं च, उत्तमलंकियं । मियं महुरमेव थ।। च, उवणीयं सोवयारं सूत्र के आठ गुण (१) निर्दोष (२) सारयुक्त (३) हेतुयुक्त (४) अलंकारयुक्त (५) उपनीत (६) सोपचार (७) मित (८) मधुर । २८३. दोसा खलु अलियाइ, बहुपज्जायं च सारखं सुतं । साहम्मेयरहेऊ, सकारणं वा बि हेऊनुयं ॥ २८४. उवमाइ अलंकारो, सोवणयं खलु वयंति उवणीयं । काहलमणोवयारं, दंडगममियं तिहा महुरं ॥ के आठ गुणों की व्याख्या सूत्र १. निर्दोष अर्थात् अलीक आदि दोषों से रहित । २. सारवान्-जिसके अनेक पर्याय होते हैं। ३. हेतुयुक्त - साधर्म्य और वैधर्म्य हेतुओं से युक्त अथवा जो सकारण होता है वह । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका = ४. अलंकारयुक्त-उपमा आदि अलंकारों से युक्त। ५. उपनीत-उपसंहारयुक्त। ६.सोपचार काहल अर्थात् व्यर्थ। वह होता है अनुपचार। इसके विपरीत होता है सोपचार। ७.मित श्लोक और पदों से परिमित। ८. मधुर-मधुर तीन प्रकार का होता है-सूत्रमधुर, अर्थमधुर, और उभयमधुर। २८५. अप्पक्खरमसंदिद्धं, सारवं विस्सओमुहं। अत्थोभमणवज्जं च, सुत्तं सव्वन्नुभासियं॥ २८६. अत्थेसु दोसु तीसु व, सामन्नभिहाणओ उ संदिद्धं। जह सिंधवं तु आणय, अत्थबहुत्तम्मि संदेहो॥ २८७. उय-वइकारो ह त्ति य, हीकाराई य थोभगा हुंति। वज्ज होइ गरहियं, अगरहियं होइ अणवज्जं॥ श्लोक २८३ में 'च' शब्द व्यवहृत है। उसके आधार पर सूत्र के निम्न छह गुण और गृहीत हैं १. अल्पाक्षर-जिसमें अक्षर अल्प हो। २. असंदिग्ध संदिग्ध वह होता है जहां प्रयुज्यमान शब्द के दो-तीन अर्थ होते हों। जैसे किसी ने कहा-सैन्धव लाओ। सैन्धव के अनेक अर्थ हैं, जैसे-वस्त्र, अश्व, पुरुष, लवण आदि इस प्रकार अर्थ-बहुलता से संदेह होता है। ३. सारवत्-नवनीतभूत। ४. विश्वतोमुख सर्वत्र मान्य अर्थवाला। ५. अस्तोभ-उत, वै, हा, हि आदि अक्षरों का अकारण प्रक्षेप होने पर वह स्तोभक कहलाता है। इनसे रहित अस्तोभ है। ६.अनवद्य-अवध का अर्थ होता है गर्हित। अनवद्य अर्थात् अगर्हित। २८८. अहीणऽक्खरं अणहियमविच्चामेलियं अवाइद्धं । अक्खलियं च अमिलियं, पडिपुन्नं चेव घोसजुयं॥ सूत्रोच्चारण विधि-अहीनाक्षर, अधिकाक्षररहित, अव्यत्यानेडित, अव्याविन्द्र, अस्खलित, अमिलित, प्रतिपूर्ण और घोषयुक्त। (इनके अर्थ आगे की गाथाओं में) २८९. तित्त-कडुओसहाई, मा णं पीलिज्जऊ ण ते दे। पउणइ न तेहि अहिएहिं मरइ बालो तहाहारे॥ अहीनाक्षर-हीन के दो प्रकार हैं-द्रव्यहीन और भावहीन। द्रव्यहीन का यह उदाहरण है एक स्त्री का पुत्र ग्लान हो गया। वैद्य ने औषधी दी। स्त्री ने सोचा-ये औषधियां तिक्त और कटु हैं। ये इस बालक को पीड़ित न कर दें, इसलिए वह औषधियां बालक को नहीं देती। बालक स्वस्थ नहीं होता, मर जाता है। अधिक औषधियां देने पर भी बालक स्वस्थ नहीं होता, मर जाता है। इसी प्रकार हीन या अधिक आहार से भी मृत्यु हो जाती है। २९०. अक्खर-पयाइएहिं, हीणऽइरेगं च तेसु चेव भवे। दोसु वि अत्थविवत्ती, चरणे य अयो य न य मुक्खो ।। सूत्र को अक्षर अथवा पदों से हीन या अतिरेक रूप में पढ़ने पर अर्थव्यापत्ति-अर्थ का विसंवाद होता है। अर्थ के विसंवाद से चरण का विसंवाद होता है और उससे मोक्ष का अभाव होता है। २९१. विज्जाहर रायगिहे, उप्पय पडणं हीणदोसेणं। सुणणा सरणा गमणं, पयाणुसारिस्स दाणं च। राजगृह में भगवान् महावीर समवसृत हुए। एक विद्याधर वंदना कर लौट रहा था। विद्या के कुछ अक्षरों की विस्मृति हो जाने पर वह आकाश में उत्पतन-पतन करने लगा। उसका आकाश-गमन अवरुद्ध हो गया। अभयकुमार ने यह देखा। विद्याधर से पूछा। उसने सारी बात बताई। अभय ने कहा यदि तुम मुझे विद्या सिखाओगे तो मैं तुम्हारी सहायता कर सकता हूं। विद्याधर ने यह स्वीकार कर लिया। अभय ने कहा-विद्या का एक पद सुनाओ। विद्याधर ने पद सुनाया। अभय को पदानुसारी लब्धि प्राप्त थी। उस लब्धि से उसने विस्मृत अक्षरों की स्मृति करा दी। विद्याधर अभय को विद्या देकर आकाशमार्ग से चला गया। २९२. पाडलऽसोग कुणाले, उज्जेणी लेहलिहण सयमेव । अहिय सवत्ती मत्ताहिएण सयमेव वायणया। २९३. मुरियाण अप्पडिहया, आणा सयमंजणं निवे णाणं। गामग सुयस्स जम्म, गंधव्वाऽऽउट्टणा कोइ। २९४. चंदगुत्तपपुत्तो य, बिंदुसारस्स नत्तुओ। __ असोगसिरिणो पुत्तो, अंधो जायइ कागिणिं ।। पाटलिपुत्र नगर में अशोक राज्य कर रहा था। वह चन्द्रगुप्त का पौत्र और बिन्दुसार का पुत्र था। उसका पुत्र कुणाल उज्जयनी में था। एक बार अशोक ने स्वयमेव कुणाल के नाम एक लेख (संदेश) लिखा। कुणाल को पढ़ाया जाए। सौतेली मां ने 'अधीयतां' के 'अ' कार पर बिन्दु लगा दिया। अब वह शब्द 'अंधीयतां' हो गया। मात्रा की अधिकता हो जाने के कारण संदेश को पढ़ने वाले, उस शब्द को नहीं पढ़ते थे। तब कुमार ने स्वयं उसे पढ़ा। उसने सोचा-मौर्यवंश की आज्ञा अप्रतिहत होती है, यह मन में विचार कर उसने तप्तशलाका से स्वयं आंखों को आंज दिया। राजा ने यह जाना तो परितप्त होकर कुणाल को गांव Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ =बृहत्कल्पभाष्यम् में भेज दिया। कुणाल के पुत्र हुआ। अंधकुणाल गंधर्वविद्या से समस्त लोगों को प्रभावित करता था। वह गांव-गांव में घूमने लगा। वह घूमता-घूमता पाटलिपुत्र में गया। वहां के लोगों ने राजा को निवेदन किया कि एक अंधा व्यक्ति गंधर्वविद्या में अतीव कुशल है। वह यहां आया है। राजा ने उसे राजभवन में बुला भेजा। उसने राजा के आगे यह गीत गाया 'चंदगुत्तपपुत्तो यं, बिंदुसारस्स नत्तुओ। असोगसिरिणो पुत्तो, अंधो जायइ कागिणिं॥' राजा ने पूछा-तुम कौन हो? उसने कहा-मैं चन्द्रगुप्त का प्रपौत्र, बिन्दुसार का पौत्र और अशोकश्री का पुत्र हूं। मैं अंधा हूं और मैं 'काकिणी'-राज्य की याचना करता हूं।' २९५. जो जहा वट्टए कालो, तं तहा सेव वानरा। मा बंजुलपरिब्भट्ठो, वानरा पडणं सर॥ (कामिक सरोवर के तट पर एक विशाल वंजुल वृक्ष था। उस वृक्ष पर चढ़ कर कोई तिर्यंच प्राणी सरोवर में गिरता तो वह मनुष्य बन जाता और यदि मनुष्य नीचे गिरता तो वह देव बन जाता। दूसरी बार पुनः गिरने पर वह मूल की स्थिति में आ जाता। एक बार वानर दंपति प्रतिदिन की भांति वहां पानी पीने आया। उसने मनुष्य बनने और देव बनने मात्र की बात सुनी। प्रकृतिगमन की बात नहीं सुनी। वह वानर युगल वृक्ष से सरोवर में कूदा और वह मनुष्य युगल में बदल गया। दोनों का रूप अप्रतिम था। मनुष्य बने बंदर ने अपनी पत्नी से कहा-एक बार और कूदें और देवरूप को प्राप्त कर लें। स्त्री ने कहा-क्या पता ऐसा होगा या नहीं? इसलिए सरोवर में न गिरा जाए। मनुष्य ने कहा-देव नहीं बनेंगे तो क्या अपना मनुष्यरूप भी विनष्ट हो जाएगा? स्त्री द्वारा प्रतिषेध करने पर भी वह ऊपर से कूदा और वानर हो गया। उधर से राजपुरुष आए और उस सुंदर स्त्री को ले गए। राजा ने उसको रानी बना दिया। उस बंदर को मदारियों ने पकड़ लिया और उसे अनेक करतबों में शिक्षित कर दिया। एक बार मदारी उसी बंदर को लेकर राजा के समक्ष करतब दिखा रहा था। राजा१. पूरे कथानक के लिए देखें-कथा परिशिष्ट नं. २३। २. कुछेक कोलिक वजिका में गए। वहां उन्होंने खीर पकाने की बात सोची। वहां वे दृध ले आए और उस गर्म कर दिया। फिर उन्होंने सोचा-उसमें जो कुछ भी डाला जाता है, वह खीर बन जाती है। उस गर्म दूध में उन्होंने चावल, मूंग, तिल आदि डाले। वे सारे नष्ट हो गए। अकिंचित्कर हो गए। रानी दोनों करतब देख रहे थे। वानर बार-बार राजपत्नी को देख रहा था। रानी ने तब कहा-) 'वानर! जैसा समय (कालगत अवस्था) हो, वैसा ही वर्तन करो। वंजुल वृक्ष से एक बार सरोवर में गिरने पर मैंने पुनः उसमें दूसरी बार गिरने का प्रतिषेध किया था। पर तुम नहीं माने। अब उसको भोगो।' २९६. विच्चामेलण अन्नुन्नसत्थपल्लवविमिस्स पयसो वा। तं चेव य हिट्टवरिं, वायढे आवली नायं ।। व्यत्यानेडित का अर्थ है--अन्यान्यशास्त्रों के अंशों से मिश्रित। उसके दो भेद हैं-द्रव्यतः व्यत्यानेडित और भावतः व्यत्यामेडित। द्रव्यतः व्यत्यानेडित में पायस' का उदाहरण है। सूत्र के शब्दों को नीचे-ऊपर व्यत्यास करना व्याविद्ध है। इसमें 'आवली' का उदाहरण है।३ २९७. खलिए पत्थरसीया, मिलिए मिस्साणि धन्नवावणया। मत्ताइ-बिंदु-वन्ने, घोसाइ उदत्तमाईया।। स्खलित के दो भेद हैं। द्रव्यस्खलित में प्रस्तरसीता' अर्थात् प्रस्तरों से आकीर्ण क्षेत्र। इसमें चलने वाले हल आदि स्खलित होते हैं। भावस्खलित जैसे-सूत्रालापकों को बीचबीच से छोड़कर बोलना, जैसे-धम्मो, अहिंसा देवावि तं...। मीलित अनेक धान्यों को मिलाकर खेत में बोना। यह द्रव्यतः मीलित है। भावतः मीलित है-अनेक सूत्रालापकों का मिश्रण कर देना। अप्रतिपूर्ण अर्थात् मात्रा, बिन्दु, वर्ण आदि से अप्रतिपूर्ण। उदात्त आदि घोषों से रहित-अघोषयुत कहलाता है। २९८. मुत्तूण पढम-बीए, अक्खर-पय-पाय-बिंदु-मत्ताणं। सव्वेसि समोयारो, सट्ठाणे चेव चरिमस्स। प्रथम पद हीनाक्षर, द्वितीय पद अधिकाक्षर-इन दो पदों को छोड़कर शेष पांच-अक्षर, पद, पाद, बिन्दु, मात्रा--इन सबका समवतार करना चाहिए। चरिम अर्थात् घोषयुत का स्वस्थान में समवतार होता है। इसमें केवल घोष से अपरिपूर्ण ही ग्राह्य है, अक्षर आदि से नहीं। २९९. खलिय मिलिय वाइद्धं, हीणं अच्चक्खरं वयंतस्स। विच्चामेलिय अप्पडिपुन्ने घोसे य मासलहूं। स्खलित, मीलित, व्याविद्ध, हीनाक्षर, अत्यक्षर, ३. द्रव्यतः व्याविद्ध में आवली का उदाहरण एक आभीरी नगर में गई। एक बनियानी उसकी सहेली थी। वह हार पिरो रही थी। आभीरी उसके पास जाकर बोली-मुझे दो। मैं हार पिरो दूंगी। बनियानी ने उसे दे दिया। आभीरी उसको विपरीत रूप से नीचे-ऊपर पिरो दिया। बनियानी ने आकर देखा और कहा-अरे मूर्खे! यह क्या किया? हार को नष्ट कर डाला। महान अकार्य कर दिया। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका व्यत्याम्रेडित, अपरिपूर्ण तथा घोष रहित ऐसा सूत्रोच्चारण करने पर उसका प्रायश्चित्त है - मासलघु ।' ३००. जं तु निरंतरदाणं, जस्स व तस्स व तबस्स तं गुरुगं । गंपुण संतरदाणं, गुरू वि सो खलु भवे लहुओ ।। प्रायश्चित्त के तीन प्रकार- दानप्रायश्चित्त तपः प्रायश्चित्त तथा कालप्रायश्चित्त । ये तीनों गुरु-लघु- दोनों प्रकार के होते है। जिस किसी तपस्या का गुरुक तेला आदि तथा अगुरुक निर्विकृतादि का निरंतर प्रायश्चित्त आता है, वह है (गुरु) दान प्रायश्चित जो तेले आदि का प्रायश्चित्त सान्तर दिया जाता है वह गुरुक होते हुए भी लघु है। ३०१. काल तवे आसज्ज व गुरू वि होइ लहुओ लहू गुरुगो । कालो गिम्हो उ गुरु, अट्ठाइ तवो लहू सेसो ॥ काल और तप के आधार पर गुरु भी लघु हो जाता है और लघु भी गुरु हो जाता है। काल की अपेक्षा ग्रीष्मकाल गुरु है और तप अष्टम आदि। शेष काल और तप लघु है। ३०२. संहिया य पयं चेव, पयत्थो पयविग्गहो । चालणा य पसिद्धी य, छव्विहं विद्धि लक्खणं ॥ संहिता, पद, पदार्थ, पदविग्रह, चालना और प्रसिद्धि (प्रत्यवस्थान) व्याख्या के ये छह लक्षण हैं। इनको जानो । ३०३. सन्निकरिसो परो होइ संहिया संहिया व जं अत्था । लोगुत्तर लोगम्मि य, हवइ जहा धूमकेउ त्ति ॥ सूत्र में दो अथवा अनेक पद का अर्थप्रदायी सन्निकर्ष होता है, वह है-संहिता अथवा जिसमें अर्थ संहित होते हैं वह है संहिता संहिता के दो प्रकार है-लौकिक और लोकोत्तर । लौकिक है-यथा धूमकेतुः इसमें यथा धूम और केतु ये तीन पद हैं। ३०४. तिपर्य जह ओवम्मे, धूम अभिभवे केउ उस्सए अत्थो । को सुत्ति अग्गि उत्ते, किंलक्खणो दहण - पयणाई ॥ 'यथा धूमकेतुः यह तीन पदों वाला संहितासूत्र है। पदार्थ यथा शब्द उपमा के अर्थ में, 'धूम' शब्द परिभव के आर्य में 'केतु' शब्द उच्छ्रय के अर्थ में प्रयुक्त है। ऐसा क्या है ? वह है अग्नि । उसका लक्षण क्या है ? दहन, पचन, प्रकाशन आदि में समर्थ ३०५. जइ एव सुत्त सोवीरगाई वि होंति अग्गिमक्खेवो । न वि ते अग्गि पइन्ना, कसिणम्मिगुणन्निओ हेऊ ॥ ३०६. दिवंतो घडगारो, न वि जे उक्खेवणाइ तक्कारी । जम्हा जहुत्तऊसमन्निओ निगमणं अम्मी ॥ दहन, पंचन, प्रकाशन आदि में अग्नि समर्थ है तो शुक्ल १. वृत्तिकार का कथन है कि लघु के ग्रहण से गुरु का भी ग्रहण होता है। गुरुक के तीन पर्यायवाची शब्द हैं-गुरुक, अनुद्घाती तथा कालक । लघुक के तीन पर्यायवाची है-लघुक, उद्घातित तथा शुक्ल । ३३ (शिव) सौवीरक आदि भी दहन करते हैं, करीष आवि भी पचन में समर्थ हैं, खद्योत, मणि आदि प्रकाशन करने में समर्थ हैं, फिर भी वे अग्नि नहीं है । वह आक्षेप 'चालना' है। प्रतिज्ञा वाक्य है- शुक्ल आदि पदार्थ अग्नि नहीं है। समस्त गुणों से अन्वित है यह हेतु है । दृष्टांत है घटकार । घट का संपूर्ण निर्वर्तक घटकार होता है परंतु वह घट के उत्क्षेपण आदि का कर्ता नहीं होता। इसी प्रकार प्रस्तुत प्रसंग में भी जो दहन करता है, पकाता है, प्रकाशन करता है, वह अपने स्वगतलक्षण से ऐसा करता है। वही यथोक्तगुण-समन्वित परिपूर्ण अग्नि है, शुक्ल आदि नहीं। यह निगमन है। तग्गुणलद्धी हेऊ, दिट्टंतो होइ ३०७. उत्तरिए जह दुमाई, तदत्थहेऊ अविग्गहो चेव । को पुण बुमुत्ति बुत्तो, भण्णइ पत्ताइउववेओ ॥ ३०८. तदभावे न दुमु त्ति य, तदभावे वि स दुमुत्तिय पइन्ना । रहकारो ॥ लोकोत्तर में जहा दुमस्स पुफ्फेसु भ्रमरो आवियह रसं' यह संहिता है। पद यथा क्रम, पुष्प, समर, आपिबति रस पदार्थ - यथा उपमा के अर्थ में द्रुम-ढुंगती धातु से जो ऊपर जाता है वह है द्रुम-वृक्ष । पुष्प-जो विकसित होते हैं वे फूल । भ्रमर-भ्रम- अनवस्थान धातु से भ्रमर अर्थात् निरंतर घूमने वाला पां पाने आइ मर्यादायां धातु से आपिबतिपीना रस रस्ते आस्वाद्यते इति रसः रस का आस्वाद लेना। यहां व्यस्तपद होने के कारण पद-विग्रह नहीं है। चालना - प्रश्नकर्त्ता पूछता है- द्रुम का लक्षण क्या कहा है? आचार्य कहते हैं - जो पत्र, पुष्प आदि से युक्त होता है, वह है द्रुम। प्रश्नकर्ता कहता है- क्या इनके अभाव में उसका द्रुमत्व नष्ट हो जाता है ? वह द्रुम नहीं रहता ? प्रत्यवस्थान- उनके अभाव में भी वह द्रुम है यह प्रतिज्ञा वचन है । तद्गुणलब्धि होने के कारण यह हेतु है । दृष्टांत है- रथकार । रथकार रथ बनाने का प्रयत्न न करते हुए भी उसमें रथकर्तृत्व की लब्धि है। इसी प्रकार पत्र-पुष्पों के शटित हो जाने पर भी वह म है, क्योंकि उसमें उस गुणलब्धि की निवृत्ति नहीं हुई है। ३०९. सुत्तं पयं पयत्थो, पयनिक्खेवो य निन्नयपसिद्धी । पंच विगप्पा एए दो सुत्ते तिन्नि अत्थम्मि ॥ सूत्रोच्चारण, पद, पदार्थ, पदविक्षेप (पदार्थनोदना), निर्णयप्रसिद्धि व्याख्या के ये पांच विकल्प हैं। इन प्रथम दो २. जैसे प्रायश्चित्त है-चार लघुक अथवा षट्लघुक-वहां तेला अथवा चोला सान्तर दिया जाता है। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ -बृहत्कल्पभाष्यम् विकल्प-सूत्र और पद सूत्र में प्रविष्ट हैं और शेष तीन विकल्प अर्थ संबंधी हैं। ३१०. सुत्तं तु सुत्तमेव उ, अहवा सुत्तं तु तं भवे लेसो। __ अत्थस्स सूयणा वा, सुवुत्तमिइ वा भवे सुत्तं॥ जो सुप्त की भांति होता है, अर्थ से अबोधित होता है वह है सुत्त (सुस अथवा सूत्र)। अथवा सूत्र होता है श्लेषतंतुरूप। अथवा अर्थ की सूचना देने वाला होता है सूत्र । अथवा शोभनीय कथन का अर्थ है सूक्त प्राकृत में 'सुत्त'। ३११. नेरुत्तियाई तस्स उ, सूयइ सिव्वइ तहेव सुवइ ति। अणुसरति ति य भेया, तस्स उ नामा इमा हुंति॥ सूत्र शब्द के निरुक्त-सूत्रयतीति सूत्रम्-जो सूचित करता है, वह है सूत्र। सिव्यतीति सूत्रम्-जो सीता है वह है सूत्र । सुवतीति सूत्रम-जो प्रसूत करता है वह है सूत्र। अनुसरतीति सूत्रम्-जो अनुसरण करता है, वह है सूत्र। ये निरुक्त के भेद हैं। सूत्र शब्द के सुप्त आदि ये नाम होते हैं। ३१२. पासुत्तसमं सुत्तं, अत्थेणाबोहियं न तं जाणे। लेससरिसेण तेणं, अत्था संघाइया बहवे॥ प्रसुप्त के समान होता है सूत्र। अर्थ के अबोधित होने पर कुछ भी नहीं जान पाता। अथवा श्लेषसदृश होता है सूत्र। अनेक अर्थ उसमें संघातित होते हैं। ३१३. सूइज्जइ सुत्तेणं, सूई नट्ठा वि तह सुएणऽत्थो। सिव्वइ अत्थपयाणि व, जह सुत्तं कंचुगाईणि॥ सूई गुम हो गई। यदि उसमें सूत पिरोया हुआ हो वह सूत के द्वारा सूचित हो जाती है, मिल जाती है। इसी प्रकार श्रुत के द्वारा अर्थ सूचित होता है सूचनात् सूत्र इति। श्रुत अर्थपदों को सीता है, परस्पर जोड़ता है। जैसे सूत कंचुक आदि कपड़े को सीता है। ३१४. सूरमणी जलकतो, व अत्थमेवं तु पसवई सुत्तं। वणियसुयंध कयवरे, तदणुसरंतो रयं एवं॥ जैसे सूर्यकान्तमणि अग्नि में और जलकान्तमणि जल में प्रक्षिप्त होते पर दोनों दीप्ति पैदा करते हैं, वैसे ही सूत्र अर्थ का प्रसव करता है। अनुसरण दो प्रकार का होता है-द्रव्यतः और भावतः। द्रव्यतः अनुसरण में 'वणिक् के अंधे पुत्र और कचवर' का दृष्टांत है। वह अंधा पुत्र रज्जु का अनुसरण कर कचरे को बाहर फेंक देता है। इसी प्रकार वणिक्स्थानीय हैं १. एक वणिक था। उसका एकाकी पुत्र अंधा था। वणिक् ने सोचा-इसे कुछ काम में लगाना है। निठल्लापन इसके जीवन का अभिशाप होगा और यह सदा-सर्वत्र पराभव का भागी होगा। सेठ ने दो खंभे गड़वाकर वहां रज्जु बांध दी। अब वह अंधा पुत्र कमरों की सफाई करता और रज्जु का अनुसरण कर कचरे को बाहर डाल देता। आचार्य और अंधस्थानीय हैं साधु। रज्जुस्थानीय है सूत्र और कचवरस्थानीय है-आठ प्रकार के कर्म। ३१५. सन्ना य कारगे पकरणे य सुत्तं तु तं भवे तिविह। उस्सग्गे अववाए, अप्पे सेए य बलवंते॥ सूत्र के तीन प्रकार हैं-संज्ञासूत्र, कारकसूत्र और प्रकरणसूत्र। अथवा सूत्र के दो प्रकार हैं-औत्सर्गिक और आपवादिक। क्या उत्सर्गसूत्र अल्प हैं या अपवादसूत्र अल्प हैं? ये दोनों अपने-अपने स्थान में श्रेयस्कर और बलवान होते हैं। (यह द्वार गाथा है। विवरण आगे के श्लोकों में।) ३१६. उवयार अनिद्गुरया, कज्जित्थीदाणमाहु नित्थक्का। जे छे' आमगंधादि, आरं सन्ना सुयं तेणं॥ __संज्ञासूत्र-'यत् सामयिक्या संज्ञया सूत्रं भण्यते तत् संज्ञासूत्रम्'-जो सूत्र सामयिकी संज्ञाओं से ग्रथित है वह है संज्ञा-सूत्र। जैसे-'जे छेए से सागारियं न सेवए' 'सव्वामगंधं परिन्नाय निरामगंधो परिव्वए' 'आर दुगुणेणं पारं एगगुणेणं'-आर अर्थात् संसार का दुगुणेणं-राग और द्वेष से परिहार करे और पार अर्थात् मोक्ष को एगगुण-राग-द्वेषपरिहाररूप एक गुण से साधे। इत्यादि। संज्ञावचन ही कहीं जुगुप्सित अर्थ में प्रयुज्यमान होने पर वह उपचार वचन होता है। उपचार वचन से कहे जाने वाले जुगुप्सित अर्थ में निष्ठुरता नहीं होती। किसी कारण के उपस्थित होने पर साध्वियों को साधु सूत्रवाचना दे सकते हैं-यह पूर्ववर्ती आचार्यों का कथन है। 'बिना प्रयोजन वाचना देने से वे निर्लज्ज हो जाती हैं।' प्रस्तुत सूत्र में 'कारणवश' की मीमांसा नहीं है। वह अन्यत्र है। इसलिए यह संज्ञासूत्र है। ३१७. सव्वन्नुपमाणाओ, जइ वि य उस्सग्गओ सुयपसिद्धी। वित्थरओऽपायाण य, दरिसणमिइ कारगं तम्हा।। कारकसूत्र-यद्यपि सर्वज्ञ के प्रमाण से 'उत्सर्गतः'एकांततः समचे श्रत की प्रसिद्धि है। फिर भी विस्तार से उसमें अपाय के दर्शन होते हैं, इसलिए अधिकृत अर्थ की सिद्धि करने वाला सूत्र 'कारक सूत्र' कहलाता है। जिस सूत्र में से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ'--हो वह कारक सूत्र है।' ३१८. पगरणओ पुण सुत्तं, जत्थ उ अक्खेव-निन्नयपसिद्धी। नमि-गोयमकेसिज्जा, अद्दग-नालंदइज्जा य॥ प्रकरणसूत्र वे हैं जिनमें स्वसमय (अपने सिद्धांत) के अनुसार आक्षेप और निर्णयप्रसिद्धि वर्णित हो।' २. अहाकम्मन्नं भुंजमाणे समणे निग्गंथे कइ कम्मपगडीओ बंधंति? गोयमा! आउवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ। से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ? (भग. १, उ.६) ३. आक्षेप का अर्थ है-सूत्रदोष अथवा पृच्छा। निर्णयप्रसिद्धि प्रत्यवस्थानं। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका = ३५ जैसे-नमिप्रव्रज्या', गौतमकेशीय', आर्द्रकीय, नालन्दीय आदि अध्ययन। ३१९. उज्जयसग्गुसग्गो, अववाओ तस्स चेव पडिवक्खो। उस्सग्गा विनिवतियं, धरेइ सालंबमववाओ।। उत्सर्ग का निरुक्त है-उद्यतः सर्गः-विहारः उत्सर्गः अर्थात् पूर्ण प्रयत्नपूर्वक निर्वाह योग्य मूल नियम। उसी का प्रतिपक्ष है-अपवाद। जो उत्सर्गमार्ग से प्रच्युत हो जाता है वह ज्ञान आदि का आलंबन लेकर अपवाद के मार्ग को धारण करता है। ३२०. धावतो उव्वाओ, मग्गन्नू किं न गच्छइ कमेणं। किं वा मउई किरिया, न कीरये असहुओ तिक्खं॥ शिष्य पूछता है-उत्सर्ग से अपवाद में आने वाला भग्नव्रत नहीं होता? आचार्य दृष्टांत देते हैं-कोई व्यक्ति अपने गंतव्य तक पहुंचने के लिए दौड़ता है। वह श्रान्त हो जाता है। तो क्या वह मार्गज्ञ व्यक्ति क्रमशः धीरे-धीरे नहीं चलता? क्या तीक्ष्ण क्रिया को न सह सकने वाले रोगी की मृदु क्रिया से चिकित्सा नहीं की जाती? इसी प्रकार उत्सर्गमार्ग से परिभ्रष्ट व्यक्ति अपवादमार्ग से चलता है। ३२१. उन्नयमविक्ख निन्नस्स पसिद्धी उन्नयस्स निन्नाओ। इय अन्नुन्नपसिन्दा, उस्सग्गऽववायमो तुल्ला॥ जैसे उन्नत की अपेक्षा से निम्न की प्रसिद्धि है और निम्न की अपेक्षा से उन्नत की प्रसिद्धि है, वैसे ही अन्योन्यप्रसिद्ध अर्थात् उत्सर्ग से अपवाद और अपवाद से उत्सर्ग प्रसिद्ध है, इस प्रकार उत्सर्ग और अपवाद-दोनों तुल्य हैं। ३२२. जावइया उस्सग्गा, तावइया चेव हुंति अववाया। जावइया अववाया, उस्सग्गा तत्तिया चेव॥ शिष्य ने पूछा-भंते! उत्सर्ग अल्प हैं अथवा अपवाद ? आचार्य ने कहा-दोनों तुल्य हैं। जितने उत्सर्ग हैं, उतने हैं अपवाद। जितने अपवाद हैं, उतने ही हैं उत्सर्ग। ३२३. सट्ठाणे सट्ठाणे, सेया बलिणो य हुंति खलु एए। सट्ठाण-परट्ठाणा, य हुंति वत्थूतो निप्फन्ना॥ ये दोनों अपने अपने स्थान में श्रेयस्कर और बलवान् होते हैं। परस्थान में वे अश्रेयस्कर और दुर्बल होते हैं। स्वस्थान और परस्थान वस्तु (पुरुष आदि) से निष्पन्न होते हैं। ३२४.संथरओ सट्ठाणं, उस्सग्गो असहूणो परहाणं। इय सट्ठाण परं वा, न होइ बत्थू विणा किंचि॥ जो मर्यादा के अनुसार जीवन यापन कर सकता है उस पुरुष के लिए उत्सर्ग स्वस्थान है और अपवाद परस्थान। जो मर्यादा के अनुसार जीवन यापन में असमर्थ है, उसके लिए अपवाद स्वस्थान है और उत्सर्ग परस्थान। इस प्रकार वस्तुपुरुष के बिना न किंचित् स्वस्थान अथवा परस्थान निष्पन्न होता है। ३२५. नाम निवाउवसग्गं, अक्खाइय मिस्सयं च नायव्वं । पंचविहं होइ पयं, लक्खणकारेहिं निहिट्ठ। पदलक्षणकारों ने पांच प्रकार के पदों का निर्देश किया है। १. नाम-जैसे-अश्व। २. निपात-जैसे-खलु। ३. उपसर्ग-जैसे-परि। ४. आख्यातिक जैसे-करोति करता है। ५. मिश्र-जैसे-संयत। ३२६. होइ पयत्थो चउहा, सामासिय तद्धिओ य धाउकओ। नेरुत्तिओ चउत्थो, तिण्ह पयाणं पुरिल्लाणं॥ पूर्ववर्ती तीन पदों नाम, निपात और उपसर्ग का चार प्रकार का पदार्थ होता है-सामासिक, तद्धित, धातुकृत और नैरुक्त। ३२६/१.दंदे य बहुव्वीही, कम्मधारय दिगूयए चेव। तप्पुरिस अव्वईभावे, एगसेसे य सत्तमे। सामासिक पदार्थ के सात प्रकार हैं-(१) द्वन्द्व, (२) बहुब्रीही, (३) कर्मधारय, (४) द्विगु, (५) तत्पुरुष, (६) अव्ययीभाव, (७) एक शेष। (जैसे-पुरुषश्च, पुरुषश्च, पुरुषश्च पुरुषाः।) ३२६/२. कम्मे सिप्पे सिलोगे य,संजोग-समीवओ य संजूहे। ईसरियाऽवच्चेण य, तद्धियअत्थो उ अट्ठविहो॥ तद्धित पदार्थ के आठ प्रकार हैं(१) कर्म से-जैसे-तृणहारक (२) शिल्प से-जैसे-जुलाहा अपवादसूत्र-कप्पइ निग्गंथाणं पक्के तालपलंबे भिन्नेऽअभिन्ने वा पडिगाहित्तए। कल्प. उ. १६३ औत्सर्गिक-आपवादिक-नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा अन्नमन्नस्स मोयं आदित्तए वा आयमित्तए वा अन्नत्थागादेहि रोगायंकेहि। कल्प. उ. ५१४७-४८ • आपवादिक-औत्सर्गिक-चम्मं मंसं च दलाहि मा अट्ठियाणि। नात १. उत्तराध्ययन, नौवां अध्ययन। २. वही, तेईसवां अध्ययन। ३. सूत्रकृतांग, द्वितीय श्रुतस्कंध, छठा अध्ययन। ४. वही, सातवां अध्ययन। ५. वृत्तिकार ने अन्यान्य सूत्रों का सोदाहरण उल्लेख किया है• उत्सर्गसूत्र-नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा आमे तालपलंबे अभिन्ने पडिगाहित्तए। कल्प. उ. ११२ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् (३) श्लोक-श्लाघा से-जैसे श्रमण, संयत। विभाजन कर, अक्षरविधिज्ञ पुरुष जो भूमी जिसके योग्य (४) संयोग से-जैसे राजा का श्वसुर। होती है, उन-उनको देने के लिए उंडिका अर्थात अक्षरसहित (५) समीपता से-जैसे पहाड़ के समीप नगर। मुद्रिका स्थापित कर दी जाती है। फिर जो जिसकी भूमी है, (६) संव्यूह से-जैसे तरंगवतीकार। वह अपने स्थान का शोधन करता है। फिर भूमी का खनन (७) ऐश्वर्य से-जैसे राजा। कर, ईंट के टुकड़े डालकर कुट्टन होता है। पीठिका का (८) अपत्य से-जैसे तीर्थंकरमाता, राजमाता। निर्माण कर उस पर प्रासाद खड़ा किया जाता है। प्रासाद को धातुकृत पदार्थ-जैसे भू सत्तायां-परस्मैपद। रत्नों से परिपूरित कर अर्थात् उसकी पूरी सजावट कर, फिर नैरुक्त पदार्थ जैसे मह्यां शेते-महिषः । उसमें सुखपूर्वक निवास किया जाता है। ३२७. कारगकओ चउत्थे, मिस्सपदे मिस्सओ चउत्थो उ। यह दृष्टांत है। इसका अर्थोपनय इस प्रकार है--भूमीग्रहण सामासिओ सत्तविहो, हवइ पयत्थो उ नायव्वो॥ स्थानीय है पुरुषग्रहण अर्थात् पुरुष की परीक्षा कर शुद्ध चतुर्थ अर्थात् आख्यातिक पद का पदार्थ 'कारककृत।। पुरुष को प्रव्रज्यादान देना। मिश्रपद में मिश्रपदार्थ। इनमें जो सामासिक पदार्थ है, वह उक्त प्रकार से नगरस्थानीय है संयम। उंडिकास्थानीय है सात प्रकार का ज्ञातव्य है। रजोहरण आदि मुनिलिंग। फिर मिथ्यात्व, अज्ञान आदि ३२८. अक्खेवो सुत्तदोसा, पुच्छा वा तत्तो निन्नयपसिद्धी। कचवर-स्थानीय का शोधन। मिथ्यात्व का उत्खनन, आयपया दो सुत्ते, उवरिल्ला तिन्नि अत्थम्मि।। सम्यक्त्वरूपी द्रुघण से कुट्टन, फिर ईंटस्थापनसदृश व्रतों का आक्षेप का अर्थ है-सूत्रदोष अथवा पृच्छा। निर्णयप्रसिद्धि स्वीकरण, तदनन्तर आवश्यक आदि से सूत्रकृत पर्यन्त का अर्थ है-प्रत्यवस्थान (व्याख्या का एक लक्षण)। सूत्र, पीठिका होती है। पीठिका का निर्माण हो जाने पर, प्रासादपद आदि पांचों में प्रथम दो अर्थात् संहिता, और पद-ये स्थानीय कल्प और व्यवहार दिए जाते हैं। उनके जो अर्थपद सूत्र के अंतर्गत तथा शेष पदार्थ आदि तीन पद अर्थ के हैं वे रत्नतुल्य हैं। अंतर्गत हैं। ३३४. सेलघण कुडग चालिणि, परिपूणग हंस महिस मेसे य। ३२९. अत्थवसा हवइ पयं, अत्थो इच्छियवसेण विन्नेओ। मसग जलूग बिराली, जाहग गो भेरि आभीरी।। इच्छा य पकरणवसा, पगरणओ निच्छओ सत्थे।। शैलघन', कुटक, चालिनी, परिपूणक, हंस, महिष, मेष, अर्थ का वशवर्ती होता है पद। अर्थ इच्छा के वश में मशक, जलौका, बिडाली, जाहक, गौ, भेरी तथा आभीरी-ये जानना चाहिए। इच्छा प्रकरण के वश में होती है। प्रकरण का चौदह दृष्टांत कल्प-व्यवहार को ग्रहण-योग्य परिषद् की निश्चय शास्त्र के अनुसार होता है। परीक्षा के लिए हैं। इनका विवरण आगे ३६१ तक की ३३०. उंडिय भूमी पेढिय, पुरिसग्गहणं तु पढमओ काउं। गाथाओं में। एवं परिक्खियम्मी, दायव्वं वा न वा पुरिसे॥ ३३५. उल्लेऊण न सक्का, गज्जइ इय मुग्गसेलओ रन्ने। उंडिका, भूमीशोधन तदनन्तर पीठिका। इसी प्रकार सर्व- तं संवट्टगमेहो, सोउं तस्सोवरिं पडइ॥ प्रथम पुरुष का ग्रहण और परीक्षा। परीक्षा कर लेने पर उस ३३६. रविउ त्ति ठिओ मेहो, उल्लो य न व त्ति गज्जइ य सेलो। पुरुष को (सूत्रवाचन) देना या नहीं यह निर्णय करे। (इसी सेलसमं गाहिस्सं, निव्विज्जइ गाहगो एवं ।। गाथा का विवरण आगे की तीन गाथाओं में।) एक बार अरण्य में मुद्गशैल पर्वत ने यह गर्जना की कि ३३१. अभिनवनगरनिवेसे, समभूमिविरेयणऽक्खरविहन्नू। मुझे कोई आर्द्र नहीं कर सकता। संवर्तकमेघ ने वह सुना और पाडेइ उंडियाओ, जा जस्स सठाणसोहणया। वह सात दिन-रात मुसलाधार वर्षा करता रहा। तदनन्तर ३३२. खणणं कोट्टण ठवणं, पेढं पासाय रयण सुहवासो। 'मैंने इसे आर्द्र कर दिया है, यह सोचकर संवर्तकमेघ ने वर्षा इय संजम नगरुंडिय, लिंग मिच्छत्तसोहणयं॥ रोक दी।' मुद्गशैल बोला-क्या आर्द्र कर दिया या नहीं? कुछ ३३३. वय इट्टगठवणनिभा, पेढं पुण होइ जाव सूयगडं। भी गीला नहीं हुआ। पासाओ जहिं पगयं, रयणनिभा हुंति अत्थपया। इसी प्रकार जो व्यक्ति शैलसम शिष्य को 'मैं कुछ नए नगर का निर्माण करते समय सबसे पहले भूमी का सिखाऊंगा' यह सोचकर प्रयत्न करता है तो वह शिक्षक परीक्षण किया जाता है। तदनन्तर समभूमी का विरेचन- असफल ही होता है, उदासीन ही होता है। १. परिपूणको नाम येन घृतपूर्णयोग्यं पानं गाल्यते, तत्र सारो गलति कल्मषं तिष्ठति। (वृ. पृ. १०४) २. कथा परिशिट नं. २७। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका = ३३७. आयरिए सुत्तम्मि य, परिवाओ सुत्त-अत्थपलिमंथो। अण्णेसि पि य हाणी, पुट्ठा वि न दुद्धदा वंझा॥ जो आचार्य शैलसम शिष्य को सूत्र सिखाना चाहते है, उनका अपवाद होता और जो सूत्र सिखाया जाता है, उसकी भी निन्दा होती है। अयोग्य को सिखाने के प्रयत्न में स्वयं आचार्य के भी सूत्र और अर्थ का व्याघात होता है। सुनने वालों के भी सूत्र और अर्थ की हानि होती है। ऐसे शिष्यों को पढ़ाना व्यर्थ है। वंध्या गाय को सहलाने पर भी वह दूध नहीं देती। ३३८. वुढे वि दोणमेहे, न कण्हभोमाउ लोट्टए उदयं। गहण-धरणासमत्थे, इय देयमछित्तिकारिम्मि॥ काली मिट्टी वाले प्रदेश में द्रोणमेघ-मुसलाधार वर्षा होने पर भी वह पानी अन्यत्र नहीं जाता। मिट्टी उसको शोष लेती है। इसी प्रकार ग्रहण और धारण समर्थ शिष्य सूत्र का अव्यवच्छित्तिकारक होता है। उसको सूत्र देना चाहिए। ३३९. भाविय इयरे य कुडा, पसत्थ-अपसत्थभाविया दुविहा। पुप्फाईहिं पसत्था, सुर-तिल्लाईहिं अपसत्था॥ ३४०. वम्मा य अवम्मा वि य, पसत्थवम्मा य हुंति अग्गिज्झा। अपसत्थअवम्मा वि य, तप्पडिवक्खा भवे गिज्झा॥ कुट-घट दो प्रकार के होते हैं-भावित और अभावित। जो भावित हैं, उनके दो प्रकार हैं-प्रशस्तभावित और अप्रशस्त- भावित। जो पुष्प, कपूर आदि से भावित होते हैं, वे प्रशस्तभावित हैं। जो मदिरा, तैल आदि से भावित होते हैं, वे अप्रशस्तभावित हैं। प्रशस्तभावित के दो प्रकार हैं-वाम्य और अवाम्य। जो प्रशस्तभावित वाम्य हैं वे तथा जो अप्रशस्तभावित अवाम्य हैं-ये दोनों प्रकार के कुट अग्राह्य हैं। जो उनके प्रतिपक्ष हैं अर्थात् प्रशस्तभावित अवाम्य तथा अप्रशस्तभावित वाम्य हैं ये दोनों प्रकार के कुट ग्राह्य हैं। ये द्रव्यकुट हैं। ३४१. कुप्पवण-ओसन्नेहिं भाविया एवमेव भावकुडा। संविग्गेहिं पसत्था, वम्माऽवम्मा य तह चेव॥ १. वाम्य-जिस भाव से भावित हैं, उसको छोड़ने में समर्थ। अवाम्य-जिस भाव से भावित हैं, उसको छोड़ने में असमर्थ। २. अवाम्य वे होते हैं जो दीर्घकाल तक भी उस भाव का परित्याग नहीं करते और कालान्तर में सहयोग पाकर पाप-परायण हो जाते हैं। ग्राह्य का अर्थ है-कथनयोग्य और अग्राह्य का अर्थ है-अकथनीय। अर्थात् ग्राह्य को सूत्र दिया जा सकता है, अग्राह्य को नहीं। ३. छिद्रकुट-वह घट जिसके तल में छिद्र हो। उससे सारा पानी नीचे से निकल जाता है। खंडकुट-वह घट जिसके घटकर्ण टूटे हुए हो। उसमें थोड़ा पानी समाता है। बोटकुट-वह घट जिसके एक पार्श्व का कपाल भिन्न है। उसमें थोड़े से ज्यादा पानी ठहरता है। सकलकुट भावकुट दो प्रकार के होते हैं-भावित और अभावित। भावित के दो प्रकार हैं-प्रशस्तभावित और अप्रशस्तभावित। जो शिष्य कुप्रवचनों से भावित होते हैं वे अप्रशस्तभावित हैं। जो शिष्य संविग्नों से भावित होते हैं वे प्रशस्तभावित हैं। प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं-वाम्य और अवाम्य। जो प्रशस्तभावित वाम्य हैं तथा जो अप्रशस्तभावित अवाम्य हैं ये अग्राह्य हैं जो प्रशस्तभावित अवाम्य हैं तथा जो अप्रशस्तभावित वाम्य हैं-ये ग्राह्य हैं। ३४२. जे पुण अभाविया ते, चउव्विहा अहविमो गमो अन्नो। छिड्डकुड खंड बोडे, सगले य परूवणा तेसिं॥ जो कुट तैल आदि से अभावित हैं वे निर्विवादरूप से ग्राह्य हैं। अथवा यह अन्य गम-विकल्प है। द्रव्यकुट के चार प्रकार हैं-छिद्रकुट, खंडकुट, बोडकुट और सकलकुट। इनकी प्ररूपणा इस प्रकार है। ३४३. सेले य छिद्द चालिणि, मिहो कहा सोउ उठ्ठियाणं तु। छिड्डाऽऽह तत्थ विट्ठो, सरिंसु सुमरामि नेयाणिं॥ ३४४. एगेण विसइ बीएण नीइ कन्नेण चालिणी आह। धन्न त्थ आह सेलो, जं पविसइ नीइ वा तुज्झं।। मुगशैलसमान, छिद्रकुटसमान तथा चालनीसमान शिष्य व्याख्यान सुनकर उठे और परस्पर चर्चा करने लगे-आर्यों ! बोलो, किसने क्या सुना? छिद्रकुटसमान शिष्य बोला-'मैं जब तक मंडली में बैठा था, तब तक जो सुना वह स्मृति में था, परंतु अब कुछ भी स्मृति में नहीं है।' चालनीसमान शिष्य ने कहा-'आचार्य का कथन मेरे एक कान से प्रविष्ट होता है और दूसरे कान से बाहर निकल जाता है।' शैलसमान शिष्य ने कहा-'तुम धन्य हो, एक कान से वचन प्रविष्ट होते हैं और दूसरे से निकल जाते हैं, मैं कितना मंदभाग्य हूं कि मूलतः मेरे कान में कुछ भी प्रविष्ट ही नहीं होता।' ३४५. तावसखउरकढिणयं, चालणिपडिवक्खु न सवइ दवं पि। परिपूणगं पिव गुणा, गलंति दोसा य चिट्ठति॥ पूर्ण घड़ा। उसमें जितना डाला जाता है, वह ठहर जाता है। इसी प्रकार शिष्य भी चार प्रकार के होते हैं• छिद्रकुटसमान-जितना कहा जाता है, उसे स्मृति में रखता है, परंतु वहां से उठते ही भूल जाता है। • खंडकुटसमान-कहा हुआ सारा ग्रहण नहीं करता, कम ग्रहण करता है। • बोटकुटसमान-थोड़ा याद रख पाता है। • सकलकुटसमान-जितना कहा जाता है, सारा स्मृति में रखता है। इनमें से सकलकुटसमान शिष्य ही कथनीय है और वही अव्यवच्छित्तिकारक होता है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् चालनी का प्रतिपक्ष है-तापस का भाजन 'खउर'। वह ३५०. मसगो व्व तदुं जच्चाइएहिं निच्छुब्भई कुसीसो वि। बिल्वरस तथा भल्लातकरस से लिप्त होने के कारण कठिन जलुगा व अदूमिंतो, पियइ सुसीसो वि सुयनाणं॥ हो जाता है। फिर उससे द्रव पदार्थ भी नहीं निकलता, सारा जो कुशिष्य जातिमद आदि के द्वारा दूसरों की अवहेलना उसीमें ठहर जाता है। ऐसे शिष्य को सूत्रदान दिया जा करता है, पीड़ित करता है, वह पीड़ित करने वाले मच्छर की सकता है। भांति निष्कासित कर दिया जाता है, उड़ा दिया जाता है। वह परिपूणक में साररूप गुण नीचे निकल जाते हैं और दोष अशिक्षणीय होता है। उसमें रह जाते हैं। परिपूणक में डाले हुए घेवर के घोल का मशक का प्रतिपक्ष उदाहरण है जलौका। जैसे जलौका सार-सार नीचे निकल जाता है और कल्मष उसमें रह जाता। शरीर पर लगकर रुधिर पीती है, परन्तु पीड़ा नहीं करती, है। परिपूणकसमान शिष्य में भी गुण नीचे निकल जाते हैं उसी प्रकार सुशिष्य भी आचार्य को संतापित न करता हुआ और दोष रह जाते हैं। वह शिक्षणीय नहीं होता। श्रुतज्ञान ग्रहण कर लेता है। ३४६. सव्वन्नुप्पामन्ना, दोसा उ न हुंति जिणमये के वि। ३५१. छड्डेउं भूमीए, खीरं किल पिवइ मुद्ध मज्जारी। जं अणुवउत्तकहणं, अपत्तमासज्ज व हवंति॥ परिसुट्टियाण पासे, सिक्खइ एवं विणयभंसी। सर्वज्ञप्रामाण्यात सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित होने के कारण मूर्ख मार्जारी दूध को जमीन पर बिखेर कर, फिर उसे जिनमत में कोई दोष नहीं होते। परन्तु अनुपयुक्त आचार्य पीती है, वैसे ही अविनीत शिष्य मंडली में श्रुतश्रवण नहीं द्वारा कथित होने पर अथवा अपात्र श्रोता को पाकर गुण भी करता परंतु परिषद् के उठ जाने पर वह कुछेक श्रोताओं से दोष हो जाते हैं। (जैसे सर्पमुख में गया हुआ दूध भी विष बन श्रुतग्रहण करता है। वह अवाचनीय होता है। जाता है। ३५२. पाउं थोवं थोवं, खीरं पासाणि जाहगो लिहइ। ३४७. अंबत्तणेण जीहाइ कूइया होइ खीरमुदगम्मि। एमेव जियं काउं, पुच्छइ मइमं न खेएइ॥ हंसो मोत्तूण जलं, आपियइ पयं तह सुसीसो॥ उद्दिलाव थोड़ा-थोड़ा दूध पीता है और अपने मुंह के ___ हंस की जिह्वा अम्ल होती है। ज्योंही पानी मिले हुए दूध दोनों पार्यों में लगे दूध को चाटता है। इसी प्रकार जो में हंस चोंच डालता है, जिह्वा की अम्लता के कारण दूध की मतिमान् शिष्य पूर्वगृहीत श्रुत को परिचित कर फिर पृच्छा कूचिका-गुच्छे बन जाते हैं। हंस कुचिकाभूत दूध को पी करता है, परन्तु गुरु को खिन्न नहीं करता, वह वाचनीय लेता है और पानी को छोड़ देता है। वैसे ही सुशिष्य वह होता है। होता है जो गुणों को ग्रहण कर लेता है और दोषों को छोड़ ३५३. अन्नो दुन्झिहि कल्लं, निरत्थयं किं वहामि से चारिं। देता है। ऐसा शिष्य शिक्षणीय होता है। चउवरणगवी य मया, अवण्ण हाणी य मरुयाणं ।। ३४८. सयमवि न पियइ महिसो, न य जूहं पिबइ लोलियं उदय। ३५४.मा णे हुज्ज अवन्नो, गोवज्झा मा पुणो य न दलिज्जा। विग्गह-विकहाहिं तहा, अथक्कपुच्छाहिं ये कुसीसो॥ वयमवि दोन्झामो पुण, अणुग्गहो अन्नदूढे वि॥ जैसे पानी पीने के लिए तालाब में प्रविष्ट महिष न स्वयं ३५५. सीसा पडिच्छगाणं, भरो त्ति ते वि य हु सीसगभरो त्ति। उस कर्दमीभूत पानी को पीता है और न महिषयूथ उस न करिति सुत्तहाणी, अन्नत्थ वि दुल्लहं तेसिं॥ विलोडित पानी को पी पाता है। इसी प्रकार विग्रह और एक गांव में चार चतुर्वेदी ब्राह्मण थे। एक गृहस्थ ने विकथाओं में फंसा हुआ अथवा अप्रासंगिक पृच्छाओं उनको एक गाय दान में दी। वे बारी-बारी से उसको दुह वाला शिष्य कुशिष्य होता है। वह अकथनीय अर्थात अयोग्य कर दूध ले लेते थे। एक दिन जिस ब्राह्मण की गाय दुहने होता है। की बारी थी, उसने सोचा कल दूसरा ब्राह्मण इसको दुह ३४९. अवि गोपयम्मि वि पिबे, सुढिओ तणुयत्तणेण तुंडस्स। कर दूध का लाभ प्राप्त करेगा। तो फिर मैं आज निरर्थक ही न करेइ कलुस तोयं, मेसो एवं सुसीसो वि॥ गाय के चारा-पानी का भार क्यों वहन करूं? उसने गाय महिष का प्रतिपक्ष है मेष। मेष-एडक गोष्पद में एकत्रित को दुहा और उसे वैसे ही छोड़ दिया। सभी ने यही सोचा। अल्पतम पानी को भी जानु के बल बैठकर पूर्ण जागरूकता गाय बिना चारा-पानी के मर गई। ब्राह्मणों की निन्दा हुई से पानी को कलुषित किए बिना अपने मुंह को तनु बनाकर और दान-हानि हुई। इसी प्रकार एक गृहस्थ ने अन्य चार पी लेता है। मेष तुल्य होता है सुशिष्य जो आचार्य को ब्राह्मणों को गाय दान में दी। वे बारी-बारी से उसे दुहते उत्तेजित किए बिना शास्वरहस्य ग्रहण कर लेता है। और प्रत्येक ब्राह्मण गाय को पूरा चारा-पानी देता। सभी Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका यह सोचते हमारी यह निन्दा न हो कि ये गो घातक हैं और आगे भी गोदान बंद कर दें। पुनः यह भी बात है कि हम अपनी बारी से आगे भी गाय को दुहते रहेंगे। दूसरा भी गाय को दुहता है और प्रभूत चारा-पानी देता है तो वह हम पर महान् अनुग्रह है। गाय मरी नहीं और वे चारों ब्राह्मण गाय के दूध से लाभान्वित होते रहे। इसी प्रकार आचार्य के पास शिष्य और प्रतीच्छक (अन्य गणों से समागत शिष्य) दोनों थे। शिष्य सोचते - हम ध्रुव हैं। प्रतीच्छक आए हुए हैं। ये कुछ समय पश्चात् चले जाएंगे। इसलिए आचार्य का प्रत्युपेक्षण, पाव-प्रक्षालन, मिक्षा आदि ये करेंगे। शिष्यों ने ये काम छोड़ दिए। प्रतीच्छकों ने सोचा- आचार्य के सारे कार्य करना शिष्यों का दायित्व है। हमें तो सूत्रार्थ ग्रहण करने में लगे रहना है। दोनों ने आचार्य की सेवा-शुश्रूषा छोड़ दी आचार्य अपना कार्य स्वयं करते। वे रोगग्रस्त हो गए। अब सबके लिए सूत्र की हानि हो गई। अन्यत्र गच्छान्तर में भी उनके लिए श्रुतज्ञान दुर्लभ हो गया। ३५६. कोमुझ्या ( तह) संगामि वा व दुम्भूश्या य भेरीओ कण्हस्स आसि तइया, असिवोवसमी चउत्थी उ॥ कृष्ण के पास तीन भेरियां थीं कौमुदिकी, संग्रामिकी और दुर्भूतिका । चौथी भेरी का नाम था- अशिवोपशमनी । ' ३५७. सक्कपसंसा गुणगाहि केसवा नेमिवंद सुणदंता । आसरयणस्स हरणं, हरणं, कुमारभंगे व पुययुद्धं ॥ ३५८. नेहि जितो मि त्ति अहं, असिवोवसमीऍ संपयाणं च । छम्मासिय घोसणया, पसमेति न जायए अन्नो ॥ ३५९. आगंतु वाहिखोभो, महिड्डि मोल्लेण कंथ डंडणया । अट्ठम आराहण अन्न भेरि अन्नस्स ठेवणं च ॥ शक्र देवसभा को संबोधित कर बोला- 'केशव गुणग्राही है। नीच व्यक्तियों के साथ युद्ध नहीं करता। एक देव इस तथ्य को झुठलाने के लिए कटिबद्ध हुआ। एक बार केशव अरिष्टनेमि को वंदन करने निकला। वह देव कुत्ते का रूप बना कर मृतरूप में मार्ग में गिर गया। उससे भयंकर दुर्गंध आ रही थी। सभी लोग नाक पर कपड़ा देकर अन्य मार्ग पर गुजरे। कृष्ण कुत्ते के निकट आकर बोले- देखो ! इस कुत्ते के दांत कितने धवल रूप में शोभित हो रहे हैं? कितने सुन्दर हैं? देव ने अश्वरत्न चुरा लिया। राजकुमार युद्ध करने गए । पराजित हो गए। केशव स्वयं युद्ध करने गए। ज्ञात हुआ १. प्रथम तीनों भेरियां गोशीर्षचंदन से निर्मित थीं और वे देवताधिष्ठित थीं। चौथी भेरी-अशिवोपशमनी का यह गुण था कि वह जहां बजाई ३९ कि अश्व का अपहरण करने वाला नीचजातीय है। केशव ने उसके साथ युद्ध करने का प्रतिषेध कर दिया। देव ने अश्व रत्न लाकर दे दिया और कहा-मैं हारा, आप जीते। तब वह केशव को अशिवोपशमनी भेरी उपहृत कर चला गया। उस भेरी का यह प्रभाव था - छह-छह मास के अंतराल से उसे बजाया जाए तो पूर्वोत्पन्न सारे रोग उपशांत हो जाते हैं और छह मास पर्यन्त रोग वहां उत्पन्न नहीं होते। एक बार एक महर्द्धिक वणिक वहां आया वह शिरोव्याधि से क्षुब्ध था । वैद्य ने गोशीर्षचंदन का लेप करने के लिए कहा। अन्यत्र प्राप्त न होने पर उसने भेरीपाल को बहुमूल्य देकर मेरी से एक टुकड़ा खरीद लिया। खंड-खंड किए जाने पर वह भेरी कंथा मात्र रह गई। अब उस भेरी का प्रभाव जाता रहा। केशव को ज्ञात हुआ। भेरी को देखा और उस भेरीपाल को दंडित कर उसे हटा दिया। पुनः केशव ने तेले की तपस्या कर देवता की आराधना कर अन्य भेरी प्राप्त कर दूसरे भेरीपाल को उसकी रक्षा के लिए नियुक्त किया। इसी प्रकार जो शिष्य सूत्र और अर्थ को कंधा कर देता है, उसे सूत्रार्थं नहीं देना चाहिए। ३६०. मुक्कं तथा अगहिए, दुपरिग्गहियं कयं तया कलहो । पिट्टणय इयर विक्किय, गएसु चोरेहि ऊणऽग्घो ॥ ३६१ मा निण्हव इय दाडं, उवजुंजिय देहि किं विचितेसि। נ विच्चमेलणदाणे, किलिस्ससी तं च हं चेव ॥ एक आभीरी घृतघटों से शकट भर कर नगर में आई । उसका पति शकट पर खड़ा खड़ा आभीरी को घृतघट पकड़ाने लगा। संयोगवश एक घट आभीरी के हाथ में न आकर जमीन पर गिरकर फूट गया। आभीरी बोली- मैंने घट को पकड़ा नहीं और तुमने उसे छोड़ दिया। आभीर बोलानहीं, तूने उसे भलीभांति नहीं पकड़ा, इसलिए वह भूमी पर गिर गया। दोनों में कलह हुआ। आभीर ने अभीरी को पीटा। दूसरे घीविक्रेता घी बेचकर चले गए। इनको कम मूल्य में घी बेचना पड़ा और घर लौटते समय चोरों ने उन्हें अकेला पाकर लूट लिया। एक बार एक शिष्य सूत्र के एक ही आलापक को व्यत्याम्रेडित कर रहा था, बार-बार बोल रहा था। आचार्य ने कहा- इस प्रकार मत बोलो। शिष्य ने कहा- 'आपने ऐसे ही सिखाया था।' आचार्य बोले- नहीं । शिष्य ने तब कहा - 'आप अपनी बात को छुपाए नहीं। स्वयं ही इस प्रकार आलापक जाती है वहां छह मास तक सभी रोग उपशांत रहते और जो उसके शब्द को सुनता है वह भी रोगमुक्त हो जाता है। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् देकर, अब अन्यथा न बोलें। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा। से केवल दूध का आस्वादन करता है वैसे ही जो गुणों का आप उपयुक्त होकर मुझे आलापक दें, अन्यथा चिंतन न करें। आस्वादन करता है तथा जो भी दोष हैं उनका परित्याग व्यत्यामेडन और उसके दान अर्थात् सिखाने के संदर्भ में मैं करता है, वह प्रस्तुत कल्पाध्ययन को ग्रहण करने में और आप दोनों क्लेश न पाएं।' इस प्रकार निष्ठुर बोलने योग्य है। वाला और कलह करने वाला शिष्य अयोग्य होता है। ३६७. जे होति पगयमुद्धा, मिगछावग-सीह-कुक्करगभूया। ३६२. सेल-कुडछिद्द-चालिणि, सुद्धो चउगुरुग घडदुवे होति। रयणमिव असंठविया, सुहसण्णप्पा गुणसमिद्धा। परिपूण महिस मसए, बिरालि आभीरि एमेव।। जो शिष्य प्रकृति से मृगशिशु, सिंहशिशु और श्वानशिशु ३६३. एमेव गोणि भेरी, हंसे मेसे य जाहग जलगा। की भांति अत्यंत भद्र होते हैं, असंस्थापित रत्न' की भांति चउलहुगमदाणम्मी, पावति एएसु आयरितो॥ होते हैं वे सुखसंज्ञाप्य-सुखपूर्वक प्रज्ञापनीय और गुण-समृद्ध (योग्य शिष्य को वाचना न देने और अयोग्य शिष्य को होते हैं। वाचना देने से आचार्य को प्रायश्चित्त।) ३६८. जे खलु अभाविया कुस्सुतीहिं न य ससमए गहियसारा। मुदशैल, छिद्रकुट तथा चालिनी सदृश शिष्यों को विशेष अकिलेसकरा सा खलु, वयरं छक्कोडिसुद्धं वा॥ कार्यवश सूत्र अथवा अर्थ की वाचना देने वाला आचार्य शुद्ध जो कुश्रुति-कुसिद्धांतों से अभावित होते हैं और जो है। बिना विशेष कार्य के उनको सूत्र अथवा अर्थ की वाचना अपने सिद्धांतों के रहस्यों से अस्पृष्ट हैं अर्थात् जिन्होंने देने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इसी प्रकार अपने सिद्धांतों के सार को आत्मसात् नहीं किया है, जो घटद्विक-प्रशस्त और वाम्य तथा अप्रशस्त और अवाम्य अक्लेशकर है, वह अजानती परिषद् है। वह षट्कोटिशुद्ध तथा बोडकूट और भिन्नकूट सदृश शिष्यों को वाचना देने पर वज्र की तरह होती हैं। चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। परिपूणक, महिष, मशक, बिडाली, ३६९. किंचिम्मत्तग्गाही, पल्लवगाही य तुरियगाही य। आभीरी', अप्रशस्त गौ द्वारा उपलक्षित ब्राह्मण, कंथाकारी दुवियड्डगा उ एसा, भणिया परिसा भवे तिविहा॥ भेरीपाल-इनके सदृश शिष्यों को सूत्रार्थ देने वाले को, दुर्विदग्धा पर्षत् तीन प्रकार की होती है-किंचिन्मात्रग्राही, प्रत्येक के विषय में प्रायश्चित्त है-चतुर्गुरु।। पल्लवग्राही तथा त्वरितग्राही। इनके प्रतिपक्ष हंस, मेष, उद्दिलाव, जौंक, प्रशस्त गौ, ३७०. नाऊण किंचि अन्नस्स जाणियवे न देति ओगासं। मेरीपालक इनके सदृश शिष्यों को वाचना देने वाला आचार्य न य निज्जितो वि लज्जइ, इच्छइ य जयं गलरवेण॥ शुद्ध है। इनको वाचना न देने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त स्वयं थोड़ा जान लेने पर दूसरों को जानने का अवकाश आता है। नहीं देता, निर्जित होने पर भी लज्जित नहीं होता, बाढ़स्वर ३६४. जाणंतिया अजाणंतिया य तह दुब्वियडिया चेव।। से चिल्ला-चिल्ला कर जय चाहता है। यह किंचिन्मात्रग्राही तिविहा य होइ परिसा, तीसे नाणत्तगं वोच्छं॥ का लक्षण है। परिषद् के तीन प्रकार हैं-जानती, अजानती और ३७१. न य कत्थइ निम्मातो, ण य पुच्छइ परिभवस्स दोसेण। दुर्विदग्धा। उनमें जो नानात्व है, वह कहूंगा। वत्थी व वायपुण्णो, फुट्टइ गामिल्लगवियड्ढो॥ ३६५. गुण-दोसविसेसन्नू, अणभिग्गहिया य कुस्सुइमतेसु। जो शिष्य ग्रामेयकविदग्ध-गांव के लोगों में हुशियार है, सा खलु जाणगपरिसा, गुणतत्तिल्ला अगुणवज्जा। पर कहीं भी निर्मित नहीं है, परिभव के दोष से अर्थात् मेरा जानती परिषद् वह होती है जो गुणों को और दोषों को पराभव होगा इसलिए दूसरे से कुछ पृच्छा नहीं करता, वह जानती है, जो कुतीर्थिक सिद्धांतों से अनभिगृहीत है, हवा से भरी हुई वस्ति की भांति फूला-फूला रहता है। अप्रभावित है तथा जो अगुणों का वर्जन करती है और गुणों (फट पड़ने की तरह) रहता है-'मैं पंडित हूं' इस के प्रति प्रयत्नशील रहती है। लोकप्रवाद से गर्वित होकर रहता है। यह पल्लवग्राही का ३६६. खीरमिव रायहंसा, जे घोटृति उ गुणे गुणसमिद्धा। लक्षण है। दोसे वि य छडुती, ते बसभा धीरपुरिस ति॥ ३७२. दुरहियविज्जो पच्चंतनिवासो वावदूक कीकाको। जो गुणों से समृद्ध हैं तथा जैसे राजहंस नीरमिश्रित दूध खलिकरण भोइपुरतो, लोगत्तर पेढियागीते॥ १. देखें कथा परिशिष्ट नं. ३१। २. असंस्थापित रत्न वह होता है जो खदान से निकला है, पर अभी संस्कारित नहीं है। वैसे रत्न को हम अपनी इच्छानुसार घटित कर सकते हैं। ३. स्वभाव से ही छहों दिशाओं में शुद्ध। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका ४१ एक ग्रामीण व्यक्ति अधूरी विद्या पढ़कर एक प्रत्यंतग्राम एक राजवैद्य था। वह मर गया। राजा ने पूछा-क्या वैद्य में गया और अपने आपको वैयाकरण बताने लगा। एक बार का कोई पुत्र है ? राजपुरुषों ने बताया कि वैद्य के एक पुत्र है, वहां नगर से एक वैयाकरण अपने वावदूक छात्रों के साथ वहां परन्तु वह वैद्यविद्या नहीं जानता। राजा ने उसे बुलाकर आया। दोनों के मध्य शब्दगोष्ठी हुई। ग्रामीण वैयाकरण ने कहा-अन्यत्र जाकर किसी निपुण वैद्य के पास यह विद्या उस नगरवासी वैयाकरण से पूछा-काग को क्या कहते हैं। सीखो। वह गया। एक दिन एक व्यक्ति बकरी को वैद्य के उसने कहा-'काकः!' ग्रामीण ने कहा-नहीं, उसे 'कीकाकः' पास लाया। उसके गलगंड था। वैद्य ने बकरी के स्वामी को कहना चाहिए। 'काक' तो सभी कहते हैं, फिर वैयाकरण की पूछकर जान लिया कि इसके गले में 'वालुंक' ककड़ी का विशेषता ही क्या? नगरवासी मौन हो गया। ग्रामवासियों ने एक टुकड़ा फंस गया है। वैद्य ने बकरी के गले पर कपडा अपने वैयाकरण का जयजयकार किया। वह नगरवासी बांध कर उसको इस प्रकार मोड़ा कि गले में फंसा ककड़ी वैयाकरण नगर में गया और भोजिक-गांवप्रधान को का टुकड़ा टूट गया और वह गले से निकल गया। वैद्यपत्र ने शिकायत कर उस ग्रामवासी वैयाकरण को तिरस्कृत कर सोचा-यही वैद्यरहस्य है। वह राजा के पास लौट आया। गांव से निष्कासित कर दिया। इसी प्रकार लोकोत्तर प्रसंग में राजा ने उसे नियुक्त कर दिया। एक बार रानी के गलगंड हो भी कोई शिष्य केवल पीठिका मात्र का अध्ययन कर अपने गया। वैद्यपुत्र को रानी के पास लाया गया। उसने पूछा-रानी आपको गीतार्थ बताता है। यह दुर्विदग्ध परिषद् है। कहां-कहां गई थी। लोगों ने वैद्यपुत्र के संतोष के लिए ३७३. आयरियत्तणतुरितो, पुव्वं सीसत्तणं अकाऊणं। कहा-पुरोहड़े (पिछवाड़े)। तब वैद्य पुत्र ने रानी के गले पर हिंडति चोप्पायरितो, निरंकुसो मत्तहत्थि व्व॥ कपड़ा लपेट कर जोर से मरोड़ा। रानी का प्राणान्त हो गया। कोई पहले स्वयं शिष्य बने बिना (गुरुकुलवास में रहे राजा ने अन्य वैद्यों को बुलाकर पूछा-रानी की जो इस वैद्यपुत्र ने चिकित्सा की वह वैद्यशास्त्र सम्मत थी या नहीं? बिना) आचार्यत्व को पाने के लिए उतावला होकर प्रत्यंत उन्होंने कहा-वह सम्मत नहीं, निषिद्ध थी। राजा ने तब उस गांव, नगर में जाकर अपने आपको आचार्य ख्यापित करता वैद्यपुत्र को दंडित कर, गांव से निष्कासित कर दिया। है। तदनन्तर वह चोप्प-मूर्ख आचार्य निरंकुश हाथी की भांति ३७७. कारणनिसेवि लहुसग, अगीयपच्चय विसोहि दट्टण। परिभ्रमण करता है। सव्वत्थ एव पच्चंतगमण गीयागते दंडो॥ ३७४. छन्नालयम्मि काऊण कुंडियं अभिमुहंजली सुढितो। एक आचार्य ने कारण से प्रतिसेवना करने वाले एक गेरू पुच्छति पसिणं, किन्नु हु सा वागरे किंचि॥ शिष्य को अगीतार्थ मुनियों के प्रत्यय के निमित्त विशोधि कोई परिव्राजक 'छन्नालयम्मेि' त्रिदंड पर कुंडिका अर्थात् प्रायश्चित्त दिया। एक शिष्य ने यह देखकर सोचारखकर, उसके अभिमुख हाथ जोड़कर, नीचे झुककर कोई सर्वत्र इसी प्रकार प्रायश्चित्त देना चाहिए। वह शिष्य प्रत्यंत प्रश्न पूछता है। क्या वह कुंडिका कोई बात कहती है ? नहीं। ग्राम या नगर में गया। वहां एक निष्कारण प्रतिसेवी को (जैसे कुंडिका का आचार्यत्व है, वैसे ही उस शिष्य का प्रायश्चित्त दिया। कालान्तर में वहां गीतार्थ मुनि आए। सारी आचार्यत्व है।) बात सुनकर, उस दंडदायी को दंडित कर, उसके अधिकार ३७५. सीसा वि य तूरंती, आयरिया वि हु लहं पसीयंति। का हरण कर दिया। तेण दरसिक्खियाणं, भरितो लोगो पिसायाणं॥ ३७८. परंती छत्तंतिय, बुद्धी मंती रहस्सिया चेव। कुछेक शिष्य आचार्य बनने के लिए शीघ्रता करते हैं और पंचविहा खलु परिसा, लोइय लोउत्तरा चेव॥ आचार्य भी उन पर शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं। वे शिष्यों की लौकिक पर्षद् के पांच प्रकार हैं-पूरयंती, छत्रवती, बुद्धि, परीक्षा नहीं करते। अतः यह लोक अल्पशिक्षित आचार्य मंत्री और रहस्यिका। लोकोत्तर पर्षद् भी पांच प्रकार की 'पिशाचों से भरा पड़ा है। होती हैं। ३७६. तेगिच्छ मते पुच्छा, अन्नहि वालुंक देवि कहि चिन्ना। ३७९. पूरंतिया महाणो, छत्तविदिन्ना उ ईसरा बितिया। तोसत्थेण कहति य, विज्जनिसिद्धे ततो दंडो॥ समयकुसला उ मंती, लोइय तह रोहिणिज्जा या।। १. वह प्रत्यन्तगांव में जाकर वहां स्थित अगीतार्थ मुनियों का अपने जमाए रखता है। एक बार वहां गीतार्थ मुनि आए। वहां की अधीनस्थ कर अकरणीय कार्य भी करता है और अप्रायश्चित्त स्थान परिस्थिति को देखकर उस कृत्रिम गीतार्थ का निग्रह कर प्रायश्चित्त में भी उन्हें प्रायश्चित्त देता है। वह अपनी पूजा, सत्कार और गौरव- देकर उसके अधिकार को छीन लिया। (वृ. पृ. १११) हानि के भय से दूसरे को कुछ नहीं पूछता और अपना अधिकार Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ =बृहत्कल्पभाष्यम् पहली है-पूरयंतिका-महाजनों से पूरित। दूसरी है- ३८४. आवासगमादी या (जा), सुत्तकड पुरंतिया भवे परिसा। छत्रान्तिका वितीर्णछत्रवाली। तीसरी है बुद्धिपर्षत्-स्वसमय दसमादि उवरिमसुया, हवति उ छत्तंतिया परिसा॥ में कुशल। चौथी है-मंत्री पर्षद और पांचवी है रोहिणीया-- इसी प्रकार लोकोत्तर पर्षद् के पांच प्रकारों की व्याख्या अन्तःपुर-महत्तरिका। यह है-आवश्यक सूत्र से प्रारंभ कर सूत्रकृतांग पर्यन्त श्रुत ३८०.नीहम्मियम्मि पूरति, रण्णो परिसा न जा घरमतीति। का अध्ययन कर लेने वाली पर्षद् पूरयंती कहलाती है। जे पुण छत्तविदिन्ना, अयंति ते बाहिरं सालं॥ दशाश्रुतस्कंध से उपरितन सारे श्रुत का अध्ययन करने ३८१. जे लोग-वेय-समएहिं कोविया तेहिं पत्थिवो सहिओ। वाली पर्षद् छत्रान्तिका कहलाती है। (इसमें परिणामिक समयमतीतो परिच्छइ, परप्पवायागमे चेव॥ शिष्यों का निवारण नहीं किया जाता, किन्तु जो ३८२. जे रायसत्थकुसला, अतक्कुलीया हिता परिणया य। अपरिणामिक और अतिपरिणामिक हैं उनका निवारण किया माइकुलीया वसिया, मंतेति निवो रहे तेहिं॥ जाता है।) ३८३. कुविया तोसेयव्वा, रयस्सला वारअण्णमासत्ता। ३८५. लोइय-वेइय-सामाइएसु सत्थेसु जे समोगाढा। छण्ण पगासे य रहे, मंतयते रोहिणिज्जेहिं॥ ससमय-परसमयविसारया य कुसला य बुद्धिमती॥ पूरयंतिका पर्षद् राजा के कहीं बाहर जाने पर, महाजनों ३८६. आसन्नपतीभत्तं, खेयपरिस्समजतो तहा सत्थे। से पूरित वह राजा की पर्षद् घर नहीं जाती, जब तक कि कहमुत्तरं च दाहिसि, अमुगो किर आगतो वादी। राजा लौट कर नहीं आ जाता। जो लौकिक, वैदिक और सामयिक शास्त्रों का सम्यक छत्रवितीर्णा पर्षद्-जिनको राजा द्वारा छत्र दिए गए हों। अवगाहन कर चुके हैं, जो स्वसमय तथा परसमय के वे राजा की बाह्यशाला तक आ सकते हैं। वे छत्रधारी विशारद हैं, जो कुशल हैं, वह बुद्धिमती पर्षत् है। इस पर्षत होते हैं। के साथ श्रम करने से शीघ्र प्रतिभा उत्पन्न होती है तथा जो __ बुद्धि पर्षत्-जो लौकिक, वैदिक और सामयिक सिद्धांतों शास्त्र आदि की व्याख्या करने में निरंतर खेद-परिश्रम में कोविद होते हैं, उन पार्षदों सहित राजा की पर्षद् होता है, उस पर विजय प्राप्त कर ली लाती है। यह बुद्धिपर्षत होती है। अवसर प्राप्त होने पर वह राजा परप्रवादों बुद्धिपर्षत् सिखाती है कि अमुक वादी के आ जाने पर किस के जानकार उन कोविदों की परीक्षा करता है अथवा उन प्रकार से उत्तर देना चाहिए। इस प्रकार उसके साथ प्रवीण पार्षदों का परप्रवाद के आगम संबंधी ज्ञान की परीक्षा अभ्यास करने पर परवादी का सुगमतापूर्वक निग्रह किया करता है। जा सकता है। ___ मंत्री परिषद्-जो राजशास्त्र (कौटिल्य आदि शास्त्र) में ३८७. पुव्वं पच्छा जेहिं, सिंगणादितविही समणुभूतो। कुशल होते हैं, जो राजकुल से संबद्ध नहीं हैं, जो हितान्वेषी लोए वेदे समए, कयागमा मंतिपरिसा उ॥ हैं, जो वय प्राप्त हैं, जो मातृकुलीय-माता के संबंध से संबद्ध मंत्रीपर्षद् वह होती है जिसके सदस्य पूर्व गृहवास में तथा हैं, जो राजा के अधीन हैं, उनके साथ राजा मंत्रणा करता है। पश्चात् श्रमणभाव में 'शृंगनादितविधि का अनुभव कर चुके यह मंत्री पर्षत् है। हैं तथा जो लौकिक, वैदिक और सामयिक आगमों का रोहिणीया पर्षद्-इस परिषद् के सदस्यों का कार्य है कि पारायण कर चुके हैं। रानी राजा से कुपित हो जाए तो उसको राजी करना, ३८८. गिहवासे अत्थसत्थेहिं कोविया केइ समणभावम्मि। मनाना। जो रानी रजस्वला हो जाए उसकी सूचना राजा को कज्जेसु सिंगभूयं, तु सिंगनादिं भवे कज्ज। देना। जिसका वारक (बारी) हो उसकी सूचना देना। रानी जो गृहवास के समय अर्थशास्त्र में, श्रमण अवस्था में अन्य में आसक्त हो तो राजा को कहना। जो राजकन्या स्वसमय-परसमय में जो कोविद् हैं, वे मंत्रीपर्षद् के सदस्य विवाहयोग्य हो गई है, वह राजा को बताना। इनके अतिरिक्त हैं। जो सभी कार्यों में शृंगभूत अर्थात् मुख्य होता है, जो भी अन्य गुप्त अथवा अगुप्त तथा एकान्त में मंत्रणा-योग्य शृंगनादित' कहलाता है। हैं वे सारे विषय अथवा रतिकार्यों की इस रोहिणीया परिषद् ३८९. तं पुण चेइयनासे, तद्दव्वविणासणे दुविहभेदे। के सदस्यों से राजा मंत्रणा करता है। भत्तोवहिवोच्छेदे, अभिवायण-बंध-घायादी। १. वे राजा, भट्ट, भोजिक आदि होते हैं तथा वे राजा की बाह्य शाला तक २. शृङ्गनादितविधिः-सर्वेषु कार्येषु मध्ये शृङ्गभूतं यत् कार्यं तत् आ जा सकते हैं। शेष लोगों की वर्जना की जाती हैं। शृङ्गनादितमुच्यते। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका शृंगनादित कार्य क्या हैं ? चैत्य का विनाश, चैत्यद्रव्य का विनाश, दो प्रकार का भेद-मरण अथवा उत्प्रव्राजन की परिस्थिति, आहार तथा उपधि का व्यवच्छेद होना, अन्य देवी-देवताओं को वंदना करने के लिए बाध्य करना, बंधन, घात आदि का होना ये सारे शृंगनादित कार्य हैं। ३१०. वितहं ववहरमाणं, सत्येण वियाणतो निहोडेइ। ___ अम्हं सपक्खदंडो, न चेरिसो दिक्खिए दंडो॥ राजा आदि संघ के प्रति वितथ व्यवहार कर रहा हो तो मंत्रीपर्षद् के अंतर्भूत विज्ञायक अर्थात् स्वसमय और परसमय के शास्त्रों का जानकार व्यक्ति राजा आदि को सुखपूर्वक निवारित कर सकता है। वह कह सकता है-हमारे सपक्ष में दंड होता है अर्थात अपराधी को संघ दंड देता है, राजा नहीं। तथा दीक्षित व्यक्ति को ऐसा दंड नहीं दिया जाता। (यह मंत्रीपर्षद् के अन्तर्गत है।) ३९१. सल्लुद्धरणे समणस्स चाउकण्णा रहस्सिया परिसा। अज्जाणं चउकण्णा, छक्कण्णा अट्ठकण्णा वा॥ श्रमण का शल्योद्धरण करने के लिए चतुःकर्णा राहस्थिकी पर्षद होती है। श्रमणियों के लिए वह चतुःकर्णा, षट्कर्णा अथवा अष्टकर्णा होती है।' ३९२. आलोयणं पउंजइ, गारवपरिवज्जितो गुरुसगासे। एगंतमणावाए, एगो एगस्स निस्साए॥ जनता के आवागमन रहित एकांत स्थान में श्रमण गौरव से परिवर्जित होकर आलोचनाह अकेले आचार्य की निश्रा में अकेला ही आलोचना करे। ३९३. विरहम्मि दिसाभिग्गह, उक्कुडुतो पंजली निसेज्जा वा। एस सपक्खे परपक्खे मोत्तु छण्णं निसिज्जं च॥ श्रमण एकांत में भी गुप्त प्रदेश में गुरु की निषद्या कर स्वयं पूर्व, उत्तर अथवा चरन्तिका दिशा को ग्रहण कर वंदना कर हाथ जोड़कर उत्कटुक आसन में अथवा व्याधिग्रस्त होने पर अथवा प्रभूत आलोचना करनी हो तो निषद्या की अनुज्ञा लेकर बैठे। यह स्वपक्ष में आलोचनाविधि है। परपक्ष-संयती को आलोचना देनी हो तो छन्न प्रदेश-गुप्त प्रदेश का वर्जन करना चाहिए तथा निषद्या नहीं करानी चाहिए। ३९४. आलोयणं पउंजइ, गारवपरिवज्जिया उ गणिणीए। एगंतमणावाए, एगा एगाए निस्साए। श्रमणी गोरवरहित होकर एकांत तथा अनापात स्थान में अकेली एकाकी गणिनी की निश्रा में आलोचना करे। १. चतुःकर्णा- श्रमण आचार्य या निग्रंथ के समक्ष आलोचना करते समय। अथवा निग्रंथी निग्रंथी के समक्ष आलोचना करते समय। ४३ ३९५. आलोयणं पउंजइ, एगते बहुजणस्स संलोए। अब्बितियथेरगुरुणो, सबिईया भिक्खुणी निहुया।। अद्वितीय-अकेले स्थविरगुरु के समक्ष अपने साथ एक अन्य भिक्षुणी को लेकर वह आलोचना करने वाली भिक्षुणी एकांत में, बहुजनसमक्ष नियंत्रित और अचपल होकर आलोचना करे। ३९६. नाण-दसणसंपन्ना, पोढा वयस परिणया। इंगियागारसंपन्ना, भणिया तीसे बिइज्जिया॥ आलोचना करने वाली श्रमणी के साथ वाली दूसरी श्रमणी ज्ञान-दर्शन से संपन्न हो, प्रौढ़ हो (अस्रावी हो), परिणत वयवाली हो और इंगिताकारसंपन्न हो। ३९७. आलोयणं पउंजइ, एगते बहुजणस्स संलोए। सब्बितियतरुणगुरुणो, सब्बिइया भिक्खुणी निहुया।। एक मुनि के साथ स्थित तरुण गुरु के समीप सद्वितीया श्रमणी एकांत में, बहुजनसमक्ष आलोचना करे। ३९८. नाणेण दंसणेण य, चरित्त-तव-विणय-आलयगुणेहिं। वयपरिणामेण य अभिगमेण इयरो हवइ जुत्तो। आलोचनार्ह गुरु के साथ वाला वह मुनि ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, विनय और आलयगुणों से अर्थात् बाह्य चेष्टाओं में उपशमगुणयुक्त, वयपरिणत तथा अभिगम-सम्यग शास्त्रार्थ कौशल से युक्त होना चाहिए। ३९९. छत्तंतियाए पगयं, जइ पुण सा होज्जिमेहि उववेया। तो देति जेहिं पगयं, तदभावे ठाणमादीणि॥ यहां छत्रान्तिका पर्षद् का प्रसंग है, अधिकार है। यदि छत्रान्तिका पर्षद् इन निम्नोक्त गुणों से सहित हो तो उसे कल्प और व्यवहार की वाचना दी जा सकती है। इन गुणों के अभाव में स्थानांग आदि (आदि शब्द से प्रकीर्णक) दिए जा सकते हैं। ४००. बहुस्सुए चिरपव्वइए, कप्पिए य अचंचले। अवविए य मेहावी, अपरिस्सावी य जे विऊ॥ ४०१. पत्ते य अणुण्णाते, भावतो परिणामगे। एयारिसे महाभागे, अणुओगं सोउमरिहइ।। वे गुण ये हैं-बहुश्रुत, चिरप्रव्रजित, कल्पिक, अचंचल, अवस्थित, मेधावी, अपरिस्रावी, विद्वान् (प्रभूतशास्त्रों की पारगामिता से समृद्ध बुद्धि वाला), पात्रता प्राप्त, अनुज्ञात, भावतः परिणामक इन गुणों से समन्वित महाभाग अनुयोग सुनने में समर्थ होता है। षट्कर्णा- स्थविर गुरु के समक्ष एक श्रमणी के साथ आलोचना करती हुई श्रमणी। अष्टकर्णा-सद्वितीय तरुण गुरु के समक्ष एक श्रमणी के साथ आलोचना करती हुई श्रमणी। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् हात ४०२. तिविहो बहुस्सुओ खलु, जहण्णओ मज्झिमो उ उक्कोसो। आयारपकप्पे कप्प नवम-दसमे य उक्कोसो॥ बहुश्रुत के तीन प्रकार हैं-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। आचारप्रकल्प अर्थात् निशीथ को धारण करने वाला जघन्य बहश्रुत, कल्प और व्यवहार का धारक मध्यम बहुश्रुत और नौवें और दसवें पूर्व का धारक उत्कृष्ट बहुश्रुत होता है। ४०३. चिरपव्वइओ तिविहो, जहण्णओ मज्झिमो य उक्कोसो। तिवरिस पंचग मज्झो, वीसतिवरिसो य उक्कोसो॥ चिरप्रव्रजित के तीन प्रकार हैं-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। जघन्य चिरप्रवजित-तीन वर्ष की संयमपर्यायवाला। मध्यम चिरप्रवजित-पांच वर्ष की संयमपर्यायवाला। उत्कृष्टचिरप्रवजित बीस वर्ष की संयमपर्यायवाला। ४०४. बहुसुय चिरपव्वइओ, उ एत्थ मज्झेसु होति अहिगारो। एत्थ उ कमे विभासा, कम्हा उ बहुस्सुओ पढमं॥ यहां मध्यम बहुश्रुत तथा मध्यम चिरप्रव्रजित का अधिकार है। यहां क्रमविषयक विभाषा-विमर्श करना चाहिए। बहुश्रुत का कथन सबसे पहले क्यों किया गया ?? ४०५. सुत्ते अत्थे तदुभय, उव्वट्ठ विचार लेव पिंडे य। सिज्जा वत्थे पाए, उग्गहण विहारकप्पे य॥ कल्पिक बारह प्रकार का होता है सूत्र से, अर्थ से, तदुभय-दोनों से, उपस्थापना में, विचार में, पात्रलेपन में, पिंड में, शय्या में, वस्त्र में, पात्र में, अवग्रहण में तथा विहारकल्प में। ४०६.सुत्तस्स कप्पितो खलु, आवस्सगमादि जाव आयारो। तेण पर तिवरिसादी, पकप्पमादी य भावेणं॥ सूत्रकल्पिक वह होता है जो आवश्यक से प्रारंभ कर आचार पर्यन्त श्रुत का अध्ययन कर लेता है। (इतना श्रुताध्ययन करने में कोई निवारित नहीं करता।) उसके पश्चात तीन वर्ष की संयमपर्यायवाले श्रमण से प्रारंभ कर बीस वर्ष की पर्यायवाला श्रमण सर्वश्रुतानुपाती हो जाता है। इसी प्रकार आचारप्रकल्प से लेकर अन्यान्य अपवाद बहुल १. पहले प्रव्रज्या होती है, पश्चात् श्रुत होता है, पश्चात् प्रथम चिरप्रव्रजित का उपादान किया जा सकता है। आचार्य कहते हैं-जो किया है, उसमें कोई दोष नहीं है। नियमविशेष को बताने के लिए इस प्रकार उपादान किया है। जो बहुश्रुत है, वह नियमतः चिरप्रवजित होगा, जिससे त्रिवर्षप्रव्रजित श्रमण को निशीथ, पंचवर्ष प्रव्रजित को कल्प और व्यवहार तथा बीस वर्ष प्रवजित अध्ययनों तथा अतिशायी अध्ययनों का अध्यापन, जब श्रमण भाव से परिणत हो जाता है, तब कराया जाता है। ४०७. सुत्तं कुणति परिजितं, तदत्थगहणं पइण्णगाई वा। इति अंग-ऽज्झयणेसुं, होति कमो जाहगो नाय।। (संयम पर्याय के तीन वर्ष अभी पूर्ण नहीं हुए हैं और वह आचार को पढ़ चुका है तो वह आगे क्या करे?) वह पठित सूत्र को परिचित करे। अथवा सूत्र के अर्थ का ग्रहण करे। अथवा प्रकीर्णक सूत्रों को सूत्रतः और अर्थतः पढ़े। इस प्रकार अंग आगमों का तथा अतिशायी अध्ययनों का क्रम तब तक जानना चाहिए जब तक कल्पिक नहीं हो जाता। यहां उद्दिलाव का उदाहरण ज्ञातव्य है। ४०८. अत्थस्स कप्पितो खलु, आवासगमादि जाव सूयगडं। मोत्तूणं छेयसुयं, जं जेणऽहियं तदट्ठस्स।। आवश्यक सूत्र से प्रारंभ कर यावत् सूत्रकृतांग तक जो अध्ययन कर चुका है, वह उनके अर्थ का कल्पिक होता है। सूत्रकृतांग के पश्चात् भी छेदसूत्रों को छोड़कर जिसने जितना श्रुत पढ़ा है, वह उस समस्त श्रुत के अर्थ का कल्पिक होता है। (छेदसूत्र पढ़ लेने पर भी जब तक शिष्य अपरिणत होता है तब तक अर्थ नहीं दिया जाता। परिणत होने पर वह उनके अर्थ का कल्पिक होता है।) ४०९. तदुभयकप्पिय जुत्तो, तिगम्मि एगाहिएसु ठाणेसु। पियधम्मऽवज्जभीरू, ओवम्म अज्जवइरेहिं।। जो शिष्य सूत्र और अर्थ-दोनों को एक साथ ग्रहण करने में समर्थ होता है, वह उभयकल्पिक होता है। अथवा त्रिक का अर्थ है-सूत्र, अर्थ और तदुभय। सूत्र से अर्थ अधिक होता है, अर्थ से अधिक होता है तदुभय। जो शिष्य अर्थ से अधिक जो उभयस्थान है--सूत्रार्थरूप इनमें जो युक्त-योग्य होता है वह उभयकल्पिक होता है। अथवा जो प्रियधर्मा और अवद्यभीरू (कर्मभीरू) होता है वह उभयकल्पिक है। इस संदर्भ में आर्यवज्र की उपमा दी जाती है। ४१०. पुव्वभवे वि अहीयं, कण्णाहडगं व बालभावम्मि। उत्तममेहाविस्स व, दिज्जति सुत्तं पि अत्थो वि॥ पूर्वभव में जिसके पढ़ा हुआ है, अथवा बाल्य अवस्था में को दृष्टिवाद की वाचना दी जा सकती है। इसलिए उक्त क्रम निर्दोष है। २. एक बार एक आचार्य अपने शिष्य को सूत्र की वाचना दे रहे थे। आर्यवज्र उस समय बालक थे। उन्होंने वह सूत्र सुना, पश्चात् उसका उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अर्थ दूसरी पौरुषी में बता दिया। (वृ. पृ. ११८) Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका दीकि जो सुना हुआ है अथवा जो उत्तम मेधावी है, उसको सूत्र और अर्थ-दोनों दिए जाते हैं। वह भी उभयकल्पिक है। ४११. अप्पत्ते अकहित्ता, अणहिगयऽपरिच्छणे य चउगुरुगा। ___दोहि गुरू तवगुरुगा, कालगुरू दोहि वी लहुगा। जो आचार्य असमाप्तसूत्र वाले शिष्य को उपस्थापना देते हैं तो उनको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। वह उभय गुरुक होता है-काल से गुरु तथा तप से भी गुरु। जिस शिष्य ने सूत्र समाप्त कर दिया है, उस शिष्य को अर्थ कहे बिना जो उपस्थापना देते हैं उनको चार लधुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। वह काल से लघु तथा तप से गुरु होता है। अर्थ का कथन कर देने पर भी जो उसे अभी तक अधिगत-हृदयंगम नहीं कर पाया है, उसको उपस्थापना देने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है, तप से लघु तथा काल से गुरु। जो शिष्य की परीक्षा किए बिना उपस्थापित करता है, उसमें चार लघुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, तप और काल दोनों से लघु। (यह प्रायश्चित्त ही नहीं, आज्ञाभंग आदि दोष भी आते हैं। इसलिए षड्जीवनिकासूत्र जिसने अभी तक पढ़ा नहीं है, न उसने उसके अर्थ को अधिगत किया है और न उसकी परीक्षा ली है-ऐसे शिष्य को उपस्थापना नहीं देनी चाहिए। ४१२. जीवा-ऽजीवाभिगमो, चरित्तधम्मो तहेव जयणा य। उवएसो धम्मफलं, छज्जीवणियाएँ अहिगारा॥ षड़जीवनिकाय के पांच अधिकार हैं-१. जीवाजीवाभिगम २. चारित्रधर्म ३. यतना ४. उपदेश ५. धर्मफल। ४१३. पव्वावण मुंडावण, सिक्खावण उवट्ठ संभंजणा य संवसणा। एसो उ दवियकप्पो, छव्विहतो होति नायव्वो॥ द्रव्यकल्प छह प्रकार का होता है-१. प्रव्राजना २. मुंडापना ३. शिक्षापन ४. उपस्थापना ५. सहभोजन ६. संवसन।' ४१४. पढिए य कहिय अहिगय, परिहर उवठावणाए सो कप्पो। छक्कं तीहिं विसुद्धं, परिहर नवगेण भेदेण॥ उपस्थापना कैसे? आचार्य पहले सूत्र पढ़ाए, फिर अर्थ का कथन करे, फिर उसकी परीक्षा करे कि अर्थ अधिगतआत्मसात् हुआ या नहीं, इतना हो जाने पर वह शिष्य छह जीवनिकायों का, तीन की शुद्धि से अर्थात् मन, वचन और काया की विशुद्धि से परिहार करता है। यह परिहार नौ भेदों से होता है। (मन से स्वयं परिहार करता है, दूसरों से परिहार करवाता है और परिहार करने वाले अन्य का अनुमोदन करता है। इसी प्रकार वचन से और काया से भी। यह उपस्थापनाकल्प है।) १. इनकी संपूर्ण विधि वृ. पृ. १२० में है। ४१५. अप्पत्ते अकहित्ता, अणहिगयऽपरिच्छणम्मि चउगुरुगा। दोहि गुरू तवगुरुगा, कालगुरू दोहि बी लहुगा।। ४१६. पढिते य कहिय अहिगय, परिहरति वियारकप्पितो सो उ। तिविहं तीहि विसुद्धं, परिहर नवगेण मेदेणं॥ सप्तसप्तक (आचारांग, द्वितीय श्रुतस्कंध की दूसरी चूलिका) अथवा ओघनियुक्ति को न पढ़े हुए एकाकी शिष्य को विचारभूमी में भेजने पर प्रायश्चित्त है-चार गुरुमास। वे तप और काल दोनों से गुरु होते हैं। सूत्र की वाचना दे दिए जाने पर, अर्थ का कथन देने पर भी, अर्थ अधिगत हुआ या नहीं इसकी परीक्षा किए बिना यदि विचारभूमी में भेजा जाता है तो प्रत्येक क्रिया से संबंधित प्रायश्चित्त है चार लघुमास का। ये काल और तप-दोनों से लघु होते हैं। सूत्र को पढ़ लेने, अर्थ का कथन हो जाने, अर्थ के अधिगम की परीक्षा हो जाने पर, वह शिष्य तीन प्रकार के स्थंडिल-सचित्त, अचित्त और मिश्र का विवेक कर तीन करण और तीन योग से अर्थात् नवक भेद से अस्थंडिल का परिहार करता है, वह विचारकल्पिक होता है। ४१७. भेया सोहि अवाया, वज्जणया खलु तहा अणुण्णा य। कारणविही य जयणा, थंडिल्ले होति अहिगारा॥ स्थंडिल के ये अर्थाधिकार हैं१. भेद ५. अनुज्ञा २. शोधि-प्रायश्चित्त ६. कारणविधि ३. अपाय ७. यतना ४. वर्जन ४१८. अच्चित्तेण अचित्तं, मीसेण अचित्त छक्कमीसेणं। सच्चित्त छक्कएणं, अचित्त चउभंग एक्केके। मार्ग की अपेक्षा से अचित्त स्थंडिल के तीन भेद होते हैं.-- १. अचित्त स्थंडिल और अचित्त मार्ग। २. अचित्त स्थंडिल और षट्काय से मिश्रित मार्ग। ३. अचित्त स्थंडिल और सचित्त मार्ग-षट्काय से आक्रांत। इसी प्रकार मिश्र स्थंडिल तथा सचित्त स्थंडिल से संबंधित तीन-तीन भेद हैं। अचित्त, मिश्र और सचित्त। स्थंडिल से संबंधित चतुर्भूगी आगे के श्लोकों में। ४१९. अणवायमसंलोए, अणवाए चेव होति संलोए। आवायमसंलोए, आवाए चेव संलोए। वह चतुभंगी इस प्रकार है१. अनापात असंलोक। ३. आपात असंलोक। २. अनापात संलोक। ४. आपात संलोक। (इन चारों भंगा में संयतों के लिए प्रथम भंग अनुज्ञात Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् है, शेष भंग प्रतिषिद्ध है। संयतियों के लिए तीसरा भंग ही संबंधित हैं। वे तीन प्रकार के हैं-पुरुष, स्त्री और अनुज्ञात है।) नपुंसक। इनके भेद-प्रभेद पूर्ववत् हैं।) ४२०. तत्थाऽऽवायं दुविहं, सपक्ख-परपक्खतो उ नायव्वं। ४२५. मणुय-तिरिएसु लहुगा, चउरो गुरुगा य दित्ततिरिएसु। दुविहं होइ सपक्खे, संजय तह संजतीणं च॥ तिरियनपुंसित्थीसु य, मणुयत्थि-नपुंसगे गुरुगा। ४२१. संविग्गमसंविग्गा, संविग्ग मणुण्ण एतरा चेव। शौचवादी मनुष्यों तथा अदृप्स तिर्यंच आपात होने पर असंविग्गा वि य दुविहा, तप्पक्खिय एयरा चेव॥ प्रायश्चित्त है चतुर्लघुक। दृप्त तिर्यंचों का आपात होने पर आपात दो प्रकार को होता है-स्वपक्ष तथा परपक्ष प्रायश्चित्त है चार गुरुक। तिर्यंच नपुंसक और स्त्री तथा का। स्वपक्ष आपात दो प्रकार का है-संयतों का तथा । मनुष्य स्त्री-नपुंसकों का आपात होने पर प्रत्येक में चार संयतियों का। संयत दो प्रकार के हैं-संविग्न और असंविग्न। संविग्न भी दो प्रकार के हैं-मनोज्ञ और ४२६. मणुय-तिरियपुंसेसुं, दोसु वि लहुगा तवेण कालेण। अमनोज्ञ। असंविग्न भी दो प्रकार के हैं-संविग्नपाक्षिक और __ कालगुरू तवगुरुगा, दोहिं गुरू अद्धोकंती वा। असंविग्नपाक्षिक। अशौचवादी मनुष्य पुरुष और अदृप्त तिर्यंच पुरुष का ४२२. परपक्खे वि य दुविहं, माणुस तेरिच्छगं च नायव्वं। आपात होने पर प्रत्येक का प्रायश्चित्त है चार लघुक। यह ___ एक्कक्कं पि य तिविहं, पुरिसित्थि नपुंसगं चेव॥ तप तथा काल से लघु होता है। अशौचवादी मनुष्य स्त्री तथा परपक्षापात भी दो प्रकार का होता है-मनुष्यापात तथा नपुंसक के आपात से चार गुरुक का प्रायश्चित्त आता है। तिर्यगआपात। इन दोनों के तीन-तीन प्रकार हैं-पुरुषापात, यह प्रायश्चित्त काल और तप दोनों से गुरु होता है। अथवा स्त्रीआपात और नपुंसकापात। अ पक्रांति है।' ४२३. पुरिसावायं तिविहं, दंडिय कोडुबिए य पागइए। ४२७. पागय कोडुंबिय दंडिए य अस्सोय-सोयवादीसु। ते सोयऽसोयवादी, एमेव नपुंस-इत्थीसु।। चउगुरुगा जमलपया, अहवा चउ छ च्च गुरु लहुगा। पुरुषापात तीन प्रकार का है-दंडिक, कौटुम्बिक तथा प्राकृत, कौटुम्बिक और दंडिक-इनके शीचवादी और प्राकृत अर्थात् दंडिकपुरुषापात, कौटुम्बिकपुरुषापात और अशौचवादी पुरुषों के आपात पर अ पक्रांति जाननी प्राकृतपुरुषापात। ये तीनों दो-दो प्रकार के होते हैं-शौचवादी चाहिए। यमलपद अर्थात् स्त्री-नपुंसक इनके चतुर्गुरुक और अशौचवादी। इसी प्रकार नपुंसक और स्त्री संबंधी भी प्रायश्चित्त जानना चाहिए। अथवा स्त्रियों के आपात पर तप यही भेद-प्रभेद होते हैं। और काल से विशेषित चार गुरुक और नपुंसक के आपात ४२४. दित्तमदित्ता तिरिया, जण्णमुक्कोस मज्झिमा तिविहा। पर तप और काल से विशेषित छह लघु का प्रायश्चित्त एमेवित्थि-नपुंसा, दुगुंछिय-ऽदुगुंछिया नवरं।। जानना चाहिए। तिर्यगापात-तिर्यंच दो प्रकार के होते हैं-दृप्त और अदृप्त। ४२८. तिरिएसु वि एवं चिय, अदुगुंछ-दुगुंछ-दित्त-ऽदित्तेसु। इन दोनों के तीन-तीन प्रकार हैं-जघन्य, उत्कृष्ट और अमणुण्णेयर लहुगो, संजतिवग्गम्मि चउगुरुगा। मध्यम। जघन्य हैं-मेष आदि। मध्यम हैं-महिष आदि। इसी प्रकार जुगुप्सित, अजुगुप्सित, दृप्त, अदृप्त तिर्यंच में उत्कृष्ट हैं-हाथी आदि। ये पुरुष तिर्यंच हैं। इसी प्रकार स्त्री अर्धापक्रांति-मतान्तर जानना चाहिए। स्वपक्ष के आपात में और नपुंसक तिर्यंच भी हैं। वे सब दो-दो प्रकार के होते शोधि इस प्रकार है-अमनोज्ञ संविग्न और असंविग्न के हैं-जुगुप्सित और अजुगुप्सित। आपात में प्रायश्चित्त है लघुमास और संयतियों के आपात में (आपात का कथन किया गया। संलोक केवल मनुष्यों से प्रायश्चित्त है चार गुरुमास। १. कुछेक आचार्यों के मत में वह अापक्रांति इस प्रकार है-दृप्ततियंच. २. पागइयऽसोयवादी, पुरिसाणं लहुग दोहि वी लहुगा। नरों के आपात पर तथा मनुष्यों के, गृहस्थों के तथा पाषंडियपुरुषों के ते चेव य कालगुरू, तेसिं चिय सोयवादीणं॥ आपात पर चारलघुक जो कालगुरुक हों, यह प्रायश्चित्त आता है। ते च्चिय लहु कालगुरू, कोडंबीणं असोयवादीणं। अदृप्त तिर्यंच स्त्री-नपुंसक, जो अजुगुप्सित हैं, उनके आपात पर तेसिं चिय ते चेव उ, तवगुरुगा सोयवादीणं॥ कालगुरुक चारलघुक का प्रायश्चित्त है। उन्हीं दृप्त जुगुप्सित दंडिय असोय ति च्चिय, सोयम्मि य दोहि गुरुग चउलहुगा। तिर्यंचस्त्री-नपुंसकों के आपात पर तापोगुरुक चारलघुक तथा एस पुरिसाण भणिओ, इत्थि-नपुंसाण वी एवं ।। अशीचवादी मनुष्य स्त्री-नपुंसकों के आपात पर तपोगुरुक चार (वृ. पृ. १२४) लघुक का प्रायश्चित्त आता है। (वृ. पृ. १२३,१२४) Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका ४२९. भद्द तिरी पासंडे, मणुयाऽसोएहिं दोहिं लहू लहुगा। कालगुरू तवगुरुगा, दोहि गुरू अड्डोकंति दुगे। भद्र अर्थात अदृप्स तिर्यंच नरों तथा अशौचवादी मनुष्यों और पाषंडियों के आपात होने पर, तप और काल से लघु चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। इसी प्रकार शौचवादी मनुष्य स्त्री-नपुंसकों के आपात पर, तप और काल से गुरु चार गुरुमास का प्रायश्चित्त है। शेष अर्थात् तिर्यंच-मनुष्य भेद में दो अर्थात् तप और काल संबंधी अापक्रांति जाननी चाहिए। कहीं वह तपोगुरुक और कहीं कालगुरुक होती है। ४३०. अमणुण्णेयरगमणे, वितहायरणम्मि होइ अहिगरणं। पउरदवकरण दटुं, कुसील सेहादिगमणं च॥ अमनोज्ञ अर्थात् असांभोगिक संविग्न और इतर अर्थात् असंविग्न का गमन-आपात होने पर एक-दूसरे के वितथा- चरण को देखकर परस्पर कलह हो सकता है। कुशील अर्थात् पार्श्वस्थ मुनि प्रचुर पानी से शौचशुद्धि करते हैं। यह देखकर शैक्ष तथा शौचवादी मुनि उनके पास जा सकते हैं। ४३१. निग्गंथाणं पढम, सेसा खलु होति तेसि पडिकुट्ठा। दव अप्प कलुस असती, अवण्ण पुरिसेसु पडिसेहो॥ निग्रंथों के लिए प्रथम प्रकार का स्थंडिल जो अनापातअसंलोक रूप है, वह विहित है। शेष तीन प्रकार के स्थंडिल वर्जनीय हैं, प्रतिषिद्ध हैं। पुरुषापात होना संभव हो तो नियमतः अकलुषित प्रचुर पानी ले जाना चाहिए। अन्यथा अल्प पानी अथवा कलुषित पानी अथवा बिना पानी के स्थंडिल गया हो तो वे आगंतुक पुरुष उसे देखकर अवर्णवाद कर सकते हैं। अतः पुरुष के आपात का प्रतिषेध किया गया है। ४३२. आय पर तदुभए वा, संकाईया हवंति दोसा उ। पंडित्थिसंगगहिते, उड्डाहो पडिगमणमादी। स्त्रियों के तथा नपुंसकों का आपात होने पर स्वविषयक, परविषयक तथा तदुभयविषयक शंका आदि दोष उत्पन्न हो सकते हैं। अथवा वह साधु स्त्री और नपुंसक के साथ मैथुन का सेवन कर सकता है। किसी के द्वारा देखे जाने पर प्रवचन का उड्डाह होता है तथा वह मुनि भी लज्जित होकर श्रमणधर्म से प्रतिगमन कर देता है, गृहस्थ बन जाता है। ४३३. आणणादी दित्ते, गरहियतिरिएसु संकमादीया। ___ एमेव य संलोए, तिरिए वज्जित्तु मणुएसु॥ दृप्त तिर्यंच के आपात से आहनन आदि दोष होते हैं और गर्हित तिर्यंचों के आपात पर शंका आदि दोष उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार तिर्यग्योनिक को छोड़कर मनुष्य-स्त्री, पुरुष, नपुंसकों के संलोक में भी आपातवत् दोष होते हैं। ४३४. जत्थऽम्हे पासामो, जत्थ य आयरइ नातिवग्गो णे। परिभव कामेमाणो, संकेयगदिन्नको वा वि॥ जहां हम उस आने वाले को देखते हैं और जहां हमारा ज्ञातिवर्ग शौचार्थ आता-जाता है, वहां हमारा परिभव करने की इच्छा से अथवा किसी के द्वारा संकेत को प्राप्त कर वह वहां आता है। ४३५. कलुस दवे असतीय व, पुरिसालोए हवंति दोसा उ। ___पंडित्थीसु वि य तहा, खद्धे वेउव्विए मुच्छा। शौचार्थ कलुषित पानी अथवा पानी के न होने पर पुरुष का आलोक-संलोक होने पर अवर्ण आदि दोष होते हैं। तथा नपुंसक और स्त्री का संलोक होने पर मुनि की जननेन्द्रिय को स्थूल अथवा वातदोष से स्वाभाविक रूप से स्तब्ध देखकर, स्त्री या नपुंसक में कामाभिलाषा रूप मूर्छा के कारण मुनि के लिए उपसर्ग पैदा कर सकती है। ४३६. आयसमुत्था तिरिए, पुरिसे दव कलुस असति उड्डाहो। आयोभय इत्थीसुं, अतितिणिते य आसंका।। तिर्यंच के आपात पर आत्म-समुत्थ दोष होते हैं। मनुष्य के आपात पर कलुषित पानी या पानी के न होने पर उड्डाह होता है। स्त्री तथा नपुंसक के आने-जाने पर आत्मदोष, परदोष तथा उभयदोष, आशंका आदि होते हैं। ४३७. आवायदोस तइए, बिइए संलोयतो भवे दोसा। ते दो वि नत्थि पढमे, तहिं गमणं तत्थिमा मेरा।। तीसरे प्रकार के स्थंडिल में आपातदोष तथा दूसरे प्रकार के स्थंडिल में संलोकदोष होते हैं। ये दोनों प्रकार के दोष प्रथम प्रकार के स्थंडिल में नहीं होते। वहां जाने की यह मर्यादा है। ४३८. कालमकाले सन्ना, कालो तइयाएँ सेसगमकालो। पढमा पोरिसि आपुच्छ पाणगमपुप्फिअण्णदिसिं॥ संज्ञा के दो प्रकार हैं-काल में होने वाली संज्ञा और अकाल में होने वाली संज्ञा। तीसरे प्रहर में होने वाली संज्ञा काल संज्ञा है और शेष सारी अकाल संज्ञा हैं। यदि प्रथम प्रहर में संज्ञाभूमी में जाना पड़े तो अपुष्पित-स्वच्छ पानी लेकर, स्थंडिल की दिशा में न जाकर उपाश्रय में आए और गुरु की आज्ञा लेकर संज्ञाभूमी में जाए। ४३९. अतिरेगगहणमुग्गाहियम्मि आलोय पुच्छियं गच्छे। एसा उ अकालम्मी, अणहिंडिय हिंडिए काले॥ संज्ञाभूमी में जाते समय मुनि पात्र में एक और मुनि के काम आए उतना अधिक पानी लेकर गुरु के पास ईर्यापथ की आलोचना कर, गुरु को पूछकर, संज्ञाभूमी में जाए। यह अकाल संज्ञा की विधि है। काल संज्ञा की विधि यह Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ==बृहत्कल्पभाष्यम् है-तीसरे प्रहर में जब तक भिक्षा वेला नहीं होती तब तक (स्थापना यह हैबिना भिक्षा के लिए गए वह संज्ञाभूमी में जाए। भिक्षा के १ ९८६५४ारा१] लिए घूमकर भी जब तक चौथा प्रहर नहीं आता तब तक वह |१५|१५|३०|४२४२|३०|१५|५|१ संज्ञाभूमी में जाए। चिरकाल तक घूमते रहने के कारण चौथे दस को १ से, नौ को ५ से, आठ को १५ से, सात को प्रहर में भी वह संज्ञाभूमी में जा सकता है। ३० से, छह को ४२ से, पांच को ४२ से, चार को ३० से, ४४०. कप्पेऊणं पाए, एक्केकस्स उ दुवे पडिग्गहगे। तीन को १५ से, दो को ५ से और एक को १ से। इनकी कुल दाउं दो दो गच्छे, तिण्हव दवं च घेत्तूणं॥ जोड़ रूपाधिक के आधार पर १०२४ होती है।) पात्रों को पोंछकर एक-एक संघाटक को दो-दो पात्र दे ४४६. आया पवयण संजम, तिविहं उवघातियं मुणयव्वं । दे। दो-दो मुनि संज्ञाभूमी में जाएं। वे उतना पानी ले जाए कि आराम वच्च अगणी, घायादऽसुती य अन्नत्थ।। तीसरे मुनि के लिए भी काम आ जाए। औपघातिक स्थंडिल के तीन प्रकार जानने चाहिए.४४१. अजुयलिया अतुरिया, विगहारहिया वयंति पढमं तु। आत्मोपघाती, प्रवचनोपघाती और संयमोपघाती। निसिइत्तु डगलगहणं, आवडणं वच्चमासज्जा॥ आत्मोपघाती अर्थात् आराम (बगीचा, उद्यान आदि) में जो मुनि युगलरूप में स्थित नहीं हैं, जिनके कोई मलत्याग करने पर स्वयं का घात–पिट्टन आदि होता है। त्वरा नहीं है, जो विकथा न करते हुए स्थित हैं, वे प्रथम । प्रवचनोपघाती अर्थात् व!गृह में मलत्याग करने पर, वह अर्थात् अनापात असंलोक वाले स्थंडिल में जाएं। शौचार्थ स्थान अशुचि होने के कारण लोग प्रवचन का उड्डाह करते बैठकर डगलक ग्रहण कर, उन्हें भूमी पर पटके (जिससे हैं। संयोपघाती अर्थात् अग्निस्थान में व्युत्सर्ग करना। वहां कि उनमें प्रविष्ट जीव-जंतु निकल जाएं)। डगलकों का मलत्याग करने पर अग्नि का प्रारंभ करने वाले अन्यत्र प्रमाण मल से खरंडित पुत-निर्लेपन के आधार पर अग्निस्थान करते हैं। होता है। ४४७. विसम पलोट्टणि आया, इयरस्स पलोट्टणम्मि छक्काया। ४४२. आलोइऊण य दिसा, संडासगमेव संपमज्जित्ता। झुसिरम्मि विच्छुगादी, उभयक्कमणे तसादीया।। पेहिय पमज्जिएसु य, जयणाए थंडिले निसिरे॥ विषम स्थंडिल के ये दोष हैं-मुनि विषम स्थंडिल स्थान संज्ञाभूमी में दिशा का अवलोकन करे-आपात और में गिर सकता है। इससे आत्मविराधना होती है। मल-मूत्र के संलोक की जानकारी के लिए चारों ओर देखे। पश्चात् गिरने-बहने से छह काय की विराधना होती है। यह संयमसंडासक-मल-विसर्जन स्थान की प्रतिलेखना करे। फिर विराधना है। झुषिर स्थंडिल में व्युत्सर्ग करने पर बिच्छु, सर्प प्रेक्षित और प्रमार्जित भूमी-प्रदेश में यतनापूर्वक मलत्याग आदि से आत्मविराधना हो सकती है। मल-मूत्र-दोनों के करे। अतिक्रमण से त्रस-स्थावर प्राणियों की विराधना होती है। ४४३. अणावायमसंलोए, परस्स अणुवघातिए। यह संयमविराधना है। समे अज्झसिरे यावि, अचिरकालकयम्मि य॥ ४४८. जे जम्मि उउम्मि कया, पयावणादीहिं थंडिला ते उ। ४४४. विच्छिन्ने दूरमोगाढेऽनासन्ने बिलवज्जिए। होति इयरे चिरकया, वासावुत्थे य बारसगं। तसपाण-बीयरहिए, उच्चारादीणि वोसिरे॥ जो स्थंडिल जिस ऋतु में अग्नि, धूप आदि के योग से मुनि अनापात-असंलोक, दूसरों के लिए अनौपघातिक, किये जाते हैं वे उस ऋतु के अचिरकालकृत होते हैं। जैसे समतल, अशुषिर, अचिरकालकृत, विस्तीर्ण, दूरावगाढ, हेमन्त ऋतु में किया गया स्थंडिल हेमन्त ऋतु में ही अनासन्न, बिलवर्जित, सप्राणियों तथा बीजरहित इस अचिरकालकृत होता है। दूसरे ऋत्वन्तरव्यवहित स्थंडिल प्रकार के स्थंडिल में उच्चार-प्रस्रवण आदि का विसर्जन चिरकालकृत हैं, वे अस्थंडिल होते हैं। जहां सगोचरग्राम एक करे। वर्षारात्र तक उजड़ जाता है, वहां बारह वर्ष तक स्थंडिल ४४५, एग-दु-ती-चउ-पंचग-छग-सत्तग-अट्ठ-नवग-दसगेहिं।। जाना जाता है। उसके पश्चात् वह अस्थंडिल हो जाता है। संजोगा कायव्वा, भंगसहस्सं चउव्वीसं॥ ४४९. हत्थायाम चउरस, जहण्ण उक्कोस जोयणविछक्कं । एक, दो, तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ, नौ और चउरंगुलप्पमाणं, जहण्णयं दश-इनका संयोग करना चाहिए। उनके कुल भंग १०२४ जो स्थंडिल चारों दिशाओं में एक हाथ लंबा-चौड़ा है वह होते हैं। जघन्य विस्तीर्ण स्थंडिल है और जो बारह योजन लंबा-चौड़ा Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका = ४९ ४५४. अपमज्जणा अपडिलेहणा य दुपमज्जणा दुपडिलेहा। तिय मासिय तिय पणगं, लहु काल तवे चरिम सुद्धो।। जो मुनि उत्सर्ग करने के लिए संज्ञाभूमी में जाकर स्थान का प्रतिलेखन और प्रमार्जन नहीं करता उसके मासलघु, तपोगुरु और काललघु का प्रायश्चित्त आता है। जो प्रतिलेखन नहीं करता, प्रमार्जन करता है उसे लघुमास, कालगुरु और तपोलघु का, जो प्रमार्जन नहीं करता, प्रतिलेखन करता है उसे लघुमास, जो तप और काल से लघु होता है, यह प्रायश्चित्त विहित है। उपरोक्त तीन स्थानों में काल और तप से विशेषित लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। इसी प्रकार • दुष्प्रत्युपेक्षित और दुष्प्रमार्जित स्थंडिल होने पर पांच रात-दिन लघु-तपोगुरु और काललघु। . दुष्प्रत्युपेक्षित और सुप्रमार्जित स्थंडिल-पांच रातदिन लघु-तपोलघु और कालगुरु। • सुप्रत्युपेक्षित और दुष्प्रमार्जित स्थंडिल-पांच रातदिन लघु तप और काल-दोनों से लघु। इन सब में 'चरम' अर्थात् सुप्रत्युपेक्षित और सुप्रमार्जित है, वह उत्कृष्ट विस्तीर्ण है। जो नीचे चार अंगुल प्रमाण गहरा है। (अचित्त भूमीवाला है) वह जघन्य दूरावगाढ स्थंडिल है और जो इससे अधिक गहरा है वह उत्कृष्ट दूरावगाढ है। ४५०. दव्वासन्नं भवणाइयाण तहियं तु संजमा-ऽऽयाए। आया-पवयण-संजमदोसा पुण भावमासन्ने॥ आसन्न स्थंडिल के दो प्रकार हैं-द्रव्यतः आसन्न स्थंडिल है भवन, देवकुल, ग्राम, पथ, वृक्ष आदि के निकट। वहां शौचक्रिया करने से संयमविराधना और आत्मविराधना-दोनों होती हैं। भावनः आसन्न स्थंडिल का तात्पर्य है-उत्सर्ग की बाधा होने पर जब तक वह उसे रोक सके तब तक रोके। रोकने में असमर्थ हो तो भवन आदि के पास उत्सर्ग करे। इससे आत्मविराधना, संयमविराधना तक प्रवचन का उपघात भी हो सकता है। ४५१. होति बिले दो दोसा, तसेसु बीएसु वा वि ते चेव। संजोगतो य दोसा, मूलगमा होति सविसेसा॥ बिलों में मल-विसर्जन करने पर दो दोष होते हैं-आत्म- विराधना और संयमविराधना। इसी प्रकार त्रसकाय और बीजों से आक्रांत भूमी पर व्युत्सर्ग करने पर ये ही दो दोष होते हैं। 'मूलगम' अर्थात् एककसंयोग से द्विक-त्रिक आदि पदों के संयोग से 'सविशेष' अर्थात् बहु-बहुतरक दोष होते हैं। जैसे--द्विकसंयोग से दुगुना, त्रिकसंयोग से त्रिगुना, इसी प्रकार दस के संयोग से दस गुना दोष होते हैं। ४५२. मंथम्मि य आलोए, झुसिरम्मि तसेसु चेव चउलहुगा। पुरिसावाए य तहा, तिरियावाए य ते चे॥ मार्ग के पास, पुरुषों के देखते हुए, शुषिर स्थान में, वसाकुल स्थान में व्युत्सर्ग करने पर चार लंघुमास का प्रायश्चित्त आता है। इसी प्रकार पुरुषों के आपात तथा सर्वतिर्यग्नरापात वाले स्थान पर व्युत्सर्ग करने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त विहित है। ४५३. इत्थि-नपुंसावाए, भावासन्ने बिले य चउगुरुगा। पणगं लहयं गुरुगं, बीए सेसेसु मासलहुं। स्त्रियों तथा नपुंसकों के आपात वाले स्थंडिल में, भावासन्न तथा बिल वाले स्थंडिल में व्युत्सर्ग करने पर प्रत्येक के चार गुरुमास का. प्रत्येक काय बीजसंकुल स्थान पर व्युत्सर्ग करने पर लघु पांच दिनरात का अर्थात् तप और काल से लघु तथा अनन्तकाय बीजसंकुल पर उत्सर्ग करने पर गुरु प्रायश्चित्त विहित है-पांच दिनरात तप तथा काल से गुरु। शेष अशुद्ध स्थंडिल पर मासलघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १. यह गाथा अन्य आचार्य की परिपाटी की सूचक है। यह मतान्तर है। ४५५. खुड्डो धावण झुसिरे, तिक्खुत्तो अपडिलेहणा लहुगो। घर-वावि-वच्च-गोवय-ठिय-मल्लगछड्डणे लहुगा।। ऐसा स्थंडिल जहां विसर्जित थोड़ा मल-मूत्र बह जाता है, जो शुषिर हो, तीन प्रकार के जो अप्रत्युपेक्षित आदि स्थंडिल हों, वहां मल-मूत्र विसर्जित करने पर प्रत्येक के लिए लधुमास का प्रायश्चित्त है। तथा घर में, वापी में, वर्चीगृह अथवा मल के ऊपर, गोष्पद में, खड़े-खड़े उत्सर्ग करने में, मल्लक में व्युत्सर्ग कर परिष्ठापन करने में इन सबमें प्रत्येक के लिए प्रायश्चित्त है चार-चार लघुमास का।' ४५६. दिसि-पवण-गाम-सूरिय-छायाएँ पमज्जिऊण तिक्खुत्तो। __जस्सुग्गहो ति काऊण वोसिरे आयमे वा वि॥ शौचार्थ गया हुआ मुनि उत्तर और पूर्व दिशा की ओर पीठ कर न बैठे। जिस ओर हवा चल रही है उस ओर तथा गांव और सूर्य की ओर पीठ कर न बैठे। छाया में व्युत्सर्ग करे तथा स्थंडिल का तीन बार प्रमार्जन-प्रत्युपेक्षण कर व्युत्सर्ग करे। जिसका अवग्रह हो उसकी अनुज्ञा लेकर व्युत्सर्ग और आचमन करे। ४५७. उत्तर पुव्वा पुज्जा, जम्माएँ निसीयरा अभिवडंति। घाणारसा य पवणे, सूरिय गामे अवन्नो उ॥ लोक में उत्तर और पूर्व दिशा पूज्य मानी जाती है। अतः Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् दिन और रात में उस ओर पीठ कर शौच क्रिया न करे। लक्षण वाले स्थंडिल का अभाव हो अथवा उसके होने पर भी दक्षिण दिशा में रात्री में निशाचर देव आते-जाते हैं। अतः इन स्थानों कारणों से व्याघात हो-वहां प्रत्यनीक बैठा हो। रात्री में उस ओर पीठ कर शौच क्रिया न करे। जिस ओर मार्ग में चोरों का भय हो, व्याल-सर्प आदि की संभावना हो, पवन चल रहा हो उसे ओर पीठ कर बैठने पर अशुभ गंध से किसी ने वहां खेत बना दिया हो, वहां पानी भर गया हो, नाक में अर्श आदि हो सकते हैं, इसलिए पवन की ओर भी वहां स्कंधावार आदि निविष्ट हो, स्त्री-नपुंसक वहां उपस्थित पीठ नहीं करनी चाहिए। शौच के समय सूर्य और गांव की हों। तो मुनि उस स्थंडिल की वर्जना करे। ओर पीठ करने से लोगों में अवर्णवाद होता है। ४६३. पढमासति वाघाए, पुरिसालोगम्मि होति जयणाए। ४५८. संसत्तग्गहणी पुण, छायाए निग्गयाएँ वोसिरइ। मत्तग अपमज्जण डगल कुरुअ तिविहे दुविहभेदो। छायाऽसति उण्हम्मि वि, वोसिरिय मुहत्तगं चिट्ठ॥ प्रथम लक्षणवाले स्थंडिल के अभाव में अथवा वहां जिस मुनि की कुक्षि कृमियों से संसक्त है, वह मुनि वृक्ष व्याघात होने पर मुनि दूसरे प्रकार के स्थंडिल अर्थात आदि की छाया में उत्सर्ग क्रिया करे। वृक्ष की छाया के अनापात-संलोक में जाए। पुरुषों का संलोक हो, वहां जाए अभाव में मुनि अपने शरीर की छाया में व्युत्सर्ग करे और और आचमन आदि यतनापूर्वक करे। प्रत्येक मुनि पात्र लेकर 'मुहूर्त्तक' अर्थात् कुछ समय तक वहीं बैठा रहे। (इतने समय जाए और डगलकों से प्रमार्जन न करे और आचमन के में वे कृमि अपने स्वाभाविक योग से परिणत हो जाते हैं, पश्चात् कुरुकुच (मिट्टी से हाथ धोना) करे। 'त्रिविधे प्रत्येक अन्यथा महान् संताप होता है।) द्विविधो भेदः' इसका तात्पर्य है कि परपक्ष तीन प्रकार का ४५९. उवगरणं वामगऊरुगम्मि मत्तो य दाहिणे हत्थे। है-पुरुष, स्त्री, नपुंसक। प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं-- तत्थऽण्णत्थ व पुंसे, तिहिं आयमणं अदूरम्मि। शौचवादी, अशौचवादी अथवा श्रावक, अश्रावक। अथवा तीन मल का उत्सर्ग करता हुआ मुनि अपने उपकरणों को प्रकार स्थविर, मध्यम, तरुण अथवा प्राकृत, कौटुम्बिक, केसे धारण करे? वह उपकरण अर्थात् दंडक और रजोहरण दंडिक। ये पुरुषों के भेद हैं। इसी प्रकार स्त्री-नपुंसक के भी को वामऊरु-बांई जांघ पर स्थापित करे, मात्रक को दाहिने भेद ज्ञातव्य हैं। हाथ में तथा डगलकों को बाएं हाथ में रखे। संज्ञा से निवृत्त ४६४. तेण परं पुरिसाणं, असोयवादीण वच्च आवायं। होकर, निकट के अन्यत्र प्रदेश में पुतों को डगलकों से पूंछे, इत्थि-नपुंसालोए, परम्मुहो कुरुकुया सा य॥ फिर वहीं तीन चुल्लुक पानी से आचमन करे। सामान्य पुरुषालोक वाले स्थंडिल के अभाव में ४६०. आलोगं पि य तिविहं, पुरिसि-त्थि-नपुंसकं च बोधव्वं। अशौचवादी पुरुषालोक वाले स्थंडिल में जाए। इसके भी लहुगा पुरिसालोए, गुरुगा य नपुंस-इत्थीसु॥ अभाव में स्त्री-नपुंसकालोक वाले स्थंडिल में जाए। वहां वह आलोक भी तीन प्रकार का होता है-पुरुषालोक, स्त्री- पराङ्मुख बैठे और कुरुकुच आदि की पूर्ववत् यतना करे। आलोक, नपुंसकालोक। इनका प्रायश्चित्त इस प्रकार है- ४६५. तेण परं आवायं, पुरिसेयर-इत्थियाण तिरियाणं। पुरुषालोक चारलघुमास, स्वीआलोक और नपुंसकालोक तत्थ वि य परिहरेज्जा, दुगुंछिए दित्तऽदित्ते य॥ चार-चार गुरुमास। उपरोक्त प्रकारों के स्थंडिलों के अभाव में मुनि तिर्यंच नर४६१. छक्काय चउसु लहुगा, परित्त लहुगा य गुरुग साहारे। मादा और नपुंसकों के आपात वाले स्थंडिल में जा सकता है। संघट्टण परियावण, लहु गुरुगऽतिवायणे मूलं। उनमें भी जुगुप्सित, दृप्त और अदृप्स तिर्यंचों का वर्जन करें। छह कायों में से चार काय-पृथ्वी, अप, तेजो और वायु ४६६. तत्तो इत्थि-नपुंसा, तिविहा तत्थ वि असोयवाईणं। तथा परित्त वनस्पतिकाय का संघट्टन होने पर लघुमास, तहियं च सद्दकरणं, आउलगमणं कुरुकुया य॥ साहार-अनन्तवनस्पति काय के संघट्टन में गुरु, द्वीन्द्रिय अथवा स्त्री-नपुंसकों के आपात वाले स्थंडिल में जाए। वे आदि के संघट्टन में लघु और परितापन में गुरु और इनका स्त्री नपुंसक तीन प्रकार के होते हैं-प्राकृत, कौटुम्बिक और अतिपात होने पर मूल।' दंडिक। प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं-शौचवादी, अशौचवादी। ४६२. पढमिल्लुगस्स असती, वाघातो वा इमेहिं ठाणेहि। इनमें से पहले अशाचवादी आपात वाले स्थंडिल में जाए। पडिणीय तेण वाले, खेत्तुदग निविट्ठ थी अपुमं॥ वहां शब्द करते हुए, आकुल-व्याकुल होते हुए जाएं और प्रथम लक्षण वाले स्थंडिल अर्थात् अनापात-असंलोक कुरुकुच आदि करे। १.वृत्तिकार ने इस प्रायश्चित्त विषयक विस्तार से चर्चा की है और इनके निरंतर आठ दिन तक होने वाले व्याघात से प्रायश्चित्त की वृद्धि का भी उल्लेख किया है। (वृ. पृ. १३४,१३५) तास Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका = ५१ ४६७. इत्थि-नपुंसावाते, जा उण जयणा उ मत्तगादीया। 'पात्रैषणा' को अप्राप्त अर्थात् अनधीत शिष्य को पात्र-लेप पुरिसावाए जयणा, स च्चेव उ मत्तगादीया॥ लाने के लिए प्रेषित करने पर उसे चार गुरुक का स्त्री और नपुंसकापात वाले स्थंडिल विषयक मात्रक प्रायश्चित्त आता है। दो से गुरु अर्थात् तपोगुरुक और आदि की यतना जो कही है वही यतना मुरुषापात विषयक कालगुरुक। सूत्र को प्राप्त है, परंतु अर्थ का कथन नहीं हुआ है। मात्रक की यतना पूर्ववत् है। है, अर्थ के कह देने पर भी उसका अधिगत हृदयंगम नहीं ४६८. अच्चित्तेणं मीसं, मीसं मीसेण छक्कमीसेणं। किया है, अथवा अधिगत होने पर भी उस पर सम्यक सच्चित्तछक्कएणं, मीसे चउभंगिग पदेसे॥ श्रद्धा है या नहीं, यह परीक्षा किए बिना भेजने पर, प्रत्येक (अचित्त स्थंडिल के ये प्रकार हैं-(१) अचित्त मार्ग से अर्थात् अकथन, अनधिगत और अपरीक्षण के लिए चार प्राप्य (२) मिश्र मार्ग से प्राप्य (३) सचित्त मार्ग से प्राप्य।) लघुक का प्रायश्चित्त आता है-दो से लघु अर्थात् तपोलघुक मिश्र स्थंडिल अचित्त मार्ग से गंतव्य। उसके अभाव में और काललघुक। षट्कायमिश्र मार्ग से गंतव्य। उसके अभाव में षट्कायसचित्त ४७२. अज्जक्कालिय लेवं, वयंति अवियाणिऊण सब्भावं। मार्ग से गंतव्य। मात्रक न होने पर संज्ञा के उत्सर्गकाल में ते वत्तव्वा लेवो, दिट्ठो तेलोक्कदंसीहिं॥ अथवा परिष्ठापनकाल में धर्मास्तिकाय आदि प्रदेशों की कुछेक मुनि प्रवचन के सद्भाव रहस्य को जानते हुए यह निश्रा लेकर उत्सर्ग करे। कहते हैं कि पात्रलेप की बात अद्यकालिक है, प्राचीन नहीं है। ४६९. अच्चित्तेण सचित्तं, मीसेण सचित्त छक्कमीसेण। उनको कहना चाहिए, त्रैलोक्यदर्शियों ने पात्रलेप देखा है। सच्चित्त छक्कएणं, सचित्त चउभंगिय पदेसे॥ ४७३. आया पवयण संजम, उवधाओ दिस्सए जओ तिविहो। (सचित्त स्थंडिल भी चार प्रकार का है। उसमें सबसे तम्हा वयंति केई, न लेवगहणं जिणा बेति॥ पहले अनापात-असंलोक में जाए। उसके अभाव में दूसरे में, लेपग्रहण में तीन प्रकार का उपघात देखा जाता हैउसके अभाव में तीसरे में और उसके अभाव में चौथे में।) आत्मोपघात, प्रवचनोपघात तथा संयमोपघात। इसलिए ___ इनमें सबसे पहले अचित्त मार्ग से जाए। उसके अभाव में । कुछेक कहते हैं-जिनेश्वरदेव लेपग्रहण की बात नहीं कहते। सचित्तमिश्र अर्थात् षट्कायमिश्र मार्ग से जाए। उसके अभाव ४७४. रहपडण उत्तमंगादिभंजणा घट्टणे य करघातो। में षट्जीवनिकाय सचित्त मार्ग से जाए। इसमें भी मात्रक की अह आयविराहणया, जक्खुल्लिहणे पवयणम्मि। यतना करनी चाहिए। मात्रक के अभाव में धर्मास्तिकाय आदि ४७५. गमणाऽऽगमणे गहणे, तिट्ठाणे संजमे विराहणया। प्रदेशों की निश्रा में व्युत्सर्ग करे। महि सरि उम्मुग हरिया, कुंथू वासं रयो व सिया॥ ४७०. पढिय सुय गुणियमगुणिय, धारमधार उवउत्तो परिहरति। रथ आदि से गिरने पर शिर आदि शरीर के अवयव टूट आलोयाऽऽयरियादी, आयरिओ विसोहिकारो से॥ जाते हैं। इसी प्रकार लेपयुक्त पात्र के घट्टन से हाथ में पीड़ा जिसने सप्तसप्तकादि सूत्र पढ़ा है, पाठ को जिसने सुना होती है-यह आत्मविराधना है। यक्ष अर्थात् कुत्ते अनेक बार है, अर्थ से जिसने गुणित-अभ्यस्त किया है अथवा अगुणित शकट के अक्ष को चाटते हैं, उसी प्रकार साधु लेप को ग्रहण है, धारित है अथवा अनवधारित, फिर भी जो उपयुक्त होकर कर भोजनयोग्य पात्र के लगाता है। यह प्रवचनोपघात है। स्थंडिल का उपभोग करता है वह स्थंडिल-कल्पिक होता है। तीन स्थानों में संयमोपघात होता है-लेपग्रहण के लिए जाने इस विषयक विराधना की वह आचार्य आदि के पास में, लौटकर वसति में आने पर तथा लेपग्रहण करते समय। आलोचना करता है। आचार्य उसके विशोधिकारक होते हैं। गमनागमन में सचित्त पृथ्वीकाय की विराधना, नदी के कारण उसे प्रायश्चित्त देकर शुद्ध कर देते हैं। अप्काय की विराधना, मार्ग में उल्मुक (अलात) के संघट्टन ४७१. अप्पत्ते अकहित्ता, अणहिगयऽपरिच्छणे य चउगुरुका। में अग्निकाय की विराधना, हरित्काय की विराधना, लेप में दोहि गुरू तवगुरुगा, कालगुरू दोहि वी लहुगा। कुंथु आदि के लगने से त्रसकाय की विराधना, वर्षा हो रही आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध के छठे अध्ययन हो, रजोपतन हो रहा हो-ये सारी विराधनाएं होती हैं।' १. जिज्ञासु कहता है, जिस प्रकार भगवान् ने पिंडैषणा, पात्रैषणा का प्रकार के पात्र बतलाए हैं-यथाकृत, अल्पपरिकर्म, सपरिकर्म। कथन किया है, वैसे स्पष्टतः कहीं भी लेपैषणा का उल्लेख नहीं है। अल्पपरिकर्म और सपरिकर्म पात्र लेप के बिना नहीं होते। अतः अर्थ क्योंकि इसमें आत्मोपघात, संयमोपघात और प्रवचनोपघात-तीनों के आधार पर लेप की बात स्वतः प्राप्त होती है। ओघनियुक्ति में भी उपघात होते हैं। आचार्य कहते हैं-ऐसे कहना उचित नहीं है। लेपैषणा का विस्तार से वर्णन है। (वृ. पृ. १४०)। जिनेश्वरदेव ने लेप का कथन अर्थतः किया है। पात्रैषणा में तीन Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ बृहत्कल्पभाष्यम् ४७६. दोसाणं परिहारो, चोयग जयणाए कीरए तेसिं। पाते उ अलिप्पंते, ते दोसो होतऽणेगगुणा॥ ___ हे शिष्य ! लेप के संबंध में तुमने जो दोष बतलाए हैं, उनका परिहार यतना से किया जाता है। पात्र पर लेप न लगाने से वे दोष अनंतगुना अधिक होते हैं। जैसे४७७. उढादीणि उ विरसम्मि भुंजमाणस्स होति आयाए। दुग्गंधि भायणं ति य, गरहति लोगो पवयणम्मि॥ ४७८. पवयणघाया अन्ने, वि अत्थि ते उ जयणाए कीरंति। आयमणभोयणाई, लेवे तव मच्छरो को णु॥ अलेपकृत पात्र विरस होता है। उसमें भोजन करने से वमन, अरुचि आदि आत्मसंबंधी दोष होते हैं। दुर्गंधयुक्त पात्र को देखकर लोग गर्दा करते हैं। यह प्रवचनोपघात है। इसी प्रकार दूसरे अनेक प्रवचनोपघाती दोष होते हैं। उनका परिहार यतनापूर्वक किया जाता है। आचमन- अनाचमन, मंडली में पात्र में भोजन करना आदि भी प्रवचन के घात करने वाले दोष हैं। उनका उपयुक्त परिहार होता है। तो शिष्य! लेप के ग्रहण आदि में यतनापूर्वक व्यवहार करने पर तुम्हारा क्यों मात्सर्यभाव है? यह उचित नहीं है। ४७९. खंडम्मि मग्गियम्मी, लोणे दिन्नम्मि अवयवविणासो। ___ अणुकंपादी पाणम्मि होति उदगस्स उ विणासो॥ एक मुनि अलेपित पात्र को लेकर भिक्षा के लिए गया और गृहिणी से 'खंड' (शक्कर) की याचना की। गृहिणी ने भ्रांति-वश नमक दे डाला। उस पात्र के कुछ अवयव अभी तक अम्ल थे। अम्ल के साथ लवण का स्पर्श होने पर पृथ्वीकायरूप लवण के जीवों का विनाश हो गया। किसी मुनि ने पानक की याचना की। गृहिणी ने अनुकंपावश अथवा अज्ञान- वश उस पात्र में पानी दिया। अम्ल अवयव के स्पर्श से उदक का भी विनाश हो गया। ४८०. पूयलियलग्ग अगणी, पलीवणं गाममादिणं होज्जा। रोट्टपणगा तरुम्मि, भिगु-कुंथादी य छट्ठम्मि॥ अलेपकृत पात्र में गृहस्थ ने मुनि को पूपलिका दी। उसके नीचे अंगारा (अग्नि) लगा हुआ था। उससे पात्र जलने लगा। नाप के कारण वह पात्र साधु के हाथ से छूटा और एक बाड़ पर जा गिरा। बाड़ में आगे लग गई। उससे गांव आदि का दहन हो सकता है। इससे महान अग्निकाय की विराधना होती है। गृहिणी ने वैसे पात्र में रोट्ट दिया। पात्र के अम्ल अवयवों १. कहा है-भारे हत्थुवधातो, तत्थ य संपादिणी पडते य। पारिट्ठावणिदोसो, अहिगम्मि य होइ अणीए॥ (वृ. पृ. १४२) के स्पर्श से वह प्राणापहारी हो जाता है। सूक्ष्म तरारों में 'पनक' आदि वनस्पति का सम्मर्छन होता है। उस रोट्ट के परिष्ठापन से पनक के जीव विनष्ट हो जाते हैं। यह 'तरु' अर्थात् वनस्पतिकाय की विराधना है। भृगु अर्थात् सूक्ष्म तरारों में कुंथु आदि त्रस जीव भी उत्पन्न होते हैं। वे अम्लावयव स्पष्ट अन्नपान से नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार छठीकाय अर्थात् त्रसकाय की भी विराधना होती है। (इस प्रकार पात्र के अलेपन से छहों जीवनिकाय की विराधना होती है।) ४८१. पायग्गहणम्मि उ देसियम्मि लेवेसणा वि खलु वुत्ता। तम्हा उ आणणा लिंपणा य लेवस्स जयणाए। भगवान् ने पात्रग्रहण की अनुज्ञा दी है तो लेपैषणा की भी अनुज्ञा जान लेनी चाहिए। इसलिए लेप का आनयन और पात्र पर उसका लिंपन यतनापूर्वक करने में कोई दोष नहीं है। ४८२. हत्थोवघाय गंतूण लिंपणा सोसणा य हत्थम्मि। सागारिए पभू जिंघणा य छक्कायजयणाए॥ शिष्य ने तर्क प्रस्तुत किया कि लेप को लाते समय भार के कारण हस्तोपघात होता है तो वहीं जाकर पात्र पर लेप करना चाहिए। और उस लेपित पात्र को हाथ में रखकर सुखाना चाहिए। (इनका उत्तर आगे दिया जाएगा।) लेप लाने के लिए जाते समय शय्यातर का शकट देखकर यह सागारिक-शय्यातर का पिंड है-यह सोचकर उसका वर्जन नहीं करना चाहिए। शकट के प्रभु की अथवा प्रभु-संदिष्ट व्यक्ति की अनुज्ञा लेकर उस लेप के कटुगंध की जानकारी के लिए उसे सूंघे। फिर षट्काय की यतनापूर्वक उसको ग्रहण करे। (इसकी व्याख्या आगे की गाथाओं में।) ४८३. चोयगवयणं गंतूण लिंपणा आणणे बहू दोसा। संपातिमादिघातो, अहिउस्सग्गो य गहियम्मि। शिष्य कहता है-शकट के पास जाकर पात्र पर लेपन करना चाहिए। क्योंकि लेप के आनयन में अनेक दोष होते हैं। जैसे-भार से हस्तोपघात, संपातिम जीवों के पड़ने से उनका उपघात तथा अधिक लेप ग्रहण कर लेने पर उसके A 17- ४८४. एवं पि भाणभेदो, वियावडे अत्तणो उ उवघाओ। निस्संकियं च पायम्मि गिण्हणे इयरहा संका॥ आचार्य ने कहा-शिष्य! इस प्रकार करने पर खड़े-खड़े लेपन में व्याप्त होने पर हाथ से भाजन नीचे गिर कर टूट सकता है। शकट के कारण आत्मोपघात भी हो सकता है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ पीठिका = लेप को पात्र में लेकर वहीं लगाने पर देखने वालों को यह निःशंकित हो जाता है कि ये मुनि अशुचिमय लेप से भोजन के भाजन को लिस करते हैं। अन्यथा लेप को शराव आदि में लेने से लोगों को केवल शंका हो सकती है कि लेप का ग्रहण पात्र के लिए अथवा पैर आदि पर पट्टी बांधने के लिए ले जा रहे हों। ४८५. जइ वा हत्थुवघाओ, आणिज्जंतम्मि होइ लेवम्मि। पडिलेहणादि चेट्ठा, तम्हा उ न काइ कायव्वा॥ यदि लेप को लाने में हस्तोपघात होता है तो प्रतिलेखन आदि क्रियाओं में भी हस्तोपघात होता है तो वे क्रियाएं नहीं करनी चाहिए। किन्तु उन क्रियाओं से अनेक गुण संभव होते हैं. अतः वे अवश्य करणीय होती हैं। ४८६. जति नेवं तो पुणरवि, आणेउं लिंपिऊण हत्थम्मि। __ अच्छति धारेमाणो, सम्वनिक्खेवपरिहारी॥ यदि वहां जाकर पात्र पर लेप करने की बात इष्ट न हो तो स्थान पर लेप लाकर, पात्र पर उसको लगाकर, गीले पात्र में कुछ भी डालने का परिहार करने वाला वह मुनि हाथ में ही उसको उठाए रखे जब तक लेप का शोष न हो जाए, जब तक लेप न सूख जाए। ४८७. एवं पि हु उवघातो, आयाए संजमे पवयणे य। चार सजम पवयण या मुच्छादी पवडते, तम्हा उ न सोसए हत्थे॥ इस प्रकार लेप-सुखाने की प्रक्रिया करने पर भी आत्मोपघात, संयमोपघात तथा प्रवचनोपघात-तीनों उपघात होते हैं। जैसे वह मुनि मूर्छा के कारण अथवा पात्रभार के कारण गिर जाता है तब आत्मोपघात होता है। षट्काय पर गिरने से संयमोपघात और मुनि को गिरते हुए देखकर लोगों का उडाह करना प्रवचनोपघात है। इसलिए हाथ में पात्र को उठाकर सुखाने की क्रिया नहीं करनी चाहिए। ४८८. दुविहा य होति पाता, जुण्णा य नवा य जे उ लिप्पंति। जुण्णे दाएऊणं, लिंपति पुच्छा य इयरेसिं॥ जिन पात्रों पर लेप किया जाता है, वे दो प्रकार के होते हैं-जीर्ण-पुराने और नए। जीर्ण पात्र को आचार्य को दिखाए और उनकी अनुज्ञा लेकर लेप करे। नए पात्र पर बिना पूछे भी लेप लगाया जा सकता है। ४८९. पाडिच्छग-सेहाणं, नाऊणं कोइ आगमण मायी। दढलेवे विउ पाए, लिंपति मा तेसि दिग्जिज्जा॥ ४९०. अहवा वि विभूसाए, लिंपति जा सेसगाण परिहाणी। अपडिच्छणे य दोसा, सेहे काए यतोऽदाए॥ लेप लगाने से पूर्व जीर्ण पात्रों को आचार्य को न दिखाने पर ये दोष होते हैं-कोई मायावी शिष्य प्रातीच्छिक शिष्यों का आगमन जानकर 'गुरु इनको पात्र न दे डालें' इस बुद्धि से दृढ़लेपयुक्त पुराने पात्र पर भी पुनः लेप लगाता है। अथवा विभूषा के लिए उस पर लेप लगाता है तो शेष शिष्यों तथा प्रतीच्छिकों के परिहानि होती है। पात्र न दिए जाने पर ज्ञान, दर्शन, चारित्र की हानि होती है। कोई शैक्ष प्रव्रज्या के निमित्त आया है। पात्र के अभाव में प्रव्रज्या नहीं दी जाती। तब वह शैक्ष काय-विराधना कर सकता है। आचार्य को दिखाए बिना ये दोष होते हैं। ४९१. पुव्वण्हे लेवगम, लेवग्गहणं सुसंवरं काउं। लेवस्स आणणा लिंपणा य जयणाएँ कायव्वा॥ पूर्वाह्न लेप लाने के लिए जाए। लेपग्रहण कर सुसंवररूप से लेप का आनयन करे और फिर यतनापूर्वक लेप लगाए। ४९२. पुव्वण्हे लेपगहणं, काहं ति चउत्थगं करेज्जाहि। असहू वासियभत्तं, अकारऽलंभे व दितियरे॥ 'मैं पूर्वाह्न में लेपग्रहण करूंगा' यह सोचकर मुनि उपवास करे। यदि उपवास करने में असमर्थ हो तो वासी आहार लाए। पर्युषित (वासी) भक्त अकारक अर्थात अपथ्य हो, अथवा प्राप्त न हो तो दूसरे मुनि घूम फिरकर उसे आहार लाकर दे। ४९३. कयकिइकम्मो छंदेण छंदितो भणति लेव घिच्छामि। तुब्भं वियाणिमट्ठो, आमं तं कित्तियं किं वा।। ४९४. सेसे वि पुच्छिऊणं, कयउस्सग्गो गुरूण नमिऊण। मल्लग-रूए गेण्हइ, जति तेसिं कप्पितो होति॥ कृतिकर्म संपन्न कर वह मुनि आचार्य के पास जाकर कहे-'इच्छाकारेण संदिशत'-आप अपनी इच्छानुसार मुझे कार्य में नियोजित करें। यदि आचार्य कहें-'तुम अपना अभिप्राय बताओ।' इस प्रकार आचार्य द्वारा निमंत्रित होने पर वह कहे-'मैं लेप लाने के लिए जाना चाहता हूं।' फिर वह सभी साधुओं से कहे-'क्या और किसी के लेप का प्रयोजन हो तो बताए।' कोई कहे-मुझे लेप चाहिए। तब उसे पूछे-कितना लाऊं? कौनसा लेप चाहिए? वह जो कहे उसे स्वीकार कर उपयोगकायोत्सर्ग संपन्न कर गुरु को नमस्कार करे। यदि वह मुनि पात्र और वस्त्र का कल्पिक हो तो गृहों में जाकर मल्लक और रूई ग्रहण करे। ४९५. गीयत्थपरिग्गहिते, अयाणओ रूय-मल्लए घेत्तुं। छारं च तत्थ वच्चति, गहिए तसपाणरक्खट्ठा।। यदि वह अज्ञायक अर्थात् अगीतार्थ हो तो गीतार्थ द्वारा परिगृहीत रूई और मल्लक लेकर जाए और त्रसप्राणियों की रक्षा के लिए उस मल्लक में क्षार डाल दे। For Private- & Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ४९६. वच्चतेण यदि सागारिदुचक्कगं तु अब्भासे । तत्थेय होइ गहणं, न होति सो सामरियपिंडो ॥ वह मुनि मल्लक को साथ ले जा रहा है। जाते-जाते उसने देखा कि शय्यातर का शकट पास वाले क्षेत्र में स्थित है उससे ही लेपयहण किया जाए क्योंकि वह शय्यातरपिंड नहीं होता । ४९७. गंतुं दुचक्कमूलं, अणुण्णविज्जा पभुं तु साहीणं । एत्थ य पभु त्ति भणिए, कोई गच्छे निवसमीवं ॥ ४९८. किं देमि त्ति नरवई, तुब्भं खरमक्खिया दुकि त्ति । सो य पसत्थो लेवो, एत्थ य भद्देयरे दोसा ॥ वह शकट के पास जाए और निकटस्थ स्वामी से अनुज्ञा प्राप्त करे। प्रभु अर्थात् स्वामी कहने पर कोई मुनि राजा के समीप जाए और राजा के यह पूछने पर कि मुनिवर! आपको क्या दूं? तब मुनि कहे राजन् ! आपके शकट खर अर्थात् तेल से म्रक्षित हैं। वहां जो लेप है, वह प्रशस्त है। मुझे उसको ग्रहण करने की अनुज्ञा दें। ऐसी स्थिति में वहां भद्रकदोष तथा प्रान्तदोष भी हो सकते हैं।" ४९९. तम्हा दुचक्कपतिणा, तस्संदिद्वेण वा अणुण्णाते । कटुगंधजाणणा जिंघे नासं अघट्टतो ॥ इसलिए शकट के स्वामी अथवा उस स्वामी द्वारा संदिष्ट पुरुष द्वारा अनुज्ञापित होने पर तेल में कटुगंध है या नहीं यह जानने के लिए उसको सूंघे परन्तु उसका नाक से संस्पर्श न होने है (दूर से ही उसे सूंघ कर जब यह ज्ञात हो जाए कि यह तैल लेप कटुगंध वाला है तो उसे ग्रहण करे ।) ५०० हरिए बीए चले जुत्ते, वच्छे साणे जलट्ठिए । पुढवी संपातिमा सामा, महावाते महियाऽमिते ॥ शकट हरित पर, बीज पर प्रतिष्ठित हो, चल हो, बैलों से जुता हुआ हो, उसके एक बछड़ा बंधा हो, शकट के नीचे कुत्ता हो, शकट जल के ऊपर अथवा सचित्त पृथ्वीका पर स्थित हो, संपातिम जीवों का उपद्रव हो, रात हो, महावात चल रहा हो, महिका गिर रही हो इस प्रकार की स्थिति में घोड़ा या अमित लेप का ग्रहण अनुज्ञात नहीं है। (यह द्वार गाथा है । व्याख्या आगे ।) ५०१. हरिए बीऍ पतिडिय, अणंतर परंपरे य बोधब्वे । परिताणते य तहा, चउभंगो होति नायव्वो । हरित बीज पर साधु अथवा शकट अनन्तर या परम्परक १. (क) राजा अपने सेवकों का आज्ञा दें कि जितने भी शकट हैं, उन सबको तैल से ग्रक्षित कर दो। ये मुनि लेप भी बिना अनुज्ञा नहीं लेते। यह भद्रकदोष है। राजा सोचता है -ये मुनि अशुचिबहुल हैं जो ऐसे लेप की भी (ख) बृहत्कल्पभाष्यम रूप में प्रतिष्ठित हों तो प्रत्येक की चतुर्भंगी होती है। परित्त हरित और बीज तथा अनंत हरित और बीज से संबंधित भी चतुर्भंगियां होती हैं। जैसे (१) हरित पर साधु अनन्तरप्रतिष्ठित न परंपरप्रतिष्ठित । (२) परंपरप्रतिष्ठित न अनन्तरप्रतिष्ठित । (३) अनन्तरप्रतिष्ठित भी और परंपरप्रतिष्ठित भी। (४) न अनन्तरप्रतिष्ठित और न परंपरप्रतिष्ठित । इसी प्रकार बीज पर भी साधु से संबंधित चतुर्भंगी होती है । इसी प्रकार शकट की एक आधार पर बीज और हरित के संदर्भ में भी प्रत्येक की एक-एक चतुर्भंगी होती है। इस प्रकार चार चतुर्भंगियां होती हैं। चतुर्भगीद्वय साधु-शकट के संयोग से होती हैं। इसी प्रकार परित्त हरित, बीज तथा अनन्त हरित, बीज तथा मिश्र अनेक चतुर्भंगियां होती हैं। ५०२. चउरो लहुगा गुरुगा, मासो लहु गुरु य पणग लहु गुरु । छसु परितऽणंत मीसे, बीजे य अणंतर परे ॥ यह प्रायश्चित्त निर्देशिका गाथा है। इसका शाब्दिक अनुवाद यह है चतुर्लघुक, चतुर्गुरुक, मासलघु, मासगुरु, पांच दिनरातलघु, पांच दिनरातगुरुक। छह में परीत, अनन्त, मिश्र, बीज और अनन्तर तथा परंपर। विविध चतुर्भीगियां और प्रायश्चित्त का कथन१. प्रत्येक हरित साधु अनन्तर प्रतिष्ठित चारलघु परंपर प्रतिष्ठित चारलघु • उभय प्रतिष्ठित दो चारलघुक शुद्ध । २. प्रत्येक हरित साधु और शकट • अनन्तर प्रतिष्ठित वो चतुर्लघु • परंपर प्रतिष्ठित वो चतुर्लघु उभय प्रतिष्ठित चार चतुर्लघु • शुद्ध । ३. अनन्त हरित-साधु • अनन्तर प्रतिष्ठित - चारगुरुक • परंपर प्रतिष्ठित चारगुरुक • उभय प्रतिष्ठित-दो चतुर्गुरुक • शुद्ध । याचना करते हैं। उसके मन में प्रद्वेष उभर सकता है और वह अपने राज्य में यह आदेश प्रसारित कर देता है-मेरे राज्य में कोई भी व्यक्ति शकट को तैल से म्रक्षित न करे, घृत या अन्य पदार्थ से करे। यह प्रान्तदोष है । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका ४. अनन्त हरित शकट ५. • अनन्तर प्रतिष्ठित चतुर्गुरुक परंपर प्रतिष्ठित चतुर्गुरुक • उभय प्रतिष्ठित दो चतुर्गुरुक शुद्ध । अनन्त हरित - साधु-शकट • अनन्तर प्रतिष्ठित दो चतुर्गुरुक • परंपर प्रतिष्ठित दो चतुर्गुरुक • उभय प्रतिष्ठित चार चतुर्गुरुक शुद्ध । ६. मिश्र प्रत्येक हरित साधु • अनन्तर प्रतिष्टित मासलप • परंपर प्रतिष्ठित-मासलघु • उभय प्रतिष्ठित दो मासलघु शुद्ध । ७. मिश्र प्रत्येक हरित-मंत्री अनन्तर प्रतिष्ठित मासलघु • परंपर प्रतिष्ठित मासलघु • उभय प्रतिष्ठित वो मासलघु • शुद्ध । ८. मिश्र प्रत्येक हरित-साधु-मंत्री • अनन्तर प्रतिष्ठित-दो मासलघु • परंपर प्रतिष्ठित दो मासलघु • उभय प्रतिष्ठित चार मासलघु ● शुद्ध । ९. मिश्र अनन्त हरित - साधु • अनन्तर प्रतिष्ठित-मासगुरु • परंपर प्रतिष्ठित मासगुरु • उभय प्रतिष्ठित दो मासगुरु शुद्ध । १०. मिश्र अनन्त हरित-गंत्री • अनन्तर प्रतिष्ठित-मासगुरु • परंपर प्रतिष्ठित-मासगुरु • उभय प्रतिष्ठित-दो मासगुरुक शुद्ध । ११. मिश्र अनन्त हरित साधु-मंत्री • अनन्तर प्रतिष्ठित दो मासगुरुक परंपर प्रतिष्ठित-दो मासगुरुक उभय प्रतिष्ठित चार मासगुरुक शुद्ध । १२. प्रत्येक बीज आदि -- साधु • अनन्तर प्रतिष्ठित- लघुपंचक • परंपर प्रतिष्ठित - लघुपंचक • उभय प्रतिष्ठित दो लघुपंचक • शुद्ध । १३. प्रत्येक बीज आदि-मंत्री ५५ • अनन्तर प्रतिष्ठित-लघुपंचक • परंपर प्रतिष्ठित लघुपंचक • उभय प्रतिष्ठित दो लघुपंचक • शुद्ध । १४. प्रत्येक बीज आदि-साधु-गंत्री • अनन्तर प्रतिष्ठित-दो लघुपंचक • परंपर प्रतिष्ठित दो लघुपंचक • उभय प्रतिष्ठित चार लघुपंचक शुद्ध । इसी प्रकार अनन्त बीज आदि में गुरुपंचक जानना चाहिए। तथा परीत अनन्त और मिश्र - अनन्तर और परंपर आदि में यथायोग्य प्रायश्चित ज्ञातव्य है। ५०३. दव्वे भावे च चलं, दव्वम्मी दुट्ठियं तु जं दुपयं । आयाएँ संजमम्मि य, दुविहा उ विराहणा तत्थ ॥ चल दो प्रकार से होता है द्रव्यतः और भावतः । द्रव्यतः चल वह है जो शकट दस्थित है। वहां लेपग्रहण करने में दो प्रकार की विराधना होती है-आत्मविराधना और संयमविराधना (आत्मविराधना शकट के गिरने से अभिघात हो सकता है संयमविराधना शकट के चलित होने पर प्राणियों का उपमर्दन ।) तत्थ । ५०४. भावचल गंतुकामं, गोणाई अंतराइयं जुत्ते वि अंतरायं, वित्तसचलणे य आयाए । भावचल का अर्थ है-शकट प्रस्थित होने वाला हो। उसमें बैल जोते जा रहे हों। उस समय लेपग्रहण करने से बैलों के चारे पानी का निरोध तथा आदमियों के भी अंतराय होता है। शकट में बैल जुते हुए हों, उनको वहीं खड़ाकर लेपग्रहण करने में अंतराय दोष होता है तथा बैलों के त्रस्त हो जाने पर चरणाक्रमण हो सकता है। इससे आत्मविराधना, संयमविराधना और सप्राणियों की हिंसा हो सकती है। ५०५. बच्छो भएण नासति, भंडिक्खोभे य आयवावती । आया पवयण साणे, काया य भएण नासंते ॥ शकट के वत्स बंधा हुआ हो तो वह भय से त्रस्त होकर दौड़ता है। शकट के चलित होने पर लेपग्रहण करते हुए मुनि के आत्मव्यापत्ति होती है, आत्माविराधना होती है। शकट के . Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीचे स्थित कुत्ता मुनि को काट डालता है। वहां आत्मोपधात होता है। कुत्ता उस लेप को चाटता है तो प्रवचनोपघात होता है। भय से त्रस्त होकर कुत्ता दौड़ता है तो पृथ्वीकायिक आदि जीवों का विनाश होता है। यह संयमोपघात है। ५०६. जो चेव य हरिएसुं, सो चेव गमो उ उदग पुढवीए। ___ संपइमा तसगणा, सामाए होइ चउभंगो॥ जो गम-विकल्प पहले हरित के लिए कहे हैं, वे ही विकल्प उदक और पृथिवी संबंधी जानने चाहिए। संपातिम वस प्राणी यदि गिर रहे हों तो लेपग्रहण नहीं करना चाहिए। रात्री से संबंधित चतुर्भंगी होती है। १. रात्री में लेप लिया, रात्री में ही पात्र के लेप लगाया। २. रात्री में लेप लिया, दिन में पात्र के लेप लगाना। ३. दिन में लेप लिया, रात्रि में पात्र के लेप लगाना। ४. दिन में लेप लिया और दिन में पात्र के लेप लगाया। ५०७. वायम्मि वायमाणे, महियाए चेव पवडमाणीए। नाणुण्णायं गहणं, अमियस्स य मा विगिंचणया॥ महावायु के चलते समय अथवा गिरती हुई महिका में लेपग्रहण अनुज्ञात नहीं है। तथा अमित लेपग्रहण भी अनुज्ञात नहीं है, क्योंकि उसका परिष्ठापन न करना पड़े। ५०८. चल-जुत्त-वच्छ-महिया-तसेसु सामाएँ चेव चतुलहुगा। दव्वचल साण गुरुगा, मासो लहओ उ अमियम्मि॥ यह गाथा प्रायश्चित निर्देशिका है भावतः चल शकट, बलिवर्दयुक्त शकट, वत्स बंधा हुआ हो, महिका तथा संपातिम त्रस गिर रहे हों, रात्री में-इन स्थितियों में लेपग्रहण करने पर प्रत्येक का प्रायश्चित्त हे-चार लघुमास। द्रव्यतः चल आदि तथा शकट के नीचे कुत्ते की स्थिति होने पर-चार गुरुमास का तथा अमित लेप के ग्रहण में एक लघुमास का प्रायश्चित्त विहित है। ५०९. एतद्दोसविमुक्त, घेत्तुं छारेण अक्कमित्ताणं। चीरेण बंधिऊणं, गुरुमूल पडिक्कमाऽऽलोए। उपरोक्त सभी दोषों से मुक्त लेप को ग्रहण कर, उसमें क्षार-भस्म मिलाकर, कपड़े में बांधकर, गुरु के पास आए और ईर्यापथिकी कर आलोचना करे। ५१०. दंसिय छंदिय गुरु सेसए य ओमत्थियस्स भाणस्स। काउं चीरं उवरि, रूयं च छुभेज्ज तो लेवं॥ गुरु को लेप दिखाकर, लेप-ग्रहण के लिए गुरु को निमंत्रित करे और फिर शेष साधुओं को भी निमंत्रण दे। जिस मुनि को जितना चाहिए, उसको उतना देकर एक अवाङ्गखीकृत भाजन के ऊपर कपड़ा लगाकर लेप और रूई उसमें प्रक्षिप्त करे। =बृहत्कल्पभाष्यम् ५११. अंगुट्ठ-पएसिणि-मज्झिमाहि घेत्तुं घणं ततो चीरं। आलिंपिऊण भाणं, एक्वं दो तिन्नि वा घट्टे॥ लेप कैसे लगाए ? अंगूठे के साथ प्रदेशिनी और मध्यमा अंगुली से लेप निकाल कर, सघन कपड़े में उसे डालकर उसको निचोड़े। इस प्रकार एक-एक पात्र को दो-तीन बार लेप लगाए। फिर घट्टण-पाषाण से उसे रगड़े। ५१२. अण्णोण्णे अंकम्मी, अण्णं घट्टेति वारवारेण। आणेइ तमेव दिणे, दवं रएउं अभत्तट्ठी। एक-एक भाजन को घट्टित कर उनको एक ओर रखकर, अपनी-अपनी बारी से उनको बार-बार रगड़े। अभी लेप सूखा न हो और द्रव-पानी लाने का प्रयोजन उपस्थित हो जाए तो वह अभक्तार्थी मुनि उसी दिन लेप लगाकर उसमें पानी ले आए। ५१३. अभतट्ठीणं दाउं, अण्णेसिं वा अहिंडमाणाणं। हिंडेज्ज असंथरणे, असती घेत्तुं अरइयं तु॥ पात्र का लेप अभी तक सूखा नहीं है और वह मुनि भक्तार्थी है। भोजन किए बिना वह रह नहीं सकता तब अभक्तार्थियों अथवा गोचरी के लिए न जाने वालों को वह आर्द्रपात्र सौंपकर भिक्षा के लिए जाए। यदि अभक्तार्थी अथवा गोचरी के लिए न जाने वालों का अभाव हो तो वह मुनि उस अरंजित अपरिणतवाले पात्र को लेकर जाए। ५१४. न तरिज्जा जति तिण्णि उ, हिंडावेउं ततो णु छारेण। ओयत्तेउं हिंडइ, अन्ने व दवं से गिण्हति।। यदि तीनों पात्रों को लेकर गोचरी में न घूम सके तो उस पात्र को उपाश्रय में ही राख से लिप्स कर साथ में ले जाए। कोई अन्य उसके प्रयोजनीय द्रव पदार्थ ले ले तो वह उस पात्र को रिक्त ही ले आए। ५१५.लित्थारियाणि जाणि उ, घट्टगमादीणि तत्थ लेवेण। संजमभूतिनिमित्तं, ताई भूईएँ लिंपिज्जा॥ लेपों से जितने पात्र खरंटित किये जा चुके हैं, उन पात्रों को संयम की विभूति के लिए क्षार-राख से लिंपित करे जिससे उस लेप के स्पर्श से त्रस-स्थावर जीवों का विनाश न हों। ५१६. एवं लेवग्गणं आणयणं लिंपणाय जयणा य। भणियाणि अतो वोच्छं, परिकम्मविहिं तु लित्तस्स। इस प्रकार लेप का ग्रहण, आनयन और पात्र के लेपन संबंधी यतना कही गई है। आगे लेप-लिप्त पात्र की परिकर्मविधि कहूंगा। ५१७. लित्ते छाणिय छारो, धणेण चीरेण बंधिउं उण्हे। उव्वत्तण परियत्तण, अंछिय धोए पुणो लेवो॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका लेप-लिप्त पात्र पर छानी हुई साफ भस्म लगाए, फिर जागरूक रहे। यदि ग्लान आदि के प्रयोजन से कहीं जाना पड़े सघन वस्त्र से बांधकर उसको आतप में रखे। वहां पात्र का तो दूसरे मुनि को उस कार्य में व्याप्त करे, स्वयं वहीं पात्र उद्वर्तन-परिवर्तन तब तक करे जब तक कि पात्र सूख न की रक्षा करता हुआ रहे। जाए। फिर पात्र को निकाल कर पानी से धोए और पुनः लेप ५२३. एक्को य जहन्नेणं, बिय तिय चत्तारि पंच उक्कोसा। लगाए। ___ संजमहेउं लेवो, वज्जित्ता गारव विभूसं।। ५१८. काउं सरयत्ताणं, पत्ताबंधं अबंधगं कुज्जा। पात्र के जघन्यतः एक लेप अवश्य लगाए और उत्कृष्टतः साणाइरक्खणट्ठा, पमज्ज छाउण्हसंकमणा॥ दो, तीन, चार, पांच लेप लगाए। लेप केवल संयम निर्वाह के पात्र पर पुनः लेप लगाकर उस पर रजस्वाण बिना गांठ लिए लगाए। स्वयं के गौरव या विभूषा के लिए वैसा न करे। दिए बांधे, जिससे कुत्ते आदि से उसकी रक्षा की जा सके। ५२४. अणवट्ठते तह वि उ, सव्वं अवणेत्तु तो पुणो लिंपे। गांठ देने पर कुत्ते आदि उस बंधे पात्र को घसीट कर ले जा तज्जाय सचोप्पडयं, घट्ट रएउं ततो धोवे॥ सकते हैं। छाया और आतप में प्रमार्जन कर उस पात्र को ___ चार-पांच लेप लगाने पर भी यदि लेप पात्र पर नहीं स्थापित कर दे। ठहरते, पात्र के साथ एकीभूत नहीं होते हों तो सारे लेप ५१९. तद्दिवसं पडिलेहा, कुंभमुहादीण होइ कायव्वा।। उतार कर पुनः पात्र पर नए सिरे से लेप लगाए। अलाबु आदि छण्णे य निसिं कुज्जा, कयकज्जाणं विवेगो उ॥ का पात्र सस्नेह होता है, तैल आदि से चुपड़ा हुआ होता है, जिस दिन पात्र-लेपन किया हो उस दिन कुंभमुख अर्थात् __ उस पर प्रभूत धूलिकण लग जाते हैं, उनको घट्टकपाषाण से घट के खंड आदि लाए और रात्री में आवृत स्थान में उन निकाल कर, उसी लेप से पुनः उस पात्र को लिस करे और घट-खंडों के ऊपर उन लिस पात्रों को रखे और कार्य पूरा तदनन्तर उसको धोए। यह 'तज्जातलेप' कहलाता है। होने पर उन खंडों का परिष्ठापन कर दे। ५२५. तज्जाय-जुत्तिलेवो, दुचक्कलेवो य होइ नायव्वो। ५२०. अट्टगहेउं लेवाहिगं तु सेसं सख्यगं पीसे। मुद्दियनावाबंधो, तेणगबंधो य पडिकुट्ठो। __ अहवा वि न दायव्वो, सरूयगं छारे तो उज्झे। लेप के अनेक प्रकार हैं-तज्जातलेप, युक्तिलेप और शेष में बचा हुआ जो अधिक लेप हो उसको अट्टक द्विचक्रलेप। द्विचक्रलेप का अर्थ है-शकटलेप। यदि इस लेप अर्थात् पात्र के ऊपरी किनारों आदि के लेप के लिए रूई में से लिंपित पात्र टूट जाए तो उस पर मुद्रित नौ बंधन बांधे। डालकर रख ले। अथवा पात्र के अट्टक न लगाना हो तो यही बंध अनुज्ञात है। स्तेनक बंध का प्रतिषेध है। उसको राख में डाल कर परिष्ठापन कर दे। ५२६. जुत्ती उ पत्थरायी, पडिकुट्ठा सा उ सन्निही काउं। ५२१. पढम-चरिमाउ सिसिरे, गिम्हे अद्धं तु तासि वज्जित्ता। दय सुकुमाल असन्निहि, दुचक्कलेवो अतो इट्ठो।। पायं ठवे सिणेहादिरक्खणट्ठा पवेसे वा। युक्तिलेप प्रस्तर आदि से बनाया जाता है। 'युक्ति' की शिशिर अर्थात् शीतकाल में प्रथम और अंतिम पौरुषी को सन्निधि होती है, इसलिए वह प्रतिषिद्ध है। तज्जातलेप की छोड़कर तथा ग्रीष्म ऋतु में प्रथम और अंतिम पौरुषी के प्राप्ति भी कदाचित् होती है। इन लेपों में द्विचक्रलेपआधे-आधे काल-विभाग का वर्जन कर उनके मध्यभाग में शकटलेप सुकुमाल होता है, वह इष्ट है। उसकी सन्निधि स्नेह (अवश्याय) आदि से रक्षा के लिए पात्र को आतप में नहीं होती। उससे दया का पालन सहज हो जाता है क्योंकि उसमें प्राणी स्पष्ट परिलक्षित हो जाते हैं। ५२२. उवयोगं च अभिक्खं, करेति वासादि-साणरक्खट्ठा। ५२७. संजमहेउं लेवो, न विभूसाए वयंति तित्थयरा। वावारेति व अण्णे, गिलाणमादीसु कज्जेसु॥ सति-असतीदिढतो, विभूसाए होति चउगुरुगा। पात्र को आतप में रखकर उसकी वर्षा आदि से तथा तीर्थंकर यह कहते हैं कि पात्र पर लेप लगाने का मुख्य कुक्कुर आदि से रक्षा के निमित्त अनवरत उपयोग रखे, हेतु है संयम। विभूषा और गौरव के लिए लेप लगाना निषिद्ध १. इस गाथा का तात्पर्यार्थ यह है-शिशिरकाल में प्रथम पौरुषी के बीत जाने पर पात्र को आतप में रखे और अंतिम प्रहर में, जब तक वह प्रारंभ न हो, उससे पूर्व मध्यकाल में पात्र को आतप में रखे। क्योंकि शिशिर में काल की स्निग्धता के कारण प्रथम और चरम प्रहर में अवश्याय आदि के गिरने से लेप का विनाश हो जाता है। उष्णकाल में प्रथम प्रहर आधा बीत जाने पर पात्र को आतप में रखे और चरम प्रहर में अंतिम आधा प्रहर आने से पूर्व पात्र को आतप में रखे। काल की रूक्षता के कारण उसके पश्चात् अवश्याय आदि गिरने की संभावना रहती है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =बृहत्कल्पभाष्यम् है। जो विभूषा आदि के लिए पात्र पर लेप लगाता है, उसका हो, उसको भेजने पर चार लघुमास (तप और काल-दोनों से प्रायश्चित्त है-चार गुरुकमास। यहां सती और असती का लघु) का प्रायश्चित्त विहित है। दृष्टांत है। वह इस प्रकार है-सती अपने कुलाचार के निमित्त ५३२. पढिए य कहिय अहिगय, परिहरती पिंडकप्पितो एसो। विभूषा करती है वह युक्त है। असती भी अपनी विभूषा करती तिविहं तीहिं विसुद्धं, परिहरनवगेण भेदेणं ।। है, परन्तु वह विभूषा जार को प्रसन्न करने के लिए होती है। जिसके पिंडैषणा अध्ययन पठित है, अर्थ कथित अर्थात् वह अयुक्त है, सदोष है। ज्ञात है, अधिगत है, वह त्रिविध अर्थात् उद्गमशुद्ध, ५२८. भिज्जिज्ज लिप्पमाणं, लित्तं वा असइए पुणो बंधे।। उत्पादनशुद्ध तथा एषणाशुद्ध, मन, वचन और काया से मुद्दियनावाबंधे, न तेणबंधेण बंधेज्जा॥ विशुद्ध परिहरणीय को नवक भेदों से परिहार करता है, वह यदि लेप लगाते समय अथवा लेप लिप्त पात्र टूट जाए, पिंडकल्पिक होता है। और दूसरा पात्र न हो तो उसे मुद्रितनौबंध से बांधे। स्तेनक- ५३३. गुरुगा अहे य चरिमतिग मीस बायर सपच्चवायहडे। बंधन से न बांधे। कड पूइए य गुरुगो, अज्झोयरए य चरमदुगे। ५२९. खर अयसि-कुसुंभ सरिसव, कमेण उक्कोस मज्झिम जहन्नो। उद्गम के सोलह दोष और उनका प्रायश्चित्त विधान नवणीए सप्पि बसा, गुले य लोणे अलेवो उ॥ यह गाथा अत्यंत संक्षिप्त है। टीका के अनुसार इसका विस्तृत स्वरसंज्ञक अर्थात् तिलों के तैल से निष्पन्न लेप उत्कृष्ट अर्थ इस प्रकार हैहोता है, अतसी और कुसुंभ तैल से निष्पन्न लेप मध्यम और आधाकर्म आहार आदि लेने पर उसका प्रायश्चित्त है चार सर्षप तैल से निष्पन्न लेप जघन्य होता है। नवनीत, घृत और गुरुक। औद्देशिक के दो प्रकार हैं-ओघ और विभाग। विभाग चर्बी से निष्पन्न लेप अलेप होता है। गुड़ अथवा लवण से भृत औद्देशिक के बारह भेद हैं-उद्दिष्ट, कृत और कर्म। इन तीनों शकटों के चक्के यदि तिलों के तैल से मेक्षित हों तो भी वह के चार-चार प्रकार हैं। जैसे-उद्दिष्ट के चार प्रकार--- लेप अलेप ही है, क्योंकि वह लवणावयवयोग से अप्रशस्त औद्देशिक, समुद्देशिक, आदेशिक और समादेशिक। कृत के होता है। चार भेद हैं-उद्देशकृत, समुद्देशकृत, ओदशकृत और ५३०. पढिय सुय गुणियमगुणिय, धारमधार उवउत्तो परिहरति। समादेशकृत। कर्म के भी चार प्रकार हैं-उद्देशकर्म, आलोयायरियादी, आयरिओ विसोहिकारो से॥ समुद्देशकर्म, आदेशकर्म, समादेशकर्म। ये कुल ४४३-बारह जिसने ओघनियुक्ति अथवा इस कल्प-पीठिका को पढ़ा प्रकार के हैं। है, अथवा सुना है अथवा गुणित-अभ्यास किया है अथवा जो सभी भिक्षाचरों के लिए बनाया जाता है वह अगुणित है, धारित है अथवा अधारित है, फिर भी उपयुक्त उद्देशिक, जो अन्यतीर्थिकों के लिए बनाया जाता है वह होकर लेप का परिभोग करता है, वह लेपकल्पिक है। उसके समुद्देशिक, जो श्रमणों के लिए हो वह आदेशिक और जो इस विषयक कोई विराधना होती है तो वह आचार्य आदि से। निग्रंथों के लिए हो वह समादेशिक होता है। आलोचना करे। आचार्य उसके विशोधिकारक होते हैं। विभागोद्देशिक के चरमत्रिक-समुद्देशकर्म, आदेशकर्म और ५३१. अप्पत्ते अकहित्ता, अणहिगयऽपरिच्छणे य चउगुरुगा।। समादेशकर्म लेने पर प्रत्येक के लिए प्रायश्चित्त है-तप और दोहिं गुरू तवगुरुगा, कालगुरू दोहि वी लहुगा॥ काल से विशेषित चार गुरुक। जिसने आचारचूलागत पिंडैषणा अध्ययन अथवा मिश्रजात के तीन भेद हैं-यावंतिकमिश्र, पाषंडिकमिश्र, दशवैकालिकगत पिंडैषणा अध्ययन को नहीं पढ़ा है, उसको स्वगृहमिश्र। इनमें अंतिम दो के ग्रहण पर प्रत्येक प्रायश्चित्त गोचरी भेजने पर दो से गुरु अर्थात् तप से गुरु तथा काल से है-तप और काल से गुरु चार गुरुक। गुरु चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। उस अध्ययन का प्राभृतिका के दो प्रकार हैं-सूक्ष्म और बादर। बादर अर्थ बताए बिना भेजने पर चार लघुमास (काल से लघु), प्राभृतिका ग्रहण करने पर चार गुरुक का प्रायश्चित्त है। अर्थ कथित है, परन्तु अनधिगत है अथवा अधिगत होने पर सप्रत्यपाय आहृत में चार गुरुक का प्रायश्चित्त है। भी उस पर श्रद्धा नहीं है तो चार लघुमास (तप से लघु), चारों प्रकार के कृत उद्देशकों में प्रत्येक के मासगुरुक अधिगत अर्थ वाला होने पर भी जिसकी परीक्षा नहीं की गई प्रायश्चित्त है जो तप और काल से विशेषित होता है। १. यहां वृत्तिकार ने संपूर्ण पिंडनियुक्ति की ओर संकेत किया है-'अत्र पिण्डनियुक्तिः सर्वा वक्तव्या'। सा च ग्रन्थान्तरत्वात् स्वस्थाने एव स्थिता 'प्रतिपत्तव्या। (वृ. पृ. १५४) Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका भाव पूतिक के दो भेद हैं सूक्ष्म और बादर। सूक्ष्म का काई प्रायश्चित्त नहीं है। बादर पूतिक जो भक्तपान विषयक होता है उसके लिए मासगुरु तथा अध्यवपूरक के तीन में से अंतिम दो भेदों (यावन्तिक अध्यवपूरक, पाषंड अध्यवपूरक तथा स्वगृह अध्यवपूरक) प्रत्येक का मासगुरु प्रायश्चित्त है। ५३४. ओह-विभागुद्देसे, चिरठविए पागडे य उवगरणे। लोगुत्तर पामिच्चे, परियट्टिय कीय परभावे॥ ५३५. सग्गामभिहडि गंठी, जहन्न जावंति ओयरे लहुओ। इत्तरठविए सुहुमा, पणगं लहुगा य सेसेसु॥ ओघऔदेशिक, विभागऔद्देशिक, चिरस्थापित, प्रकटकरण, उपकरणपूतिक, प्रामित्य, परिवर्तित, क्रीत, परभाव- क्रीत, स्वग्राम अभ्याहृत, ग्रंथि उद्भिन्न, जघन्य मालापहृत तथा यावंतिक अध्यवपूरक-इन सब में मासलघु का प्रायश्चित्त विहित है। इत्वर स्थापित, सूक्ष्म प्राभृतिका-इनमें पांच रात-दिन का प्रायश्चित्त है। जो शेष उद्गम दोष हैं, उनमें प्रत्येक के चार लघुक का प्रायश्चित्त कथित है। ५३६. दुविह निमित्ते लोभे, गुरुगा मायाएँ मासियं गुरुयं। सुहुमे वयणे लहुओ, सेसे लहुगा य मूलं च॥ उत्पादन दोष संबंधी प्रायश्चित्त निमित्त तीन प्रकार का होता है-अतीतविषयक, वर्तमानविषयक और अनागतविषयक। इनमें वर्तमानविषयक तथा अनागतविषयक निमित्त तथा लोभ-प्रत्येक के चार-चार गुरुक का प्रायश्चित्त है। माया में मासलघु तथा सूक्ष्मचैकिल्स्य और वचनसंशय-प्रत्येक में लघुकमास का प्रायश्चित्त है। शेष सभी उत्पादन दोषों में प्रत्येक के लिए चार-चार लघु और मूलकर्म में मूल प्रायश्चित्त विहित है। ५३७. ससरक्खे ससिणिद्धे, पणगं लहुगा दुगुंछ संसत्ते। उक्कुट्टऽणते गुरुगो, सेसे सव्वेसु मासलहू। एषणा दोष संबंधी प्रायश्चित्त सरजस्क तथा सस्निग्ध हाथ या पात्र से भिक्षा लेने पर पांच रात-दिन का, जुगुप्सित अचित्त पदार्थ (मल, मूल, मदिरा आदि) से तथा प्राणियों से संसक्त हाथ-पात्र से भिक्षा लेने पर चार लघुक का, उत्कुट्टित अनन्तकायिक वनस्पति से स्पष्ट लेने पर मासगुरु का तथा शेष सभी एषणाओं में मासलघु प्रायश्चित्त है। ५३८. चउलहुगा चउगुरुगा, मासो लहु गुरु य पणग लहु गुरुगं।। छसु परितऽणंत मीसे, बीए य अणंतर परे य॥ निक्षिप्त संबंधी प्रायश्चित्त परित्त सचित्त पर अनन्तरप्रतिष्ठित अथवा परंपरप्रतिष्ठित से लेने से चार लघु तथा अनन्त सचित्त पर अनन्तर या परंपरप्रतिष्ठित से लेने से चार गुरु, परित्तमिश्र या अनन्तमिश्र पर प्रतिष्ठित होने से लेने पर क्रमशः मासलघु और मासगुरु का प्रायश्चित्त है। परित्त बीजों पर प्रतिष्ठित से लेने पर पांच रात-दिन लघु तथा अनन्तकाय बीजों पर प्रतिष्ठित से लेने पर गुरु पांच रात-दिन, त्रसकाय पर अनन्तर प्रतिष्ठित से लेने पर चार लघुक और परंपरप्रतिष्ठित से लेने पर मासलघु का प्रायश्चित्त है। इस प्रकार छह जीवनिकायों में परित्त, अनन्त, मिश्र पृथिवी आदि में तथा बीज के परित्त, अनन्त तथा मिश्र तथा परंपर अथवा अनन्तर प्रतिष्ठित इन सब विकल्पों में जो भिक्षा लेता है वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। ५३९. एमेव य पिहियम्मी, लहगा दव्वम्मि चेव अपरिणए। वीसुम्मीसे पणगं, अणंतबीए य पणग गुरू॥ इसी प्रकार पिहित के विषय में प्रायश्चित्त विधान जानना चाहिए। पात्र में कुछ प्रक्षिप्त है, उस अपरिणत द्रव्य का संहरण कर देता है तो चार लघुक का प्रायश्चित्त आता है। परित्त बीजों से उन्मिश्र हो तो पांच रात-दिन लघु और अनंत बीजोन्मिन होने पर पांच रात-दिन गुरु का प्रायश्चित्त है। ५४०. संजोग सइंगाले, अणंतमीसे वि चउगुरू होति। वीसुम्मीसे मासो, सेसे लघुका उ सव्वेसु॥ संयोजना के दो प्रकार हैं-अन्तर् और बहिर्। अन्तर संयोजना के चार लघुक और बहिर् संयोजना के चार गुरुक। सइंगाल में चार गुरु और सधूम में चार लघु। अनन्तमिश्र होने पर चार गुरुक। विष्वगुन्मिश्र में लघुक तथा गुरुकमास। शेष सभी में चार लघुक। ५४१. दुविहा हवंति सेज्जा, दव्वे भावे य दव्व खायाती। साहूहिं परिग्गहिया, ते च्चेव उ भावओ सेज्जा। शय्या (वसति) के दो प्रकार हैं-द्रव्य और भाव। द्रव्य शय्या है-खात आदि। यही शय्या साधुओं द्वारा परिगृहीत होने पर भावशय्या होती है। ५४२. रक्खण गहणे तु तहा, सेज्जाकप्पो उ होइ दुविहो उ। सुन्ने बाल गिलाणे, अव्वत्ताऽऽरोवणा भणिया॥ शय्याकल्प दो प्रकार का है-रक्षण और ग्रहण। वसति की रक्षा करनी चाहिए। वसति को शून्य कर देते हैं अथवा बाल, ग्लान या अव्यक्त को उसकी रक्षा सौंपते हैं तो आरोपणा प्रायश्चित्त आता है। ५४३. पढमम्मि य चउलहुया, सेसेसुं मासियं मुणेयव्वं । दोहि गुरू इक्केणं, चउथपए दोहि वी लहुयं ।। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० प्रथम अर्थात् वसति को शून्य करने पर चार लघुक का आरोपणा प्रायश्चित्त विहित है। यह तप और काल- दोनों से गुरु होता है। बालक को स्थापित करने पर मासलघु की आरोपणा जो तपोगुरु और काललघु होती है। ग्लान को स्थापित करने पर मासलघु की आरोपणा जो तपोलघु और कालगुरु होती है। चतुर्थ पद अर्थात् अव्यक्त को स्थापित करने पर मासलघु की आरोपणा जो दोनों तप और काल से लघु होती है। ५४४. मिच्छत्त बडुग चारण, भडाण मरणं तिरिक्ख- मणुयाणं । आवेस बाल निक्केयणे य सुन्ने भवे दोसा ॥ वसति को शून्य छोड़ने से ये दोष होते हैं-मिथ्यात्वगमन, बटुक, चारण और भट का प्रवेश, पशु और मनुष्य का मरण, प्राचूर्णक और व्याल का प्रवेश, बेघर वाले तिर्यच और स्त्रियों का निष्कासन (इसकी व्याख्या अगली गाथाओं में।) ५४५. सोच्या पत्तिमपत्तिय, अकयन्नु अदक्खिणा दुविह छेदो। भरियभरागमनिच्छुभ गरिहा न लभंति वऽन्नत्थ ॥ ५४६. भेदो य मासकप्पे, जदलंभे विहारादि पावते अन्नं । बहिभुत्त निसागमणे, गरिह विणासा य सविसेसा ॥ शय्यातर ने वसति को शून्य देखकर आसपास के लोगों को पूछ कर जाना कि साधु चले गए हैं। यदि उसके मन में प्रीति रहे तो चार लघुक का आरोपणा प्रायश्चित्त, अप्रीति हो कि ये मुनि अकृतज्ञ और निःस्नेह है तो चार गुरुक का आरोपणा प्रायश्चित्त आता है इस प्रवृत्ति से वो का छेद होता है-स्थान की प्राप्ति और अन्य द्रव्यों की प्राप्ति का व्यवच्छेद हो जाता है। गोचरी से वे मुनि भरे हुए पात्रों के भार से अवनत होते हुए वहां आते हैं तो शय्यातर उनको स्थान नहीं देता। मुनियों की गर्हा होती है और उनको अन्यत्र भी स्थान नहीं मिलता। दूसरे गांव में जाने पर मासकल्प का भेद होता है। अन्य मुनि विहार आदि करते हुए वहां आते हैं और वसतिस्वामी पूर्व मुनियों के दोषों का स्मरण कर उनको स्थान देने से इन्कार हो जाता हे तब उन समागत मुनियों को श्वापद, स्तेन आदि के जो अनर्थ झेलने पड़ते हैं, उनका प्रायश्चित्त भी पूर्व मुनियों को आता है। यदि वे पूर्वस्थित मुनि गोचरी के लिए गए हो और गांव के बाहर आहार आदि कर रात्री में पूर्वस्थित वसति के पास आते हैं, स्थान न मिलने पर विशेष ग होती है। तथा श्वापद आदि से विनाश भी होता है। शय्यातर पहले सम्यग्दृष्टि था, परन्तु भावों की विपरिणति के कारण वह मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है। , बृहत्कल्पभाष्यम् ५४७. सुनंद बडुगा, उभासिते ठाह जइ गया समणा । आगम पवेसऽसंखड, सागरि दिन्नं ति य दियाणं ।। ५४८. संभिच्चेण व अच्छह, अलियं न करेमऽहं तु अप्पाणं । उड्हुंचग अहिगरणं, उभयपयोसं च निच्छूढा ॥ ५४९. सागरिय - संजयाणं, निच्छूढा तेण - अगणिमाईहिं । जं काहिंति पट्टा, उभयस्स वि ते तमावज्जे ॥ वसति को शून्य देखकर कुछ बटुकों ने शय्यातर के पास जाकर स्थान की याचना की। शय्यातर ने कहा यदि वहां श्रमण न हों तो तुम ठहर जाओ। वे वहां ठहर गए। इतने में ही श्रमण वहां आए और वसति में प्रवेश करने लगे। बटुकों ने उन्हें रोका। परस्पर कलह हो गया। बटुक बोले- शय्यातर ने हमें यह स्थान दिया है। श्रमणों ने भी यही कहा। दोनों शय्यातर के पास गए। शय्यातर ने श्रमणों से कहा- तुम वसति को शून्य कर चले गए, इसलिए मैंने बटुकों को अनुज्ञा दे दी। आप दोनों परस्पर सोच लें। एक ओर आप रहे और दूसरी ओर बटुक रहें। मैं स्वयं को झूठा साबित करना नहीं चाहता। दोनों के साथ रहने से परस्पर उपहास आदि के कारण कलह हो सकता है। दोनों को उस वसति से निष्कासित करने पर दोनों के मन में शय्यातर के प्रति प्रद्वेष हो सकता है। अथवा बटुकों का शय्यातर पर तथा श्रमणों पर प्रद्वेष हो सकता है वे सोच सकते हैं कि इन श्रमणों के कारण हमें निकाला गया है। वे प्रविष्ट होकर स्तेनों के प्रयोग से अथवा अन्नि आदि के प्रयोग से श्रमणों तथा शय्यातर दोनों का अनर्थ करते हैं। इनसे निष्पन्न प्रायश्चित भी संयतों को प्राप्त होता है, जो वसति को शून्य कर चले गए थे। 3 ५५०. एमेव चारण भडे, चारण उहुंचगा उ अहिगतरा । निच्छूढा व पदोसं तेणाऽगणिमाइ जह बड़या ॥ इसी प्रकार चारण और भट संबंधी वे ही दोष हैं चारण बटुकों से भी अधिकतर होते हैं। वे प्रपंचबहुल होते हैं। उनको निष्कासित करने पर प्रद्विष्ट होकर वे बटुकों की भांति शय्यातर और श्रमणों के लिए स्तेन तथा अग्नि आदि के प्रयोग से अनेक अनर्थ उत्पादित कर सकते हैं। ५५१. छणि काउझहो, घाणारिस सुत्तऽवन्न अच्छंते । इति उभयमरणदोसा आएसा आएसा जहा बडुगमाई ॥ वसति को शून्य देखकर कोई पशु अथवा अनाथ पुरुष उसमें घुस सकता है। वहां उसकी अचानक मृत्यु हो जाती है। यदि शव को गृहस्थों से परिष्ठापित करवाते हैं तो छहकाय की विराधना होती है और यदि मुनि स्वयं करते हैं तो प्रवचन का उद्दाह-अवहेलना होती है। यदि मृतक का छर्दन . Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका = नहीं होता है तो दुर्गन्ध के कारण नाक में अर्श आदि हो ५५५. साभाविय तन्नीसाए आगया भंडगं अवहरंति। सकते हैं। सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी की हानि होती है। नीणेमि त्ति व बाहिं, जा पविसइ ता हरंतऽन्ने॥ लोगों में अवर्णवाद होता है। लोग कहते हैं-देखो! ये श्मशान ५५६. एमेव कइयवा ते, निच्छूटं तं हरंति से उवहिं। में निवास कर रहे हैं। (क्योंकि शव वहां पड़े हैं।) वसति में बाहिं च तुम अच्छसु, अवणेहवहिं व जा कुणिमो॥ तिर्यंच और मनुष्य के मर जाने पर होने वाले ये दोष हैं। कुछ मुनि कदाचित् सप्राभृतिका शय्या में ठहरे। वहां शय्यातर के कोई अतिथि आ गए। वसति को शून्य देखकर बलि के निमित्त आने वाले दो प्रकार के लोग होते हैं। कुछ वह अपने अतिथियों को वहां ठहराता है। इसी प्रकार बटुक, स्वाभाविक रूप से वहां आते हैं और कुछ माया से वहां आते चारण, भट आदि को भी वसति दे सकता है। इनके कारण हैं। कुछ बलि के निमित्त आए हुए लोग वहां वसतिपाल के अनेक दोष होते हैं। रूप में बाल मुनि को देखकर भांड-उपकरणों का अपहरण ५५२. अहिगरण मारणाऽणीणियम्मि अच्छंते वालि आयवहो। कर लेते हैं। अथवा वे बलि चढ़ाते हुए उपकरणों को लेपयुक्त तिरितीय जहा वाले, सूतिमणुस्सीए उड्डाहो॥ कर देते हैं, तब वह बालक कहता है-मैं उपकरणों को बाहर ५५३. छड्डेउं व जइ गया, उज्झमणुज्झंति होति दोसा उ। रख देता हूं। जब वह बालक बाहर जाकर पुनः प्रवेश करता एवं ता सुन्नाए, बाले ठविते इमे दोसा॥ है, इसके अंतराल में दूसरे लोग अन्य उपकरणों का शून्य वसति में व्याल-सर्प प्रवेश कर सकता है। श्रमण अपहरण कर लेते हैं। कुछ लोग माया से वहां आकर बाल आते हैं और उसे निकालते हैं तो अधिकरण दोष होता मुनि को कहते हैं बलि आ रही है। तुम बाहर जाओ। इस हे सर्प वहां से निकल कर हरित आदि से गुजरता है। अथवा प्रकार उसको बाहर निकाल कर उसकी उपधि का हरण कर निष्कासित होता हुआ वह सर्प मुनि को डस लेता है तो मृत्यु लेते हैं। अथवा वे उसे कहते हैं जब तक हम बलि की विधि हो सकती है। यदि नहीं निकालते हैं, सर्प वहीं रहता है तो करें, तब तक तुम बाहर रहो। अथवा वे कहते हैं तुम अपनी आत्मविराधना होती है। शून्य वसति में कोई तिर्यंच मादा उपधि बाहर ले जाओ। जब कुछ उपधि बाहर ले जाता है तो प्रसव कर देती है। उस प्रसूता को निष्कासित करने पर सर्प शेष उपधि का अपहरण कर डालते हैं। की भांति दोष उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार प्रसूता मानवी को ५५७. कतिएण सभावेण व, कहापमत्ते हरंति से अण्णे। निकालने पर प्रवचन का उड्डाह होता है तथा अनेक अन्यान्य किड्डा सयं व रिंखा, पासति व तहेव किड्डदुगं॥ दोष होते हैं। कुछेक लोग स्वाभाविकरूप से और कुछ कपटपूर्वक वहां अथवा वह प्रसूता स्त्री अपने बालक को वहीं छोड़कर धर्मकथा सुनने के लिए आते हैं और अकेले बाल मुनि को जा सकती है। और यदि श्रमण उस सद्यप्रसूत बालक का देखकर धर्मकथा करने के लिए कहते हैं। वह बाल मुनि कथा परित्याग करते हैं तो दयाविहीन होने का दोष होता है। में प्रमत्त हो जाता है, लवलीन हो जाता है। तब कुछ अन्य परित्याग न करने पर प्रवचन का उपहास होता है। ये सारे व्यक्ति उपकरणों का अपहरण कर लेते हैं। दोष वसति को शून्य कर चले जाने पर होते हैं। बालक क्रीड़ा के निमित्त भी दो प्रकार के पुरुष आते हैंमुनि को वसतिपाल के रूप में बिठाकर जाने से ये दोष स्वाभाविकरूप से तथा कपटपूर्वक। जब वह बाल मुनि होते हैं। क्रीड़ा में संलग्न नहीं होता, तब वे कहते हैं-हमको क्रीड़ा ५५४. बलि धम्मकहा किड्डा, पमज्जणाऽऽवरिसणा य पाहुडिया। और रिंखा (झूलते) करते हुए देखो। वह बाल मुनि क्रीड़ा खंधार अगणि भंगे, मालव-तेणा य नाती य॥ देखने में प्रमत्त हो जाता है। वे उपकरणों का अपहरण कर निम्न द्वारों से वे दोष वक्तव्य हैं लेते हैं। १. बलिद्वार ७. स्कंधावारद्वार ५५८. जो चेव बलीए गमो, पमज्जणाऽवरिसणे वि सो चेव। २. धर्मकथाद्वार ८. अग्निद्वार पाइडियं वा गेण्हसु, परिसाडणियं व जा कुणिमो॥ ३. क्रीडाद्वार ९. भंगद्वार जो बलिद्वार में विकल्प कहे गए थे, वे ही विकल्प ४. प्रमार्जनद्वार १०. मालवस्तेनद्वार प्रमार्जन और आवर्षण में जानने चाहिए। प्राभृतिका के दो अर्थ ५. आवर्षणद्वार ११. ज्ञातिद्वार। हैं-भिक्षा और अर्चनिका। आए हए लोग कहते हैं-भिक्षा लो ६. प्राभृतिकाद्वार अथवा जब तक हम अर्चनिका (परिशाटनिका) करें तब तक १. सप्राभृतिका शय्या सार्वजनिक होती है। वहां लोग आकर बलि-क्रिया करते हैं-सप्राभृतिका नाम सार्वजनिका यत्र आगत्य बलिः प्रक्षिप्यते। (वृ. प. १६२) Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् तुम बाहर जाओ। वह बाहर जाता है, और तब उपकरणों का अपहरण हो जाता है। ५५९. खंधारभया नासति, एस व एइ त्ति कइयवे णस्स। अगणिभया व पलायति, नस्ससु अगणी व एति त्ति॥ कोई स्कंधावार के आगमन की बात सुनकर स्वाभाविक रूप से पलायन कर जाता है। कोई कपटपूर्वक बाल मुनि को स्कंधावार के आगमन की बात कहता है तब वह भी पलायन कर जाता है। पीछे से उपकरणों का अपहरण कर लिया जाता है। इसी प्रकार अग्नि के भय से स्वाभाविक पलायन होता है और कोई कपटपूर्वक उसे कहता है क्षुल्लक! जल्दी भागो। अग्नि इधर ही आ रही है। वह भयभीत होकर भाग जाता है। उसकी उपधि का अपहरण हो जाता है। ५६०. उवहीलोभ भया वा, न नीति न य तत्थ किंचि नीणेइ। गुत्तो व सयं डज्झइ, उवहिं च विणा उ जा हाणी॥ उपधि के लोभ से अथवा अग्नि के भय से वह बालमुनि न स्वयं बाहर जाता है और न उपधि आदि को बाहर निकालता है। तब वह उपधि के लोभ से अन्दर बैठा हुआ अग्नि से जलकर भस्म हो जाता है और उपधि का अपहरण भी हो जाता है। अब उपधि के बिना जो हानि होती है, वह साधुओं को भुगतनी पड़ती है। ५६१. मालवतेणा पडिया, इयरे वा नासती जणेण समं। न य गेण्हइ सारुवहि, तप्पडिबद्धो व हीरेजा॥ कोई यह बात स्वाभाविक रूप से कहता है अथवा मायापूर्वक कि मालव के स्तेन अथवा अन्य स्तेन आ गए हैं। यह सुनकर लोगों के साथ वह बाल मुनि भी पलायन कर जाता है। तब उपकरणों का अपहरण हो जाता है। स्वाभाविक कथन को सुनकर वह बालमुनि सारभूत उपकरणों को लेकर पलायन नहीं करता है तो हानि होती है और यदि वह उपधि से प्रतिबद्ध होकर वहीं रहता है तो स्तेन आते हैं और उपधिसहित उसका भी अपहरण कर लेते हैं। ५६२. सन्नायगेहि नीते, एंति व नीय त्ति नढे जं उवहिं। कहिं नीय त्ति कइयवे, कहिए अन्नस्स सो कइए। ५६३. चिंधेहिं आगमेउं, सो वि य साहेइ तुह निया पत्ता। नेमो उवहिग्गहणं, तेहिं व हं पेसितो हरइ॥ स्वभावतः स्वज्ञातिक जन वहां आए और एकाकी बालक मुनि को देखकर उसे ले जाते हैं। अन्य उपधि का अपहरण कर लेते हैं। अथवा किसी ने बालक मुनि से कहा-तुम्हारे ज्ञातिजन आ रहे हैं। यह सुनकर वह भाग जाता है। उसके जाने पर दूसरे लोग उपधि का अपहरण कर लेते हैं। कोई धूर्त व्यक्ति बालमुनि के पास आकर ज्ञातिजनों के विषय में पूछकर दूसरे धूर्त व्यक्ति को बताता है। वह दूसरा धूर्त व्यक्ति ज्ञातिजनों के नाम-ठाम, चिह्न आदि जानकर बालमुनि के पास आकर कहता है-तुम्हारे ज्ञातिजन तुमको ले जाने के लिए आए हैं। तब वह बालमुनि उनकी बात में आकर पलायन कर जाता है। तब वे उपधिग्रहण कर लेते हैं। अथवा कोई धूर्त आकर बालमुनि से कहता है तुम्हारे ज्ञातिजनों ने मुझे तुम्हारे समाचार अथवा तुमको लाने के लिए भेजा है। वह उनकी बातों में आकर साथ हो जाता है। वे उसका और उसकी सारी उपधि का अपहरण कर लेते हैं। ५६४. एते पदे न रक्खति, बाल गिलाणे तहेव अव्वत्ते। निद्दा-कहापमत्ते, वत्ते वि य जे भवे भिक्खू॥ इन बलि आदि स्थानों की रक्षा बाल, ग्लान तथा अव्यक्त मुनि नहीं कर सकता। जो मुनि व्यक्त होने पर भी निद्राप्रमत्त और कथाप्रमत्त होता है, वह भी इन स्थानों की रक्षा नहीं कर सकता। ५६५. एमेव गिलाणे वी, सयकिड्ड-कहा-पलायणे मोत्तुं। अव्वत्तो उ अगीतो, रक्खणकप्पे परोक्खो उ॥ इसी प्रकार ग्लान को स्थानरक्षा के लिए रखकर जाने से भी ये ही सारे दोष प्राप्त होते हैं। इनमें स्वयं क्रीड़ा करने, कथा करने, पलायन करने संबंधी दोष नहीं होते। अव्यक्त मुनि अगीतार्थ होता है। वह रक्षणकल्प के लिए परोक्ष होता है, अयोग्य होता है। ५६६. तम्हा खलु अब्बाले, अगिलाणे वत्तमप्पमत्ते य। कप्पइ य वसहिपालो, धिइमं तह वीरियसमत्थो।। इसलिए अबाल, अग्लान, व्यक्त, अप्रमत्त, धृतिमान तथा वीर्यसंपन्न हो, उस मुनि को वसतिपाल के रूप में स्थापित किया जा सकता है। ५६७. सति लंभम्मि अणियया, पणगं जा ताव होति अच्छित्ती। जहनेण गुरू चिट्ठइ, तस्संदिट्ठो विमा जयणा ।। भिक्षा का लाभ सहज होने पर अनियत वसतिपाल रखे जा सकते हैं। अथवा आचार्य आदि पांच वहां रहते हैं अथवा आचार्य उस एक मुनि के साथ रहते हैं जो अव्यवच्छित्ति करने में समर्थ हो। जघन्यतः गुरु अकेले वहां रहते हैं। अथवा आचार्य आदि गणकार्य के लिए बाहर जा रहे हों तो उनके द्वारा संदिष्ट मुनि वहां रहता है। वह वसतिपाल के रूप में सारी यतना का पालन करे। ५६८. अप्पुव्वमतिहिकरणे, गाहा ण य अण्णभंडगं छिविमो। भणइ व अठायमाणे, जं नासइ तुज्झ तं उवरिं॥ (सार्वजनिक स्थान में कैसे जाना जाए कि अमुक Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका: अपहरणकर्ता हैं?) ग्रंथकार कहते हैं जो अपूर्व हों-जिन्हें पहले कभी न देखा गया हो, जो विशेष तिथि के बिना बलि करने आए हों-ये अपहरणकर्ता के लक्षण हैं। वे भी यदि मुनियों से कहे-'आप बाहर जाएं, हम बलिक्रिया करेंगे।' तब उन्हें यह गाथा सुनाएन विलोणं लोणिज्जइ, न वि तुप्पिज्जइ घयं व तेल्लं वा। किह नाम लोगडभग! वट्टम्मि ठविज्जए वट्टो?॥ अन्नं भंडेहि वणं, वणकुट्टग! जत्था ते वहइ चंचू। भंगुरवणबुग्गाहित!, इमे हु खदिरा बइरसारा॥ गाथा सुनकर वे जान जाते हैं कि इन्होंने हमें पहचान लिया है। अथवा उनको कहे-ये उपकरण दूसरों के हैं। हम दूसरों के उपकरणों को नहीं छूते। इतना कहने पर भी वे न मानें तो उन्हें कहे-आप नहीं मान रहे हैं तो सुनिए, इन उपकरणों में से जो खराब होगा या चला जाएगा, उसकी पूरी जिम्मेवारी आप लोगों पर होगी। ५६९. कारणे सपाइडि ठिया, वासे वि करेंति एगमायोगं। सन्नाविय दिट्ठा वा, भणाइ जा सारवेमुवहिं॥ यदि कारणवश सप्राभृतिका सार्वजनिक स्थान में वर्षाकाल में भी रहना पड़े तो समस्त उपकरणों का एक आयोग अर्थात् गट्ठर बांध दे, जिससे कि उसमें से कुछ भी न निकाला जा सके। यदि शय्यातर अथवा अन्य द्वारा संदिष्ट व्यक्ति बलि क्रिया करने आए तथा स्वयं द्वारा पूर्वदृष्ट भी वहां आए हों तो वसतिपाल मुनि उनसे कहे-'मैं उपकरणों को एक ओर व्यवस्थित कर लूं तब तक आप रुकें।' ५७०. उव्वरए कोणे वा, काऊण भणाति मा हु लेवाडे। ___बहु पेल्लणऽसारविए, तहेव जं नासती तुज्झं। वसतिपाल मुनि तब उपकरणों को एक कमरे में अथवा कोने में रखकर उनसे कहे-बलि करते समय इन उपकरणों को बलि द्रव्य से खरंटित न करें। यदि बहुत सारे लोग जबरन वहां प्रविष्ट हो जाएं और उपकरणों को एक ओर रखने तक भी प्रतीक्षा न कर सकें तो उनसे पूर्ववत् कहे-यदि उपकरणों से कुछ भी नष्ट होगा तो उसकी जिम्मेदारी तुम लोगों पर ही होगी। ५७१. नत्थि कहालद्धी मे, पुव्वं दिवे व बेति गेलण्णं। दाणादि असंकाण व, आउज्जंतो परिकहेइ॥ यदि वे धर्मकथा सुनने का आग्रह करें तो उनसे कहे-मेरे में कथालब्धि नहीं है। यदि वे कहे-मैंने तुमको पहले कथा करते देखा है। तब कहे-आज मैं ग्लान हूं। यदि धर्मकथा के लिए कहने वाले दानादि श्राद्ध हों, जो अशंकनीय हो तब जागरूकतापूर्वक धर्मकथा करे। ५७२. दट्टू पिणे न लब्भामो, मा किड्डह मा हरिज्जिहं को वि। संमज्जणाऽऽवरिसणे, पाहुडिया चेव बलिसरिसा॥ यदि वहां स्थान पर आकर कोई क्रीड़ा करें तो उनको कहे-हम यहां क्रीड़ा करते हुए व्यक्तियों को देखना भी नहीं चाहते, इसलिए यहां क्रीड़ा न करें। यह इसलिए कहे कि कोई भांडोपकरण का अपहरण न करे। प्रमार्जन, आवर्षण तथा प्राभृतिका में बलिद्वारवत् यतना करे। ५७३. खमणं निमंतिते ऊ, खंधारे कइयवे इमं भणति। किं णे निरागसाणं, गुत्तिकरो काहिई राया॥ यदि कोई भिक्षा के लिए निमंत्रण दे तो उसे कहे-आज क्षपण-तपस्या है। यदि कोई मायापूर्वक स्कंधावार का भय दिखाए तो उसे कहे-हम निरपराध व्यक्तियों के लिए क्या? राजा हमारा गुप्तिकर-रक्षाकर होगा। ५७४. पभु अणुपभु (णो व) निवेयणं तु पेल्लंति जाव नीणेमि। तह वि य अठायमाणे, पासे जं वा तरति नेउं॥ यदि यथार्थ में स्कंधावार आ जाए जो राजा तथा अनुप्रभु-सेनापति आदि के पास जाकर कहे। उनके द्वारा संदिष्ट राजपुरुष उपाश्रय में आकर उपाश्रय से अन्य व्यक्तियों को बाहर निकाल देते हैं। यदि वे नहीं जाते हैं तो उनसे कहे-मैं उपकरणों को ले जाता हूं, तब तब प्रतीक्षा करो। यदि वह सारे उपकरण एक बार में न ले जा सके तो अपने दोनों पार्यों में सारभूत भांडों को बांधकर, जितना ले जा सके उतना ले जाए। ५७५. कोल्लुपरंपर संकलि, आगासं नेइ वायपडिलोमं। अच्छुल्लूढा जलणे, अक्खाई सारभंडं तु॥ अग्नि से बचने के लिए सारे उपकरणों को 'कोल्लुकचक्र' न्याय से चार-पांच पोट्टलिकाओं में बांध दे। फिर खुले आकाश में, वायु की प्रतिलोम दिशा में उन पोट्टलिकाओं को रख दे। वहां वे अग्नि से अस्पृष्ट रहेंगे। परंतु अग्नि की प्रचंडता उस ओर भी प्रसारित होने लगे तो अक्ष आदि सारभूत पदार्थों को निकाल कर अग्नि से बचा ले। ५७६. असरीरतेणभंगे, पवलाए जणे उ जं तरति नेउं। न वि धूमो न वि बोलो, न इवति जणो कइयवेसुं॥ स्तेन दो प्रकार के होते हैं-शरीरस्तेन और अशरीरस्तेन। अशरीरस्तेनों के आने पर भागने वाले लोग जितना धनमाल बचा सकते हैं, उतना लेकर चले जाते हैं। कपटपूर्वक यदि कोई कहे-आग लग गई है। स्तेन आ गए हैं। तो उसे कहे-न कोई धूम दिखाई दे रहा है और न कोलाहल ही सुनाई दे रहा है। इस प्रकार समझदार व्यक्ति उस कपटपूर्वक कथन से विचलित नहीं होता। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ भणामि ॥ संगारो । ५७७. अन्नकुल- गोत्तकरणं, पत्तेसु वि भीयपरिस पेल्लेह पुव्वं अभीयपरिसे, भणाति लज्जाए न ५७८. जा ताव ठवेमि वए पत्ते कुलादिछेय मा सिं हीरे उवहिं अच्छह जा सिं निवेएमि ॥ कुछ ज्ञातिजन स्थान पर आकर पूछे तो अपना कुल और नाम गुप्त रखकर अन्य कुल और नाम बताए । यदि वे पहचानते हों और भयभीत होने वाले हों तो उनको भय दिखाते हुए कहे में राजकुल में शिकायत कर आपको बंधनग्रस्त करा दूंगा। इतने पर भी वे न डरें तो उनसे कहे- 'मेरी इच्छा भी भी उत्क्रमण करने की है, परन्तु लज्जावश मैं कह नहीं सकता। साधु बाहर से आ जायेंगे तो उनके सामने व्रतों को छोड़ दूंगा। आप कुछ रुकें। मैं उनको भी अपनी बात निवेदित कर दूंगा।' वह मुनि यह प्रपंच इसलिए भी करता है कि शून्य वसति को देखकर कोई उपकरणों का अपहरण न कर ले। साधुओं के आने पर वह मुनि उपाश्रय की भींत के छिद्र को गिराकर, यह संकेत देता हुआ कि मुझे अमुक स्थान पर खोज लेना, पलायन कर जाता है। ५७९. खंधारादी नाउं इयरे वि तहिं दुयं समभिएंति । अप्पाहेई तेसिं, अमुगं अमुगं कज्जं दुयं एह ॥ दूसरे मुनि भी स्कंधावार आदि की बात सुनकर वहां शीघ्र ही एकत्रित हो जाते हैं। वह वसतिपाल मुनि उन मुनियों को यह संदेश भेजता है- अमुक प्रयोजन प्रस्तुत हो गया है, आप जल्दी आएं। ५८०. दुविहकरणोवघाया, संसत्ता पच्चवाय सिज्जविही । जो जाणति परिहरिडं, सो महणे कप्पितो होति ॥ वसति का करण दो प्रकार का है-मूलकरण और उत्तरकरण इन दोनों से उपघात अर्थात् मूलकरणोपहत और उत्तरकरणापहत वाली वसति तथा पृथ्वीकाय आदि से संसक्त, प्रत्यवाय- बाधा उपस्थित करने वाली इन दोषों का परिहार करना जो जानता है, तथा शय्याविधि का ज्ञाता है, वह शय्याग्रहणकल्पिक होता है। ५८१. सत्तेव य मूलगुणे, सोही सत्तेव उत्तरगुणेसु संसत्तम्मिय छ, लहु-गुरु-लघुगा चरम जाव ॥ सात प्रकार के मूलगुणों की शोधि और सात प्रकार से ही उत्तरगुणों की शोधि होती है। उपाश्रय के संसक्त होने पर छह प्रकार से शोधि करनी चाहिए। यदि ऐसे उपाश्रय में रहा जाता है तो लघु, गुरु, लघुक से चरम पर्यन्त प्रायश्चित्त जानना चाहिए। बृहत्कल्पभाष्यम ५८२. पट्टीवंसो दो धारणाउ चत्तारि मूलवेलीतो । मूलगुणेहिं उवहया, जा सा आहाकडा वसही ॥ वसति के सात मूलकारण ये हैं उपरितन तिरछा दिया हुआ पृष्ठवंश, दो मूलधारण जिन पर पृष्ठवंशा तिरछा स्थापित किया जाता है और चार मूलवेलियां जो दोनों मूलधारणाओं के दोनों ओर दी जाती हैं। जो वसति इन मूलगुणों से उपहत होती है वह आधाकर्मिक वसति है। ५८३. वंसग कडणोक्कंचण छावण लेवण दुवार भूमी य। सप्परिकम्मा वसही, एसा मूलोत्तरगुणेसु ॥ वसति के सात उत्तरकरण-वेली के ऊपर बांस स्थापित करना, पृष्ठवंश पर तिरछेरूप से 'कट' देकर आच्छादित करना, उसके ऊपर कंबिकाओं को बांधना, छादन-दर्भ आदि से आच्छादित करना, लेपन भीतों को लीपना, द्वार की अदला-बदली करना, भूमी को सम करना - यह सात प्रकार का उत्तरकरण हैं। मूलकरण और उत्तरकरण की हुई वसति सपरिकर्मा होती है। ५८४. दूमिय धूविय वासिय, उज्जोविय बलिकडा अवत्ता य सित्ता सम्मट्ठा वि य, विसोहिकोडी कया वसही ॥ मतान्तर से अन्य उत्तरकरण ये हैं बूमित चूने आदि से भीतों को धवलित करना । धूपित-गंध धूप से धूपित करना । • वासित वसति को सुगंधित करना । • उद्योतित करना । • बलिकृत । • अवत्त अर्थात् आंगन को गोबर आदि से लिप्त करना । • सिक्त करना - पानी छिड़कना । • संमार्जन करना-बुहारी से साफ करना । - इन उत्तरगुणों से कृत वसति विशोधिकोटि की होती है । ५८५. अप्फासुण देसे, सव्वे वा दूमियादि चउलहुगा । अप्फासु धूमजोती, देसम्मि वि चउलहू होंति ॥ ५८६. सेसेस फासणं, देसे लहु सव्वहिं भवे लहुगा । सम्मज्जण साह कुसादि छिनमेतं तु सच्चित्तं ॥ देशतः अथवा सर्वतः अप्रासुक दुमित आदि की गई वसति में रहने पर प्रत्येक क्रिया का चार-चार लघुक प्रायश्चित्त विहित है। अगरु आदि से वसति को देशतः धूपित करना, दीपक जलाकर उद्योतित करना चारलघुक का प्रायश्चित आता है। शेष अर्थात् भूपित और उद्योतित को छोड़कर दुमिल, वासित आदि में देशतः प्रासुक करने पर मासलघु और Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका सर्वतः करने पर चारलघुक का प्रायश्चित है। संमार्जन में यदि सचिन शाखा, कुश आदि जो छिन्नमात्र हैं, उनका देशतः अथवा सर्वतः संमार्जन करने पर चारलघु का प्रायश्चित आता है। ५८७. मूलुत्तरचभंगो, पढमे बीए व गुरुग सविसेसा । तयम्मि होइ भयणा, अत्तटुकडो चरम सुद्धो ॥ वसति का मूलकरण और उत्तरकरण ( गाथा ५८२,५८३) से संबंधित चतुभंगी है (१) साधु के मिमित्त मूलकरण और उत्तरकरण करना । (२) साधु के निमित्त मूलकरण और उत्तरकरण स्वयं के लिए। (३) स्वयं के निमित्त मूलकरण और उत्तरकरण साधु के लिए इसमें भजना होती है। (४) दोनों स्वयं के निमित्त करना । प्रथम भंग का प्रायश्चित्त है-तप और काल से गुरु चार गुरुमास दूसरे भंग का प्रायश्चित है-तप से गुरु, काल से लघु चार गुरुमास तीसरे भंग का प्रायश्चित्त है इसमें उत्तरकरण यदि विशोधिकोटि वाला है तो तप से लघु काल से गुरू चार गुरुमास यदि अप्रासूक से देशतः अथवा सर्वतः परिकर्म करने पर चार लघुमास । प्रासुक से देशतः मासलघु और सर्वतः चार लघुमास चौथा भंग शुद्ध है। ५८८. पुढवि दग अगणि हरियग, तसपाण सागारियादि संसत्ता । बंभवयआदि दंसणविराहिगा पच्चवाया उ ॥ जो शय्या पृथ्वी, उदक, अग्नि, हरित, सप्राणियों तथा सामारिक आदि से संसक्त होती है तथा ब्रह्मव्रत आदि तथा दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व की विराधिका होती है, वह सप्रत्यवाय शय्या कहलाती है। ५८९. कासु उ संसत्ते, सचित्त-मीसेसु होइ सट्टाणं । सागारियसंसत्ते, लहुगा गुरुगा य जे जत्थ॥ सचित्त अथवा मिश्र पृथिवी आदि काय से संसक्त शय्या में रहने से स्वस्थाननिष्पन्न प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। पुरुषों से संसक्त शय्या में रहने से निर्ग्रथों को चार लघुक तथा स्त्रीसंसक्त शय्या में रहने से चार गुरुक का प्रायश्चित्त विहित है। साध्वी यदि स्त्रीसंसक्त उपाश्रय में रहे तो चार लघु और पुरुषसंसक्त उपाश्रय में रहे तो चार गुरु का प्रायश्चित्त आता है। ५९०, गुरुगा बंभावाए, आयाए चेव दंसणे लहुगा । आणादिणो विराहण, भवंति एक्वेक्कगपयाओ ॥ बहावत और आत्मप्रत्यवाय वाले उपाश्रय में रहने पर चार गुरुमास का तथा दर्शनप्रत्यवाय वाले उपाश्रय में रहने ६५ पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त विहित है। एकैक पद से आज्ञाभंग आदि विराधनाएं होती हैं। ये सारे प्रायश्चित्त के साथ समायोजनीय हैं। , ५९१. तिरिय - मणुइत्थियातो, बंभावातो उ तिविह पडिमातो । अहिबिल चलंतकुड्डादि एवमादी उ आयाए । ५९२. आगाढमिच्छविडी सव्वातिहि मरुग बहुजणड्डाणा । पासंडा य बहुविहा, एसा खलु दंसणावाया ॥ जिस उपाश्रय में तियंचस्त्रियां, मनुष्यस्त्रियां अथवा तीन प्रकार की प्रतिमाएं हों-मनुष्यस्त्री की प्रतिमा, तियंचस्त्री की प्रतिमा या वेवस्त्री की प्रतिमा ये सारे ब्रह्मचर्य के प्रत्यवाय हैं। वहां रहने पर ब्रह्मचर्य का विनाश संभव है। जहां उपाश्रय में सर्पों के बिल हो अर्थात् बिलों में सप का निवास हो, जहां भीतें आदि हिल रही हो ये आत्मप्रत्यवाय के साधन है जहां आगाद मिध्यादृष्टि रहते हो, सभी प्रकार के अतिथि याचक आदि आते हों, जहां मरुकबटुक आदि रहते हों, जो अनेक मनुष्यों का स्थान हो (देशिककुटी आदि), जहां बहुत प्रकार के पाखंड रहने होंऐसी वसति दर्शनप्रत्यवाय वाली होती है। ५९३. कालातितीवद्वाण अभिकंत अणभिकंता य। वज्जा य महावज्जा, सावज्ज महऽप्पकिरिया य ।। शय्या के नौ प्रकार हैं १. कालातिक्रान्त ४. अनभिक्रान्त ७. सावध ५. वर्ज्य ८. महासावद्य २. उपस्थान ३. अभिक्रान्त ६. महावर्ण्य ९. अल्यक्रिया ५९४. कालातीते लहुगो, चउरो लहुगा य चउसु ठाणेसु । गुरुगा तिसु जमलपया, अप्पकिरियाए सुद्धो ॥ कालातिक्रान्त शय्या में ऋतुबद्ध काल में रहने पर मासलघु और वर्षाकाल में रहने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त है। चार स्थानों अर्थात् उपस्थान, अभिक्रांत तथा वर्ज्य शय्या में ठहरने पर प्रत्येक का चार-चार लघुमास का प्रायश्चित्त तथा तीन अर्थात् महावज्र्ज्य, सावध तथा महासाद्य शय्या में ठहरने पर प्रत्येक का चार-चार गुरुमास का प्रायश्चित्त है। यह 'यमलपद' अर्थात् तप और काल से विशेषित है। 'यमलपद' यह तप और काल की द्योतक संज्ञा है अल्पक्रिया वाली शय्या शुद्ध है। ५९५. उउ-वासा समतीता, कालातीया उ सा भवे सेज्जा । स च्चेव उवट्ठाणा, दुगुणा दुगुणं अवज्जेत्ता ॥ जहां ऋतुबद्ध काल में तथा वर्षावास में रहा जाता है वह कालातिक्रांत वसति है। जहां दो ऋतुबद्ध काल अर्थात् दो Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ बृहत्कल्पभाष्यम् मास और दो वर्षावास अर्थात आठ मास का वर्जन किए बिना आधार पर शय्या के परिहरण का ज्ञाता है, वह शय्या-ग्रहण पुनः उसी शय्या में रहा जाता है तो वह उपस्थान शय्या कल्पिक है। कहलाती है। ६०१. उग्गम-उप्पायण-एसणाहिं सुद्धं गवेसए वसहिं। ५९६. जावंतिया उ सेज्जा, अन्नेहिं निसेविया अभिवंता। तिविहं तीहिं विसुद्धं, परिहर नवगेण भेदेणं ।। अन्नेहि अपरिभुत्ता, अनभिक्वंता उ पविसंते॥ उद्गम, उत्पादन और एषणा-इन तीनों से शुद्ध वसति जो वसति यावन्तिका सार्वजनिक हो और वह चरक की गवेषणा करे। खात आदि के भेद से तीन प्रकार की आदि पाषंडी तथा अन्य व्यक्तियों द्वारा परिसेवित हो, वहां वसति का जो उद्गम आदि से अशुद्ध हो, उनका तीन करण यदि साधु ठहरते हैं तो वह अभिक्रान्त शय्या है। जो शय्या तीन योग से अर्थात् नौ भेदों से परिहार करना चाहिए। अन्य व्यक्तियों द्वारा अभुक्त हो, वह साधुओं के लिए ६०२. पढिय सुय गुणियमगुणिय, धारमधार उवउत्तो परिहरति। अनभिक्रांत शय्या है। आलोयणमायरिये, आयरिओ विसोहिकारो से॥ ५९७. अत्तट्ठकडं दाउं, जतीण अन्नं करेंति वज्जा उ। जिसने ओघनियुक्ति अथवा इस कल्प-पीठिका को पढ़ा है, ___ जम्हा तं पुव्वकर्य, वज्जति ततो भवे वज्जा॥ अथवा सुना है अथवा गुणित-अभ्यास किया है अथवा अगुणित जो गृहस्थ अपने लिए कृत वसति को मुनियों को देकर, है, धारित है अथवा अधारित है, फिर भी उपयुक्त होकर शय्या स्वयं के लिए अन्य वसति तैयार करवाता है तो मुनियों को का परिभोग करता है, वह शय्याकल्पिक है। उसके इस दी गई वसति वयं होती है। गृहस्थ उस पूर्वकृत वसति का विषयक कोई विराधना होती है तो वह आचार्य आदि से वर्जन करते हैं, क्योंकि वह मुनियों को दे दी गई है, इसलिए आलोचना करे। आचार्य उसके विशोधिकारक होते हैं। वह वयं कहलाती है। ६०३ नामं ठवणा वत्थं, दव्वे भावे य होइ नायव्वं । ५९८. पासंडकारणा खलु, आरंभो अभिणवो महावज्जा। एसो खलु वत्थस्स उ, निक्खेवो चउब्विहो होइ। समणट्ठा सावज्जा, महसावज्जा उ साहूणं॥ वस्त्र के चार प्रकार हैं-नामवस्त्र, स्थापनावस्त्र, द्रव्यजो वसति पाषंडियों के लिए नए रूप में निर्मित की जाती वस्त्र तथा भाववस्त्र। इस प्रकार वस्त्र के चार प्रकार का है वह महावय॑ वसति है। पांच प्रकार के श्रमणों के लिए निक्षेप है। निर्मित वसति सावद्य और साधुओं के लिए निर्मित वसति ६०४. दव्वे तिविहं एगिदि-विगल-पंचेंदिएहिं निप्फन्नं। महासावध कहलाती है। सीलगाइं भावे, दव्वे पगयं तदट्ठाए। ५९९. जा खलु जहुत्तदोसेहिं वज्जिया कारिया सअट्ठाए। द्रव्यवस्त्र के तीन प्रकार हैं-एकेन्द्रियनिष्पन्न, विकलेन्द्रिय परिकम्मविप्पमुक्का, सा वसही अप्पकिरिया उ॥ निष्पन्न तथा पंचेन्द्रियनिष्पन्न। भाववस्त्र है-अठारह हजार जो वसति यथोक्त दोषों से वर्जित है और जो स्वयं के शीलांग। इन अठारह हजार शीलांगों से साधु नित्य प्रावृत रहते लिए निर्मित है, जो परिकर्म से विप्रमुक्त है, वह अल्पक्रिया । है, इसलिए ये भाववस्त्र हैं। यहां द्रव्यवस्त्र का अधिकार है। यह वसति होती है। द्रव्यवस्त्र भाववस्त्र के लिए होता है। ६००. हिट्टिल्ला उवरिल्लाहि बाहिया न उ लंभति पाहन्नं। ६०५. पुणरवि दव्वे तिविहं, जहण्णगं मज्झिमं च उक्कोसं। पुव्वाणुन्नाऽभिणंव, च चउसु भय पच्छिमाऽभिणवा॥ एक्कक्कं तत्थ तिहा, अहाकड-ऽप्पं सपरिकम्म। एक दूसरे से नीचे वाली वसतियां उपरितन वसतियों से द्रव्यवस्त्र के तीन प्रकारों में प्रत्येक तीन-तीन प्रकार का बाधित होती हैं। वे प्राधान्य को प्राप्त नहीं होती। इन नौ है-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। इनमें प्रत्येक तीन-तीन प्रकार की शय्याओं में पूर्व-पूर्व की अनुज्ञा है। चार प्रकार की प्रकार का होता है-यथाकृत, अल्पपरिकर्म और सपरिकर्म। शय्याओं (अनभिक्रांत, वर्ण्य, महावय॑ और सावद्य) में ६०६. चाउम्मासुक्कोसे, मासिय मज्झे य पंच य जहन्ने। अभिनव दोष की भजना है। पश्चिम शय्या अर्थात् महासावद्य वोच्चत्थगहण-करणे, तत्थ वि सट्ठाणपच्छित्तं॥ शय्या में अभिनवदोष होते ही हैं। जो इन सभी दोषों के उत्कृष्टवस्त्र ग्रहण में विपर्यास होने पर चारमास का, १. मतान्तर के अनुसार जहां एक वर्षावास बिता चुके हों तो दो वर्षावास वर्षावासं स्थितास्तस्यां द्वौ वर्षारात्रावन्यत्र कृत्वा यदि अन्यत्र बिताकर यदि पुनः पूर्व स्थान में वर्षावास बिताया जाता है तो समागच्छन्ति ततः सा उपस्थाना न भवति, अर्वाक् तिष्ठतां वह उपस्थान शय्या नहीं होती, पहले जो ठहरे हों उनके वह पुनरूपस्थापना। (वृ. पृ. १७२) 'उपस्थापना' शय्या होती है-अन्ये पुनरिदमाचक्षते-यस्यां वसतौ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका मध्यम के ग्रहण में एक मास का और जघन्य के ग्रहण में पांच रात-दिन का प्रायश्चित्त विहित है। वस्त्र के विपर्यस्तग्रहण और करण में स्वस्थान प्रायश्चित्त विहित है। ६०७. जोगमकाउमहागडे, जो गिण्हइ दोन्नि तेसु वा चरिमं। लहुगा उ तिन्नि मज्झम्मि मासिआ अंतिम पंच॥ यथाकृतवस्त्र विषयक उद्यम किए बिना ही जो दो प्रकार के अर्थात् अल्पपरिकर्म और सपरिकर्म वस्त्र ग्रहण करता है, यथाकृत वस्त्र की प्राप्ति न होने पर अल्पपरिकर्म और सपरिकर्म-दो प्रकार के वस्त्रों में से सपरिकर्म वस्त्र ग्रहण करता है, उत्कृष्ट, मध्यम तथा जघन्य-इन तीन प्रकार के आधार पर उपरोक्त तीनों स्थानों में क्रमशः यह प्रायश्चित्त है। उत्कृष्ट से संबंधित तीनों प्रकार में तीन चतुलघु, मध्यम से संबंधित तीनों प्रकार में तीन मासिक, और जघन्य में तीन पांच रात-दिन (यथाकृत आदि के विपर्यास से संबंधित यह प्रायश्चित्त है।) ६०८. एगयरनिग्गओ वा, अन्नं गिण्हिज्ज तत्थ सट्ठाणं। छित्तूण सिव्विऊण व, जं कुणइ तगं न जं छिंदे॥ उत्कृष्ट आदि में से जो किसी एक को प्राप्त करने के लिए निर्गत होता है वह दूसरा ही ग्रहण करता है तो उसे स्वस्थानप्राप्त प्रायश्चित्त आता है। जो उत्कृष्ट आदि वस्त्र को ग्रहण कर उसे फाड़कर अथवा सीकर मध्यम आकार का करता है, उसे उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त आता है। छिद्यमान अथवा सीव्यमान वस्त्र विषयक प्रायश्चित्त नहीं आता। ६०९. उद्दिसिय पेह अंतर, उन्झियधम्मे चउत्थए होइ। चउपडिमा गच्छ जिणे, दोण्हऽग्गहऽभिग्गहऽन्नयरा॥ गच्छवासी मुनियों की वस्त्र ग्रहण प्रतिमाएं चार हैं१. उद्दिष्टवस्त्रप्रतिमा ३. अन्तरावस्त्रप्रतिमा २. प्रेक्षावस्वप्रतिमा ४. उज्झितवस्त्रप्रतिमा। जिनकल्पिक मुनियों की दो प्रतिमाएं हैं-उद्दिष्ट तथा प्रेक्षा। इन दो का ही स्वीकार है, शेष दो का नहीं। यदि शेष दो में से किसी एक का अभिग्रह हो तो-तीसरे विकल्प का अभिग्रह हो तो चौथा नहीं और चौथा हो तो तीसरा नहीं। ६१०. उद्दिट्ठ तिगेगयरं, पेहा पुण दट्ट एरिसं भणइ। अन्न नियत्थऽत्थुरिए, इतरऽवर्णितो उ तइयाए। ६११. दव्वाइ उज्झियं दव्वओ उ थूलं मए न घेत्तव्वं। दोहि वि भावनिसिटुं, तमुज्झिओभट्ठऽणोभट्ठ॥ उद्दिष्ट अर्थात् गुरु के समक्ष प्रतिज्ञात। तीन प्रकार में से १. काषायी वस्त्र स्वभावतः अतिशीतल होते हैं। वे ग्रीष्म ऋतु में भी सकल-संताप का निवारण करने वाले होते हैं। कहा भी है किसी एक उत्कृष्ट, मध्यम या जघन्य अथवा एकेन्द्रियनिष्पन्न, विकलेन्द्रियनिष्पन्न अथवा पंचेन्द्रियनिष्पन्न को ग्रहण करने की प्रतिमा। यह है उद्दिष्टवस्त्रप्रतिमा। दूसरी है--प्रेक्षावस्त्रप्रतिमा। वस्त्र को देखकर मुनि कहे कि यही वस्त्र अथवा इसी प्रकार का वस्त्र मुझे दो। तीसरी है-अंतरावस्त्रप्रतिमा। (उसकी व्याख्या अंतरीय अथवा उत्तरीय वस्त्रयुगल से करणीय है।) अथवा नियत्थ-परिहित या प्रावृत वस्त्र तथा 'अत्थुरिए-आस्तीर्ण वस्त्र। पुराने अंतरीय और उत्तरीय वस्त्रयुगल को निकाल कर दूसरे वस्त्रयुगल को रखने की इच्छा से जो याचना की जाती है वह तीसरी वस्त्रप्रतिमा है। चौथी वस्त्र प्रतिमा है-उज्झित वस्त्र की गवेषणा करना। द्रव्यादि उज्झित अर्थात् द्रव्योज्झित, क्षेत्रोज्झित, कालोज्झित और भावोज्झित। द्रव्योज्झित जैसे किसी गृहस्थ ने यह प्रतिज्ञा की कि मैं स्थूल वस्त्र ग्रहण नहीं करूंगा। किसी मित्र ने उसे स्थूल वस्त्र उपहृत किया। उसने लेने से मनाही कर दी। मित्र ने कहा-मैं वापस नहीं लूंगा। यह दायक और ग्राहक दोनों द्वारा भावतः निसृष्ट अर्थात् परित्यक्त है। यह द्रव्यतः उज्झित कहा जाता है। अथवा जिनकल्पिक द्वारा बिना याचना किए अथवा याचना करने पर जो मिलता है वह द्रव्योज्झित है। ६१२. अमुगिच्चगं न भुंजे, उवणीयं तं च केणई तस्स। जं वुझे कप्पडिया, सदेस बहुवत्थ देसे वा॥ किसी ने प्रतिज्ञा की-मैं अमुकदेश के वस्त्र का उपभोग नहीं करूंगा। मित्र ने उसी देश का वस्त्र उसे उपहृत किया। उभय द्वारा परित्यक्त (पूर्व गाथावत्) वह वस्त्र क्षेत्रोज्झित है। कार्पटिक आदि अपने देश के प्रति लौटते हुए या देशांतर के प्रति प्रस्थित होते हुए अथवा प्रचुर वस्त्र वाले देश में जाते समय जिन वस्त्रों को वहीं छोड़ जाते हैं वे वस्त्र भी क्षेत्रोज्झित कहलाते हैं। ६१३. कासाइमाइ जं पुव्वकालजोग्गं तदन्नहिं उज्झे। होहिइ व एस्सकाले, अजोग्गयमणागयं उज्झे॥ काषायिक (गंधकाषायिक) आदि वस्त्र जो पूर्वकालग्रीष्म आदि ऋतुओं में उपयोगी थे, वे अन्यकाल में उपयोगी नहीं रहे। उनका परित्याग कर देना कालोज्झित है। अथवा ये वस्त्र भविष्यकाल में अनुपयोगी हो जायेंगे। यह सोचकर उनका पहले ही त्याग कर देना यह भी कालोज्झित कहलाता है। सरसो चंदणपंको, अग्घइ सरसा य गंधकासाई। पाडल सिरीस मल्लिय, पियाई काले निदाहम्मि। (बृ. पृ. १८१) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -बृहत्कल्पभाष्यम् ६१४. लढ्ण अन्न वत्थे, पोराणे सो उ देइ अन्नस्स। सो वि अ निच्छइ ताई, भावुझियमधमाईयं ।। अन्य वस्त्र प्रासकर, पुराना वस्त्र दूसरे को दे देना, और दूसरा व्यक्ति भी उन वस्त्रों को न चाहे, यह भावोज्झित है। यहां जीर्णता आदि भाव है। यह चौथी वस्त्रप्रतिमा है। ६१५. जं जस्स नत्थि वत्थं, सो उ निवेएइ तं पवत्तिस्स। सो वि गुरूणं साहइ, निवेइ वावारए वा वि॥ जिस मुनि के पास जो वस्त्र नहीं है, वह प्रवर्तक को निवेदन करता है। वह प्रवर्तक भी आचार्य को निवेदन करता है। आचार्य भी वस्त्र आभिग्रहिक मुनि को वस्त्र विषयक बात कहते हैं। आभिग्रहिक मुनि के अभाव में वे वस्त्रोत्पादन समर्थ मुनि को वस्त्र लाने लिए व्यापृत करते हैं। ६१६. भिक्खं चिय हिंडंता, उप्पायंतऽसइ बिइअ पढमासु। एवं पि अलब्भंते, संघाडेक्केक्क वावारे॥ भिक्षा के लिए घूमते हुए वस्त्र का उत्पादन करे। यदि उस समय वस्त्र-लाभ न हो तो दूसरे प्रहर में वस्त्र-लाभ का प्रयत्न करे। यदि उस समय भी प्राप्त न हो तो प्रथम प्रहर में वस्त्र की गवेषणा करे। यदि इस प्रकार भी वस्त्र की प्राप्ति न हो तो एक-एक संघााटक को वस्त्र लाने के लिए व्याप्त करे। ६१७. एवं पि अलब्भंते, मुत्तूण गणिं तु सेसगा हिंडे। गुरुगमणे गुरुग ओहामऽभियोगो सेहहीला य॥ इस प्रकार भी यदि वस्त्र-लाभ न हो तो आचार्य को छोड़कर शेष सभी मुनि वस्त्र प्राप्त करने के लिए घूमें। यदि गुरु स्वयं जाते हैं तो चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। लोग कहने लगते हैं-ओह! आचार्य भी साधुओं की भांति घूमते रहते हैं। कोई स्त्री आचार्य पर 'कार्मण' भी कर देती है। गुरु को वस्त्र-प्राप्ति न होने पर शैक्षों में गुरु के प्रति अवहेलना होती है। ६१८. सव्वे वा गीयत्था, मीसा व जहन्न एक्कु गीयत्थो। इक्कस्स वि असईए, करिति तो कप्पियं एक्वं॥ यदि वस्त्र प्राप्ति के लिए घूमने वाले सभी गीतार्थ हों अथवा गीतार्थ-अगीतार्थ मिश्र हों तब जघन्यतः एक गीतार्थ के नेतृत्व में सब घूमे। यदि एक भी मुनि गीतार्थ न हो तो गुरु जो मुनि लब्धिसंपन्न है उसको वस्त्र-कल्पिक की शिक्षा । देकर भेजते हैं। ६१९. आवाससोहि अखलंत समग उस्सग्ग दंडग न भूमी। पुच्छा देवय लंभे, न किंपमाणं धुवं दाहि॥ गमन से पहले वह मुनि आवश्यकशोधि अर्थात् कायिकी का व्युत्सर्ग अवश्य करे। फिर अस्खलित होता हुआ उठे। सभी एक साथ उठे और एक साथ कायोत्सर्ग करे। तदनन्तर दंडक को भूमी पर तब तक न रखे जब तक कि प्रथम लाभ न हो। शिष्य पूछता है कायोत्सर्ग करने का प्रयोजन क्या है? क्या कायोत्सर्ग इसीलिए किया जाता है कि देवता प्रसन्न होकर वस्त्रों का उत्पादन करा देगा? अथवा कायोत्सर्ग के प्रभाव से ही वस्त्र-लाभ होगा? आचार्य ने कहा-कायोत्सर्ग करने का यह प्रयोजन नहीं है। इसका एक मात्र निमित्त है उपयोग। कितने प्रमाण में वस्त्र लाना है? उसकी याचना करने पर स्वामी अवश्य देगा। जब यह जान लिया जाता है कि वह अवश्य देगा, तब सबसे पहले उसी के पास पहले याचना की जाती है। ६२०. रायणिओ उस्सारे, तस्ससतोमो वि गीतो लद्धीओ। अग्गीतो वि सलद्धी, मग्गइ इअरे परिच्छंति॥ सबसे पहले रात्निक कायोत्सर्ग संपन्न करता है। रात्निक के अभाव में जो अवम लघुरात्निक हो, जो गीतार्थ और सलब्धिक हो, वह पहले कायोत्सर्ग संपन्न करे। गीतार्थ के अभाव में जो सलब्धिक अगीतार्थ हो वह कायोत्सर्ग संपन्न कर वस्त्र की मार्गणा के लिए, दूसरों को साथ लेकर जाए। दूसरे गीतार्थ वस्त्रग्रहण संबंधी परीक्षा करते हैं। (क्या कल्पता है, या नहीं आदि)। ६२१. उस्सग्गाई वितह, खलंत अण्णोण्णओ अ लहओ उ। उग्गम विप्परिणामो, ओभावण सावगं न तओ।। ६२२. दाउं व उड्डरुस्से, फासुवरियं तु सो सयं देइ। भावियकुलओभासण, नीणिइ कस्सेअ किं आसी।। जो मुनि कायोत्सर्ग आदि सभी पदों में सामाचारी का विपरीत आचरण करते हैं, स्खलित होकर उठते हैं, साथ नहीं जाते, एक-एक कर जाते हैं इन सब में एक-एक लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। वस्त्र की याचना करने पर उपासक हर्षातिरेक से वस्त्र दे देता है। फिर अभिनव वस्त्रों के लिए उद्गम आदि दोषों का सेवन करता है। कोई अभिनव उपासक विपरिणत भी हो जाता है। कदाचित वस्त्र की अप्राप्ति होने पर दूसरे लोग उसकी अपभ्राजना करते हैं। वे कहते हैं-इन साधुओं के श्रावक भी वस्त्र नहीं देते तो दूसरा कौन देगा? वह श्रावक लोकलज्जावश वस्त्र देकर साधुओं के प्रति प्रद्विष्ट हो जाता है। साधुओं को उपासक प्रासुक और बचे हुए वस्त्र स्वयं दे देता है। मुनि भावितकुल वाले उपासकों से ही वस्त्र की याचना करे। उसके द्वारा वस्त्र लाने पर पूछे-ये वस्त्र किसके हैं? कहां थे? Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका ६२३. कास पुच्छियम्मी उन्गम पक्खेवगाइणो दोसा किं आसऽपुच्छियम्मी पच्छाकम्मं पवहणं व॥ ये किसके हैं? यह पूछे बिना उदगमदोष, प्रक्षेपकदोष आदि होते हैं । 'कहां थे? यह पूछे बिना पश्चात्कर्म, प्रवहण दोष आदि होते हैं। अतः पूछ कर ग्रहण करे। ६२४, कीस न नाहिह तुम्मे, तुन्भन्नु कथं व कीय- धोयाई अमुएण व तुब्भट्ठा, ठवियं गेहे न गिण्हह से । 'यह किसका है ? यह पूछना व्यर्थ है। क्योंकि आप नहीं जानेंगे? आप पूछते हैं तो हम कहते हैं-यह वस्त्र आपके लिए ही किया है, अथवा आपके लिए ही खरीदा गया है, धोया गया है आदि अमुक व्यक्ति ने आपके लिए ही यहां स्थापित किया है, क्योंकि आप उसके घर से इसे ग्रहण नहीं करते। ६२५. तण विणण संजयट्ठा, मूलगुणा उत्तरा उ पज्जणया । गुरुगा गुरुगा लहुगा, विसेसिया चरिमए सुद्धो ॥ संयती के लिए निर्मित वस्त्र की उत्पत्ति में ताना-बाना मूलगुण हैं। वस्त्र संबंधी उत्तरगुण हैपायनता अर्थात् वस्त्र की निष्पत्ति के पश्चात् उसको कूर्चिक से खलिका में डुबोया जाता है। तदनन्तर घृष्ट, मृष्ट, धावन, धूपन आदि दिए जाते हैं। यह सारा उत्तरगुण है। इसकी चतुर्भंगी इस प्रकार है १. मुनि के लिए ताना-बाना तथा पायन । २. मुनि के लिए ताना-बाना तथा स्वयं के लिए पायन । ३. ताना-बाना स्वयं के लिए तथा पायन मुनियों के लिए । ४. ताना-बाना तथा पायन स्वयं के लिए। इनमें प्रथम तीन भंगों में गुरुक, गुरुक और लघुक प्रायश्चित्त हैं। वे तप और काल से विशेषित हैं। चरम पद शुद्ध है। ६२६. समणे समणी सावग, साविग संबंधि इड्डि मामाए । राया तेणे पक्खेवए अ निक्स्वेव जाणे ॥ श्रमण, श्रमणी श्रावक, श्राविका, संबंधीजन, ऋद्धिमान् पुरुष, मामाकसत्क भार्या, राजा, स्तेन इनसे संबंधित प्रक्षेपकदोष होता है। इन स्थानों में ही निक्षेपकदोष जानना चाहिए। यह संग्रहगाथा है। इसका अर्थ-विस्तार अगली गाथाओं में ६२७. लिंगत्थेसु अकप्पं, सावग - नीएस उग्गमासंका । इड्डि अपवेस साविग इहिस्स व उग्गमासंका ॥ ६२८. एमेव मामगस्स वि, सड्डी भज्जा उ अन्नहिं ठवए । निव तपिंडविवज्जी, मा होज्ज तदाहडं तेणे ॥ लिंगस्व अर्थात् लिंगमात्रधारी श्रमण और श्रमणी वर्ग ६९ द्वारा प्रदत्त वस्त्र अकल्पनीय होता है, अतः वे अन्य कुलों में उन वस्त्रों का प्रक्षेप करते हैं, जिससे कि संविग्न मुनि वहां से वह वस्त्र ले सके। इसी प्रकार श्रावक-श्राविकाएं भी अपने संबंधियों के वहां वस्त्र का प्रक्षेपण करते हैं जिससे कि उदगमदोष की शंका न हो। ऋद्धिमान् व्यक्तियों के घर में प्रवेश सहज नहीं होता। सेठ की पत्नी श्राविका है, वह अन्यत्र वस्त्रों का प्रक्षेप करती है अथवा ऋद्धिमान व्यक्ति के घर से वस्वग्रहण करने में उद्गमदोष की आशंका होती है। अतः वे अन्यत्र प्रक्षेप करते हैं। इसी प्रकार 'मामक'- मेरे घर में कोई प्रवेश न करे, ऐसे ऋद्धिमान् की पत्नी श्राविका है। वह वस्त्रदान देने के लिए वस्त्रों का अन्यत्र प्रक्षेपण करती है। तथा राजा भी वस्त्रों का अन्यत्र प्रक्षेप करता है। वह जानता है कि मुनि राजपिंड नहीं लेते, अतः उसे वैसा करना पड़ता है। मुनि स्तेनाहुत भी नहीं लेते अतः चोर भी वस्त्रों का अन्यत्र प्रक्षेपण करते हैं। ये सारे प्रक्षेपण के स्थान हैं। ६२९. एए उ अधिप्पंते, अन्नहिं सन्निक्खिवंति समणा । निक्खेवओ वि एवं, छिन्नमछिन्नो उ कालेण ॥ इन कारणों से श्रमण आदि वस्त्र ग्रहण न करने पर अन्यत्र उन वस्त्रों का श्रमणों के लिए निक्षेपण किया जाता है। यह प्रक्षेपण है। प्रक्षेपण और निक्षेपण में क्या अन्तर है यह पूछे जाने पर आचार्य कहते हैं केवल साधुओं के लिए ही वस्त्रों को स्थापित करना प्रक्षेपण है और पहले स्वयं के लिए स्थापित कर फिर साधुओं के लिए अनुज्ञा देना निक्षेपण है। अतः प्रक्षेपक की भांति निक्षेपक को भी जानना चाहिए। वह निक्षेपक काल से छिन्न अथवा अछिन्न-दोनों प्रकार का होता है। ६३०. अमुगं कालमणागए, दिज्जह समणाण कप्पई छिन्ने । पुण्ण समकाल कप्पड़, ठवियगदोसा अईअम्मि ॥ कोई देशान्तर जाते समय किसी के घर पर वस्त्रों का निक्षेपण करते हुए कहता है मैं यदि अमुक काल के अंतर्गत न लौट सकूं तो ये वस्त्र श्रमणों को दान में देना ।' वे वस्त्र श्रमणों के लिए कल्पनीय हैं। यह छिन्न निक्षेपण है। प्रश्न होता है क्या यह सदा कल्पता है ? इसके उत्तर में गुरु कहते हैं - वह वस्त्र काल की अवधि पूर्ण होने के समकाल में ही कल्पता है, बाद में नहीं क्योंकि विवक्षित काल की अवधि अतीत हो जाने पर स्थापितदोष होते हैं। अच्छिन्न निक्षेपण में जब भी वस्त्र दिया जाता है तब कल्पता है। ६३१. असिवाइकारणेहिं, पुणाईए मन्ननिक्वे । परिभुजति ठविंति व छहिंति व ते गए नाउं ॥ अशिव आदि कारणों से देशांतर में विहार करने वाले www.jainelibrary.arg Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =बृहत्कल्पभाष्यम् मनोज्ञ मुनि ग्लान आदि के लिए रुके हुए मनोज्ञ साधुओं की निश्रा में वस्त्रों का निक्षेपण करते हैं, इन वस्त्रों का परिभोग, काल के बीत जाने पर भी कर सकते हैं। उसमें कोई स्थापना दोष नहीं होता। यदि मुनियों को वस्त्रों की आवश्यकता न हो तो वे वस्त्र ही स्थापित रहते हैं। जब यह ज्ञात न हो तो वे वस्त्र वैसे ही स्थापित रहते हैं। जब यह ज्ञात हो जाता है कि वे मुनि बहुत दूर देशों में चले गए हैं तो उन वस्त्रों का परिष्ठापन कर दिया जाता है। ६३२. दमए दूभगे भट्ठे, समणच्छन्ने अ तेणए। न य नाम न वत्तव्यं, पुढे रुठे जहावयणं॥ ये वस्त्र किसके हैं, यह प्रक्षेपणा दोष को निश्चित करने के लिए पूछा जाता है। पूछने पर वह कहता है द्रमक, दुर्भग-अभागी, भ्रष्ट, श्रमणवेश से स्वयं को छुपाने वाला, स्तेनक-इनके लिए ये वस्त्र हैं। यदि पुनः यह पूछा जाए कि इनमें प्राथमिकता किनको है? ऐसे पूछने वाले उस रुष्ट व्यक्ति के समक्ष किसीका नामोल्लेख न करे। ऐसा नहीं है किन्तु यथायोग्य वचन कहे, जिससे कि उसकी आशंका का परिहार हो जाए। ६३३. किं दमओ हं भंते!, दमगस्स वि किं मे चीवरा नत्थी। दमएण वि कायव्वो, धम्मो मा एरिसं पावे॥ यह किसके हैं-ऐसा पूछने पर कोई कहता है-भंते! क्या आप मुझे द्रमक मानकर ऐसा पूछ रहे हैं। क्या द्रमक होने पर भी मेरे पास चीवर नहीं हैं? द्रमक को भी धर्म करना चाहिए, क्योंकि पुनः मुझे ऐसा दुःख न मिले, मैं पुनः द्रमक न बनूं। ६३४. जइ रन्नो भज्जाए, व दूभगो दूभगा व जइ पइणो। ____किं दूभगो मि तुब्भ वि, वत्था वि व दूभगा किं मे॥ दुर्भग कहता है-यद्यपि में राजा की भार्या का दुर्भग-द्वेष्य हूं, परंतु क्या मैं तुम्हारा भी दुर्भग हूं? अथवा कोई महिला कहे-मैं पति की दुर्भग हूं, परन्तु क्या तुम्हारे लिए भी दुर्भग हूं? क्या मेरे ये वस्त्र भी दुर्भग हैं? ६३५. जइ रज्जाओ भट्ठो किं चीरेहिं पि पिच्छहेयाणि। ___ अत्थि महं साभरगा, मा हीरेज्ज त्ति पव्वइओ। राजपदच्युत कहता है-यद्यपि मैं राज्य से भ्रष्ट हूं तो क्या मैं चीवरों से भी भ्रष्ट हूं? देखो, मेरे पास बहुत वस्त्र हैं। श्रमणच्छन्न कहता है मेरे पास बहुत 'साभरग' रुपये थे। राजकुल वाले आदि उनका हरण न कर लें, इसलिए मैं प्रवजित हो गया। (श्रमणच्छन्न इनमें से कोई एक हो सकता है-शाक्य, तापस, परिव्राजक, आजीवक। ये सारे श्रमण कहलाते थे। ६३६. अत्थि मे घरे वि वत्था, नाहं वत्थाई साहु ! चोरेमि। सुट्ट मुणिअं च तुब्भे, किं पुच्छह किं व हं तेणो॥ स्तेन कहता है-साधो! मेरे घर में भी वस्त्र हैं। मैं वस्त्रों को नहीं चुराता। तुमने यथार्थरूप में पहचान लिया कि मैं चोर हूं। तुम क्यों पूछते हो कि ये वस्त्र किसके हैं ? किसी के भी हों, तुम ग्रहण करो। अथवा वह कहे-क्या मैं चोर हूं जो तुम ऐसा पूछते हो कि यह किसका है? ६३७. इत्थी पुरिस नपुंसग, धाई सुण्हा य होइ बोधव्वा। बाले अ वुड्डयुगले, तालायर सेवए तेणे॥ 'कस्य' इसीकी द्वारान्तर प्रतिपादिका यह गाथा है-स्त्री, पुरुष, नपुंसक, धात्री, स्नुषा, बालयुगल, वृद्धयुगल, तालचर-नट, सेवक और स्तेन इनको जानना चाहिए। (यह गाथा का शब्दार्थ है। व्याख्या आगे की गाथाओं में।) ६३८. तिविहित्थि तत्थ थेरि, भणंति मा होज्ज तुज्झ जायाणं। मज्झिम मा पइ-देवर, कण्णं मा थेर-भाईणं॥ स्त्रियों के तीन प्रकार हैं-स्थविरा, मध्यमा और कन्यका। स्थविरा दात्री को कहा जाता है ये वस्त्र तुम्हारे पुत्रों के तो नहीं हैं इसलिए हम पूछते हैं। मध्यमा को कहते हैं-ये वस्त्र तुम्हारे पति और देवर के तो नहीं हैं ? कन्यका को पूछते हैं ये वस्त्र तुम्हारे स्थविर भाई के तो नहीं है? ६३९. एमेव य पुरिसाण वि, पंडगऽपडिसेवि मा निआणं ते। सामियकुलस्स धाई, सुण्हं जह मन्झिमा इत्थी॥ इसी प्रकार पुरुषों के भी तीन प्रकार होते हैं-स्थविर, मध्यम और तरुण। उनसे भी इसी प्रकार पूछा जाता है। नपुंसक जो अप्रतिसेवी है उसे पूछा जाता है यह तुम्हारे संबंधियों का वस्त्र नहीं है? धात्री को पूछा जाता है-यह तुम्हारे स्वामी का वस्त्र तो नहीं है? स्नुषा से पूछा जाता है यह तुम्हारे पति या देवर का वस्त्र तो नहीं है? स्नुषा मध्यमा स्त्री मानी जाती है। ६४०. दोण्हं पि अ जुयलाणं, जहारिहं पुच्छिऊण जइ पहुणो। गिण्हंति तओ तेसिं, पुच्छासुद्धे अणुन्नायं। बालयुगल और वृद्धयुगल-दोनों युगलों को यथायोग्य पूछताछ कर यदि वे उस वस्त्र के प्रभु-स्वामी हैं तो उनसे वस्त्र लिया जा सकता है। पूछने पर शुद्ध हों तो वस्त्रग्रहण करना अनुज्ञात है। ६४१. तूरपइ दिति मा ते, कुसीलवे तेसु तूरिए मा ते। एमेव भोगि सेवग, तेणो उ चउब्विहो इणमो॥ ६४२. सग्गाम परग्गामे, सदेस परदेसे होइ उड्डाहो। मूलं छेओ छम्मासमेव गुरुगा य चत्तारि।। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका यदि तूर्यपति--नटमहत्तर वस्त्र दे तो उसे कहे- क्या ये नटों के वस्त्र हैं ? नट वस्त्र दें तो कहे- क्या ये नटपति के वस्त्र है? इसी प्रकार भौगिक और सेवक के विषय में भी जानना चाहिए। स्तेन के ये चार प्रकार हैं- स्वग्रामस्तेन, परग्रामस्तेन स्ववेशस्तेन और परवेशस्तेन । इनसे वस्त्रग्रहण करने पर उड्डाह - प्रवचन की लघुता होती है। तत्संबंधी प्रायश्चित्त इस प्रकार है- स्वग्रामस्तेन से लेने पर मूल, परग्रामस्तेन से लेने पर छेद, स्वदेश के स्तेन से लेने पर छह गुरुकमास तथा परदेश के स्तेन से लेने पर चार गुरुकमास ६४३. एवं पुच्छासुद्धे, किं आसि इमं तु जं तु परिभुत्तं । किं होहि त्ति अहतं, कत्थाऽऽसि अपुच्छणे लहुगा ।। इस प्रकार पृच्छा से शुद्ध-निर्दोष निर्णीत होने पर जो भुक्तपूर्व वस्त्र है उसके विषय में पूछे कि यह वस्त्र क्या था अर्थात् तुम्हारे वह किस उपयोग में आया था। 'अहत' अर्थात् अपरिभुक्त वस्त्र के विषय में पूछे कि यह क्या काम आयेगा ? यह कहां रखा हुआ था? इस प्रकार पृच्छा न करने पर प्रत्येक पृच्छा संबंधी चार-चार लघुकमास का प्रायश्चित्त आता है। ७१ यदि गृहस्थ कहे कि यह वस्त्र नित्यनिवसनीय होगा, परन्तु यदि वैसा वस्त्र दूसरा न हो तो उसको ग्रहण करने पर पश्चात्कर्म आदि दोष होते हैं। यदि वैसा दूसरा वस्त्र हो तो लेना कल्पता है। यदि अवहमान वस्त्र नया हो तो भी ग्रहण करना कल्पता है। वैसा करने पर भी प्रवाहनादोष होते हैंऐसा कहने पर आचार्य कहते हैं- साधु वह वस्त्र ले या न ले फिर भी गृहस्थ उनमें से एक ही वस्त्र का उपयोग करेगा। वैसे वस्त्रग्रहण करने में कोई दोष नहीं है। ६४७. एमेव मज्जणाई, पुच्छासुद्धं तु सव्वओ पेहे। मणिमाई दाईति व असि मा सेहवादाणं ॥ इसी प्रकार मज्जनिक, क्षणोत्सविक तथा राजद्वारिक वस्त्रों के विषय में जानना चाहिए। जो वस्त्र पृच्छा करने पर शुद्ध अर्थात् निर्दोष जान पड़े तो उस वस्त्र को चारों ओर से निरीक्षण करे। क्योंकि संभव है उस वस्त्र के किसी कोने में मणि आदि (हिरण्य, सुवर्ण) बंधा हुआ हो। निरीक्षण काल में वह दीख पड़े तो गृहस्थ को वह दिखा दे। गृहस्थ को न दिखाने पर या न कहने पर शैक्ष आदि उसका ग्रहण न कर ले। ६४८. एवं तु गविद्वेसुं, आयरिया दिति जस्स जं नत्थि । समभागेसु कएस व जहराहणिया भवे बीओ ॥ इस प्रकार वस्त्रों की गवेषणा और प्राप्ति कर मुनि आचार्य के पास आए और उनको वस्त्र दिखाए। फिर आचार्य जिस मुनि के पास जो वस्त्र न हो उसको वह दे । यह वस्त्र देने का एक प्रकार है। उसका दूसरा प्रकार यह है - लाए हुए वस्त्रों का समविभाग कर दे। फिर रत्नादिक मुनियों के क्रम से उसे दे। ६४४. निच्चनियंसण मज्जण, छणूसवे रायदारिए चेव । सुत्तत्यजाणपणं, चउपरियन्ट्टे तओ गहणं ॥ यह पूछे जाने पर कि यह वस्त्र किस प्रयोजन में काम आता था, तो गृहस्थ कहते हैं यह वस्त्र प्रतिदिन उपयोग में आता था। यह स्नानान्तर, यह क्षण, उत्सव आदि में, तथा राजभवन में जाते समय काम में आता है। गृहस्थ के इस प्रकार कहने पर सूत्रार्थ ज्ञायक अर्थात् गीतार्थ मुनि उपरोक्त चार प्रकार के परिवर्तनीय वस्त्रों के युगल हों तो उसमें से कोई एक वस्त्र देना चाहे, वह ग्रहण करे। ( इस गाथा की भावना निम्नोक्त गाथा में है ।) ६४५. निच्चनियंसणियं ति य, अन्नासह पच्छकम्म - वहणाई | अत्थि वहते घिप्पइ, इयरय फुस - धोय-पगयाई ॥ नित्यनिवसनीय वस्त्र के सदृश दूसरा नित्यनिवसनीय वस्त्र न हो तो (उसको ग्रहण कर लेने पर) पश्चात्कर्म, वहन' आदि दोष होते हैं, अतः उसे ग्रहण करना नहीं कल्पता । यदि दूसरा नित्यनिवसनीय वस्त्र व्यापृयमाण हो तो वह वस्त्र लिया जा सकता है। अवहमान को वहमान करने के लिए अप्काय से उत्स्पर्शन, धावन, प्रकरण आदि क्रियाएं करनी पड़ती हैं। ६४६. होहिइ व नियंसणियं, अण्णासइ गहण पच्छकम्माई । अत्थि नवे वि उ गिण्इ, तहिं तुल्ल पवाहणादोसा ॥ १. जो वस्त्र काम में नहीं आ रहा है, उसको काम में लाते समय अनेक क्रियाएं करनी पड़ती हैं। वे वहन क्रियाएं होती हैं। ६४९. अप्पत्ते अकहित्ता, अणहिगयऽपरिच्छणे य चउगुरुगा। दोहि गुरु तवगुरुगा, कालगुरू दोहि वी लहुगा ।। आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध के छठे अध्ययन 'पात्रैषणा' को अप्राप्त अर्थात् अनधीत शिष्य को पात्र लाने के लिए प्रेषित करने पर उसे चार गुरुक का प्रायश्चित्त आता है। दो से गुरु अर्थात् तपोगुरुक और कालगुरुक। सूत्र को प्राप्त है, परंतु अर्थ का कथन नहीं हुआ है, अर्थ के कह देने पर भी उसका अधिगत- हृदयंगम नहीं किया है, अथवा अधिगत होने पर भी उस पर सम्यक् श्रद्धा है या नहीं, यह परीक्षा किए बिना भेजने पर, प्रत्येक अर्थात् अकथन, अनधिगत और अपरीक्षण के लिए चार चार लघुक का प्रायश्चित्त आता है दो से लघु अर्थात् तपोलघुक और काललघुक ६५०, नामं ठवणा दविए, भावम्मि चउबिहं भवे पाये। एसो खलु पायस्सा, निक्खेवो चउव्विहो होइ ॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ =बृहत्कल्पभाष्यम् ___ पात्र के चार प्रकार हैं-नामपात्र, स्थापनापात्र, द्रव्यपात्र कारण प्रेक्षापात्र है। एक गृहस्थ के पास दो पात्र हैं। प्रतिदिन और भावपात्र। ये पात्र के चार निक्षेप हैं। एक को काम में लेता है, दूसरे को नहीं। जिस दिन जिसको ६५१. दव्वे तिविहं एगिंदि-विगल-पंचिंदिएहिं निप्फन्न। काम में लेता है, वह संगतिकपात्र कहलाता है और दूसरा भावे आया पत्तं, जो सीलंगाण आहारो॥ पात्र वैजयन्तिक। इन दोनों में से एक का ग्रहण पात्र गवेषणा द्रव्यपात्र तीन प्रकार के हैं-एकेन्द्रियनिष्पन्न, विकलेन्द्रिय- की तीसरी प्रतिमा है। निष्पन्न, पंचेन्द्रियनिष्पन्न। भावपात्र है-आत्मा। वह अठारह ६५६. दव्वाइ दव्व हीणाहियं तु अमुगं च मे न घेत्तव्यं । हजार शीलांग का आधार है। दोहि वि भावनिसिटुं, तमुज्झिओभट्ठऽणोभट्ठ॥ ६५२. लाउय दारुय मट्टिय, तिविहं उक्कोस मज्झिम जहन्नं । उज्झितकपात्र के चार प्रकार हैं-द्रव्योज्झित, क्षेत्रोज्झित, ___ एक्केक्कं पुण तिविहं, अहागडऽप्पं सपरिकम्म॥ कालोज्झित और भावोज्झित। किसी गृहस्थ ने यह प्रतिज्ञा की द्रव्यपात्र के तीन प्रकार और हैं-अलाबुमय, दारुमय और कि मैं अमुक प्रमाण से अधिक या हीन पात्र अथवा अमुक मिट्टीमय। प्रत्येक तीन-तीन प्रकार के होते हैं-उत्कृष्ट, प्रकार के पात्र को ग्रहण नहीं करूंगा। किसी ने वैसा ही पात्र मध्यम और जघन्य। ये प्रत्येक तीन-तीन प्रकार के होते लाकर दिया। यह दायक और ग्राहक-दोनों द्वारा भावतः हैं-यथाकृत, अल्पपरिकर्म तथा सपरिकर्म। निःसृष्ट पात्र, वह चाहे अवभाषित हो अथवा अनवभाषित, वह ६५३. वोच्चत्थे चउलहुआ, आणाइ विराहणा य दुविहा उ। द्रव्योज्झित पात्र है। __छेयण-भेयणकरणे, जा जहिं आरोवणा भणिया॥ ६५७. अमुइच्चगं न धारे, उवणीयं तं च केणई तस्स। पात्र के ग्रहण और करण में विपर्यास करने पर चतुर्लघु जं वुज्झ भरहाई, सदेस बहुपायदेसे वा॥ का प्रायश्चित्त, आज्ञा आदि दोष तथा दो प्रकार की विराधना 'मैं अमुक देश का पात्र धारण नहीं करूंगा' यह निश्चय होती है-संयमविराधना और आत्मविराधना। पात्र का छेदन, करने के पश्चात् कोई वहीं का पात्र उपहृत करता है, वह भेदन करने में जो जहां संयमविराधना या आत्मविराधना में दोनों द्वारा उज्झित पात्र क्षेत्रोज्झित पात्र कहलाता है। अथवा आरोपणा कही है, वह जाननी चाहिए। जो भरत आदि अर्थात् नट, चारण आदि अपने देश जाते हुए ६५४. उद्दिसिय पेह संगय, उज्झियधम्मे चउत्थए होइ। अथवा बहपाववाले देश में जाते समय अपने पात्र छोड़ जाते सव्वे जहन्न एक्को, उस्सग्गाई जयं पुच्छे॥ हैं, वे पात्र भी क्षेत्रोज्झित पात्र होते हैं। पात्रगवेषणा की चार प्रतिमाएं हैं-उद्दिष्टपात्र, प्रेक्षापात्र, ६५८. दगदोद्धिगाइ जं पुव्वकाल जुग्गं तदन्नहिं उज्झे। संगतिकपात्र और उज्झितधर्मकपात्र। पात्र की गवेषणा में होहिइ व एस्सकाले, अजोग्गयमणागयं उज्झे॥ जाने वाले सभी मुनि गीतार्थ हों अथवा कुछ गीतार्थ और कुछ जलतुम्बक, तक्रतुम्बक आदि जो पूर्वकाल में इसके योग्य अगीतार्थ हो अथवा एक गीतार्थ हो तो उसके नेतृत्व में पात्र थे, वे अन्यकाल में अथवा भविष्यकाल में अयोग्य हो जाएंगे, की गवेषणा में घूमे। कायोत्सर्ग आदि (गा. ६१९ वत्) यह मानकर उनको छोड़ दिया जाता है। वे कालोज्झित पात्र 'जयं पुच्छे'-वह पूर्वोक्त यतना करता हुआ पूछे। इसका कहलाते हैं। तात्पर्य है-श्रावकों को न पूछे। भावितकुलों में पूछे। वे जब ६५९. लक्ष्ण अन्नपाए, पोराणे सो उ देइ अन्नस्स। पात्र दिखाएं तो पूछे-यह किसका है? पहले यह क्या था? सो वि अनिच्छइ ताई, भावुज्झिय एवमाईयं॥ आगे यह क्या होगा? यह कहां था? यह प्रश्न चतुष्टय गृहस्थ नये पात्रों को प्राप्त कर पुराने को छोड़ देता है, पूर्ववत् करे। जैसे वस्त्र ग्रहण की विधि है, वही पात्र ग्रहण की दूसरों को देता है। दूसरा भी उन्हें नहीं चाहता। यह सारा विधि है। (यह गा. ६१५ से ६१९वें श्लोकवत् जानना भावोज्झित जानना चाहिए। चाहिए।) ६६०. ओभासणा य पुच्छा, दिद्वे रिक्के मुहे वहंते य। ६५५. उद्दिट्ट तिगेगयरं, पेहा पुण दट्ठ एरिसं भणइ। संसटे उक्खित्ते, सुक्के अ पगासे दट्ठणं । ___ दोण्हेगयरं संगइ, वाहयई वारएणं तु॥ पात्र के उत्पादन (प्राप्ति) विषयक अवभाषण करना तीन प्रकार के पात्रों-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट में से चाहिए। ये आठ पृच्छाएं करनी चाहिए-(१) यह दृष्टकिसी एक को लाने के लिए गुरु के समक्ष प्रतिज्ञा की, वह प्रशस्य है अथवा अदृष्ट। (२) यह रिक्त है अथवा अरिक्त याच्यमान उद्दिष्ट पात्र कहलाता है। पात्र का अवलोकन कर (३) इसका मुख किया हुआ है या नहीं? (४) यह वहमानक 'ऐसा मुझे दो' यह कहना प्रेक्षापूर्वक याच्यमान होने के हे अथवा अवहमानक ? (५) यह संसृष्ट है या असंसृष्ट ? Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका (६) यह उत्क्षिप्त है या नहीं ? (७) यह शष्क है अथवा आर्द्र ? (८) यह प्रकाशमुखवाला है या अप्रकाशमुखवाला ? पात्र यदि देखने पर निर्दोष लगे तो उसे ग्रहण करे। ६६१ विद्रुमवि विठ्ठे, खमतरमियरे न दिस्सए काया । दहिमाईहि अरिक्कं वरं तु इयरे सिया पाणा ॥ दृष्ट और अदृष्ट पात्र के मध्य दृष्ट पात्र क्षमतर होता है, उसे ग्रहण करना युक्त है । अदृष्टपात्र में पृथ्वी आदि काय के जीव नहीं देखे जाते । दधि, मोदक आदि से अरिक्त पात्र अच्छा होता है। रिक्त पात्र में कदाचित् कुंषु आदि प्राणी हो सकते हैं। ६६२. अकयमुहे दुप्पस्सा, बीयाई छेयणाइ दोसा वा । कुंथूमादवते, फासुवहतं अओ धन्नं ॥ अकृतमुखवाले पात्र दुः प्रत्युपेक्ष होते हैं उनमें जीव नहीं देखे जा सकते। वहां बीजों का उद्भव हो सकता है। छेदनभेदन आदि दोष होते हैं। इसलिए वह ग्राह्य नहीं होता। अवमानक (जो प्रयोग में न आ रहा हो ) पात्र में कुंथु आदि प्राणी संभावित होते हैं। इसलिए प्रासुक वस्त्र आदि से वहमानक पात्र धन्य अर्थात् संयमधन का उपकारक होता है । ६६३. एमेव य संसद्वं, फासुअ अप्फासुएण पडिकुडं । उक्तं च खमतरं जं चोल्लं फासुदव्वेणं ॥ इसी प्रकार संसृष्ट पात्र के विषय में जानना चाहिए। जो प्रासु अन्न आदि से संसृष्ट- खरंटित हो, वह ग्राह्य है। अप्राक से संसृष्ट प्रतिकृष्ट निषिद्ध है जो गृही के द्वारा स्वयं उल्शिस है, वह क्षमतर है जो पात्र प्रासुक द्रव्य से आर्द्र है वह ग्राह्य है, अप्रासुक द्रव्य से आर्द्र पात्र का परिहार करना चाहिए। 5 ६६४. जं होइ पगासमुहं, जोग्गयरं तं तु अप्पगासाओ । तस बीयाइ अठ्ठे इमं तु जयणं पुणो कुणइ ॥ जो पात्र प्रकाशमुख वाला होता है वह योग्यतर होता है, जी पात्र अप्रकाशमुख वाला होता है वह ग्राह्य नहीं होता। पात्र को आंखों से देखकर यदि त्रस - बीज आदि न दीख पड़े तो यह वक्ष्यमाण यतना पुनः करे । ६६५. ओमंथ पाणमाई, पुच्छा मूलगुण उत्तरगुणे य । तिट्ठाणे तिक्खुत्तो, सुद्धो ससिणिद्धमाईसु ॥ पात्र को ओंधा कर तीन स्थानों में तीन बार प्रस्फोटित करे। शिष्य ने पूछा- पात्र विषयक मूलगुण और उत्तरगुण क्या हैं ? (यह आगे गा. ६६८ में बताया जायेगा ।) जिस पात्र में पहले अप्काय था, वह आज सस्निग्ध हो सकता है। तीन बार उसको प्रस्फोटन करके ले, वह पात्र शुद्ध है। ७३ कोणं, घेत्तुत्ताणेण वाममणिबंधे । ६६६. दाहिणकरेण खोडेड तिन्नि वारे, तिनि तले तिनि भूमीए ॥ दक्षिण हाथ से पात्र का कर्ण पकड़ कर, पात्र को ओंधा कर वाम हाथ के मणिबंध पर तीन बार उस पात्र का प्रस्फोटन करे फिर तीन बार हाथ के तल पर और फिर भूमी पर तीन बार उसका प्रस्फोटन करे । ६६७. तस - बीयाइ व दिट्ठे, न गिण्हई गिण्हई उ अछि । गहणम्मि उ परिसुद्धे, कप्पइ दिट्ठेहिं वि बहूहिं ॥ यदि इस प्रकार नौ बार प्रस्फोटन करने पर बस जीव अथवा बीज आदि न दीख पड़े तो उसे ग्रहण करे, दीख पड़े तो ग्रहण न करे। परिशुद्ध-निर्दोष जानकर ग्रहण किए हुए पात्र को लेकर उपाश्रय में आ जाने पर यदि उसमें अनेक बीज आदि दृग्गोचर हों तो भी वह पात्र कल्पनीय है। (उस पात्र को न गृहस्थ को पुनः लौटाया जा सकता है और न परिष्ठापित किया जा सकता है, क्योंकि वह श्रुतप्रामाण्य से गृहीत है। किन्तु एकांत में उन दृष्ट बीजों का परिष्ठापन कर पात्र काम में लिया जा सकता है।) ६६८. मुकरणं मूलगुणा, पाए निक्कोरणं च इअरे उ १२ गुरुगा गुरुगा लहुगा, विसेसिया चरिमए सुद्धो ॥ पात्र का मुखकरण मूलगुण हैं। पात्र का 'निक्कोरण २ करना उत्तरगुण हैं। इसकी चतुर्भंगी इस प्रकार है १. संयमी के लिए कृतमुख और संयमी के लिए उत्कीर्ण । २. संयमी के लिए कृतमुख और स्वयं के लिए उत्कीर्ण । ३. स्वयं के लिए कृतमुख, संयमी के लिए उत्कीर्ण । ४. स्वयं के लिए कृतमुख, स्वयं के लिए उत्कीर्ण । प्रथम भंग में प्रायश्चित्त है-तप-काल से गुरु चार गुरुमास । दूसरे भंग में प्रायश्चित्त है-तप से गुरू, काल से लघु चार गुरुमास। तीसरे भंग में प्रायश्चित्त है तप और काल से लघु चार लघुमास । चरम भंग शुद्ध है। ६६९. देविंद राय - गहवइउग्गहो सागारिए अ साहम्मी । पंचविहम्मि परूविएँ, नायव्वो जो जहिं कमइ ॥ अवग्रह पांच प्रकार का प्ररूपित है- देवेन्द्रावग्रह, राजावराह, गृहपति अवग्रह, सागारिक ( शय्यातर) अवग्रह और साधर्मिक अवग्रह। जहां जिस अवग्रह का प्रसंग हो, उसको वहां जानना चाहिए। ६७०, डिल्ला उवरिल्लेहिं बाहिया न उ लहंति पाहनं । पुव्वाणुन्नाऽभिनवं च चउसु भय पच्छिमेऽभिनवा ॥ , अधस्तन अर्थात् देवेन्द्र अवग्रह आदि उपरितन अर्थात राजावग्रह आदि से यथाक्रम बाधित होते हैं। अतः वे प्राधान्य १. धनाय हितमिति 'धन्यं' - संयमधनोपकारकमित्यर्थः । (बृ. पृ. १९७) २. पात्र का मुखकरण करने के पश्चात् भीतर से उसका उत्किरण करना निक्कोरण कहलाता है। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ -बृहत्कल्पभाष्यम् को प्राप्त नहीं होते। चार अवग्रहों में (साधर्मिक अवग्रह के ६७५. सरगोयरो अ तिरियं, वावत्तरिजोयणाई उद्धं तु। बिना) पूर्व अनुज्ञा तथा अभिनव अनुज्ञा की भजना है। जिस अहलोगगाम-अघमाइ हे?ओ चक्किणो खित्तं॥ अवग्रह का पहले वाले साधुओं ने अनुज्ञा ली, यदि बाद में चक्रवर्ती के बाण का जितना क्षेत्र विषय बनता है वह आने वाले साधु उसीका परिभोग करते हैं जो वह पूर्वानुज्ञा चक्रवर्ती का तिर्यक् क्षेत्र है। वही बाण ऊर्ध्वदिशा में बहोत्तर है। अभिनवरूप में अनुज्ञा लेना अभिनवानुज्ञा है। (वृत्तिकार योजन तक जाता है। चक्रवर्ती का इतना ऊर्ध्व क्षेत्र है। ने इस गाथा को बहुत विस्तार से समझाया है।) अधोलोक के ग्राम, गर्त आदि तक चक्रवर्ती का अधः क्षेत्र है। ६७१. दव्वाई एक्कक्को, चउहा खित्तं तु तत्थ पाहन्ने। ६७६. गहवइणो आहारो, चउहिसिं सारियस्स घरवगडा। तत्थेव य जे दव्वा, कालो भावो अ सामित्ते॥ हेट्ठा अघा-ऽगडाई, उर्दू गिरि-गेहधय-रुक्खा ॥ प्रत्येक अवग्रह चार प्रकार का है-द्रव्यतः, क्षेत्रतः कालतः गृहपति (सामान्य मंडलाधिपति) का प्रभुत्व विषयभूत और भावतः। इनमें क्षेत्र की प्रधानता है। क्षेत्र में जो द्रव्य होते जितना चारों दिशाओं में आधार होता है, वह उसका तिर्यग है, काल और भाव होते हैं वे सब क्षेत्र के स्वामित्व में होते हैं। अवग्रह है। सागारिक अर्थात् शय्यातर का तिर्यग् अवग्रह है ६७२. पुव्वावरायया खलु, सेढी लोगस्स मज्झयारम्मि। गृहवृत्तिपरिक्षेपपर्यन्त। दोनों के अधः अवग्रह है-गर्त्त, कूप जा कुणइ दुहा लोग, दाहिण तह उत्तरद्धं च॥ आदि और ऊर्ध्व अवग्रह है-गिरी, गृहध्वज और वृक्ष। लोक के मध्यभाग में मंदरपर्वत के ऊपर एक प्रादेशिकी ६७७. अजहन्नमणुक्कोसो, पढमो जो आवि चक्कवट्टीणं। आकाशप्रदेशपंक्ति पूर्व-पश्चिम दिशा में दीर्घतर गई है। वह सेसनिव रोहगाइसु, जहन्नओ गहवईणं च॥ श्रेणि लोक के दो भागों में विभक्त करती है-दक्षिणलोकार्द्ध देवेन्द्रावग्रह और चक्रवर्ती का अवग्रह न जघन्य और न और उत्तरलोकार्द्ध। (दक्षिणलोकार्द्ध का स्वामी है शक्र और उत्कृष्ट होता है अर्थात् वह सदा एक रूप रहता है। शेष नृपतियों उत्तरलोकार्द्ध का स्वामी है ईशान। दक्षिणलोकार्द्ध में जो तथा गृहपती का जघन्य क्षेत्रावग्रह उतना होता है जितना आवलिकप्रविष्ट तथा पुष्पावकीर्ण विमान हैं, वे शक्र के शत्रुराजा द्वारा नगरवेष्टन आदि (रोधन) किया जाता है। आधिपत्य में हैं।) ६७८. नगराइ निरुद्ध घरे, जा याऽणुन्ना उ दु चरिम जहन्नो। ६७३. साधारण आवलिया, मज्झम्मि अवद्धचंदकप्पाणं। उक्कोसो उ अनियओ, अचक्किमाईचउण्हं पि॥ अद्धं च परिक्खित्ते, तेसिं अद्धं च सक्खित्ते॥ दो चरम अर्थात् सागारिक और साधार्मिक का नगर अपार्द्धचन्द्रकल्प अर्थात् अर्धचन्द्राकारवाले सौधर्म और आदि में जघन्य क्षेत्रावग्रह इस प्रकार है-किसी राजा ने नगर ईशान देवलोक के मध्यम श्रेणी में जो विमानों की आवलिका आदि का निरोध कर दिया। बाहर के वास्तव्य जब शय्यातर है उसका आधिपत्य साधारण अर्थात् सौधर्म और ईशान- अथवा साधार्मिक के घर में प्रवेश करते हैं तब वे कह सकते दोनों का है। मध्यमश्रेणी में स्थित विमानों की आधी संख्या । हैं-अमुक स्थान में रहने की हमारी अनुज्ञा है। वह उनका अपने-अपने कल्प की सीमा में हैं और शेष आधी संख्या जघन्य क्षेत्रावग्रह है। अचक्री आदि चारों का उत्कृष्ट अवग्रह अपरकल्प की सीमा में हैं। अनियत होता है। ६७४. सेढीइ दाहिणेणं, जा लोगो उड्ड मो सकविमाणा। ६७९. अणुन्नाए वि सव्वम्मी, उग्गहे घरसामिणा। हेट्ठा वि य लोगंतो, खित्तं सोहम्मरायस्स॥ तहा वि सीमं छिंदंति, साहू तप्पियकारिणो॥ पूर्वोक्त श्रेणी के दक्षिण दिशा में जहां तक लोक है अर्थात् गृहस्वामी (शय्यातर) ने यद्यपि सारे अवग्रह की अनुज्ञा तिर्यकलोकपर्यन्त, ऊर्ध्व दिशा में स्वविमानपर्यन्त तथा दी है, फिर भी मुनि सीमा का निर्धारण करें जिससे कि अधोदिशा में अर्धस्तनलोकपर्यन्त सौधर्मराज का क्षेत्र है। शय्यातर को समाधि हो। १. सभी अपने-अपने अवग्रह में बलीयान् होते हैं। राजा स्वयं के मुनियों की अनुज्ञा का उपभोग करते हैं, वह उनकी पूर्वानुज्ञा है। इसी अवग्रह में देवेन्द्र से भी बलीयान होता है, गृहपति अपने अवग्रह में प्रकार अन्य अवग्रहों में भी ज्ञातव्य है। राजा से भी बलीयान, सागारिक अपने अवग्रह में गृहपति से भी ३. वृत्तिकार का कहना है कि साधार्मिक का उत्कृष्ट क्षेत्रावग्रह यहां बलीयान और साधर्मिक अपने अवग्रह में सागारिक से भी निर्दिष्ट नहीं है। इसका कारण कुछ भी रहा हो, किन्तु बृहद्भाष्य में बलीयान होता है। उसका उल्लेख है-साधार्मिकाणां तु क्षेत्रावग्रह उत्कृष्टः कुतोऽपि २. जैसे शय्यातर ने प्रथम समागत साधुओं को स्थान के लिए अनुज्ञा दी, हेतोरत्र नोक्तः, परंबृहद्भाष्ये इत्थमभिहितः-उज्जाणं वा मडंबाई वह उनके लिए अभिनव अनुज्ञा है। वहां दूसरे मुनि आकर पूर्ववर्ती मडम्बादी उद्यानं यावदुत्कृष्टः क्षेत्रावग्रहः। (व.पू. २०२) . Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका ६८०. झाणट्ठया भायणधोवणाई, दोण्हऽट्ठया अच्छणहेउगंच। (देवेन्द्र और चक्रवर्ती के अवग्रह की अनुज्ञापना मन से ही मिउग्गहं चेव अहिट्ठयंते, मा सो व अन्नो व करेज्ज मन्न॥ होती है। गृहपति के अवग्रह की मन से तथा वचन से, मुनि ध्यान करने के लिए, भाजन आदि धोने के लिए, सागारिक और साधर्मिक के अवग्रह की अनुज्ञा नियमतः उच्चार और प्रस्रवण-दोनों के लिए तथा स्वयं के बैठने के वचन से ही होती है।) लिए परिमित अवग्रह ही स्थापित करते हैं जिससे कि ६८५. भावोग्गहो अहव दुहा, मइ-गहणे अत्थ-वंजणे उ मई। शय्यातर तथा अन्य लोग उनके प्रति अप्रीति वहन न करें। गहणे जत्थ उ गिण्हे, 'मणसी कर' अकरणे तिविहं ।। ६८१. चेयणमचित्त मीसग, दव्वा खलु उग्गहेसु एएसु। अथवा भावावग्रह दो प्रकार का होता है-मतिभावाग्रह जो जेण परिग्गहिओ, सो दव्वे उग्गहो होइ॥ और ग्रहणभावावग्रह। मतिज्ञानरूप भावावग्रह के दो प्रकार देवेन्द्र आदि के अवग्रह में जितने चेतन, अचेतन तथा हैं-व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह। जहां मुनि जिसके अवग्रह से मिश्र द्रव्य हैं वे सारे उनके द्वारा परिगृहीत हैं। वह कोई वस्तु ग्रहण करता है तब ग्रहणभावावग्रह होता है। उस द्रव्यावग्रह है। समय यदि मन में अनुज्ञापना नहीं करता तो उसे तीन प्रकार ६८२. दो सागरा उ पढमो, चक्की सत्त सय पुव्व चुलसीई। का प्रायश्चित्त प्रास होता है। सेसनिवम्मि मुहुत्तं, जहन्नमुक्कोसए भयणा॥ ६८६. पंचविहम्मि परूविए, स उग्गहो जाणएण घेत्तव्यो। प्रथम अर्थात् देवेन्द्रावग्रह का कालावग्रह दो सागरोपम अन्नाए उग्गहिए, पायच्छित्तं भवे तिविहं॥ काल तक होता है। चक्रवर्ती का जघन्य कालावग्रह सात सौ अवग्रह के पांच प्रकार प्ररूपित हैं। 'यह इस प्रकार का वर्षों तक ब्रह्मदत्तचक्री का तथा उत्कृष्ट कालावग्रह चोरासी अवग्रह है'-इस प्रकार अवग्रह का ज्ञाता मुनि उसे ग्रहण लाख पूर्व भरतचक्री का होता है। शेष नृपों का जघन्य करे। जो अज्ञात अवग्रह को ग्रहण करता है, उसे तीन प्रकार कालावग्रह अंतर्मुहर्त का होता है और उनके उत्कृष्ट का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। कालावग्रह की भजना है। (इसका तात्पर्य है-अंतर्मुहूर्त्त से ६८७. इक्कड-कढिणे मासो, चाउम्मासो अ पीढ-फलएसु। प्रारंभ कर समय की वृद्धि के साथ वर्धमान चौरासी लाख कट्ठ-कलिंचे पणगं, छारे तह मल्लगाईसु॥ पूर्व पर्यन्त आयुःस्थान होता है। जो नृप जितने आयुष्य का इक्कड (एक प्रकार का घास), कढिण-शरस्तंब आदि भोग करता है अथवा जो जितने काल तक राज्यैश्वर्य का का संस्तारक ग्रहण करने पर एक मासलघु, काष्ठमय पीढ़अनुभव करता है, वह उसका उत्कृष्ट कालावग्रह होता है।) फलक आदि ग्रहण करने पर प्रत्येक का चार मासलघु, ६८३. एवं गहवइ-सागारिए वि चरिमे जहन्नओ मासो। काष्ठशलाका, किलिंच, क्षार, मल्लक आदि ग्रहण करने पर उक्कोसो चउमासा, दोहि वि भयणा उ कज्जम्मि॥ पांच रात-दिन का प्रायश्चित्त आता है। इसी प्रकार गृहपति और सागारिक इन दोनों का जघन्य ६८८. गीयत्थो य विहारो, बीओ गीयत्थनिस्सिओ भणिओ। और उत्कृष्ट कालावग्रह शेष नृपति की भांति जानना चाहिए। ___ इत्तो तइयविहारो, नाणुन्नाओ जिणवरेहिं॥ चरम अर्थात् साधर्मिकावग्रह जघन्यतः एक मास और जिनेश्वरदेव ने दो प्रकार के विहार की अनुज्ञा दी हैउत्कृष्टतः चार मास का होता है। जघन्य और उत्कृष्ट में पहला है-गीतार्थ का विहार तथा दूसरा है गीतार्थनिश्रित कार्य के आधार पर भजना है। (ग्लान आदि के कारण इन विहार। इनके अतिरिक्त तीसरे प्रकार के विहार की जिनेश्वर दोनों में अतिरिक्त काल भी हो सकता है।) देव ने अनुज्ञा नहीं दी है। ६८४. चउरो ओदइअम्मी, खओवसमियम्मि पच्छिमो होइ। ६८९. गीयं मुणितेगहूँ, विदियत्थं खलु वयंति गीयत्थं । मणसी करणमणुन्नं, च जाण जं जत्थ ऊ कमइ॥ गीएण य अत्थेण य, गीयत्थो वा सुयं गीयं ॥ देवेन्द्र, राजा, गृहपति तथा सागारिक-इन चारों के गीतं और मुणितं एकार्थक हैं। गीतार्थ वह होता है जो अवग्रह औदयिकभाव हैं (क्योंकि 'यह क्षेत्र मेरा है' ऐसी छेदसूत्र के अर्थ का परिज्ञाता होता है। जो गीत और अर्थ से मूर्छा उनमें होती है।) पश्चिम अर्थात् साधर्मिकावग्रह युक्त होता है वह गीतार्थ होता है। गीत का अर्थ है श्रुत। क्षायोपशमिक भाव है। यह भावावग्रह है। ६९०. गीएण होइ गीई, अत्थी अत्थेण होइ नायव्वो। जहां देवेन्द्र आदि के अवग्रह का प्रसंग आता है वहां मन गीएण य अत्थेण य, गीयत्थं तं विजाणाहि॥ में 'जिसका यह अवग्रह है, वह मुझे अनुज्ञा दे।' यह कहना गीत अर्थात् सूत्र। जो केवल श्रुतधर (सूत्रधर) है वह पर्याप्त होता है। गीती कहलाता है। जो केवल अर्थधर है वह अर्थी कहलाता Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -बृहत्कल्पभाष्यम् है। जो गीत और अर्थ-दोनों से युक्त होता है वह गीतार्थ प्रायश्चित्त आता है। यहां आठ भंग (विकल्प) होते हैंकहलाता है। अर्थात् वह सूत्रधर और अर्थधर-दोनों है। १. एकाकी अजातकल्पिक तथा च्यवनकल्पिक भी। ६९१. जिणकप्पिओ गीयत्थो, परिहारविसुद्धिओ वि गीयत्थो। २. एकाकी अजातकल्पिक, च्यवनकल्पिक नहीं। गीयत्थे इड्विदुर्ग, सेसा गीयत्थनीसाए॥ ३. एकाकी जातकल्पिक तथा च्यवनकल्पिक। जिनकल्पिक गीतार्थ होता है। परिहारविशुद्धि चारित्रवाला ४. एकाकी जातकल्पिक, च्यवनकल्पिक नहीं। भी गीतार्थ होता है। ऋद्धिद्विक अर्थात् आचार्य और ये एकाकीपद से चार भंग हैं। अनेकाकिपद से भी चार उपाध्याय ये भी गीतार्थ होते हैं। शेष सभी मुनि गीतार्थ की भंग होते हैं। निश्रा (आचार्य और उपाध्याय की निश्रा) में रहते हैं। ६९६. एगागित्तमणट्ठा, उवसंपज्जइ चुओ व जो कप्पा। ६९२. आयरिय गणी इड्डी, सेसा गीता वि होति तन्नीसा। सो खलु सोच्चो मंदो, मंदो पुण दव्व-भावेणं। गच्छगय निग्गया वा, थाणनिउत्ताऽनिउत्ता वा॥ जो मुनि ज्ञान आदि प्रयोजन के बिना एकलविहार को आचार्य और गणी-उपाध्याय ये दोनों सातिशय ज्ञान स्वीकार करता है तथा जो कल्प अर्थात् संविग्नविहार से आदि से ऋद्धिमान होते हैं। शेष सभी गीतार्थ अथवा च्युत हो गया है, वह द्रव्यजीवन जीता हुआ भी शोचनीय अगीतार्थ मुनि भी उनकी निश्रा में विहरण करते हैं। गच्छगत होता है। वह मंद होता है। अर्थात द्रव्यतः और भावतः वह अथवा गच्छनिर्गत, स्थान पर नियुक्तः अथवा स्थान पर मंद होता है। अनियुक्त-ये सभी आचार्य और उपाध्याय की निश्रा में ६९७. एक्वेक्को पुण उवचय, अवचय भावे उ अवचए पगयं। रहते हैं। तलिना बुद्धी सेट्ठा, उभयमओ केइ इच्छन्ति। ६९३. आयारपकप्पधरा, चउदसपुव्वी अ जे अ तम्मज्झा। द्रव्यमंद और भावमंद के दो-दो प्रकार हैं-उपचय और तन्नीसाए विहारो, सवाल-वुड्डस्स गच्छस्स। अपचय। यहां भावतः अपचयमंद का अधिकार है। तलिन आचारप्रकल्प-निशीथ के धारक जघन्य गीतार्थ होते हैं। अर्थात् सूक्ष्मबुद्धि श्रेष्ठ होती है। जो इस बुद्धि से युक्त होता चतुर्दशपूर्वी उत्कृष्ट गीतार्थ होते हैं। इनके मध्यवर्ती अर्थात् है अर्थात् जो कुशाग्रीयमति होता है, वह उपचयभाव मंद है और कल्प-व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध को धारण करने वाले मध्यम जो स्थूलबुद्धि वाला होता है वह अपचयभावमंद होता है। कुछ गीतार्थ होते हैं। इन तीन प्रकार के गीतार्थों की निश्रा में आचार्य दोनों को अपचयबुद्धिमंद मानते हैं। अर्थात् निर्बुद्धिक सबालवृद्ध गच्छ का विहरण होता है। और स्थूलबुद्धिक-दोनों को अपचयबुद्धिमंद मानते हैं। ६९४. एगविहारी अ अजायकप्पिओ जो भवे चवणकप्पे। ६९८. नाणाई तिट्ठाणा, अहवण चरणऽप्पओ पवयणं च। उवसंपन्नो मंदो, होहिइ वोसट्ठतिट्ठाणो॥ सुत्त-ऽत्थ-तदुभयाणि व, उग्गम उप्पायणाओ वा॥ एकविहारी-अकेला विहरण करने वाला, अजातकल्पिक-- जो एकाकी विहार करता है वह आदि तीन स्थानों से अगीतार्थ, तथा जो च्यवनकल्प-चारित्र से पतन के प्रकार परित्यक्त हो जाता है अथवा चारित्र, आत्मा और प्रवचन से को स्वीकृत अर्थात् पार्श्वस्थ विहारी तथा जिसने एकलविहार परित्यक्त हो जाता है। अथवा सूत्र, अर्थ और तदुभय-इन तीन को स्वीकार किया है, वह मन्द अर्थात् बुद्धिविकल होगा और स्थानों से विरत हो जाता है अथवा उद्गम, उत्पादन और व्युत्सृष्टत्रिस्थान ज्ञान, दर्शन और चारित्र इन तीनों स्थानों एषणा-इन तीन स्थानों की शुद्धि से परित्यक्त हो जाता है। से परित्यक्त होगा। ६९९. अप्पुव्वस्स अगहणं, न य संकिय पुच्छणा न सारणया। ६९५. मोत्तूण गच्छनिग्गते, गीयस्स वि एक्कगस्स मासो उ। गुणयंते अ अदटुं, सीदइ एगस्स उच्छाहो॥ अविगीए चउगुरुगा, चवणे लहुगा य भंगट्ठा॥ जो एकाकी विहार करता है वह अपूर्वश्रुत के ग्रहण से गच्छनिर्गत अर्थात् जिनकल्पिक आदि मुनियों को वंचित रहता है। वह सूत्रार्थ संबंधी शंकित स्थानों की पृच्छा छोड़कर यदि गीतार्थ भी एकाकी विहार करता है तो उसको नहीं कर पाता। उसकी 'सारणा' नहीं होती। दूसरे मुनियों को मासलघु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। अगीतार्थ यदि एकाकी परावर्तन करते हुए न देखकर वह स्वयं परावर्तन को छोड़ विहार करता है तो उसको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त देता है। परावर्तन आदि में एकाकी का उत्साह नहीं रहता। आता है। च्यवन अर्थात् पावस्थविहार (शिथिलविहार) का ७००. चरगाई बुग्गाहण, न य वच्छल्लाइ दंसणे संका। यदि मन से भी संकल्प करता है तो चार लघुमास का थी सोहि अणुज्जमया, निप्पग्गहया च चरणम्मि॥ १. स्थान पर नियुक्त-प्रवर्तक, स्थविर, गणावच्छेदक-ये पदस्थ गीतार्थ होते हैं। स्थान पर अनियुक्त सामान्य मुनि। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका = उस एकाकी अगीतार्थ मुनि का चरक आदि (कणाद, गौतम, सांख्य) अन्यतीर्थिक व्युद्ग्राहण (अपहरण) कर लेते हैं। एकाकी होने के कारण वह साधर्मिकों का वात्सल्य आदि नहीं कर सकता। उसमें शंका आदि दोष उत्पन्न हो जाते हैं और इस प्रकार वह दर्शन से च्युत हो जाता है। उसकी बुद्धि भी दोषिल हो जाती है। उसकी शोधि (प्रायश्चित्त) नहीं होती। उसमें अनुद्यमता आ जाती है। उसमें 'निष्प्रग्रहता'गुरु की आज्ञा का नियमन नहीं रहता। इस प्रकार चरण विषयक उल्लंघना होती है। ७०१. सामन्नाजोगाणं, बज्झो गिहिसन्नसंथुओ होइ। दसण-नाण-चरित्ताण मइलणं पावई एक्को॥ वह एकाकी मुनि श्रामण्ययोगों से बाह्य हो जाता है। वह गृहस्थों के समाचारों से परिचय करता है। अकेला होने के कारण दर्शन, ज्ञान और चारित्र को मलिन कर देता है। ७०२. कयमकए गिहिकज्जे, संतप्पइ पुच्छई तहिं वसइ। संथव-सिणेहदोसा, भासा हिय नट्ठ सोगो अ॥ वह एकाकी मुनि क्रय-विक्रय संबंधी गृहीकार्यों में संतप्त होता है। गृहस्थों के लाभ-अलाभ के विषय में पूछता है और उन्हीं के मध्य रहता है। इससे संस्तव और स्नेह संबंधी दोष उत्पन्न होते हैं। फिर वह सावध भाषा का प्रयोग करने लग जाता है। गृहस्थ की कोई वस्तु चोर द्वारा चुरा लिए जाने पर अथवा स्वयं नष्ट हो जाने पर उस मुनि को शोक होता है, वह परितप्त हो जाता है। ७०३. अबहुस्सुए अगीयत्थे निसिरए वा वि धारए व गणं। तद्देवसियं तस्सा, मासा चत्तारि भारिया॥ जो आचार्य अबहुश्रुत अथवा अगीतार्थ शिष्य को गच्छ का भार सौंपते हैं तो उसका प्रायश्चित्त है चार भारिक मास। अबहुश्रुत अथवा अगीतार्थ शिष्य उस निक्षिप्त गच्छभार को धारण करता है तो उसे भी चार गुरुकमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यह उस दिवस संबंधी प्रायश्चित्त है। दूसरे दिन प्राप्त होने वाले प्रायश्चित्त का कथन आगे किया जाएगा। ७०४. अबहुस्सुअस्स देइ व, जो वा अबहुस्सुओ गणं धरए। भंगतिगम्मि वि गुरुगा, चरिमे भंगे अणुन्नाओ। जो आचार्य गणभार को अबहुश्रुत शिष्य को सौंपता है अथवा अबहुश्रुत शिष्य निक्षिप्त गणभार को धारण करता है-- इस संबंध में चतुर्भंगी होती है। आद्यभंगत्रिक में गणदायक तथा गणधारक को चार-चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। चरम भंग की अनुज्ञा है। ७०५. सत्तरत्तं तवो होइ, तओ छेओ पहावई। छेएणऽच्छिन्नपरियाए, तओ मूलं तओ दुगं॥ सातरात्र का तप होता है, फिर छेद आता है। छेद से अच्छिन्नपर्याय होने पर मूल, फिर द्विक अर्थात् अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त आता है। (इस गाथा का विस्तार अगली गाथा में।) ७०६. एक्कक्कं सत्त दिणे, दाऊण अइच्छियम्मि उ तवम्मि। पंचाइ होइ छेदो, केसिंचि जहा कडो तत्तो॥ चतुर्गुरुक आदि एक-एक तप सात-सात दिनों का देने के पश्चात्, तपःप्रायश्चित्त के अतिक्रांत होने पर पंचक आदि से छेद होता है। कुछेक आचार्यों का यह अभिमत है कि जिस स्थान से तप प्रारंभ किया है, वहीं से छेद भी दिया जाता है। ७०७. तुल्ला चेव उ ठाणा, तव-छेयाणं हवंति दोण्हं पि। पणगाइ पणगवुड्ढी, दोण्ह वि छम्मास निट्ठवणा। तप और छेद दोनों के स्थान तुल्य होते हैं। पांच रातदिन से प्रारंभ कर पंचकवृद्धि से वर्धमान स्थानों का छह मास में निष्ठापन समापन होता है। ७०८. पढिय सुय गुणिय धारिय, करणे उवउत्तो छहिं वि ठाणेहिं। छट्ठाणसंपउत्तो, गणपरियट्टी अणुन्नाओ। जिसने निशीथाध्ययन को सूत्रतः पढ़ लिया है, गुरुमुख से उसका अर्थ सुन लिया है, उसका परावर्तन करता है, उसको सम्यग्रूप से धारण कर लिया है, जो उसके करणविधि-प्रतिषेध में उपयुक्त है तथा जो पांच महाव्रत और रात्रिभोजनविरमण-इन छहों स्थानों में उपयुक्त है, ऐसा मुनि पठित-श्रुत आदि छहों स्थानों में संप्रयुक्त है, वह गणवर्तापक के रूप में अनुज्ञात है। वह गण को धारण कर सकता है। ७०९. सत्तट्ट नवग दसगं, परिहरई जो विहारकप्पी सो। तिविहं तीहिं विसुद्धं, परिहर नवएण भेएण॥ जो आचार्य आदि सात, आठ, नौ और दश प्रकार के प्रायश्चित्त, जो त्रिविध हैं-अर्थात् दान, तप और काल प्रायश्चित्तभेद से प्रत्येक तीन-तीन भेद वाले होते हैं उनका नवक भेदों से परिहार करता है वह विहारकल्पी होता है। इसका तात्पर्य है कि वह प्राप्त सप्तविध आदि प्रायश्चित्त का करणत्रय और योगत्रय से परिहार करता है। ७१०. दुविहो अ होइ छेदो, देसच्छेदो अ सव्वछेदो अ। मूला-ऽणवट्ठ-चरिमा, सव्वच्छेओ अतो सत्त॥ छेद प्रायश्चित्त के दो प्रकार हैं-देशच्छेद और सर्वच्छेद। पंचक आदि से षण्मासपर्यन्त देशच्छेद होता है। मूल, अनवस्थाप्य तथा पारांचिक यह सर्वच्छेद है। दोनों प्रकार के छेद प्रायश्चित्त शब्द से व्यवहृत होते हैं, इस दृष्टि से प्रायश्चित्त के सात प्रकार हैं-आलोचनाह, प्रतिक्रमणार्ह, तदुभयाई, विवेकाह, व्युत्सर्गार्ह, तपोर्ह और छेदाह। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् ७११. छिज्जंते विन पावेज्ज कोइ मूलं अओ भवे अट्ठ। पूछा-फिर उत्सारकल्पिक का नाम कैसे सुना जाता है? चिरघाई वा छेओ, मूलं पुण सज्जघाई उ॥ आचार्य ने कहा-इस नाम से व्यवहार होता है, किन्तु पर्याय के छिन्न होने पर भी जब तक मूल प्रास नहीं उत्सारकरण अनुज्ञात नहीं है। जो उत्सार करता है उसका होता, तब उसके छह माह के छेद के पश्चात् मूल दिया प्रायश्चित्त है चार गुरुक तथा आज्ञाभंग आदि दोष। जाता है। इस प्रकार प्रायश्चित्त आठ हो जाते हैं। छेद ७१६. आणाऽणवत्थ मिच्छा, विराहणा संजमे य जोगे य। चिरघाती होता है और मूल सद्योघाती। यही दोनों में अप्पा परो पवयणं, जीवनिकाया परिच्चत्ता।। अंतर है। उत्सारकल्पिक भगवद् आज्ञा का पालन नहीं करता। ७१२. वूढे पायच्छित्ते, ठविज्जई जेण तेण नव होति। अन्यान्य आचार्य या शिष्य भी उत्सारकल्प करते हैं, इससे जं वसइ खित्तबाहिं, चरिमं तम्हा दस हवंति॥ अनवस्थादोष का प्रसंग आता है। वे मिथ्यात्व को प्राप्त हो किसी कारणवश द्वादश वार्षिक परिहारतपः प्रायश्चित्त जाते हैं। उनके संयम और योग विषयक विराधना होती है। वहन कर लेने के पश्चात् उसे व्रतों में स्थापित किया जाता तथा उत्सारक के आत्मा स्वजीव, पर-उत्सारकल्पविषय है। इस प्रकार अनवस्थाप्य के आधार पर प्रायश्चित्त के नौ शिष्य, प्रवचन-तीर्थ तथा जीवनिकाय-ये सारे परित्यक्त हो प्रकार हो जाते हैं। वही एकाकी क्षेत्र के बाहर रहता है, उसे जाते हैं। (यह द्वारगाथा है। व्याख्या आगे।) पारांचित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इस प्रकार प्रायश्चित्तों की ७१७. पुव्विं मलिया उस्सारवायए आगए पडिमलिंति। संख्या दश हो जाती है। पडिलेह पुग्गलिंदिय, बहजण ओभावणा तित्थे। ७१३. एयं दुवालसविहं, जिणोवइ8 जहोवएसेणं। पहले किसी जैनाचार्य ने अन्ययूथिकों का मानमर्दन किया जो जाणिऊण कप्पं, सद्दणाऽऽयरणयं कुणइ॥ था। एक बार उत्सारवाचक वहां आए तब अन्ययूथिकों ने ७१४. सो भविय सुलभबोही परित्तसंसारिओ पयणुकम्मो। जैनों का मानमर्दन किया। पहले उन्होंने गुप्तरूप से एक अचिरेण उ कालेणं, गच्छइ सिद्धिं धुयकिलेसो॥ प्रत्युपेक्षक पुरुष को उत्सारकल्पक के पास भेजकर उनके इस प्रकार जिनोपदिष्ट ये बारह प्रकार के कल्प साधु- ज्ञान की परीक्षा ली। पूछा-पुद्गल के कितनी इन्द्रियां होती सामाचार हैं। इनको यथोपदिष्टरूप में जानकर जो कल्पों पर। हैं? उसने कहा-पांच। बहुत लोगों के बीच निरुत्तर किया। श्रद्धा करता है, उनका आचरण करता है, वह भव्य, सुलभ- तीर्थ की अपभ्राजना हुई। (यह श्लोक का शब्दार्थमात्र है। पूरा बोधि, परीत्तसंसारी, प्रतनुकर्मा जीव अचिरकाल (उसी भव कथानक इस प्रकार है।)? अथवा सात-आठ भवों) में कर्मों का अपनयन कर सिद्धगति ७१८. जीवा-ऽजीवे न मुणइ, अलियभया साहए दग-मिताई। को प्रास कर लेता है। करणे अ विवच्चासं, करेइ आगाढऽणागाढे॥ ७१५. चोयग पुच्छा उस्सारकप्पिओ नत्थि तस्स किह नाम। वह उत्सारकल्पिक जीव और अजीव को नहीं जानता। उस्सारे चउगुरुगा, तत्थ वि आणाइणो दोसा॥ वह असत्य के भय से पानी और मृग आदि की बात कह देता शिष्य ने पूछा-भंते ! बारह प्रकार के कल्पिकों में है। (वह उदकार्थी को कह देता है हां, उस नदी या तालाब उत्सारकल्पिक का नामोल्लेख नहीं है। इसका कारण क्या में पानी है। वह व्याध के पूछने पर कह देता है, हां, इधर से है? आचार्य ने कहा-उत्सारकल्पिक नहीं है। शिष्य ने पुनः मृग गए हैं। वह 'करण' अर्थात् चारित्र में विपर्यास करता है १. एक वाचक आचार्य एक नगर में आए। उनके साथ अनेक शिष्य थे। उसने वहां जाकर वाचक से पूछा-भंते! परमाणु पुद्गल के कितनी नगरवासी अत्यंत प्रमुदित हुए। आचार्य के प्रवचनों से सारा नगर इन्द्रियां होती हैं ? वाचक ने सोचा-परमाणु पुद्गल एक समय जितने आनन्द विभोर हो उठा। अन्ययूथिक निग्रंथ प्रवचन की प्रशंसा काल में लोक के चरमान्त तक पहुंच जाता है। तो निश्चित ही वह सुनकर बौखला गए। उन्होंने आचार्य के साथ वादगोष्ठी का पांच इन्द्रियों वाला होना चाहिए। उसने तत्काल कहा-परमाणु आयोजन किया। वाद में आचार्य की जीत हुई और अब नगर में पुद्गल के पांच इन्द्रियां होती हैं। परीक्षा के लिए आगत उस व्यक्ति ने उनकी कीर्ति अत्यधिकरूप से फैली। अन्ययूथिकों के मन में ईर्ष्या जान लिया कि ये वाचक ज्ञानशून्य हैं। अन्ययूथिकों ने वादगोष्ठी का और जलन उत्पन्न हो गई। वे अवसर की प्रतीक्षा में थे। वाचक समायोजन किया। अन्ययूथिकों द्वारा पूछे गए प्रश्नों का वह उत्तर न आचार्य वहां से विहार कर अन्यत्र चले गए। दे सका। पग-पग पर उसका पराभव हुआ और अन्ययूथिक एक बार उसी नगर में उत्सारकल्पिक वाचक आए। श्रावक विजयघोष करते हुए वाचक का तिरस्कार कर चले गए। निग्रंथ प्रमुदित हुए। अन्ययूथिकों ने उनके साथ वादगोष्ठी स्थापित करने से प्रवचन की अवहेलना हुई। श्रावकों के सिर लज्जा से झुक गए। पूर्व एक व्यक्ति को समागत वाचक के ज्ञान की परीक्षा करने भेजा। (वृ. पृ. २१७-२१९) Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका अर्थात् वह आगाढ़ और अनागाढ़ विषयक विपर्यास करता आगमन हुआ। उन्होंने उत्सारकल्पिकों की खरंटना की और है। यह सारी संयम विराधना है। उन्हें प्रायश्चित्त दिया। ऐसे कितने गीतार्थ मुनि होंगे जो इस ७१९. तुरियं नाहिज्जंते, नेव चिरं जोगजंतिता होति। प्रकार शिक्षा देंगे? लद्धो महंतसद्दो, त्ति केइ पासाइं गेहंति॥ ७२४. अप्पत्ताण उ दिंतेण अप्पओ इह परत्थ वि य चत्तो। ७२०. कमजोगं न वि जाणइ, विगईओ का य कत्थ जोगम्मि। सो वि अ हु तेण चत्तो, जं न पढइ तेण गव्वेणं ।। अण्णस्स वि दिति तहा, परंपरा घंटदिटुंतो॥ जो आचार्य अपात्र अर्थात् अयोग्य को अथवा अप्राप्तउत्सारकल्पिक शिष्य शीघ्र श्रुत का अध्ययन नहीं करते विवक्षित अनुयोगभूमिका की प्राप्ति से रहित शिष्य को श्रुत तथा वे योग-श्रुताध्ययन के समय किए जाने वाले तपोयोग का दान देता है तो उस आचार्य ने अपनी आत्मा को से चिरकाल तक नियंत्रित नहीं होते। हमें 'वाचक या गणी' उत्सारकल्पकृत बनाने के कारण इह और परत्र में परित्यक्त यह महान् शब्द प्राप्त हो चुका हैं यह सोचकर कुछेक शिष्य कर दिया है। निश्चित रूप से वह शिष्य भी उस आचार्य के आचार्य का साथ छोड़कर पार्श्ववर्ती गांवों में स्वच्छंदरूप में द्वारा परित्यक्त होता है क्योंकि वह गणि, वाचक आदि गर्व से विचरण करने लग जाते हैं। वे योगकर्म नहीं जानते। किस गर्विष्ठ होकर कुछ भी नहीं पढ़ता। पढ़ने के अभाव में चरणयोग में कितनी विकृतियां कल्पती हैं-यह भी नहीं जानते। वे करण की प्रतिपत्ति कैसे हो सकती है? अपने अन्य शिष्यों को भी उत्सारकल्प से ही वाचना देते हैं। (इसी प्रकार प्रवचन भी परित्यक्त हो जाता है। उस मुनि इस परंपरा से सूत्रार्थ का व्यवच्छेद होता है। यहां घंटा का के वाचकप्रवाद को सुनकर, कुछेक सुहृद् उसको दर्शन दृष्टांत वक्तव्य है। विषयक अनेक प्रश्न पूछते हैं। उन प्रश्नों का समुचित ७२१. उच्छुकरणोव कोट्ठगपडणं घंटा सियालनासणया। समाधान न दे पाने के कारण लोग सोचते हैं-ओह ! इनका विगमाई पुच्छ परंपराएँ नासंति जा सीहो। प्रवचन व्यर्थ है। इनके गच्छ में ऐसे वाचकपद पर अधिष्ठित ७२२. पडियरिउं सीहेणं, स हओ आसासिया मिगगणा य।। हैं, जो कुछ नहीं जानते। यह सोचकर कुछ व्यक्ति देशविरति, _ इय कइवयाइं जाणइ, पयाणि पढमिल्लुगुस्सारी॥ कुछ सर्वविरति स्वीकार करने के इच्छुक भी विपरिणत ७२३. किं पि त्ति अन्नपुट्ठो, पच्चंतुस्सारणे अवोच्छित्ती। होकर प्रवचन को छोड़ देते हैं।) गीताऽऽगमण खरंटण, पच्छित्तं कित्तिया चेव॥ ७२५. अज्जस्स हीलणा लज्जणा य गारविअकारणमणज्जे। एक इक्षुवाटक था। उसकी रक्षा के लिए 'उवक' आयरिए परिवाओ, वोच्छेदो सुतस्स तित्थस्स॥ खातिका खोदी गई। एक बार उसमें एक सियार गिर गया। जो मुनि आर्य है और अभी तक उसे वाचक पद की इक्षुवाटक के स्वामी ने उसे पकड़कर उसके गले में घंटा योग्यता प्राप्त नहीं है, वह अपने लिए प्रयुक्त 'वाचक' पद से बांधकर उसे मुक्त कर दिया। उसे देखकर अन्य सियार हीलणा और लज्जा अनुभव करता है। और अनार्य के लिए भागने लगे। उन्हें भागते हुए देखकर भेड़ियों ने उनसे पूछा। वही वाचक शब्द गौरव का कारण बनता है। आचार्य का उत्तर सुनकर वे भी पलायन करने लगे। इस प्रकार एक- परिवाद होता है, तथा श्रुत और तीर्थ का व्यवच्छेद होता है। दूसरे को देखकर जंगल के सभी पशु भागने लगे। एक सिंह ७२६. पवयणवोच्छेए वट्टमाणो जिणवयणबाहिरमईओ। ने उनको भागने का कारण पूछा। सिंह ने छानबीन कर जान बंधइ कम्मरय-मलं, जर-मरणमणंतयं घोरं ।। लिया कि यह घंटासियार है। सिंह ने उसे मार कर सभी प्रवचन का व्यवच्छेद करने के लिए प्रवर्तमान तथा जिन आरण्यक पशुओं को आश्वस्त कर उनको भयमुक्त कर वचन से बाह्यमतिवाला वह उत्सारकल्पिक वाचक अनंत जरादिया। मरण का निमित्तभूत घोरकर्मरजोमल का बंधन करता है। इसी प्रकार प्रथम उत्सारिक शिष्य कुछेक सूत्रालापक ७२७. आणा विकोवणा बुज्झणा य उवओग निज्जरा गहणं। पदों को जानते हैं। उनके पास पढ़ने वाले कुछेक आलापकों गुरुवास जोग सुस्सूसणा य कमसो अहिज्जंते॥ को जान पाते हैं, अर्थ को नहीं। दूसरों के द्वारा पूछने पर वे क्रमपूर्वक सूत्र का अध्ययन करने पर ये गुण निष्पन्न होते कहते हैं यह भी कोई अंग-उपांग का श्रुत है। तुम हैं-तीर्थंकरों की आज्ञा की आराधना होती है, शिष्य का योगवहन करो। वे प्रत्यंत ग्राम में जाकर सूत्रार्थ का व्युत्पादन होता है, मंदबुद्धि शिष्य की भी प्रबुद्धता संपादित उत्सारण करते हैं। वे कहते हैं हम सूत्रार्थ की होती है, श्रुत में निरंतर उपयुक्तता होती है, इससे निर्जरा अव्यवच्छित्ति करते हैं। उसी ग्राम में गीतार्थ मुनियों का और श्रुतार्थ का सम्यक् ग्रहण होता है। गुरुकुलवास में रहने Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० 3 के कारण सूत्रार्थ का योग होता है। शुश्रूषा का अवसर मिलता है। इसलिए क्रमशः अध्ययन करना चाहिए। ७२८. इय दोस- गुणे नाउं उक्कम कमओ अहिज्जमाणाणं । उभयविसेसविहिन्नू, को वंचणमब्भुवेज्जाहि ॥ इस प्रकार उत्क्रम तथा क्रमपूर्वक श्रुताध्ययन के क्रमशः दोष तथा गुणों को जानकर उभयविशेषविधिज्ञ मुनि, उत्सारकल्प करने कराने में कौन आत्मवंचना करेगा ? ७२९. जइ नत्थि कओ नामं, असइ हु अत्थे न होइ अभिहाणं । तम्हा तरस पसिद्धी अभिहाणपसिद्धि सिद्धा ।। यदि उत्सारकल्प नहीं है तो उसका नाम कहां से आया ? अविद्यमान द्रव्य का कोई अभिधान नहीं होता। अतः अभिधान की प्रसिद्धि से ही अर्थ द्रव्य की प्रसिद्धि सिद्ध होती है। - ७३०. जइ सव्वं वि व नामं, सत्थगं होज्ज तो भवे बोसो । जम्हा सअत्थगत्ते, सअत्थगत्ते, भजियं तम्हा अणेमंती ॥ यदि सारे नाम सार्थक हो तो हमारे द्वारा प्रस्तुत उत्सारकल्प नाम में दोष हो सकता है। नाम सार्थक भी होते हैं और निरर्थक भी उनमें भजना है। इसलिए यह अनेकांत है कि असदभूत अर्थ का अभिधान नहीं होता। सद्भूतार्थ का नाम होता है। ७३१. निकारणम्मि नाम, पि निच्छिमो इच्छिमो अ कज्जम्मि । उस्सारकप्पियस्स उ, चोयग ! सुण कारणं तं तु ॥ वत्स ! हम निष्कारण नाम भी नहीं चाहते। कारण अर्थात् प्रयोजन होने पर उत्सारकल्पिक का नाम और अर्थ की भी इच्छा करते हैं। तुम उस कारण को सुनो। ७३२. आधार विह्निवायत्यजाणए पुरिस कारणविहिनू । संविग्गमपरितंते, अरिह उस्सारणं कार्ड ॥ जो आचारांग तथा दृष्टिबाद पर्यन्त आगमों का ज्ञाता है तथा जो यह जानता है कि यह पुरुष उत्सारकल्प के योग्य है। या नहीं तथा जो उत्सारकल्प करने के कारणों को जानता है, जो संविग्न है तथा जो सूत्रार्थ को ग्रहण करवाने में अपरिश्रान्त होता है, वही उत्सारणाकल्प करा सकता है, वही अहं होता है। ७३३. अभिगए पडिब संविगे अ सलदिए । अवद्विए अ मेहावी, मेहावी, पडिबुज्झी जोअकारए । अभिगत, प्रतिबद्ध, संविग्न, सलब्धिक, अवस्थित, मेधावी प्रतिबोधी और योगकारक ऐसा पुरुष ही उत्सारकल्पयोग्य होता है । (व्याख्या आगे ।) ७३४. सम्मत्तम्मि अभिगओ, विजाणओ वा वि अब्भुवगओ वा । सज्झाए पडिबद्धो गुरूसु नीएल्लएसुं वा ॥ बृहत्कल्पभाष्यम् अभिगत के तीन अर्थ है- सम्यक्त्व को अभिमुखता से प्राप्त, जीव- अजीव आदि तत्त्वों का विज्ञायक, 'गुरुसेवा नहीं छोडूंगा' - ऐसा अभ्युपगम करने वाला। प्रतिबद्ध के तीन अर्थ है स्वाध्याय के प्रति प्रतिबद्ध, गुरु के प्रति स्थिरममत्वानुबद्ध तथा ज्ञाती संयमियों के प्रति संजातप्रेमवाला । ७३५. संविग्नो दव्य मिओ, भावे मुलुत्तरेस उ जयंती। लद्धी आहाराइसु, अणुओगे धम्मकहणे य॥ संविग्न के दो प्रकार हैं- द्रव्यसंविग्न और भावसंविग्न। द्रव्यसंविग्न है मृग जो सदा सर्वदा भयभीत रहता है। जो मूलगुण और उत्तरगुणों में यतमान है वह भावसंविग्न है। जो आहार आदि की लब्धि से युक्त है तथा जो अनुयोग देने और धर्मकथन में लब्धियुक्त है, वह सलब्धिक होता है। ७३६. लिंग बिहारेऽवडिओ, मेरामेहावि गहणओ भइओ । पडिबुज्झइ जं कत्थइ, कुणइ अ जोगं तदट्टुस्स ॥ अवस्थित के दो प्रकार हैं-लिंग से अवस्थित और विहार से अवस्थित जो लिंग को नहीं छोड़ता वह लिंगावस्थित है और जो संविग्न विहार को नहीं छोड़ता वह विहारावस्थित है। मेधावी के दो प्रकार हैं- ग्रहणमेधावी तथा मर्यादामेधावी । उत्सारकल्प में ग्रहणमेधावी की भजना है। जो कहे हुए को सारा जानता है वह प्रतिबोधी होता है। उसके लिए जो सूत्र उत्सारित किया जाता है, उसके अर्थ-ग्रहण में जो व्यापृत होता है, वह योगकारक है। ७३७. अभिगय बिर संविग्गे, गुरुअमुई जोगकारए चेव । दुम्मेहसलन्दीए, पडिबुज्झी परिणय विणीए ॥ ७३८. आयरियवण्णवाई, अणुकूले धम्मसलिए चेव । एतारिसे महाभागे, उस्सारं काडमरिहइ ॥ ( अन्य आचार्य के आधार पर उत्सारकल्पिक के गुण) अभिगत - प्रबुद्ध, स्थिर, संविग्न, गुरु को न छोड़ने वाला, योगकारक, दुर्मेधा होने पर भी सलब्धिक, प्रतिबोधी, परिणत, विनीत, आचार्य का वर्णवादी - गुणोत्कीर्तन करने वाला, अनुकूल, धर्मश्रद्धी, ऐसा महाभाग उत्सारकल्प कर सकता है। ७३९. अणभिगयमाइआणं, उस्सारिंतस्स चउगुरू होंति । उग्गहणम्मि वि गुरुगाऽकालमसज्झायऽवक्खेवे ॥ जो आचार्य इन गुणों से विपरीत गुणों वाले को उत्सारकल्प करवाते हैं तो वे प्रत्येक के लिए चार-चार गुरुमास प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। जो शिष्य अवग्रहण करने में समर्थ है, उसको यदि निष्कारण ही उत्सार किया जाता है तो भी चार गुरुक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तथा जब तक उत्सारकल्प किया जाता . Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका है तब तक अकाल, अस्वाध्यायिक तथा व्याक्षेप करने पर चार गुरुक का प्रायश्चित है। ७४०, गच्छो अ अलचीओ ओमाणं चेव अणहिवासा य गिहिणो अ मंदधम्मा, सुद्धं च गवेसए उबहिं ॥ यदि किसी आचार्य का पूरा गच्छ अलब्धिक है, उसका उस क्षेत्र विशेष में अपमान होता है, शिष्य शीत आदि परीषों को सहने में असमर्थ हैं, वहां के गृहस्थ मंदधर्मा हैं, 'शुद्ध उपधि की गवेषणा करनी चाहिए' यह भगवद् वाणी है । परन्तु वहां हर किसी को वैसी उपाधि प्राप्त नहीं हो सकती, तब दुर्मेधा लब्धिक मुनि को उत्सारकल्प द्वारा कल्पिक किया जाता है। ७४१. हिंडउ गीयसहाओ, सलद्धि अह ते हणंति से लद्धिं । तो एक्कओ वि हिंडइ, आयारुस्सारियसुअत्थो ॥ वह कल्पिक लब्धिमान् मुनि गीतार्थ मुनि के साथ वस्त्रैषणा के लिए घूमे। यदि उसकी लब्धि का हनन होता हो तो वह एकाकी घूमे। क्योंकि उसे आचारांग के अंतर्गत वस्त्रैषणा का सूत्रार्थ उत्सारकल्प द्वारा ग्रहण करवाया जा चुका है। ७४२, भिक्खु वह तरह बद्दल, अभागयेज्जो जहिं तहिं न पडे। दुग-तिगमाईभेदे, पss तहिं जत्थ सो नत्थि ॥ पांच सौ व्यक्तियों का एक सार्थ जा रहा था। उस सार्थ के साथ एक रक्तपटवाला भिक्षु भी हो गया। सार्थ अटवी में प्रविष्ट हुआ। सभी तृषा से व्याकुल होने लगे दूर बावल बरस रहे थे। परंतु सार्थ पर वर्षा नहीं हो रही थी । वह भिक्षु निर्भागी था। वह पांच सौ व्यक्तियों के पुण्य का उपहनन कर रहा था। तब सार्थ को दो-तीन आदि भागों में बांट दिया। वह मिक्षु जिस भाग के साथ होता, वहां पानी नहीं बरसता, शेष सर्वत्र स्थानों में वर्षा होती। इस प्रकार दूसरों के पुण्य का उपहनन होता है। ७४३. भिक्खं वा वि अडतो, बिईय पढमाऍ अहव सव्वासु । सहिओ व असहिओ वा, उप्पाए वा पभावे वा ॥ भिक्षा के लिए घूमता हुआ अथवा पहली दूसरी पौरुषी में या सभी पौरुषियों में वस्त्रों के उत्पादन के लिए घूमे। वह गीतार्थ मुनि के साथ अथवा अकेला ही वस्त्रों का उत्पादन करे, लोगों को प्रभावित कर वस्त्रदान के लिए प्रेरित करे। समोयरणहेउं । ७४४. कालिय आणुओगम्मि गंडियाणं उस्सारिंति सुविहिया, भूयावायं न अन्नेणं ॥ जिस मुनि को अभी दृष्टिवाद पढ़ने की पर्याय प्राप्त नहीं है, जो कालिकश्रुतानुयोग से धर्मकथा कर रहा है, उसके ८१ लिए गंडिकाओं के समवतार के लिए सुविहित आचार्य भूतवाद अर्थात् दृष्टिवाद का उत्सारण करते हैं। अन्य किसी कारण से नहीं । ७४५, सज्झायमसन्झाए सुद्धासुद्धे व उहिसे काले। दो दो अ अणोएसुं, ओएसु उ अंतिमं एक्कं ॥ ७४६. एगंतरमायंबिल बिगईए मक्खियं पि वज्जेति । जावइअं च अहिज्जइ तावइयं उद्दिसे केइ ॥ उत्सारकल्प में स्वाध्यायिक में अथवा अस्वाध्यायिक में. शुद्ध अथवा अशुद्ध काल में विवक्षितश्रुत का उद्देशन दे, उसमें व्याघात न करे। जिस अध्ययन के 'अनोज' अर्थात् सम उद्देशक हों, जैसे-दो, चार, छह, आठ आदि, वे दो-दो के आधार पर उद्दिष्ट करे तथा जिस अध्ययन के 'ओज' अर्थात् विषम उद्देशक हों तो अंतिम दिन एक ही उद्देशक उद्दिष्ट करे। वह एकान्तर आचाम्ल करे तथा विकृति से खरंटित का भी वर्जन करे। कुछ आचार्य कहते हैं जितने परिमाण में वह श्रुत का अध्ययन करे, उतने परिमाण में उसको उद्दिष्ट करे। (यदि कोई मेधावी शिष्य हो और वह अनेक अध्ययनों की अवगति कर लेता है तो उसे सारे अध्ययन उद्दिष्ट करें।) ७४७. आहारे उपकरणे, पडिलेहण लेव खित्तपडिलेहा | अप्पाहारो परिहारे मोअ जह अप्पनिहो अ॥ जो उत्सारकल्प करने लग गया है उसके आहारग्रहण, उपकरण-प्रत्युपेक्षण, लेपग्रहण, क्षेत्रप्रत्युपेक्षा में व्याक्षेप नहीं करना चाहिए। उसके अल्पाहार हो वैसा प्रयत्न करना चाहिए। इस अल्पाहार से ही परिहार अर्थात संज्ञा तथा कायिकी अल्प हो सकती है। वह अल्पनिद्रा वाला हो, ऐसा प्रयत्न होना चाहिए। ७४८. हिंडाविंति न वा णं, अहवा अन्नट्टया न सो अडइ । पेहिंति व से उवहिं, पेहेइ व सो न अन्नेसिं ॥ आचार्य उस उत्सारकल्पिक को भिक्षा के लिए न भेजे। अथवा असंस्तरण हो तो उसे भेजा जा सकता है। वह दूसरों के प्रयोजन से कहीं नहीं जाता उसकी उपाधि की प्रत्युपेक्षा दूसरे साधु करते हैं। वह दूसरों की उपधि की प्रत्युपेक्षा नहीं करता । ७४९. एमेव लेवगहणं, लिंपइ वा अप्पणो न अन्नस्स । खेत्तं च न पेहावे, न यावि तेसोवहिं पेहे ॥ इसी प्रकार लेपग्रहण अर्थात् पात्रलेपन भी दूसरे मुनि करते हैं अथवा वह स्वयं अपने पात्र का लेपन करता है, दूसरे का नहीं। क्षेत्रप्रत्युपेक्षा के लिए उसे न भेजे और न वह क्षेत्रप्रत्युपेक्षकों की उपधि की प्रत्युपेक्षा करे । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ - =बृहत्कल्पभाष्यम् ७५०. दिति पणीयाहारं, न य बहुगं मा हु जग्गतोऽजिण्णं। ७५६. तेणे सावय ओसह, खित्ताई वाइ सेहवोसिरणे। मोआइनिसग्गेसु अ, बहुसो मा होज्ज पलिमंथो॥ आयरिय-बालमाई, तदुभयछेए य बिहयपयं॥ आचार्य उसको प्रणीत आहार दे, जिससे कि वह चोर के भय से, श्वापद के भय से, आगाढ़रोगी को दृष्टिवाद आदि के सूत्रार्थों की अनुप्रेक्षा कर सके। उसको औषधि देने के लिए, क्षिप्तचित्त आदि के कारण, वादी का प्रणीत आहार बहुमात्रा में न दे। उसकी अधिक मात्रा से रात निग्रह करने के लिए, शैक्ष का व्युत्सर्जन करने के लिए में सूत्रार्थ के निमित्त जागते रहने के कारण अजीर्ण रोग होने आचार्य-बाल आदि के लिए तथा 'तदुभयच्छेद'-सूत्र और की संभावना रहती है। इसलिए वे उसे अल्पमात्रा में प्रणीत अर्थ-दोनों के व्यवच्छेद की स्थिति में इन सारे स्थानों में आहार देते हैं। रूक्षाहार से कायिकी का निस्सरण अधिक अपवादपद में चारों प्रकार की चंचलताएं विहित हैं। होता है, उससे पलिमंथ अर्थात् सूत्रार्थ का व्याघात होता है। ७५७. दुविहो लिंग विहारे, एक्केको चेव होइ दुविहोउ। स्निग्ध आहार से वैसा नहीं होता। चउरो य अणुग्घाया, तत्थ वि आणाइणो दोसा। ७५१. गइ-ठाण-भास-भावे, लहुओ मासो उ होइ एक्कक्के। अनवस्थित दो प्रकार का है-लिंग अनवस्थित और आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमाऽऽयाए॥ विहार अनवस्थित। प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं। चार मास चंचल के चार प्रकार हैं-गतिचंचल, स्थानचंचल, भाषा- अनुद्घात (गुरुमास) तथा आज्ञाभंग आदि दोष। (व्याख्या चंचल तथा भावचंचल। इनमें प्रत्येक के एक-एक लघुमास आगे)। का प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग आदि दोष, संयमविराधना तथा ७५८. गिहिलिंग अन्नलिंगं, जो उ करेई स लिंगओ दुविहो। आत्म-विराधना-ये होते हैं। चरणे गणे अ अथिरो, विहारअणवट्ठिओ एस॥ ७५२. दावद्दविओ गइचंचलो उ ठाणचवलो इमो तिविहो। जो साधु गृहलिंग-गृहस्थ का वेष, अथवा अन्यतीर्थिकों कुड्डादऽसई फुसइ व, भमइ व पाए व विच्छुभइ। का वेष करता है वह दोनों प्रकार के लिंग से अनवस्थित है। जो द्रावद्रविक-अत्यंत द्रुतगामी होता है, वह गतिचंचल जो चरण और गण में अस्थिर होता है, वह दोनों प्रकार से है। स्थानचंचल के तीन प्रकार हैं-भीत आदि का बार-बार विहार से अनवस्थित है। स्पर्श करने वाला, जो शरीर के अवयवों को घुमाता रहता है, ७५९. उग्गहण धारणाए, मेराए चेव होइ मेधावी। जो पैरों को बार-बार संकुचित करता है, फैलाता है। तिविहम्मि अहीकारो, मेरासंजुत्तो मेहावी॥ ७५३. भासाचपलो चउहा, अस त्ति अलियं असोहणं वा वि। मेधावी के तीन प्रकार हैं-अवग्रहणमेधावी, धारणामेधावी असभाजोग्गमसब्भं, अणूहिउं तं तु असमिक्खं॥ और मर्यादामेधावी। प्रस्तुत में तीनों प्रकार के मेधावियों में भाषाचपल के चार प्रकार हैं-असत्प्रलापी, असभ्यप्रलापी, मर्यादामेधावी का अधिकार है। जो मर्यादा से संयुक्त होता है, असमीक्षितप्रलापी, अदेशकालप्रलापी। असत् अर्थात् अलीक वह मर्यादामेधावी है। अथवा अशोभन-गर्व आदि से दूषित वचन बोलना। असभ्य ७६०. परिसाइ अपरिसाई, दव्वे भावे य लोग उत्तरिए। अर्थात् असभायोग्यवचन बोलना। बिना सोचे-समझे बोलना एकेको वि य दुविहो, अमच्च बडुईए दिटुंतो। असमीक्षितवचन है। दो प्रकार के व्यक्ति होते हैं-परिस्रावी और अपरिस्रावी। ७५४. कज्जविवत्तिं द8, भणाइ पुव्विं मए उ विण्णायं। दोनों के दो-दो प्रकार हैं। द्रव्यतः परिस्रावी और अपरिस्रावी ___ एवमिदं तु भविस्सइ, अदेसकालप्पलावी उ॥ तथा भावतः परिस्रावी और अपरिस्रावी। इनके दो-दो भेद कोई कार्यविपत्ति कार्य के विनाश को देखकर कहता। हैं-लौकिक और लोकोत्तरिक। लौकिक भावतः परिस्रावी में है-'मैंने पहले ही वह जान लिया था कि यह कार्य ऐसा ही अमात्य का दृष्टांत तथा लौकिक भावतः अपरिस्रावी में होगा।' इस प्रकार कहने वाला अदेशकालप्रलापी होता है। बटुकी का दृष्टांत है। (लोकोत्तरिक भावतः परिस्रावी मुनि ७५५. जं जं सुयमत्थो वा, उद्दिष्टुं तस्स पारमप्पत्तो। पूछने पर अथवा न पूछने पर भी अपरिणत मुनि को अन्नन्नसुयदुमाणं पल्लवगाही उ भावचलो॥ अपवादपद के रहस्य बता देता है। लोकोत्तरिक भावतः जो-जो श्रुत और अर्थ उद्दिष्ट है, उसका पार प्राप्त न कर परिस्रावी मुनि को छेदसूत्रों के रहस्य तथा अपवाद पदों के अन्यान्य श्रुतरूपी वृक्षों के यत्र-तत्र आलापकों को ग्रहण करता विषय में पूछने पर अपरिणत को कहता है-आज गोष्ठी में है, वह पल्लवग्राही होता है। वह है भावचपल या भावचंचल। चरण करण की प्ररूपणा विषयक चर्चा थी।) १. दोनों दृष्टांतों के लिए देखें-कथा परिशिष्ट नं. ३७,३८। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका = ७६१. विदु जाणए विणीए, उववाए जो उ वट्टए गुरूणं। जो कहा गया है, वह यहां भी कहना चाहिए। गाणंगणिक के तविवरीयऽविणीए, अदिंत चिंते अ लहु-गुरुगा॥ विषय में आगे कहूंगा। विद्वान ज्ञायक विनीत होता है। वह गुरु के उपपात अर्थात् ७६८. छम्मास अपूरित्ता, गुरुगा बारससमासु चउलहुगा। आज्ञा-निर्देश में रहता है। उसको यदि सूत्र की वाचना नहीं दी तेण परं मासलहू, गाणंगणि कारणे भइतो॥ जाए तो चतुर्लघु और अर्थ की वाचना न दी जाए तो चतुर्गुरु उपसंपन्न मुनि छह मास को पूरा किए बिना एक गण का प्रायश्चित्त आता है। इसके विपरीत जो अविनीत है, उसको से दूसरे गण में जाता है तो उसे चार गुरुक का तथा यदि सूत्र की वाचना दी जाती है तो चतुर्लघु और अर्थ की वाचना पश्चात् बारह वर्षों को पूरा किए बिना यदि गाणंगणिक दी जाती है तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। होता है तो चतुर्लघु, फिर गाणंगणिक होने पर मासलघु का ७६२. तितिणिए चलचित्ते, गाणंगणिए अ दुब्बलचरित्ते। प्रायश्चित्त विहित है। गाणंगणिकत्व ज्ञान, दर्शन, चारित्र में आयरियपारिभासी, वामावट्टे य पिसुणे य॥ से किसी कारण के समुत्पन्न होने पर किया जाता है, यह ७६३. आदीअदिट्ठभावे, अकडसमायारि तरुणधम्मेय। मान्य है। गब्विय पइण्ण निण्हइ, छेअसुए वज्जए अत्थं॥ ७६९. मूलगुण उत्तरगुणे, पडिसेवइ पणगमाइ जा चरिमं। निम्नोक्त मुनियों को छेदसूत्र के अर्थ की जानकारी न दे धिइ-वीरियपरिहीणो, दुब्बलचरणो अणट्ठाए। तिन्तिणिक, चलचित्त, गाणंगणिक, दुर्बलचारित्री, आचार्य- जो धृति और वीर्य से परिहीन तथा दुर्बलचारित्री है, वह परिभाषी, वामावर्त्त, पिशुन, आद्यदृष्टभाव, अकृत- बिना किसी पुष्ट आलंबन के मूल और उत्तरगुण विषयक सामाचारीक, तरुणधर्मा, गर्वित, प्रकीर्णक, और निह्नवी। अपराधों की प्रतिसेवना करता है, जिनका जघन्य प्रायश्चित्त (व्याख्या आगे) है पांच दिन-रात का तथा उत्कृष्ट प्रायश्चित्त है चरम ७६४. डझंतं तिंबुरुदारुयं व दिवसं पि जो तिडितिडेइ। अर्थात् पारांचिक, ऐसे साधु को छेदसूत्र की अर्थ-वाचना अह दव्वतिंतिणो भावओ उ आहारुवहि-सेज्जा। नहीं देनी चाहिए। तिंबुरुक वृक्ष की लकड़ी जब जलती है तब बट्-त्रट ऐसे ७७०. पंचमहव्वयभेदो, छक्कायवहो अ तेणऽणुन्नाओ। शब्द करती है। इसी प्रकार गुरु द्वारा उपालब्ध शिष्य सुहसील-ऽवियत्ताणं, कहेइ जो पवयणरहस्सं।। दिनभर 'बट-बट्' की आवाज करता रहता है। वह द्रव्य जो आचार्य प्रवचनरहस्य अर्थात् छेदसूत्रों का अर्थ तिन्तिणिक है। भाव तिन्तिणिक के तीन प्रकार हैं-आहार सुखशील और अव्यक्त शिष्यों को बताते हैं. वे पांच महाव्रतों विषयक, उपधि विषयक तथा शय्या-वसति विषयक। के भेद तथा षट्जीवनिकाय के वध के अनुज्ञापक होते हैं। ७६५. अंतो-बहिसंजोअण, आहारे बाहि खीर-दधिमाई। ७७१. निस्साणपदं पीहइ, अनिस्साणविहारयं न रोएइ। अंतो उ होइ तिविहा, भायण हत्थे मुहे चेव॥ तं जाण मंदधम्म, इहलोगगवेसगं समणं॥ आहार विषयक संयोजना दो प्रकार की होती है-अन्तर् तुम उस श्रमण को मंदधर्मा और इहलोकगवेषक जानो और बाहिर। बहिर होती है-दूध, दही आदि में लोलुपता वश जो निश्राणपद-अपवाद पद की स्पृहा करता है तथा जिसे उसमें कुछ मिलाना। अन्तर् संयोजना के तीन प्रकार अनिश्राणविहारिता रुचिकर नहीं लगती। हैं-भाजन विषयक, हाथ विषयक तथा मुख विषयक। ७७२. डहरो अकुलीणो त्ति य, दुम्मेहो दमग मंदबुद्धि त्ति। ७६६. एमेव उवहि सेज्जा, गुणोवगारी उ जस्स जं होइ। अवि अप्पलाभलद्धी, सीसो परिभवइ आयरियं॥ सो तेण जायेयंतो, तदभावे तिंतिणो होइ॥ कोई शिष्य आचार्य को बालक, अकुलीन, दुर्मेधाइसी प्रकार उपधि और शय्या विषयक संयोजना जाननी मंदप्रज्ञ, द्रमक-दरिद्र, मंदबुद्धि, अल्पलाभलब्धि आदि-आदि चाहिए। जिसके लिए जो गुणोपकारी होता है, वह उस वस्तु कहकर उनका परिभव करता है। की उसी के साथ संयोजना करता है। उसके अभाव में वह ७७३. सो वि य सीसो दुविहो, पव्वावियगो अ सिक्खओ चेव। उस विषयक तिन्तिणिक हो जाता है। सो सिक्खओ अ तिविहो, सुत्ते अत्थे तदुभए य॥ ७६७. चलचित्तो भावचलो, उस्सग्गऽववायतो उ जो पुव्विं। वैसा शिष्य भी दो प्रकार का होता है-प्रव्रजित तथा भणितो सो चेव इहं, गाणंगणियं अतो वोच्छं॥ शिक्षक। शिक्षक-गच्छान्तर से आया हुआ मुनि। उसके तीन चलचित्त यहां भावचल के रूप में गृहीत है। उत्सर्ग और प्रकार हैं-सूत्र के लिए समागत, अर्थ के लिए समागत अथवा अपवाद के आधार पर पूर्व में अचंचलद्वार (गाथा ७५५) में सूत्रार्थ के लिए समागत। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७४. एहि भणिओ उ बच्चइ, वच्चसु भणिओ दुतं समल्लिया। जं जह भण्णति तं तह, अकरेंतो वामवट्टो उ॥ 'आओ' कहने पर जो चला जाता है, 'जाओ' कहने पर जो शीघ्र ही आकर पास में बैठ जाता है। जिस कार्य को जैसे करने के लिए कहा जाता है, उसको वैसे न करने वाला वामावर्त्त कहलाता है। ७७५. पीईसुण्णण पिसुणो, गुरुगाइ चउण्ह जाव लहुओ उ। अहव असंतासंते, लहुगा लहुगो गिही गुरुगा॥ जो प्रीति को शून्य करता है वह पिशुन होता है। जो गुरु के प्रति पैशून्य करता है, उसे चतुर्गुरु तथा उपाध्याय आदि के प्रति पिशुनता करने पर चतुर्लघु आदि प्रायश्चित्त आता है। अथवा असदूषण विषयक पैशून्य में चार लघु, सदूषण में लघुमास का प्रायश्चित्त है। गृहस्थ विषयक ये ही प्रायश्चित्त गुरुक हो जाते हैं। ७७६. आवासगमाईया, सूयगडा जाव आइमा भावा। ते उ न दिट्ठा जेणं, अदिट्ठभावो हवइ एसो॥ आवश्यकसूत्र से सूत्रकृतांग पर्यन्त जो अभिधेय हैं वे आदिम--अदृष्ट भाव कहलाते हैं। जिस मुनि ने इनको नहीं जाना है वह अदृष्टभाव कहलाता है। ७७७. दुविहा सामायारी, उवसंपद मंडली' बोधव्वा। अणालोइयम्मि गुरुगा, मंउलिमेरं अतो वोच्छं॥ सामाचारी के दो प्रकार हैं-उपसंपदा में होने वाली तथा मंडली में होने वाली। गच्छान्तर से उपसंपदा के लिए आने वाले मुनि को अनेक प्रश्न पूछे जाते हैं। यह उपसंपदा की सामाचारी है। जो आचार्य अनालोचित रूप में उपसंपदा देता है उसे चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त आता है। आगे मंडलीमेरा अर्थात् मंडली की सामाचारी कहूंगा। ७७८. सुत्तम्मि होइ भयणा, पमाणतो यावि होइ भयणा उ। अत्थम्मि उ जावइया, सुणिंति थेवेसु अन्ने वि ॥ सूत्रमंडली में निषद्या की भजना है। यह भजना प्रमाणतः होती है-कभी दो, तीन, चार निषद्याएं भी होती हैं। अर्थमंडली में जितने मुनि अर्थ सुनते हैं वे सभी अपना-अपना कल्प निषद्याकारक को देते हैं। यदि अनुयोग ग्रहण करने वाले कम हों तो अन्य मुनि, जो अनुयोग को नहीं सुनते हैं, वे भी कल्प देते हैं। ७७९. मज्जण निसिज्ज अक्खा, किइकम्मुस्सग्ग बंदणग जेठे। परियाग जाइ सुअ सुणण समत्ते भासई जो उ॥ पहले अनुयोगमंडली का प्रमार्जन, निषद्या की रचना, अक्षों की स्थापना, कृतिकर्म, कायोत्सर्ग, ज्येष्ठ को वंदना करनी चाहिए। जिज्ञासु पूछता है-ज्येष्ठ कौन? पर्याय से -बृहत्कल्पभाष्यम् ज्येष्ठ अथवा जाति से अथवा श्रुत से अथवा अनेक परिपाटियों द्वारा अर्थश्रवण से ज्येष्ठ होता है ? आचार्य कहते हैं-वही ज्येष्ठ है जिसका व्याख्यान समर्थित होता है और जो अग्रणी होकर चिन्तनिका कराता है। ७८०. अवितहकरणे सुद्धो, वितह करेंतस्स मासियं लहुगं। ___ अक्ख निसिज्जा लहुगा, सेसेसु वि मासियं लहुगं॥ जो प्रमार्जन आदि पदों को अवितथरूप में करता है वह शुद्ध है। जो इनको वितथ करता है उसे मासिक का प्रायश्चित्त आता है। अक्षों की अस्थापना करने, गुरु की निषद्या न करने पर चार लघुक तथा शेष सभी में मासिक लघु का प्रायश्चित्त आता है। ७८१. तिण्हाऽऽरेण समाणं, होइ पकप्पम्मि तरुणधम्मो उ। पंचण्ह दसाकप्पे, जस्स व जो जत्तिओ कालो। व्रतपर्याय की अपेक्षा से तीन वर्ष से पूर्व मुनि निशीथाध्ययन के लिए तरुणधर्मा होता है। पांच वर्ष से दशाश्रुतस्कंध, कल्प और व्यवहार के लिए वह तरुणधर्मा होता है। जिस सूत्र का जितना कालमान है, उससे पूर्व वह उन आगमों के लिए तरुणधर्मा होता है। ७८२. पुरिसम्मि दुब्विणीए, विणयविहाणं न किंचि आइक्खे। न वि दिज्जइ आभरणं, पलियत्तियकन्न-हत्थस्स। जो दुर्विनीत पुरुष है उसके लिए विनयविधान कर्मों के विनयन का उपाय किंचित् भी प्रतिपादित नहीं करना चाहिए। क्योंकि कटे हुए कान और हाथ वाले व्यक्ति को कोई आभरण नहीं दिया जाता। ७८३. मद्दवकरणं नाणं, तेणेव उ जे मदं समुवहति। ऊणगभायणसरिसा, अगदो वि विसायते तेसिं॥ मार्दव अर्थात् मान का निग्रह करने वाला होता है ज्ञानश्रुतज्ञान। जो ज्ञान से दुर्विदग्ध हैं वे ज्ञान का अहंकार वहन करते हैं। जो अपूर्ण भरे घट के सदृश होते हैं, उनके लिए विषापहारी औषध भी विषरूप में परिणत हो जाती है। ७८४. सोउं अणभिगताणं, कहेइ अमुगं कहिज्जई इत्थं। एस उ पइण्णपण्णो, पइण्णविज्जो उ सव्वं पि॥ अर्थमंडली में रहस्यमय अर्थ को सुनकर, उसे अपरिणत मुनियों को बताता है कि अमुक कल्पनीय रूप में कहा गया है। वह बताने वाला मुनि प्रकीर्णप्रज्ञ अर्थात् रहस्यों को जानने वाला अथवा प्रकीर्णप्रश्न कहलाता है। प्रकीर्णविद्य मुनि अपरिणत मुनि को छेदसूत्र के उत्सर्ग-अपवाद सहित सब कुछ बता देता है। ७८५. अप्पच्चओ अकित्ती, जिणाण ओहाव मइलणा चेव। दुल्लहबोहीअत्तं, पावंति पइण्णवागरणा।। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका अपरिणत मुनियों को रहस्य के प्रति अविश्वास होता है, वे तीर्थंकरों की अकीर्ति करते हैं। वे उत्प्रवजन कर देते हैं। उनके ज्ञान आदि की मलिनता होती है। उनके लिए बोधि की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है। वे होते हैं-प्रकीर्णव्याकरण | ७८६. सुत्त ऽत्थ-तदुभयाइं, जो घेत्तुं निण्हवे तमायरियं । लहुया गुरुया अत्थे गेरुयनायं अबोही ब॥ जो मुनि किसी आचार्य के पास सूत्र, अर्थ और तदुभय को ग्रहण कर आचार्य के नाम का निह्ववन करता है, अपलाप करता है तो उसे प्रायश्चित प्राप्त होता है सूत्राचार्य के निवन पर चतुर्लघुक, अर्थदायक का निह्नवन करने पर चतुर्गुरुक, उभयाचार्य का अपलाप करने पर तदुभय प्रायश्चित्त आता है। यहां गेरुक-परिव्राजक का दृष्टांत है। गुरु का निह्ववन करने वाले को परलोक में बोधि प्राप्त नहीं होती। ७८७. उवयम विन्नाणे, न कहेयव्वं सूर्य व अत्थो वा । न मणी सयसाहस्सो, आविज्झइ कोत्थु भासस्स ॥॥ जो मति - विज्ञान का उपहनन करता है, उसे श्रुत और अर्थ का ज्ञान नहीं कहना चाहिए। शतसहस्र मूल्य वाला कौस्तुभमणि भास पक्षी के गले में नहीं बांधा जाता। ७८८. अव्वत्ते अ अपत्ते, लहुगा लहुगा य होंति अप्पत्ते । लहुगा य दव्यतिंतिणि, रसतिंतिणि होंति चतुगुरुगा ॥ अव्यक्त और अपात्र को सूत्रार्थ देने पर चतुर्लघुक का तथा अप्राप्स अर्थात् आद्यदृष्टभाव को सूत्रार्थ देने पर भी चतुर्लघुक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। द्रव्य तिन्तिणिक को देने पर भी चतुर्लघुक तथा रस तिन्तिणिक अर्थात् आहार तिन्तिणिक को देने पर चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त आता है। ७८९ अंत बहिं च गुरुगा, आवरिय गिलाण बाल बिअपयं आयरियपारिभासिस्स होति चउरो अणुग्धाया । अन्तर बहिर् संयोजना में चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त है। आचार्य, ग्लान और बालकों के लिए संयोजना करना अपवादपद है। जो मुनि आचार्य का परिभाषी होता है उसे चार अनुद्धात का प्रायश्चित्त आता है। ७९० तम्हा न कहेयव्वं, आयरिएणं तु पवयणरहस्सं । खेत्तं कालं पुरिसं, नाऊण पगासए गुज्झं ॥ इसलिए आचार्य को प्रवचनरहस्य जिस किसी को नहीं कहने चाहिए। उनको क्षेत्र, काल और पुरुष को भलीभांति जानकर गुह्य का प्रकाशन करना चाहिए। ७९१. चउभंगो अणुण्णाए, अणणुन्नाए अ पढमतो सुद्धो । सेसाणं मासलहू, अविणयमाई भवे दोसा ॥ १. दृष्टांत के लिए देखें-कथा परिशिष्ट नं. ३९ । ८५ अनुज्ञात और अननुज्ञात के आधार पर चतुभंगी होती है। उसमें प्रथम भंग शुद्ध है। शेष भंगों में मासलघु का प्रायश्चित्त तथा अविनय आदि दोष होते हैं। वह चतुभंगी इस प्रकार है १. अनुज्ञात अनुज्ञात को वाचना देता है। २. अनुज्ञात अननुज्ञात को वाचना देता है। ३. अननुज्ञात अनुज्ञात को वाचना देता है। १. अननुज्ञात अननुज्ञात को वाचना देता है। ७९२ परिणाम अपरिणामे, अइपरिणाम पडिसेह चरिमदुए। अंबाईदिट्ठतो, कहणा य इमेहिं ठाणेहिं ॥ परिणामक, अपरिणामक और अतिपरिणामक तीन प्रकार के शिष्य होते हैं। चरमद्विक अर्थात् अपरिणामक और अतिपरिणामक का प्रतिषेध करना चाहिए। इनको छेदसूत्र नहीं देना चाहिए। इन तीनों की परीक्षा के लिए आम्र आदि (वृक्ष, बीज) का दृष्टांत है। उनका अभिप्राय ग्रहण करने के पश्चात् आचार्य इन स्थानों प्रकारों से उनको उत्तर देना चाहिए। ७९.३. जो दव्यखेत्तकय-काल-भावओ जं जहा जिणकरवायें। तं तह सहहमाणं जाणसु परिणामयं सां ॥ ७९४. जो दव्व खेत्तकय-काल- भावओ जं जहा जिणक्खायं । तं तह असदहंतं, जाण अपरिणामयं अपरिणामयं साहुं ॥ जो मुनि द्रव्यकृत, क्षेत्रकृत, कालकृत और भावकृत को जिनेश्वरदेव ने जैसे कहा है, उस पर वैसी श्रद्धा रखता है उसे परिणामक जानना चाहिए। जो उन पर वैसी श्रद्धा नहीं रखता वह अपरिणामक होता है। 9 ७९५. जो दव्यखेत्तकय-काल- भावओ जं जहिं जया काले। - , तल्लेसुस्सुत्तमई, अइपरिणाम बियाणाहि ॥ जो वस्तु द्रव्यकृत, क्षेत्रकृत कालकृत और भावकृत है, उसको जहां और जिस काल में ग्राह्यरूप में कथित है, उसे आपवादिक ग्रहण में जिसकी लेश्या हो, आपवादिक सूत्र में जिसकी मति प्रबल हो, उस मुनि को अतिपरिणामक जानना चाहिए। ७९६. परिणम जहत्थेणं मई उ परिणामगस्स कज्जेस । बिइए न उ परिणमई, अहिगं मइ परिणमे तइओ ॥ परिणामक वह होता है जिसकी मति कार्य में यथार्थरूप से परिणत होती है। अपरिणामक की मति वैसे परिणत नहीं होती अतिपरिणामक की मति अधिक परिणत होती है। ७९७, दोस वि परिणमद मई, उस्सन्गऽववायओ उ पढमस्स बिइतस्स उ उस्सग्गे, अइअववाए य तइयस्स ॥ २. मतिः स्वाभाविकी, विज्ञानं च गुरूपदेशजम् । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ =बृहत्कल्पभाष्यम् __ परिणामक की मति उत्सर्ग और अपवाद-दोनों में परिणत होती है। दूसरे की अर्थात् अपरिणामक की मति केवल उत्सर्ग में ही परिणत होती है और तीसरे की अर्थात् अतिपरिणामक की मति अपवाद में ही परिणत होती है। ७९८. चेयणमचेयण भाविय, केहह छिन्ने अ कित्तिया वा वि। लद्धा पुणो व वोच्छं, वीमंसत्थं व वुत्तो सि॥ आचार्य ने तीनों प्रकार के शिष्यों की परीक्षा करने के निमित्त कहा-'आर्यो ! हमें आम्र चाहिए।' (गाथा ७९२ में उक्त दृष्टांत) यह सुनकर परिणामक शिष्य कहता है-भंते! आम्र चेतन या अचेतन ? भावित (लवणादि से) या अभावित? कितने प्रमाण वाले अर्थात् बड़े या छोटे? छिन्न (टुकड़े किए) या अछिन्न? कितनी संख्या में? कौन से आम्र लाऊं? तब आचार्य कहते हैं-वत्स! वे प्राप्त हो गए हैं। भविष्य में जब आवश्यकता होगी तो तुमको कहूंगा। अथवा वत्स! मैंने तो आम्र लाने की बात विमर्श करने के लिए, तुम्हारी परीक्षा करने के लिए, कही थी। ७९९. किं ते पित्तपलावो, मा बीयं एरिसाइं जंपाहि। मा णं परो वि सोच्छिहि, कहं पि नेच्छामो एयस्स॥ अपरिणामक शिष्य कहता है-ओ आचार्य! क्या आपके पित्त का प्रकोप हो गया है कि आप आम्र लाने की बात कह रहे हैं? दूसरी बार ऐसा कभी मत कहना। आपके ये वचन दूसरे भी सुनेंगे। हम भी आपके ऐसे सावध वचन सुनना नहीं चाहते। ८००. कालो सिं अइवत्तइ, अम्ह वि इच्छा न भाणिउंतरिमो। किं एच्चिरस्स वुत्तं, अन्नाणि वि किं व आणेमि।। अतिपरिणामक शिष्य कहता है-क्षमाश्रमण! यदि आम्र की आवश्यकता है तो अभी ले आता हूं। आम्र का यह काल बीत रहा है। हमारी भी आम्र के प्रति इच्छा है, परंतु हम उसको व्यक्त नहीं कर सकते। आपने इतने दिनों बाद क्यों । कहा? क्या मैं अन्य फल भी आपके लिए ले आऊं? ८०१. नाभिप्पायं गिण्हसि, असमत्ते चेव भाससी वयणे। सुत्तंबिल-लोणकए, भिन्ने अहवा वि दोच्चंगे। यह सुनकर आचार्य अपरिणामक शिष्य और अतिपरिणामक शिष्य को यह कहे-तुमने मेरे अभिप्राय को नहीं जाना। मेरे वचन को पूरा सुने बिना तुम ऐसा वचन कह रहे हो। मैं कह रहा था कि शुक्लाम्ल लवण से भावित, छिन्नभिन्न किए हुए तथा 'दोच्चंग-भोजन का द्वितीय अंग अर्थात् शाकरूप में पकाए हुए आम्र लाने हैं। ८०२. निप्फाव-कोद्दवाईणि बेमि रुक्खाणि न हरिए रुक्खे। अंबिल विद्धत्थाणि अ, भणामि न विरोहणसमत्थे। बीज आदि के विषय में भी आचार्य कहे-शिष्यो! निष्पाव, कोद्रव आदि जो रूक्ष हों-सूख गए हों, उनके विषय में कहा था। न कि हरित वृक्षों के लिए। जो बीज अम्लभावित हैं, विध्वस्तयोनिक हैं, उनके विषय में कहा था। जो उगने में समर्थ हों उन बीजों के विषय में नहीं। ८०३. निदा-विगहापरिवज्जिएण, गुत्तिदिएण पंजलिणा। भत्ती बहुमाणेण य, उवउत्तेणं सुणेयव्वं ॥ ८०४. अभिकखंतेण सुभासियाई वयणाई अत्थमहराई। विम्हियमुहेण हरिसागएण हरिसं जणतेण॥ सुनने की कलानिद्रा और विकथा का परिवर्जन कर , गुप्लेन्द्रिय होकर, हाथ जोड़कर, भक्ति और बहुमानपूर्वक, उपयुक्त अर्थात तल्लीन होकर सुनना चाहिए। सुभाषित वचन, जो अर्थमधुर हों उनकी अभिकांक्षा करता हुआ मुनि विस्मितमुख से हर्षागत होकर, गुरु में भी हर्षातिरेक पैदा करता हुआ, उनकी वाणी सुने। ८०५. आधारिय सुत्तत्थो, सविसेसो दिज्जए परिणयस्स। सुपरिच्छित्ता य सुनिश्छियस्स इच्छागए पच्छा। कल्प और व्यवहार का सूत्रार्थ सापवादरूप में गुरु के मुख से जो गृहीत है वह सारा परिणामक शिष्य को दे। पहले उसकी अच्छे प्रकार से परीक्षा करे तथा वह यदि सूत्रार्थ लेने में सुनिश्चयवाला हो तो उसे सूत्रार्थ की वाचना दे। जब अपरिणामक और अतिपरिणामक की क्रमशः केवल उत्सर्ग और केवल अपवादरूप इच्छा निवर्तित हो जाती है, तब उनको भी छेदसूत्र दिया जा सकता है। पीठिका समाप्त १. दोच्चंग-सामयिकी संज्ञा, ओदनादिमूलांगापेक्षया भोजनस्य द्वितीयांगानि-रान्द्रशाकरूपाणि। (वृ. पृ. २५२) Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक (गाथा ८०६-३२८९) Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक तालपलब-पदं कहते हैं-) मंगल शब्द का निरुक्त इस प्रकार है-मां लाति-दुर्गति में गिरने वाले प्राणी को ग्रहण कर लेता है। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तथा जो पाप को गाल देता है, नष्ट कर देता है, वह है आमे तालपलंबे अभिन्ने पडिगाहित्तए॥ मंगल। इस प्रथम सूत्र में सचित्तवनस्पतिग्रहणरूप पाप को (सूत्र १) गाल देता है तथा दुर्गति में गिरने वाली आत्मा को धारण करता है-इस प्रकार के कथन को तुम्हारा अमंगल कहना ८०६. अकार-नकार-मकारा, पडिसेहा होंति एवमाईया। कैसे उचित हो सकता है? यदि तुम्हें प्रतिषेधमात्र अमंगल सहिरन्नगो सगंथो, अहिरन्न-सुवन्नगा समणा॥ इष्ट है तो फिर धर्म या पाप की सारी अनुज्ञा मंगल हो अकार, नकार, मकार आदि शब्द प्रतिषेधवाचक हैं। यहां जाएगी। तुम सारी अनुज्ञा को मंगल कैसे मानते हो? आदि शब्द से नोकार का ग्रहण किया गया है। जो हिरण्य ८१०.पावाणं समणुण्णा, न चेव सव्वम्मि अत्थि समयम्मि। सहित होते हैं अर्थात् जो परिग्रही होते हैं वे सग्रंथ होते हैं। तं जइ अमंगलं ते, कयरं णु हु मंगलं तुझं। श्रमण अहिरण्यक और असुवर्णक होते हैं। समस्त सिद्धांत में कहीं भी पाप की समनुज्ञा है ही नहीं। ८०७. नोकारो खलु देसं, पडिसेहयई कयाइ कप्पिज्जा।। यदि पाप-प्रतिषेधक वचन तुम्हारे लिए अमंगल है तो फिर आमं च अणण्णत्ते, तलो य खलु उस्सए होइ॥ तुम्हारे लिए मंगल कौनसा होगा? 'नोकार' शब्द देशप्रतिषेध में प्रयुक्त होता है। सूत्र में 'नो ८११. पावं अमंगलं ति य, तप्पडिसेहो हु मंगलं नियमा। कप्पई' शब्द है। इस पद में 'नो' देश प्रतिषेधवाचक शब्द है। निक्खेवे वा वुत्तं, जं वा नवमम्मि पुवम्मि॥ इसका तात्पर्यार्थ है कि कदाचित्-अपवादस्वरूप वह कल्पता पाप अमंगल है। उसका प्रतिषेधकवचन नियमतः मंगल भी है। 'आम' शब्द अनन्यत्व में है। अर्थात् अपक्व अवस्था है। इसके आधार पर भी सूत्र मांगलिक है। अथवा नामका द्योतक है। 'ताल' शब्द उच्छ्रय अर्थ में प्रयुक्त होता है। निष्पन्न निक्षेप के प्रसंग में भी 'वंदामि भद्दबाह' कहकर जिसका स्कंध बहुत ऊंचा होता है वह वृक्ष अर्थात् तालवृक्ष। मंगल वचन का कथन किया है तथा नौवें पूर्व-प्रत्याख्यान पूर्व ८०८. पडिलंबणा पलंब, अविदारिय मो वयंति उ अभिन्नं। में प्रारंभ में मंगलाभिधान किया है। इन सबके आधार पर अहवा वि दव्व भावे, तंपइगहणं निवारेइ॥ प्रस्तुत सूत्र का मांगलिकत्व सिद्ध होता है। 'प्रलंब' का अर्थ है जो अत्यधिक लंबायमान हो। प्रलंब ८१२. अदागसमो साहू, एवं सुत्तं पि जो जहा वयइ। अर्थात् तालवृक्ष का मूल। जो अविदारित होता है वह है तह होइ मंगलमंगलं व कल्लाणदेसिस्स॥ अभिन्न। अथवा अभिन्न के दो प्रकार हैं-द्रव्यतः और भावतः। साधु अद्दाग-दर्पण के समान होता है। दर्पण स्वरूपतः जो द्रव्यतः अविदारित और भावतः सजीव है, उसके ग्रहण निर्मल होता है। उसमें जो जैसा होता है, वैसा प्रतिबिंब का निवारण है। वैसा आम तालप्रलंब नहीं लेना चाहिए। यह पड़ता है। साधु परम मंगल स्वरूप हैं। उनको जो जैसा 'नोकार' शब्द का देश निषेधवाची अर्थ है। मानता है, उनके लिए वे मंगल-अमंगलरूप होते हैं। इसी ८०९. जं गालयते पावं, मं लाइ व कहममंगलं तं ते। प्रकार सूत्र भी परम मंगलरूप है। उसको जो जिस रूप में जा य अणुण्णा सव्वा, कहमिच्छसि मंगलं तं तु॥ ग्रहण करता है उसके लिए वह अमंगल या मंगलरूप होता (जिज्ञासु ने कहा-'नो कप्पई' यह प्रथम सूत्र है। कल्याणद्वेषी यदि सूत्र में अमंगलबुद्धि करता है तो उसके प्रतिषेधात्मक होने के कारण अमांगलिक है। तब आचार्य लिए अमंगल होता है। १. हिरण्यं-रूप्यं। सुवर्ण-कनकम् । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० ८१३. जइ वा सव्वनिसेहो, हवेज्ज तो कप्पणा भवे एसा । नंदी य भावमंगल, वुत्तं तत्तो अणन्नमिदं ॥ यदि सूत्र में सर्वनिषेध होता तो आपकी कल्पना ( प्रतिषेध वचन अमंगल होता है) सही होती। पहले यह कहा गया है कि 'नंदीभावमंगल है'। उससे यह सूत्र अनन्य है-अपृथग्भूत है। ८१४. पडिसेहम्मि उ छक्कं, अमंगलं सो त्ति ते भवे बुद्धी । पावाणं जदकरणं, तदेव, खलु मंगलं परमं ॥ प्रतिषेध के विषय में छह निक्षेप हैं- नामप्रतिषेध, स्थापनाप्रतिषेध, द्रव्यप्रतिषेध क्षेत्रप्रतिषेध, कालप्रतिषेध और भावप्रतिषेध। यहां सूत्र में द्रव्यप्रतिषेध का प्रसंग है। इसमें प्रतिषेध अमंगल है, ऐसी तुम्हारी बुद्धि हो सकती है। पापों का अकरण ही सबसे परम मंगल है। ८१५. आइनकारे गंये, आमे ताले तहा पलंबे थ भिन्नस्स वि निक्खेवो, चक्कओ होइ एक्केक्वे ॥ 'आदिनकार' विचारणीय है। ग्रंथ, आम, ताल और प्रलंब तथा भिन्न- इन शब्दों के प्रत्येक के चार-चार निक्षेप होते हैं। (शिष्य ने कहा- आदि में नकार से प्रतिषेध होना चाहिए। ऐसा करने पर सूत्र लघु होता है और सूत्र का लघु होना महान् उत्सव का कारण होता है- 'मात्रयाऽपि च सूत्रस्य लाघवं महानुत्सवः ' । नो शब्द से प्रतिषेध करने पर सूत्रगौरव होता है। आचार्य कहते हैं-'नोकार' से प्रतिषेध करने का भी कारण है। सुनो) ८१६. पडिसेहो उ अकारो, माकारो नो अ तह नकारो अ तब्भाव दुविहकाले, ऐसे संजोगमाईसु ॥ प्रतिषेधक में चार वर्ण है-अकार, मकार, नोकार तथा नकार । अकार भाव प्रतिषेधक है। माकार द्विविध कालवर्तमान काल तथा अनागत काल का प्रतिषेधक है। नोकार देशप्रतिषेधक है। नकार संयोग आदि का प्रतिषेधक है। ८१७ निदरिसणं अघडोऽयं मा व घडं भिंद मा य भिंविहिसि । नो उ पडो पडदेसो, तव्विवरीयं च जं दव्वं ॥ इन प्रतिषेधक वर्णों का निदर्शन-अकार का तद्भावप्रतिषेध, जैसे अघटोऽयम् 'मा' प्रतिषेध मा घटं मिद्धि-घड़े को मत फोड़ो, मा घटं भेत्स्यसि-घट को भविष्य में मत फोडना 'नो' नो घटः अर्थात् घट का एक देश-कपाल आदि है । घट के विपरीत जो अन्य द्रव्य है वह । ८१८. संजोगे समवाए, सामने खलु तहा विसेसे अ कालतिए पडिसेहो, जत्बुवओगो नकारस्स ॥ नकार संयोग, समवाय, सामान्य और विशेष - इन चार प्रकारों से तीनों काल विषयक प्रतिषेधक वचन है। इस प्रकार यह ४४३ = १२ प्रकार का हो जाता है। जहां कहीं भी बृहत्कल्पभाष्यम् नकार का उपयोग होता है, वहां इन बारह भेदों में से किसी एक का प्रतिषेध जानना चाहिए। ८१९. नत्थि घरे जिणदत्तो, पुव्यपसिद्धाण तेसि दोण्डं पि संजोगो पडिसिन्झह, न सब्बसो तेसि अत्थित्तं ॥ ८२०. समवाए खरसिंगं, सामन्ने नत्थि चंदिमा अन्नो । नत्थि य घटुप्पमाणा, विसेसओ होंति मुत्ताओ ॥ 'कहा जाए कि जिनदत्त घर में नहीं है इस वाक्य में पूर्व प्रसिद्ध जिनदत्त और घर दोनों के संयोग का प्रतिषेध है। उन दोनों के सर्वथा अस्तित्व का प्रतिषेध नहीं है। समवाय विषयक प्रतिषेध में 'खरशृंग' - गधे के सींग - यह निदर्शन है। सामान्य प्रतिषेध का निदर्शन है इस स्थान में ऐसा अन्य चन्द्रमा नहीं है । विशेष प्रतिषेध का निदर्शन है-घटप्रमाण (इतने बड़े) मुक्ता नहीं हैं अर्थात् मुक्ता-मोती हैं, परंतु घटप्रमाण नहीं हैं। ८२१. नेवाऽऽसी न भविस्सइ, नेव घडो अत्थि इति तिहा काले । पडिसेहेइ नकारो, सज्जं तु अकार नोकारा॥ नकार त्रिकालविषय वस्तु का निषेध करता है, जैसे- 'घट नहीं था, घट नहीं है और घट नहीं होगा। अकार और नोकार प्रायः वर्तमान काल का ही प्रतिषेध करते हैं। - ८२२. जम्हा खलु पडिसेहं, नोकारेणं करेंति णऽण्णेणं । तम्हा उ होज्ज गहणं, कयाइ अववायमासज्ज ॥ सूत्रकार जिस कारण से नोकार शब्द के प्रयोग से ही प्रतिषेध करते हैं, अन्य शब्द से नहीं, इससे ज्ञात होता है कि इस प्रतिषिद्ध वस्तु का ग्रहण कदाचित् अपवादपद को प्राप्त कर किया जा सकता है। ८२३. सोविय गंथो दुविहो, बज्झो अब्भिंतरो अ बोधव्वो । अंतो अ चोहसविहो, दसहा पुण बाहिरो गंथो ॥ वह भावग्रंथ दो प्रकार का जानना चाहिए - बाह्य और आभ्यन्तर । आभ्यन्तर ग्रंथ के चौदह प्रकार और बाह्य ग्रंथ के दस प्रकार हैं। ८२४. सहिरन्नगो सगंथो, नत्थि से गंथो त्ति तेण निग्गंथो । अहवा निराऽवकरिसे, अवचियगंयो व निग्नयो । जो हिरण्य सहित होता है वह सग्रंथ है जिसके दोनों प्रकार | का ग्रंथ नहीं है वह निर्ग्रथ होता है। अथवा 'निर्ग्रथ' में जो 'निर्' शब्द है, वह अपकर्ष अपचय में प्रयुक्त है। अतः जिसने संब का अपचय अर्थात् न्यून कर लिया है, वह निग्रंथ है। ८२५. खेत्तं वत्युं धण पत्र संचओ मित्त-णाइ संजोगो । जाण सणा-ऽऽसणाणि य, दासी दासं च कुवियं च ॥ बाह्य ग्रंथ के दस प्रकार ये हैं- क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, संचय, मित्र ज्ञाति तथा संयोग, यान, शयन, आसन, दासदासी तथा कुप्य उपस्कर आदि । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ८२६. खेत्तं सेउं केलं, सेयऽरहट्टाइ केउ वरिसेणं। ६. द्वेष, ७. मिथ्यात्व, ८. वेद, ९. अरति, १०. रति, भूमिघर वत्थु सेउं, केउं पासाय-गिहमाई॥ ११. हास्य, १२. शोक, १३. भय, १४. दुगुंछा। ८२७. तिविहं च भवे वत्थु, खायं तह ऊसियं च उभयं च। ८३२. सावज्जेण विमुक्का, सभिंतर-बाहिरेण गंथेण। भूमिघरं पासाओ, संबद्धघरं भवे उभयं॥ निग्गहपरमा य विदू, तेणेव य होति निग्गंथा॥ क्षेत्र के दो प्रकार हैं-सेतु और केतु। जो खेत अरहट्ट जो सावध ग्रंथ तथा आभ्यन्तर और बाह्य ग्रंथों से आदि के पानी से सींचा जाता है वह है सेतु और जो वर्षा से विप्रमुक्त हैं, जो क्रोध आदि दोषों के विज्ञाता है, तथा जो इनका निष्पन्न होता है वह है केतु। वास्तु के भी ये ही दो भेद हैं। निग्रह करने में प्रमुख हैं इन कारणों से वे निग्रंथ कहलाते हैं। भूमिगृह है सेतु और प्रासाद, गृह आदि हैं केतु। अथवा वास्तु ८३३. केई सव्वविमुक्का, कोहाईएहिं केइ भइयव्वा। के तीन भेद हैं-खात, उच्छ्रित और खातोच्छ्रित। भूमिगृह है सेढिदुगं विरएत्ता, जाणसु जो निग्गओ जत्तो। खात, प्रासाद है उच्छ्रित और भूमिगृह से संबद्ध गृह है कुछेक मुनि क्रोध आदि दोषों से सर्वथा विमुक्त होते हैं खातोच्छ्रित। और कुछेक विकल्पनीय होते हैं अर्थात् कुछ मुक्त हैं और ८२८. घडिएयरं खलु धणं, सणसत्तरसा बिया भवे धन्न।। कुछ मुक्त नहीं हैं। (शिष्य ने पूछा-यह कैसे जाना जाता है तण-कट्ठ-तेल्ल-घय-मधु-वत्थाई संचओ बहुहा॥ कि ये सर्वथा मुक्त हैं और ये नहीं?) आचार्य कहते घटित अथवा अघटित सुवर्ण आदि को धन कहा जाता है। हैं-श्रेणीद्विक-उपशमश्रेणी तथा क्षपकश्रेणी की स्थापना कर शण आदि सतरह प्रकार के बीज धान्य कहलाते हैं। (वे ये जो साधक जिस श्रेणी से गमन करता है उससे जान लिया हैं-चावल, यव, मसूर, गेहूं, मूंग, माष, तिल, चना, जाता है कि वह क्रोध आदि से मुक्त है या नहीं। कंगु, प्रियंगु, कोद्रव, मोठ, शालि, अरहर, मटर, कुलत्थ तथा ८३४. अण दंस नपुंसि-त्थीवेय च्छक्कं च पुरिसवेयं च। शण।) दो दो एगंतरिए, सरिसे सरिसं उवसमेइ॥ तृण, काष्ठ, तैल, घृत, मधु, वस्त्र आदि संचय अनेक उपशमश्रेणी ग्रहण करने वाला सबसे पहले 'अण' अर्थात् प्रकार का है। अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ का उपशमन ८२९. सहजायगाइ मित्ता, नाई माया-पिईहिं संबद्धा। करता है। फिर दर्शनत्रिक का उपशमन करता है। यदि पुरुष ससुरकुलं संजोगो, तिण्णि वि मित्तादयो छट्ठो॥ प्रतिपत्ता हो तो पहले नपुंसकवेद को, फिर स्त्रीवेद को, फिर मित्र सहजातक आदि होते हैं। मातृकुलंसबद्ध और पितृ- हास्य आदि षट्क का और फिर पुरुषवेद का उपशमन करता कुलसंबद्ध ज्ञाती कहलाते हैं। श्वसुरकुल संयोग कहलाता है। है। तत्पश्चात् अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान क्रोध क्रोधरूप में अर्थात् श्वसुर, श्वश्रू और शाले–इन तीनों का संबंध संयोग सदृश होने के कारण एक साथ इनका उपशमन कर, फिर कहलाता है। मित्र आदि के ये तीनों पक्ष छठा ग्रंथ है। अकेले संज्वलन क्रोध का उपशमन करता है। इसी प्रकार ८३०. जाणं तु आसमाई, पल्लंकग-पीढिगाइ अट्ठमओ। अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान मान, माया और लोभ का दासाइ नवम दसमो, लोहाइउवक्खरो कुप्पं॥ उपशमन कर फिर एक-एक से अंतरित संज्वलन मान, माया यान का अर्थ है-अश्व आदि। आदि शब्द से गज, वृषभ, और लोभ का उपशमन करता है। रथ, शिविका आदि। पल्यंक शयन कहलाते हैं और पीठिका ८३५. अण मिच्छ मीस सम्म, अट्ठ नपुंसि त्थिवेय छक्कं च। आदि आसन हैं। यह आठवां ग्रंथ है। दास आदि नौवां ग्रंथ पुमवयं च खवेई, कोहाईए अ संजलणे॥ और लोहादिक उपस्कर कुप्य दसवां ग्रंथ है। यह सारा दस अण-अनंतानुबंधी चतुष्क, मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्प्रकार का बाह्य ग्रंथ है। मिथ्यात्व, आठ कषाय, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्य आदि ८३१. कोहो माणो माया, लोभो पेज्जं तहेव दोसो अ। षट्क, पुंवेद-इनको क्षीण करता है। फिर संज्वलन क्रोध मिच्छत्त वेद अरइ, रइ हास सोगो भय दुगुंछा॥ आदि। यह क्षपकश्रेणी का कथन है। चौदह प्रकार का आभ्यन्तर ग्रंथ ८३६. जे वि अ न सव्वगंथेहिं निग्गया होति केइ निग्गंथा। १. क्रोध, २. मान, ३. माया, ४. लोभ, ५. राग, . . ते वि य निग्गहपरमा, हवंति तेसिं खउज्जुत्ता। १. ब्रीहिर्यवो मसूरो, गोधूमो मुद्ग-माष-तिल-चणकाः। अणवः प्रियंगु-कोद्रवमकुष्ठकाः शालिराढक्यः॥ किञ्च कलाप-कुलत्थी, शरणसप्तदशानि बीजानि॥ (वृ. पृ. २६४) Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ जो सरागसंयमी होते हैं वे सभी ग्रंथों से निर्गत नहीं होते फिर भी वे क्षय करने में उद्यत होते हैं तथा निग्रहप्रधान होने के कारण वे निर्ग्रथ कहलाते हैं। ८३७. कलुसफलेण न जुज्जइ, किं चित्तं तत्थ जं विगयरागो । संते वि जो कसाए, निगिण्हई सो वि तत्तुल्लो ॥ विगतराम अर्थात् क्षीणमोह वाला व्यक्ति यदि कलुषित कषायों के फल से संयुक्त नहीं होता तो इसमें आश्चर्य क्या है ? जो विद्यमान कषायों का निग्रह करता है वह भी वीतरागतुल्य निष्कषाय होता है। ८३८. जह अब्मिंतरमुक्का, बाहिरगंथेण मुक्कया किह णु । गिण्हंता उवगरणं, जम्हा अममत्तया तेसु ॥ जो मुनि आभ्यन्तर ग्रंथ से मुक्त हैं, वे यदि उपकरण आदि ग्रहण करते हैं तो भी वे बाह्य ग्रंथ से मुक्त क्यों कहे जाते हैं? आचार्य कहते हैं क्योंकि उन मुनियों का बाह्य ग्रंथ के प्रति अममत्वभाव है। ८३९. नामं ठवणा आमं, दव्यामं चैव होह भावामं । उस्सेहम संसेइम उवक्खडं चेव पलियामं ॥ 'आम' शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम आम, स्थापना आम, द्रव्य आम और भाव आम । द्रव्य आम चार प्रकार का हैउत्स्वेदिम आम, संस्वेदिम आम, उपस्कृत आम, पर्याय आम । ८४०. उस्सेहम पिट्ठाई, तिलाह संसेइमं तु णेगविहं । कंकडुयाह उवक्खड, अविपक्करसं तु पलियामं ॥ उत्स्वेदिम आम-सूक्ष्मतंदुलादि चूर्ण से निष्पन्न पिष्ट । जब वह वाष्प से उत्स्विद्यमान होकर पकाया जाता है। उसकी अपक्वावस्था उत्स्वेदिम आम है। संस्वेदिम आम तिल आदि का अनेकविध होता है। चने, मूंग आदि को उबालने पर भी जो कंकटुक (कोरडू) रह जाते हैं, वे उपस्कृत आम कहलाते हैं। अविपक्चरस वाला फल आदि पर्याय आम है। ८४१. इंघण धूमे गंधे, वच्छप्पलियामए अ आमविही एसो खलु आमविही, नेयब्बो आणुपुवीय ॥ पर्याय आम के चार प्रकार हैं-इंधनपर्याय आम, धूमपर्याय आम गंधपर्याय आम तथा वृक्षपर्याय आम इस प्रकार पर्याय आम में आम विधि चार प्रकार की है। यह आम विधि आनुपूर्वी से ज्ञातव्य है। ८४२. कोद्दवपलालमाई, धूमेणं मज्झऽगडाऽगणि पेरंत तंदुगाइ पच्चते । तिंदुया छिद्दधूमेणं ॥ कोद्रव, पलाल आदि इंधन कहलाते हैं। इनमें आम्रफल आदि वेष्टित कर पकाए जाते हैं। धुएं से तिन्दुक आदि फल पकाए जाते हैं। इसकी विधि यह है-पहले गढ़ा खोदकर उसमें बृहत्कल्पभाष्यम् करीष प्रक्षिप्त करते हैं उस गढ़ के पास दूसरे गड्ढ़े खोदे जाते हैं। उन गढ़ों में तिन्दुक आदि फल रखकर मध्यमगर्ता और करीषगर्ता में अग्नि जलाई जाती है। पर्यन्तवर्तीगर्त्ता के खोत मध्यमगर्त्ता के साथ मिलाए जाते हैं। तब करीषगर्ता से धूम उन स्रोतों से पर्यन्तवर्तीगर्ता में प्रविष्ट होता है। वह धूम पूरे गर्त्ता में प्रसृत होकर फलों को पकाता है। जो फल अपक्व रह जाता है, वह धूमपर्याय आम कहलाता है । ८४३. अंबग - चिब्भिडमाई, गंधेणं जं च उवरि रुक्खस्स । कालप्पत्त न पच्चइ, वत्थप्पलियामगं तं तु ॥ आम्रक, चिरभटी, बीजपुर आदि अपक्व फल पके फलों के बीच उनके गंध से पक जाते हैं। जो नहीं पकते वे गंधपर्याय आम कहलाते हैं। वृक्ष की शाखाओं पर पकने वाले फल यदि कालप्राप्त करके भी नहीं पकते, वे वृक्षपर्याय आम कहलाते हैं। यह सारा द्रव्य आम का वर्णन है । ८४४. भावामं पिय दुविहं वयणामं चेव नो य वयणामं । ॥ वयणाम अणुमयत्थे, आमं ति हि जो वदे चक्कं ॥ ८४५. नोवयणामं दुविहं, आगमतो चेव नो अ आगमतो। आगमे नाणुवउत्तो, नोआगमओ इमं होइ ॥ भाव आम भी दो प्रकार का है-वचन आम और नोवचन आम। अनुमतार्थ में 'आमं' यह वचन बोलता है, वह वचन आम है। नो वचन आम दो प्रकार का है-आगमतः और नोआगमतः । आगमतः नो वचन आम है-आम पदार्थ के ज्ञान में उपयुक्त। नोआगमतः नोवचन आम यह है८४६. उम्गमदोसाईंया, भावतो अस्संजमो अ आमविही अन्नो वि य आएसो, जो वरिससयं न पूरेइ ॥ भाव आम है-उदगम आदि दोष और असंयम है भावतः आमविधि क्योंकि ये सब चारित्र को अपक्व करते हैं। इस विषयक अन्य आदेश मत भी है किसी व्यक्ति का आयुष्य सौ वर्ष का है। वह उसको पूरा किए बिना मर जाता है - यह भावतः आम है। ८४७. नाम ठवणा दविए, तालो भावे य होइ नायव्वो । जो भविओ सो तालो, दव्वे मूलुत्तरगुणेसु ॥ ताल शब्द के चार निक्षेप हैं-नामताल, स्थापनाताल, द्रव्यताल और भावताल द्रव्य ताल है भावितालपर्याय। अथवा द्रव्यताल दो प्रकार का है- मूलगुणनिवर्तित और उत्तरगुणनिवर्तित। ८४८. भावम्मि होंति जीवा, जे तस्स परिग्गहे समक्खाया । बिइओ वि य आदेसो, जो तस्स विजाणओ पुरिसो ॥ जो जीव तालवृक्ष के परिग्रह मूल कंद आदि रूप हैं वे सभी समुचित रूप में भावताल कहे जाते हैं। इस विषयक Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = दूसरा आदेश-मत यह है-जो ताल का विज्ञायक पुरुष है, वह भी भावताल है। यह आगमतः भावताल है। ८४९. नाम ठवण पलंब, दव्वे भावे अ होइ बोधव्वं। ___ अट्ठविह कम्मगंठी, जीवो उ पलंबए जेणं॥ प्रलंब के चार निक्षेप जानने चाहिए-नामप्रलंब, स्थापनाप्रलंब, द्रव्यप्रलंब और भावप्रलंब। द्रव्यप्रलंब है-द्रव्यताल की भांति और भावप्रलंब है-भावताल की भांति। अथवा आठ प्रकार की कर्मग्रंथि, जिसके आधार पर जीव नरक आदि गतियों में लंबित होता है, वह है भावप्रलंब। ८५०. तालं तलो पलंब, तालं तु फलं तलो हवइ रुक्खो । पलंबं च होइ मूलं, झिज्झिरिमाई मुणेयव्वं ।। शिष्य ने पूछा-ताल क्या है? तल क्या है और प्रलंब क्या है? आचार्य ने कहा-ताल है तलवृक्ष का फल, (अग्रप्रलंब) तल है वृक्ष। प्रलंब है-मूल। प्रलंब शब्द से यहां मूलप्रलंब गृहीत है। वह झिज्झिरी आदि (वृक्ष संबंधी) जानना चाहिए। ८५१. झिन्झिरि-सुरभिपलंबे, तालपलंबे अ सल्लइपलंबे। एतं मूलपलंब, नेयव्वं आणुपुव्वीए॥ झिज्झिरी-वल्लीपलाशक, सुरभि-सिग्गुक-इनका प्रलंब अर्थात् मूल। इसी प्रकार तालप्रलंब, सल्लकीप्रलंब-ये सारे आनुपूर्वी से मूलप्रलंब जानने चाहिए। (दूसरे भी मूल जो लोगों के उपभोग में आते हैं वे सारे मूलप्रलंब हैं।) ८५२. तल नालिएर लउए, कविट्ट अंबाड अंबए 'चेव। एअं अग्गपलंब, नेयव्वं आणुपुव्वीए॥ तल का फल (तालफल), नालिकेर का फल, लकुच का फल, कपित्थ का फल, आम्रातक का फल, आम्र का फल, (कदलीफल, बीजपूरक फल)-ये सारे आनुपूर्वी से अग्रप्रलंब ज्ञातव्य हैं। ८५३. जइ मूल-ऽग्गपलंबा, पडिसिद्धा न हु इयाणि कंदाई। कप्पंति न वा जीवा, को व विसेसो तदग्गहणे॥ शिष्य ने पूछा-सूत्र में यदि मूलप्रलंब तथा अग्रप्रलंब प्रतिषिद्ध हैं, उसमें कंद आदि (स्कंध, त्वक्, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, बीज) का प्रतिषेध नहीं है। इनको लेना कल्पता है। अथवा ये जीव नहीं हैं। कंद आदि के अग्रहण में कौनसा विशेष हेतु है? ८५४. चोयग! कन्नसुहेहि, सद्देहिं अमुच्छितो विसह फासे। __ मज्झम्मि अट्ठ विसया, गहिया एवऽट्ठ कंदाई॥ आचार्य ने कहा-वत्स! 'कानों के लिए सुखदायी शब्दों १. कण्णसोक्खेहिं सद्देहिं, पेम नाभिनिवेसए। दारुणं कक्कसं फासं, काएण अहियासए।। (दशवै.८/२६) में अमूर्छित हो'-इस प्रकार के कथन से शब्दविषयक राग का प्रतिषेध किया गया है। 'स्पर्श को सहन करे'-इस कथन के द्वारा स्पर्श का निषेध है। शेष मध्यवर्ती रूप-रस और गंध का उल्लेख नहीं है। परंतु आद्यन्त के ग्रहण से मध्यवर्ती का ग्रहण हो जाता है, इस न्याय से उनका प्रतिषेध ज्ञातव्य है। इसी प्रकार प्रस्तुत गाथा में आद्यन्तवाले अग्र और मूलप्रलंब का ग्रहण करने पर मध्यवर्ती कन्द आदि आठों प्रकारों का ग्रहण स्वतः हो जाता है। ८५५. अहवा एगग्गहणे, गहणं तज्जातियाण सव्वेसिं। तेणऽग्गपलंबेणं, तु सूइया सेसगपलंबा। अथवा एक के ग्रहण से उस जाती वाले सभी का ग्रहण हो जाता है। इसलिए अग्रपलंब अथवा मूलप्रलंब के ग्रहण से शेष कंद आदि का ग्रहण सूचित किया गया है। ८५६. तलगहणाउ तलस्सा, न कप्पे सेसाण कप्पई नाम। एगग्गहणा गहणं, दिट्ठतो होइ सालीणं॥ शिष्य ने कहा-तल के ग्रहण से ताल से संबंधित मूल, कंद आदि प्रलंब नहीं कल्पता, शेष आम्र आदि के प्रलंब तो कल्पते हैं, यह इससे ध्वनित होता है। आचार्य ने कहा-एक के ग्रहण से तज्जातीय सभी का ग्रहण हो जाता है। इसमें शालि संबंधी दृष्टांत है। 'चावल पक गए' यह कहने से केवल एक चावल पका है ऐसा नहीं। सारे चावल पक गए हैं, यह भावार्थ है। इसी प्रकार तालप्रलंब कहने से समस्त वृक्षजाति वाले प्रलंब गृहीत हो जाते हैं। ८५७. को नियमो उ तलेणं, गहणं अन्नेसि जेण न कयं तु। उभयमवि एइ भोगं, परित्त साउं च तो गहणं॥ शिष्य ने पूछा-कौन सा नियम है कि तल के ग्रहण से उसी का ग्रहण होता है, अन्य वृक्षों का ग्रहण नहीं होता? आचार्य ने कहा-ताल तथा ताल से संबंधित मूलअग्रप्रलंब-दोनों उपयोग में आते हैं अतः इन सबका ग्रहण हो जाता है। परीत्त वनस्पति स्वादु होता है। उसके ग्रहण का प्रतिषेध किया जाता है तो अनन्तकायिक वनस्पति का प्रतिषेध स्वतः प्राप्त हो जाता है। ८५८. नामं ठवणा भिन्नं, दव्वे भावे अ होइ नायव्वं । दव्वम्मि घड-पडाई, जीवजढं भावतो भिन्नं ।। भिन्नपद के चार निक्षेप हैं-नामभिन्न, स्थापनाभिन्न, द्रव्यभिन्न और भावभिन्न। द्रव्यभिन्न-घट का फूट जाना, पट आदि का भेद हो जाना। भावभिन्न-जीव का च्युत हो जाना। वह चतुर्भंगी इस प्रकार है२. मूले कंदे खंधे, तया य साले पवाले पत्ते य। पुप्फे फलं य बीए, पलंबसुत्तम्मि दस भेया।। (वृ. प. २७४) भर Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ ८५९. भावेण य दव्वेण य, भिन्नाऽभिन्ने चउक्कभयणा उ । पढमं दोहि अभिन्नं, बिइयं पुण दव्वतो भिन्नं ॥ ८६० तहयं भावतो भिन्नं, दोहि वि मित्रं चउत्थगं होइ। एएसिं पच्छित्तं, वोच्छामि अहावी ॥ भाव और द्रव्य के भिन्न- अभिन्न के आधार पर चतुर्भंगी होती है- (१) प्रलंब भाव से तथा द्रव्य-दोनों से अभिन्न (२) प्रलंब द्रव्य से भिन्न भाव से अभिन्न । (३) प्रलंब द्रव्य से अभिन्न भाव से भिन्न । (४) प्रलंब द्रव्य से तथा भाव से भिन्न । इन चारों से संबंधित प्रायश्चित्त यथानुपूर्वी यथोक्तपरिपाटी के अनुसार कहूंगा। ८६१. लहुगा व दो दोसु य, लहुओ पढमम्मि दोहि वी गुरुगा। तवगुरुअ कालगुरुओ, दोहि वि लहुओ चउत्थो उ ॥ प्रथम दो भंगों का प्रायश्चित्त है- चतुर्लघुक और शेष दो भंगों का प्रायश्चित है मासलघु पहले भंग का प्रायश्चित्त तप और काल से लघु, दूसरे भंग में तप से गुरु और काल से लघु, तीसरे भंग में काल से गुरु और तप से लघु और चौथे भंग में तप और काल से लघु । प्रायश्चित्त के संबंध में यहां लघु का अर्थ है मासलघु । ८६२. उग्घाइया परिते होंति अणुग्धाइया अणतम्मि । आणाऽणवत्थ मिच्छा, विराहणा कस्सऽगीयत्थे ॥ ये उद्घातिक लघु प्रायश्चित्त परीत प्रलंब संबंधी हैं। अनन्तकायिक में ये ही अनुद्घातिक गुरु हो जाएंगे। इनके साथ-साथ आज्ञाभंग, अनवस्था दोष, मिथ्यात्व, आत्मविराधना तथा संयमविराधना आदि दोष होते हैं। शिष्य ने कहा- ये किसके लिए हैं ? आचार्य ने कहा- अगीतार्थ के लिए। ८६३. अन्नत्थ तत्थगहणे, पडिते अच्चित्तमेव सच्चिते। छुमणाऽऽरुहणा पडणे, उबही तत्तो य उहाहो ॥ प्रलंबग्रहण दो प्रकार का होता है- अन्यत्रग्रहण अर्थात् वृक्षप्रदेश से अन्यप्रदेश में ग्रहण, तत्रग्रहण अर्थात् वृक्षप्रदेश में ग्रहण। पतित अर्थात् नीचे गिरे हुए प्रलंब का ग्रहण | वह दो प्रकार का होता है- सचित्त का ग्रहण, अचित्त का ग्रहण | प्रलंब पाने के लिए वृक्ष पर काष्ट आदि फेंकना । वृक्ष पर चढ़ कर प्रलंब प्राप्त करने का प्रयत्न करना, वृक्ष पर आरूढ़ नीचे गिर सकता है, उसकी उपधि का हरण हो सकता है। उसका उड्डाह हो सकता है। ८६४. अण्णगहणं तु दुविहं, वसमाणेऽडवि वसंति अंतों बहिं । अंताऽऽवण तव्वज्जे, रच्छा गिह अंतो पासे वा ॥ बृहत्कल्पभाष्यम् अन्यत्रग्रहण दो प्रकार का होता है- वसति में अथवा अटवी में वसति प्रवेश दो प्रकार से होता है-अन्तर या अहिर । अन्तर भी दो प्रकार का होता है-आपण में अथवा तद्वर्ण्य में। तद्वर्ण्य विषय अर्थात् गली में अथवा गृह में अथवा गली के पास में या गृह के पास में। ८६५. कब्बदि लहुओ, अनुष्पत्तीय लघुग ते चेव । परिवड्डमाणदोसे, दिट्ठाई अन्नगहणम्मि | यदि बालक मुनि को सचित्त प्रलंब लेते देख ले तो मासलघु, बालक के मन में भी अर्थोत्पत्ति- मैं भी ग्रहण करूं, इस प्रकार की प्रवृत्ति होती है। इसमें चतुर्लघु प्रायश्चित्त है। यदि बड़े मनुष्य ने उस मुनि को प्रलंब लेते देखा है तो वही प्रायश्चित है जो परिवर्धमान आज्ञाभंग आदि दोष हैं अन्यत्रग्रहण में होते हैं। ८६६. दिट्ठे संका भोइय- घाडि - निआ - SSरक्खि सेट्ठि - राईणं । चत्तारि छच्च लहु गुरू, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ यदि मुनि को सचित्त प्रलंब लेते युवा पुरुष देख ले तो चतुर्लघु, उसको शंका हो तो भी चतुर्लघु, यदि किसी की भार्या देख ले और पति से कहे तो षडलघु, यदि घाटीसौहृद् को कहे तो षड्गुरु, माता-पिता से कहे तो छेद, आरक्षिक को कहे तो मूल, श्रेष्ठी और राजा को कहे तो अनवस्थाप्य तथा पारांचिक दोनों। ८६७. एवं ता अदुगुछिए, दुर्गाछिए लसुणमाइ एमेव । नवरिं पुण चउलहुगा, परिग्नहे गिण्हणादीया ॥ यह प्रायश्चित्त अजुगुप्सित आम्र आदि के प्रलंब राहण विषयक जानना चाहिए। जुगुप्सित लशुन आदि के विषय में भी पूर्वोक्त प्रायश्चित्त ही है। केवल बालक जुगुप्सित को लेते हुए देखे तो चतुर्लघु यदि प्रलंब आदि किसी के अधीन हो, जुगुप्सित अथवा अजुगुप्सित, प्रायश्चित्त वही है। यदि वे श्रेष्ठी या राजा के अधीन हो तो ग्रहण आकर्षण व्यवहार आदि दोष आते हैं। ८६८. खेत्ते निवेसणाई, जा सीमा लहुगमाइ जा चरिमं । केसिंची विवरीयं काले दिन अट्टमे सपदं ॥ क्षेत्र संबंधी निवेशन से प्रारंभ कर गांव की सीमा के भीतर जो ग्रहण करता है उसके लघुक आदि प्रायश्चित्त से प्रारंभ होकर चारित्र पारांचिक तक आता है। कुछेक आचार्यों का इससे विपरीत मत है। वे मानते हैं कि कालविषयक प्रायश्चित्त आठवें दिन 'स्वपदं ' अर्थात् पारांचिक हो जाता है। १. इसकी भावना यह है - प्रलंब लेते हुए प्रथम दिन चार लघु, दूसरे दिन चार गुरु, तीसरे दिन छह लघु, चौथे दिन छह गुरु, पांचवें दिन छेद, छठे दिन मूल, सातवें दिन अनवस्थाप्य और आठवें दिन पारांचिक । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ८६९. निवेसण वाडग साही, गाममज्झे अ गामदारे । आठ में लघुक तथा आगे के आठ में गुरुक। द्वितीय पंक्ति वाले उज्जाणे सीमाए, अन्नग्गामे य खेत्तम्मि॥ सोलह भंगों में पहले चार लघुक, फिर चार गुरुक, फिर चार प्रकारान्तर से क्षेत्र विषयक प्रायश्चित्त लघुक और शेष चार गुरुक। तीसरी पंक्ति वाले सोलह भंगों निवेशन में चतुर्लघु, पाटक में चतुर्गुरु, गली में षड्लघु, में दो लघुक और दो गुरुक के क्रम से निक्षेपतव्य हैं। चौथी ग्राममध्य में षड्गुरु, ग्रामद्वार में छेद, उद्यान में मूल, सीमा पंक्ति वाले सोलह भंगों में एक लघुक और एक गुरुक के क्रम में अनवस्थाप्य और अन्यग्राम में पारांचिक। से एकांतरित लघु-गुरु रूप में होते हैं। ८७०. भावऽट्ठवार सपदं, लहुगाई मीस दसहिं चरिमं तु। चारों अष्टक भंगों में प्रथम भंग रहित शेष तीन भंग एमेव य बहिया वी, सत्थे जत्ताइठाणेसु॥ एकांतरित शुद्ध हैं। भावतः प्रायश्चित्त-भावतः आठ बार सचित्त प्रलंब लेने ८७५. पढमो एत्थ उ सुद्धो, चरिमो पुण सव्वहा असुद्धो उ। पर 'स्वपद' अर्थात् पारांचिक। मिश्र प्रलंब लेने पर लघुमास अवसेसा वि य चउदस, भंगा भइयव्वगा होति। आदि से प्रारंभ कर दशवें स्थान में पारांचिक प्रायश्चित्त है। सोलह भंगों में प्रथम सर्वथा शुद्ध है और चरमभंग सर्वथा इसी प्रकार ग्राम के बाहर भी जानना चाहिए। बहिर्ग्रहण में अशुद्ध है। शेष चौदह भंगों में शुद्ध-अशुद्ध की भजना है। सार्थवाह के साथ जाते हुए अथवा यात्रास्थानों में यह गृहीत है। ८७६. आगाढम्मि उ कज्जे, सेस असुद्धो वि सुज्झए भंगो। ८७१. अंतो आवणमाईगहणे जा वण्णिया सवित्थारा। न विसुज्झे अणागाढे, सेसपदेहिं जइ वि सुद्धो। बहिया उ अन्नगहणे, पडियम्मि उ होइ स च्चेव॥ आगाढ़ कार्य अर्थात् पुष्ट आलंबन में अशुद्धभंग भी शुद्ध ग्राम आदि के अन्तर-मध्य में, आपण तथा आपणवर्ज में हो जाता है। शेष पदों में शुद्ध होने पर भी अनागाढ़ अर्थात् जुगुप्सित अथवा अजुगुप्सित ग्रहण विषयक भावना जो निरालंब में वह विशुद्ध नहीं होता। विस्तार से (गा. ८६६) में बताई गई है, वही ग्राम आदि के ८७७. लहुगा य निरालंबे, दिवसतो रत्तिं हवंति चउगुरुगा। बाहर पड़े हुए प्रलंब के विषय में तथा अन्यत्रग्रहण में जाननी लहुगो य उप्पहेणं, रीयादी चेवऽणुवउत्ते॥ चाहिए। जहां जहां निरालंब है और दिवस में जा रहा है तो चार ८७२. कोट्टगमाई रन्ने, एमेव, जणो उ जत्थ पुंजेइ।। लघुक तथा रात्री में जाने पर चार गुरुक का प्रायश्चित्त है। तहियं पुण वच्चंते, चउपयभयणा उ छद्दसिया॥ दिन में उत्पथ से जाने पर मासलघु और ईर्या आदि समितियों अरण्य में 'कोट्टक' आदि प्रदेशों में लोग फलों को एकत्रित में अनुपयुक्त होकर जाने में मासलघु। रात्री में उत्पथगमन कर सुखाते हैं, वहां यदि मुनि प्रलंब ग्रहण करता है तो गाथा और अनुपयुक्तगमन में मासगुरु। ८६६ की भांति प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। कोट्टकादि में जाते हुए ८७८. दिय-राओ लहु-गुरुगा, आणा चउ गुरुग लहुग लहुगा य। चार पदों के सोलह भंग प्रमाण वाली भंग रचना करे। संजम-आयविराहण, संजमे आरोवणा इणमो॥ ८७३. वच्चंतस्स य दोसा, दिया य रातो य पंथ उप्पथे। सभी अशुद्ध भंगों में दिन में जाने पर चतुर्लघुक और उवउत्त अणुवउत्ते, सालंब तहा निरालंबे॥ रात्री में जाने पर चतुर्गुरुक। आज्ञाभंग में चतुर्गुरुक, वहां जाने पर अनेक दोष होते हैं (वे आगे बताए जायेंगे।) अनवस्था और मिथ्यात्व में चतुर्लघुक। दो प्रकार की सोलह भंगों का प्रमाण इस प्रकार है विराधना होती है-संयमविराधना और आत्मविराधना। (१) दिन में, पथ से, उपयुक्त, सालंब। संयमविराधना होने पर यह प्रायश्चित्त है(२) दिन में, पथ से, उपयुक्त, निरालंब । ८७९. छक्काय चउसु लहुगा, परित्त लहुगा य गुरुग साहारे। (३) दिन में, पथ से, अनुपयुक्त, सालंब। संघट्टण परितावण, लहु गुरुगऽतिवायणे मूलं॥ (४) दिन में, पथ से, अनुपयुक्त, निरालंब। षड्जीवनिकाय में चार अर्थात् पृथ्वी, अप, तेजो, वायुइसी प्रकार 'उत्पथ' से भी चार विकल्प होते हैं। ये आठ का संघट्टन होने पर लघुक प्रायश्चित्त, परीत्त का लघुक, विकल्प हुए। रात्री संबंधी भी ये ही आठ विकल्प होते हैं। अनन्त वनस्पति का गुरुक। द्वीन्द्रिय आदि जीवों के संघट्टन सर्व विकल्प सोलह हुए। इनकी रचना इस प्रकार है- में लघुक और परितापन में गुरुक, उनका अतिपात होने ८७४. अट्ठग चउक्क दुग एक्कगं च लहुगा य होति गुरुगा य। पर मूल। सुद्धा एगंतरिया, पढमरहिय सेसगा तिण्णि॥ ८८०. जहिं लगा तहिं गुरुगा, जहिं गुरुगा कालगुरुग तहिं ठाणे। प्रथम पंक्ति में इन सोलह भंगों को स्थापित करने पर प्रथम छेदो य लहुय गुरुओ, काएसाऽऽरोवणा रतिं॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ बृहत्कल्पभाष्यम् जहां दिवस में लघुक है, वहीं रात्री में गुरुक और जहां हैं। सहाय-सहित जाने पर, सहायक के ये भेद होते हैं यतगुरुक हैं वहां कालगुरु ज्ञातव्य है। जहां छेद लघुक है वहां संयत, अयत-असंयत, नपुंसक, गृहस्थस्त्री तथा साध्वी। छेद गुरुक जानना चाहिए। रात्री में यह काल विषयक ८८६. संविग्गाऽसंविग्गा, गीया ते चेव होति अग्गीया। आरोपणा है। लहुगा दोहि विसिट्ठा, तेहिं समं रत्ति गुरुगा उ॥ ८८१. कंट-ऽट्टि खाणु विज्जल, विसम दरी निन्न मुच्छ-सूल-विसे। संविग्न, असंविग्न, गीतार्थ, अगीतार्थ के साथ जाने पर वाल-ऽच्छभल्ल-कोले, सीह-विग-वराह-मेच्छित्थी॥ लघुक प्रायश्चित्त-दो से विशिष्ट अर्थात् तप और काल से ८८२. तेणे देव-मणुस्से, पडिणीए एवमाइ आयाए। गुरु। इनके साथ रात्री में जाने पर तप और काल से विशेषित मास चउ छच्च लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च॥ चतुर्गुरु प्रायश्चित्त है। कोट्टकादि में जाता हुआ मुनि कांटों से, लकड़ी के टुकड़े ८८७. अस्संजय-लिंगीहिं उ, पुरिसागिइपंडएहिं य दिवा उ। से पैर में विद्ध हो सकता है, कीचड़ तथा विषम स्थान में, अस्सोय सोय छल्लहु, ते चेव उ रत्ति गुरुगा उ॥ खाई में, गढ़े में गिर कर मूर्छित हो सकता है, शूल चल असंयत, लिंगी-अन्यतीर्थिक, पुरुषाकृतिवाले नपुंसक-ये सकती है, विषकंटक से विद्ध हो सकता है, विषफल खा तीनों शौचवादी और अशौचवादी-दोनों होते हैं। इनके साथ सकता है, सर्प, भालू, शूकर, सिंह, वृक, वराह, म्लेच्छ दिन में जाने पर षडलघु और रात्री में जाने पर षड्गुरु। पुरुष अथवा कोई स्त्री-ये उसे उपद्रुत कर सकते हैं। शेर, ८८८. पासंडिणित्थि पंडे, इत्थीवेसेसु दिवसतो छेदो। देव अथवा शत्रु, अन्य मनुष्य उसको पीड़ित कर सकते हैं। तेहिं चिय निसि मूलं, दिय-रत्ति दुगं तु समणीहिं॥ यह आत्मविराधना है। (इनका प्रायश्चित्त यह है) कंटकादि से पाषण्डिनी-परिवाजिका, गृहस्थस्त्री, स्त्रीवेशधारी परितप्त होने पर चतुर्लघु, अत्यधिक परितप्त होने पर नपुंसक-इनके साथ दिन में जाने पर छेद, रात्री में जाने पर चतुर्गुरुक, महान् दुःख होने पर षड्लघु, मूर्छा या अमूर्छा मूल। श्रमणियों के साथ दिन में जाने पर अनवस्थाप्य और में षड्गुरु, कृच्छ्रप्राणनाश होने पर छेद, कृच्छ्रश्वासोश्वास रात्री में जाने पर पारांचिक प्रायश्चित्त है। में मूल, मारणांतिक समुद्घात में अनवस्थाप्य, कालगत होने ८८९. अहवा समणा-ऽसंजय-अस्संजइ-संजईहिं दियराओ। पर पारांचिक। चत्तारि छच्च लहु गुरु, छओ मूलं तह दुगं च॥ ८८३. कंट-ऽट्ठिमाइएहिं, दिवसतो सव्वत्थ चउगुरू होति। अथवा श्रमणों के साथ दिन में जाने पर चतुर्लघु, रात्री में रत्तिं पुण कालगुरु, जत्थ व अन्नत्थ आयवहो॥ जाने पर चतुर्गुरु। असंयतों के साथ दिन में षडलघु, रात्री में आत्मविराधना में सामान्य प्रायश्चित्त-कंटक, स्थाणु षड्गुरु। असंयतियों के साथ दिन में छेद, रात्री में मूल। आदि से परितप्त होने पर दिन में चतुर्गुरु, रात्री में चतुर्गुरु श्रमणियों के साथ दिन में अनवस्थाप्य, रात्री में पारांचिक। कालगुरु हो जाते हैं। जहां कहीं आत्मवध होता है, सर्वत्र ८९०. जह चेव अन्नगहणेऽरण्णे गमणाइ वणियं एयं। चतुर्गुरु प्रायश्चित्त है। तत्थगहणे वि एवं, पडियं जं होइ अच्चित्तं॥ ८८४. पोरिसिनासण परिताव ठावणं तेण देह उवहिगतं। जैसे अन्यत्रग्रहण, अरण्यविषयक गमन आदि में जो दोष पंतादेवयछलणं, मणुस्सपडिणीयवहणं च॥ तथा प्रायश्चित्त का वर्णन किया है, वही तत्रग्रहण तथा पतित सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी का नाश होने पर क्रमशः अचित्त प्रलंब के ग्रहण में जानना चाहिए। चतुर्लघु और चतुर्गुरु, परिताप होने पर चतुर्लघु और ८९१. तत्थग्गहणं दुविहं, परिग्गहमपरिग्गहं दुविहभेयं । चतुर्गुरु, अनाहार स्थापना में चतुर्लघु और आहार-स्थापना दिट्ठादपरिग्गहिए, परिगहिएँ अणुग्गहं कोई॥ में चतुर्गुरु। स्तेन दो प्रकार के होते हैं-देहस्तेन और तत्रग्रहण के दो प्रकार हैं-परिग्रह (देवता द्वारा परिगृहीत), उपधिस्तेन। देहस्तेन द्वारा एक साधु का अपहरण किया जाए अपरिग्रह। इन दोनों के दो-दो भेद हैं-सचित्त, अचित्त। जो तो मूल, साथ में उपधि का अपहरण होने पर अनवस्थाप्य, अपरिगृहीत अचित्त का ग्रहण करता है उसके (गाथा ८६६) के प्रान्तदेवता द्वारा छला जाना तथा प्रत्यनीक मनुष्य द्वारा मारे अनुसार सारी आरोपणा ज्ञातव्य है। जो परिगृहीत अचित्त का जाने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। ग्रहण करता है, कोई भद्रक इसे अनुग्रह मानता है। ८८५. एवं ता असहाए, सहायसहिए इमे भवे भेदा। ८९२. तिविह परिग्गह दिव्वे, चउलहु चउगुरुग छल्लहुक्कोसे। जय अजय इत्थि पंडे, अस्संजइ संजईहिं च॥ अहवा छल्लहुग च्चिय, अंत गुरू तिविह दिव्वम्मि। इस प्रकार असहाय अकेले जाने पर उपरोक्त दोषे होते सपरिग्रह तीन प्रकार का होता है--देवपरिगृहीत, Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक मनुष्यपरिगृहीत और तिर्यकपरिगृहीत। देवपरिगृहित के तीन ८९८. धी मुंडितो दुरप्पा, धिरत्थु ते एरिसस्स धम्मस्स। प्रकार हैं-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। व्यन्तरगृहीत जघन्य अन्नत्थ वा वि लब्भिसि, मुक्को सि खरंटणा एसा।। होता है, भवनपति और ज्योतिष्कपरिगृहीत मध्यम और हे मुंडित दुरात्मा! तुझे धिक्कार है। तुम्हारे इस प्रकार वैमानिकपरिगृहीत उत्कृष्ट होता है। जघन्यपरिगृहीत का के धर्म को धिक्कार है! मैं तुम्हें छोड़ देता हूं, परन्तु तुम प्रलंब लेने पर चतुर्लघु, मध्यम का चतुर्गुरु तथा उत्कृष्ट का अन्यत्र भी विडंबना पाओगे। यह खरंटणा है। षड्लघु। अथवा तीनों का षडलघु ही प्रायश्चित्त है। जघन्य में ८९९. आमफलाणि न कप्पंति तुम्ह मा सेसए वि दूसेहि। तपोलघु कालगुरु, मध्यम में काललघु तपोगुरु तथा अन्त्य मा य सकज्जे मुज्झसु, एमाई होउवालंभो। अर्थात् उत्कृष्ट में दोनों गुरु अर्थात् तप और काल-दोनों गुरु। अपक्व फल आपको लेने नहीं कल्पते। दूसरे साधुओं को ८९३. सम्मेतर सम्म दुहा, सम्मे लिंगि लहु गुरुओ गिहिएसुं। तुम कलंकित मत करो। तुम अपने कार्य में मूढ़ मत बनो। मिच्छा लिंगि गिही वा, पागय-लिंगीसु चउलहुगा। यह उपालंभ है। ८९४. गुरुगा पुण कोडुबे, छल्लहुगा होति दंडियारामे। ९००. कर-पाय-दंडमाइसु, पंतावणगाढमाइ जा चरिमं । तिरिया य दुट्ठ-ऽदुट्ठा, दुढे गुरुगाइरे (गेयरे) लहुगा॥ अप्पो अ अहाजाओ, सव्वो दुविहो वि जं च विणा॥ मनुष्य परिगृहीत के दो प्रकार हैं-सम्यग्दृष्टिपरिगृहीत और हाथ, पैर, दंड आदि से प्रहार करना प्रांतापना है। मिथ्यादृष्टिपरिगृहीत। सम्यग्दृष्टिपरिगृहीत के दो प्रकार हैं- अनागाढ़ परितापना आदि में पारांचिक पर्यन्त प्रायश्चित्त है। लिंगस्थपरिगृहीत और गृहस्थपरिगृहीत। लिंगस्थ-परिगृहीत में अल्प अर्थात् यथाजात उपधि (निषद्याद्वय, रजोहरण, मुखमासलाघु और गृहस्थपरिगृहीत में मासगुरु। मिथ्यादृष्टि वस्त्रिका, चोलपट्टक) का अथवा सर्व उपधि का (दस प्रकार परिगृहीत के दो भेद हैं-लिंगीपरिगृहीत और गृहीपरिगृहीत। की उपधि का) अपहरण कर लिया जाता है। अथवा उपधि गृहीपरिगृहीत के तीन भेद हैं-प्राकृत-परिगृहीत, कौटुंबिक- के दो प्रकार हैं-ओघउपधि और औपग्रहिकउपधि। परिगृहीत तथा दंडिकपरिगृहीत। प्राकृत और लिंगी परिगृहीत इनका अपहरण हो जाता है। तब उपधि के बिना प्रायश्चित्त में चतुर्लघुक, कौटुंबिकपरिगृहीत में चतुर्गुरुक। दंडिक के आता है। आराम में षड्लघु। तिर्यंच दो प्रकार के होते हैं-दुष्ट और अदुष्ट। ९०१. लहुगा अणुग्गहम्मी, अप्पत्तिय गुरुग तीसु ठाणेसु। दुष्टतिर्यगपरिगृहीत में चतुर्गुरुक तथा अदुष्ट में चतुर्लघुक। पंतावणे चउगुरुगा, अप्प बहुम्मी हिए मूलं ।। ८९५. भइतर सुर-मणुया, भद्दो घिप्पंति दट्टणं भणइ। जिसके द्वारा परिगृहीत का आराम है, वह यदि साधु ____ अन्ने वि साहु ! गिण्हसु, पंतो छण्हेगयर कुज्जा॥ द्वारा प्रलंब ग्रहण करने पर अनुग्रह मानता है तो चतुर्लघु, जिस देव या मनुष्य द्वारा परिगृहीत वह आराम है, वह यदि अप्रीति करता है तो चतुर्गुरुक अथवा प्रतिषेध, खरंटना देव या मनुष्य भद्र या प्रान्त हो सकता है। साधु को प्रलंब और उपालंभ-ये तीन स्थान होते हैं तो प्रत्येक के चतुर्गुरुक। ग्रहण करते हुए देखकर भद्र कहता है-हे साधो! अन्य प्रलंब प्रान्तापना में चतुर्गुरुक तथा अल्प या बहुत उपधि का हरण भी तुम ग्रहण करो। जो प्रान्त होगा वह निम्नोक्त छह प्रकारों करने पर मूल प्रायश्चित्त है। में से एक करेगा। ९०२. परितावणाइ पोरिसि, ठवणा महय मुच्छ किच्छ कालगए। ८९६. पडिसेहणा खरंटण, उवलभ पंतावणा य उवहिम्मि। मास चउ छच्च लहू गुरु, छेओ मूलं तह दुगं च।। गिण्हण-कढण - ववहार - पच्छकडुड्डाह - निव्विसए। परितापना होने पर मुनि सूत्रपौरुषी या अर्थपौरुषी नहीं प्रतिषेधना, खरंटणा, उपालंभ, प्रान्तापना, उपधिहरण कर सकता। उसका क्रमशः प्रायश्चित्त है मासलध और तथा ग्रहण-आकर्षण-व्यहार-पश्चात्कृत-उड्डाह-निर्विषय- मासगुरु। सूत्र का नाश करने पर चतुर्लघु, अर्थ का नाश यह छठा है। (इसकी व्याख्या आगे।) करने पर चतुर्गुरु। प्राशुक की स्थापना करने पर चतुर्लघु, ८९७. गहियं तं गहियं, बिइयं मा गिण्ह इरइ वा गहियं।। अप्राशुक में चतुर्गुरू, प्रत्येक वनस्पति की स्थापना में जायसु ममं व कज्जे, मा गिण्ह सयं तु पडिसेहो॥ चतुर्लघु, अनन्तकायिक में चतुर्गुरु। महान् दुःख होने पर वह कहेगा-जो प्रलंब ले लिया, वह ले लिया, दूसरी बार षडलघु, मूर्छा में षड्गुरु, कृच्छप्राण में छेद, कृच्छश्वास में मत लेना। अथवा वह उसके हाथ से वह प्रलंब छीन लेगा। मूल और कालगत होने पर पारांचिक। वह कहेगा यदि आवश्यकता हो तो मेरे से मांग कर लो, ९०३. तणगहणे झुसिरेतर, अग्गी सट्ठाण अभिनवे जं च। स्वयं ग्रहण मत करो। यह प्रतिषेधना है। एसणपेल्लण गहणे, काया सुत मरण ओहाणे॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् शुषिरतृणग्रहण करने पर चतुर्लघु और अशुषिरतृणग्रहण और पतन-ये सारे द्वार पूर्ववत् जानने चाहिए। जो नानात्व है में मासलघु। अग्नि का सेवन करने पर स्वस्थान प्रायश्चित्त वह मैं संक्षेप में कहूंगा। अर्थात चतुर्लघु, अभिनव अग्नि का प्रज्वलन करने पर मूल। ९०८.तं सच्चित्तं दुविहं, पडियाऽपडियं पुणो परित्तियरं। उद्गमादि दोषदुष्ट वस्वैषणा से तथा उसके ग्रहण से पडितऽसति अपावंते, छुभई कट्ठाइए उवरिं। तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त आता है। उपधि के अभाव में पृथ्वी सचित्त के दो प्रकार हैं-पतित और अपतित। इन दोनों के आदि कायों की विराधना होती है, श्रुत का नाश होता है, दो-दो भेद हैं-परीत और अनन्त। पतित-भूमी पर गिरे हुए किसी का मरण भी हो सकता है और कोई मुनि अवधावन प्रलंब के अभाव में, जो वृक्ष पर लटक रहा है परंतु हाथ से नहीं भी कर सकता है। मरण होने पर पारांचिक और अवधावन तोड़ा जा सकता, उस प्रलंब को नीचे गिराने के लिए वह काठ करने पर मूल, दो के अवधावन में अनवस्थाप्य और तीन के के टुकड़े आदि को ऊपर फेंकता है। अवधावन में पारांचिक। ९०९. सजियपयट्टिए लहुगो, सजिए लहुगा य जत्तिया गाहा। ९०४. गेण्हण गुरुगा छम्मास कवणे छेदो होइ ववहारे। गुरुगा होति अणते, हत्थप्पत्तं तु गेण्हते॥ पच्छाकडम्मि मूलं, उड्डहण विरुंगणे नवमं॥ जो मुनि सजीववृक्ष पर प्रतिष्ठित पक्व फल लेता है उसे ९०५. उद्दवणे निव्विसए, एगमणेगे पदोस पारंची। मासलघु का प्रायश्चित्त आता है। वृक्ष पर प्रतिष्ठित सजीव अणवट्ठप्पो दोसु य, दोसु य पारंचिओ होइ॥ ____ फल लेता है तो चतुर्लघु। वह जितने ग्राह-बाहुक्षेप करता है यदि मुनि को प्रलंब ग्रहण करते हुए प्रलंबस्वामी देखकर उतने चतुर्लघु प्रायश्चित्त हैं। यह प्रत्येक वनस्पति के लिए है। उसको पकड़ ले तो चतुर्गुरुक, आकर्षण करने पर अनन्त वनस्पति में ये सारे प्रायश्चित्त गुरु हो जाते हैं। यह षड्गुरुमास, व्यवहार न्यायपालिका में ले जाने पर छेद, सारा प्रायश्चित्त भूमी पर स्थित मुनि हस्तप्राप्त प्रलंब को व्यवहार में यदि वह पश्चात्कृत-पराजित हो जाता है तो वृक्ष से तोड़ता है, उसके लिए है। मूल, चौराहे आदि पर 'यह प्रलंब चोर है' ऐसी घोषणापूर्वक ९१०. छुभमाण पंचकिरिए, पुढवीमाई तसेसु तिसु चरिमं । उसकी भर्त्सना होने पर तथा व्यंगन-हाथ पैर आदि काटे तं काय परिच्चयई, आवडणे अप्पगं चेव ।। जाने पर नौवां अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त आता है। राजा द्वारा जो प्रलंब आदि लेने के लिए काष्ठ आदि वृक्ष पर फेंकता अपद्रावित अथवा देशनिष्काशन किए जाने पर अथवा राजा है वह पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। पृथ्वी आदि जीवों के एक साधु पर अथवा अनेक साधुओं पर प्रद्विष्ट हो जाए तो संघट्टन आदि होने पर यथास्थानप्रास प्रायश्चित्त। पंचेन्द्रियपारांचिक तथा उद्दहन तथा व्यंगन-दोनों करने पर रूप बस का व्यापादन होने पर चरम अर्थात् पारांचिक अनवस्थाप्य तथा अपद्रावण और देशनिष्काशन दोनों करने प्रायश्चित्त। काष्ठ आदि फेंकने पर वह वनस्पति अपनी काय पर पारांचिक प्रायश्चित्त आता है। को छोड़ देती है अर्थात् वह वृक्ष से टूटकर नीचे आ गिरती ९०६. आराम मोल्लकीए, परतित्थिय भोइएण गामेण। है। उस वृक्ष पर निक्षिप्त काष्ठ या पत्थर उस मुनि पर आकर वणि-घड-कुडुंबि-राउलपरिग्गहे चेव भहितरा॥ गिर सकता है। वह आराम स्वयं अपना हो सकता है अथवा निम्न ९११. पावंते पत्तम्मि य, पुणोपडते अ भूमिपत्ते अ। व्यक्तियों से मूल्य द्वारा क्रीत हो सकता है-१. परतीर्थिक, रय-वास-विज्जुयाई, वाय-फले मच्छिगाइ तसे।। २. भोगिक, ३. ग्राम, ४. वणिक ५. घटी-गोष्ठी, वृक्ष को लक्ष्य कर हाथ से फेंका हुआ काष्ट या पत्थर जब ६. कौटुंबिक, ७. आरक्षिक, ८. राजा, (राजकुल शब्द से तक वृक्ष को नहीं लगता तब तक वह 'प्राप्नुवद्' कहलाता है आरक्षिक और राजा-दोनों गृहीत हैं।) यहां भी भद्रक तथा । तथा वृक्ष को प्राप्त कर भूमी पर पुनः गिरता है तब इतर-प्रान्तकृत सारे दोष वक्तव्य हैं। षट्कायविराधना होती है। जैसे-रज आदि पृथ्वीकाय, वर्षा का ९०७. एमेव य सच्चित्ते, छुभणा आरोहणा य पडणा य।। उदक आदि अप्काय, विद्युद् आदि तैजस्काय, वायु, फल, ___जं इत्थं नाणत्तं, तमहं वोच्छं समासेणं॥ तथा मक्षिका आदि त्रसकाय की विराधना होती है। जैसे इसी प्रकार सचित्त प्रलंब के विषय में भी गा. ८६६ से ९१२.खोल्ल-तयाईसु रओ, महि-वासोस्साइ अग्गि दरदड्ढे। प्रारंभ कर गा. ९०६ तक जानना चाहिए। प्रक्षेपण, आरोहण तत्थेवऽनिल वणस्सइ, तसा उ किमि-कीड-सउणाई।। १. पांच क्रियाएं-(१) कायिकी (२) आधिकरणिकी (३) प्रादेषिकी (४) पारितापनिकी (५) प्राणातिपातक्रिया। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक खोल्ल-कोटर में, त्वक छाल आदि में रजें होती हैं। बींधा जाता है, बिच्छु, सर्प आदि से डसा जा सकता है, अतः पृथ्वीकाय की विराधना होती है। महिका और पक्षी-तरक्ष आदि का वध हो सकता है। यदि वृक्ष अवश्याय-ओस आदि के कारण अप्काय की विराधना, देवताधिष्ठित हो तो मुनि क्षिप्तचित्त हो जाता है। अथवा वनवह्नि के कारण दरदग्ध वृक्ष में अग्निकाय की विराधना, देवता उस मुनि को समाप्त कर देता है। अथवा वह देवता वहीं वायुकाय की विराधना, प्रलंब आदि के कारण आरोहण करने वाले उस मुनि को वृक्ष से नीचे गिरा देता है। वनस्पतिकाय की विराधना तथा कृमि, कीट, पक्षी इन त्रस उससे छहकाय की विराधना होती है। मुनि के अंग-उपांग प्राणियों की भी विराधना होती है। भग्न हो जाते हैं। जीवों के संघट्टन से वही आरोपणा ९१३. अप्पत्ते जो उ गमो, सो चेव गमो पुणोपडतम्मि। प्रायश्चित्त है। आत्मविराधना में ग्लानविषयक परितापनिका सो चेव य पडियम्मि वि, निक्कंपे चेव भोमाई॥ आदि से निष्पन्न वही आरोपणा प्रायश्चित्त ज्ञातव्य है। जो फेंके गए काष्ठ आदि के अप्रास का 'गम'-प्रकार है, ९१८. मरण-गिलाणाईया, जे दोसा होति दूहमाणस्स। वही 'गम' पुनः गिरते हुए के विषय में है। वही 'गम' भूमी ते चेव य सारुवणा, पवडते होंति दोसा उ॥ पर गिरे हुए के विषय में जानना चाहिए। जो फेंका गया काष्ठ वृक्ष पर चढ़ते हुए मुनि के जो मरण, ग्लानत्व आदि दोष आदि अत्यंत भारी होने के कारण पृथ्वी पर निष्प्रकंप रूप में होते हैं, वे ही दोष वृक्ष से गिरने पर होते हैं। तत्संबंधी गिरता है, उससे पृथ्वी आदि की महती विराधना होती है। आरोपणा सहित प्रायश्चित्त वक्तव्य है। ९१४. एवं दव्वतो छण्हं, विराधओ भावओ उ इहरा वि। ९१९. तंमूल उवहिगहणं, पंतो साहूण कोइ सव्वेसिं। चिज्जइ हु घणं कम्मं, किरियग्गहणं भयनिमित्तं॥ तण-अग्गिगहण परितावणा य गेलन्न पडिगमणं ।। इस प्रकार वह मुनि द्रव्यतः छह जीवनिकायों का जिसके अधिकार में वे प्रलंब हैं, वही व्यक्ति प्रलंब ग्रहण विराधक होता है। द्रव्यतः हिंसा न होने पर भी वह करने वाले मुनि की उपधि का अपहरण कर लेता है अथवा भावतः षट्काय विराधक होता है, क्योंकि वह संयम के प्रति कोई प्रान्त व्यक्ति सभी साधुओं की उपधि का अपहरण कर निरपेक्ष है। भावतः प्राणातिपात से वह निबिड कर्मों का लेता है। वस्त्र के अभाव में मुनि के तृणग्रहण, अग्निसेवन, उपचय करता है। गा. ९१० में जो कहा गया कि वह पांच परितापना, ग्लानत्व तथा प्रतिगमन-ये दोष होते हैं। क्रियाओं से स्पृष्ट होता है, यह कथन भय के निमित्त कहा ९२०.तणगहण अग्गिसेवण, लहगा गेलन्ने होइ तं चेव। गया है। ____ मूलं अणवठ्ठप्पो, दुग तिग पारंचिओ होइ॥ ९१५. कुवणय पत्थर लेट्ट, पुव्वच्छूढे फले व पवडंते। जो तृणग्रहण करता है अथवा अग्नि का सेवन करता है पच्चुप्फिडणे आया, अच्चायाम य हत्थाई। उसको चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। जो ग्लान मुनि अग्नि किसी प्रलंबार्थी ने पहले भी वृक्ष पर 'कुवणय'-लकड़ी का सेवन करता है उसको भी वही प्रायश्चित्त है। एक फेंकी थी। वह किसी शाखा में अटक गई। अब जब साधु ने प्रलंब । अवधावन करता है तो मूल, दो अवधावन करते हैं तो ग्रहण करने के लिए काष्ठ आदि फेंका तो पूर्वक्षिप्त लकड़ी उस अनवस्थाप्य और तीन अवधावन करते हैं तो पारांचिक। पर आकर गिर सकती है। इसी प्रकार पूर्वक्षिस पत्थर या लेष्टु ९२१. अपरिग्गहिय पलंबे, अलभंतो समणजोगमुक्कधुरो। (ईंट का टुकड़ा) गिर सकता है अथवा फल गिर सकता है। रसगेहीपडिबद्धो, इतरे गिण्हंतो गहिओ य॥ पूर्वक्षिप्त लकड़ी आदि के गिरने से आत्मविराधना होती है तथा जो मुनि श्मण के व्यापारभार से मुक्त हो गया है, वह हाथ को बहुत ऊंचा कर कुछ फेंकने से परितापना होती है। ये अपरिगृहीत प्रलंब का लाभ न होने पर, रसगृद्धि से प्रतिबद्ध सारे दोष क्षेपण से संबंधित हैं। होकर परिगृहीत प्रलंब लेते हुए प्रलंबस्वामी द्वारा पकड़ा ९१६. खिवणे वि अपावंतो, दुरुहइ तहिं कंट-विच्छु-अहिमाई। जाता है। पक्खि-तरच्छाइवहो, देवयखेत्ताइकरणं च॥ ९२२. महजणजाणणया पुण, सिंघाडग-तिग-चउक्क-गामेसु। ९१७. तत्थेव य निट्ठवण, अंगेहिं समोहएहिं छक्काया। उड्डहिऊण विसज्जिते, महजणणाए ततो मूलं॥ आरोवण स च्चेव य, गिलाणपरितावणाईया।। प्रलंबस्वामी उसे पकड़ कर शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क कुछ फेंकने पर भी यदि प्रलंब प्राप्त नहीं होता है तो वह स्थानों पर गांव में ले जाकर गांव के महाजनों को यह ज्ञापित मुनि वृक्ष पर आरोहण करता है। चढ़ते हुए वह कांटों से करता है कि 'इसने प्रलंबों की चोरी की है। इस प्रकार १. खोल्लं ति देशीशब्दत्वात् कोटरम्। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० बृहत्कल्पभाष्यम् महाजनों के समक्ष उसका तिरस्कार कर उसे विसर्जित कर दिया। इस स्थिति में उसे मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ९२३. एस उ पलंबहारी, सहोढ गहिओ पलंबठाणेसु। सेसाण वि छाघाओ, सविहोढ विलंबिए होइ॥ वह प्रलंबस्वामी लोगों को एकत्रित कर कहता है-'यह प्रलंब चोर है। मैंने इसको प्रलंब-स्थानों में रंगे हाथों पकड़ा है। इस प्रकार 'सविहोढ'-उसकी जिस प्रकार जुगुप्सा हो वैसे करते हुए उसकी विडंबना की जाती है। इस विडंबना से शेष साधुओं का प्रभाभंश होता है। लोक मानने लग जाते हैं कि सभी साधु ऐसे ही होते हैं। ९२४. अवराहे लहुगतरो, आणाभंगम्मि गुरुतरो किह णु। आणाए च्चिय चरणं, तब्भंगे किं न भग्गं तु॥ शिष्य ने पूछा-अपराध होने पर लघुतर दंड पहले कहा गया है। अब आज्ञाभंग में चतुर्गरुक का दंड कहा है। यह कैसे? आचार्य कहते हैं-आज्ञा में ही चारित्र है। आज्ञाभंग में क्या-क्या भंग नहीं होता, सब कुछ भग्न हो जाता है, अतः आज्ञाभंग गुरुतर दोष है। ९२५. सोऊण य घोसणयं, अपरिहरंता विणास जह पत्ता। एवं अपरिहरंता, हियसव्वस्सा उ संसारे॥ राजा की घोषणा को सुनकर जो निवारित प्रयोजन का परिहार नहीं करता, वह विनाश को प्राप्त होता है। इसी प्रकार तीर्थंकर द्वारा निषिद्ध का परिहार न करने वाले मुनि का सर्वस्व अपहृत हो जाता है और वह संसार में दुःख पाता है। ९२६. छ प्पुरिसा मज्झ पुरे, जो आसादेज्ज ते अजाणतो। __ तं दंडेमि अकंडे, सुणेतु पउरा! जणवया! य॥ ९२७. आगमिय परिहरंता, निद्दोसा सेसगा न निद्दोसा। जिणआणागमचारि, अदोस इयरे भवे दंडो॥ एक राजा ने यह घोषणा करवाई-ये छह पुरुष मेरे पुर में हैं। जो अजानकारी में इनकी आशातना करेगा, पीड़ा पहुंचाएगा, मैं अकाल में, बिना किसी कारण उनको दंडित करूंगा। हे पुरवासियो! हे देशवासियो! यह तुम सुनो। इस घोषणा के अनुसार जो लोग उन छहों पुरुषों की आशातना का परिहार करते हैं वे निर्दोष हैं। शेष लोग जो आशातना का परिहार नहीं करते, वे निर्दोष नहीं हैं, वे दंडित होते हैं। इसी प्रकार जो मुनि जिनाज्ञा के अनुसार आगम का परिज्ञान कर संयम का पालन करता है, वह निर्दोष है, दूसरों के लिए भव-संसार में दुःखरूप दंड ज्ञातव्य है।। ९२८. एगेण कयमकज्जं, करेइ तप्पच्चया पुणो अन्नो। सायाबद्दल परंपर, वोच्छेदो संजम-तवाणं॥ १. सहोढः-सलोप्त्रः-चुराई हुई वस्तु के साथ रंगेहाथों। (वृ. पृ. २९२) एक मुनि यदि अकार्य करता है तो उसके आधार पर दूसरे भी अकार्य में प्रवृत्त होते हैं। सातबहुल प्राणियों की इस परंपरा से संयम और तप का व्यवच्छेद हो जाता है। ९२९. मिच्छत्ते संकाई, जहेय मोसं तहेव सेसं पि। मिच्छत्तथिरीकरणं, अब्भुवगम वारणमसारं॥ मिथ्यात्व के प्रसंग में शंका आदि दोष वक्तव्य हैं। लोगों में यह चित्तविप्लुति हो जाती है कि जैसे इन मुनियों का यह व्रत मिथ्या है वैसे ही सारे व्रत मिथ्या हैं। लोगों में मिथ्यात्व का स्थिरीकरण हो जाता है। कोई धर्मग्रहण करने के लिए उद्यत होता है, उसका वारण किया जाता है और लोग मानने लग जाते हैं कि इनका प्रवचन असार है। ९३०.तं काय परिच्चयई, नाणं तह दंसणं चरित्तं च। बीयाईपडिसेवग, लोगो जह तेहिं सो पुट्ठो॥ जो मुनि प्रलंब का ग्रहण करता है वह उस काय अर्थात् वनस्पति के ज्ञान के साथ-साथ ज्ञान, दर्शन और चारित्र का परित्याग कर देता है। बीज आदि का प्रतिसेवन करने वाले लोग जैसे असंयम से स्पृष्ट होते हैं, वैसे ही प्रलंबसेवी वह मुनि भी असंयम से स्पृष्ट होता है। ९३१. कायं परिच्चयंतो, सेसे काए वए वि सो चयई। णाणे णाणुवदेसे, अवट्टमाणो, उ अन्नाणी॥ प्रलंब ग्रहण करने वाला वनस्पतिकाय (के ज्ञान) का परित्याग कर देता है वैसे ही वह शेष कायों तथा व्रतों का भी परित्याग कर देता है। ज्ञान का परित्याग कर देने पर ज्ञानोपदेशक्रिया में अप्रवर्तमान वह ज्ञानी भी अज्ञानी होता है। ९३२. सण-चरणा मूढस्स नत्थि समया व नत्थि सम्मं तु। विरईलक्खण चरणं, तदभावे नत्थि वा तं तु॥ ज्ञान के अभाव में वह मूढ़ होता है। मूढ़ व्यक्ति के दर्शन और चारित्र नहीं होता। उसमें प्राणियों के प्रति समता भी नहीं होती। समता के अभाव में सम्यक्त्व भी नहीं होता। चरण होता है विरा लक्षण वाला। इस लक्षण के अभाव में उसमें चारित्र ही नहीं होता। ९३३. पाएण बीयभोई, चोयग! पच्छाणुपुब्वि वा एवं। जोणिग्घाते व हतं, तदादि वा होइ वणकाओ॥ लोग प्रायः बीजभोजी होते हैं। हे शिष्य! यह कथन पश्चानुपूर्वी से भी होता है। बीज वनस्पति की योनि है। उसके घात से, विनाश से, मूल आदि सारा हत हो जाता है, क्योंकि 'तदादि' बीज ही आदि है उसका, अर्थात् वनस्पतिकाय का बीज ही आदि है। २. दृष्टांत के लिए देखें-कथा परिशिष्ट, नं. ४१। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ९३४. विरइसभावं चरणं, बीयासेवी हु सेसघाती वि। अस्संजमेण लोगो, पुट्ठो जह सो वि हु तहेव ॥ जो बीजसेवी होता है, वह शेष अर्थात् मूल आदि का भी घात करता है। उसके विरति स्वभाव वाला चारित्र नहीं होना जैसे बीज आदि का प्रतिसेवक असंयम से स्पृष्ट होता है वैसे ही प्रलंबसेवी भी असंयम से स्पृष्ट होता है। ९३५. तं चेव अभिहणेज्जा, आवडियं अहव जीहलोलुयता । बहुगाहं भुंजित्ता, विसूचिकाईहिं आयवहो । वृक्ष पर फेंका गया लगुड़ आदि उसी मुनि पर गिर कर उसका हनन कर सकता है। अथवा वह मुनि जिह्वा की लोलुपता के कारण अनेक प्रलंबों को खाकर विसूचिका आदि से ग्रस्त हो सकता है। यह आत्मवध है। ९३६. कस्सेयं पच्छित्तं, गणिणो गच्छं असारविंतस्स । अहवा वि अगीयत्यस्स भिक्खुणो बिसयलोलस्स ॥ शिष्य ने पूछा- प्रलंब आदि अन्यत्र ग्रहण करने पर अनेक प्रायश्चित कहे हैं। वे प्रायश्चित्त किसके आते हैं? आचार्य ने कहा- वे प्रायश्चित्त गच्छ की सारणा वारणा न करने वाले आचार्य के आते हैं। अथवा जो भिक्षु अगीतार्थ और विषयलोलुप है, उसके वे प्रायश्चित्त हैं। ९३७. देसो व सोवसग्गो, वसणी व जहा अजाणगनरिंदो । रज्जं विलुत्तसारं, जह तह गच्छो वि निस्सारो ॥ गच्छ की सारणा नहीं करने वाला आचार्य उपसर्ग सहित होता है, जैसे राज्य की चिंता न करने वाले राजा का देश उपसर्गबहल और व्यसनी हो जाता है। जैसे अज्ञायक राजा का परित्याग कर दिया जाता है, उसी प्रकार वैसे आचार्य का परित्याग कर देना चाहिए। जैसे राजा द्वारा अरक्षित राज्य साररहित हो जाता है, वैसे ही असारित गच्छ भी निस्सार हो जाता है। ९३८, ओमोदरिया व जहिं, असिवं च न तत्थ होइ गंतव्यं । उप्पन्ने न वसियव्वं, एमेव गणी असारणीओ ॥ जिस देश में अवमोदरिका, अशिव आदि होते हैं वहां नहीं जाना चाहिए। जिस देश में अवमोदरिका, अशिव आदि रहते हैं तो वहां नहीं रहना चाहिए। इसी प्रकार गच्छ की सारणा से विकल गणी का अनुगमन नहीं करना चाहिए। ९३९, सत्तण्हं वसणाणं, अन्नयरजुतो न जाणई रज्जं । अंतेउरे व अच्छइ, कज्जाई सयं न सीलेइ ॥ जो राजा सात व्यसनों में से किसी एक व्यसन से भी युक्त होता है तो वह राज्य का परिपालन करना नहीं जानता । वह अंतःपुर में ही समय बिताता है तथा स्वयं कार्य का १०१ परिशीलन नहीं करता, उस राज्य की प्रजा उच्छृंखल हो जाती है। ९४० इत्यी जूयं मज्नं, मिगव्य वयणे तहा फरुसया य दंडफरुसत्तमत्थस्स दूसणं सत्त बसणाई ॥ सात व्यसन ये हैं-स्त्रीव्यसन, चुतव्यसन, मद्यव्यसन, मृगयाव्यसन, वचनपरुषताव्यसन, दंडपारुष्यव्यसन, अर्थदूषणव्यसन । . ९४१. अहवा वि अगीयत्थो, गच्छं न सारेइ इत्थ चउभंगो। बिइए अगीयदोसो, ततो न सारेतरो सुखो ॥ अथवा अगीतार्थ गच्छ की सारणा नहीं करता, इस संबंध में चतुर्भंगी होती है १. अगीतार्थ गच्छ की सारणा नहीं करता। २. अगीतार्थ गच्छ की सारणा करता है। ३. गीतार्थ गच्छ की सारणा नहीं करता । ४. गीतार्थ गच्छ की सारणा करता है। प्रथम भंग में दो दोष-अगीतार्थत्वदोष, असारणत्वदोष । द्वितीय मंग में एक दोष-अगीतार्थत्वदोष । तृतीय भंग में एक दोष - असारणत्वदोष । चतुर्थ भंग - शुद्ध है। ९४२. देसो व सोवसग्गो, पढमो तइओ तु होइ वसणी वा । बिहओ अजाणतुल्लो, सारो दुविहो बुहेलेको ।। प्रथम भंगवर्ती आचार्य सोपसर्ग देश की भांति परित्याज्य है। तृतीय भंगवर्ती आचार्य व्यसनी राजा की भांति परिहर्तव्य है। द्वितीय भंगवर्ती आचार्य भी अज्ञनरेन्द्र की भांति त्याज्य है। सार दो प्रकार का होता है-लौकिक और लोकोत्तर । ये दोनों दो-दो प्रकार के हैं-बाह्य और आभ्यन्तर । ९४३. गो-मंडल - धन्नाई, बज्झो कणगाइ अंतो लोगम्मि । लोगुत्तरिओ सारी, अंतो बहि नाण - बत्थाई ॥ गोवर्ग, मंडल- देश का खंड, धान्य आदि - यह लौकिक बाह्यसार है। कनक आदि लौकिक अन्तः सार है। लोकोत्तर सार भी दो प्रकार का है-अन्तर् और बाह्य । अन्तर सार है ज्ञान आदि और बाह्यसार है-वस्त्र आदि। ९४४. सुहसाहगं पि कज्जं, करणविहूणमणुवायसंजुत्तं । अन्नायस काले, विवत्तिमुवजाति सेहस्स ॥ सुखसाध्य कार्य भी यदि करण अर्थात् प्रयत्न विहीन होता है या अनुपाय से संयुक्त होता है, या कार्य अज्ञात हो, अदेश-काल-अनवसर में उसको किया जाए तो शैक्ष अर्थात् अज्ञ व्यक्ति के लिए वह विपत्ति का कारण बनता है, वह कार्य सिद्ध नहीं होता। . Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ बृहत्कल्पभाष्यम् ९४५. नक्खेणावि हु छिज्जइ, पासाए अभिनवुद्वितो रुक्खो। दुच्छेज्जो बहुंतो, सो च्चिय वत्थुस्स भेदाय॥ ९४६. जो य अणुवायछिन्नो, तस्सइ मूलाई वत्थुभेदाय। अहिनव उवायछिन्नो, वत्थुस्स न होइ भेदाय॥ प्रासाद में तत्काल उगा हुआ वट-पिप्पल आदि वृक्ष को नखों से भी छेदा जा सकता है और जब वह वृक्ष बड़ा हो जाता है तब वह दुश्छेद्य हो जाता है। वह वास्तु अर्थात् प्रासाद को ही भेद देता है। जो अनुपाय से छेदा जाता है, उसके मूल आदि अनुद्धृत्य रह जाते हैं तो वे भी प्रासाद को भेद डालते हैं। जो वृक्ष अभिनव है, उपाय से छिन्न है, वह प्रासाद-भेद के लिए नहीं होता। ९४७. पडिसिद्ध त्ति तिगिच्छा, जो उ न कारेइ अभिनवे रोगे। किरियं सो उ न मुच्चइ, पच्छा जत्तेण वि करेंतो॥ ९४८. सहसुप्पइअम्मि जरे, अट्ठम काऊण जो वि पारेइ। सीयल-अंबदवाणी, न हु पउणइ सो वि अणुवाया॥ कोई मुनि अभिनव रोग में यह सोचकर तत्काल चिकित्सा नहीं कराता क्योंकि मुनि के लिए चिकित्सा कराना प्रतिषिद्ध है, वह मुनि रोग के बढ़ने पर प्रयत्नपूर्वक चिकित्सा कराने पर भी रोग से मुक्त नहीं हो सकता। इसी प्रकार सहसा उत्पन्न ज्वर में वह तेले की तपस्या कर शीतलकूर (वासी भोजन), आम्लद्रव आदि से पारणा करता है वह भी अनुपाय अर्थात् सही उपाय के अभाव में रोगमुक्त नहीं होता, स्वस्थ नहीं होता। ९४९. संपत्ती य विपत्ती, य होज्ज कज्जेसु कारगं पप्प। अणुवायतो विवत्ती, संपत्ती कालुवाएहिं॥ कर्ता के आधार पर कार्य में संपत्ति और विपत्ति आती है। अनुपाय से किए हुए कार्य में विपत्ति आती है और काल और उपाय से किए हुए कार्य की संप्राप्ति-सिद्धि होती है। ९५०. इय दोसा उ अगीए, गीयम्मि उ कालहीणकारिम्मि। गीयत्थस्स गुणा पुण, होति इमे कालकारिस्स॥ यदि कार्य करने वाला अगीतार्थ हो तो ये सारे दोष होते हैं। गीतार्थ होने पर भी जो काल की हीनता या अधिकता में कार्य करता है तो भी ये ही दोष होते हैं। जो कालकारी गीतार्थ होता है उनमें ये निम्नोक्त गुण होते हैं। ९५१. आयं कारण गाढं, वत्थु जुत्तं ससत्ति जयणं च। सव्वं च सपडिवक्खं, फलं च विधिवं वियाणाइ॥ आय-लाभ, कारण, आगाढ़ग्लानता, वस्तु, युक्त, सशक्तिक-समर्थ तथा यतना--इन सभी को तथा इनके प्रतिपक्षी सभी गुणों को गीतार्थ जानता है और वह उनके फल-परिणाम को भी जानता है। ९५२. सुंकादीपरिसुद्धे, सइ लाभे कुणइ वाणिओ चिट्ठ। एमेव य गीयत्थो, आयं दुटुं समायरइ। यदि वणिक् को शुल्क आदि से परिशुद्ध लाभ होता है तो वह वाणिज्य करने की चेष्टा करता है। इसी प्रकार गीतार्थ मुनि भी ज्ञान आदि का लाभ देखकर प्रतिसेवना करता है। ९५३. असिवाईसुंकत्थाणिएसु किंचिखलियस्स तो पच्छा। वायण वेयावच्चे, लाभो तव-संजम-ऽज्झयणे॥ प्रतिसेवना के समय गीतार्थ यह सोचता है कि अशिव आदि शुक्लस्थानीय हैं। प्रतिसेवना करने वाला संयमस्थान से स्खलित हो जाता है। किन्तु अशिव आदि के बीतने के पश्चात् वाचना देता हुआ तथा आचार्य आदि की वैयावृत्त्य करता हुआ वह तप, संयम तथा अध्ययन में उद्यम करता हुआ वह लाभ का भागी होता है। प्रतिसेवना की शुद्धि प्रायश्चित्त से हो जाएगी। ९५४. नाणाइतिगस्सऽट्ठा, कारण निक्कारणं तु तव्वज्ज। अहिडक विस विसूइय, सज्जक्खयसूलमागाढं। गीतार्थ मुनि कारण में ही प्रतिसेवना का समाचरण करता है, निष्कारण नहीं। कारण है-ज्ञान, दर्शन और चारित्र-इस त्रिपदी के लिए। इनको वर्जित कर जो प्रतिसेवना की जाती है, वह निष्कारण होती है। सर्प द्वारा डसा जाना, विषमिश्रित भक्तपान कर लेना, विसूचिका का होना, सद्यः क्षयकारी शूल आदि का होना ये सारा आगाढ़ कारण है। चिरघाती रोग अनागाढ़ कारण है। ९५५. आयरियाई वत्थु, तेसिं चिय जुत्त होइ जं जोग्गं । गीय परिणामगा वा, वत्थु इयरे पुण अवत्थु। आचार्य, गीतार्थ, परिणामकन्ये वस्तु कहलाते हैं। इनसे इतर अर्थात् प्रतिपक्षभूत दूसरे सभी अवस्तु कहलाते हैं। जो वस्तुभूत हैं वे स्वयं प्रतिसेवना करते हैं अथवा करवाते हैं, वे उसके ज्ञाता होते हैं। इनके लिए जो योग्य भक्त-पान आदि होता है वह युक्त है, उससे विपरीत अयुक्त है। इस युक्तअयुक्त को गीतार्थ ही जान सकता है, दूसरा नहीं। ९५६. धिड सारीरा सत्ती. आय-परगता उतं न हावेति। जयणा खलु तिपरिरया, अलंभे पच्छा पणगहाणी।। शक्ति दो प्रकार की होती है-धृतिरूप और शारीरिकी। धृतिशक्ति आत्मगत होती है और शारीरिकी शक्ति परगत अर्थात संहननगत होती है। आचार्य अथवा गीतार्थ मुनि उस शक्ति को न्यून नहीं करता। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ el पहला उद्देशक यहां यतना है त्रिपरिरया। परिरय का अर्थ है-चारों ओर परिभ्रमण। मुनि एषणीय आहार प्राप्ति के लिए ग्राम आदि में तीन बार परिभ्रमण करे। लाभ न होने पर पंचकपरिहानि (प्रायश्चित्तविधि) से प्राप्ति का प्रयत्न करे। ९५७. इह-परलोगे य फलं, इह आहाराइ इक्कमेक्कस्स। सिद्धी सग्ग सुकुलता, फलं तु परलोइयं एयं॥ फल दो प्रकार का होता है-इहलोकफल और परलोकफल। इहलोकफल है-आहार, वस्त्र, पात्र आदि की उपलब्धि और परलोकफल है-सिद्धिगमन, स्वर्गगमन, सुकुलोत्पत्ति। इन दोनों प्रकार के फलों की स्वयं को तथा पर को कैसे प्राप्ति हो, इस चिंतन का गीतार्थ समाचरण करता है। ९५८. खेत्तोयं कालोय, करणमिणं साहओ उवाओऽयं। __ कत्त त्ति य जोगि त्ति य, इय कडजोगी वियाणाहि॥ गीतार्थ प्रतिसेवना करते-कराते हुए भी अप्रायश्चित्ती होता है, क्योंकि वह ओजा होता है, अरक्त-द्विष्ट होकर वैसे करता है। ओजा वह होता है जो मध्यस्थ होता है। क्षेत्रौजा-मार्ग आदि में ओजा। कालौजा-दुर्भिक्ष आदि में ओजा। क्षेत्र और काल के अनुसार प्रतिसेवना करने वाला दूषित नहीं होता। गीतार्थ जानता है कि यह करण है-सम्यक् क्रिया है। यह ज्ञान, दर्शन, चारित्र का साधक उपाय है। जो कर्ता और योगी होता है, उसे कृतयोगी अर्थात् गीतार्थ जानना चाहिए। ९५९. ओयब्भूतो खित्ते, काले भावे य जं समायरइ। कत्ता उ सो अकोप्पो, जोगीव जहा महावेज्जो॥ जो ओजभूत अर्थात् गीतार्थ होता है वह क्षेत्र, काल और भाव को जानकर जो कुछ समाचरण करता है वह पूर्ण चिंतन करने वाला कर्ता और अकोप्य-अकोपनीय, अदूषणीय होता है। जैसे महावैद्य वैद्यकशास्त्र के अनुसार चिकित्सा करता हुआ योगी-धन्वन्तरी की तरह श्लाघ्य होता है। (धन्वन्तरी ने अष्टांग आयुर्वेद की रचना की। उसका यथा-विधि अध्ययन करने वाला महावैद्य कहलाता है। वह आयुर्वेद के अनुसार चिकित्सा करता हुआ धन्वन्तरी की तरह श्लाघ्य होता है, दूषणभाक नहीं होता। ९६०. अहवण कत्ता सत्था, न तेण कोविज्जती कयं किंचि। कत्ता इव सो कत्ता, एवं जोगी वि नायव्वो॥ अहवण -अथवा कर्ता हैं तीर्थंकर। वे जो कुछ करते हैं, १. ओजा-यो न रागे न द्वेषे किन्तु तुला-दंडवत् द्वयोरपि मध्ये प्रवर्तते स ओजा भण्यते। (वृ. पृ. ३०२) २. 'अहवण' त्ति अखण्डमव्ययं अथवार्थे वर्तते। (वृ. पृ. ३०३) १०३ वह सम्यक् ही होता है। इसी प्रकार गीतार्थ भी कर्ता-तीर्थंकर की भांति कर्ता होता है। वह कोपनीय नहीं होता। जैसे तीर्थंकर योगी होते हैं, वैसे ही वह भी योगी होता है, उसे भी योगी जानना चाहिए। ९६१. किं गीयत्थो केवलि, चउब्विहे जाणणे य गहणे य। तुल्लेऽराग-होसे, अणंतकायस्स बज्जणया। शिष्य ने पूछा-क्या गीतार्थ केवली होता है? आचार्य कहते हैं-हां, वह केवली तुल्य है। द्रव्य आदि के भेद से जो चार प्रकार का ज्ञान है, वह केवली और गीतार्थ दोनों में होता है, एक-अनेक प्रलंबग्रहण विषयक विषम प्रायश्चित्त-दान, दोनों में राग-द्वेष का तुल्य अभाव तथा अनन्तकाय की वर्जना-दोनों करते हैं, दोनों की समान होती है। ९६२. सव्वं नेयं चउहा, तं वेइ जिणो जहा तहा गीतो। चित्तमचित्तं मीसं, परित्तऽणतं च लक्खणतो।। सारा ज्ञेय चार प्रकार का है-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतः और भावतः। इनको जिन केवली जैसे जानता है वैसे ही गीतार्थ भी जानता है। जैसे केवली सचित्त, अचित्त, मिश्र, परीत्त और अनन्तकाय वनस्पति को लक्षण से जानते हैं, प्ररूपित करते हैं वैसे ही गीतार्थ मुनि भी जानता है, प्ररूपित करता है। ९६३. कामं खलु सव्वन्नू, नाणेणऽहिओ दुवालसंगीतो। पन्नत्तीइ उ तुल्लो, केवलनाणं जओ मूर्य। यह अनुमत है कि द्वादशांगविद् श्रुतकेवली से सर्वज्ञ ज्ञान की अधिकता से स्तुत्य हैं। किन्तु प्रज्ञप्ति-प्रज्ञापना में दोनों तुल्य हैं। इससे आगे केवलज्ञान मूक है। इसका तात्पर्य है कि श्रुतकेवली के जो अविषयभूत हैं, उनको केवली जान सकता है, परंतु अप्रज्ञापनीय होने के कारण केवली भी उनके विषय में कुछ भी प्रज्ञापना नहीं कर सकते। ९६४. पन्नवणिज्जा भावा, अणंतभागो उ अणभिलप्पाणं। पन्नवणिज्जाणं पुण, अणंतभागो सुअ निबद्धो॥ अनभिलाप्य अर्थात् अप्रज्ञापनीय भावों से प्रज्ञापनीय भाव अनन्तवें भाग में हैं। प्रज्ञापनीय भावों का अनन्तवां भाग श्रुत-निबद्ध है। ९६५. जं चउदसपुव्वधरा, छट्ठाणगया परोप्परं होति। तेण उ अणंतभागो, पन्नवणिज्जाण जं सुत्तं। ३. काममत्रावधृतार्थे, कामाभिधानमर्थद्वये भवति-कामार्थेऽवधृतार्थे च । (वृ. पृ. ३०३) Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ चतुर्दशपूर्वधर परस्पर षट्स्थानवर्ती होते हैं। इसलिए प्रज्ञापनीयभावों का अनन्तवां भाग श्रुत (चतुर्दशपूर्वरूप) में निबद्ध है। ९६६. केवलविन्नेयत्थे, सुयनाणेणं जिणो पगासेइ। सुयनाणकेवली वि हु, तेणेवऽत्थे पगासेइ॥ केवलज्ञान द्वारा जो अर्थ-पदार्थ विज्ञेय हैं, उनका 'जिन' अर्थात केवली श्रुतज्ञान से प्रकाशन करता है। श्रुतज्ञानी केवली भी उन्हीं अर्थों का इसी श्रुतज्ञान के द्वारा प्रकाशन करता है। (अतः श्रुतकेवली और केवलज्ञानी दोनों प्रज्ञापन की दृष्टि से तुल्य हैं।) ९६७. गूढछिरागं पत्तं, सच्छीरं जं च होइ निच्छीरं। जं पि य पणट्ठसंधिं, अणंतजीवं वियाणाहि॥ जिस वनस्पति के सक्षीर या निःक्षीर पत्र गूढशिरा वाले होते हैं अर्थात् जिनके स्नायु गूढ़ होते हैं-अनुपलक्षित होते हैं तथा जो प्रनष्ट संधि वाले होते हैं, उसको अनन्तकायिक वनस्पति जानना चाहिए। ९६८. चक्कागं भज्जमाणस्स, गंठी चुण्णघणो भवे। पुढविसरिसेण भेएणं, अणंतजीवं वियाणाहि॥ जिसके मूल आदि को तोड़ने पर चक्राकार टुकड़ा होता है और जिसकी ग्रंथी-पर्व को तोड़ने पर वह घनचूर्ण वाला होता है, पृथ्वीसदृश समभेद होता है, उसको अनन्तकायिक वनस्पति जानना चाहिए। ९६९. जस्स मूलस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसई। अणंतजीवे उ से मूले, जे याऽवऽन्ने तहाविहे॥ जिसके मूल को तोड़ने पर समान टुकड़े होते हैं, वह मूल अनन्तकायिक वनस्पति है। जो अन्य अर्थात् स्कंध आदि हैं, वे भी समभाग से टूटते हैं तो वे भी अनन्तकायिक हैं। ९७०. जस्स मूलस्स भग्गस्स, हीरो भंगे पदिस्सए। परित्तजीवे उ से मूले, जे याऽवऽन्ने तहाविहे। __ जिस वनस्पति के मूल को भग्न करने पर 'हीर' अर्थात् तंतुकविशेष देखे जाते हैं, वह परीत्तजीवी मूल है। उसी प्रकार के अन्य स्कंध आदि भी परीत्तजीवी वनस्पति हैं। ९७१. जस्स मूलस्स कट्ठातो, छल्ली बहलतरी भवे। अणंतजीवा उ सा छल्ली, जा याऽवऽन्ना तहाविहा॥ जिसके मूल से संबंधित काष्ठ से छल्ली-छाल स्थूल होती है (जैसे-शतावरी) वह छल्ली अनन्तकायिक होती है। १. प्रश्न होता है कि सभी चतुर्दशपूर्वियों को समान अक्षरलाभ होने पर भी षट्स्थानपतित्व कैसे उचित हो सकता है ? आचार्य कहते हैं-एक ही सूत्र के अनन्त, असंख्य और संख्य अर्थ मतिविशेषगत हैं। वे श्रुतज्ञान के आभ्यन्तरवर्ती होते हैं। अतः परस्पर पदस्थानपतित्व बृहत्कल्पभाष्यम् जो इस प्रकार की अन्य वनस्पति होती है, वह भी अनन्तकायिक है। ९७२. जस्स मूलस्स कट्ठातो, छल्ली तणुयतरी भवे। परित्तजीवा तु सा छल्ली, जा याऽवऽण्णा तहाविहा॥ जिसके मूल से संबंधित काष्ठ से छाल तनुक-श्लक्ष्ण होती है वह छाल परीत्तजीवी है, (जैसे आम्र)। जो उसी प्रकार की अन्य छाल होती है वह भी परीत्तजीवी है। ९७३. जोअणसयं तु गंता, अणहारेणं तु भंडसंकंती। वाया-ऽगणि-धूमेण य, विद्वत्थं होइ लोणाई।। लवण आदि अपने उत्पत्ति स्थान से संक्रामित होकर अन्यत्र ले जाया जाता हुआ, प्रतिदिन विध्वस्त होता हुआ, सौ योजन के पश्चात् पूर्ण विध्वस्त हो जाता है, अचित्त हो जाता है। इसके और भी अनेक कारण हैं। उसे अनाहार अर्थात् स्वयोग्य आहार नहीं मिलता। भांडसंक्रांती-एक बर्तन से दूसरे बर्तन में डाला जाता हुआ अथवा एक शकट से दूसरे शकट में भरा जाता हुआ वह अचित्त हो जाता है। तथा वायु, अग्नि और धूम से भी वह अचित्त हो जाता है। ९७४. हरियाल मणोसिल पिप्पली य खज्जूर मुद्दिया अभया। आइन्नमणाइन्ना, ते वि हु एमेव नायव्वा ।। लवण की भांति हरिताल, मनःशिला, पिप्पली, खजूर, दाख, अभया-हरड (हरीतकी)-ये भी योजनशतगमन आदि कारणों से अचित्त हो जाते हैं। ये दोनों प्रकार के हैं-आचीर्ण और अनाचीर्ण। (इनमें पिप्पली, हरीतकी आदि आचीर्ण माने जाते हैं, वे ग्राह्य हैं। खजूर, द्राक्षा आदि अनाचीर्ण हैं। वे ग्राह्य नहीं हैं।) ९७५. आरुहणे ओरुहणे, निसियण गोणादिणं च गाउम्हा। भुम्माहारच्छेदे, उवक्कमेणं च परिणामो॥ (सामान्यतः सभी वस्तुओं के परिणमन का कारण) शकट, बैल आदि के पीठ पर लवण आदि को लादना, उतारना, यह क्रिया बार-बार करने पर तथा लवण आदि के थैलों पर मनुष्य के बैठने के कारण शरीर की उष्मा से तथा बैल आदि के शरीर की उष्मा से वह लवण विध्वस्त हो जाता है। जो जिसका भूमी आदि से संबंधित आहार है, उसका व्यवच्छेद होने पर, वह उन जीवों के विनाश का उपक्रम-शस्त्र बन जाता है। यही परिणाम है। विरुद्ध नहीं है। कहा भी है अक्खरलंभेण समा, ऊणहिया हुंति मइविसेसेहिं। ते पुण मईविसेसे, सुयनाणभंतरे जाण।। (विशेषावश्यक भाष्य गाथा १४३) Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = ९७६. चोएई वणकाए, पगए लोणादियाण किं गहणं। आहारेण हिगारो, तस्सुवकारी अतो गहणं॥ शिष्य ने पूछा-वनस्पति के प्रकरण में लवण आदि का ग्रहण क्यों किया गया? आचार्य ने कहा-सूत्र में आहार का अधिकार था। आहार का उपकारी है लवण। इसलिए उसका ग्रहण किया गया है। ९७७. छहिं निप्फज्जइ सो ऊ, तम्हा खलु आणुपुब्वि किं न कया। पाहन्नं बहुयत्तं, निप्फत्ति सुहं च तो न कमो॥ शिष्य ने पुनः पूछा-आहार की निष्पत्ति छह जीवनिकायों से होती है तो फिर आनुपूर्वी से छहों कायों का उल्लेख सूत्र में गृहीत क्यों नहीं है? आचार्य ने कहा-प्रधानरूप से तथा बहलता से तथा सहजता या सुखपूर्वक वनस्पति ही आहार की निष्पत्ति में कारणभूत होती है, वैसे पृथ्वी आदि काय नहीं होते। इसलिए सूत्र में वनस्पति का ही उल्लेख हुआ है। ९७८. उप्पल-पउमाई पुण, उण्हे दिन्नाई जाम न धरिती। मोग्गरग-जूहियाओ, उण्हे छूढा चिरं होंति॥ ९७९. मगदंतियपुप्फाई, उदए छूढाइं जाम न धरिती। उप्पल-पउमाई पुण, उदए छूढा चिरं होति॥ उत्पल और पद्म आतप में रखने पर प्रहरमात्र भी जीवित नहीं रह सकते। वे प्रहर से पहले ही अचित्त हो जाते हैं। मुद्गर-मगदन्तिका के पुष्प तथा यूथिका के पुष्प (उष्णयोनिक होने के कारण) आतप में रखने पर भी चिरकाल तक सचित्त रह सकते हैं। मगदन्तिका के पुष्प उदक में डालने पर प्रहरमात्र भी सचित्त नहीं रह सकते। उत्पल और पद्म (उदकयोनिक होने के कारण) चिरकाल तक भी उदक में सचित्त रह सकते हैं। ९८०. पत्ताणं पुप्फाणं, सरफलाणं तहेव हरियाणं। विंटम्मि मिलाणम्मी, नायव्वं जीवविप्पजढं॥ पत्र, पुष्प, सरडुफल (वह फल जिसमें अभी तक गुठली नहीं पड़ी है) तथा हरित (तरुण वनस्पति) का वृंत म्लान हो जाने पर जान लेना चाहिए कि वे जीवविप्रमुक्त हो गए हैं। ९८१. चउभंगो गहण पक्खेवए अ एगम्मि मासियं लहुयं। गहणे पक्खेवम्मि, होति अणेगा अणेगेसु॥ ग्रहण और प्रक्षेपण की चतुर्भगी है - १. एक का ग्रहण एक प्रक्षेपक २. एक का ग्रहण अनेक प्रक्षेपक ३. अनेक का ग्रहण एक प्रक्षेपक ४. अनेक का ग्रहण अनेक प्रक्षेपक। १. ग्रहण-प्रलंब आदि का ग्रहण। प्रक्षेपण-मुंह में डालना। २. विडसणा णाम आसादेतो थोवं थोवं खायइ। (वृ. पृ. ३०९) इनका प्रायश्चित्त अनेक प्रकार का है। एक का ग्रहण और एक प्रक्षेपक में प्रत्येक का प्रायश्चित्त है एक मासलघु। अनेक ग्रहण और अनेक प्रक्षेपकों में अनेक मासलधु का प्रायश्चित्त आता है। यह प्रायश्चित्त जैसे केवली जानता है, वैसे ही गीतार्थ भी जानता है। ९८२. पडिसिद्धा खलु लीला, बिइए चरिमे य तुल्लदव्वेसु। निद्दयता वि हु एवं, बहुघाए एगपच्छित्तं॥ शिष्य ने कहा-लीला से ही ऐसे वैसे ही यह प्रतिषेध है, जीवोपघात के आधार पर नहीं। तुल्यद्रव्य अर्थात् प्रलंब फलों का तुल्य जीवत्व होने पर भी दूसरे भंग में एक फल का और चरमभंग में अनेक फलों का अनेक बार प्रक्षेपक होने के कारण अनेक मासिक का प्रायश्चित्त देते हैं और तीसरे भंग में अनेक फलों का ग्रहण, परंतु एक प्रक्षेपक के आधार पर एक लघुमास का प्रायश्चित्त देते हैं। यह राग-द्वेष नहीं है क्या? बहुघात में एक लघुमास का प्रायश्चित्त है, क्या यह निर्दयता नहीं है? ९८३. चोयग! नियतं चिय, णेच्छंता विडसणं पि नेच्छामो। निव मिच्छ छगल सुरकुड, मता-ऽमताऽऽलिंप भक्खणता॥ शिष्य! हम निर्दयता भी नहीं चाहते और विदशन-- आस्वाद के लिए थोड़ा-थोड़ा भक्षण भी नहीं चाहते। यहां दो म्लेच्छों का दृष्टांत है एक राजा के दो म्लेच्छ सेवक थे। राजा ने तुष्ट होकर दोनों को एक-एक मदिरा घट और एक-एक छगल दिया। एक म्लेच्छ ने छगल को मारकर दो-चार दिन में उसका भक्षण कर दिया। दूसरा म्लेच्छ उसके एक-एक अंग का छेदन कर लवण आदि से आलेपन कर खाता है। कुछ दिनों बाद वह छगल मर जाता है। प्रथम म्लेच्छ का एक प्रहार से एक वध और दूसरे म्लेच्छ के जितने छेदन-भेदन से छगल मरता है, उतने वध हुए। लोक में वह अधिक पापी माना जाता है। ९८४. अच्चित्ते वि विडसणा, पडिसिद्धा किमु सचेयणे दव्वे। कारणे पक्खेवम्मि उ, पढमो तइओ अ जयणाए। अचित्त द्रव्य विषयक विदशना (टुकड़े-टुकड़े कर स्वाद लेकर खाना) भी प्रतिषिद्ध है तो फिर सचित्त द्रव्य विषयक विदशना का तो कहना ही क्या! यदि कारण में सचित्त द्रव्य का प्रक्षेपण होता है तो वह प्रथमभंग (एक ग्रहण, एक ३. देखें कथा परिशिष्ट, नं. ४२। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता। १०६ बृहत्कल्पभाष्यम् प्रक्षेपक) की तरह हो, और तृतीय भंगवर्ती (अनेक ग्रहण, लगने लगता है। फिर उसमें भिन्नाभिन्न के ग्रहण में विवेक एक प्रक्षेपक) हो तो वह यतनापूर्वक होनी चाहिए। नहीं रहता। वह सचित्त प्रलंबग्रहण का परिहार करने में भी ९८५. पायच्छित्ते पुच्छा, उच्छुकरण महिड्डि दारु थली य दिद्रुतो। समर्थ नहीं होता। चउत्थपदं च विकडुभं पलिमंथो चेवऽणाइन्नं॥ ९९०. छड्डाविय-कयदंडे, न कमेति मती पुणो वि तं घेत्तुं। प्रायश्चित्त पृच्छा। इक्षुकरण, महर्द्धिक, दारु, स्थली-ये न य से वड्डइ गेही, एमेव अणंतकाए वि॥ दृष्टांत हैं। चतुर्थपद, विकटुभ, परिमंथ और अनाचीर्ण यह आचार्य ने शिष्य को प्रलंबग्रहण का त्याग करवा दिया द्वार गाथा है। (व्याख्या आगे।) और गृहीत के लिए दंड भी दिया। अब न उसमें प्रलंबग्रहण ९८६. चोएइ अजीवत्ते, तुल्ले कीस गुरुगो अणंतम्मि। की मति होती है और न वह उसे पुनः ग्रहण करता है, न कीस य अचेयणम्मी, पच्छित्तं दिज्जए दव्वे॥ उसकी गृद्धि बढ़ती है। इसी प्रकार अनन्तकाय के विषय में शिष्य ने पूछा-परीत्त और अनन्तवनस्पति में (तृतीय भी जानना चाहिए। और चतुर्थ भंग में) अजीवत्व तुल्य होने पर भी अनन्त ९९१. कन्नतेपुर ओलोयणेण अनिवारियं विणटुं तु। वनस्पति में गुरुमास और परीत्त वनस्पति में लघुमास का दारुभरो य विलुत्तो, नगरद्दारे अवारितो॥ प्रायश्चित्त क्यों? अचेतन द्रव्य विषयक प्रायश्चित्त क्यों? ९९२. बितिएणोलोयंती, सव्वा पिंडित्तु तालिता पुरतो। ९८७. साऊ जिणपडिकुट्ठो, अणंतजीवाण गायनिप्फन्नो। भयजणणं सेसाण वि, एमेव य दारुहारी वि।। गेही पसंगदोसा, अणंतकाए अतो गुरुगो।। राजा का कन्यान्तःपुर था। वे कन्याएं झरोखे से बाहर परीत्त से अनन्त वनस्पति स्वादु होती है, अतः तीर्थंकरों झांकती थीं। उनको कोई निवारित नहीं करता। वे सब विनष्ट ने इसको प्रतिषिद्ध माना है। इसके प्रतिषेध के अनेक कारण हो गईं। हैं-वह अनन्तजीवों के शरीर से निष्पन्न होता है। स्वादु होने लकड़ियों से भरा एक शकट नगरद्वार में प्रवेश कर रहा के कारण गृद्धि होती है। उसके प्रसंग से अनेषणीय ग्रहण का था। एक लकड़ी नीचे गिरी। एक लड़के ने उसे ले लिया। दोष भी होता है। अतः अचित्त अनन्तकाय के ग्रहण में दूसरे लड़के ने शकट से एक लकड़ी खींच कर ले ली। किसी गुरुमास का प्रायश्चित्त है। ने निवारित नहीं किया। सारा शकट खाली हो गया। ९८८. न वि खाइयं न वि वई, न गोण-पहियाइए निवारेइ। दूसरे अन्तःपुरपालक ने झरोखे से झांकती हुई कन्या को इति करणभई छिन्नो, विवरीय पसत्थुवणओ य ॥ देखा। उसको अन्य कन्याओं के समक्ष ताड़ित किया। सबमें एक कौटुंबिक ने ईक्षु रोपे। उसने अपने खेत के चारों भय उत्पन्न हो गया। ओर न खाई खोदी, न बाड़ लगाई, न गाय-बैल तथा पथिकों इसी प्रकार दारुहारी को डराया। सभी में भय उत्पन्न को उसमें प्रवेश करने से निवारण किया, उसका सारा खेत हुआ और शकट की सारी लकड़ियां बच गईं। विनष्ट हो गया। इससे कर्मकरों की भृति का उच्छेद हो ९९३. थलि गोणि सयं मुय भक्खणेण लद्धपसरा थलिं तु पुणो। गया। इस प्रकार वह कौटुंबिक छिन्न हो गया-विनष्ट हो घातेसु बितिएहिं उ, कोट्टग बंदिग्गह नियत्ती॥ गया। इसके विपरीत प्रशस्त उपनय वक्तव्य है। जिस स्थली अर्थात् देवद्रोणी से संबंधित गाएं गोचर में चली कौटुंबिक ने अपने इक्षु वाटक के चारों ओर खाई खुदवाई, ___गई। एक बूढ़ी गाय स्वयं मर गई। वहां के पुलिंदों ने उसे खा बाड़ लगवाई, पशु और मनुष्यों का प्रवेश निवारित किया, डाला। उसकी किसी ने वर्जना नहीं की। पुलिंदों का आनाउसके कर्मकरों की भृति का उच्छेद नहीं हुआ और उसे जाना बढ़ा। उन्होंने स्थली को नष्ट कर डाला। वाटिका से प्रचुर लाभ मिला। दोनों दृष्टांतों का उपनय देवद्रोणी के अन्य परिचारकों ने कोट्टक-पुलिंद पल्ली आगे के दो श्लोकों में) में जाकर पल्ली को भग्न कर डाला और पुलिंदों की ९८९.को दोसो दोहिं भिन्ने, पसंगदोसेण अणरुई भत्ते।। बंदीगृह में निवृत्ति कर दी। पल्ली के स्थान पर बंदीगृह बना भिन्नाभिन्नग्गहणे, न तरइ सजिए वि परिहरिउं॥ किसी शिष्य ने पूछा-द्रव्य और भाव-दोनों से भिन्न ९९४. विकडुभमग्गणे दीह, च गोयरं एसणं च पिल्लिज्जा। प्रलंबग्रहण में क्या दोष है? प्रलंब के रसास्वादन में लुब्ध निप्पिसिय सोंड नायं, मुग्गछिवाडीए पलिमंथो॥ होकर वह मुनि प्रसंगदोष से उसे तरिक्त भक्त अरुचिकर प्रलंबस्वादु मुनि को भक्तपान मिल जाने पर भी वह १-३. देखें कथा परिशिष्ट, नं. ४३.४५। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक १०७ विकदभ-शालनक की एषणा में दीर्घ गोचरी करता है और एषणीय न मिलने पर अनेषणीय का ग्रहण कर एषणा को दूषित करता है। यहां निःपिशित मद्यप का दृष्टांत है। मुदगफली का परिमंथ। (व्याख्या आगे) एक अमांसभक्षी पुरुष का मद्यपों के साथ संसर्ग था। मद्यपों ने कहा-मदिरा पीने में क्या दोष है? उन्होंने उसे सौगंध दिलाई। वह लज्जावश उनके साथ मद्य पीने लगा। पहले एकांत में पीता, फिर अनेक लोगों के बीच पीने लगा। कुछ लोगों ने कहा-मांस के बिना कैसा मद्यपान! दूसरों द्वारा मारे गए, जीव का मांस खाने में क्या दोष है? वह मांस खाने लगा। अब वह मांस खाने में अभ्यस्त हो गया। वह स्वयं जीवों को मारकर मांस खाने लगा। उसके मन की घृणा निकल गई। जैसे मद्यप मांसभक्षण के बिना नहीं रह सकता, वैसे ही प्रलंबरस में गृद्ध मुनि को प्रलंब के बिना भक्तपान रचिकर नहीं लगता। वह एक दिन भी उसके बिना नहीं रह सकता। फिर अभ्यस्त हो जाने पर वह स्वयं वृक्ष से प्रलंब तोड़कर अपनी आदत पूरी करता है। एक राजा शिकार करने जा रहा था। उसने देखा कि एक खेत में एक स्त्री मूंग की कोमलफलियों को खा रही है। शिकार से लौटते समय भी उस स्त्री को उसी खेत में फली खाते देखा। उसके मन में प्रश्न हुआ कि इसने कितनी फलियां खा ली होंगी? उसका पेट फाड़ डाला। उसमें केवल फेनरस देखा। ९९५. अवि य हु सव्व पलंबा, जिण-गणहरमाइएहऽणाइन्ना। लोउत्तरिया धम्मा, अणुगुरुणो तेण ते वज्जा। पूर्व दूषणों के अतिरिक्त सभी प्रलंबों (सचित्त-अचित्त या मूल-कंद आदि दस प्रकार के) को तीर्थंकरों ने, गणधरों ने तथा अन्यान्य आचार्यों ने अनाचीर्ण माना है। लोकोत्तरिक जो धर्म हैं वे अनुगुरु अर्थात् पूर्वगुरुओं के द्वारा जैसे आचरित होते हैं पश्चानुवर्ती को भी उनका वैसा ही आचरण करना होता है। इसीलिए प्रलंब वर्जनीय हैं। ९९६. काम खलु अणुगुरुणो, धम्मा तह वि हुन सव्वसाहम्मा। गुरुणो जं तु अइसए, पाहुडियाई समुपजीवे॥ यह अनुमत है कि सभी धर्म अनुगुरु होते हैं, फिर भी वे सर्वसाधर्म्य की दृष्टि से नहीं, देशसाधर्म्य से ही वैसे होते हैं। गुरु अर्थात् तीर्थकर प्राभृतिका (समवसरण की रचना) आदि अतिशयों का उपभोग करते हैं, इनमें अनुधर्मता नहीं होती। १.२. देखें कथा परिशिष्ट, नं. ४६-४७। ९९७. सगड-बह-समभोमे, अवि य विसेसेण विरहियतरागं। तह वि खलु अणाइन्नं, एसऽणुधम्मो पवयणस्स। जब भगवान महावीर उदायनराजा को प्रव्रजित करने के लिए राजगृह नगर से सिन्धुसौवीर देश के वीतभयनगर की ओर प्रस्थित हुए तब मार्ग में अनेक मुनि क्षुधा, पिपासा और संज्ञा से बाधित हुए। जहां मार्ग में भगवान् आवासित हुए वहां तिलों से भरे हुए शकट, पानी से परिपूर्ण हृद और समभूमीभाग वाला स्थंडिल था। और ये तीनों शकट, हृद और स्थंडिल भूमी विशेषरूप से 'विरहिततराग' अत्यंत जीव रहित और निरवद्य थे। फिर भी भगवान् ने उनकी अनुज्ञा नहीं दी। यह प्रवचन का अनुधर्म था। इसीका आचरण करना चाहिए। ९९८. वक्त्रंतजोणि थंडिल, अतसा दिन्ना ठिई अवि छुहाए। तह वि न गेण्हिंसु जिणो, मा हु पसंगो असत्थहए। जो तिलों से भरे हुए शकट थे, उनमें जो तिल थे वे 'व्युत्क्रांतयोनिक' अर्थात् अचित्त थे। वे स्थंडिलभूमी पर स्थित थे। वे त्रस जीवों से आक्रांत नहीं थे। वे तिल शकटस्वामी द्वारा दिए जा रहे थे। साधु क्षुधा से पीड़ित होकर मत्यु को प्राप्त हो गए। फिर भी भगवान महावीर ने उन तिलों को ग्रहण नहीं किया, ग्रहण करने की अनुज्ञा नहीं दी। अशस्त्रोपहत के ग्रहण का प्रसंग न बन जाए, इसलिए भगवान् ने ग्रहण नहीं किया। उन्होंने सोचा कि मेरा आलंबन लेकर मेरे शिष्य अशस्त्रोपहत ग्रहण करने न लग जाएं। ९९९. एमेव य निज्जीवे, दहम्मि तसवज्जिए दए दिन्ने। समभोम्मे य अवि ठिती, जिमिता सन्ना न याऽणुन्ना॥ इसी प्रकार पानी से भरा हुआ हृद निर्जीव, त्रस प्राणियों से वर्जित, हृद स्वामी द्वारा दत्त था, फिर भी भगवान् ने उसके पानी की अनुज्ञा नहीं दी। तीसरे प्रहर में भोजन करने के पश्चात् भगवान् साधुओं के साथ एक अटवी में प्रविष्ट हुए। साधु संज्ञा से बाधित हुए। वहां समभौम भूमी थी। वह स्थंडिल भूमी यथास्थिति से क्षयप्राप्त व्युत्क्रांत योनि वाली अचित्त भूमी थी। वह त्रस प्राणियों से रहित थी। भगवान् ने उस स्थंडिल की अनुज्ञा नहीं दी। अनेक मुनि इस स्थिति में मृत्यु को प्राप्त हो जाएंगे, यह जानते हुए भी भगवान् ने अनुज्ञा नहीं की। अशास्त्रोपहत भूमी का प्रसंग न बन जाए, इसलिए। यह अनुधर्मता है। १०००. एसेव गमो नियमा, निग्गंथीणं पि होइ नायव्वो। सविसेसतरा दोसा, तासिं पुण गिण्हमाणीणं॥ यही समूचा 'गम'-प्रकार नियमतः साध्वियों के लिए भी Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ =बृहत्कल्पभाष्यम् जानना चाहिए। प्रलंब ग्रहण में उनके हस्तकर्म आदि के सविशेषतर दोष होते हैं। .. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा आमे तालपलंबे भिन्ने पडिगाहित्तए॥ (सूत्र २) १००१. जइ वि निबंधो सुत्ते, तह वि जईणं न कप्पई आमं। जइ गिण्हइ लग्गति सो, पुरिमपदनिवारिए दोसे॥ यद्यपि सूत्र में निबंध प्रतिपादन है कि 'कल्पते भिन्नम्', फिर भी मुनियों को भिन्न किया हुआ अपक्व प्रलंब लेना नहीं कल्पता। यदि वह लेता है तो पूर्वपद में पूर्वसूत्र में जो निवारित दोष हैं, वे उसको प्राप्त होते हैं। १००२. सुत्तं तू कारणियं, गेलन्न-उद्धाण-ओममाईसु। जह नाम चउत्थपदे, इयरे गहणं कहं होज्जा॥ यह सूत्र कारणिक है अर्थात् कारण में प्रयुज्यमान है। कारण ये हैं लानत्व, अध्वा, अवमौदर्य। जैसे चतुर्थपद अर्थात चतुर्थ भंग में ग्रहण है वैसे इतर भंगों-तीसरे, दूसरे और प्रथम भंग में ग्रहण कैसे होगा? १००३. पुव्वमभिन्ना भिन्ना, य वारिया कहमियाणि कप्पंति। सुण आहरणं चोयग!, न कमति सव्वत्थ दिटुंतो॥ १००४. जइ दिद्रुता सिद्धी, एवमसिद्धी उ आणगेज्झाणं। अह ते तेसि पसिद्धी, पसाहए किन्नु दिटुंतो॥ शिष्य कहता है-पूर्वसूत्र में अभिन्न प्रलंबग्रहण प्रतिषिद्ध किया है, तब इस सूत्र में उनको ग्रहण करना कल्पता है, यह कैसे कहा गया? आचार्य कहते हैं-वत्स! तुम एक दृष्टांत सुनो। तब शिष्य पुनः बोला-भंते! दृष्टांत सर्वत्र अर्थ का प्रतिपादक नहीं होता। और यदि दृष्टांतों से अर्थसिद्धि होती हे तो फिर आज्ञा ग्राह्य विषय जैसे निगोद, भव्य, अभव्य आदि की असिद्धि का प्रसंग उपस्थित होगा। यदि तुम्हारी आज्ञा से उनकी प्रसिद्धि है तो दृष्टांत से अर्थसिद्धि क्यों करते हैं? १००५. कप्पम्मि अकप्पम्मि य, दिट्ठता जेण होति अविरुद्धा। तम्हा न तेसि सिद्धी, विहि-अविहिविसोवभोग इव ।। जिन कारणों से कल्प्य और अकल्प्य में दृष्टांत अविरुद्ध होते हैं अर्थात् दृष्टांत के आधार पर कल्प्य को अकल्प्य और अकल्प्य को कल्प्य किया जा सकता है। अतः दृष्टांतों से अर्थ की सिद्धि नहीं होती। दृष्टांत के बल पर जो स्वयं को इष्ट हो उसे प्रसाधित किया जा सकता है। १. बलसा-छान्दसत्वात् बलात्कारेण इत्यर्थः। (वृ. पृ. ३१७) जैसे-विधिपूर्वक विषभक्षण करना दोषप्रद नहीं होता। अविधिपूर्वक विष का उपभोग करना महान् अनर्थ का हेतु होता है। १००६.असिद्धी जइ नाएणं, नायं किमिह उच्यते। अह ते नायतो सिद्धी, नायं किं पडिसिज्झती।। शिष्य के द्वारा इतना कहने पर आचार्य कहते हैं यदि दृष्टांत से अर्थ की असिद्धि होती है तो तुमने यहां विष का दृष्टांत क्यों दिया? यदि तुम्हारे दृष्टांत से अर्थ की सिद्धि होती है तो फिर तुम हमारे द्वारा प्रस्तुत दृष्टांत का प्रतिषेध क्यों करते हो? १००७.अंधकारो पदीवेण, वज्जए न उ अन्नहा। तहा दिटुंतिओ भावो, तेणेव उ विसुज्झई।। अंधकार का वर्जन प्रदीप के द्वारा ही होता है, अन्यथा नहीं। वैसे ही दार्टान्तिक (दृष्टान्तग्राह्य) भाव, दृष्टांत के द्वारा ही निर्मल होता है, स्पष्ट होता है। १००८.एसेव य दिट्ठतो, विहि-अविहीए जहा विसमदोस। होइ सदोसं च तथा, कन्जितर जया-ऽजय फलाई। वत्स! तुम्हारे द्वारा प्रस्तुत दृष्टांत हम प्रस्तुत सूत्रार्थ में अवतरित करते हैं। तुमने कहा था विधिपूर्वक विष का उपभोग करना सदोष नहीं होता और अविधि से उपभुक्त वही विष दोषप्रद हो जाता है। इसी प्रकार कार्य के उपस्थित होने पर यतनापूर्वक फल आदि का आसेवन करना दोषप्रद नहीं होता तथा अकार्य में अयतनापूर्वक उनका सेवन दोषप्रद होता है। १००९.आयुहे दुन्निसम्मि, परेण बलसा हिए। वेताल इव दुज्जुत्तो, होइ पच्चंगिराकरो। किसी व्यक्ति ने आयुध को दुर्निसृष्ट-अविधिपूर्वक फेंका अथवा किसी ने उस आयुध का बलपूर्वक अपहरण कर लिया, तो उसी आयुध से उस फैंकने वाले का प्रतिघात होता है। जैसे-दुर्युक्त अर्थात् दुःसाधित वेताल उस साधक के लिए 'प्रत्यंगिराकर' अर्थात् अपकारकारी हो जाता है। (वैसे ही तुमने जो विषदृष्टांत दिया, वह दुष्प्रयुक्त होने के कारण तुम्हारे पक्ष का उपहनन करने वाला हो गया।) १०१०.निरुतस्स विकडुभोगो, अपत्थओ कारणे य अविहीए। इय दप्पेण पलंबा, अहिया कज्जे य अविहीए। स्वस्थ व्यक्ति के लिए कटुक औषधि का उपयोग तथा रोग आदि में उसका अविधि से उपयोग यह दोनों के लिए अपथ्य अर्थात् अहितकर होता है। इसी प्रकार दर्प से अर्थात बिना किसी कारण के प्रलंब का आसेवन करना अहितकर Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक संसार को बढ़ाने वाला होता है तथा कार्य में अर्थात् अवमौदर्य आदि में अविधि से गृहीत प्रलंब भी अहितकर होते हैं। १०११. जइ कुसलकप्पिताओ, उवमाओ न होज्ज जीवलोगम्मि। छिन्नब्भं पिव गगणे, भमिज्ज लोगो निरुवमाओ॥ यदि इस जीव लोक में कुशल व्यक्तियों द्वारा रचित उपमाएं-दृष्टांत न हों तो आकाश में छिन्न-भिन्न बादलों की भांति यह लोक निरुपमाक-दृष्टांतविकल होकर इधर-उधर भ्रमण करने लग जायेगा। वह किसी अर्थ का निर्णय नहीं कर पायेगा। १०१२.मरुएहि य दिट्ठतो, कायव्वो चउहिं आणुपुवीए। एवमिहं अद्धाणे, गेलन्ने तहेव ओमम्मि॥ चार मरुकों का यहां अनुपूर्वी से दृष्टांत कहना चाहिए। इस प्रकार मरुक दृष्टांत के अनुसार अध्वा, ग्लानत्व तथा अवमोदर्य में जानना चाहिए। १०१३.चउमरुग विदेसं साहपारए सुणग रन्न सत्थवहे। ततियदिण पूतिमुदगं, पारगो सुणयं हणिय खामो॥ १०१४. परिणामओऽत्थ एगो, दो अपरिणया तु अंतिमो अतीव। परिणामो सहहती, कन्नऽपरिणमतो मतो बितितो॥ १०१५.तइओ एयमकिच्चं, दुक्खं मरिउं ति तं समारद्धो। किं एच्चिरस्स सिटुं, अइपरिणामोऽहियं कुणति॥ १०१६.पच्छित्तं खु वहिज्जह, पढमो अहालहुस धाडितो तइतो। चउथो अ अतिपसंगा, जाओ सोवागचंडालो। चार मरुक विदेश जाने के लिए प्रस्थित हुए। एक शाखापारग (वेदाध्ययन पारगत) मरुक उनमें मिल गया। उसके साथ एक कुत्ता भी था। वे अरण्य में पहुंचे। चोरों ने सार्थ को लूट लिया। मरुक एक दिशा में पलायन कर गए। तीसरे दिन उन्होंने देखा कि एक गढ़े में कुथित पानी भरा है। उसमें अनेक मृतकलेवर पड़े हैं। शाखापारग बोला-इस कुत्ते को मार कर खालें और फिर इस पानी से प्यास बुझा लें। उन चार मरूकों में एक परिणामक, दो अपरिणामक और एक अतिपरिणामक था। शाखापारग की बात सुनकर परिणामक मरुक ने उस पर श्रद्धा कर ली। दूसरे अपरिणत मरुक ने 'ये वचन अश्रवणीय है' ऐसा कहकर कान ढंक लिए। तीसरे अपरिणत मरुक ने सोचा-यह अकृत्य है, परंतु मरना दुःखदायी होता है और उसने कुत्ते का मांस खाना प्रारंभ कर दिया। चौथा अतिपरिणामक था। उसने कहा-इतने विलंब से १. तावदेव चलत्यर्थो, मन्तुर्विषयमागतः। यावन्नात्तम्भनेनेव, दृष्टान्तेनावलम्ब्यते॥ (वृ. पृ. ३१८) २. देखें कथा परिशिष्ट, नं. ४८ १०९ कुत्ते के मांस-भक्षण की बात क्यों कही? वह उससे आगे बढ़ा अर्थात् गाय-गर्दभ आदि का मांस भी खाने लगा। शाखापारग ने उनसे कहा-अटवी से पार होकर सभी प्रायश्चित्त वहन करें। प्रथम परिणामक था। वह यथालघुक प्रायश्चित्त से शुद्ध हो गया। दूसरा मर ही गया। तीसरे को चतुर्वेदी ब्राह्मणों ने तिरस्कृत किया और अपनी पंक्ति से बाहर कर दिया। चौथा अतिप्रसंग के कारण श्वपाकरूप चांडाल हो गया। १०१७.जह पारगो तह गणी, जह मरुगा एव गच्छवासीओ। सुणगसरिसा पलंबा, मडतोयसमं दगमफासुं। इन पूर्वोक्त गाथाओं का उपनय यह है-शाखापारग की भांति गणी- आचार्य हैं। जैसे चार मरुक हैं वैसे गच्छवासी साधु हैं। शुनक (कुत्ते) के सदृश हैं प्रलंब और मृतकलेवराकुल पानी तुल्य है अप्रासुक उदक। १०१८.उद्दहरे सुभिक्खे, अद्धाणपवज्जणं तु दप्पेण। लहुगा पुण सुद्धपदे, जं वा आवज्जती तत्थ।। ऊर्ध्वदर दो प्रकार के हैं-ध्यानदर और उदरदर। जहां ये दोनों भरे जाते हैं, वह ऊर्ध्वदर होता है। जहां भिक्षाचरों को भिक्षा सुलभ हो, वह सुभिक्ष कहलाता हैं। यहां चतुर्भंगी इस प्रकार है १. ऊर्ध्वदर भी है, सुभिक्ष भी है। २. ऊर्ध्वदर है, सुभिक्ष नहीं। ३. सुभिक्ष है, ऊर्ध्वदर नहीं। ४. न ऊर्ध्वदर है और न सुभिक्ष है। यद्यपि प्रथम और तृतीय भंग में मूलोत्तरगुणों की विराधना न होने के कारण वे शुद्धपद हैं किन्तु दर्प से अध्वा को प्रतिपन्न होने के कारण चतुर्लघुक का प्रायश्चित्त है तथा वहां यदि आत्मविराधना आदि होती है तो तत्संबंधी प्रायश्चित्त आता है। (इसका तात्पर्यार्थ है कि दुर्भिक्ष के कारण शेष दो भंगों (द्वितीय और चतुर्थ) में अध्वगमन स्वीकार किया जा सकता है। प्रथम और तृतीय भंग मे भी कारणवश अध्वगमन हो सकता है।) १०१९.असिवे ओमोयरिए, रायडुढे भए व आगाढे। गेलन्न उत्तिमढे, नाणे तह दंसण चरित्ते॥ १०२०.एएहिं कारणेहिं आगाढेहिं तु गम्ममाणेहिं। उवगरणपुव्वपडिलेहिएण सत्येण गंतव्वं ॥ किसी विवक्षित देश में आगाढ़रूप से अशिव, अवमौदर्य ३. ऊर्ध्वदर-ऊध्वं दराः पूर्यन्ते यत्र काले तत् ऊर्द्धदरम्। (वृ. पृ. ३२०) ४. धान्य के आधारभूत दर-गढ़े आदि, जैसे कट, पल्य आदि। (बृ. पृ. ३२०) च Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = बृहत्कल्पभाष्यम् होना, राजा का द्वेषी हो जाना, प्रत्यनीक का भय होना, बारबार ग्लानत्व होना, अनशनी मुनि के निर्यापन के लिए ज्ञान, दर्शन और चारित्र के उत्सर्पण के निमित्त-इन आगाढ़ कारणों से मुनि अध्वप्रतिपन्न होते हैं। वे उपकरणों को साथ ले पूर्व प्रत्युपेक्षित सार्थवाह के साथ जाए। १०२१.अद्राणं पविसंतो, जाणगनीसाए गाहए गच्छं। ... अह तत्थ न गाहेज्जा, चाउम्मासा भवे गुरुगा। अध्वा में प्रवेश करते हुए आचार्य ज्ञायक अर्थात् गीतार्थ की निश्रा में समस्त गच्छ को अध्वकल्पस्थिति की जानकारी देते हैं। यदि वे अध्वकल्पस्थिति की जानकारी नहीं देते हैं तो चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १०२२.गीयत्थेण सयं वा, गाहइ छडिंतो पच्चयनिमित्तं। सारिति तं सुयत्था, पसंग अप्पच्चओ इहरा॥ स्वयं आचार्य अध्वकल्पस्थिति की जानकारी देते हैं अथवा गीतार्थ के द्वारा उसकी अवगति कराते हैं। जब वे बीच-बीच में जानबूझकर अर्थपद छोड़ देते हैं तब अगीतार्थ मुनियों के प्रत्यय के लिए उन त्यक्त अर्थपदों की स्मृति कराते हैं। अन्यथा उन शिष्यों के अप्रत्यय का प्रसंग उपस्थित हो जाता है। १०२३.अद्धाणे जयणाए, परूवणं वक्खती उवरि सुत्ते। ओमेऽवुवरिं वोच्छिइ, रोगाऽऽयंकेसिमा जयणा॥ अध्वगत मुनियों की प्रलंबग्रहण की जो सामाचारी है, उसकी प्ररूपणा आगे के 'अध्वसूत्र' में की जाएगी। अवमौदर्य की विधि भी आगे कही जाएगी। यहां ग्लानत्वद्वार कहा जा रहा है। ग्लानत्व के दो प्रकार हैं-रोग और आतंक। दोनों से संबंधित यतना इस प्रकार है। १०२४.गंडी-कोढ-खयाई, रोगो कासाइगो उ आयंको। दीहरुया वा रोगो, आतंको आसुघाती उ॥ गंडमाला, कुष्ठरोग और राजयक्ष्मा ये सारे रोग कहे जाते हैं तथा कास आदि (श्वास, शूल, हिचकी, अतिसार आदि) आतंक कहे जाते हैं। अथवा दीर्घकालभावी रोग रोग कहलाते हैं और आशुधाती रोग आतंक कहलाते हैं। १०२५.गेलन्नं पि य दुविहं, आगाढं चेव नो य आगाढं। आगाढे कमकरणे, गुरुगा लहुगा अणागाढे॥ ग्लानत्व के दो प्रकार हैं-आगाढ़ और नोआगाढ़अनागाढ़। आगाढ़ में यदि पंचक परिहानि से यतना करता है तो चतर्गुरु और अनागाढ़ में चतुलधु।। १०२६.आगाढमणागाढं, पुव्वुत्तं खिप्पगहणमागाढे। फासुगमफासुगं वा, चउपरियट्टं तऽणागाढे॥ आगाढ़ और अनागाढ़ का विषय पूर्व (गाथा ९५४) में १. शीलाप्यते-समारच्यते इत्यर्थः। (वृ. पृ. ३२३) व्याख्यात है। आगाढ़ ग्लानत्व में प्रासुक-अप्रासुक का क्षीप्रग्रहण करना चाहिए। अनागाढ़ ग्लानत्व में यदि तीन बार में एषणीय प्राप्त न हो तो चौथे परिवर्त में पंचक आदि की यतना से अनेषणीय भी ग्रहणीय होता है। १०२७.विज्जे पुच्छण जयणा, पुरिसे लिंगे य दव्वगहणे य। पिट्ठमपिढे आलोयणा य पन्नवण जयणा य॥ वैद्य, पृच्छा की यतना, पुरुष, लिंग, द्रव्यग्रहण, पिष्ट अथवा अपिष्ट, आलोचना, प्रज्ञापना तथा यतना। (इन शब्दों का स्पष्टार्थ आगे की गाथाओं में।) १०२८.वेज्जट्ठग एगदुगादिपुच्छणे जा चउक्कउवएसो। इह पुण दव्वे पलंबा, तिन्नि य पुरिसाऽऽयरियमाई। वैद्य आठ प्रकार के हैं संविग्न, असंविग्न, लिंगी, श्रावक, यथाभद्र, अनभिगृहीतमिथ्यात्व, तर और अन्यतीर्थिक। इन वैद्यों को रोग का प्रतिकार पूछने के लिए एक, दो या चार मुनि न जाएं। तीन, पांच आदि जाए। इस रोग का प्रतिकार कैसे हो-यह पूछने पर वैद्य चतुष्कोपदेश देता है-अर्थात् द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से तथा भाव से प्रतिकार बताता है। (ये विस्तार से आगे बताए जाएंगे।) यहां द्रव्यतः प्रलंब तथा आचार्य, उपाध्याय, भिक्षु-ये तीन पुरुष हैं। १०२९.पउमुप्पले माउलिंगे, एरंडे चेव निंबपत्ते य। पित्तुदय सन्निवाए, वायक्कोवे य सिंभे य॥ पित्तोदय में पद्म और उत्पल, सन्निपात में मातुलिंग (बीजपूरक), वायु के प्रकोप में एरंडपत्र, श्लेष्मा के प्रकोप में नीम के पत्ते औषध हैं। १०३०.गणि-वसभ-गीत-परिणामगा य जाणंति जं जहा दव्वं । इयरे सिं वाउलणा, नायम्मि य भंडि-पोउवमा।। जो ग्लान है वह गणी, वृषभ-उपाध्याय अथवा गीतभिक्षु है। भिक्षु के दो प्रकार हैं-परिणामक और अपरिणामक। परिणामक जो द्रव्य जैसा है उसको यथावत् जानते हैं। जो अपरिणामक होते हैं उनकी व्याकुलना करते हैं-अनेषणीय लाये हए के विषय में कहते हैं-अमुक गृहस्थ ने अपने लिए इनको निष्पन्न किया था। हम उसे लाए हैं। यदि वे यथार्थ रूप में जान लेते हैं तो यहां भंडी और पोत की उपमा से उन्हें समझाना चाहिए। जो एगदेसे अदढा उ भंडी, सीलप्पए । सा उ करेति कज्ज। जा दुब्बला सीलविया वि संती, न तं तु सीलेंति विसिन्नदारूं। (कल्पबृहद्भाष्य) जो शकट किसी एक भाग में शिथिल है, उसकी मरम्मत कर लेने पर वह शकट कार्यकारी हो जाता है। जो शकट Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक अत्यंत दुर्बल हो गया हो, उसकी मरम्मत किए जाने पर भी वह विशीर्ण काष्ठ पुनः ठीक नहीं होता। इसी प्रकार जो एगदेसे अदढो उ पोतो, सीलप्पए सो उ करेइ कज्जं । जो दुब्बलो सीलविओ वि संतो, न तं तु सीलेंति विसिन्नदारुं । ( कल्पवृहदभाष्य) जो नौका किसी एक भाग में दुर्बल हो और उसकी मरम्मत कर दी जाए तो वह नौका कार्यकर हो जाती है। जो नौका दुर्बल हो, जीर्णशीर्ण काठ वाली हो, उसकी मरम्मत कर लेने पर भी वह काम की नहीं होती । (इसी प्रकार यदि तुम समझते हो कि स्वस्थ होकर प्रायश्चित वहन करूंगा, स्वाध्याय वैयावृत्त्य कर अधिक लाभ उपार्जित करूंगा तो तुम अकल्पनीय की प्रतिसेवना करो, अन्यथा नहीं।) १०३१. सो पुण आलेवो वा, हवेज्ज आहारिमं व मिस्सियरं । पुव्वं तु पिट्ठगहणं, विगरण जं पुव्वछिन्नं वा ॥ १०३२. भावियकुलेसु गहणं, तेसऽसति सलिंगे गेण्हणाऽवन्नो । विकरणकरणालोयण, अमुगगिहे पच्चओ गीते ॥ वैद्य द्वारा निर्दिष्ट आलेप दो प्रकार का होता है-बाह्य पिंडीरूप और आहारिम | सर्वप्रथम अचित्त लेना चाहिए। न मिलने पर मिश्र उसकी भी अप्राप्ति होने पर इतर अर्थात् सचिन भी लिया जा सकता है कोई आलेप आहारयितव्य नहीं होता, स्पर्श से स्पर्शनीय होता है, जैसे पद्मोत्पल, कोई नासिका से आघ्रातव्य होता है, जैसे-पुष्प आदि । आलेप आदि पूर्व पिष्ट लेना चाहिए उसके अभाव में पूर्वच्छिन्न आलेप को विकरण कर अर्थात् अनेकविध खंडन कर लेना चाहिए । पूर्वच्छिन्न आलेप भावितकुलों से ग्रहण करे। उन कुलों के अभाव में अन्य कुलों से स्वलिंग से ग्रहण करने पर महान् अवर्ण होता है, इसलिए अलिंग से ग्रहण करे। जहां प्रलंब ग्रहण किया है, वहीं उनका विकरण करके गुरु के पास लाए और अगीतार्थ के प्रत्ययनिमित्त से यह कहते हुए आलोचना करे अमुक के घर में गृहस्वामी के लिए ये बनाए गए हैं। १०३३. एसेव गमो नियमा, निम्मंथीणं पि नवरि छन्भंगा। आमे भिन्नाऽमित्रे, जाव उ पाउमुप्पलाईणि ॥ निर्गुथिनीयों के लिए भी यही गम-प्रकार यावत् पद्मोत्पलादि (गा. १०२९) तक ज्ञातव्य है विशेष यह है कि आम, प्रलंब, भिन्न, अभिन्न, विधिभिन्न अविधिभिन्न के आधार पर छह भंग होते हैं। 1 कप्पइ निग्गंथाण पक्के तालपलंबे भिन्ने वा अभिन्ने वा पडिगाहित्तए ॥ (सूत्र ३) नो कप्पइ निग्गंथाण पक्के तालपलंबे अभिन्ने पडिगाहित्तए । (सूत्र ४) कप्पर निम्गंथीणं पाहे तालपलंबे भिन्ने पडिगाहित्तए, से वि य विहिभिन्ने नो 'चेव णं' अविह्निभिन्ने । १११ (सूत्र ५) १०३४. नाम ठवणा पह, दव्वे भावे य होइ नायव्वं । उस्सेइमाह तं चिय पक्किंधणनोगतो पक्कं ॥ पक्व के चार निक्षेप हैं-नामपक्व, स्थापनापक्व, द्रव्यपक्व और भावपक्व । उत्स्वेदिम आदि द्रव्यपक्व 'आम' कहलाता है। ( इसके चार प्रकार हैं- उत्स्वेदिम, संस्वेदिम, उपस्कृत और पर्याय) इंधन के संयोग से जो पकता है वह द्रव्यपक्व माना जाता है। १०३५. संजम चरितजोगा, उन्गमसोही य भावपक्कं तु । अन्नो वि य आएसो, निरुवक्कमनीवमरणं तु ॥ संयमयोग, चारित्रयोग तथा उद्गम आदि दोषों की शुद्धि भावपक्व है। इस विषय में एक अन्य आदेश भी है-जीव का निरुपक्रम आयुष्य से मरना भावपक्व है । १०३६. पक्के भिन्न-भिन्ने, समणाण वि दोसो किं तु समणीणं । समणे लहुओ मासो, विकडुभमाई य ते चेव ॥ जो पक्व अर्थात् निर्जीव है वह द्रव्यती भिन्न या अभिन्न हो सकता है। उसका ग्रहण श्रमणों के लिए दोषप्रद होता है तो श्रमणियों के लिए क्यों नहीं होगा? यदि श्रमण उसको ग्रहण करते हैं तो मासलघु का प्रायश्चित्त तथा विकटुम पनिमंध आदि दोष होते हैं। १०३७. आणादि रसपसंगा, दोसा ते चेव जे पढमसुत्ते । इह पुण सुत्तनिवाओ, ततिय चउत्थेसु भंगेसु ॥ प्रथम सूत्र कथित पक्व प्रलंबग्रहण में भी आज्ञाभंग, रसप्रसंग आदि दोष होते हैं शिष्य कहता है-इस स्थिति में सूत्र निरर्थक है। आचार्य कहते हैं-सूत्रनिपात तीसरे और चौथे भंग के प्रसंग में है। दोनों भंग भावतः भिन्न से संबंधित हैं। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ १०३८.एमेव संजईण वि, विकडुभ-पलिमंथमाइया दोसा। कम्माईया य तहा, अविभिन्ने अविहिभिन्ने य॥ इसी प्रकार श्रमणियों के लिए भी विकटुभ और पलिमंथ आदि दोष होते हैं। अविभिन्न अथवा अविधिभिन्न प्रलंबग्रहण से हस्तकर्म आदि सविशेष दोष होते हैं। - १०३९.विहि-अविहीभिन्नम्मि य, समणीणं होतिमे उ छब्भंगा। पढमं दोहि अभिन्नं, अविहि-विही दव्व बिइ-तइए। १०४०.एमेव भावतो वि य, भिन्ने तत्थेक्क दव्वओ अभिन्नं । पंचम-छठे दोहि वि, नवरं पुण पंचमे अविही॥ श्रमणियों के प्रसंग में ये छह भंग होते हैं-१. द्रव्यतः तथा भावतः अभिन्न २. भावतः अभिन्न, द्रव्यतः अविधिभिन्न ३. भावतः अभिन्न, द्रव्यतः विधिभिन्न ४. भावतः भिन्न, द्रव्यतः अभिन्न ५. भावतः भिन्न, द्रव्यतः अविधिभिन्न ६. भावतः भिन्न द्रव्यतः विधिभिन्न। १०४१.लहुगा तीसु परित्ते, लहुओ मासो उ तीसु भंगेसु। गुरुगा होति अणंते, पच्छित्ता संजईणं तु॥ श्रमणियों के इन छहों भंगों का प्रायश्चित्त यह है-प्रथम तीन भंगों में परीत्तवनस्पति के लिए चतुर्लघु, भावतः अभिन्न होने के कारण। शेष तीन भंगों में परीत्तवनस्पति के लिए लघुमास, भावतः भिन्न होने के कारण। अनन्त वनस्पति में यह प्रायश्चित्त गुरुक हो जाता है। १०४२.अहवा गुरुगा गुरुगा, लहुगा गुरुगा य पंचमे गुरुगा। छट्टम्मि हवति लहुतो, लहुगत्थाणे गुरूऽणते॥ प्रथम भंग में अभिन्न होने के कारण गुरुक, द्वितीय भंग में भी गुरुक अविधिभिन्न होने के कारण, तीसरे भंग में लघुक विधिभिन्न होने के कारण, चौथे में गुरुक अभिन्न होने के कारण, पांचवें में गुरुक अविधिभिन्न होने के कारण, छठे में लघुमास विधि या अविधि भिन्न होने के कारण। यह परीत्त वनस्पति से संबंधित प्रायश्चित्त है। अनन्तवनस्पति में यही प्रायश्चित्त गुरुक हो जाता है। १०४३.आयरिओ पवत्तिणीए, पवित्तिणी भिक्खूणोण न कहेइ। गुरुगा लहुगा लहुओ, तत्थ वि आणाइणो दोसा॥ १०४४.गेण्हतीणं गुरुगा, पवत्तिणीए पवत्तिणी जइ वा। न सुती गुरुगाती, मासलहू भिक्खुणी जाव।। यदि आचार्य इस प्रलंबसूत्र को प्रवर्तिनी को नहीं कहते हैं तो उनको चतुर्गुरु, प्रवर्तिनी यदि भिक्षुणीयों को नहीं कहती है तो चतुर्लघु प्रायश्चित्त आता है। यदि भिक्षुणियां नहीं सुनती हैं तो लघुमास तथा अकथन और अश्रवण से आज्ञा-भंग आदि दोष भी होते हैं। यदि प्रवर्तिनी प्रलंबग्रहण करने वाली श्रमणियों की बृहत्कल्पभाष्यम् सारणा-वारणा नहीं करती है तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। प्रवर्तिनी के पास यदि गणावच्छेदिनी नहीं सुनती है तो चतुर्लघु, अभिषेका नहीं सुनती है तो मासगुरु और भिक्षुणी नहीं सुनती है तो मासलघु का प्रायश्चित्त विहित है। १०४५.अभिन्ने महव्वयपुच्छा, मिच्छत्त विराहणा य देवीए। किं पुण ता दुविहाओ भुत्तभोगी अभुत्ता य॥ श्रमणियों को अभिन्न प्रलंब लेना नहीं कल्पता, यह कहने पर शिष्य उनके महाव्रतों के विषय में पृच्छा करता है। कोई व्यक्ति श्रमणियों को अभिन्न प्रलंब लेते हुए देखकर मिथ्यात्व को प्राप्त होकर यह सोचता है कि निश्चित ही तीर्थंकरों ने इसके ग्रहण का प्रतिषेध नहीं किया है। वे असर्वज्ञ हैं। यह विराधना होती है। यहां रानी का दृष्टांत वक्तव्य हैं। भिक्षुणियां दो प्रकार की होती हैं-मुक्तभोगी और अमुक्तभोगी। (इस गाथा का विस्तार आगे।) १०४६.न वि छम्महव्वया नेव दुगुणिया जह उ भिक्खुणीवग्गे। बंभवयरक्खणट्ठा, न कप्पती तं तु समणीणं ।। ' भिक्षुणीवर्ग के न छह महाव्रत होते हैं और न भिक्षुओं से द्विगुणित अर्थात् दस महाव्रत होते हैं। (यद्यपि बौद्धों में भिक्षुओं के लिए २५० शिक्षापद हैं और भिक्षुणियों के लिए पांच सौ शिक्षापद हैं। जैन परंपरा में श्रमण और श्रमणी-दोनों के लिए पांच महाव्रतों का ही निर्देश है। श्रमणियों के लिए अभिन्न प्रलंबग्रहण का निषेध क्यों किया गया? आचार्य कहते हैं-यह निषेध केवल ब्रह्मचर्यव्रत की रक्षा के लिए किया गया है। १०४७.अन्नत्थ वि जत्थ भवे, एगयरे मेहुणुब्भवो तं तु। तस्सेव उ पडिकुटुं, बिइयस्सऽन्नेण दोसेणं॥ अन्यत्र भी जहां जिसके अर्थात् श्रमण या श्रमणी के वस्तु-ग्रहण से मैथुन की भावना का उद्भव होता हो, वह वस्तु उसके लिए अर्थात् श्रमण या श्रमणी के लिए प्रतिकुष्ट-प्रतिषिद्ध है। एक वर्ग के लिए उस दृष्टि से प्रतिषिद्ध वस्तु दूसरे वर्ग के लिए अन्य दोष के कारण प्रतिषिद्ध है। १०४८.निल्लोम-सलोमऽजिणे, दारुगदंडे सबंट पाए य। बंभवयरक्खणट्ठा, वीसुं वीसुं कया सुत्ता। निग्रंथों के लिए निर्लोमचर्म का प्रतिषेध स्मृति-कौतुक आदि दोषों के निवारण के लिए किया गया है और निग्रंथियों के लिए प्राणीदया के निमित्त प्रतिषेध है। इसी प्रकार श्रमणियों के सलोमचर्म का प्रतिषेध स्मृति आदि दोष निवारण के लिए तथा श्रमणों के लिए वही प्राणीदया के निमित्त प्रतिषेध है। इसी प्रकार दारुदंडक और सवृन्तपात्र Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक के ग्रहण का प्रतिषेध श्रमणियों के लिए ब्रह्मचर्यव्रत की रक्षा १०५२.कसिणाऽविहिभिन्नम्मि य, के लिए और श्रमणों के लिए अतिरिक्त उपधिदोष के गुरुगा भुत्ताण होइ सइकरणं। परिहार के लिए किया गया है। अतः श्रमण और श्रमणियों के इयरासि कोउगाई, ब्रह्मव्रत की रक्षा के लिए पृथक् पृथक् सूत्रों की रचना की घिप्पंते जं च उड्डाहो॥ गई है। कृत्स्न-अभिन्न तथा अविधिभिन्न प्रलंब ग्रहण करने पर १०४९.नत्थि अनिदाणओ होइ उब्भवो तेण परिहर निदाणं।। श्रमणियों को चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। वह भुक्तते पुण तुल्ला-ऽतुल्ला, मोहनिदाणा दुपक्खे वि॥ भोगिनी श्रमणियों के स्मृति का हेतु बनता है तथा निदान (कारण) के बिना मोह का उद्भव नहीं होता।' अभुक्तभोगिनी श्रमणियों के लिए कौतुक का हेतु बनता है। इसलिए निदान का परिहार करना चाहिए। दोनों पक्षों-स्त्री- प्रलंब ग्रहण करने से उनका उड्डाह होता है। देखने वाले पुरुष में मोहोद्भव के कारण तुल्य या अतुल्य दोनों प्रकार कहते हैं-निश्चित ही ये श्रमणियां पादकर्म करेंगी। के होते हैं। १०५३.जइ ताव पलंबाणं, सहत्थणुन्नाण एरिसो फासो। १०५०.रस-गंधा तहिं तुल्ला, सहाई सेस भय दुपक्खे वि। किं पुण गाढालिंगण, इयरम्मि उ निद्दओच्छुद्धे॥ सरिसे वि होइ दोसो, किं पुण ता विसम वत्थुम्मि॥ श्रमणी पादकर्म करके सोचती है यदि अपने हाथ से स्त्री और पुरुष के मोहोद्भव में रस और गंध तुल्य होते प्रेरित प्रलंब का इस प्रकार का स्पर्श होता है तो गाढ़ हैं। शेष शब्द, रूप और स्पर्श की दोनों पक्षों में भजना है। आलिंगन के पश्चात् निर्दयतापूर्वक प्रबलता से स्त्री-योनि में पुरुष में पुरुषसंबंधी शब्द, रूप और स्पर्श से मोहोद्रेक होता प्रक्षिस पुरुष के अंगादान का स्पर्श कैसा होता होगा? भी है और नहीं भी होता। इसी प्रकार स्त्री में भी स्त्री संबंधी १०५४.पडिगमणमन्नतित्थिग, सिद्धे संजय सलिंग हत्थे य। वेहाणस ओहाणे एमेव अभुत्तभोगी वि।। शब्द, रूप और स्पर्श से मोहोद्रेक होता भी है और नहीं भी __ ऐसा सोचने वाली श्रमणी पार्श्वस्थों से समागत हो तो होता। किन्तु पुरुष में स्त्रीसंबंधी शब्द, रूप और स्पर्श वह प्रतिसेवना के लिए उन्हीं के पास जाती है। अथवा से तथा स्त्री में पुरुषसंबंधी शब्द, रूप और स्पर्श से अन्यतीर्थिक, सिद्धपुत्र अथवा संयतों के साथ प्रतिसेवना निश्चित ही मोहोद्रेक होता है, तीव्र होता है। अतः सदृश करने का प्रयत्न करती है। ऐसा स्वलिंग में स्थित होकर स्पर्श आदि में भी दोष होता है तो विसदृश वस्तु की तो बात करती है अथवा वह बार-बार हस्तकर्म करती है। स्वप्रवृत्ति ही क्या? से खिन्न होकर वह फांसी लगाकर मर सकती है। संयम१०५१.चीयत्त कक्कडी कोउ कंटक विसप्प समिय सत्थे य। जीवन से पलायन कर सकती है। यह सारा भुक्तभोगिनी पुणरवि निवेस फाडण, किमु समणि निरोह भुत्तितरा।। श्रमणी के लिए कहा गया है। इसी प्रकार अभुक्तभोगिनी के एक रानी को ककड़ी बहुत प्रिय थी। एक व्यक्ति प्रतिदिन लिए भी है। ककड़ी लाकर देता था। एक दिन पुरुषलिंगसदृश ककड़ी को १०५५.भिन्नस्स परूवणया, उज्जुत तह चक्कली विसमकोट्टे। देखकर रानी के मन में कुतूहल उत्पन्न हुआ कि इसके द्वारा ते चेव अविहिभिन्ने, अभिन्ने जे वन्निया दोसा ।। प्रतिसेवना करूं। उसने ककड़ी को पांव के बांध कर असंयमदोष के निवर्तन के लिए अविधिभिन्न तथा प्रतिसेवना करना प्रारंभ किया। उसकी योनि में ककड़ी का विधिभिन्न की प्ररूपणा करनी चाहिए। ऋजुकभिन्न तथा कंटक लग गया। घाव हो गया। योनि फूल गई। वैद्य को चक्कलिकाभिन्न ये दोनों अविधिभिन्न माने जाते हैं। विषमकुट्ट बुलाया। उसने आकर आटे को गूंथा। शस्त्र के द्वारा उसको अर्थात् ऐसे छोटे-छोटे टुकड़े कर दिए जाते हैं, जिनको पुनः योनि में उसको प्रविष्ट किया। अन्दर जो फोड़ा हो गया था, जोड़ा नहीं जा सकता-यह विधिभिन्न माना जाता है। उसको फोड़ डाला। तब पीब के साथ कांटा भी निकल गया। अविधिभिन्न में वे ही दोष होते हैं जो अभिन्न में वर्णित हैं। रानी स्वस्थ हो गई। १०५६.कद्वेण व सुत्तेण व, संदाणिते अविहिभिन्ने ते चेव। यदि रानी के भी वैसा कौतुक उत्पन्न हो गया तो सदा सविसेसतर व्व भवे, वेउव्वियभुत्तइत्थीणं॥ निरोध करने वाली भुक्तभोगी और अभुक्तभोगी श्रमणियों का अविधिभिन्न प्रलंब के टुकड़ों को काष्ठ की शलाका से तो कहना ही क्या? अथवा सूत्र से बांधकर पूर्व आकार में स्थापित करने पर वे १.शब्दरूपरसगन्धस्पर्शात्मकं कारणं प्रतीत्य पुरुषवेदादि मोहनीयमुदयमासादयति। (वृ. पृ. ३२८) Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ही दोष प्राप्त होते हैं जो अभिन्न प्रलंब के विषय में कहे गए हैं। अथवा वे दोष विशेषतर होते हैं, जैसे- भुक्तभोगिनी प्रव्रजित वे श्रमणियां विकुर्वणायुक्त अंगादानसदृश उस प्रलंब को देखकर अधिक दोषों से ग्रस्त हो जाती हैं। १०५७ विहिभिन्नं पिन कप्पर, लहुओ मासो उ दोस आणाई। तं कप्पती न कप्पर, निरत्थगं कारणं किं तं ॥ विधिभिन्न प्रलंब का ग्रहण भी नहीं कल्पता । ग्रहण करने पर मासलघु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। शिष्य ने कहा- सूत्र में इसका ग्रहण अनुज्ञात है। आचार्य ने कहा - फिर भी वह नहीं कल्पता । शिष्य ने पूछा- क्या सूत्र निरर्थक है? आचार्य कहते हैं नहीं, यह सूत्र कारणिक है। शिष्य ने पुनः पूछा- कारण क्या है ? १०५८. गेलन्नऽद्धाणोमे, तिविहं पुण कारणं गेलने पुव्वत्तं, अद्धाणुवरिं संक्षेप में ये तीन प्रकार के कारण हैं ग्लानत्व, मार्गगमन तथा अवमौदर्य । ग्लानत्व की व्याख्या पूर्व (गा. १०२७) में की जा चुकी है। मार्ग-गमन विषयक कथन आगे किया जाएगा। अवमौदर्य की व्याख्या यह है१०५९. निग्गंथीणं भिन्नं, निग्गंथाणं च भिन्नभिन्नं तु । समासेणं । ओमे ॥ इर्म जह कप्पइ दोहं पी, तमहं बोच्छं समासेणं ॥ दोनों वर्गों - श्रमण और श्रमणी के लिए जो प्रलंब ग्रहण का कल्प है वह संक्षेप में मैं कहूंगा। सामान्यतः श्रमणियों के लिए भिन्न प्रलंब और श्रमणों के लिए भिन्न अथवा अभिन्न प्रलंब ग्रहण करने का नियम है। १०६०. ओमम्मि तोसलीए, दोण्ह वि वम्माण दोसु खेत्तेसु । जयणद्रियाण गहणं, भिन्नभिन्नं व जयणाए ॥ एक बार अवमौदर्य के समय में साधु-साध्वी तोसली देश में आकर स्थित हुए। दोनों वर्ग दो पृथक्-पृथक् क्षेत्र में यतनापूर्वक अवस्थित हुए यतनापूर्वक मित्र अथवा अभिन्न प्रलंब ग्रहण करना उनको कल्पता है। १०६१. आणुन जंगल देसे, वासेण विणा वि तोसलिम्गणं । पायं च तत्थ वासति पउरपलंबो उ अन्नो वि ।। देश के दो प्रकार है-अनूप अर्थात् जलबहुल और जंगल अर्थात् निर्जल तोसली देश में वर्षा के बिना भी सस्य की निष्पत्ति होती है। पर अत्यधिक वर्षा के कारण सस्य विनष्ट हो जाता है अतः प्रलंबों का उपभोग अधिक होता है। इसीलिए तोसली का ग्रहण किया गया है। अन्यत्र भी यही विधि है। १. सहिष्णु वह होता है जो इन्द्रियनिग्रह में समर्थ है, श्रमणियों के प्रायोग्य क्षेत्र, वस्त्र, पात्र आदि के उत्पादन में सशक्त है। बृहत्कल्पभाष्यम् १०६२. पुच्छ सहु-भीयपरिसे, चउभंगे पढमए अणुन्नाओ । सेस तिए नाणुन्ना, गुरुगा परियट्टणे जं च ॥ शिष्य ने पूछा- भंते! आपने कहा कि श्रमण श्रमणी - दोनों वर्ग भिन्न-भिन्न प्रदेश में रहें। ऐसी स्थिति में उनकी प्रवृत्तियों की देखरेख कैसे हो सकती है? क्या श्रमणियों का परिवर्तन करना चाहिए या नहीं? आचार्य ने कहा- ऐसा कोई निश्चित नियम नहीं है कि परिवर्तन करना ही चाहिए। परन्तु यदि परिवर्तन करना आवश्यक हो तो वैसा परिवर्तन आचार्य कर सकता है जो सहिष्णु और भीतपरिषद् हो । यहां सहिष्णु और मीलपरिषद् इन दो पदों की चतुभंगी होती है १. सहिष्णु तथा भीतपरिषद् । २. सहिष्णु परंतु भीतपरिषद् नहीं । ३. असहिष्णु परंतु भीतपरिषद् । ४. असहिष्णु और अभीतपरिषद् । इन चार भंगों में प्रथम भंग अनुज्ञात है। शेष भंग अनुज्ञात नहीं है। यदि इन भंगों में वर्तमान आचार्य श्रमणियों का परिवर्तन करते हैं तो वे चतुर्गुरुक प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। तथा साध्वियां स्वच्छंदता से जो कुछ करती हैं उसका प्रायश्चित्त भी उन्हें ही प्राप्त होता है। १०६३. जइ पुण पव्वावेती, जावज्जीवाए ताउ पालेह अन्नासति कप्पे वि हु, गुरुगा जं निज्जरा बिउला ॥ सामान्यतः साध्वियों (बहिनों) को यत्र तत्र प्रव्रज्या नहीं वी जा सकती। यदि उन्हें प्रवज्या दी जाती है तो ये यावज्जीवन उसका पालन करती हैं। यदि प्रथम भंगवती प्रव्राजक आचार्य जिनकल्प स्वीकार करना चाहते हों तो वे प्रब्रजित साध्वी को योग्य वतपिक को समर्पित कर जिनकल्प स्वीकार करे। अन्य वर्त्तापक के अभाव में यदि जिनकल्प स्वीकार करते हैं तो चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। जिनकल्पी मुनि के जो निर्जरा होती है, उससे भी विपुल निर्जरा होती है उस श्रमणी की परिपालना में। १०६४.उभयगणी पेहेउं, जहिं सुद्धं तत्थ संजती णेति । असती व जहिं भिन्ना, अभिन्ने अविही इमा जयणा ॥ उभयगणी अर्थात् साधु-साध्वी- इन दो वर्गों के आचार्य अवमौदर्य आदि के समय जहां शुद्ध भिक्षा की प्राप्ति होती है, वहां श्रमणियों को स्थापित करते हैं प्रलंबमिश्रित आहार की प्राप्ति के अभाव में विधिभिन्न प्रलंबप्राप्ति के स्थान में साध्वियों को स्थापित करते हैं और स्वयं पुनः अभिन्न अथवा भीतपरिषद् वह होता है जिसके भय से कोई भी साधु-साध्वी अक्रिया करने का साहस नहीं कर सकता। (वृ. पृ. ३३२) י' . Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ११५ अविधिभिन्न प्रलंबप्राप्ति के स्थान में रहते हैं। वहां इस यतना १०७०.आयरिय-वसभ-अभिसेग-भिक्खुणो का पालन करना चाहिए। पेल्ल लंभे न य देति। १०६५.भिन्नाणि देह भित्तूण वा वि असति पुरतो सि भिंदंति। गुरुगा दोहि विसिट्ठा, ठाविति ताहे समणी, ता चेव जयंति तेसऽसती।। चउगुरुगाइ व्व जा लहुगो।। गृहस्थ प्रलंब लाते हैं तब मुनि उनको कहे-हम अभिन्न वास्तव्य अथवा आगंतुक मुनि चार प्रकार के होते प्रलंब नहीं लेते। उनको भिन्न कर हमें दो। यदि गृहस्थ ऐसा हैं-आचार्य, वृषभ, अभिषेक तथा भिक्षु। वास्तव्य अथवा न करे और भिन्न प्रलंब न मिले तो पूरे प्रलंब ग्रहण कर, आगंतुक श्रमणियां भी चार प्रकार की होती हैं-प्रवर्तिनी, गृहस्थों के समक्ष ही उनके टुकड़े कर ले। वहां के गृहस्थ यह गणावच्छेदिनी, अभिषेका और भिक्षुणी। आचार्य आदि द्वारा जान जाते हैं कि श्रमण भिन्न प्रलंब ही ग्रहण करते हैं। ऐसे परिगृहीत क्षेत्र में यदि अन्य आचार्य आदि आ जाते हैं और भावित क्षेत्र में साध्वियों को स्थापित करते हैं। उन मुनियों के उस क्षेत्र में अवकाश भी है और भक्त-पान की उपलब्धि भी अभाव में अथवा उनके अन्यत्र व्याप्त हो जाने पर वहां जो है, इस स्थिति में यदि वास्तव्य आचार्य आदि मनाही करते स्थविरा श्रमणी हैं वह इसी प्रकार प्रयत्न करती है। हैं अथवा आने वाले आचार्य आदि बलात् वहां ठहर जाते हैं १०६६.भिन्नासति वेलातिक्कमे व गेण्हंति थेरिया भिन्ने।। तो दोनों को तप और काल से गुरु चतुर्गुरुक प्रायश्चित्त दारे भित्तु अतिंति व, ठाणासति भिंदती गणिणी॥ आता है। अन्य मत के अनुसार चतुर्लघु का भी विधान है। विधिभिन्न की अप्राप्ति होने पर तथा वेलातिक्रम के भय से उसमें काल और तप से विभिन्न विकल्प हैं। स्थविरा साध्वी अभिन्न अथवा अविधिभिन्न प्रलंब ग्रहण कर १०७१.एमेव य भयणा वी, सोलसिया एक्कमेक्क पक्खम्मि। लेती है और तरुण साध्वी विधिभिन्न ग्रहण करती है। उभयम्मि वि नायव्वा, पेल्लमदेंते व जं पावे॥ उपाश्रय के द्वार पर आकर स्थविरा साध्वी अभिन्न प्रलंबों इसी प्रकार जिस गण में केवल एक-एक पक्ष ही होता है को तोड़कर उपाश्रय में प्रवेश करती है। यदि बाहर स्थान न अर्थात् केवल संयतपक्ष अथवा केवल संयतीपक्ष ही होता है हो तो स्थविरा साध्वी सारे प्रलंब गणिनी को सौंप देती है तो वहां प्रत्येक पक्ष की षोडशिका भजना-भंगरचना करनी और गणिनी उनके टुकड़े करती है। चाहिए। पूर्व गाथा में संयतों की संयतों के साथ चारणिका में १०६७.कक्खंतरुक्खवेगच्छियाइसू मा हु णूमए तरुणी। प्राप्त सोलह भंग बतलाए हैं। प्रस्तुत गाथा के अनुसार तो भिन्नं छुभति पडिग्गहेसु न य दिज्जए सयलं॥ संयतियों प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका और भिक्षुणीतरुणी श्रमणियां कक्षान्तर में, उक्ख पहने हुए वस्त्र के से संबंधित सोलह भंग होते हैं। यहां 'उभय' शब्द से उभय एक छोर में अथवा वैकक्षिकी-श्रमणियों के उपकरण गणाधिपति का ग्रहण किया गया है। उनसे संबंधित भी यही विशेष में अभिन्न प्रलंब को न छुपा ले, इसलिए उन्हें वह नहीं भंगरचना होती है। पूर्ववत् बलात् लेने अथवा न देने पर दिया जाता। भिक्षाग्रहणकाल में उनके पात्रों में भिन्न प्रलंब प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तथा आत्म-संयम-विराधना से डाला जाता है, पूरा अथवा अविधिभिन्न प्रलंब नहीं दिया संबंधित जो प्रायश्चित्त आता है, वह भी उसे वहन करना जाता। होता है। १०६८.एवं एसा जयणा, अपरिग्गहिएसु होइ खेत्तेसु। १०७२. चउवग्गो वि हु अच्छउ, असंथराऽऽगंतुगा य वच्चंतु। तिविहेहिं परिग्गएिह, इमा उ जयणा तहिं होइ॥ . वत्थव्वा व असंथरे, मोत्तु गिलाणस्स संघाडं। इस प्रकार यह यतना अपरिगृहीत क्षेत्रों में करनी चाहिए। जहां ये चार वर्ग-वास्तव्य साधु और साध्वियां तथा त्रिविध अर्थात् संयत, संयती तथा तदुभय-इनसे परिगृहीत आगंतुक साधु और साध्वियां-एक ही क्षेत्र में रहते हैं और क्षेत्र विषयक यह यतना है। वहां चारों का संस्तरण नहीं होता हो तो आंगतुक वहां से १०६९.पुवोगहिए खेत्ते, तिविहेण गणेण जइ गणो तिविहो। चले जाएं। अथवा असंस्तरण की स्थिति में वास्तव्य वर्ग एज्जाहि तयं खेत्तं, ओमे जयणा तहिं का णू॥ विहार कर दे। किन्तु यदि कोई ग्लान हो और वह वास्तव्य विविध गण (संयत, संयती तथा तदुभय) द्वारा पूर्व वर्ग से अथवा आगंतुक वर्ग से संबंधित हो तो, वह ग्लान परिगृहीत क्षेत्र में यदि तीन प्रकार का गण और आ जाए तो संघाटक के साथ वहीं रहे। क्या समागत गण को वास्तव्यगण द्वारा अवग्रह दिए जाने १०७३.एमेव संजईणं, वुड्डी-तरुणीण जुंगितकमाई। पर क्या यतना है? पायादिविगल तरुणी, य अच्छए बुडिओ पेसे॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =बृहत्कल्पभाष्यम् इसी प्रकार श्रमणियों की निर्गमनविधि कहनी चाहिए। १०७९. पणगाइ मासपत्तो, ताहे निम्मीसुवक्खडं भिन्नं । वृद्ध और तरुण श्रमणियों में यदि तरुण श्रमणियां निम्मीस उवक्खडियं, गिण्हति ताहे ततियभंगे। निष्प्रत्यपाय हों तो वे वहां से प्रस्थान करें, वृद्ध साध्वियां यतनापूर्वक गवेषणा करते हुए पंचक प्रायश्चित्त वाले वहीं रहें। इसी प्रकार जुंगित और अजुंगित में अजुंगित वहां स्थान से प्रारंभ कर जब भिन्नमास प्रायश्चित्त का अतिक्रमण से प्रस्थान कर दें। पाद आदि से जुंगित वहीं रहें। यदि तरुण कर लघुमास प्राप्त होता है तब द्रव्यतः भावतः भिन्न निर्मिश्रश्रमणियों का प्रस्थान सप्रत्यपाय हो तो वे वहीं रहें और वृद्ध प्रलंब जो उपस्कृत है तथा शुद्धोदन और मिश्रोपस्कृत का साध्वियां प्रस्थान कर दें। अध्यवपूरक है, उसे स्वग्राम-परग्राम में लिया जा सकता है। १०७४.एवं तेसि ठियाणं, पत्तेगं वा वि अहव मिस्साणं। जब वह चरमभंग में प्राप्त न हो तो निर्मिश्र-उपस्कृत ही ओमम्मि असंथरणे, इमा उ जयणा जहिं पगयं। तीसरे भंग में लिया जा सकता है। इस प्रकार आचार्य आदि का उस क्षेत्र में प्रत्येक वर्ग के १०८०. एमेव पउलियाऽपउलिए य चरिम-तइया भवे भंगा। रूप में स्थित होने अथवा मिश्ररूप में द्विवर्ग, त्रिवर्ग, ओसहि-फलमाईसुं, जं चाऽऽईन्नं तगं नेयं ।। चतुर्वर्ग-स्थित होने पर अवमकाल में असंस्तरण होने पर इसी प्रकार पक्व और अपक्व का तीसरा और चौथा भंग इस प्रकृत प्रलंबसूत्रगत यतना का पालन करे। होता है। औषधी-धान्य आदि तथा फल आदि जो आचीर्ण हैं १०७५.ओयण-मीसे-निम्मीसुवक्खडे पक्क-आम-पत्तेगे। अर्थात् पूर्वाचार्यों द्वारा गृहीत हैं, वे लिए जा सकते हैं। साधारण सग्गामे, परगामे भावओ वि भए। १०८१. सगला-ऽसगलाइन्ने,मीसोवक्खडिय नत्थि हाणी उ। ओदन, मिश्रोपस्कृत, निर्मिश्रोपस्कृत, पक्व, कच्चा, जइउं अमिस्सगहणं, चरिमदुए जं अणाइन्न।। प्रत्येक वनस्पति, साधारण वनस्पति-इनको यथाक्रम पहले पूर्वाचार्यों द्वारा गृहीत सकल अथवा असकल, मिश्रित स्वग्राम में और पश्चात् परग्राम में ग्रहण करे। अथवा निर्मिश्रित उपस्कृत धान्य, जिनमें पंचक परिहानि का १०७६.बत्तीसाई जा एक्क घास खवणं व न वि य से हाणी। प्रायश्चित्त नहीं है। पूर्वाचार्यों द्वारा अनाचीर्ण है तीसरे तथा आवासएसु अच्छउ, जा छम्मासे न य पलंबे॥ चौथे भंगवर्ती अमिश्र का ग्रहण करे। प्रमाणप्राप्त आहार का परिमाण है-ओदन के बत्तीस १०८२. जइ ताव पिहुगमाई, सत्थोवहया वि होतऽणाइण्णा। कवल। यदि एक-दो-चार कवल न्यून लेने पर भी आवश्यक किं पुण असत्थुवहया, पेसी पव्वायसरडू य॥ योगों में कोई हानि न होती हो तो वे मुनि उस स्थिति में वहां यदि पृथुक (पके हुए ब्रीहि भ्राष्ट्र में भुने जाने पर उनके रहे। प्रलंब का ग्रहण न करें। यदि एक भी कवल न मिले तो दो फाड़ हो जाते हैं, उनका छिलका निकल जाता है, वे उपवास, बेला, तेला यावत् छह मास तक तपस्या कर पृथुक कहलाते हैं।) आदि शस्त्रोपहत होने पर भी अनाचीर्ण समाधि में रहे। परंतु प्रलंब ग्रहण न करे। होते हैं तो जो अशस्त्रोपहत प्रलंबों की लंबी फांकें तथा १०७७.जावइयं वा लब्भइ, सग्गामे सुद्ध सेस परगामे। प्रम्लान वृन्त वाले सरडू (बिन गुठली पड़े फल) कैसे आचीर्ण मीसं च उवक्खडियं, सुद्धज्झवपूरगं गेण्हे॥ हो सकते हैं? जितना शुद्ध ओदन स्वग्राम में प्राप्त हो वह ग्रहण करे १०८३. साधारणे वि एवं, मीसा-ऽमीसे वि होति भंगाओ। और यदि वह पर्याप्त न हो तो शेष परग्राम से ले। यदि पणगादी गुरुपत्तो, सव्वविसोहीय जय ताहे॥ शुद्धोदन स्वग्राम और परग्राम में पर्याप्त न मिले तो प्रलंबों से साधारण-अनन्त वनस्पति के विषय में प्रत्येक वनस्पति मिश्रित-उपस्कृत, जो शुद्धोदन का अध्यवपूरक होता है, उसे की भांति मिश्रोपस्कृत, निर्मिश्रोपस्कृत में चौथा और तीसरा ग्रहण करे। भंग होता है। तीसरे भंग में जब निर्मिश्रोपस्कृत प्राप्त नहीं १०७८.तत्थ वि पढमं जं मीसुवक्खडं दव्व-भावतो भिन्नं। होता तब पंचक परिहानि से गुरुमास प्राप्त हो तब साधारण दव्वाभिन्नविमिस्सं, तस्सऽसति उवक्खडं ताहे॥ निर्मिश्रोपस्कृत ग्रहण करता है। यदि तीसरे भंग से भी प्राप्त उसमें भी सबसे पहले द्रव्यतः तथा भावतः भिन्न प्रलंबों न हो तो सभी विशोधिकोटि के ग्रहण करने में प्रयत्न करना से मिश्र और उपस्कृत का ग्रहण करे। उसके अभाव चाहिए। में द्रव्यतः अभिन्न, प्रलंबों से विमिश्र तथा उपस्कृत का १०८४. कम्मे आदेसदुगं, मूलुत्तरे ताहे बि कलि पत्तेगे। ग्रहण करे। दावर कली अणंते, ताहे जयणाए जुत्तस्स। १. पक्व अर्थात अग्नि से संस्कारित। अपक्व का अर्थ है अग्नि या इंधन के बिना भी जो निर्जीव हो गया है। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक आधाकर्म संबंधी दो आदेश हैं-मूलगणोपघाती आधाकर्म और उत्तरगुणोपघाती आधाकर्म। आधाकर्म में चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। प्रत्येक वनस्पति में पहले और दूसरे भंग में चतुर्लघु। इस प्रकार प्रायश्चित्त के आधार पर आधाकर्म गुरुक है। व्रतों की अपेक्षा से प्रथम-द्वितीय भंग गुरुक हैं, क्योंकि उनमें प्राणातिपात व्रत का लोप होता है। अथवा आधाकर्म उत्तरगुणों का घात करने के कारण लघुतर होता है। ये दो आदेश हैं। इन दोनों आदेशों में यदि आधाकर्म प्राप्त न होता हो तो प्रत्येक वनस्पति द्वितीयभंग में ली जा सकती है। उसके अभाव में 'कलि' अर्थात् प्रथम भंग में ग्रहण करे। उसके अभाव में अनन्त वनस्पति 'द्वापर' द्वितीय भंग में और उसके अभाव में ‘कलि' प्रथम भंग में ली जा सकती है। अनन्तकाय भी प्रथम भंग में प्राप्त न हो तो यतनायुक्त होकर जहां अल्पतर कर्मबंध हो वह ग्रहण करे। १०८५. एमेव संजईण वि, विहि अविही नवरि तत्थ नाणत्तं। सव्वत्थ वि सग्गामे, परगामे भावओ वि भए॥ इसी प्रकार श्रमणियों के विषय में जानना चाहिए। विशेष है-विधिभिन्न अविधिभिन्न प्रलंब। विधिभिन्न प्रलंब स्वग्राम या परग्राम-सर्वत्र लिया जा सकता है। पहले छठे भंग, पश्चात् पांचवां-चौथा। उसके अभाव में भावतः अविधिभिन्न प्रलंब का भी सेवन किया जा सकता है। १०८७. तेसु सपरिग्गहेसुं, खेत्तेसुं साहुविरहिएसुं वा। किच्चिरकालं कप्पड़, वसिउं अहवा विकप्पो उ॥ साधुओं द्वारा परिगृहीत अथवा साधु विरहित क्षेत्रों में कितने काल तक साधु-साध्वियों को रहना कल्पता है यह प्रस्तुत सूत्र का प्रतिपाद्य है। विकल्पतः यह भी सूत्र का संबंध है। १०८८. आदिपदं निद्देसे, वा उ विभासा समुच्चये वा वि। गम्मो गमणिज्जो वा, कराण गसए व बुद्धादी। सूत्रगत आदिपद (से गामंसि वा) 'से' शब्द निर्देश अर्थात् उपन्यास के अर्थ में तथा 'वा' शब्द स्वगत अनेक भेदों अथवा समुच्चय का वाचक है। ग्राम का अर्थ है जहां १८ प्रकार के 'कर' गमनीय होते हैं, लगते हैं अथवा ग्राम का अर्थ है वह स्थान जो बुद्धि आदि गुणों को ग्रस लेता है, नष्ट कर देता है। १०८९. नत्थेत्थ करो नगरं, खेडं पुण होइ धूलिपागारं। कब्बडगं तु कुनगरं, मडंबगं सव्वतो छिन्नं ।। जहां किसी प्रकार का 'कर' नहीं लगता वह नकर-नगर कहलाता है। जो धूली के प्रकार से युक्त होता है वह खेट और कुनगर कर्बट कहलाता है। सर्वतः छिन्न अर्थात् जिसके चारों दिशाओं में ढाई गव्यूति तक कोई ग्राम न हो वह मडंब कहलाता है। १०९०. जलपट्टणं च थलपट्टणं च इति पट्टणं भवे दुविहं। अयमाइ आगरा खलु, दोणमुहं जल-थलपहेणं। पत्तन के दो प्रकार हैं-जलपत्तन और स्थलपत्तन। लोह आदि के आकर कहलाते हैं। जो जलमार्ग और स्थलमार्गदोनों से जुड़ा हुआ हो वह द्रोणमुख है। जैसे भृगुकच्छ, ताम्रलिप्ती आदि। १०९१. निगम नेगमवग्गो, वसइ जहिं रायहाणि जहिं राया। ___तावसमाई आसम, निवेसो सत्थाइजत्ता वा॥ जहां वणिक्वर्ग रहता है वह है निगम, जहां राजा रहता है वह है राजधानी, तापसों का आश्रम कहलाता है। निवेश वह है जहां सार्थ आवासित होता है अथवा यात्रायित लोग जहां ठहरते हैं। १०९२. संवाहो संवोढुं, वसति जहिं पव्वयाइविसमेसु। घोसो उ गोउलं अंसिया उ गामद्धमाईया।। कृषक अन्यत्र खेती कर तथा वणिक् वर्ग व्यापार कर अपना माल पर्वत आदि विषम स्थानों में रखकर स्वयं जहां रहता है उस वसति को संबोध कहा जाता है। घोष का अर्थ है-गोकुल। अंशिका उस स्थान का नाम है जहां गांव का आधाभाग, एक तिहाई भाग, चौथा भाग रहता है, वह ग्रामांश। मासकप्प-पदं से गामंसि वा नगरंसि वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा मडंबंसि वा पट्टणंसि वा आगरंसि वा दोणमुहंसि वा निगमंसि वा रायहाणिंसि वा आसमंसि वा निवेसंसि वा संबाहंसि वा घोसंसि वा अंसियंसि वा पडभेयणसि संकरंसि वा सपरिक्खेवंसि अबाहिरियंसि कप्पइ निग्गंथाणं हेमंतगिम्हासु एगं मासं वत्थए। (सूत्र ६) १०८६. वुत्तो खलु आहारो, इयाणि वसहीविहिं तु वन्नेइ। सो वा कत्थुवभुज्जइ, आहारो एस संबंधो।। पूर्वसूत्र में आहार विषयक विधि निरूपित की गई है। प्रस्तुत सूत्र में वसतिविधि का वर्णन किया गया है। अथवा आहार का उपभोग कहां किया जाए-यह भी इस सूत्र का संबंध है। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ==बृहत्कल्पभाष्यम् १०९३. नाणादिसागयाणं, भिज्जति पुडा उ जत्थ भंडाणं। वहीं तक ग्राम है। विशुद्धतम नय कहता है-जहां तक ग्राम पुडभेयणं तगं संकरो य केसिंचि कायव्वो॥ का उदपान कूप है वहां तक ग्राम है। दूसरा कहता है जहां जहां नाना दिशाओं से आगत भांडों के पुट विक्रय के तक अव्यक्त अर्थात् बालक खेलने के लिए जाते हैं वहां तक लिए खोले जाते हैं, वह स्थान पुटभेदन कहलाता है। कुछेक ग्राम है। विशुद्धतर नय कहता है-छोटे बालक रेंगते आचार्यों के मतानुसार यहां 'संकर' पाठ अधिक होना हुए जितने भूभाग का अतिक्रमण करते हैं, उतना भूभाग है चाहिए। 'संकर' का अर्थ है- ग्राम, खेट, आश्रम आदि। ग्राम। १०९४. नामं ठवणागामो, दव्वग्गामो य भूतगामो य।। १०९९. एवं विसुद्धनिगमस्स वइपरिक्खेवपरिवुडो गामो। __आउन्जिदियगामो, पिउ-माऊ-भावगामो य॥ ववहारस्स वि एवं, संगहो जहिं गामसमवाओ॥ ग्राम शब्द के नौ निक्षेप हैं-नामग्राम, स्थापनाग्राम, इस प्रकार नैगमनय की अनेकविध परिभाषाओं को द्रव्यग्राम, भूतग्राम, आतोद्यग्राम, इन्द्रियग्राम, पितृग्राम, छोड़कर विशुद्ध नैगमनय कहता है कि जितना भूभाग बाड़ के मातृग्राम, भावग्राम। परिक्षेप से परिवृत है उतने भूभाग को ग्राम कहना चाहिए। १०९५ जीवा-ऽजीवसमुदओ, गामो को कं नओ कहं इच्छे। व्यवहारनय के अनुसार भी यही परिभाषा है। संग्रहनय के आदिणयोऽणेगविहो, तिविकप्पो अंतिमनओ उ॥ अनुसार जहां ग्रामवासियों का एकत्र मिलन होता है, वहां कौनसा नय किस ग्राम को द्रव्यग्राम कहता है? जो जीव तक ग्राम मानना चाहिए। और अजीव का समुदय है, वह द्रव्यग्राम है। आदिनय अर्थात् ११००. जं वा पढम काउं, सेसग गामो निविस्सइ स गामो। नैगमनय के अनेक प्रकार हैं। अंतिम नय है शब्दनय। उसके तं देउलं सभा वा मज्झिम गोट्ठो पवा वा वि॥ तीन विकल्प हैं-शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत। जिस स्थान को प्रथम मानकर, आदि मानकर गांव का १०९६. गावो तणाति सीमा, आरामुदपाण चेडरूवाणि।। निवेश होता है, फिर चाहे वह देवकुल हो, सभास्थान हो, वाडी य वाणमंतर, उग्गह तत्तो य आहिपती॥ ग्राममध्यवर्ती हो, गोष्ठ हो अथवा प्रपा हो, वह ग्राम (अनेकविध नैगमनय के अनुसार ग्राम शब्द की व्याख्या) कहलाता है। गाय, तृणहारक, सीमा, आराम, उदपान, चेडरूप, वाटि, ११०१. उज्जुसुयस्स निओओ, पत्तेयघरं तु होइ एक्केक्कं । वानमन्तर, अवग्रह और अधिपति। (इसकी विस्तृत व्याख्या उद्वेति वसति व वसेण जस्स सद्दस्स सो गामो॥ अगली गाथाओं में।) नियोग का अर्थ है-ग्राम। ऋजुसूत्र नय के अनुसार १०९७. गावो वयंति दूरं, पि जं तु तण-कट्ठहारगादीया। प्रत्येक आवासीय गृह एक-एक ग्राम है। शब्दनय के अनुसार सूरुट्टिए गता एंति अत्थमंते ततो गामो॥ जिस किसी के वश से ग्राम उजड़ जाता है अथवा पुनः (प्रथम नय कहता है-गायें जितने भूभाग में चरने के लिए बसता है, वह ग्राम का अधिपति ग्राम शब्द द्वारा व्यवहृत जाती हैं, वह सारा भूभाग ग्राम कहलाता है। तब विशुद्ध होता है। नैगम नय कहता है-) ११०२. तस्सेव उ गामस्सा, को कं संठाणमिच्छति नओ उ। गायें तो बहुत दूर-दूर तक चरने के लिए चली जाती हैं, तत्थ इमे संठाणा, हवंति खलु मल्लगादीया॥ वह सारा भूभाग ग्राम नहीं कहलाता। सूर्योदय होने पर उसी ग्राम का कौनसा नय कैसा संस्थान चाहता है, तृणहारक, काष्ठहारक आदि तृण या काष्ठ के लिए जितनी इसका विवेचन है। ग्राम के मल्लक आदि संस्थान होते हैं। दूर जाते हैं और सूर्यास्त के समय लौट आते हैं, उतना ११०३. उत्ताणग ओमंथिय, संपुडए खंडमल्लए तिविहे। भूभाग होता है ग्राम। भित्ती पडालि वलभी, अक्खाडग रुयग कासवए। १०९८. परिसीम पि वयंति हु,सुद्धतरो भणति जा ससीमा तु। ११०४. मज्झे गामस्सऽगडो, बुद्धिच्छेदा ततो उ रज्जूओ। उज्जाण अवत्ता वा, उक्कीलंता उ सुद्धयरो॥ निक्खम्म मूलपादे, गिण्हतीओ वई पत्ता॥ शुद्धतर नैगमनय कहता है-यह भी उचित नहीं है, ११०५. ओमंथिए वि एवं, देउल रुक्खो व जस्स मज्झम्मि। क्योंकि तृणहारक आदि घास के लिए परसीमा में भी जा कूवस्सुवरिं रुक्खो, अह संपुडमल्लओ नाम। सकते हैं। वहां तक ग्राम नहीं होता। स्वसीमा तक ही ग्राम ११०६. जइ कूवाई पासम्मि होति तो खंउमल्लओ होइ। होता है। विशुद्धतर नय कहता है जहां तक ग्राम का उद्यान है पुव्वावररुक्खेहिं, समसेढीहिं भवे भित्ती॥ १. गामो त्ति वा निओउ ति वा एगहूँ। (विशेषचूर्णि) Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ११०७. पासट्टिए पडाली, वलभी चउकोण इंसि दीहा उ चउकोणेसु जइ दुमा, हवंति अक्खाडतो तम्हा ॥ ११०८. बडागारठिएहिं रुयगो पुण वेढिओ तरुवरेहिं । तिकोणो कासवओ, छुरधरगं कासवं विती ॥ ग्राम-संस्थान के बारह प्रकार हैं- १. उत्तानकमल्लकसंस्थित २. अधोमुखमल्लकसंस्थित ३. सम्पुटकमल्लकसंस्थित ९. वलभीसंस्थित ४. उतानखंडमल्लकसंस्थित १०. अक्षवाटकसंस्थित ५. अधोमुखखंडमल्लकसंस्थित ११. रुचकसंस्थित ६. सम्पुटखंडमल्लकसंस्थित १२. काश्यपसंस्थित १. उत्तानमल्लकसंस्थान जिस ग्राम के मध्यभाग में कूप है, बुद्धि से उसके पूर्व आदि दिशाओं में छेद की परिकल्पना की जाती है। फिर कूप के अधस्तन तल से बुद्धिकृत छेद के द्वारा रज्जुओं को दिशा विदिशाओं में निकालकर घरों के मूलपाद के ऊपर से ग्रहण करते हुए ग्रामपर्यन्तवर्ती वृति तक तिर्यक् विस्तारित किया जाता है, फिर ऊपर अभिमुख होकर ऊंचाई में वे हर्म्यतलों के समीभूत होकर वहां पटहच्छेद से उपरत हो जाती हैं। इस आकार वाला उत्तानक मल्लकसंस्थित ग्राम कहलाता है, ऊर्ध्वाभिमुख शराव (सिकोरे) का आकार ऐसा ही होता है। ७. भित्तिसंस्थित ८. पडालिकासंस्थित २. अधोमुखमल्लकसंस्थान - यह संस्थान भी ऐसा ही है । विशेष यह है कि जिस गांव के मध्य बेवकुल है या बहुत ऊंचा वृक्ष है, उस देवकुल आदि के शिखर से रज्जुओं को उतारकर तिरछे में वृति पर्यन्त ले जाया जाता है। वहां से अधोमुख हो घरों के पादमूल तक ग्रहण कर पटहच्छेद से उपरत होने पर यह संस्थान बनता है। ३. सम्पुटकमल्लकसंस्थान जिस ग्राम के मध्यभाग में कूप है, उसके ऊपर ऊंचा वृक्ष है तो उस कूप के अधस्तल से रज्जु निकालकर घरों के मूलपाद के नीचे-नीचे ले जाकर वृति पर्यन्त ले जाया जाता है। फिर ऊर्ध्व अभिमुख होकर हर्म्यतन की समश्रेणीभूत रज्जु को वृक्ष शिखर से उतारकर वृति पर्यन्त ले जाते हैं। फिर अधोमुखी होकर उसे कूपसंबंधी रज्जु के अग्रभाग के साथ संघटित किया जाता है। यह सम्पुटकमल्लकसंस्थान है। ४-६. उत्तान - अधोमुख- सम्पुटखंडमल्लकसंस्थान- जिस ग्राम के बाहर एक दिशा में कूप है, उस एक दिशा को छोड़कर शेष सात दिशाओं में रज्जु को निकालकर उसे तिर्यक् वृति तक ले जाकर ऊपर से हर्म्यतल तक लाकर पटहच्छेद से उपरत होने पर उत्तानखंडमल्लकसंस्थान बनता १९९ है। अधोमुखखंडमल्लक और सम्पुटखंडमल्लकसंस्थान भी ऐसा ही होता है। इन दोनों में विशेष इतना है कि पहले में एक दिशा में देवकुल या ऊंचा वृक्ष होता है, दूसरे में एक दिशा में कूप और उसके ऊपर वृक्ष होता है। + ७. भित्तिसंस्थान - जिस गांव की पूर्व और पश्चिम दिशा में समश्रेणी में व्यवस्थित वृक्ष हों, वह भित्तिसंस्थित ग्राम है। ८. पडालिकासंस्थान - जिस गांव की पूर्व और पश्चिम दिशा में वृक्ष समश्रेणी में तथा पार्श्वभाग में वृक्षयुगल समश्रेणी में अवस्थित हों, वह पडालिकासंस्थित ग्राम है। ९. वलभीसंस्थान जिस गांव के चारों कोणों में ईषद दीर्घ वृक्ष व्यवस्थित हों, वह वलभीसंस्थित ग्राम है। १०. अक्षवाटकसंस्थान - 'अक्षवाट ' - मल्लों के युद्ध का अभ्यासस्थल जैसे समचतुरस्र होता है, वैसे ही जिस गांव के चारों कोणों में वृक्ष होते हैं, उससे यह चतुर्विदिशावर्ती वृक्षों के द्वारा समचतुरस्र रूप में जाना जाता है, वह अक्षवाटकसंस्थित ग्राम है। ११. रुचकसंस्थान- यद्यपि गांव स्वयं सम नहीं होता, तथा जो रुचकवलयपर्वत की भांति वृत्ताकार में व्यवस्थित वृक्षों से वेष्टित है, वह रुचकसंस्थित ग्राम है। १२. काश्यपसंस्थान जो गांव त्रिकोण रूप में निविष्ट है. वह काश्यपसंस्थित ग्राम है। अथवा जिस गांव के बाहर एक ओर दो तथा दूसरी ओर एक इस प्रकार तीन वृक्ष त्रिकोण रूप में स्थित हैं, वह काश्यपसंस्थित ग्राम है। नापित के शुरगृह को काश्यप कहा जाता है वह त्रिकोण होता है। ११०९. पढमेत्थ पडहछेदं, आ कासव कडग - कोट्टिमं तइओ । नाणि आहिपतिं वा सहनया तिन्नि इच्छंति ॥ प्रथम अर्थात नैगमनय पटहच्छेवलक्षण वाला संस्थान मानना है, संग्रहनय का भी यही अभिमत है। व्यवहारनय भित्तिसंस्थान से काश्यपसंस्थान पर्यन्त मानता है। तीसरा ऋजुसूजनय कटकतृणादिमय, कोट्टिम-पाषाणादिचन्द्रभूमिक वाले संस्थान को मानता है। तीनों शब्दनय ज्ञानी अधिपति को संस्थान रूप में मानते हैं। १११०. संगहियमसंगहिओ, संगहिओ तिविह मल्लयं नियमा भित्तादी जा कासवो, असंगहो बेति संठाणं ॥ नैगमनय दो प्रकार का होता है- सांग्रहिक तथा असांग्रहिक । सांगहिक का अर्थ है- सामान्यग्राही । सांग्रहिक नैगमनय नियमतः तीन प्रकार का संस्थान मानता हे उत्तानक, अवगमुख तथा संपुटाकार संपूर्ण अथवा खंड मल्लक के पटहच्छेवलक्षण संस्थान असांग्रहिक नैगगनय Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० भित्तिसंस्थान से लेकर काश्यपसंस्थान पर्यन्त सभी संस्थानों को स्वीकार करता है। ११११. निम्मा घर व भूमिय, तइओ दुहणा वि जाव पावंति। नाणिस्साहिपइस्स व जं संठाणं तु सहस्स ॥ तीसरा ऋजुसूत्रनय मूलपादवाले गृह, वृति या स्तूप का संस्थान तथा आकाश में ऊपर उठा हुआ मुद्गर जितने आकाशतल को प्राप्त करता है, उस सीमा तक का संस्थान मानता है। ज्ञानी अधिपति का अथवा ग्रामाधिपति का जो संस्थान है वह शब्दनय का विषय है। १११२. चउदसविहो पुण भवे, भूतग्गामो तिहा उ आतोज्जो । सोतादिदियगामो, तिविहा पुरिसा पिउग्गामो ॥ भूतग्राम (प्राणियों का समूह) के चौवह भेद हैं।" आतोधग्राम के तीन भेद हैं- षड्जग्राम, मध्यमग्राम तथा गंधारग्राम । श्रोत्रेन्द्रिय आदि इन्द्रियों का समुदयइन्द्रियग्राम | पितृग्राम है तीन प्रकार के पुरुष - तिर्यग्योनिक पुरुष, मनुष्ययोनिक पुरुष और देवयोनिकपुरुष । १११३. तिरिया- उमर नरइत्थी, माउग्गामं पि तिविहमिच्छति । नाणाइतिगं भावे, जओ व तेसिं समुप्पत्ती ॥ पूर्व आचार्य तीन प्रकार का मातृग्राम बतलाते हैंतिर्यक्योनिकस्त्री, देवयोनिकस्त्री और मनुष्ययोनिकस्त्री । ज्ञान, दर्शन और चारित्र का समवाय - यह है भावग्राम अथवा ज्ञान आदि का उत्पत्ति स्थल भावग्राम है। १११४. तित्यगरा जिण चउदस, दस भिन्ने संविग्ग तह असंविग्गे । सारुविय वय दंसण, पडिमाओ भावगामो उ। तीर्थंकर, जिन ( केवली), चतुर्दशपूर्वधर, दशपूर्वधर, असंपूर्णवशपूर्वघर, संविग्न ( उद्यतविहारी), असंविग्न, सारूपिक अणुव्रतधारीश्रावक दर्शनश्रावक (अविरत सम्यग्दृष्टि), प्रतिमा- ये सारे भावग्राम माने जाते हैं। १११५. चरण करणसंपन्ना, परीसहपरायगा महाभागा । तित्थगरा भगवंतो, भावेण उ एस गामविही॥ तीर्थंकर भगवान् चरण-करण से संपन्न, परीषहों को जितने वाले, महाभाग भावग्राम होते हैं उनको देखते ही भव्यजीवों में बोधिबीज उत्पन्न हो जाता है। यह भावग्राम की विधि वक्तव्य है। 1 १११६.जा सम्मभावियाओ, पडिमा इयरा न भावगामो उ । भावो जड़ नत्थि तहिं नणु कारण कन्नडवयारो ॥ १. एगिदिय सहमियरा, सन्निगरपणिदिया य सवितिचऊ। पज्जत्ताऽपज्जत्ता, भएणं चउदस ग्गामा ॥ (वृ. पृ. ३४८) २. सारूपिक- श्वेतवस्त्रधारी, क्षुर से मुंडित सिर, भिक्षाटन से जीवन चलाने वाले अथवा पछाकड़ा विशेष । (वृ. पृ. ३४९) बृहत्कल्पभाष्यम् जो सम्यग्दृष्टिपरिगृहीत प्रतिमा है, वह भावग्राम है। इतर अर्थात् जो मिध्यादृष्टिपरिगृहीत प्रतिमा है, वह भावयाम नहीं है। शिष्य ने पूछा- जहां भाव-ज्ञान आदि नहीं है वहां भावग्राम कैसे हो सकता है? आचार्य कहते हैं कारण में कार्य का उपचार मानकर भावग्राम कहा जा सकता है, जैसेप्रतिमा को देखकर आर्द्रककुमार को संबोधि प्राप्त हुई थी। १११७. एवं खु भावगामो, णिण्हगमाई वि जह मयं तुब्भं । अमवच्चं को णु हु, अव्विवरीतो वदिज्जाहिं || शिष्य ने पूछा- 'कारणे कार्योपचार के माध्यम से आपने प्रतिमा को भावग्राम माना है तो निह्नवों को भी भावग्राम मानना होगा। आचार्य कहते हैं यह तुम्हारा अवचन है, असमंजस प्रलाप है, क्योंकि सम्यन्तत्त्ववेदी ऐसा विपरीत कथन नहीं करता । १११८. जइ विहु सम्मुप्पाओ, कासह दगुण निण्हए होज्जा । मिच्छत्तहयसईया तहावि ते वज्ञणिज्जा उ॥ यद्यपि निहवों को देखकर किसी के मन में दर्शनसम्यक्त्व की उत्पत्ति हो सकती है, फिर भी उन निवाँ की सर्वज्ञवचनों की स्मृति मिथ्यात्व से दूषित होती है अतः वे वर्जनीय होते हैं। १११९. आहार- उवहि-सयणा-ऽऽसणोवभोगेसु जो उ पाउग्गो । एयं वयंति गामं, जेणऽहिगारो इहं सत्ते ॥ शिष्य ने पूछा- प्रस्तुत प्रसंग में किस प्रकार के ग्राम का अधिकार है? आचार्य कहते है-आहार, उपधि, शयन, आसन- इनमें जो उपभोग के लिए कल्प्य हैं, वे ग्राम कहे जाते हैं। प्रस्तुत सूत्र में इनका ही अधिकार है। ११२०. एमेव य नगरादी, नेवव्वा होति आणुपुब्बीए । - जं जं जुज्जइ जत्थ उ, जोएअव्वं तगं तत्थ ॥ जिस प्रकार 'ग्राम' पद की प्ररूपणा की है, उसी प्रकार नगर आदि की प्ररूपणा भी अनुपूर्वी से करनी चाहिए। जहांजहां नगर आदि पदों में द्रव्य स्थापना आदि की योजना करनी होती है, वहां-वहां उनकी योजना करनी चाहिए। ११२१. नामं ठवणा दविए, खित्ते काले तहेव भावे य। एसो उ परिक्खेवे निक्खेवो छब्बिहो होइ ॥ परिक्षेप पद का यह छह प्रकार का निक्षेप है-नामपरिक्षेप, स्थापनापरिक्षेप, द्रव्यपरिक्षेप, क्षेत्रपरिक्षेप, कालपरिक्षेप और भावपरिक्षेप । ३. शिष्य ने पूछा- तीर्थंकर आदि रत्नत्रयी से समन्वित होने के कारण भावग्राम हैं किन्तु असंविग्न आदि भावग्राम कैसे ? आचार्य कहते हैं- ये सभी यथावत्प्ररूपणा करते हैं और अनेक व्यक्ति इनसे रत्नत्रयी प्राप्त करते हैं। अतः ये भी भावग्राम कहे जा सकते हैं। (वृ. पृ. ३४९) . Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ११२२.सच्चित्तादी दव्वे, सच्चित्तो दुपयमायगो तिविहो। मीसो देसचियादी, अच्चित्तो होइमो तत्थ॥ द्रव्यपरिक्षेप के तीन प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र। सचित्त के तीन भेद हैं-द्विपद, चतुष्पद और अपद। मिश्र के भी ये ही तीन प्रकार हैं। 'देसेचियादी'-एक देश में उपचित है सचेतन और एक देश में उपचित है अचेतन। यह मिश्रपरिक्षेप है। अचित्त परिक्षेप यह होता है११२३.पासाणिट्टग-मट्टिय-खोड-कडग-कंटिगा भवे दव्वे। खाइय-सर-नइ-गड्डा-पव्वय-दुग्गाणि खेत्तम्मि॥ पाषाणमय प्राकार (द्वारिका में), ईंटों का प्राकार (आनन्दपुर में), मिट्टी का प्राकार (सुमनोमुख नगर में), खोड अर्थात् काष्ठमय प्राकार, बांसों का प्राकार, कांटों का प्राकार-ये सारे द्रव्यप्राकार हैं। खातिका, तालाब, गर्त्ता, नदी, पर्वत, दुर्ग-ये जिस क्षेत्र को वेष्टित करते हैं यह क्षेत्र परिक्षेप है। ११२४.वासारत्ते अइपाणियं ति गिम्हे अपाणियं नच्चा। कालेण परिक्खित्तं, तेण तमन्ने परिहरंति॥ वर्षारात्र में अतिपानी के कारण, ग्रीष्म ऋतु में अपानी के कारण जिस नगर आदि का अन्य राजा परिहार कर देते हैं, वह कालपरिक्षिप्त कहलाता है। ११२५.नच्चा नरवइणो सत्त-सार-बुद्धी-परक्कमविसेसे। भावेण परिक्खित्तं, तेण तमन्ने परिहरंति॥ जिस राजा के पास सत्त्व-धैर्य, सार-बाह्य और आभ्यन्तर (बाह्य-सेना आदि, आभ्यन्तर-स्वर्ण आदि), बुद्धि और पराक्रम विशेष होता है-वह नगर भावपरिक्षिप्त होता है। ऐसे नगर का दूसरे राजा परिहार कर देते हैं। ११२६.नाम ठवणा दविए, खित्ते काले तहेव भावे य। ____ मासस्स परूवणया, पगयं पुण कालमासेणं॥ मास शब्द के छह निक्षेप हैं-नाममास, स्थापनामास, द्रव्यमास, क्षेत्रमास, कालमास और भावमास। प्रस्तुत सूत्र में कालमास प्रकृत है। ११२७.दव्वे भवितो निव्वत्तिओ उ खेत्तं तु जम्मि वण्णणया। कालो जहि वणिज्जइ, नक्खत्तादी व पंचविहो॥ जो माषरूप में उत्पन्न होगा अथवा मूलोत्तरगुणनिवर्तित माष है वह द्रव्यमाष है। क्षेत्रमास-जिस क्षेत्र में मासकल्प की वर्णना की जाती है अथवा माष का वपन किया जाता है। कालमास-जिस काल में मास कल्प का वर्णन किया जाता है। अथवा माष का वपन किया जाता है। अथवा श्रावण आदि मास। अथवा नक्षत्र आदि पांच प्रकार का कालमास। ११२८.नक्खत्तो खलु मासो, सत्तावीसं हवंतऽहोरत्ता। भागा य एक्कवीसं, सत्तट्टिकरण छेएणं ।। ११२९.अउणत्तीसं चंदो, बिसट्टि भागा य हुंति बत्तीसा। कम्मो तीसइदिवसो, तीसा अद्धं च आइच्चो।। ११३०.अभिवड्डि इक्वतीसा, चउवीसं भागसयं च तिगहीणं। भावे मूलाइजुओ, पगयं पुण कम्ममासेणं॥ नक्षत्रमास २७२१ अहोरात्र प्रमाण का होता है। चान्द्रमास २९३२ अहोरात्र का होता है। कर्ममास (ऋतुमास) तीस अहोरात्र का तथा आदित्यमास साढ़े बीस अहोरात्र का होता है। अभिनवर्धित ३१.२४ अहोरात्र का होता है। भावमाष मूलादि युक्त होता है, अर्थात् माष का मूल, कन्द, स्कंध आदि रूप होता है। प्रस्तुत प्रसंग में कर्ममास (ऋतुमास) का अधिकार है। ११३१.जिण सुद्ध अहालंदे, गच्छे मासो तहेव अज्जाणं। एएसिं नाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुवीए। जिनकल्पिक, शुद्धपरिहारिक, यथालंदकल्पिक, गच्छवासी-स्थविरकल्पिक तथा आर्यिकाओं का मासकल्प संबंधी जो विधि है, नानात्व है, उसका मैं क्रमशः प्रतिपादन करूंगा। ११३२.पव्वज्जा सिक्खापयमत्थग्गहणं च अनियओ वासो। निप्फत्ती य विहारो, सामायारी ठिई चेव।। जिनकल्पिक की प्रव्रज्या, शिक्षापद, अर्थग्रहण, अनियतवास, निष्पत्ति, विहार तथा उनकी सामाचारी और स्थिति। (इसका विस्तार आगे की गाथाओं में।) ११३३.सोच्चाऽभिसमेच्चा वा, पव्वज्जा अभिसमागमो तत्थ। जाइस्सरणाईओ, सनिमित्तमनिमित्तओ वा वि॥ तीर्थंकर, गणधर आदि की देशना को सुनकर, अथवा अपनी सन्मति से अवबोध प्राप्त कर अथवा सनिमित्त या अनिमित्त से होने वाली जातिस्मृति की अभिसमागमता-प्राप्ति से वे प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं। ११३४.सोच्चा उ होइ धम्म, स केरिसो केण वा कहेयव्यो। के तस्स गुणा वुत्ता, दोसा अणुवायकहणाए। धर्म को सुनने से प्रव्रज्या-प्राप्ति होती है। शिष्य पूछता है-वह धर्म कैसा है? उसका कथन कौन कर सकता है? उसके उपाय-कथन से कौन से गुण हैं ? उसके अनुपायकथन से कौन से दोष हैं ? ११३५.संसारदुक्खमहणो, विबोहओ भवियपुंडरीयाणं। धम्मो जिणपन्नत्तो, पगप्पजइणा कहेयव्वो।। सांसारिक दुःखों से मुक्त करने वाला, भव्यरूपी श्वेतकमलों को विकस्वर करनेवाला जिनप्रज्ञप्त धर्म ही धर्म है। उसके कथन का अधिकारी है-प्रकल्पसूत्रार्थ का धारक मुनि। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १२२ बृहत्कल्पभाष्यम् ११३६.जह सूरस्स पभावं, द8 वरकमलपोंडरीयाई। भावना से विपरिणत हो जाते हैं और वे संसाररूपी समुद्र के बुज्झंति उदयकाले, तत्थ उ कुमुदा न बुज्झंति॥ सम्मुख प्रक्षिप्त होते हैं। ११३७.एवं भवसिद्धीया, जिणवरसूरस्सुतिप्पभावेणं। ११४१.एसेव य नूण कमो, वेरग्गगओ न रोयए तं च। बुज्झंति भवियकमला, अभवियकुमुदा न बुज्झंति॥ दुहतो य निरणुकंपा, सुणि-पयस-तरच्छअट्टवमा।। जैसे सूर्य के प्रभा-पटल को देखकर श्रेष्ठकमलपुंडरिक वे आगंतुक व्यक्ति यह सोचते हैं-जैनधर्म में यही क्रम हैप्रभात में विकसित हो जाते हैं, किन्तु उसी सरोवर में स्थित (पहले श्रावक धर्म, पश्चात् यतिधर्म अथवा पहले सम्यक्त्व कुमुद विकस्वर नहीं होते। इसी प्रकार भवसिद्धिक जीव पश्चात् देशविरति आदि)। उस वैराग्य से उपगूढ़ व्यक्ति को जिनेश्वर देवरूपी सूर्य की श्रुति-आगम के प्रभाव से वह रुचिकर नहीं लगता। इस प्रकार धर्म का अविधि से भव्यरूपी कमल विकस्वर होते हैं, किन्तु अभव्यरूपीकुमुद कथन करने वाला दोनों पर अनुकंपारहित होता है छह अवबुद्ध नहीं होते। जीवनिकायों पर तथा उस व्यक्ति पर। यहां शुनिका, पायस ११३८.पुव्वं तु होइ कहओ, पच्छा धम्मो उ उक्कमो किन्नु। तथा तरक्षअस्थि की उपमा वाच्य है। तेण वि पुव्वं धम्मो, सुओ उ तम्हा कमो ऐसो॥ (जैसे वीरशुनिका अयथार्थ से खिन्न होकर यथार्थ को भी पहले धर्मोपदेष्टा होता है, पश्चात् होता है धर्म। ग्रहण नहीं करती, वैसे ही वह प्रव्रज्या जिघृक्षु व्यक्ति पहले पूर्वश्लोक में व्युत्क्रम हुआ है-पहले धर्म और फिर श्राद्धधर्म को सुनकर, फिर प्रयत्नपूर्वक कथित यतिधर्म को धर्मोपदेष्टा का कथन है। यह क्यों ? आचार्य कहते हैं-उस भी स्वीकार करना नहीं चाहता। जैसे किसी समागत धर्मकथक ने भी पहले गुरु के पास धर्म सुना है, अतः यह प्राघूर्णक को भरपेट वासी भक्त दे देने के पश्चात् वह पायस क्रम ही है, उत्क्रम नहीं। भी खाना नहीं चाहता तथा जैसे तरक्ष-व्याघ्रविशेष पहले ११३९.जइधम्मं अकहेत्ता, अणु दुविधं सम्म मंसविरई वा। हड्डियों के भोजन से तृप्त हो जाने पर मांस खाने के प्रति अणुवासए कहिंते, चउजमला कालगा चउरो॥ लालायित नहीं होता, वैसे ही वह मनुष्य भी श्रावकधर्म से जो मिथ्यादृष्टि है, अनुपासक है, वह धर्म सुनना चाहे तो तृप्त होकर यतिधर्म की ओर आकृष्ट नहीं होता।) उसे पहले मुनिधर्म बतलाना चाहिए। यति धर्म न कहकर ११४२.तित्थाणुसज्जणाए, आयहियाए परं समुद्धरति। यदि उसे अणुव्रत की बात बतलाते हैं तो तप और काल से मग्गप्पभावणाए, जइधम्मकहा अओ पढमं ।। गुरु चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। यदि वह यति धर्म ग्रहण यतिधर्म का कथन करने वाला तीर्थ के स्थायित्व में करना न चाहे तो दो प्रकार का श्राद्धधर्म बतलाना चाहिए। सहायक बनता है। वह आत्महित के लिए होती है। दूसरे यदि श्राद्धधर्म न बतलाकर सम्यग्दर्शन की बात कहता है को यतिधर्म में प्रस्थापित करने पर उसका उद्धार होता तब भी तप से गुरु और काल से लघु चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। उससे मार्ग (सम्यग्दर्शन आदि के) की प्रभावना आता है। सम्यग्दर्शन का कथन किए बिना यदि मद्य-मांस होती है। इसलिए सबसे पहले यतिधर्म का कथन करना की विरति कहते हैं तब भी तप और काल से लघु चतुर्गुरु चाहिए।' का प्रायश्चित्त है। यदि सम्यग्दर्शन भी अंगीकार नहीं कर ११४३.पव्वइयस्स य सिक्खा, गयोहाय सिलीपती य दिळंतो। सकता तब यदि मद्य-मांस की विरति कहे बिना यदि उसको तइयं च आउरम्मी, चउत्थगं अंधले थेरे।। ऐहिक और आमुष्मिक फल का कथन करते हैं तब भी तप प्रवजित व्यक्ति को शिक्षा देनी चाहिए। शिक्षा के दो और काल से लघु चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। 'चउजमला प्रकार हैं-ग्रहण शिक्षा और आसेवन शिक्षा। इस विषयक कालगा चउरो'-चार यमल अर्थात् तपःकाल युगल, चार चार दृष्टांत हैं-(१) गजस्नान (२) श्लीपदी (३) आतुर तथा कालक अर्थात चार चतुर्गुरुक। (४) अंधस्थविर। (इसका विस्तार आगे की गाथाओं में।) ११४०.जीवा अब्भुटुिंता, अविहीकहणाइ रंजिया संता। ११४४.पव्वइओऽहं समणो, निक्खित्तपरिग्गहो निरारंभो। अभिसंछूढा होती, संसारमहन्नवं तेणं॥ इति दिक्खियमेकमणो, धम्मधुराए दढो होमि॥ वे समागत व्यक्ति प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए तत्पर थे, ११४५.समितीसु भावणासु य, गत्ती-पडिलेह-विणयमाईसु। किन्तु उस मुनि के अविधिकथन से रंजित होकर संयम लोगविरुद्धेसु य बहुविहेसु लोगुत्तरेसुं च॥ १. जो अर्हत् धर्म का अनुपासक है उसको पहले यतिधर्म स्वीकार करने की बात कहे। वह उसे स्वीकार करने में समर्थ न हो तो श्रावकधर्म की बात कहे, फिर सम्यग्दर्शन की और वह भी स्वीकार न कर सके तो मद्य-मांस विरति के विषय में कहे। यह अनुपासक के समक्ष धर्मकथन की विधि है। Jain Education international Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = १२३ ११४६.जुत्त विरयस्स सययं, संजमजोगेसु उज्जयमइस्सा किं मज्झं पढिएणं, भण्णइ सुण ता इमे नाए॥ गुरु शिष्य को ग्रहण शिक्षा के विषय में प्रेरित करते हैं। तब शिष्य कहता है-भदन्त ! मैं प्रवजित हूं, निष्परिग्रह और निरारंभी हूं। मैं प्रव्रज्या में एकाग्रमना होकर धर्मचिन्ता में दृढ़ बनूं-यह मेरी भावना है। समितियों, भावनाओं, गुप्तियों तथा प्रतिलेखन, विनय आदि में युक्त हूं और नाना प्रकार के लोकविरुद्र और लोकोत्तरविरुद्ध प्रवृत्तियों से प्रतिनिवृत्त हूं। संयमयोगों में उद्यमशील हूं। तो फिर मेरा पढ़ने से क्या प्रयोजन? तब आचार्य बोले-वत्स! तुम इन दो दृष्टांतों को सुनो। ११४७.जह ण्हाउत्तिण्ण गओ, बहुअतरं रेणुयं छुभइ अंगे। सुट्ट वि उज्जममाणो, तह अण्णाणी मलं चिणइ॥ ११४८.जं सिलिपई निदायति, तं लाएति चलणेहिं भूमीए। एवमसंजमपंके, चरणसई लाइ अमुणितो॥ जैसे हाथी स्नान करने के पश्चात् अपने शरीर पर प्रचुर धूली डाल देता है वैसे ही (संयम में) प्रचुर उद्यम करने वाला अज्ञानी कर्ममल का उपचय करता है। जैसे श्लीपदी (हाथीपगा) व्यक्ति जितने प्रमाण में खेत का निदान करता है उससे अधिक धान्य को अपने पैरों से रौंद डालता है। इसी प्रकार श्रुतपाठ के बिना चारित्ररूपी सस्य को असंयमीरूपी पंक में डाल देता है। ११४९.भणइ जहा रोगत्तो, पुच्छति वेज्जं न संघियं पढइ। ___ इय कम्मामयवेज्जे, पुच्छिय तुज्झे करिस्सामि॥ शिष्य कहता है-भंते! रोग से पीड़ित पुरुष वैद्य को पूछता है, वह वैद्यकसंहिता को नहीं पढ़ता। इसी प्रकार आप कर्मरोग के चिकित्सक हैं। मैं आपको पूछकर ही सारी क्रियाएं करूंगा। मुझे श्रुत पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। ११५०. भण्णइ न सो सयं चिय, करेति किरियं अपुच्छिउँ रोगी। नायव्वे अहिगारो, तुम पि नाउं तहा कुणसु॥ आचार्य ने कहा-यह सच है कि रोगी वैद्य को पूछे बिना क्रिया-रोगोपचार नहीं करता, फिर भी रोगोपचार की विधि जानने का वह अधिकारी है, जिससे कि उसे वैद्य को बारबार पूछना न पड़े। उसी प्रकार तुम भी श्रुत के आधार पर। षट्कायरक्षणविधि को जानकर वैसा करो जिससे कि गुरु को बार-बार पूछना न पड़े। ११५१.दूरे तस्स तिगिच्छी, आउरपुच्छा उ जुज्जए तेणं। सारेहिंति सहीणा, गुरुमादि जतो नऽहिज्जामि॥ शिष्य बोला-भंते! उस रोगी का चिकित्सक दूरवर्ती १. देखें कथा परिशिष्ट, नं. ५०। है, इसलिए रोगोपचार का परिज्ञान उसके लिए आवश्यक है। परंतु गुरु, उपाध्याय आदि मेरे निकट ही हैं, वे मेरी सारणा-वारणा स्वयं करेंगे। इसलिए मैं श्रुताध्ययन नहीं करूंगा। ११५२.आगाढकारणेहिं, गुरुमादी ते जया न होहिंति। तइया कहं नु काहिसि, जहा व सो अंधलो थेरो॥ आचार्य ने कहा-आगाढ़ कारणों से वे गुरु आदि तुम्हारे निकट नहीं भी हो सकते हैं। तब तुम क्या, कैसे करोगे? जैसे वह अंध स्थविर कुछ भी नहीं कर सका। ११५३.अट्ठ सुय थेर अंधल्लगत्तणं अत्थि मे बहू अच्छी। ___ अप्पद्दण्ण पलित्ते, डहणं अपसत्थग पसत्थे। एक स्थविर के आठ पुत्र थे। कालान्तर में वह अंधा हो गया। पुत्रों ने आंख की चिकित्सा के लिए कहा-स्थविर बोला-मेरे पुत्रों की बहुत आंखें हैं। उनसे मेरा कार्य चलता रहेगा। एक बार घर में आग लग गई। सभी पुत्र आदि ('अप्पदन्न' आत्मरक्षणपराः) अपनी रक्षा के लिए घर से निकल गए। अंधा स्थविर घर में जलकर भस्म हो गया। यह अप्रशस्त दृष्टांत है। प्रशस्त का कथन पहले किया जा चुका है।' ११५४.मा एवमसग्गाहं, गिण्हसु सुयं तइयचक्लु। किं वा तुमेऽनिलसुतो, न स्सुयपुव्वो जवो राया। आचार्य ने पुनः कहा-वत्स! असद् आग्रह-मिथ्या आग्रह मत करो। श्रुत तीसरा नेत्र है। उसे तुम ग्रहण करो। क्या तुमने अनिलनरेन्द्र के पुत्र यव राजा की बात नहीं सुनी है? ११५५.जव राय दीहपट्ठो, सचिवो पुत्तो य गद्दभो तस्स। धूता अडोलिया गहभेण छूढा य अगडम्मि। ११५६.पव्वयणं च नरिंदे, पुणरागमऽडोलिखेलणं चेडा। जवपत्थणं खरस्सा, उवस्सओ फरुससालाए। राजा का नाम यव था। दीर्घपृष्ठ उसका सचिव था। राजकुमार का नाम था गर्दभ। राज पुत्री का नाम अडोलिका था। गदर्भ का उसके प्रति तीव्रानुराग हो गया। यह जानकर राजा यव ने दोनों को अगड-भूमिगृह में डाल दिया। वे वहां भोग भोगने लगे। नरेन्द्र प्रवजित हो गया। पुत्रस्नेह के कारण वह बार-बार नगर में आता था। एक बार उसने बालकों को अडोलिका से खेलते देखा। वहां एक गर्दभ यवों को खाना चाहता था। मुनि यव कुंभकार की शालारूप उपाश्रय में रहा। (इस कथानक का विस्तार आगे।) ११५७.आधावसी पधावसी, ममं वा वि निरिक्खसी। लक्खिओ ते मया भावो, जवं पत्थेसि गहभा!॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ११५८. इओ गया इओ गया, मग्गिज्जती न दीसति । अहमेयं वियाणामि, अगडे छूढा अडोलिया ।। ११५९. सुकुमालग! भद्दलया !, रनिं हिंडणसीलया ! | भयं ते नत्थि मंमूला दीहपट्टाओ ते भयं ।। क्षेत्रपाल ने उस गधे को संबोधित कर कहा-'हे गर्दभ ! तुम कभी आगे भागते हो और कभी पीछे। मुझे भी तुम नहीं देख पा रहे हो। मैंने तुम्हारे अभिप्राय को जान लिया है। तुम यवों को खाना चाहते हो (द्वितीयपक्ष में हे गर्दमराज! तुम यव राजा को मारना चाहते हो। यही तुम्हारी अभिलाषा है ।) इधर-उधर दौड़-धूप कर तुम उसकी खोज कर रहे हो, पर उसको नहीं देख पा रहे हो। मैं यह जानता हूं कि राजकुमारी 'अडोलिका' उसी भूमीगृह में निक्षिप्त है। (मुनि यव कुंभकार की शाला में था। एक उंदर बार- बार बिल से निकलता और भयभीत होकर पुनः भीतर घुस जाता । ) यह देखकर कुंभकार बोला- हे सुकमारक! हे भद्राकृतिवाले! हे रात्री में घूमने वाले ! मेरे निमित्त से तुम्हें कोई भय नहीं होगा। तुम्हारे भय का एकमात्र निमित्त है - दीर्घपृष्ठ अर्थात् सर्प (द्वितीय पक्ष में तीनों आमंत्रण राजा के लिए तथा दीर्घपृष्ठ सचिव के लिए)।' ११६०. सिक्खियव्वं मणूसेणं, अवि जारिसतारिसं । पेच्छ मुद्धसिलोगेहिं जीवियं परिरक्खियं ॥ मनुष्य को ऐसा वैसा सब कुछ सीखना चाहिए। देखो, एक ग्रामीण व्यक्ति के द्वारा कथित श्लोकों ने मेरे जीवन की रक्षा कर दी। ११६१. पुव्वविराहियसचिवे, सामच्छण रत्ति आगमो गुणणा । नाओ मि सचिवघायण, खामण गमणं गुरुसगासे ॥ पूर्व विराधित सचिव राजा के पास आ गया। रात्री में राजा और सचिव का परस्पर पर्यालोचन हुआ। उस समय राजा को पूर्वपठित तीनों श्लोकों की स्मृति हो आई। उसने सोचा- मेरे पिता अतिशयज्ञानी हैं। मैं उनके द्वारा जान लिया गया हूं। यह सारा प्रपंच सचिव ने किया था। यह सोचकर राजा ने सचिव को मार डाला और अपने पिता राजर्षि के पास जाकर क्षमायाचना की। राजर्षि गुरु के पास गए और फिर आगम- अध्ययन में लग गए। ११६२. आयहिय परिण्णा भावसंवरो नवनवो अ संवेगो । निक्कंपया तवो निज्जरा य परदेसियत्तं च॥ श्रुत के अध्ययन से ये आठ विशेष गुण निष्पन्न होते हैं१. आत्महित ३. भावसंवर २. परिज्ञा १. देखें कथा परिशिष्ट, नं. ५१ । ४. नया-नया संवेग बृहत्कल्पभाष्यम् ७. निर्जरा ५. निष्कम्पता ६. तप ८. परदेशिकत्व (इनका विस्तार अगली गाथाओं में) ११६३.आयहियमजाणंतो, मुज्झति मूढो समादिअति कम्मं । कम्मेण तेण जंतू, परीति भवसागरमणंतं ॥ जो श्रुत का अध्ययन नहीं करता वह आत्महित को न जानता हुआ मोहग्रस्त होता है। वह मूढ़ व्यक्ति कर्मों का निबिडबंध करता है। वह उन कर्मों के कारण अनंत भवसागर में परिभ्रमण करता है। १९६४. आयहियं जाणंतो, अहियनिवित्तीऍ हियपवित्तीए । हवइ जतो सो तम्हा, आयहियं आगमेयव्यं ॥ जो आत्महित को जानता है वह अहित की निवृत्ति में और हित की प्रवृत्ति में प्रयत्न करता है इसलिए आत्महित का परिज्ञान करना चाहिए। १९६५. सझायं जाणतो, पंचिदियसंवुडो तिगुत्तो य होइ य एकन्गमणो, विणएण समाहिओ साहू ॥ स्वाध्याय अर्थात् श्रुत को जानने वाला मुनि पंचेन्द्रियसंवृत, तीन गुप्सियों से गुप्त, एकाग्रमनवाला तथा विनय से समाहित होता है। १९६६. नाणेण सव्वभावा, नज्जंते जे जहिं जिणक्खाया। नाणी चरितगुत्तो, भावेण उ संवरो होइ ॥ जो भाव जहां उपयोगी हैं उन भावों का वहां जिनेश्वरदेव ने आख्यान किया है। वे सारे भाव ज्ञान से जाने जाते हैं। इसलिए ज्ञानी चारित्रगुप्त होता है, भाव से संबर होता है। ११६७. जह जह सुभोगाइ, अइसयरसपसरसंजुयमपुव्वं । तह तह पल्हाइ मुणी, नवनवसंवेगसद्धाओ ॥ जैसे-जैसे विशेष रस के अतिरेक से संयुक्त उस अपूर्व श्रुत का अवगाहन करता है, वैसे-वैसे मुनि नए-नए संवेग की श्रद्धा से प्रह्लादित होता है-शुभ भावों में स्थित होकर आनंदित होता है। ११६८. णाणाणत्तीए पुणो, दंसणतवनियमसंजमे ठिच्चा विहरs विसुज्झमाणो, जावज्जीवं पि निक्कंपो॥ उसके फलस्वरूप ज्ञान की जो आज्ञति आदेश है कि ( जाए सद्धाए निक्खतो तमेव अणुपालए-जिस श्रद्धाभाव से निष्क्रमण किया है उसी का जीवनपर्यन्त अनुपालन करे ) - इस आज्ञप्ति के अनुसार मुनि दर्शन, तप, नियम और संयम में स्थित होकर, (कर्ममल से) विशुद्ध होता हुआ यावज्जीवन निष्प्रकम्प रहता हुआ विहरण करता है, संयममार्ग का अनुसरण करता है। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = १२५ ११६९.बारसविहम्मि वि तवे, सब्भिंतरबाहिरे कुसलदिवें। फल मिलता है, क्या वैसा फल अमात्य आदि की सेवा का न वि अत्थि न वि अ होही,सज्झायसमं तवोकम्म॥ होता है? हाथी के पैर जैसा क्या कुंथु का पैर होता है? इसी तीर्थंकरों द्वारा दृष्ट बाह्य और आभ्यन्तररूप में विभक्त प्रकार तीर्थंकरों के वचनों की जो महार्थता है, क्या दूसरों के बारह प्रकार के तपःकर्म में स्वाध्याय के समान दूसरा कोई वचनों की वैसी महार्थता होती है? इसलिए तीर्थंकर के पास तपःकर्म न है और न होगा। जाना ही उचित है। ११७०.जं अन्नाणी कम्म, खवेइ बहुयाहिं वासकोडीहिं। ११७५.कोट्ठाइबुद्धिणो अत्थि संपयं एरिसाणि मा जंप। तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ ऊसासमेत्तेण॥ अवि य तहिं वाउलणा, विरयाण वि कोउगाईहिं।। अज्ञानी जीव जिन कर्मों का क्षय अनेक कोटि वर्षों में तब आचार्य ने कहा-शिष्य! आज भी कोष्ठबुद्धि, करता है, उन्हीं कर्मों का क्षय तीन गुप्तियों से गुप्त ज्ञानी पदानुसारीबुद्धि तथा बीजबुद्धि से संपन्न मुनि हैं। इनमें सूत्रार्थ मनुष्य उच्छ्रासमात्र कालमान में कर देता है। का परिशाटन नहीं होता। इसलिए तुम धूलीदृष्टांत आदि मत ११७१.आय-परसमुत्तारो, आणा वच्छल्ल दीवणा भत्ती। कहो। और यह भी जानो कि भगवान् के पास पढ़ने वाले होति परदेसियत्ते, अव्वोच्छित्ती य तित्थस्स॥ मुनियों में भी कौतुक आदि के कारण व्याकुलता होती है। ज्ञानी जीव परदेशकत्व-दूसरों का मार्गदर्शन करता है। (उनमें भी कौतुक अर्थात् समवसरण आदि को देखने की उससे स्वयं का और दूसरे का समुत्तार होता है, उद्धार होता उत्कंठा होती ही है।) है। इससे आज्ञा, वात्सल्य, दीपना और भक्ति-ये कृत्य ११७६.समोसरणे केवइया, रूव पुच्छ वागरण सोयपरिणामे। संपादित होते हैं। तथा तीर्थ की अव्यवच्छित्ति होती है। ये दाणं च देवमल्ले, मल्लाणयणे उवरि तित्थं। गुण परदेशकत्व के होते हैं। समवसरण, कितने भूभाग से, रूप, पृच्छा, व्याकरण, ११७२.जिणकप्पिएण पगयं, जिणकाले सो उ केवलीणं वा। श्रोतृपरिणाम, दान, देवमाल्य, मान्यआनयन, उपरि तीर्थ सो भणइ एव भणितो, कत्थ अहीयं भयंतेहिं।। (यह द्वार गाथा है। इसकी व्याख्या अगले श्लोकों में)। जिनकल्पिक का प्रसंग है। जिनकल्पिक तीर्थंकर के ११७७.जत्थ अपुव्वोसरणं, जत्थ व देवो महिड्डिओ एइ। समय में अथवा केवलज्ञानी के समय में होते हैं। आचार्य के वाउदय पुप्फ बद्दल, पागारतियं च अभिओगा। द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर शिष्य पूछता है-भंते! आपने जिस क्षेत्र में पहले कभी समवसरण की रचना नहीं हुई यह कहां से जाना या पढ़ा? थी, अथवा जहां महर्द्धिक देव भगवान् को वंदना करने आता ११७३.अंतरमणंतरे वा, इति उदिए धूलिनायमाहंसु। है, वहां नियमतः समवसरण की रचना होती है। (अन्यत्र यह चिक्खल्लेण य नायं, तम्हा उ वयामि जिणमूलं॥ नियम नहीं है।) इन्द्र के आभियोग्यदेव संवर्तक वायु की आचार्य ने कहा-'अंतर अर्थात् परंपरा से अथवा अनंतर- विकुर्वणा कर योजनमंडल भूभाग को साफ करते हैं। फिर जिनेश्वरदेव के पास से ही मैंने यह जाना-पढ़ा है।' आचार्य । उदक के बादलों की तथा पुष्प के बादलों की विकुर्वणा कर के इस प्रकार कहने पर शिष्य ने धूलीदृष्टांत तथा चिक्खल- सुरभिगन्धोदक की तथा पुष्पों की वृष्टि करते हैं। फिर वे देव दृष्टांत प्रस्तुत किया और कहा-इसलिए अब मैं जिनेश्वर तीन प्राकारों की रचना करते हैं। देव के पास ही जाता हूं। वहां संपूर्ण श्रुत उपलब्ध हो जाएगा। ११७८.अभिंतर-मज्झ-बहिं, ११७४.पय-पाय-मक्खरेहिं, मत्ता-घोसेहिं वा वि परिहीणं। विमाण-जोइ-भवणाहिवकयाओ। अवि य रवि-राय-हत्थी, पगास सेवा पया चेव। पायारा तिन्नि भवे, पुनः शिष्य ने कहा-परंपरा से आनेवाले श्रुत की परिहानि रयणे कणगे य रयए य॥ इस प्रकार होती है पदों से, पादों से, अक्षरों से, मात्राओं त्रैमानिक देव रत्नमय आभ्यन्तर प्राकार की, ज्योतिष्क से, घोष से तथा बिन्दु से। क्या जैसे रवि का प्रकाश होता देव कनकमय मध्यम प्राकार की तथा भवनाधिपति देव है, वैसा खद्योत का प्रकाश होता है? जैसे राजा की सेवा का रजतमय बाह्य प्राकार की रचना करते हैं। १. धूली दृष्टांत-जैसे एक स्थान पर एकत्रित धूलीपुंज को अन्यत्र ले जाते दूसरे हाथ में जाते हुए, अंतिम मनुष्य तक पहुंचते पहुंचते अत्यल्प समय वह बिखर-बिखर कर न्यून होता जाता है, इसी प्रकार परंपरा मात्रा में रह जाता है, इसी प्रकार सूत्रार्थ भी न्यून-न्यूनतम होता से आने वाला सूत्रार्थ न्यून ही हस्तगत होता है। जाता है। जैसे प्रासाद पर लेप करने के लिए चूना या गारा एक हाथ से Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ -बृहत्कल्पभाष्यम् ११७९.मणि-रयण-हेमया वि य, कविसीसा सव्वरयणिया दारा। सव्वरयणामय च्चिय, पडाग-झय-तोरणा चित्ता॥ आभ्यन्तर प्राकार के कपिशीर्ष मणिमय, मध्यमप्राकार के रत्नमय तथा बाह्यप्राकार के हेममय होते हैं। तीनों प्राकारों में चार-चार द्वार होते हैं। वे सर्वरत्नमय होते हैं। उन सबमें सर्व रत्नमय पताका, ध्वजा और तोरण होते हैं। वे आश्चर्यकारी होते हैं। (वैमानिक, ज्योतिष्क तथा भवनपति देव अपने-अपने प्राकारों में ये सारे कार्य निष्पन्न करते हैं।) ११८०.चेइदुम पेढ छंदग, आसण छत्तं च चामराओ य। जं चऽन्नं करणिज्ज, करिति तं वाणमंतरिया।। चैत्यद्रुम, पीठ, देवच्छंद, सिंहासन, छत्र, चामर-ये सारे तथा अन्य जो कुछ भी करणीय होता है, वह सारा वानव्यंतरदेव करते हैं। ११८१.साहारण ओसरणे, एवं जस्थिड्डिमं तु ओसरई। एक्को च्चिय तं सव्वं, करेइ भयणा उ इयरेसिं॥ साधारण अर्थात् जहां अनेक देवेन्द्र आते हैं वहां समवसरण में पूर्वोक्तनियोग-विधि है। जहां कोई ऋद्धिमान्इन्द्र सामानिक आदि आता है वहां वही अकेला प्राकार आदि सारा करता है। जहां इन्द्र आदि महर्द्धिक देव नहीं आते वहां भवनपति आदि समवसरण की रचना करते भी हैं और नहीं भी करते। इसमें भजना है। ११८२.सूरुदय पच्छिमाए, ओगाहिंतीए पुव्वओ एति। दोहिं पउमेहिं पाया, मग्गेण य होति सत्तऽन्ने॥ सूर्योदय के समय अर्थात् प्रथम पौरुषी में तथा अपराह्न में अंतिम पौरुषी का अवगाहन हो जाने पर भगवान् पूर्वद्वार से उस समवसरण में प्रवेश करते हैं। भगवान् देवता द्वारा परिकल्पित दो-दो पद्मों पर पैर रखते हुए आगे बढ़ते हैं। भगवान् के पिछले भाग में सात पद्म होते हैं। ज्यों-ज्यों भगवान आगे बढ़ते हैं, उन सात पद्मों में से पीछे वाले पद्म एक-एक कर आगे आते जाते हैं। भगवान् उन पद्मों पर पैर रखते हुए आगे बढ़ते हैं। १. तीर्थः गणधरः। (वृ. पृ. ३६८) २. वृत्ति में इसका विस्तार इस प्रकार है-केवली पूर्वद्वार से प्रविष्ट होकर भगवान के दक्षिण-पूर्व दिशा में बैठ जाते हैं। उनके पीछे मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वी, दशपूर्वी, नौपूर्वी तथा विविधलब्धिसंपन्न मुनि पूर्वदिशा वाले द्वार से प्रवेश कर भगवान् को प्रदक्षिणा और नमस्कार कर, तीर्थ, गणधर और केवलियों को नमस्कार कर केवलियों के पीछे बैठ जाते हैं। शेष मुनि पूर्वद्वार से प्रविष्ट होकर, भगवान् को विधिपूर्वक वंदना कर, उपस्थित सभी मुनियों को नमस्कार कर ११८३.आयाहिण पुव्वमुहो, तिदिसिं पडिरूवया य देवकया। जेट्ठगणी अन्नो वा, दाहिणपुव्वे अदूरम्मि। भगवान् प्रवेश कर चैत्यवृक्ष की प्रदक्षिणा कर पूर्वाभिमुख होकर सिंहासन पर बैठ जाते हैं। शेष तीनों दिशाओं में देवकृत प्रतिरूपक-तीर्थंकर की आकृति धारक तीन मुखों की विकुर्वणा करते हैं। ज्येष्ठ गणधर अथवा अन्य गणधर भगवान् के चरणों में बैठते हैं। वे गणधर पूर्वद्वार से प्रवेश कर दक्षिण-पूर्व दिग्भाग में भगवान् के निकट बैठते हैं। (शेष सारे गणधर ज्येष्ठ गणधर के पार्श्व में बैठते जाते हैं।) ११८४.जे ते देवेहिं कया, तिदिसिं पडिरूवगा जिणवरस्स। तेसि पि तप्पभावा, तयाणुरूवं हवइ रुवं ।। देवताओं ने तीनों दिशाओं में जिनवर के जो प्रतिरूपक निर्मित किए थे, तीर्थंकर के प्रभाव से उनमें भी तीर्थंकररूप के अनुरूप रूप होता है। ११८५.तित्थाऽइसेससंजय, देवी वेमाणियाण समणीओ। भवणवइ-वाणमंतर-जोइसियाणं च देवीओ। तीर्थ अर्थात् गणधरों के बैठ जाने पर अतिशायी मुनि बैठते हैं। उनके बाद वैमानिक देवियां, फिर श्रमणियां, फिर भवनपति, वानव्यंतर तथा ज्योतिष्क देवों की देवियां बैठती हैं। ११८६.केवलिणो तिउण जिणं, तित्थपणामं च मग्गओ तस्स। मणमाई वि नमंता, वयंति सट्ठाण सट्टाणं॥ केवली जिनेश्वरदेव को तीन प्रदक्षिणा कर, तीर्थ को प्रणाम कर, तीर्थ अर्थात प्रथम गणधर तथा अन्य गणधरों के पीछे बैठ जाते हैं। तत्पश्चात् मनःपर्यवज्ञानी आदि अतिशय ज्ञानी मुनि तीर्थ आदि को प्रणाम करते हुए अपने-अपने स्थान पर चले जाते हैं, बैठ जाते हैं। ११८७.भवणवई जोइसिया, बोधव्वा वाणमंतरसुरा य। वेमाणिया य मणुया, पयाहिणं जं च निस्साए। भवनपति, ज्योतिष्क तथा वानव्यंतर-ये तीनों प्रकार के देव विधिपूर्वक एक दूसरे के पीछे उत्तर-पश्चिम दिग्भाग में खड़े रहते हैं। वैमानिक देव, मनुष्य, स्त्रियां तीर्थंकर की प्रदक्षिणा कर पूर्वदिग्भाग में यथाक्रम खड़े रहते हैं और उन अतिशयज्ञानियों के पीछे बैठ जाते हैं। वैमानिक देवियां पूर्वद्वार से प्रविष्ट होकर सबको प्रणाम कर, अतिशयज्ञानियों के पीछे खड़ी हो जाती हैं। तदनन्तर साध्वियां भगवान को तथा तीर्थ के सभी साधुओं को नमस्कार कर उन देवियों के पीछे खड़ी हो जाती हैं, बैठती नहीं। भवनपति, व्यन्तर और ज्योतिष्क देवलोक की देवियां दक्षिण दिशा से प्रविष्ट होकर तीर्थंकर आदि को वंदना कर दक्षिण-पश्चिम दिगभाग में खड़ी हो जाती हैं। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = १२७ देवों और मनुष्यों के निश्रा में आए हुए देव, मनुष्य भी उनके सामायिक, देशविरति सामायिक तथा सर्वविरति सामायिक। पास ही खड़े रहते हैं। मनुष्य इन चार प्रकार की सामायिकों में से किसी एक ११८८.एक्केक्कीए दिसाए, तिगं तिगं होइ सन्निविटुं तु।। सामायिक को ग्रहण करता है। तिर्यंच तीन (सम्यक्त्व, श्रुत, आइ-चरिमे विमिस्सा, थी-पुरिसा सेस पत्तेयं॥ देशविरति) अथवा दो (सम्यक्त्व तथा श्रुत) सामायिक ग्रहण एक एक दिशा में एक-एक त्रिक बैठा हुआ अथवा खड़ा करता है। यदि मनुष्य और तिर्यंच में कोई सामायिक ग्रहण हुआ रहता है। जैसे-दक्षिण-पूर्व दिशा में श्रमण, वैमानिक करने में समर्थ न हो तो नियमतः देवों में किसी न किसी को देवांगनाएं तथा श्रमणियां-यह त्रिक, उत्तर-दक्षिण दिशा में सम्यक्त्व की प्रतिपत्ति होती है। भवनपति, व्यंतर और ज्योतिष्क की देवांगनाएं यह त्रिक, ११९३.तित्थपणामं काउं, कहेइ साहारणेण सद्देणं। उत्तर-पश्चिम दिशा में भवनपति, व्यंतर और ज्योतिष्क सव्वेसिं सन्नीणं, जोयणनीहारिणा भगवं॥ देव-यह त्रिक, उत्तर-पूर्व दिशा में वैमानिक देव, मनुष्य और भगवान् धर्मदेशना से पूर्व तीर्थ को नमस्कार करते हैं स्त्रियां-यह त्रिक। प्रथम और अंतिम त्रिक में विमिश्र अर्थात् और तदनन्तर साधारण अर्थात् स्व-स्वभाषा में परिणमनस्त्री-पुरुष दोनों, शेष दो त्रिकों में एक में पुरुष और एक में समर्थ तथा योजनव्यापी शब्दों से धर्मदेशना देते हैं। भगवान् स्त्रियां। की दिव्यशब्दध्वनि से सभी संज्ञी जीवों की जिज्ञासाएं शांत ११८९.इंतं महिड्डियं पणिवयंति ठियमवि वयंति पणमंता। हो जाती हैं। न वि जंतणा न विकहा, न परोप्परमच्छरो न भयं॥ ११९४.तप्पुब्विया अरहया, पूइयपूया य विणयमूलं च। यदि समवसरण में पहले अल्पऋद्धिवाले देव आकर कयकिच्चो वि जह कह, कहेइ नमए तहा तित्थं॥ स्थित हो गए हों वे पश्चात् आने वाले महर्द्धिक देवों को शिष्य पूछता है-भगवान् तीर्थ को प्रणाम क्यों करते हैं? प्रणाम करते हैं। यदि महर्द्धिक देव पहले आकर समवसरण आचार्य कहते हैं-तीर्थ का अर्थ है श्रुतज्ञान। इससे ही में स्थित हो तो आने वाले अल्पऋद्धि वाले देव उनको अर्हता-तीर्थकरता प्राप्त होती है। पूजितपूजा अर्थात् भगवान् नमस्कार कर अपने-अपने स्थान पर चले जाते हैं। ऐसे तीर्थ की पूजा करते हैं तो लोग भी उसकी पूजा करने लग आने-जाने वालों के तत्रस्थित देवों की ओर से कोई यंत्रणा जाते हैं। भगवान् ने विनयमूल धर्म का प्रतिपादन किया, नहीं होती, न विकथा का प्रसंग आता है, न परस्पर इसलिए उन्होंने सर्वप्रथम तीर्थ के प्रति विनय प्रदर्शित किया। मत्सरभाव पैदा होता है और न भय-संत्रास का अनुभव प्रश्न है-भगवान् कृतकृत्य हो चुके थे, फिर धर्मकथा करना, होता है। तीर्थ को प्रणाम करना-यह क्यों? ११९०.बिइयम्मि होति तिरिया, तइए पागारमंतरे जाणा। (भगवान् को तीर्थंकरनामगोत्र कर्म का अवश्य वेदन पागारजढे तिरिया, वि होंति पत्तेय मिस्सा वा॥ करना था, भोगना था, इसलिए धर्मदेशना देना ही एकमात्र समवसरण के दूसरे प्राकार में तिर्यंच होते है और तीसरे उपाय था। आवश्यक नियुक्ति (गाथा १८३) में कहा है-'तं च प्रकार में यान-वाहन। प्राकार के बाहर तिर्यंच, मनुष्य, देव- कहं वेइज्जइ? अगिलाए धम्मदेसणाईहिं'। ये सारे अकेले अथवा मिश्ररूप में होते हैं। ११९५.जत्थ अपुव्वोसरणं, न दिट्ठपुव्वं व जेण समणेणं। ११९.१.सव्वं व देसविरई, सम्म घेच्छइ व होइ कहणा उ। बारसहिं जोयणेहिं, सो एइ अणागमे लहुगा॥ इहरा अमूढलक्खो , न कहेइ भविस्सइ न तं च॥ जिस क्षेत्र में अपूर्व-पहली बार समवसरण होता है और उस समवसरण में कोई सर्वविरति अथवा देशविरति जिस श्रमण ने पहले कभी नहीं देखा है और वह बारह योजन अथवा सम्यक्त्व ग्रहण करेगा, इस दृष्टि से भगवान् दूर पर स्थित है तो भी वह समवसरण देखने के लिए आ धर्मदशना देते हैं। अन्यथा वे धर्मदेशना नहीं देते। वे सकता है। यदि वह नहीं आता है तो उसे चतुर्लघु का अमूढलक्ष्य वाले होते हैं। ऐसा कभी नहीं होता कि भगवान् प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। की धर्मदेशना में कोई प्राणी किसी न किसी सामायिक को ११९६.सव्वसुरा जइ रूवं, अंगुट्ठपमाणयं विउविज्जा। ग्रहण न करे। जिणपायंगुटुं पइ, न सोहए तं जहिंगालो। ११९२.मणुए चउमन्नयरं, तिरिए तिन्नि व दुवे व पडिवज्जे। यदि सभी देवता मिलकर (सारतम पुद्गलों से) अंगुष्ठ जइ नत्थि नियमसो च्चिय, सुरेसु सम्मत्तपडिवत्ती॥ प्रमाण रूप की विकुर्वणा करते हैं, फिर भी वह रूप तीर्थंकर सामायिक के चार प्रकार हैं-सम्यक्त्व सामायिक, श्रुत के पादांगुष्ठ जितना भी शोभित नहीं हो सकता, जैसे अंगार। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ =बृहत्कल्पभाष्यम् ११९७. गणहर आहार अणुत्तरा य जाव वण-चक्कि-वासु-बला। मंडलिया जा हीणा, छट्ठाणगया भवे सेसा॥ तीर्थंकर की रूपसंपदा की तुलना में गणधर रूपसंपदा अनंतगुणहीन, इससे आहारक शरीर अनंतगुणहीन, इससे अनुत्तरोपपातिक देवों का शरीर अनन्तगुणहीन, इससे भी अनंतगुणहीन उपरितन-उपरितन ग्रैवेयकदेवों का शरीर, इसी प्रकार वैमानिक देवों के एक-एक से नीचे के देव शरीर यावत् सौधर्मकल्प तक अनन्तगुणहीन होते हैं। इनसे भवनपतिज्योतिष्क-वनचर-चक्रवर्ती वासुदेव-बलदेव मांडलिक राजा रूप से यथाक्रम अनंतगुणहीन होते हैं। शेष राजा और जनपद के लोग परस्पर षट्स्थानपतित होते हैं। (वे षट्स्थान ये हैं- (१) अनन्तभागहीन (२) असंख्येयभागहीन (३) संख्येयभागहीन (४) संख्येयगुणहीन (५) असंख्येयगुणहीन ६. (अनन्तगुणहीन।) ११९८.संघयण-रूव-संठाण-वन्न-गइ-सत्त-सार-ऊसासा। एमादऽणुत्तराई, हवंति नामोदया तस्स।। भगवान् का संहनन, रूप, संस्थान, वर्ण, गति, सत्त्वधैर्य, सार, उच्छ्रास-निःश्वास आदि नाम कर्म के उदय से अनुत्तर होते हैं। ११९९.पयडीणं अन्नासऽवि, पसत्थ उदया अणुत्तरा होति। खयउवसमे वि य तहा, खयम्मि अविगप्पमाहंसु॥ नाम कर्म की प्रकृतियों के अतिरिक्त गोत्र आदि कर्मप्रकृतियों का उदय भी प्रशस्त और अनुत्तर होता है। भगवान् के कर्मों का क्षयोपशम भी अनुत्तर होता है। क्षय अविकल्पनीय-विकल्पातीत होता है। १२००.अस्सायमाइयाओ, जा वि य असुहा हवंति पगडीओ। निंबरसलवु व्व पए, न होति ता असुया तस्स॥ असातावेदनीय आदि कर्मप्रकृतियां जो अशुभ होती हैं, वे भी भगवान के लिए दूध में निम्बरस के लव की भांति असुखकर या अशुभकर नहीं होती। १२०१.धम्मोदएण रूवं, करेंति रूवस्सिणो वि जइ धम्म। गज्झवओ य सुरूवो, पसंसिमो रूवमेवं तु॥ धर्म के उदय से अर्थात् प्रशस्त और शुभ प्रकृति के उदय से रूप की प्राप्ति होती है। रूपवान् व्यक्ति भी यदि धर्म करते हैं तो शेष सामान्य व्यक्ति भी धर्म के प्रति तत्पर होते हैं। सुरूप व्यक्ति आदेयवाक्य होता है। इसलिए हम भगवान के रूप की प्रशंसा करते हैं। १२०२.कालेण असंखेण वि, संखाईयाणं संसईणं तु। मा संसयवोच्छित्ती, न होज्ज कमवागरणदोसा।। प्रश्न होता है कि समवसरण में उपस्थित सभी प्राणियों के संशयों का व्यवच्छेद भगवान एक साथ कैसे कर देते हैं ? यदि प्रत्येक के संशय का व्यवच्छेद क्रमपूर्वक किया जाता है तो उसमें क्या दोष है? उत्तर में कहा गया असंख्येय काल में भी संख्यातीत संशयी व्यक्तियों के संशयों की व्यवच्छित्ति क्रमपरिपाटी से नहीं हो सकती। भगवान् जानते थे कि यह क्रमपूर्वकव्याकरण का दोष है। यह दोष न आए, इसलिए उन्होंने युगपद् व्याकरण किया। १२०३.सव्वत्थ अविसमत्तं, रिद्धिविसेसो अकालहरणंच। सव्वन्नुपच्चओ वि य, अचिंतगुणभूइओ जगवं॥ युगपद् व्याकरण के ये गुण हैं१. सब जीवों के प्रति अविषमता का पालन। २. ऋद्धिविशेष का द्योतन। ३. अकालहरण।' ४. सर्वज्ञत्व का प्रत्यय। ५. अचिन्त्य गुणसंपदा का द्योतन। १२०४.वासोदगस्स व जहा, वन्नादी होति भायणविसेसा। सव्वेसि पि सभासं, जिणभासा परिणमे एवं॥ वर्षा के पानी से अथवा ऐसे ही किसी एकरूप पानी से भूमी आदि के आधार-विशेष से वर्ण आदि (वर्ण, गंध, रूप, स्पर्श) विचित्र प्रकार के होते हैं। वैसे ही जिनेश्वरदेव की भाषा श्रोताओं की अपनी-अपनी भाषा में परिणत हो जाती है। १२०५.साहारणा-ऽसवत्ते, तओवओगो उ गाहगगिराए। न य निविज्जइ सोया, किढिवाणियदासिआहरणा॥ भगवान की वाणी साधारण होती है। वह असपत्न अर्थात् अनन्यसदृशी होती है। श्रोता उसी में एकाग्र हो जाता है। वह ग्राहिका अर्थात् अर्थपरिच्छेदकारी होती है। उसको सुनते-सुनते श्रोता नहीं ऊबता। यहां वणिक् की बूढ़ी दासी का उदाहरण है। १२०६. सव्वाउअंपि सोया, झविज्ज जइ हु सययं जिणो कहए। सी-उण्ह-खु-प्पिवासा-परिस्सम-भए अविगणितो॥ १. क्रमपूर्वक संशय की व्यवच्छित्ति की प्रवृत्ति में किसी संशयी व्यक्ति का संशयव्यवच्छित्ति से पूर्व ही मृत्यु उसका हरण कर लेती है। अतः युगपनिर्वचन में अकालहरण होता है। २. साधारण के तीन अर्थ हैं-(१) समस्त संज्ञी प्राणियों की भाषाओं में परिणत होने वाली (२) जैसे दूध में शक्कर आदि मधुर द्रव्य मिलाने पर वह दूध सुस्वादु हो जाता है, वैसे ही वह वाणी सुस्वादु होती है (३) वह वाणी प्राणियों को आधार देकर परित्राण करने वाली होती है। ३. उदाहरण के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. ५२। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक यदि भगवान् सतत धर्मदेशना करते रहें तो श्रोता शीत- जाने पर तथा बलवान् व्यक्तियों द्वारा निष्तष किए जाने पर उष्ण, भूख, प्यास, परिश्रम और भय-इन सबको न गिनता देवमाल्य अर्थात् बलि निष्पन्न की जाती है। हुआ, धर्मदेशना सुनते-सुनते अपना आयुष्य भी पूरा कर १२१२.भाइयपुणाणियाणं, अखंड-ऽफुडियाण फलगसरियाणं। देता है। कीरइ बली सुरा वि य, तत्थेव छुहति गंधाई। १२०७.वित्ती उ सुवन्नस्सा, बारस अद्धं च सयसहस्साइं। वे कलमी तन्दुल भाजित अर्थात धनवानों के घर में बीनने तावइयं चिय कोडी, पीईदाणं तु चक्कीणं॥ के लिए दिए जाते हैं। जब यह बीनना संपन्न हो जाता है तब जो व्यक्ति भगवान् के विहरणक्षेत्र संबंधी तथा अन्यान्य उन्हें ले आते हैं। अखंड और अस्फुटित (पूरे तथा लकीर प्रवृत्तियों के विषय में प्रतिदिन के समाचार चक्रवर्ती को रहित) उस शालि को फलक से साफ कर बलि निष्पन्न की निवेदित करता है तो उसको चक्रवर्ती वार्षिक वृत्ति के रूप में जाती है। देवता उसी में गंध आदि का प्रक्षेप करते हैं। साढ़े बारह लाख स्वर्ण (स्वर्णमुद्रा) का दान देता है। यह (उस देवमाल्य के आनयन की विधि यह है-राजा आदि वृत्तिदान कहलाता है। देवताओं से परिवृत होकर, दिग्मंडल को गुंजित करने वाले ___ जो व्यक्ति नगर में भगवान् के आगमन का समाचार पटह, तूर्य आदि वाद्यों के साथ पूर्वद्वार से समवसरण में चक्रवर्ती को निवेदित करता है, उसे साढ़े बारह कोटि स्वर्ण प्रविष्ट होते हैं। तब भगवान् धर्मदशना का उपसंहार कर देते हैं, यह प्रीतिदान कहलाता है। देते हैं।) १२०८.एतं चेव पमाणं, नवरं रययं तु केसवा दिति। १२१३.बलिपविसणसमकालं, पुव्वद्दारेण ठाइ परिकहणा। मंडलियाण सहस्सा, वित्ती पीई सयसहस्सा।। तिगुणं पुरओ पाडण, तस्सद्धं अवडियं देवा। वासुदेव इतने प्रमाण में ही रजत का दान देते हैं। जब पूर्वद्वार से बलि का प्रवेश होता है तब तत्काल मांडलिक राजा का वृत्तिदान साढ़े बारह हजार रजत का और भगवान् धर्मदेशना से उपरत हो जाते हैं। बलि को लेकर राजा प्रीतिदान साढ़े बारह लाख रजत प्रमाण वाला होता है। आदि भगवान् को तीन बार प्रदक्षिणा कर बलि को भगवान के १२०९.भत्ति-विभवाणुरूवं, अन्ने वि य दिति इन्भमाईया। चरणों के सामने गिरा देते हैं। उस बलि का आधा भाग, भूमी सोऊण जिणागमणं, निउत्तमनिओइएसुं वा॥ पर गिरने से पूर्व ही देवता ग्रहण कर लेते हैं। नियुक्त अथवा अनियुक्त व्यक्तियों द्वारा भगवान् के १२१४.अद्धद्धं अहिवइणो, तदद्ध मो होइ पागयजणस्स। आगमन का संवाद सुनकर इभ्य' आदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी सव्वामयप्पसमणी, कुप्पइ नऽन्नो य छम्मासे। भक्ति और वैभव के अनुरूप वृत्ति अथवा प्रीतिदान देते हैं। बलि का शेष बचे हुए आधे भाग में से आधा भाग बलि १२१०.देवाणुवित्ति भत्ती, पूया थिरकरण सत्तअणुकंपा। के स्वामी-राजा आदि को प्राप्त होता है। उससे आधा अर्थात् साओदय दाणगुणा, पभावणा चेव तित्थस्स॥ चतुर्थ भाग प्राकृतजन अर्थात् इतर लोगों को प्राप्त होता है। (वृत्तिदान और प्रीतिदान का लाभ) यह बलि समस्त रोगों का उपशमन करने वाली होती है तथा जब चक्रवर्ती आदि वृत्तिदान और प्रीतिदान देते हैं तब छह मास तक दूसरा कोई रोग उत्पन्न नहीं होता। (इस बलि माना जाता है कि उन्होंने देवताओं की अनुवृत्ति-अनुसरण का एक कण भी जिसके सिर पर प्रक्षिप्त कर दिया जाता है किया है। भगवान की भक्ति और पूजा होती है। नए तो वह उपरोक्त प्रभाव से लाभान्वित हो जाता है।) श्रद्धालुओं का स्थिरीकरण होता है। भगवान् के वृत्तान्त की १२१५.खेयविणोओ सीसगुणदीवणा पच्चओ उभयओ वि। जानकारी देने वालों पर अनुकंपा होती है। सातावेदनीय कर्म सीसा-ऽऽयरियकमो वि य, गणहरकहणे गुणा होति। का बंध होता है। तीर्थ की प्रभावना होती है। दान के ये (प्रथम प्रहर में भगवान् जब धर्मदेशना देकर उपरत होते गुण हैं। हैं तब तीर्थ अर्थात् प्रथम गणधर अथवा अन्य गणधर द्वितीय १२११.राया व रायमच्चो, तस्सासइ पउर जणवओ वा वि। प्रहर में धर्मकथा करते हैं।) दुब्बलिकडिय बलिछडिय तंदुलाणाढगं कलमा॥ शिष्य प्रश्न करता है-भगवान् ही धर्मकथा क्यों नहीं राजा अथवा मंत्री अथवा इनके अभाव में पौरजन अथवा करते? क्या गणधर के धर्मकथा करने में कोई गुण है? जनपद-ग्रामवासियों का समुदय मिलकर एक आढ़क (चार आचार्य कहते हैं-गुण हैं। भगवान् को खेदविनोद अर्थात् प्रस्थ-चार सेर) कलमी तन्दुल, दुर्बल व्यक्तियों द्वारा छांटे परिश्रम से विश्राम मिल जाता है। शिष्य के गुणों की दीपना १. इभमहतीति इभ्यः, यस्य सत्कसुवर्णादिद्रव्यपुञ्जनान्तरितो हस्त्यपि न दृश्यते सः। (वृ. पृ. ३७५) Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० =बृहत्कल्पभाष्यम् होती है। भगवान् और शिष्य-दोनों के प्रति विश्वास होता यदि बारह वर्षों तक सूत्र का ग्रहण किया है तो है। (जैसे भगवान ने कहा, गणधर भी वैसा ही कहते हैं।) बारह वर्षों तक उसका अर्थ सुनो, ग्रहण करो। इस प्रकार शिष्य और आचार्य का क्रम भी प्रदर्शित होता है। गणधर के तुम अपने ज्ञानावरणीयकर्म के क्षयोपशम के अनुसार धर्मकथा करने के ये गुण हैं। विवक्षित अर्थ को जान पाओगे, अथवा पूरा नहीं भी जान १२१६.राओवणीय सीहासणोवविठ्ठो व पायवीढम्मि।। पाओगे। जिट्ठो अन्नयरो वा, गणहारि कहेइ बीयाए॥ १२२१.सन्नाइसुत्त ससमय, परसमय उस्सग्गमेव अववाए। वह गणधर राजा द्वारा उपनीत सिंहासन पर अथवा हीणा-ऽहिय-जिण-थेरे, अज्जा काले य वयणाई। भगवान् के पादपीठ पर बैठकर ज्येष्ठ गणधर अथवा अन्य जैनेन्द्र प्रवचन में सूत्र अनेक प्रकार के हैं.... कोई गणधारी दूसरे प्रहर में धर्मकथा करता है। संज्ञासूत्र आदि, स्वसमयसूत्र, परसमयसूत्र, उत्सर्गसूत्र, १२१७.संखाईए वि भवे, साहइ जं वा परो उ पुच्छिज्जा। अपवादसूत्र, हीनाक्षरसूत्र, अधिकाक्षरसूत्र, जिनकल्पसूत्र, न य णं अणाइसेसी, वियाणई एस छउमत्थो॥ स्थविरकल्पसूत्र, आर्यासूत्र, कालसूत्र, वचनसूत्र आदि। गणधर संख्यातीत भवों का कथन कर सकते हैं। अथवा १२२२.जे सुत्तगुणा खलु लक्खणम्मि कहिया उ सुत्तमाईया। दूसरा व्यक्ति जो कोई प्रश्न करता है, उसका वे समाधान अत्थग्गहणमराला, तेहिं, चिय पन्नविज्जंति॥ करते हैं। अनतिशायी ज्ञानी उस गणधर को 'यह छद्मस्थ सूत्र के जो गुण पीठिका के लक्षणद्वार (गाथा २८२) में हे'-ऐसा नहीं जानता। (किन्तु निःशेष प्रश्नों का उत्तर देने में कहे गए हैं अथवा (गाथा ३१०) 'सुत्तमाईय' से प्रतिपादित समर्थ जानकर उसे सर्वज्ञ की प्रतीति होती है।) हैं, उन्हीं हेतुओं से अर्थग्रहण में मराल की भांति शिष्य १२१८.तित्थयरस्स समीवे, वक्वो तत्थ एवमाईहिं। प्रज्ञापित किए जाते हैं। सुत्तग्गहणं ताहे, करेइ सो बारस समाओ॥ १२२३.जइ वि पगासोऽहिगओ, देसीभासाजुओ तहा वि खलु। इस प्रकार तीर्थंकर के समीप अध्ययन में अनेक उंदुय सिया य वीसुं, एरगमाई य पच्चक्खं॥ व्याक्षेप आते हैं। तब शिष्य आचार्य को कहता है-भंते! मैं (शिष्य ने पूछा-जब सूत्र और अर्थ जान लिया गया है, यहीं सूत्र पढेगा, यह कहकर वह बारह वर्षों तक सूत्र-ग्रहण फिर देशाटन से क्या प्रयोजन?) आचार्य कहते हैं-बारह वर्षों करता है। तक सूत्र ग्रहण किया और बारह वर्षों तक सूत्र का प्रकाश १२१९.सुत्तम्मि य गहियम्मी, दिद्रुतो गोण-सालिकरणेणं। अर्थात् अर्थ भी ग्रहण कर लिया। फिर भी उस शिष्य को उवभोगफला साली, सुत्तं पुण अत्थकरणफलं॥ देशी भाषाओं से युक्त करना चाहिए। जैसे उंदुक का अर्थ सूत्र-ग्रहण के पश्चात् उसका अर्थ अवश्य जान लेना। है-स्थान। सिया-स्यात् के तीन अर्थ हैं-है, आशंका तथा चाहिए। क्योंकि सूत्र अर्थकरणफल अर्थात् सूत्रार्थ के आचरण भजना-विकल्प। वीसु का अर्थ है-पृथग। एरक का अर्थ फल वाला होता है। यहां बैल' और शालिके दृष्टांत हैं। है-गुन्द्रा, भद्रमुस्तक (नागर मोथा)--ये सारे देशीशब्द हैं शालि की उत्पत्ति का फल है-शालि का उपभोग। इसी प्रकार पयः पिच्च, नीर आदि शब्द हैं। जो देशदर्शन के १२२०.जइ बारस वासाइं, सुत्तं गहियं सुणाहि से अहुणा। लिए जाता है उसको ये तथा ऐसे ही अन्य शब्द प्रत्यक्षतः बारस चेव समाओ, अत्थं तो नाहिसि न वा णं॥ प्राप्त होते हैं। १-२. दृष्टान्त के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. ५३-५४। ८. जिनकल्पिक-तेगिच्छं नाभिनंदिज्जा..। (उत्त. अ. २ गा. ३३) ३. विभिन्न सूत्र ९. स्थविरकल्पिक-भिक्खू अ इच्छिज्जा अन्नयरि तेगिंच्छि १.संज्ञा सूत्र-जे छेए से सागारियंन सेवे। (आचा. श्रु.१ अ.५ उ.१) आउंटित्तए। २. स्वसमयसूत्र-करेमि भंते! सामाइयं। (सामायिकाध्ययन) १०. दोनों का सामान्य-संसट्ठकप्पे ण चरिज्ज भिक्खू। ३. परसमयसूत्र-पंचखंधे वयंतेगे, बाला उ खणजोविणो। (दश. चू.२ गा. ६) (सू. कृ. श्रु.१ अ.१ उ.१) ११. आर्यासूत्र-कप्पइ निग्गंथीणं अंतोलित्तं घडिमत्तयं धारित्तए। ४. उत्सर्गसूत्र-अभिक्खणं निविगइं गया य। (दश. चू. २ गा. ७) (उ.१ सूत्र १६) ५. अपवादसूत्र-तिण्हमन्नयरागस्स निसिज्जा.....। १२. कालविषयक-नय लभेज्जा निउणं सहायं,.....। (दश. अ. ६ गा. ५९) (दश. चू. २ गा. १०) ६. हीणाक्खरं-अक्षरो से हीन। १३. वचनसंबंधि-.......एगवयणं वएज्जा, दुवयणं वयमाणे आदि। ७. अहियाक्खरं-अधिक अक्षरों से युक्त। आदि शब्द से भयसूत्र आदि। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक १२२४. जो वि पगासो बहुसो, गुणिओ पच्चक्खओ न उवलदो। १२३१.पियधम्मऽवज्जभीरू, साहम्मियवच्छलो असढभावो। जच्चंधस्स व चंदो, फुडो वि संतो तहा स खलु। संविग्गावेइ परं, परदेसपवेसणे साह॥ जिस शिष्य ने सूत्रों के प्रकाश अर्थात् अर्थ का अनेक विविध देशों की भाषा में कुशल मुनि विविध देशों की बार अभ्यास कर लिया है, किन्तु प्रत्यक्षतः उन अर्थों को भाषा में निबद्ध सूत्रों के उच्चारण और अर्थ करने में कुशल उपलब्ध नहीं हुआ, सुना नहीं है, उसके लिए प्रत्यक्ष दर्शन होता है, इसलिए देशदर्शन के लिए जाना चाहिए। के बिना उन शब्दों का अर्थ परिस्फुट नहीं होता। जैसे वह मुनि अभाषक अर्थात् अव्यक्त भाषा वाले व्यक्तियों को जात्यन्धव्यक्ति चन्द्रमा को भी अस्पष्ट ही मानता है। भी धर्म देशना देता है और उनको प्रव्रजित करता है। सभी १२२५.आयरियत्तअभविए, भयणा भविओ परीइ नियमेणं। शिष्य उसके प्रति प्रीतिभाव रखते हैं। वे यह मानते हैं कि ____ अप्पतइओ जहन्ने, उभयं किं चाऽऽरियं खेत्तं॥ यह स्वाभाविक है, हमारी अपनी भाषा में बोलता है। जो शिष्य आचार्यपद के लिए अभव्य-अयोग्य होता है, वह प्रियधर्मा, पापभीरू साधर्मिकवत्सल, अशठभावउसके लिए देशदर्शन के लिए जाना अनिवार्य नहीं है, मायारहित-ऐसा साधु परदेश में प्रवेश करने पर संयमयोगों वैकल्पिक है। किन्तु जो शिष्य आचार्यपद के लिए योग्य में शिथिल मुनियों में भी संविग्नता पैदा कर उनको होता है, वह नियमतः देशदर्शन के लिए जाता है। संयमयोगों में स्थिर कर देता है। १२२६.दसणसोही थिरकरण देस अइसेस जणवयपरिच्छा। १२३२.सुत्त-ऽत्थथिरीकरणं, अइसेसाणं च होइ उवलद्धी। काउ सुयं दायव्वं, अविणीयाणं विवेगो य॥ आयरियदंसणेणं, तम्हा सेविज्ज आयरिए। देशदर्शन के ये गुण हैं-दर्शनशोधि, स्थिरीकरण, देश, १२३३.उभए वि संकियाई, पुब्विं जाइं सि पुच्छमाणस्स। अतिशेष, जनपदपरीक्षा-यह सब संपन्न कर विनीत को श्रुत होइ जओ सुत्तत्थे, बहुस्सुए सेवमाणस्स। देना चाहिए। और अविनीत को विवेक। आचार्यों के दर्शन से उनकी सेवा करने से सूत्र और अर्थ (यह द्वार गाथा है। इसका विस्तार आगे।) का स्थिरीकरण होता है, अतिशेष-विशिष्ट अर्थ की १२२७.जम्मण-निक्खमणेसु य तित्थयराणं महाणुभावाणं। उपलब्धि होती है। इसलिए आचार्य की पर्युपासना करनी इत्थ किर जिणवराणं, आगाढं दंसणं होइ॥ चाहिए। महानुभाव तीर्थंकरों की जन्मभूमी (अयोध्या आदि), दोनों-सूत्र और अर्थ विषयक जो उसके शंकाएं पूर्व में हुई निष्क्रमणभूमी (उज्जयन्त आदि), ज्ञानोत्पत्ति (पुरिमताल थीं, आचार्य से पूछ कर वह निःशंक हो जाता है। बहुश्रुत की आदि), निर्वाणभूमी (सम्मेदशिखर, चंपा आदि)-इन क्षेत्रों में सेवा करने से, सूत्र और अर्थ विषयक उसका अभ्यास विहरण करने से, जिनवर संबंधी बातें ज्ञात करने पर, वह परिपुष्ट हो जाता है। मुनि निःशंक हो जाता है। उसका दर्शन-सम्यक्त्व आगाढ़ १२३४.भवियाइरिओ देसाण दंसणं कुणइ एस इय सोउ। अर्थात् अत्यंत विशुद्ध हो जाता है। अन्ने वि उज्जमते, विणिक्खमंते य से पासे। १२२८.संवेगं संविग्गाण जणयए सुविहिओ सुविहियाणं। भव्य आचार्य-आचार्य योग्य शिष्य यदि देशदर्शन के आउत्तो जुत्ताणं, विसुद्धलेसो सुलेस्साणं॥ लिए जाते हैं तो यह सुनकर दूसरे शिष्य भी सूत्रार्थ-ग्रहण में देशदर्शन करने वाला संविग्न मुनियों में संवेग पैदा करता उद्यम करते हैं। कुछेक गृहस्थ उनके पास दीक्षा स्वीकार है। वह मुनि स्वयं सुविहित होकर सुविहित मुनियों में करते हैं। सुविहित का अर्थात् शुद्ध अनुष्ठानों का, युक्त अर्थात् १२३५.सुत्तत्थे अइसेसा, सामायारी य विज्ज-जोगाई। अप्रमादी व्यक्तियों में आयुक्त-अप्रमाद का, सुलेश्या वालों में विज्जा जोगा य सुए, विसंति दुविहा अओ होति। विशुद्ध-लेश्या का प्रभाव पैदा करता है। अतिशेष तीन प्रकार के हैं-(१) सूत्रार्थअतिशय १२२९.नाणादेसीकुसलो, नाणादेसीकयस्स सुत्तस्स। (२) सामाचारीअतिशय तथा (३) विद्यायोगअतिशय। विद्या' अभिलावअत्थकुसलो, होइ तओ णेण गंतव्वं॥ और योग ये दोनों श्रुत में अंतर्निहित हो जाते हैं। अतः १२३०.कहयति अभासियाण वि, अभासिए आवि पव्वयावेइ। अतिशय दो प्रकार के ही होते हैं सूत्रार्थअतिशय तथा सव्वे वि तत्थ पीई, बंधंति सभासिओ णे त्ति॥ सामाचारीअतिशय। १. विद्या स्त्रीदेवता अधिष्ठित होती है। अथवा पूर्व सेवा आदि की प्रक्रिया से साध्य होती है। मंत्र पुरुषदेवताधिष्ठित होता है अथवा पठित सिद्ध होता है। २. योग-पादलेपन आदि जिससे आकाश-गमन संभव होता है। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ १२३६.निक्खमणे य पवेसे, आयरियाणं महाणुभावाणं। सामायारीकुसलो, अ होइ गणसंपवेसेणं॥ देशदर्शन करते हुए उस मुनि का महानुभाव बहुश्रुत आचार्यों के गण में विधि सहित प्रवेश करने पर, उस गण से अनेक शिष्यों का गणान्तर में निष्क्रमण और प्रवेश होने से वह सामाचारी में कुशल हो जाता है। १२३७.आगंतुसाहुभावम्मि अविदिए धन्नसालमाइठिया। उप्पत्तियाउ थेरा, सामायारीउ ठाविति॥ वहां आगंतुक मुनियों के भावों को न जानते हुए, कई स्थविर आचार्य जो धान्यशाला आदि में स्थित हैं, वे औत्पत्तिकी अर्थात् अनुत्पन्नपूर्व सामाचारी का प्रतिपादन करते हैं। जैसे१२३८.सव्वे वि पडिग्गहए, दंसेउं नीह पिंडवायट्ठा। अहिमरमायासंका, पडिलेहेउं व पविसंति॥ वे आचार्य पिंडपात (भिक्षाचर्या) के लिए जाने वाले मुनियों को कहते हैं सभी मुनि अपनी-अपनी गोचरी में प्रयुक्त पात्रों को दिखाकर जाएं। यह इसलिए कि कोई अभिमर अर्थात् उदायीनृपमारकवत् श्रमणवेष में आ न जाए। इस आशंका से वे आचार्य अपूर्व सामाचारी की स्थापना करते हैं। तब भिक्षाचरी से निवृत्त होकर वे मुनि गुरु के समक्ष सारी प्रत्युपेक्षा कर फिर भीतर प्रवेश करते हैं। १२३९.अब्भे नदी तलाए, कूवे अइपूरए य नाव वणी। मंस-फल-पुप्फभोगी, वित्थिन्ने खेत्त कप्प विही॥ वह मुनि देशदर्शन करते हुए जनपदों की भी विविध प्रकार से परीक्षा करता है। वह सोचता है किस देश में धान्य की निष्पत्ति कैसे होती है? कहीं अभ्र अर्थात् वृष्टि के पानी से-जैसे लाट देश में, कहीं नदी के पानी से-जैसे सिन्धू देश में, कहीं तालाब के पानी से-जैसे द्रविड़ देश में, कहीं कूए के जल से-जैसे उत्तरापथ में, कहीं बाढ़ से जैसे बनास की बाढ़ से अथवा डिंभरेलक नगर में महिरावण नदी के पूर से धान्य की निष्पत्ति होती है। कहीं नौका से आनीत धान्य से जीवन यापन किया जाता है, जैसे-काननद्वीप में। कहीं धान्य का व्यापार होता है, जैसे-मथुरा में। जहां दुर्भिक्ष होता है वहां मांस जीवननिर्वाह का साधन बनता है। कहीं मनुष्य पुष्प और फलभोजी होते है, जैसे-कोंकण आदि देश। कहीं-कहीं क्षेत्र विस्तीर्ण होते हैं और कहीं-कहीं संकुचित। सिन्धूदेश का यह कल्प व्यवहार है कि वहां मछलियों का आहार अगर्हित माना जाता है। सिन्धूदेश में यह विधि-समाचार है कि रजक (धोबी) सांभोजिक माने जाते हैं तथा महाराष्ट्र में कल्यपाल-मदिरा का व्यापार करने वाला भी संभोज्य माना जाता है। (वृत्ति के आधार पर) बृहत्कल्पभाष्यम् १२४०.सज्झाय-संजमहिए, दाणाइसमाउले सुलभवित्ती। कालुभयहिए खेत्ते, जाणइ पडणीयरहिए य॥ वह ज्ञात कर लेता है कि कौनसा क्षेत्र स्वाध्याय के लिए हितकर है, कौनसा क्षेत्र संयम के लिए हितकर है, कौनसा क्षेत्र दानश्राद्धों से समाकुल है, कौनसे क्षेत्र में संयमियों के लिए वृत्ति सुलभ हो सकती है। कौनसा क्षेत्र ऋतुबद्ध काल के लिए और कौनसा क्षेत्र वर्षावास के लिए तथा कौनसा क्षेत्र उभयकाल के लिए उपयोगी है। कौनसा प्रत्यनीक रहित है. निरुपद्रवकारी है। १२४१.उवसंपज्ज थिरत्तं, पडिच्छणा वायणोल्लछगणे य। घट्टण-रुंचण-पत्ते दुट्ठासे तहिं गए राया॥ उपसंपद्यता, स्थिरत्व, प्रतीच्छना, वाचना, आर्द्रछगणदृष्टांत, घट्टन, सूचन, पत्र, दुष्टाश्व दृष्टांत, तत्रगत, राजा का दृष्टांत। (यह द्वार गाथा है। विवरण आगे।) १२४२.काहिइ अव्वोच्छित्तिं, सुत्त-ऽत्थाणं ति सो तदट्ठाए। अभिगम्मइ णेगेहिं, पडिच्छएहिं विहरमाणो॥ वह विहरण करने वाला भव्य आचार्य सूत्र और अर्थ का अव्यवच्छित्तिकारक होगा, यह सोचकर अनेक प्रतीच्छक शिष्य उससे सूत्रार्थ ग्रहण करने के लिए उसको प्राप्त करते हैं, उसके पास आते हैं। १२४३.वासावज्जविहारी, जइ वि य न विकंथए गुणे नियए। अभणंतो वि मुणिज्जइ, पगइ च्चिय सा गुणगणाणं। वर्षावर्जविहारी-जो चातुर्मास में एक स्थान पर रहता है तथा अन्य काल में अनियतविहारी होता है, यद्यपि वह अपने गुणों का वर्णन नहीं करता, फिर भी बिना कहे ही वह अपने गुणों से जान लिया जाता है। यह गुणसमूह की प्रकृति है, स्वभाव है। १२४४.भमरेहिं महुयरीहिं य, सूइज्जइ अप्पणो य गंधेणं। पाउसकालकलंबो, जइ वि निगूढो वणनिगुंजे॥ यद्यपि प्रावृट्काल में कदंबवृक्ष वन निकुंज के किसी गुप्त स्थान में पुष्पित हुआ है, फिर भी वह अपनी प्रसरणशील गंध के द्वारा भ्रमरों और मधुकरियों को अपने अस्तित्व की सूचना दे देता है, इसी प्रकार व्यक्ति के गुण भी उसकी महानता की सूचना प्रसारित करते हैं। १२४५.कत्थ व न जलइ अग्गी, कत्थ व चंदो न पायडो होइ। कत्थ वरलक्खणधरा, न पायडा होति सप्पुरिसा॥ अग्नि कहां नहीं जलती? उदित चन्द्रमा कहां प्रकट नहीं होता? उत्तमलक्षणों को धारण करने वाले सत्पुरुष कहां प्रकट नहीं होते? Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक १३३ १२४६.उदए न जलइ अग्गी, अब्भच्छन्नो न दीसई चंदो। मुक्खेसु महाभागा, विज्जापुरिसा न भायंति॥ जल में अग्नि प्रज्वलित नहीं होती। मेघाच्छन्न आकाश में चन्द्रमा नहीं दीखता। मूों में महाभाग विद्यापुरुष शोभित नहीं होते। १२४७.सुक्किंधणम्मि दिप्पड़, अग्गी मेहरहिओ ससी भाइ। तविहजणे य निउणे, विज्जापुरिसा वि भायंति॥ शुष्क इंधन में अग्नि दीप्त होती है। मेघरहित आकाश में चन्द्रमा शोभित होता है। तथाविध निपुण लोगों के मध्य विद्यापुरुष शोभित होते हैं। १२४८.कुमुओयररसमुद्धा, किं न विबोहिंति पुंडरीयाई। सूरकिरणा ससिस्स व, कुमुयाणि अपंकयरसन्ना॥ १२४९.न य अप्पगासगत्तं, चंदा-ऽऽइच्चाण सविसए होइ। इय दिप्पंति गुणड्डा, मुक्खेसु हसिज्जमाणा वि॥ कुमुदपुष्पों के उदर में प्राप्त मकरंद से अनभिज्ञ सूर्य की किरणें उन पुष्पों को विकसित नहीं करतीं, किन्तु क्या वे पुंडरीक पुष्पों को विकसित नहीं करतीं? अवश्य करती हैं। इसी प्रकार चन्द्रमा की किरणें कमल के रस से अनभिज्ञ होने के कारण कमलों को प्रबुद्ध नहीं करतीं, किन्तु क्या वे कुमुदपुष्पों को प्रबुद्ध नहीं करतीं? अवश्य करती हैं। इसलिए चन्द्र और सूर्य का स्वविषय में अप्रकाशकत्व नहीं होता। मूों में उपहास के पात्र होने वाले गुणाढ्य व्यक्ति निपुणों में दीप्त होते ही हैं। १२५०.सो चरणसुट्ठियप्पा, नाणपरो सूइओ अ साहूहिं। उवसंपया य तेसिं, पडिच्छणा चेव साहूणं ।। देशदर्शन के लिए प्रस्थित चारित्र में सुप्रतिष्ठित, ज्ञानवान् वह भावी आचार्य मुनियों द्वारा सूचित-श्लाघ्य होता है। मुनि उसके पास उपसंपन्न होते हैं। वह आचार्य उनकी प्रतीच्छना करे। १२५१.ण्हाणाइ समोसरणे, परियट्टितं सुणित्तु सो साहुं। अट्टि त्ति पडिच्चोयण, उवसंपय दीवणा अत्थे॥ वह आचार्य स्नान, रथयात्रा आदि महोत्सवों तथा समवसरण (साधु सम्मेलनों) में किसी मुनि को आगमपाठों का परावर्तन करते हुए सुनता है और उसको प्रेरणा देते हुए कहता है-'अट्टे लोए'-ऐसा पढ़ो। ('अट्टि लोए' नहीं।) उसके द्वारा ‘क्यों' ऐसा पूछने पर भावी आचार्य ने उसे 'अट्टे लोए' का अर्थ विस्तार से समझाया। अर्थ गांभीर्य को सुनकर वह मुनि उन आचार्यों के पास उपसंपन्न हो गया। आचार्य ने उसमें अर्थ की उद्दीपना की। १२५२.अहवा वि गुरुसमीवं, उवागए देसदसणम्मि कए। उवसंपय साहणं, होइ कयम्मी दिसाबंधे॥ अथवा देशदर्शन कर वह मुनि गुरु के समीप उपस्थित होता है। गुरु उसको आचार्यपद पर प्रतिष्ठित कर, दिशाबंध की अनुज्ञा देते हैं, दिशाबंध कर देने पर प्रतीच्छक साधुओं की उपसंपदा होती है। (उपसंपद् द्वार की तीन प्रकार से व्याख्या संपन्न हुई।) १२५३.आयपरोभयतुलणा, चउब्विहा सुत्तसारणित्तरिया। तिण्हऽट्ठा संविग्गे, इयरे चरणेहरा नेच्छे।। स्व और पर-दोनों की तुलना करनी चाहिए। वह प्रत्येक के चार-चार प्रकार की होती है। जो गृहस्थ प्रवृजित होते हैं अथवा उपसंपदा ग्रहण करते हैं, वह उनको सूत्रसारणा अर्थात् सूत्र पढ़ाता है। वह दोनों को इत्वर दिशा देते हुए कहता है जब तक हम आचार्य के पास न पहुंचे तब तक मैं ही तुम्हारा आचार्य और उपाध्याय हूं। वहां पहुंचने पर आचार्य जैसा चाहें वैसा करें। जो संविग्न मुनि ज्ञान, दर्शन और चारित्र के लिए उपसंपन्न होते हैं, उन्हें स्वीकार करें। जो इतर अर्थात् पार्श्वस्थ आदि चारित्र के लिए उपसंपन्न होते हैं, उन्हें भी उपसंपदा दे। जो केवल ज्ञान-दर्शन के लिए, सूत्रार्थ के लिए अथवा दर्शन प्रभावक शास्त्रों के अध्ययन के लिए उपसंपन्न होना चाहते हैं, उनको उपसंपदा न दे। १२५४.आहाराई दव्वे, उप्पाएउं सयं जइ समत्थो। खेत्तओ विहारजोग्गा, खेत्ता विहतारणाईया।। १२५५.कालम्मि ओममाई, भावे अतरंतमाइपाउग्गं। कोहाइनिग्गहं वा, जं कारण सारणा वा वि। आत्मतुला के चार प्रकार हैं-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। द्रव्यतः-वह सोचे कि क्या वह उन उपसंपन्न व्यक्तियों के लिए एषणीय आहार आदि की प्राप्ति स्वयं करने में समर्थ है? इसी प्रकार उपधि, शय्या आदि की भी। क्षेत्रतः-क्या वह ऋतुबद्रकालयोग्य तथा वर्षाकालयोग्य क्षेत्र की गवेषणा कर सकता है? क्या वह अपने साथियों को मार्ग से पार लगा सकता है? कालतः-क्या मैं दुर्भिक्ष आदि काल में सबका निर्वाह कर सकता हूं? भावतः क्या मैं असमर्थ और व्याधिग्रस्त व्यक्तियों के प्रायोग्य (पथ्य) का उत्पादन करने में समर्थ हूं ? क्या मैं क्रोध आदि का निग्रह कर सकता हूं? क्या किसी भी कारण से (ज्ञान आदि के निमित्त) उपसंपन्न होने वाले इनकी सारणा करने में समर्थ हूं? १२५६.आहाराइ अनियओ, लंभो सो विरसमाइ निज्जूढो। उन्भामग खुलखेत्ता, अरिउहियाओ अ वसहीओ।। १२५७.ऊणाइरित्त वासो, अकाल भिक्ख पुरिमल ओमाई। भावे कसायनिग्गह, चोयण न य पोरुसी नियया। परतुला-प्रतीच्छकों को प्रारंभ में ही कह दिया जाता आत्मतुला Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ है, द्रव्यतः आहार आदि का लाभ अनियत होता है। वह विरस और उज्झितप्राय मिलता है। क्षेत्रतः उद्भामक भिक्षाचर्या अर्थात गांव के बाहर भी भिक्षा के लिए जाना पड़ता है खुलक्षेत्र अर्थात् ऐसे क्षेत्रों में विहरण करना होता है जहां भिक्षादाता अल्प होते हैं और वे भी कम भिक्षा देते हैं। ऋतुओं में अननुकूल वसतियों में रहना पड़ता है । कालतः काल की अपेक्षा से कहीं अधिक और कहीं न्यून रहना होता है। कहीं अकाल में भिक्षा प्राप्त होती है। कहीं दिन का पूर्वार्द्ध पूरा बीत जाने पर भी अल्प भिक्षा प्राप्त होती है। भावतः कषाय का निग्रह करना पड़ता है । कठोर और परुष भाषा में प्रेरित किए जाने पर उसे सहना होता है। सूत्रार्थपौरुषी भी नियत नहीं हो सकती। यदि ये सारी बातें स्वीकृत हों तो उपसंपदा स्वीकार करें। १२५८. अत्तणि य परे चेवं, तुलणा उभय थिरकारणे वृत्ता । पडिवज्जते सव्वं करिति सुहाए दिद्रुतं ॥ इस प्रकार आत्मविषयक तथा परविषयक- दोनों प्रकार की तुलनाएं स्थिर करने के लिए कही गई हैं । यदि प्रतीच्छक सारी बातें स्वीकार करते हैं तब आचार्य पुत्रवधू का दृष्टांत कहते हैं। १२५९. आस-रहाई ओलोयणाह भीया ऽऽउले अ पेहंती सकुलघरपरिचएणं, वारिज्जइ ससुरमाईहिं ॥ १२६०. प्रिंसिज्जइ हम्मइ वा, नीणिज्जइ वा घरा अठाईती । नीया पुण से दोसे, छायंति न निच्छुभंते य ॥ कोई वधू अपने स्वकुलगृह - पितृगृह में अनेक रमणीय वस्तुओं को देखने की स्वभाववाली थी। वह श्वसुरगृह में भी पूर्व आदत के कारण गवाक्ष में बैठकर अश्व, रथ अथवा भीत स्त्री-पुरुषों तथा आकुल व्यक्तियों को देखती रहती । श्वसुर आदि ने उसको वहां बैठकर देखने का निषेध किया। यदि वह नहीं मानती है तो उसकी निन्दा करते हैं। फिर भी यदि वह निवर्तित नहीं होती है तो उसको ताड़ना तर्जना दी जाती है इतना होने पर भी वह निवृत्त नहीं होती है तो उसे घर से निकाल दिया जाता है। उस वधू के जो पितृगृहसंबंधी स्वजन होते हैं वे उसके दोषों को ढंकते हैं, परंतु उसको घर से निष्कासित नहीं करते। - १२६१. मरिसिज्जइ अप्पो वा, सगणे दंडो न यावि निच्छुभणं । अम्हे पुण न सहामो, ससुरकुलं चैव सुहाए ॥ आचार्य उन प्रतीच्छकों को कहते हैं-तुम अपने गण में प्रमाद का सेवन करते, तो वह सहन हो जाता अथवा अल्प दंड लेकर निवृत्त हो जाते, वहां से निष्कासन नहीं होता। हम बृहत्कल्पभाष्यम तुम्हारा थोड़ा भी अपराध सहन नहीं करेंगे। जैसे श्वसुरकुल में वधू का थोड़ा भी अपराध सहन नहीं किया जाता। १२६२.पासत्थाईमुंडिए, आलोयण होइ दिक्खपभिईओ । संविग्गपुराणे पुण, जप्यभिहं चेव ओसन्नी ॥ जो पार्श्वस्थ आदि से मुंडित है उसकी आलोचना दीक्षा दिन के प्रारंभ से होती है और जो पुराणसंविग्न है ( जो पहले संविग्न था, फिर अवसन्न हो गया) वह जिस दिन से अवसन्न हुआ, उसी दिन से उसकी आलोचना होती है। १२६३. समणुन्नमसणुन्ने, जप्यभिदं चैव निग्गओ गच्छा ॥ सोहिं पडिच्छिऊणं, सामायारिं पयंसंति ॥ संविग्न के दो प्रकार है-समनोज्ञ (साम्भोगिक) तथा असमनोज्ञ (असाम्भोगिक) । ये दोनों प्रकार के संविग्न जिस दिन से अपने गच्छ से निर्गत हुए हैं, उसी दिन से आलोचना होती है। उनको शोधि प्रायश्चित्त देकर आचार्य अपनी सामाचारी बतलाते हैं। १२६४. अवि गीय- सुयहराणं, चोइज्जताण मा हु अचियत्तं । मेरासु य पत्तेयं, माऽसंखड पुव्वकरणेणं ॥ उपसंपद्यमान गीतार्थ हो, श्रुतधर हो, बहुश्रुत-गणीयाचक आदि शब्दों से अभिहित हो, उसके पूर्वाभ्यस्त पृथक-पृथक मर्यादाओं तथा सामाचारियों में प्रवर्तमान होने पर, वैसा न करने की प्रेरणा देने पर उनको अप्रीतिकर न लगे तथा कलह न हो इसलिए आचार्य चक्रवाल- सामाचारी के विषय में अनुशासना देते हैं। 3 १२६५. गच्छ वियारभूमाइ वायओ देह कप्पियारं से। तम्हा उ चक्रवालं कहिति अणहिंडिय निसिं वा ॥ कोई वाचक विचारभूमी आदि में जा रहा है इसलिए उसके साथ कोई 'कल्पितार'-कल्प को जानने वाला साधु वो जो उसे सही सामाचारी का बोध कराए। इसलिए आचार्य उन नूतन उपसंपन्नों के समक्ष चक्रवाल - सामाचारी का कथन करते हैं। उसकी असमाप्ति तक उनको भिक्षार्थ नहीं भेजा जाता । दिन में यदि सामाचारी का कथन पूर्ण नहीं होता है तो रात्री में उसका कथन किया जाता है। १२६६. उवएसो सारणा चेव, तइया पडिसारणा । छंद अवद्रुमाणं, अप्पछंदेण बज्जेज्जा ॥ आचार्य उनको सूत्रार्थ की वाचना दे। उसमें प्रमाद करने पर उपदेश, स्मारण और तीसरा है प्रतिस्मारणा । तत्पश्चात छंद में अप्रवर्तमान होने पर आत्मच्छंद से वर्जना करे। (इसका विस्तृतार्थ आगे) १२६७. निहापमायमाइस, सई तु खलियस्स सारणा होइ। न कहिय ते पमाया, मा सीयसु तेसु जाणतो ॥ , Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक आचार्य उसको कहते हैं हमारी यह सामाचारी है कि पानी रहित दूध चूल्हे पर चाल्यमान होने पर भी जल निद्रा-विकथा आदि का परिहार करना चाहिए। यह उपदेश जाता है, नष्ट हो जाता है--इतना कहने पर भी यदि वह मुनि है। निद्राप्रमाद आदि में एक बार स्खलना करने पर स्मारणा पुनः प्रमादाचरण करता है तो उसे मासलघु का दंड आता कराई जाती है। उसे कहे-हमने पहले ही प्रमादों के विषय में है। यह दूसरा उदाहरण है। फिर भी यदि वह प्रमाद से बतला दिया था। जानते हुए भी उन प्रमादों का सेवन मत उपरत नहीं होता है तब 'रुंचना' का दृष्टांत दिया जाता है। करो। यह स्मारणा है। क्या अत्यधिक पीसे जाने पर कुंकुम पाषाण बन जाता है? १२६८. फुड-रुक्खे अचियत्तं, गोणो तुदिओ व मा हु पेल्लेज्जा। (इसी प्रकार हे मुने! अत्यधिक कहे जाने पर भी तुम सज्जं अओ न भन्नइ, धुव सारण तं वयं भणिमो॥ पाषाणसदृश हो गए हो?) यह तीसरा उदाहरण है। प्रतिस्मारणा का स्वरूप-जिसने जो प्रमाद किया है, १२७२.तेण परं निच्छुभणा, आउट्टो पुण सयं परेहिं वा । उसको परिस्फुट रूप से न कहे, न रूक्ष शब्दों में बताए। __ तंबोलपत्तनायं, नोसेहिसि मज्झ अन्ने वि॥ इससे उसमें अप्रीति उत्पन्न हो सकती है। जैसे बैल यदि तीन बार सावधान किए जाने पर भी वह मुनि अत्यधिक व्यथित होकर निश्चित ही भार को नीचे गिरा देता प्रमादाचरण से उपरत नहीं होता है तो उसे गच्छ से निकाल है, वैसे ही यह मुनि भी खर-परुष वाणी से तुदित होकर, देना चाहिए। स्व या पर प्रेरणा से यदि वह प्रमाद से संयमभार को छोड़कर भाग जाता है। प्रमाद को तत्काल उसे प्रतिनिवृत्त होता है तब उसे तंबोल-पत्र का दृष्टांत कहा नहीं बताना चाहिए। उसे कहना चाहिए-वत्स! हमें प्रमाद जाता है। देखो, तंबोल के कुथित पत्र को यदि नहीं निकाला करने वाले की निश्चित स्मारणा करनी चाहिए। इसीलिए हम जाता है तो वह सारे तंबोलपत्रों का नाश कर डालता है। तुम्हें तुम्हारे प्रमाद की स्मृति दिलाने के लिए ऐसा कह रहे इसी प्रकार तुमको यदि हम निष्कासित नहीं करते हैं तो तुम हैं, मत्सर और प्रद्वेष से नहीं। स्वयं विनष्ट होकर मेरे दूसरे मुनियों का भी विनाश करोगे। १२६९.तदिवसं बिइए वा, सीयंतो वुच्चए पुणो तइयं। अतः तुमको निष्कासित करना ही हमारे लिए श्रेयस्कर है। ___ एगोऽवराहो ते सोढो, बीयं पुण ते न विसहामो॥ १२७३.सुहमेगो निच्छुब्भइ, णेगा भणिया उ जइ न वच्चंति। जो मुनि सामाचारी में प्रमाद करता है उसको उसी दिन अन्नावएस उवहि, जग्गावण सारिकह गमणं॥ किसी समय में अथवा दूसरे दिन पुनः उसे कहा जाता है, गच्छ से जब मुनि को निष्कासित करना होता है तब वह यह तीसरी प्रतिस्मारणा है। (एक उपदेश, दूसरी स्मारणा सुखपूर्वक किया जा सकता है। परंतु जहां अनेक मुनियों का और तीसरी प्रतिस्मारणा।) उसे कहे तुम्हारा एक अपराध निष्कासन करना है और उनको कहने पर भी यदि वे गण से को तो हमने सहन कर लिया है, दूसरा अपराध हम सहन । बहिर्गमन नहीं करते हों तो अन्य किसी मिष ने उनसे नहीं करेंगे। छुटकारा पा लेना चाहिए। सबसे पहले विहारयोग्य उपधि १२७०.गोणाइहरणगहिओ, मुक्को य पुणो सहोढ गहिओ उ। की व्यवस्था कर लेनी चाहिए। तदनन्तर उन साधुओं को उल्लोल्लछगणहारी, न मुच्चए जायमाणो वि॥ एक रात तक लंबा जागरण कराना चाहिए, जिससे वे प्रातः एक चोर गायों को चुरा कर ले जाता हुआ पकड़ा गया। शीघ्र न जागे। फिर 'सारिकह'-शय्यातर को अपनी बात उसके गिड़गिड़ाने पर उसको छोड़ दिया। अब वह बताकर वहां से (अपने साथी मुनियों के साथ) आचार्य को आर्द्रच्छगणहारी-स्वल्पचोरी करने वाला हो गया। एक विहार कर देना चाहिए। बार वह रंगे हाथों (चोरी के सामान सहित) पकड़ा गया। १२७४.मुक्का मो दंडरुइणो, भणंति इइ जे न तेसु अहिगारो। उसके मुक्ति की याचना करने पर भी उसे छोड़ा नहीं जाता। सेज्जायरनिब्बंधे, कहियाऽऽगय न विणए हाणी॥ (इसी प्रकार मुनि को कहे-हमने एक बार तुम्हारे प्रमाद को इस प्रकार आचार्य के चले जाने पर जो मुनि यह सोचते सहन किया है। अब दूसरी बार नहीं करेंगे। फिर भी यदि वह हैं-अच्छा हुआ, हम दंडरुचि-उग्रदंड देने वाले आचार्य से प्रमाद करता है तो उसे मासलघु दंड देकर घटना दृष्टांत से मुक्त हो गए। ऐसा जो कहते हैं, उनका यहां प्रसंग नहीं है। समझाया जाता है।) परंतु जो मुनि आचार्य के बिना परितस होते हैं, वे शय्यातर १२७१.घट्टिज्जंतं वुच्छं, इति उदिए दंडणा पुणो बिइयं को बलपूर्वक आचार्य के गमन के विषय में पूछते हैं। पासाणो संवुत्तो, अइरूंचिय कुंकुम तइए॥ शय्यातर के बतलाने पर वे आचार्य के पास आते हैं और १. देखें कथा परिशिष्ट, नं. ५५। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = बृहत्कल्पभाष्यम् विनय की हानि न करते हुए वे आचार्य के प्रति पूर्ववत् विनय का प्रयोग करते हैं। १२७५.को नाम सारहीणं, स होइ जो भद्दवाइणो दमए। दुटे वि उ जो आसे, दमेइ तं आसियं विति॥ (तब आचार्य कहते हैं-दुष्ट अश्वों के प्रति सारथित्व करने की भांति इन प्रमादी साधुओं के प्रति आचार्यकरण से क्या प्रयोजन?) शिष्य कहते हैं-भद्र अश्वों का दमन करने में कौन सा सारथित्व है? जो दुष्ट अश्वों का दमन करता है उसको लोग अश्वंदम कहते हैं। १२७६.होंति हु पमाय-खलिया, पुव्वब्भासा य दुच्चया भंते!। न चिरं च जंतणेयं, हिया य अच्चंतियं अंते॥ ___ भंते ! पूर्वाभ्यास (अनेक जन्मों के अभ्यास से) के कारण ये दुस्त्यज प्रमाद की भूलें होती हैं। स्मारणा आदि यंत्रणा भी चिरकालभावी नहीं होती। परंतु वह अंत में आत्यंतिक हितकारी होती है। १२७७.अच्छिरुयालु नरिंदो, आगंतुअविज्जगुलियसंसणया। विसहामि त्ति य भणिए, अंजण वियणा सुहं पच्छा॥ (उन शिष्यों को स्थिर करने के लिए आचार्य राजा का दृष्टांत कहते हैं।) एक राजा के अक्षिरोग हो गया। वास्तव्य वैद्यों से वह रोग नहीं मिटा। एक आगंतुक वैद्य ने कहा- मेरे पास गुटिकाएं हैं। वे अक्षिरोग को मिटाने वाली हैं। उन गुटिकाओं को आंख में आंजने से क्षणभर के लिए तीव्रतर वेदना होती है। राजन् ! यदि उस वेदना को सहन कर सकें तो रोग मिट जाएगा। राजा ने कहा-मैं सहन कर लूंगा। वैद्य ने तब गुटिका से आंखें आंज ली। वेदना हई। अंत में अक्षिरोग नष्ट हो गया। १२७८.इय अविणीयविवेगो, विगिंचियाणं च संगहो भूओ। जे उ निसग्गविणीया, सारणया केवलं तेसिं॥ इस प्रकार अविनीत शिष्यों का परित्याग और परित्यक्त शिष्यों का संविग्न होने पर पुनः संग्रहण करना चाहिए। जो निसर्गतः विनीत होते हैं, उनके लिए तो केवल स्मारणा ही पर्याप्त होती है। १२७९.एवं पडिच्छिऊणं, निप्फत्तिं कुणइ बारस समाओ। एसो चेव विहारो, सीसे निप्फाययंतस्स॥ इस प्रकार देशदर्शन करता हुआ शिष्य बारह वर्षों तक शिष्य-प्रतीच्छकों की निष्पत्ति करता है। यही शिष्यों के निष्पादन करने वाले का विहार है। (इसकी भावना यह है-जो शिष्य देशदर्शन करके गुरु के पास आया है, उसे गुरु आचार्यपद पर स्थापित कर दिग-अनुबंध की अनुज्ञा देते हैं १. 'आउ' त्ति उताहो। और वह नौकल्पीविहार करता हुआ उसने जिस शिष्यनिष्पादन विधि का पालन किया है, वही विधि बारह वर्षों तक रहती है।) १२८०.अव्वोच्छित्ती मण पंचतुलण उवगरणमेव परिकम्मे। तवसत्तसुएगत्ते, उवसग्गसहे य वडरुक्ने॥ (जिनकल्पिकों की विहार विधि) अव्यवच्छित्ति, मन, पांच तुलाएं, उपकरण, परिकर्म, तपः-सत्व-श्रुत-एकत्व-उपसर्गसह-पांच भावनाएं, वटवृक्ष। (यह द्वार गाथा है। विस्तार आगे।) १२८१.अणुपालिओ य दीहो, परियाओ वायणा वि मे दिन्ना। निप्फाइया य सीसा, सेयं खु महऽप्पणो काउं॥ आचार्य सोचते हैं-मैंने दीर्घकाल तक संयम-पर्याय का अनुपालन किया है। मैंने वाचना भी दी है। मैंने शिष्यों का निष्पादन भी किया है। इस प्रकार मैं तीर्थ की अव्यवच्छित्ति कर ऋणमुक्त हो गया हूं। अब मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि मैं आत्मा का हित करूं। १२८२.किन्नु विहारेणऽब्भुज्जएण विहरामऽणुत्तरगुणेणं । आओ अब्भुज्जयसासणेण विहिणा अणुमरामि।। क्यों नहीं मैं अनुत्तरगुणों वाले अभ्युद्यतविहार (जिनकल्प) को स्वीकार कर विहरण करूं ? अथवा सूत्र में वर्णित अभ्युद्यतमरण विषयक शासन के अनुसार पहले संलेखना कर फिर उस मरण को स्वीकार करूं। १२८३.जिण सुद्ध अहालंदे, तिविहो अब्भुज्जओ अह विहारो। __ अब्भुज्जयमरणं पुण, पाओवग-इंगिणि-परिन्ना॥ अभ्युद्यतविहार तीन प्रकार का है-जिनकल्प, शुद्धपरिहारकल्प तथा यथालंदकल्प। अभ्युद्यतमरण के तीन प्रकार हैं-पादपोपगमन (प्रायोपगमन), इंगिनीमरण तथा परिज्ञा-भक्तप्रत्याख्यानमरण। १२८४.सयमेव आउकालं, नाउं पोच्छित्तु वा बहु सेसं। सुबहुगुणलाभकंखी, विहारमब्भुज्जयं भजइ। (दोनों श्रेष्ठ हैं। दोनों में से किसका ग्रहण उचित है?) आचार्य कहते हैं-मुनि स्वयमेव अपने विशिष्ट श्रुतोपयोग से अथवा श्रुत आदि अतिशययुक्त आचार्य को पूछकर अपने आयुष्यकाल को बहुत अवशिष्ट जान लेता है तब वह अत्यधिक गुणों के लाभ का आकांक्षी होकर अभ्युद्यत विहार को स्वीकार करता है। (अवशिष्ट आयुकाल अल्प होने पर वह अभ्युद्यतमरण स्वीकार करता है।) १२८५. गणनिक्खेवित्तरिओ, गणिस्स जो व ठविओ जहिं ठाणे। उवहिं च अहागडयं, गिण्हइ जावऽन्न णुप्पाए। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक आचार्य गण का निक्षेप इत्वरिक करते हैं, यावज्जीवन नहीं। जो उपाध्याय आदि उस पद पर स्थापित होते हैं, वे भी इत्वरिक ही होते हैं। वे यथाकृत उपधि को ही धारण करते हैं। अपने कल्पयोग्य उपधि का उत्पादन होने पर पूर्व उपधि का परित्याग कर देते हैं। १२८६.इंदिय-कसाय-जोगा, विणियमिया जइ वि सव्वसाहूहि। तह वि जओ कायव्वो, तज्जयसिद्धिं गणितेणं॥ यद्यपि सभी साधुओं ने विविध प्रकार से इन्द्रियों, कषायों और योगों को नियंत्रित किया है, फिर भी जिनकल्प को स्वीकार करने वाले साधक को जिनकल्प की पारगामिता के लिए इन्द्रियों आदि पर जय प्राप्त करनी चाहिए। १२८७.जोगिदिएहिं न तहा, अहिगारो निज्जिएहिं न हु ताई। कलुसेहिं विरहियाई, दुक्खसईबीयभूयाई॥ योग और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने का विशेष प्रयोजन नहीं है, क्योंकि वे कषायों से विरहित होने पर दुःखरूपी सस्य की उत्पत्ति के बीजभूत नहीं हैं। (अर्थात् कषाय ही दुःख परम्परा के मूल बीज हैं।) १२८८.जेण उ आयाणेहिं, न विणा कलुसाण होइ उप्पत्ती। तो तज्जयं ववसिमो, कलुसजयं चेव इच्छंता॥ आदानों-इन्द्रियों तथा योगों के बिना कषायों की उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए हम कषायजय की इच्छा करते हुए इन्द्रियों और योगों के विजय की इच्छा करते हैं। १२८९.खेयविणोओ साहसजओ य लहुया तवो असंगो अ। सद्धाजणणं च परे, कालन्नाणं च नऽन्नत्तो।। भावनाओं से भावित आत्मा के गुण तपोभावना से खेद विनोद अर्थात् परिश्रम पर विजय प्राप्त होती है। सत्त्वभावना से साहसजय' अर्थात भयविजय, एकत्वभावना से लघुता का विकास, श्रुतभावना से तप का विकास, धृतिभावना से निर्ममत्व का विकास होता है। प्रकारान्तर से श्रुतभावना से अन्य व्यक्तियों में श्रद्धा की उत्पत्ति होती है। कालज्ञान दूसरे किसी साधन से जानने की आवश्यकता नहीं होती, वह श्रुतपरावर्तन से हो जाता है। १२९०.सरवेह-आस-हत्थी-पवगाईया उ भावणा दव्वे। अब्भास भावण त्ति य, एगटुं तत्थिमा भावे॥ १. प्रश्न होता है इत्वरिक क्यों? आचार्य कहते हैं-गण का पालन राधावेध की भांति सुदुष्कर है। नए स्थापित आचार्य उसकी पालना कर सकते हैं या नहीं? यदि न कर सकें तो जिनकल्प साधना स्वीकार नहीं करना है। जिनकल्प की साधना से भी श्रेष्ठतर है सूत्रोक्तविधि से गण का अनुपालन। वह बहुतर निर्जरा का कारण बनता है। बहुत लाभ को छोड़कर अल्प लाभ के लिए प्रयत्नशील नहीं होना चाहिए। भावना के दो प्रकार हैं-द्रव्यतः भावना और भावतः भावना। धनुर्धर पहले स्थूल वस्तुओं का वेध करता है, फिर स्वरवेध में पारंगत हो जाता है। दौड़ने का अभ्यास करतेकरते अश्व बड़े-बड़े गढ़ों को लांघ जाता है। हाथी अपनी सूंड से स्थूल पदार्थों के अभ्यास को आगे बढ़ाते हुए सूक्ष्म पदार्थों को भी उठाने लग जाता है। नट पहले बांस पर करतब दिखाता है। अभ्यास परिपक्व होने पर आकाश में भी करतब दिखाने लगता है। ये सारी द्रव्यतः भावनाएं हैं। अभ्यास और भावना एकार्थक हैं। आगे वक्ष्यमाण भावतः भावनाएं हैं। १२९१.दुविहाओ भावणाओ, असंकिलिट्ठा य संकिलिट्ठा य। मुत्तूण संकिलिट्ठा, असंकिलिट्ठाहि भावंति। भावतः भावना के दो प्रकार हैं-असंक्लिष्ट और संक्लिष्ट। जिनकल्प स्वीकार करने वाले संक्लिष्ट भावना को छोड़कर असंक्लिष्ट भावना से भावित होते हैं। १२९२.संखा य परूवणया, होइ विवेगो य अप्पसत्थासु। एमेव पसत्थासु वि, जत्थ विवेगो गुणा तत्थ।। अप्रशस्त भावनाओं की संख्या तथा उनकी प्ररूपणा करनी चाहिए। अप्रशस्त भावनाओं का विवेक-परित्याग होता है। इसी प्रकार प्रशस्त भावनाओं की संख्या और उनकी प्ररूपणा करनी चाहिए। जहां विवेक शब्द है वह अप्रशस्त भावनाओं के संदर्भ में ही है। तथा जहां गुण शब्द है वह प्रशस्त भावनाओं का द्योतक है।' १२९३.कंदप्प देवकिव्विस, अभिओगा आसुरा य सम्मोहा। एसा य संकिलिट्ठा, पंचविहा भावणा भणिया। सक्लिष्ट भावनाएं-अप्रशस्त भावनाएं पांच कही गई हैं१. कंदर्प भावना, २. दैवकिल्विषी भावना, ३. आभियोगी भावना ४. आसुरी भावना, ५. साम्मोही भावना। १२९४.जो संजओ वि एआसु अप्पसत्थासु भावणं कुणइ। सो तविहेसु गच्छइ, सुरेसु भइओ चरणहीणो। इन अप्रशस्त भावनाओं का फल जो साधु होकर भी इन अप्रशस्त भावनाओं से अपने आपको भावित करता है वह उन प्रकार के कान्दर्पिक आदि देवताओं में उत्पन्न होता है। जो चरणरहित है उसकी यहां भजना है, विकल्प है। वह उस प्रकार के देवों में अथवा नारक, तिर्यंच या मनुष्यों में उत्पन्न होता है। २. साहसं भयं.....चूर्णि, विशेषचूर्णि। ३. यह व्याख्या चूर्णि के अनुसार है। विशेषचूर्णि की व्याख्या इस प्रकार हे-जहां प्रशस्त वस्तु का भी विवेक-परित्याग है वहां गुण ही होते हैं। जैसे-आचार्य आदि का अवर्णवाद सुनने में औदासीन्यभाव रखना गुण ही है। स्थविरकल्पी की भांति यथाशक्ति उसका निवारण न करना दोष ही है। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ १२९५. कंदप्पे कुकुड़ए, दवसीले यावि हासणकरे य विम्हाविंतो य परं, कंदप्पं भावणं भावणं कुणइ ॥ कंदर्पवान्, कौत्कुच्यवान्, द्रवशील, हासनकर तथा दूसरे को विस्मापित करने वाला ये कान्दप भावना करते हैं। १२९६. कहकहकहस्स हसणं, कंदप्पो अनिहुया य संलावा । कंदप्पकहाकहणं, कंदपुवएस संसा य ॥ मुंह फाड़कर जोर-जोर से हंसना - अट्टट्टहास करना, कंदर्प अर्थात् अपने अनुरूप के साथ परिहास करना, गुरु आदि के साथ वक्रोक्ति से संलाप करना, कंदर्पकथा का कथन, कामोपदेश तथा कामाशंसा काम की प्रशंसा यह सारा कंदर्प है। १२९७. भुम - नयण वयण- दसणच्छदेहिं कर-पाद- कण्णमार्हहिं । तं तं करेइ जह हस्सए परो अत्तणा अहसं ॥ १२९८. वायाकोक्कुइओ पुण, तं जंपइ जेण हस्सए अन्नो । नाणाविहजीवरुए, कुब्बइ मुहतूरए चेव ॥ कुत्कुच का अर्थ है-भांड की तरह चेष्टा करना । वह दो प्रकार का है- शरीर से कुत्कुच करना, वाणी से कुत्कुच करना । भ्रू, नयन, वदन, दशनच्छद, हाथ, पैर और कान आदि शरीर के अवयवों से ऐसी चेष्टाएं करना जिनसे स्वयं न हंसते हुए दूसरों को हंसाना यह कायकीत्कुच्य है। वाणी से कीत्कुच्य वह होता है जो ऐसी बात कहता है जिससे दूसरा हंस पड़े। वह नाना प्रकार के जीवों की बोलियों का अनुकरण करता है अथवा मुंह से वाद्य बजाने की आवाज निकालता है। १२९९. भासइ दुयं दुयं गच्छए अ दरिउ व्व गोविसो सरए । सव्वद्दुयदुयकारी फुट्टइ व ठिओ वि दप्पेणं ॥ जो बिना विचारे आवेशवश जल्दी-जल्दी बोलता है, जो शरद ऋतु में दर्पित गोवृष की भांति त्वरित चलता है, जो सभी क्रियाओं को अति त्वरा से करता है, जो स्थित अर्थात् स्वभावस्थ होकर भी दर्प से मानो फूट रहा हो ऐसा लगता है, वह द्रवशील होता है। १३००, वेस वयणेहिं हासं जणयंतो अप्पणी परेसिं च अह हासणो ति भन्नइ, घयणो व्व छले नियच्छंतो।। जो घयण - भांड की भांति दूसरों के छिद्रों-विरूपवेष और भाषा का विपर्यय करता हुआ वैसे ही वेष और वचनों से दूसरों में हास्य उत्पन्न करता है वह हासन अर्थात् हास्यक कहलाता है। बृहत्कल्पभाष्यम् १३०१. सुरजालमाइएहिं तु विम्हयं कुणइ तव्विहजणस्स । तेसु न विम्हयइ सयं, आहट्ट- कुहेडएहिं च ॥ जो इन्द्रजाल तथा आहर्त प्रहेलिका कुहेटक- वक्रोकि आदि के द्वारा तथाविध साम्य लोगों को विस्थापित करता है, किन्तु स्वयं विस्मापित नहीं होता, वह परविस्मापक होता है। १३०२. नाणस्स केवलीणं, धम्मायरियाण सवसाहूणं । माई अवन्नवाई, किव्विसियं भावणं कुणइ || जो ज्ञान का, केवलियों का धर्माचार्यों का तथा सभी साधुओं का अवर्णवाद बोलता है वह मायी किल्विषिक भावना करता है। १३०३. काया वया य ते च्चिय, ते चेव पमाय अप्पमाया य । मोक्खाहिगारिगाणं, जोइसजोणीहिं किं च पुणो ॥ श्रुत का अवर्णवाद बोलने वाले कहते हैं बड़जीवनिकाय तथा व्रत बार-बार आगमों में कहे जाते हैं। इसी प्रकार स्थान-स्थान पर प्रमाद और अप्रमाद का बार- बार वर्णन किया जाता है। यदि मोक्षाधिकारी साधुओं के लिए ही प्रवचन हो तो फिर सूर्यप्रज्ञप्ति आदि ज्योतिषशास्त्रों तथा योनिप्राभृत आदि ग्रंथों से क्या प्रयोजन ? १३०४. एगंतरमुप्पाए, अन्नोन्नावरणया दुवेहं केवलदंसण णाणाणमेगकाले व एमतं ॥ केवलियों का अवर्णवाद क्या केवलियों के ज्ञान-दर्शन का उपयोग क्रमशः होता है अथवा एक साथ ? क्रमशः होना मानें तो केवली जिस समय जानता है तो उस समय देखता नहीं और जिस समय देखता है तो उस समय जानता नहीं । इस प्रकार दोनों का एकांतरित उत्पाद होने पर दोनों का अन्योन्यावरणता हो जाएगी। युगपद मानने पर साकार अनाकार उपभोग का एकत्व हो जाएगा। (इनका स्पष्टीकरण विशेषावश्यक भाष्य (गाथा ३०८८-३१२४) में विस्तार से प्राप्त है।) י पि । १३०५.जच्चाईहिं अवन्नं, भासइ वट्टइ न यावि उववाए । अहितो छिप्पेही, पगासवादी अणणुकुलो ॥ धर्माचार्यों का अवर्णवाद उनके कुल, जाति आदि के विषय में अवर्णवाद बोलना जैसे इनकी जाति और कुल विशुद्ध नहीं है। ये लोकव्यवहारकुशल और औचित्य को जानने वाले भी नहीं हैं। ये गुरु कि सेवा में नहीं रहतें, ये अहित - अनुचित कार्य करने वाले हैं, ये गुरु के छिद्रान्वेषी हैं, ये प्रकाशवादी हैं अर्थात् सभी के समक्ष गुरु के दोषों का कथन करने वाले हैं, ये अननुकूल हैं गुरु के प्रत्यनीक हैं। १३०६. अविसहणाऽरियगई, अणाणुवत्तीय अवि गुरुणं पि खणमित्पीड- रोसा, गिहिवच्छलकाऽइसंचइआ ॥ - www.jainelibrary.arg Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ये साधु असहिष्णु हैं, अत्वरितगति वाले हैं (माया से १३१२.पसिणापसिणं सुमिणे, विज्जासिहूँ कहेइ अन्नस्स। मंदगति करते हैं), ये गुरु के प्रति भी निष्ठुर व्यवहार करते अहवा आइंखिणिया, घंटियसिटुं परिकहेइ॥ हैं, ये क्षण में रुष्ट और क्षण में तुष्ट होते रहते हैं, ये स्वप्न में अवतीर्ण विद्याधिष्ठित देवता द्वारा कथित बात गृहिवत्सल हैं अर्थात् ये चाटुवचनों से गृहस्थों को लुभाते हैं, को प्रश्नकर्ता को बताना अथवा 'आइंखिणिया' डोंबी के ये अतिसंग्रहशील हैं आदि-आदि। कुलदेवता घंटिकपक्ष द्वारा कान में कथित प्रश्न के समाधान १३०७.गूहइ आयसभावं, घाएइ गुणे परस्स संते वि। को दूसरों को कहना प्रश्नाप्रश्न कहलाता है। चोरो व्व सव्वसंकी, गूढायारो वितहभासी॥ १३१३.तिविहं होइ निमित्तं, तीय-पड़प्पन्न-ऽणागयं चेव। मायी वह होता है जो आत्मस्वभाव को छुपाता है, दूसरे तेण न विणा उ नेयं, नज्जइ तेणं निमित्तं तु॥ में विद्यमान गुणों का घात करता है, चोर की भांति सर्वशंकी, निमित्त के तीन प्रकार हैं-अतीत, प्रत्युत्पन्न (वर्तमान) गूढ़ाचारयुक्त तथा वितथभाषी होता है। तथा अनागत। उस ज्ञान के बिना ज्ञेय-लाभ, अलाभ आदि १३०८.कोउअ भूई पसिणे, पसिणापसिणे निमित्तमाजीवी।। नहीं जाना जाता, वह लाभ-अलाभ आदि के ज्ञान का निमित्त __इड्डि-रस-सायगुरुतो, अभिओगं भावणं कुणइ॥ होता है, इसलिए उसे निमित्त कहा जाता है। जो ऋद्धि, रस और सात गौरव के वशवर्ती होकर १३१४.एयाणि गारवट्ठा, कुणमाणो आभिओगियं बंधे। कौतुकजीवी, भूतिकर्माजीवी, प्रश्नाजीवी, प्रश्नप्रश्नाजीवी, बीयं गारवरहिओ, कुव्वं आराहगुच्चं च॥ निमित्ता-जीवी होता है वह आभियोगी भावना करता है। जो गौरव आदि के लिए कौतुक आदि का प्रयोग करता है १३०९.विण्हवण-होम-सिरपरिरयाइ खारदहणाई धूवे य॥ वह आभियोगदेवकर्म का बंध करता है। इसका अपवादपद ___असरिसवेसग्गहणं, अवयासण-उत्थुभण-बंधा॥ है जो गौरव आदि से रहित होकर कौतुक आदि का प्रयोग कौतुक-बालकों की रक्षा के निमित्त अथवा स्त्रियों के करता है, वह आराधक होता है तथा उच्चगोत्र कर्म का बंध सौभाग्य के लिए विस्नपन-विशेष स्नान, होम, शिरपरिरय करता है।' अर्थात् हाथ फेर कर अभिमंत्रित करना, क्षारदहन-व्याधि के १३१५.अणुबद्धविग्गहो चिय, संसत्ततवो निमित्तमाएसी। उपशमन के लिए अग्नि में लवण आदि डालना, असदृश निक्किव निराणुकंपो, आसुरियं भावणं कुणइ। वेषग्रहण-स्वयं आर्य होकर अनार्य का वेश धारण करना, अनुबद्धविग्रह, संसक्ततप करनेवाला, निमित्तादेशी, निष्कृप, पुरुष होकर स्त्री का वेश पहनना, अवयासण-वृक्ष आदि का निरनुकंप-वह आसुरीभावना करता है। (विस्तृत अर्थ आगे।) आलिंगन करवाना, अवस्तोभन-अनिष्ट निवारण के लिए 'थू- १३१६.निच्चं बुग्गहसीलो, काऊण य नाणुतप्पए पच्छा। थू' करना तथा बंध अर्थात् उपलों को बांधना आदि कौतुक न य खामिओ पसीयइ, सपक्ख-परपक्खओ आवि॥ कहलाते हैं। जो नित्य विग्रहशील होता है-कलहकारी होता है, कलह १३१०.भूईए मट्टियाए व, सुत्तेण व होइ भूइकम्मं तु। करने के पश्चात् अनुतप्त नहीं होता, जो स्वपक्ष और परपक्ष वसही-सरीर-भंडगरक्खाअभियोगमाईया ॥ द्वारा क्षमापना करने पर भी प्रसन्न नहीं होता, वह अनुबन्द्रअभिमंत्रित राख, मिट्टी या सूत्र (तंतु) से भूतिकर्म होता विग्रह वाला होता है। है। यह वसति, शरीर और भांड आदि की रक्षा के लिए १३१७.आहार-उवहि-पूयासु जस्स भावो उ निच्चसंसत्तो। अभियोग-वशीकरण किया जाता है। भावोवहतो कुणइ अ, तवोवहाणं तदट्ठाए। १३११.पण्हो उ होइ पसिणं, जं पासइ वा सयं तु तं पसिणं। जिसका परिणाम आहार, उपधि और पूजा में सदा अंगुट्ठच्चिट्ठ-पडे, दप्पण-असि-तोय-कुड्डाई॥ प्रतिबद्ध रहता है, जो इस प्रकार रस-गौरव आदि के भाव से देवता आदि से पृच्छा करना प्रश्न कहलाता है। अथवा उपहत होकर आहार आदि के लिए तप-उपधान करता है, जो स्वयं देखता है या तत्रस्थित दूसरे लोग भी देखते हैं उसे वह संसक्त तप करने वाला है। 'पसिण' कहा जाता है। अंगुष्ठ, उच्छिष्ट पट, दर्पण, १३१८.तिविह निमित्तं एक्वेक्क छव्विहं जं तु वन्नियं पुव्विं । तलवार, पानी, भींत आदि पर अवतीर्ण देवता आदि को अभिमाणाभिनिवेसा, वागरियं आसुरं कुणइ॥ पूछना या देखना यह प्रश्न है। निमित्त के तीन प्रकारों का वर्णन जो पहले किया जा चुका १. गौरवरहितः सन् अतिशयज्ञाने सति निस्पृहवृत्त्या प्रवचनप्रभावनार्थमतानि कौतुकादीनि कुर्वन् आराधको भवति, उच्चैर्गोत्रं च कर्म बध्नाति, तीर्थोन्नतिकरणादिति। (वृ. पृ. ४०४) Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० हे, उसमें प्रत्येक के छह-छह प्रकार हैं जो अभिमान के अभिनिवेश से निमित्त का व्याकरण करता है, वह आसुरी भावना है, अन्यथा आभियोगिक भावना है। १३१९. चंक्रमणाई सत्तो, सुनिक्किवो थावराइसत्तेसु । काउं च नाणुतप्पइ, एरिसओ निक्किवो होइ ॥ जो अन्य कार्य में व्यापूत होकर दयाहीन भावों से स्थावर आदि जीवों पर चंक्रमण आदि करता है, तथा जो चंक्रमण आदि करके अनुतप्त नहीं होता, ऐसा व्यक्ति निष्कृप होता है। १३२०, जो उ परं कंपतं दणन कंपए कठिणभावो । एसो उ निरणुकंपो अणु पच्छाभावजोएणं ॥ जो दूसरे को कंपित देखकर भी, कठिन परिणाम वाला होकर स्वयं प्रकंपित नहीं होता, वह निरनुकंप होता है। पश्चात् भाववाचक अनु शब्द से जो योग है, वह अनुकंप है। जैसे- अनु अर्थात् पश्चात् । दुःखित प्राणी के कंपन के अनन्तर जो कंपन होता है, वह है अनुकंपा । जिससे यह अनुकंपा निर्गत हो गई है, वह है निरनुकंप | १३२१. उम्मग्गदेसणा मम्गदूसणा मग्गविप्पडीवत्ती । मोहेण य मोहित्ता, सम्मोहं भावणं कुणइ ॥ उन्मार्गदेशना, मार्गदूषणा, मार्गविप्रतिपत्ति, मोह से स्वयं मूद, दूसरों को मोहित करना ऐसी होती है साम्मोही भावना (व्याख्या आगे)। १३२२. नाणाइ अदूसिंतो, तव्विवरीयं तु उवदिसइ मग्गं । उम्मग्गदेसओ एस आय अहिओ परेसिं च ॥ जो ज्ञान आदि को अदूषित करता हुआ, ज्ञान आदि के विपरीत मार्ग का उपदेश देता है, वह उन्मार्गदेशक है। वह स्वयं और दूसरे के लिए अहित प्रतिकूल होता है। १३२३. नाणादि तिहा मग्गं, दूसयए जे य मग्गपडिवन्ना । अबु पंडियमाणी समुट्ठितो तस्स घायाए । ज्ञान, दर्शन और चारित्र - यह आराधना का त्रिविध मार्ग है। जो इनमें दूषण बताता है तथा जो मुनि इस मार्ग पर प्रस्थित हैं, उनमें दूषण बताता है वह अबुध-तत्त्वज्ञान से विकल तथा पंडितमानी व्यक्ति पारमार्थिक मार्ग के घात के लिए उद्यत होता है। यह है मार्गदूषणा । १३२४. जो पुण तमेव मग्गं दूसेउमपंडिओ सतक्काए । उम्मर पडिवज्जर, अकोविअप्पा जमालीव ॥ जो उसी पारमार्थिक मार्ग को दूषित कर, अपंडितसदबुद्धिविकल व्यक्ति अपने तर्कों के आधार अकोविदात्मा जमालि की भांति उन्मार्ग को स्वीकार करता है, यह मार्ग की विप्रतिपत्ति है। पर १. दृष्टान्त के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. ५७। बृहत्कल्पभाष्यम् १३२५. भावोवहयमईओ, मुज्झइ नाण चरणंतराईसु । इडीओ अ बहुविहा दद्रु परतित्वियाणं तु ॥ जिसकी मति भाव अर्थात् शंका आदि के परिणामों से उपहत है, वह व्यक्ति ज्ञानान्तरों (विशेष ज्ञानों) में तथा चरणान्तरों आदि में व्यामूढ़ हो जाता है वह परतीर्थिकों की अनेकविध ऋद्धियों को देखकर मोहित हो जाता है, यह है मोह | , १३२६. जो पुण मोहेह परं सम्भावेणं व कअवेणं वा । सम्मोहभावणं सो, पकरेइ अबोहिलाभाय ॥ जो व्यक्ति सद्भाव से अथवा कैतव माया से दूसरों को मोहित करता है, वह सम्मोहभावना करता है। इसका फल है-अबोधिलाभ | 3 १३२७. आओ भावणाओ भावित्ता देवदुम्गाई जंति । तत्तो वि चुया संता, परिंति भवसागरमणंतं ॥ इन भावनाओं के अभ्यास से मुनि देवदुर्गति अर्थात् कान्दर्पिकादि देवगति को प्राप्त होते हैं। वहां से च्युत होकर भी वे अनन्त भवसागर में पर्यटन करते हैं। १३२८. तवेण सत्तेण सुत्तेण, एमत्तेण य । बलेण तुलणा पंचहा वुत्ता, जिणकप्पं पडिवन्जओ ।। जो जिनकल्प साधना को स्वीकार करना चाहता है। उसके लिए ये पांच तुलाएं हैं, भावनाएं हैं-तप, सत्त्व, श्रुत, एकत्व और बल । १३२९. जो जेण अणन्भत्थो, पोरिसिमाई तवो उतं तिगुणं । कुणइ छुहाविजयट्ठा, गिरिनइसीहेण दिट्टंतो ॥ जो जिस पौरुषी आदि तप में अनभ्यस्त है वह उस तप को तीन-तीन बार करता है, जिससे कि तप आत्मसात् हो जाए । तप का मूल प्रयोजन है-क्षुधा पर विजय प्राप्त करना । इसमें 'गिरिनवीसिंह' का दृष्टांत वक्तव्य है।" १३३०. एक्क्कंताव तवं करेइ जह तेण कीरमाणेणं । हाणी न होइ जइआ, वि होज्ज छम्मासुवस्सग्गो ॥ वह एक-एक तप तब तक करता है जब तक वह तप करने पर अपने विहित अनुष्ठान में कोई हानि नहीं होती। यदि छहमास पर्यन्त भी उपसर्ग हों तब भी वह छहमास का तप कर लेता है। १३३१. अप्पाहारस्स न इंदियाई विसएस संपवत्तंति । नेव किलम्म तवसा, रसिएसन सज्जए यावि ॥ अल्पाहार करने वाले मुनि की इन्द्रियां विषयों में संप्रवर्तित नहीं होती। वह मुनि तपस्या से क्लान्त नहीं होता। वह रसिक अर्थात् स्निग्ध भोजन में आसक्त नहीं होता । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक =१४१ १३३२.तवभावणाइ पंचिंदियाणि दंताणि जस्स वसमिति। इंदियजोग्गा(गा)यरिओ, समाहिकरणाई कारयए॥ तपोभावना से जिसकी पांचों इन्द्रियां दान्त और वशवर्ती हो गई हैं वह 'इन्द्रिययोगाचार्य मुनि इन्द्रियों को समाधि करने वाली कर देता है, जैसे-जैसे ज्ञान आदि में समाधि उत्पन्न हो, वैसे-वैसे उनको कर देता है। १३३३.जे वि य पुट्विं निसि निग्गमेसु विसहिंसु साहस-भयाइं। अहि-तक्कर-गोवाई, विसिंसु घोरे य संगामे॥ जो राजा प्रव्रजित हुए, उन्होंने पहले (गृहवास में) रात्रीकाल में निर्गम आदि में वीरचर्या (प्रजा के योगक्षेम का वृत्तांत जानने के लिए गुप्तरूप में घूमना) करते हुए साहस-साध्वस अर्थात् अहेतुक भय तथा सर्प, तस्कर, गोप आदि से संबंधित सहेतुक भय को सहन किया था तथा जिन्होंने घोर संग्राम में प्रवेश किया था, उनको भी जिनकल्प लेने से पूर्व सत्त्वभावना से स्वयं को भावित करना होता है। १३३४.पासुत्ताण तुयर्ट्स, सोयव्वं जं च तीसु जामेसु। थोवं थोवं जिणइ उ, भयं च जं संभवइ जत्थ॥ वे एक पार्श्व से या चितलेटने का अभ्यास करते हैं, तीन प्रहर तक शयन अथवा कारण के अभाव में तीसरे प्रहर में शयन करने की पद्धति पर धीरे-धीरे विजय प्राप्त करते हैं तथा उपाश्रय में जीव-जन्तुओं आदि के भय को जीतने का अभ्यास करते हैं। १३३५.पढमा उवस्सयम्मी, बिइया बाहिं तइया चउक्कम्मि। सुन्नघरम्मि चउत्थी, तह पंचमिया सुसाणम्मि॥ सत्त्वभावना के अभ्यास की ये पांच प्रतिमाएं हैं- पहली प्रतिमा है उपाश्रय में। दूसरी है उपाश्रय से बाहर। तीसरी है चतुष्कमार्ग में। चौथी है शून्यघर में। पांचवी है श्मशान में। १३३६.भोगजढे गंभीरे, उव्वरए कोट्टए अलिंदे वा। तणुसाइ जागारो वा, झाणट्ठाए भयं जिणइ।। उपाश्रय के अपरिभोग्य तथा गंभीर अर्थात् अत्यंत अंधकारयुक्त अपवरक, कोष्ठक अथवा अलिंद पर बैठ कर, अल्पनिद्रावान् अथवा जागता हुआ ध्यान में स्थित होता है। वह भय पर विजय पाने का प्रयत्न करता है। यह पहली प्रतिमा है। १३३७. छिक्कस्स व खइयस्स व, मूसिगमाईहिं वा निसिचरेहि। जह सहसा न वि जायइ रोमंचुब्भेय चाडो वा॥ जो रात्री में परिभ्रमण करते हैं उन मूषकों, मार्जारों से स्पृष्ट होने पर या काटे जाने पर सहसा अर्थात् भय नहीं १. इन्द्रियप्रगुणनक्रियागुरुः। होता, रोमोद्गम नहीं होता तथा चाडो-पलायन नहीं होताऐसी सत्त्वभावना से आत्मा को भावित करना चाहिए। १३३८.सविसेसतरा बाहिं, तक्कर-आरक्खि -सावयाईया। सुण्णघर-सुसाणेसु य, सविसेसतरा भवे तिविहा॥ जो उपाश्रय प्रतिमा में भय होते हैं वे उपाश्रय से बाहर विशेषतर होते हैं। बाहर तस्कर, आरक्षिक तथा श्वापदों का भय विशेष होता है। शून्यगृह तथा श्मशान आदि में दिव्य, मानुष्य और तैरश्च-ये तीन प्रकार के उपसर्गरूप भय विशेषतर होते हैं। वह मुनि उनको भी करता है। १३३९.देवेहिं भेसिओ वि य, दिया व रातो व भीमरूवेहिं। तो सत्तभावणाए, वहइ भरं निब्भओ सयलं॥ इस प्रकार स्वयं द्वारा अभ्यस्त सत्त्वभावना से वह मुनि दिन में या रात में भयंकररूप वाले देवों से भयभीत किए जाने पर भी जिनकल्प साधना का समस्त भार निर्भय होकर वहन कर सकता है। १३४०. जइ वि य सनाममिव परिचियं सुअं अणहिय-अहीणवन्नाई। कालपरिमाणहेउं, तहा वि खलु तज्जयं कुणइ। यद्यपि अपने नाम की भांति जिसके श्रुत अनधिकाक्षर तथा अहीनाक्षर रूप में परिचित है, स्मृति में है, फिर भी वह कालपरिमाण को जानने के लिए वह श्रुत पर विजय प्राप्त करता है अर्थात् श्रुत का अभ्यास करता है। १३४१.उस्सासाओ पाणू, तओ य थोवो तओ वि य मुहत्तो। मुहत्तेहिं पोरिसीओ, जाणेइ निसा य दिवसा य॥ श्रुतपरावर्तन के अनुसार वह उच्छ्रास के परिमाण को जान लेता है। फिर प्राण अर्थात् उच्छास निःश्वास, तदनन्तर स्तोक-सात प्राणों का परिमाण, तदनन्तर मुहूर्त, मुहूर्तों से पौरुषी को जान लेता है। पौरुषी के अनन्तर वह मुनि रात और दिन के परिमाण का ज्ञान कर लेता है। १३४२.मेहाईछन्नेसु वि, उभओकालमहवा उवस्सग्गे। पेहाइ भिक्ख पंथे, नाहिइ कालं विणा छायं। आकाश मेघ से आच्छन्न होने पर भी उभयकाल अर्थात् क्रिया का प्रारंभकाल और परिसमाप्तिकाल अथवा उपसर्ग होने पर प्रतिलेखन आदि का काल तथा भिक्षाकाल और विहरणकाल-वह बिना छाया के भी इन सबको स्वयं जान जाता है। १३४३.एगग्गया सुमह निज्जरा य नेव मिणणम्मि पलिमंथो। न पराहीणं नाणं, काले जह मंसचक्खूणं । श्रुतपरावर्तन से एकाग्रता और महान् निर्जरा होती है। इस विधि से कालज्ञान होने पर छाया मापने से होने वाला Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ =बृहत्कल्पभाष्यम् पलिमंथ (सूत्रार्थव्याघात) नहीं होता। उनका कालज्ञान रखा। दोनों साथ-साथ बढ़ रहे थे। दोनों में अनुराग बढ़ता पराधीन नहीं होता जैसे मांसचक्षुवाले अर्थात् छद्मस्थ साधुओं गया। पुष्पचूल राजा बना। 'घरजमाई' को पुष्पचूला दी गई। के होता है। वह अपने पति के साथ केवल रात में मिलती थी। राजा १३४४.सुयभावणाए नाणं, दंसण तवसंजमं च परिणमइ। पुष्पचूल प्रवजित हो गया। उसके अनन्तर पुष्पचूला भी तो उवओगपरिण्णो, सुयमव्वहितो समाणेइ॥ प्रवजित हो गई। मुनि पुष्पचूल जिनकल्प स्वीकार करने का श्रुतभावना से ज्ञान, दर्शन, तप और संयम की सम्यक् इच्छुक था। वह एकत्वभावना से स्वयं को भावित करने परिणति होती है। वह उपयोगपरिज्ञ मुनि अर्थात् श्रुतोपयोग- लगा। एक देव ने उसकी परीक्षा के निमित्त उपसर्ग रूप में मात्र से कालपरिज्ञाता मुनि अव्यथित होकर श्रुतभावना का साध्वी पुष्पचूला का रूप बनाया। धूर्त्त लोग उसकी विडंबना समापन करता है। करने लगे। मुनि पुष्पचूल उसी मार्ग से आ रहे थे। उन्हें १३४५.जइ वि य पुव्वममत्तं, छिन्नं साहहिं दारमाईसु। देखकर साध्वी पुष्पचूला चिल्लाने लगी-आर्य! शरण दो, आयरियाइममत्तं, तहा वि संजायए पच्छा॥ शरण दो।' मुनि ने सुना, परंतु वे तो ममत्व को मिटा चुके थे। यद्यपि साधुओं ने पत्नी आदि के प्रति होने वाले गृहवास- उन्होंने सोचा-'मैं अकेला हूं। मेरा कोई नहीं है। मैं भी किसी कालभावी ममत्व का छेदन कर डाला है, फिर भी पश्चात् का नहीं हूं।' इस प्रकार एकत्वभावना में लीन मुनि आगे बढ़े प्रव्रज्याकाल में आचार्य आदि विषयक ममत्व हो जाता है। और अपने स्थान पर आ गए। (उसको कैसे तोड़ा जा सकता है ?) १३५२.एगत्तभावणाए, न कामभोगे गणे सरीरे वा। १३४६.दिट्ठिनिवायाऽऽलावे, अवरोप्परकारियं सपडिपुच्छं। सज्जइ वेरग्गगओ, फासेइ अणुत्तरं करणं॥ परिहास मिहो य कहा, पुव्वपवत्ता परिहवेइ॥ एकत्वभावना से भावित आत्मा वाला मुनि न कामभोगों १३४७.तणुईकयम्मि पुव्वं, बाहिरपेम्मे सहायमाईसु।। में, गण में और न शरीर में ममत्व करता है, वह वैराग्य को आहारे उवहिम्मि य, देहे य न सज्जए पच्छा॥ प्राप्त होता हुआ अनुत्तर करण अर्थात् जिनकल्प की आराधना गुरु के प्रति जो पहले स्निग्ध दृष्टिपात तथा आलाप- करता है। संलाप होते थे, जो परस्परोपकारिता, सप्रतिपृच्छा-सूत्रार्थ १३५३.भावो उ अभिस्संगो, सो उ पसत्थो व अप्पसत्थो वा। की प्रतिपृच्छा, परिहास, मिथःकथा-परस्परवार्ता इस प्रकार नेह-गुणओ उ रागो, अपसत्थ पसत्थओ चेव॥ सभी पूर्वप्रवृत्त चेष्टाओं का परिहार करता है तथा अपने भाव का अर्थ है-अभिष्वंग। वह दो प्रकार का होता हैसहायक साधुओं के प्रति बाह्य प्रेम को तनु करने के पश्चात् प्रशस्त और अप्रशस्त। स्नेहजनित जो राग है, वह अप्रशस्त आहार, उपधि और देह के प्रति भी ममत्व नहीं करता। है तथा गुणों के प्रति जो राग है वह प्रशस्त है। १३४८.पुब्बिं छिन्नममत्तो, उत्तरकालं वविज्जमाणे वि। १३५४.कामं तु सरीरबलं, हायइ तव-नाणभावणजुअस्स। साभाविय इअरे वा, खुब्भइ दुटुं न संगइए॥ देहावचए वि सती, जह होइ धिई तहा जयइ॥ पहले ही उसने ममत्व का छेदन कर डाला था। उत्तर- हम यह मानते हैं कि तपभावना और ज्ञानभावना से युक्त काल अर्थात जिनकल्प को स्वीकार करने के पश्चात् मुनि का शरीरबल क्षीण होता है। उसके देह का अपचय होने जिनकल्प का हनन करने वाले स्वाभाविक स्वजन अथवा पर भी अपना धृतिबल निश्चल करने के लिए वह प्रयत्न इतर-देवनिर्मित स्वजनों को देखकर भी क्षुब्ध नहीं होता। करता है। १३४९.पुप्फपुर पुप्फकेऊ, पुप्फुवई देवि जुयलयं पस। १३५५.कसिणा परीसहचमू, जइ उठ्ठिज्जाहि सोवसग्गा वि। पुत्तं च पुप्फचूलं, धूअं च सनामिअं तस्स॥ दुद्धरपहकरवेगा, भयजणणी अप्पसत्ताणं॥ १३५०.सहवड्डियाऽणुरागो, रायत्तं चेव पुप्फचूलस्स। १३५६.धिइधणियबद्धकच्छो, जोहेइ अणाउलो तमव्वहिओ। घरजामाउगदाणं, मिलइ निसिं केवलं तेणं॥ बलभावणाए धीरो, संपुण्णमणोरहो होइ॥ १३५१.पव्वज्जा य नरिंदे, अणुपव्वयणं च भावणेगत्ते। यदि संपूर्ण परीषहरूपी सेना, जो अल्पबल वाले व्यक्तियों वीमंसा उवसग्गे, विडेहिं समुहिं च कंदणया॥ के लिए भय पैदा करने वाली है तथा जो मोक्षमार्ग को दुर्वह पुष्पपुर नगर में पुष्पकेतु राजा था। उसकी रानी का नाम बनाने वाले वेग से युक्त है तथा जिसने दिव्य आदि उपसर्गों या पुष्पवती। उसने युगल का प्रसव किया। पुत्र का नाम की सहायता प्राप्त कर ली है, वैसी सेना भी यदि सम्मुख आ पुष्पचूल और पुत्री का नाम 'सनामिक' अर्थात् पुष्पचूला जाए तो वह जिनकल्प स्वीकार करने वाला मुमुक्षु उसके Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक १४३ साथ युद्ध करने के लिए कटिबद्ध हो जाता है। वह धीर मुनि अथवा आहार और उपधि विषयक दो प्रकार का परिकर्म अत्यधिक धृति के कच्छ से बद्ध, अनाकुल, अव्यथित- होता है। सात पिंडेषणाओं में आद्य दो का अग्रहण और शेष निष्प्रकंप होकर बलभावना से उसके साथ युद्ध करता है, पांच में से दो का ग्रहण अभिग्रहपूर्वक होता है। एक से भक्त उसको पराजित कर अपने संपूर्ण मनोरथ को पूरा करता है। का ग्रहण और एक से पानक का।' १३५७.धिइ-बलपुरस्सराओ, हवंति सव्वा वि भावणा एता। १३६३.निप्फाव-चणकमाई, अंतं पंतं तु होइ वावण्णं। तं तु न विज्जइ सज्झं, जं धिइमंतो न साहेइ॥ नेहरहियं तु लूह, जं वा अबलं सभावेणं॥ ये सारी भावनाएं धृति और बल से युक्त होती हैं। ऐसा वल्ल (राजमाष या एक प्रकार का गेहूं), चना आदि कोई साध्य नहीं है, जो धृतिमान् पुरुष सिद्ध न कर सके। अन्त तथा वे ही कुथित होने पर प्रान्त कहलाते हैं। १३५८.जिणकप्पियपडिरूवी, गच्छे वसमाण दुविह परिकम्म। स्नेहरहित रूक्ष कहलाता है अथवा जो स्वभाव से ही अबल ततियं भिक्खायरिया, पंतं, लूहं अभिगहीया॥ होता है (जैसे रब्बा आदि) वह भी रूक्ष ही कहलाता है। इस प्रकार पांच भावनाओं से भावित मुनि जिनकल्प का १३६४.उक्कडुयासणसमुई, करेइ पुढवीसिलाइसुववेसे। प्रतिरूपी होकर गच्छ में रहता हुआ दो प्रकार का परिकर्म पडिवन्नो पुण नियमा, उक्कुडुओ केइ उ भयंति॥ करता है-अभिग्रहपूर्वक तीसरे प्रहर में भिक्षाचर्या करना, १३६५.तं तु न जुज्जइ जम्हा, अणंतरो नत्थि भूमिपरिभोगो। उसमें भी अंत-प्रांत और रूक्ष आहार ग्रहण करना तथा तम्मि य हु तस्स काले, ओवग्गहितोवही नत्थि॥ अभिग्रहपूर्वक एषणा करना। जिनकल्प स्वीकार करने वाला मुनि उत्कटुक आसन का १३५९.परिणाम-जोगसोही, उवहिविवेगो य गणविवेगो य। अभ्यास करता है। पृथ्वी शिला आदि पर बैठ सकता है। जो सिज्जा-संथारविसोहणं च विगईविवेगो य॥ जिनकल्प को स्वीकार कर चुका है वह नियमतः उत्कटुक १३६०.तो पच्छिमम्मि काले, सप्पुरिसनिसेवियं परमघोरं। आसन में ही बैठता है। कुछेक आचार्य इस चर्या में विकल्प पच्छा निच्छयपत्थं, उवेइ जिणकप्पियविहारं॥ मानते हैं-उत्कटुक अथवा सीधा बैठना। यह विकल्प उचित परिणाम अर्थात् गुरु आदि के प्रति होने वाले ममत्व के नहीं लगता, क्योंकि साधु के लिए भूमी का परिभोग विच्छेद से, योगशोधि आवश्यक आदि यथाकाल करने से अव्यवहित नहीं होना चाहिए। जिनकल्पकाल में औपग्रहिक होने वाली शुद्धि से, उपधिविवेक, गणविवेक, शय्या- उपधि नहीं होती। उसके अभाव में निषद्या भी नहीं होती। संस्तारक का विशोधन, विकृतिविवेक-यह सारा उसे करना इसलिए उसका उत्कटुक रहना ही उचित है। चाहिए। १३६६.दव्वाई अणुकूले, संघं असती गणं समाहृय। तदनन्तर पश्चिम काल में गणव्यवच्छित्ति करने के जिण गणहरे य चउदस, अभिन्न असती य वडमाई।। पश्चात् सत्पुरुषों द्वारा परिपालित, परमधोर, भविष्य का ___द्रव्य आदि की अनुकूलता होने पर संघ के अभाव में गण निश्चित पथ्य-एकान्तहितकारक जिनकल्पिकविहार को। को अवश्य एकत्रित करना चाहिए। तदनन्तर तीर्थंकर या स्वीकार करे। गणधर या चतुर्दशपूर्वी या अभिन्नदशपूर्वी इनमें से किसी के १३६१.पाणी पडिग्गहेण व, सच्चेल निचेलओ जहा भविया। पास जिनकल्प ग्रहण करे। इनके अभाव में वटवृक्ष आदि सो तेण पगारेणं, भावेइ अणागयं चेव॥ (अशोक, अश्वत्थ आदि) के नीचे स्वयं जिनकल्प को दो प्रकार का परिकर्म है-पाणिपरिकर्म तथा प्रतिग्रह- स्वीकार करे। परिकर्म। अथवा सचेलपरिकर्म और अचेलपरिकर्म। इनमें से १३६७.गणि गणहरं ठवित्ता, खामे अगणी उ केवलं खामे। जो पाणिपात्रधारक अथवा प्रतिग्रहधारक अथवा सचेलक या सव्वं च बाल-बुद्धं, पुव्वविरुद्धे विसेसेणं॥ अचेलक होता है, वह भविष्य में उसी प्रकार से जीवन यापन गणी--आचार्य अपने उत्तराधिकारी गणधर की स्थापना करता है। कर श्रमणसंघ से क्षमायाचना करते हैं। जो गणी नहीं होते, १३६२.आहारे उवहिम्मि य, अहवा दुविहं तु होइ परिकम्म। सामान्य साधु होते हैं, वे किसी की स्थापना न कर समस्त पंचसु गह दोसु अग्गह, अभिग्गहो अन्नयरियाए॥ संघ से, उसके अभाव में बाल और वृद्ध मुनियों से संकुल १. उपधि विषयक परिकर्म के लिए देखें-पीठिका गाथा ६१० आदि तथा ६५५ आदि। उनमें भी आद्य दो को छोड़कर शेष का ही ग्रहण। उसमें भी अभिग्रहपूर्वक। २. समुइं-देशीवचनात्वाद् अभ्यासं करोति। (वृ. पृ. ४१४) Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ = =बृहत्कल्पभाष्यम् केवल स्वगच्छ से क्षमायाचना करते हैं। पूर्वविराधित मुनियों तदनन्तर वे मुनि गच्छ से निरपेक्ष होकर अपने भांड से क्षमा मांगते हैं। लेकर वहां से चल पड़ते हैं, जैसे पक्षी अपनी पांखों के साथ १३६८.जइ किंचि पमाएणं, न सुट्ट भे वट्टियं मए पुविं।। अन्यत्र चला जाता है। वे तृतीय पौरुषी में विहार करते हुए तं भे खामेमि अहं, निस्सल्लो निक्कसाओ अ॥ एकांत अर्थात् मासप्रायोग्य क्षेत्र में चले जाते हैं। उनके विहार क्षमायाचना करते हुए कहते हैं-यदि मैंने पूर्व में आप का मर्यादाकाल है तीसरा प्रहर, अन्य प्रहरों में नहीं। मुनियों के प्रति प्रमादवश उचित बर्ताव न किया हो तो मैं १३७५.सीहम्मि व मंदरकंदराओ नीहम्मिए तओ तम्मि। निःशल्य और निष्कषाय होकर क्षमायाचना करता हूं। चक्खुविसयं अइगए, अइंति आणंदिया साहू।। १३६९.आणंदअंसुपायं, कुणमाणा ते वि भूमिगयसीसा। जैसे सिंह मंदरकंदरा से निर्गत होता है, वैसे ही खामिति जहरिहं खलु, जहारिहं खामिता तेणं॥ अनगार गच्छ से निर्गत होते हैं तब अन्य मुनि उनका वे मुनि भी आनंद से अश्रुपात करते हुए, भूमी पर शिर अनुगमन करते हैं और जब वे आंखों से ओझल हो जाते हैं टिकाए हुए यथायोग्य अपने पर्यायक्रम से उनसे क्षमायाचना तब वे अनुगत मुनि आनंदित होते हुए अपनी वसति में लौट करते हैं। वे आचार्य भी यथार्ह पर्यायज्येष्ठ से क्षमायाचना आते हैं। करते हैं। १३७६.निच्चेल सचेले वा, गच्छारामा विणिग्गए तम्मि। १३७०. खामिंतस्स गुणा खलु, निस्सल्लय विणय दीवणा मग्गे। चक्खुविसयं अईए, अयंति आणंदिया साहू॥ लावियं एगत्तं, अप्पडिबंधो अ जिणकप्पे॥ गच्छरूपी आराम से सचेल अथवा अचेल अवस्था में जिनकल्प स्वीकार करने वाले मुनि या आचार्य के द्वारा निर्गत मुनि जब तक आंखों से ओझल नहीं हो जाता तब तक क्षमायाचना से ये गुण निष्पन्न होते हैं-निःशल्यता, विनय की अन्य मुनि उसका अनुगमन करते हैं और फिर आनंदित होते विज्ञप्ति, मार्ग की दीपना, लघुता की उपपत्ति, एकत्व की हुए अपने स्थान पर लौट आते हैं। अनुभूति, प्रतिबंध के अभाव की अनुभूति। १३७७.आभोएउं खेत्तं, निव्वाघाएण मासनिव्वाहिं। १३७१.अह ते सबाल-वुड्डो, गच्छो साइज्ज णं अपरितंतो। • गंतूण तत्थ विहरइ, एस विहारो समासेणं ।। एसो हु परंपरतो, तुम पि अंते कुणसु एवं ।। क्षेत्र को निर्व्याघात और मासनिर्वहन योग्य जानकर आचार्य अपने गणधर को अनुशिष्टि देते हैं जिनकल्पी मुनि वहां जाते हैं और अपनी मर्यादा के अनुसार यह सबाल-वृद्ध गच्छ तुम्हारी निश्रा में है। तुम जीवनयापन करते हैं। यह जिनकल्प मुनि के विशेष अपरितप्तभाव से इसका सांगोपांग पालन करना। यही शिष्य अनुष्ठानरूप विहार का संक्षिप्त विवरण है। और आचार्य का क्रम है। तुम भी अंत में अव्यवच्छित्तिकारक १३७८ इच्छा-मिच्छा-तहक्कारो, आवस्सि निसीहिया य आपुच्छा। शिष्य का निष्पादन कर अभ्युद्यत विहार स्वीकार करना। पडिपुच्छ छंदण निमंतणा य उवसंपया चेव॥ १३७२.पुव्वपवित्तं विणयं, मा हु पमाएहिं विणयजोगेसु। दस प्रकार की सामाचारी यह है-इच्छाकार, मिथ्याकार, जो जेण पगारेणं, उववज्जइ तं च जाणाहिं॥ तथाकार, आवश्यिकी, नैषेधिकी, आपृच्छा, प्रतिपृच्छा, तुम विनययोग्य-गौरवाह जो मुनि हैं उनके प्रति पूर्वप्रवृत्त छंदना, निमंत्रणा और उपसंपदा। विनय की प्रमादवश हानि मत करना। जो मुनि जिस विधि से १३७९.आवसि निसीहि मिच्छा, आपुच्छुवसंपदं च गिहिएसु। निर्जरा के प्रति सजग होता हो उसको जानकर उन-उन अन्ना सामायारी, न होंति से सेसिया पंच॥ मुनियों को उसीमें प्रवर्तित करना।' . इनमें से जिनकल्पी मुनि पांच सामाचारियां स्वीकार १३७३.ओमो समराइणिओ, अप्पतरसुओ अ मा य णं तुब्भे। करता है-आवश्यिकी, नैषेधिकी, मिथ्याकार, आपृच्छा तथा परिभवह तुम्ह एसो, विसेसओ संपयं पुज्जा॥ उपसंपदा। वह इनको गृहस्थों के प्रति प्रयुक्त करता है। इस अवसर पर आचार्य साधुओं को कहते हैं-मुनियो! ये प्रयोजन के अभाव में शेष पांच सामाचारियों का प्रयोग नहीं स्थापित गणधर अवमरात्निक हैं, समरात्निक हैं, अल्पतर- होता। इस विषयक अन्य मत इस प्रकार है-- श्रुतसंपन्न हैं-वह सोचकर तुम इनका पराभव मत करना। ये १३८०.आवासियं निसीहियं, मोत्तुं उवसंपयं च गिहिएसु। ही अभी तुम सबके लिए विशेषरूप से पूज्य हैं। सेसा सामायारी, न होति जिणकप्पिए सत्त॥ १३७४.पक्खीव पत्तसहिओ, सभंडगो वच्चए निरवयक्खो। जिनकल्पी मुनि के आवश्यिकी, नैषेधिकी-इन दो एगंतं जा तइया, तीए विहारो से नऽन्नासु॥ सामाचारियों को छोड़कर तथा उपसंपदा सामाचारी गृहस्थ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक विषयक होने के कारण, शेष सात सामाचारियां जिनकल्पिक १३८७.जइ वि य उप्पज्जंते, सम्मं विसहति ते उ उवसग्गे। के नहीं होती। रोगातंका चेवं, भइया जइ होति विसहति।। १३८१.अहवा वि चक्कवाले, सामायारी उ जस्स जा जोग्गा। उनके उपसर्ग होते ही हैं या नहीं, यह एकांततः नहीं कहा सा सव्वा वत्तव्वा, सुयमाई वा इमा मेरा॥ जा सकता। वे उत्पन्न उपसर्गों को सम्यगरूप से सहन करते अथवा जिनकल्पिक की दसविध चक्रवाल सामाचारी जो हैं, रोग और आतंक वैकल्पिक हैं अर्थात् उत्पन्न होते भी हैं जिसके योग्य हो, उन सबका उल्लेख इस सामाचारी द्वार में और नहीं भी होते। यदि उत्पन्न होते हैं तो वे उनको सहन करना चाहिए। श्रुत आदि विषयक यह मर्यादा है। करते हैं। १३८२.सुय संघयणुवसग्गे, आतंके वेदणा कइ जणा य। १३८८.अब्भोवगमा ओवक्कमा य तेसि वियणा भवे दुविहा। थंडिल्ल वसहि केच्चिरे, उच्चारे चेव पासवणे॥ धुवलोआई पढमा, जरा-विवागाइ बिइएक्को॥ १३८३.ओवासे तणफलए, सारक्खणया य संठवणया य। जिनकल्पी मुनियों के दो प्रकार की वेदना होती है पाहुडि अग्गी दीवे, ओहाण वसे कइ जणा य॥ आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी। पहली आभ्युपगमिकी १३८४.भिक्खायरिया पाणग, लेवालेवे तहा अलेवे य। वेदना है-ध्रुवलोच आदि। ध्रुव का अर्थ है-प्रतिदिनभावी। आयंबिल पडिमाओ, जिणकप्पे मासकप्पो य॥ दूसरी औपक्रमिकी वेदना है-जरा तथा विपाक-कर्मों के उदय ये तीनों द्वार गाथाएं हैं। इनमें जिनकल्प विषयक २७ से होने वाली। द्वारों का उल्लेख है छठा द्वार है-कितने जन? जिनकल्पी मुनि एक अर्थात् १. श्रुत १०. उच्चार १९. अवधान अकेले भी होते हैं। २. संहनन ११. प्रस्रवण २०. वसति में कितने १३८९.उच्चारे पासवणे, उस्सग्गं कुणइ थंडिले पढमे। जन रहेंगे? तत्थेव य परिजुण्णे, कयकिच्चो उज्झई वत्थे। ३. उपसर्ग १२. अवकाश २१. भिक्षाचर्या वे उच्चार और प्रस्रवण का उत्सर्ग प्रथम स्थंडिल ४. आतंक १३. तृणफलक २२. पानक (अर्थात् अनापात-असंलोक) में करते हैं और वहीं कृतकार्य ५. वेदना १४. संरक्षणता २३. लेपालेप होकर जीर्ण वस्त्रों का व्युत्सर्ग कर देते हैं। ६. कितने जन? १५. संस्थापनता २४. अलेप १३९०.अप्पमभिन्नं वच्चं, अप्पं लूहं च भोयणं भणियं। ७. स्थंडिल १६. प्राभृतिका २५. आचाम्ल दीहे विउ उवसग्गे, उभयमवि अथंडिले न करे। ८. वसति १७. अग्नि २६. प्रतिमा वे अल्प और रूक्ष भोजन करते हैं अतः उनका मल अल्प ९. कितना काल १८. दीप २७. मासकल्प। और अभिन्न होता है। इसलिए शुचि नहीं लेते। यह उनका १३८५.आयारवत्थुतइयं, जहन्नयं होइ नवमपुव्वस्स। कल्प है। वे दीर्घकालीन उपसर्ग की स्थिति में भी उभय तहियं कालण्णाणं, दस उक्कोसेण भिन्नाई। संज्ञा-उच्चार-प्रस्रवण का त्याग अस्थंडिल में नहीं करते। जिनकल्पी मुनि का जघन्य श्रुत प्रत्याख्यान नामक नौवें १३९१. अममत्त अपरिकम्मा, नियमा जिणकप्पियाण वसहीओ। पूर्व की आचार नामक तीसरी वस्तु। इतना श्रुत पढ़ने पर ही एमेव य थेराणं, मुत्तूण पमज्जणं एक्कं ।। कालज्ञान होता है। इससे न्यून ज्ञान वाला जिनकल्प को जिनकल्पी मुनि ममत्वरहित होते हैं। उनकी वसति स्वीकार नहीं कर सकता। उसके उत्कर्षतः भिन्न दश पूर्वो की नियमतः परिकर्मरहित होती है। स्थविरकल्पी मुनियों की श्रुतपर्याय होती है। (संपूर्ण दशपूर्वधर प्रवचन की प्रभावना वसति भी अपरिकर्मा होती है। केवल वहां प्रमार्जना परिकर्म तथा परोपकार के द्वारा ही बहुत निर्जरालाभ कर लेता है। होता है। वह जिनकल्प स्वीकार नहीं करता।) १३९२.बिले न ढक्वंति न खज्जमाणिं, १३८६.पढमिल्लुगसंघयणा, धिईए पुण वज्जकुडसामाणा। गोणाइ वारिति न भज्जमाणिं। उप्पज्जति न वा सिं, उवसग्गा एस पुच्छा उ॥ दारे न ढक्कंति न वऽग्गलिंति, जिनकल्पिक प्रथम संहनन अर्थात् वज्रऋषभनाराच दप्पेण थेरा भइआ उ कज्जे॥ संहनन वाले होते हैं। उनकी धृति (मानसिक प्रणिधान) जिनकल्पी मुनि वसति में रहे हुए चूहे आदि के बिलों को वज्रकुड्य के सदृश होती है। उनके दिव्य आदि उपसर्ग नहीं ढंकते और गायों द्वारा घास आदि खाए जाते हुए अथवा उत्पन्न होते हैं या नहीं यह पृच्छा है। वसति को तोड़े जाते हुए का निवारण नहीं करते। वे द्वार को ता Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं ढंकते, आगल नहीं लगाते। स्थविरकल्पी मुनि भी दर्प अर्थात् प्रयोजन के बिना वसति का यह परिकर्म नहीं करते और प्रयोजन होने पर करते भी हैं। १३९३.किच्चिरकालं वसिहिह, इत्थ य उच्चारमाइए कुणसु। __ इह अच्छसु मा य इहं, तण-फलए गिण्हिमे मा य॥ १३९४.सारक्खह गोणाई, मा य पडिंति उविक्खहउ भंते! अन्नं वा अभिओगं, नेच्छंतऽचियत्तपरिहारी॥ जिनकल्पी मुनि जब वसति की याचना करते हैं तब वसतिस्वामी पूछता है आप यहां कितने समय तक रहेंगे? अथवा अमुक प्रदेश में उच्चार-प्रस्रवण का व्युत्सर्ग करें, अमुक प्रदेश में नहीं। अथवा यहां बैठें, यहां न बैठें। ये तृणफलक आदि ग्रहण करें, ये न करें। भंते! आप गायों आदि पशुओं से वसति का संरक्षण करें तथा यत्र-तत्र गिरती हुई वसति की उपेक्षा न करें। ऐसे या इनके अतिरिक्त (स्वाध्याय प्रतिषेध आदि) वसतिस्वामी जिन अन्य कार्यों का अभियोग अर्थात् नियंत्रण करे तो अप्रीति का परिहार करने वाले वे मुनि उस वसति की इच्छा भी न करे। १३९५.पाहुडिय दीवओ वा, अग्गि पगासो व जत्थ न वसन्ति। ___ जत्थ य भणंति ठंते, ओहाणं देह गेहे वि॥ जिस वसति में प्राभृतिका बलि की जाती हो, दीपक जलाया जाता हो अथवा अग्नि आदि का जहां प्रकाश होता हो वहां वे मुनि नहीं रहते। जहां रहते हैं वहां यदि गृहस्थ कहे कि आप हमारे घर का भी अवधान-ध्यान रखें-ऐसे स्थान में भी वे मुनि न रहें। १३९६. वसहिं अणुण्णवितो, जइ भण्णइ कइ जण त्थ तो न बसे। सुहुमं पि न सो इच्छइ, परस्स अप्पत्तियं भगवं॥ वसति की अनुज्ञा देते हुए यदि वसतिस्वामी कहे-आप यहां कितने मुनि रहेंगे? मुनि वहां न रहे। क्योंकि जिनकल्पी मुनि दूसरों की सूक्ष्म अप्रीति की भी इच्छा नहीं करते। १३९७.तइयाइ भिक्खचरिया, पग्गहिया एसणा य पुव्वुत्ता। एमेव पाणगस्स वि, गिण्हइ अ अलेवडे दो वि॥ जिनकल्पी मुनि तीसरे प्रहर में भिक्षाचर्या करते हैं। वे अभिग्रहयुक्त एषणा करते हैं। यह गाथा १३६२ में पहले बताया जा चुका है। इसी प्रकार पानक के विषय में ज्ञातव्य है। वे भक्त-पान दोनों अलेपकृत ग्रहण करते हैं। १३९८.आयंबिलं न गिण्हइ, जं च अणायंबिलं पि लेवाडं। न य पडिमा पडिवज्जइ, मासाई जा य सेसाओ॥ ये जिनकल्पी आचाम्ल ग्रहण नहीं करते और जो अनाचाम्ल है, वह भी लेपकृत ग्रहण नहीं करते। ये मास प्रतिमाएं तथा शेष कोई भी प्रतिमा स्वीकार नहीं करते। बृहत्कल्पभाष्यम् १३९९.कप्पे सुत्त-ऽत्थविसारयस्स संघयण-विरियजुत्तस्स। जिणकप्पियस्स कप्पइ, अभिगहिया एसणा निच्चं॥ जिनकल्प विषयक जो सूत्र और अर्थ में विशारद है, जो संहनन और धृति से युक्त है, ऐसे जिनकल्पी मुनि के नित्य अभिग्रहयुक्त एषणा कल्पती है। १४००.छव्वीहीओ गाम, काउं एक्किक्कियं तु सो अडइ। वज्जेउं होइ सुह, अनिययवित्तिस्स कम्माई।। जिनकल्पी मुनि जहां मासकल्प करते हैं वे उस ग्राम को छह पंक्तियों में विभाजित करके प्रतिदिन एक-एक पंक्ति में घूमते हैं। इस प्रकार अनियतवृत्ति वाले उन मुनियों के आधाकर्म आदि दोष सुखपूर्वक अर्थात् सहजरूप से वर्जित हो जाते हैं। १४०१.अभिग्गहे दटुं करणं, भत्तोगाहिमग तिन्नि पूईय। चोदग! एगमणेगे, कप्पो त्ति य सत्तमे सत्त॥ जिनकल्पी मुनि के अभिग्रहों को देखकर कोई श्रावक आधाकर्म आदि भोजन बना दे। वह भोजन अवगाहिम हो सकता है। तीन दिनों के पश्चात् वह पूतिक हो जाता है। शिष्य प्रश्न करता है-भंते! एक ही गांव के वे छहवीथियां क्यों करते हैं? आचार्य कहते हैं ऐसा करना उनका कल्प है। सातवें दिन पुनः वे पहली वीथि में आते हैं। एक वसति में सात जिनकल्पी मुनि रह सकते हैं। १४०२ दट्टण य अणगारं, सड्डी संवेगमागया काइ। नत्थि महं तारिसयं, अन्नं जमलज्जिया दाह ।। अनगार को देखकर कोई श्राविका संवेग को प्राप्त होकर सोचती है-मैं ऐसे अनगार को भी भिक्षा नहीं दे सकती। मेरे पास ऐसा अन्न-भोजन नहीं है कि मैं अलज्जित होकर दूं। १४०३.सव्वपयत्तेण अहं, कल्लं काऊण भोअणं विउलं। दाहामि तुट्ठमणसा, होहिइ मे पुण्णलाभो ति॥ कल मैं सर्वप्रयत्न से विपुल भोजन सामग्री बनाकर प्रसन्नमन से अनगार को भिक्षा दूंगी। इससे मुझे महान् पुण्य लाभ होगा। १४०४.फेडित वीही तेहिं, अणंतवरनाण-दंसणधरेहिं। अद्दीण अपरितंता, बिइयं च पहिंडिया तहियं। वे अनंतवरज्ञानदर्शनधर जिनकल्पी अनगार उस दिन उस वीथि को छोड़कर मन से अविषण्ण और अपरितान्त होते हुए दूसरी वीथि में पर्यटन करने लगे। १४०५.पढमदिवसम्मि कम्म, तिन्नि उ दिवसाई पूइयं होइ। पूतीसु तिसु न कप्पइ, कप्पइ तइओ जया कप्पो॥ अनगार के लिए जो भक्त उपस्कृत किया वह पहले दिन आधाकर्म था। तीन दिनों तक वह गृह पूति हो जाता है। उस Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = १४७ पूतिगृह में तीन दिनों तक साधु को कुछ भी ग्रहण करना नहीं कल्पता। जब तीसरा कल्प' अर्थात् दिन बीत जाता है तब कल्पता है। १४०६.बिइयदिवसम्मि कम्म, तिन्नि उ दिवसाई पूइयं होइ। तिसु कप्पेसु न कप्पइ, कप्पइ तं छट्ठदिवसम्मि॥ पूर्व गाथा का स्पष्टार्थ इस प्रकार है-पहले दिन श्राविका ने अनगार को घूमते देख दूसरे दिन आधाकर्म भक्त तैयार किया। तदनन्तर तीन दिन तक पूतिक होता है, उन तीन कल्पों-दिनों तक उसका ग्रहण नहीं कल्पता। किन्तु वह छठे दिन कल्पता है। १४०७.कल्लं से दाहामी, ओगाहिमगं न आगतो अज्ज। तइयदिवसाइतं होइ पूइयं कप्पए छटे॥ श्राविका ने मुनि के लिए अवगाहितपाक तैयार किया। उस दिन मुनि नहीं आए। उसने सोचा-मैं कल उनको यह दान दूंगी। उसने मुनि के लिए वह अवगाहिमपाक स्थापित कर दिया। वह पाक तीसरे दिन भी आधाकर्म ही होगा। तीन दिनों तक पूतिक। छठे दिन उसका ग्रहण कल्पता है। १४०८.एमेवोगाहिमगं, नवरं तइयदिवसे वि तं कम्म। तिसु पूइयं न कप्पइ, कप्पइ तं सत्तमे दिवसे॥ भक्त की भांति अवगाहिम तीसरे दिन भी आधाकर्म, तदनन्तर तीन दिनों तक वह गृह पूतिक होता है। वहां उस काल में कुछ भी लेना नहीं कल्पता, किन्तु वह गृह सातवें दिन कल्पता है। १४०९. चोयग! तं चेव दिणं, जइ वि करिज्जाहि कोइ कम्माई। न हु सो तं न वियाणइ, एसो पुण सिं अहाकप्पो।। शिष्य! यदि कोई उसी दिन आधाकर्म भक्त बना दे, तो ऐसी बात नहीं है कि अनगार उसको नहीं जानता, वह श्रुतोपयोग से जान लेता है। शिष्य पूछता है यदि वे श्रुतोपयोग से जान लेते हैं तो फिर गांव के अनेक विभाग कर क्यों पर्यटन करते है? आचार्य कहते हैं-यह उनका कल्प है। वे सातवें दिन पुनः प्रथम वीथि में भक्तपान के लिए घूमते हैं। १४१०.किं नागय त्थ तइया, असव्वओ मे कओ तुह निमित्तं। इइ पुट्ठो सो भगवं, बिइयाएसु इमं भणइ॥ श्राविका कहती है-भंते ! आप उस समय क्यों नहीं आए? मैंने आपके लिए विपुल भक्तपान तैयार किया था। इस प्रकार पूछने पर अनगार मौन रहते हैं। इस विषय में आदेशान्तर इस प्रकार है१. कल्पशब्देनेह दिवस उच्यते। (वृ. पृ. ४२२) १४११.अनियताओ वसहीओ, भमरकुलाणं च गोकुलाणं च। समणाणं सउणाणं, सारइआणं च मेहाणं॥ श्राविका द्वारा पूछे जाने पर अनगार कहते हैं जैसे भ्रमरकुलों का, गोकुल का, श्रमणों का, पक्षियों का तथा शारदीय मेघों का अवस्थान और परिभ्रमण अनियत होते हैं वैसे ही हमारे वसतियां और परिभ्रमण अनियत होते हैं, अनियतवृत्ति में आधाकर्म आदि की प्रवृत्ति नहीं होती। १४१२.एक्काए वसहीए, उक्कोसेणं वसंति सत्त जणा। __ अवरोप्परसंभासं, चयंति अन्नोन्नवीहिं च॥ जिनकल्पी मुनि एक वसति में उत्कृष्टतः सात रहते हैं। वे परस्पर के संभाषण का और अन्योन्य वीथि में पर्यटन का परित्याग करते हैं अर्थात् जिस दिन जिस वीथि में एक जिनकल्पी जाता है, उसी में दूसरा मुनि नहीं जाता। १४१३.खेत्ते काल चरित्ते, तित्थे परियाय आगमे वेए। कप्पे लिंगे लेसा, झाणे गणणा अभिगहा य॥ १४१४.पव्वावण मुंडावण, मणसाऽऽवन्ने वि से अणुग्घाया। कारण निप्पडिकम्मे, भत्तं पंथो य तइयाए॥ उन जिनकल्पी मुनियों के स्थिति संबंधी १९ विषय हैं१. क्षेत्र ११. ध्यान २. काल १२. गणना ३. चारित्र १३. अभिग्रह ४. तीर्थ १४. प्रव्राजना ५. पर्याय १५. मुंडापना ६. आगम १६. मानसिक अपराध में भी ७. वेद - अनुद्घात प्रायश्चित्त ८. कल्प १७. कारण ९. लिंग १८. निष्प्रतिकर्म १०. लेश्या १९. भक्त और पंथविहार-तीसरे प्रहर में। १४१५.जम्मण-संतीभावेसु होज्ज सव्वासु कम्मभूमीसु। साहरणे पुण भइयं, कम्मे व अकम्मभूमे वा।। क्षेत्र की मार्गणा के दो प्रकार है-जन्म से तथा सद्भाव से। जन्म क्षेत्र वह है जहां जन्म होता है। सदभाव क्षेत्र वह है जहां जिनकल्प स्वीकार किया जाता है अथवा किया गया है। दोनों प्रकार सभी कर्मभूमियों में हो सकते हैं। देवता द्वारा संहरण किए जाने पर कर्मभूमी अथवा अकर्मभूमी में हो सकता है। यह सद्भाव की अपेक्षा से है। जन्मतः तो कर्मभूमी में ही होता है। १४१६.ओसप्पिणीइ दोसुं, जम्मणतो तीसु संतिभावेणं। उस्सप्पिणि विवरीया, जम्मणतो संतिभावे य॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिार १४१७.नोसप्पिणिउस्सप्पे, भवंति पलिभागतो चउत्थम्मि। काले पलिभागेसु य, साहरणे होति सव्वेसु॥ अवसर्पिणी काल में जन्म से दो अरों में-तीसरे-चौथे अर में तथा सदभावतः तीन अरों में तीसरे, चौथे और पांचवें में। उत्सर्पिणी काल में जन्मतः और सद्भाव से इससे विपरीत होता है अर्थात् जन्मतः दुःषमा, दुषमसुषमा और सुषमदुःषमा-इन तीन अरों में जिनकल्पी का जन्म हो सकता है। जिनकल्प का स्वीकार दुःषमसुषमा और सुषम-दुःषमा-इन दो अरों में होता है। दुःषमा में जन्म लेने पर भी, तीर्थ के अभाव में, जिनकल्प की प्रतिपत्ति दुःषमसुषमा में ही होती है। जिन क्षेत्रों में नोउत्सर्पिणी-अवसर्पिणी है अर्थात् वहां काल अवस्थित हैं उनके चार प्रतिभाग हैं सुषमसुषमापनिभाग, सुषमाप्रतिभाग, सुषमदुःषमाप्रतिभाग और दुःषमसुषमाप्रतिभाग। पहला प्रतिभाग देवकुरु-उत्तरकुरु में, दूसरा हरिवर्ष-रम्यक्वर्ष में, तीसरी हैमवत-ऐरण्यवत में और चौथा महाविदेह में। चौथे प्रतिभाग में जन्मतः और सद्भावतः जिनकल्पी मुनि होते हैं। 'काल' अर्थात् महाविदेहज जो जिनकल्पी होता है, संहरण की अपेक्षा वह सुषमसुषमा आदि सभी कालों में होता है। 'पलिभागों में' अर्थात् भरत-ऐरावतमहाविदेह में संहरण से संभूत जिनकल्प मुनि सभी प्रतिभागों में होते हैं। १४१८.पढमे वा बीये वा, पडिवज्जइ संजमम्मि जिणकप्पं। पुव्वपडिवन्नओ पुण, अन्नयरे संजमे होज्जा। जो पहले चारित्र-सामायिक चारित्र में अथवा दूसरे चारित्र-छेदीपस्थापनीय चारित्र में होता है, वह जिनकल्प स्वीकार करता है। (मध्यम तीर्थंकर-विदेहतीर्थकृत, तीर्थवर्ती मुनि प्रथम संयम में तथा पूर्व-पश्चिम तीर्थकर तीर्थवर्ती मुनि दूसरे चारित्र में) पूर्वप्रतिपन्न जिनकल्पी मुनि अन्यतर संयमसूक्ष्मसंपराय आदि संयम में हो सकता है। १४१९.नियमा होइ सतित्थे, गिहिपरियाए जहन्न गुणतीसा। जइपरियाए वीसा, दोसु वि उक्कोस देसूणा।। जिनकल्पी नियमतः तीर्थ में होते हैं। जघन्य गृहस्थपर्याय उनतीस वर्ष का तथा यतिपर्याय भी जघन्य बीस वर्ष का होना चाहिए। दोनों का उत्कृष्ट पर्याय जब देशोनपूर्वकोटी प्राप्त होता है तब जिनकल्प का स्वीकार होता है। १४२०.न करिति आगमं तं, इत्थीवज्जो उ वेदो इक्कतरो। पुव्वपडिवन्नओ पुण, होज्ज सवेओ अवेओ वा॥ वे आगम-अपूर्वश्रुताध्ययन नहीं करते, पूर्व अधीत श्रुत १. पहली बार स्वीकार करने वाला द्रव्य-भावलिंगयुक्त ही होता है। आगे नियमतः भावलिंग होता है। द्रव्यलिंग जीर्ण हो जाने पर =बृहत्कल्पभाष्यम् का स्मरण अवश्य करते हैं। प्रतिपत्ति काल में स्त्रीवेट को छोड़कर पुरुषवेद अथवा नपुंसकवद उनके होता है। पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा वे सवेद अथवा अवेद होते हैं। (जिनकल्पिक को उसी भव में केवलोत्पत्ति नहीं होती। उपशमश्रेणी में वेद का उपशमन होने पर अवेद होते हैं। शेष काल में सवेद हैं।) १४२१.ठियमट्ठियम्मि कप्पे, लिंगे भयणा उ दव्वलिंगेणं। तिहि सुद्धाहि पढमया, अपढमया होज्ज सव्वासु॥ जिनकल्पिक प्रथम और अंतिम तीर्थंकर काल में स्थितकल्प में तथा मध्यम तीर्थंकर तथा महाविदेह तीर्थंकर काल में अस्थितकल्प में होते हैं। लिंग के विषय में द्रव्यलिंग से भजना है। प्रथमतः स्वीकार करने वाले तेजोलेश्या आदि तीन प्रशस्त लेश्याओं में होते हैं अप्रथमक सभी लेश्याओं में होते हैं। १४२२.धम्मेण उ पडिवज्जइ, इअरेसु वि होज्ज इत्थ झाणेसु। पडिवत्ति सयपुहुत्तं, सहसपुहुत्तं च पडिवन्ने। जिनकल्प का स्वीकार धर्म्यध्यान में होता है। पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा इतर ध्यानों में भी यह होता है। प्रतिपत्ति की अपेक्षा जिनकल्पिक एक समय में शतपृथक्त्व प्राप्त हो सकते हैं और पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से सहस्रपृथक्त्व प्राप्त हो सकते हैं। ९४२३.भिक्खायरियाईया, अभिग्गहा नेव सो उ पव्वावे। उवदेसं पुण कुणती, धुवपव्वाविं वियाणित्ता॥ उनके भिक्षाचर्या आदि के अभिग्रह नहीं होते। वे किसी को प्रव्रजित नहीं करते। वे निश्चित प्रवजित होने वाले को जानकर उपदेश देते हैं। १४२४.निप्पडिकम्मसरीरा, न कारणं अत्थि किंचि नाणाई। जंघाबलम्मि खीणे, अविहरमाणो वि नाऽऽवज्जे॥ वे शरीर का कोई परिकर्म नहीं करते। उनके कोई ज्ञान आदि का कारण-आलंबन नहीं होता जिससे वे अपवादपद का सेवन करें। जंघाबल के परिक्षीण हो जाने से विहार न करने पर भी उनके कोई दोष उत्पन्न नहीं होता। १४२५.एसेव कमो नियमा, सुद्धे परिहारिए अहालंदे। नाणत्ती य जिणेहिं, पडिवज्जइ गच्छ गच्छो य॥ यही क्रम नियमतः शुद्धपरिहारिक तथा यथालंदिक का जानना चाहिए। जिनकल्प के साथ शुद्धपरिहारिक का नानात्व है। तीन गच्छ इस जिनकल्प को स्वीकार करते हैं। १४२६.तवभावणणाणतं, करंति आयंबिलेण परिकम्म। इत्तिरिय थेरकप्पे, जिणकप्पे आवकहियाओ॥ अथवा चोरों द्वारा अपहृत किए जाने पर द्रव्यलिंग कदाचिद् नहीं भी होता। For Private &Personal use only. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक इनके तपोभावना में नानात्व होता है। वे आचाम्ल द्वारा परिकर्म-अभ्यास करते हैं। वे दो प्रकार के होते हैं-इत्वर और यावत्कथिक। जो इस कल्प के संपन्न होने पर पुनः स्थविर-कल्प स्वीकार करते हैं वे इत्वर तथा जो जिनकल्प स्वीकार करते हैं वे यावत्कथिक। १४२७. पुण्णे जिणकप्पं वा, अइंति तं चेव वा पुणो कप्पं। गच्छं वा इंति पणो, तिन्नि विहाणा सिं अविरुद्धा॥ शुद्धपरिहारिककल्प पूर्ण होने पर जो जिनकल्प में आते हैं अथवा उसी परिहारिकल्प का पालन करते हैं अथवा गच्छ में पुनः आ जाते हैं। ये तीनों प्रकार के विधान उन परिहारिकों के अविरुद्ध हैं। १४२८.इत्तरियाणुवसग्गा, आतंका वेयणा य न भवंति। य न भवाता __ आवकहियाण भइया, तहेव छ ग्गामभागा उ॥ इत्वर शुद्धपरिहारिकों के आतंक और वेदना का उपसर्ग नहीं होता। यावत्कथिकों के इसकी भजना है अर्थात् वे जिनकल्प में स्थित होने के कारण उनकी संभावना रहती है। जैसे जिनकल्पी मुनि भिक्षाटन के लिए गांव के छह भाग करते हैं वैसे ही शुद्धपरिहारिक की भी सामाचारी है। १४२९.खेत्ते काल चरित्ते, तित्थे परियाय आगमे वेए। कप्पे लिंगे लेसा, झाणे गणणा अभिगहा य॥ १४३०.पव्वावण मुंडावण, मणसाऽऽवन्ने वि से अणुग्घाया। कारण निप्पडिकम्मा, भत्तं पंथो य तइयाए॥ क्षेत्र, काल, चारित्र, तीर्थ, पर्याय, आगम, वेद, कल्प, लिंग, लेश्या, ध्यान, गणना, अभिग्रह, प्रव्राजना, मुंडापना, मानसिक दोष में भी अनुद्घात प्रायश्चित्त, कारण, निष्प्रतिकर्म, भक्त, पंथ-विहार तीसरे प्रहर में। (इनका संक्षिप्त तथा व्यासार्थ पूर्ववत् गाथा १०१३-१४ आदि- आदि में।) १४३१.खेते भरहेरवएसु होति साहरणवज्जिया नियमा। ठियकप्पम्मि उ नियमा, एमेव य दुविह लिंगे वि॥ ये भरत-ऐरावत-इन दो क्षेत्रों में होते हैं। इनका संहरण नहीं किया जा सकता। ये नियमतः स्थितकल्प में होते हैं तथा नियमतः ये दोनों लिंग-द्रव्य और भाव-में होते हैं। १४३२.तुल्ल जहन्ना ठाणा, संजमठाणाण पढम-बितियाणं। तत्तो असंख लोए, गंतुं परिहारियट्ठाणा॥ १४३३.ते वि असंखा लोगा, अविरुद्धा ते वि पढम-बिइयाणं। उवरिं पि ततो असंखा, संजमठाणा उ दोण्हं पि॥ पहले तथा दूसरे संयमस्थानों (सामायिक तथा छेदोपस्थाप्य चारित्र) के जो जघन्य स्थान हैं, वे तुल्य होते हैं। इनसे आगे असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाण संयमस्थानों के व्यतीत होने पर परिहारविशुद्धि चारित्र के संयमस्थान होते हैं। वे भी असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाण वाले होते हैं। ये भी प्रथम और द्वितीय चारित्र की विशुद्धि की विशेष समता के कारण अविरुद्ध होते हैं। तदनन्तर परिहारविशुद्धि चारित्र के संयमस्थानों से ऊपर सामायिक, छेदोपस्थापनीय चारित्र दोनों के संयमस्थान होते हैं अतः ये दोनों चारित्र व्यवच्छिन्न हो जाते हैं। (तदनन्तर सूक्ष्मसंपराय चारित्र के अंतर्मुहर्तसमयप्रमाण वाले असंख्येय संयमस्थान होते हैं। फिर उनसे अनंतगुण यथाख्यातचारित्र का एक संयमस्थान होता है। १४३४.सट्ठाणे पडिवत्ती, अन्नेसे वि होज्ज पुव्वपडिवन्नो। अन्नेसु वि वढ्तो, तीयनयं वुच्चई पप्प॥ स्वस्थान अर्थात् परिहारविशुद्धिकचारित्र वाले संयमस्थानों में वर्तमान मुनि परिहारकल्प की प्रतिपत्ति करता है। पूर्वप्रतिपन्न मुनि सामायिकादि अन्य संयमस्थानों में स्वसंयमस्थानों की अपेक्षा से विशुद्ध होने पर होता है। अन्य संयमस्थानों में वर्तमान भी वह अतीतनय अर्थात् व्यवहारनय की अपेक्षा से उसे परिहारविशुद्धिक कहा जाता है। १४३५.गणओ तिन्नेव गणा, जहन्न पडिवत्ति सयसो उक्कोसा। उक्कोस-जहन्नेणं, सतसो च्चिय पुव्वपडिवन्ना॥ गणना दो प्रकार से होती है-गणप्रमाण से तथा पुरुषप्रमाण से। गणप्रमाण से जघन्यतः तीन गण ही इसकी प्रतिपत्ति करते हैं और उत्कर्षतः शतशः अर्थात् शतपृथक्त्वसंख्या में कल्प की प्रतिपत्ति करते हैं। जो पूर्वप्रतिपन्न हैं वे उत्कर्षतः तथा जघन्यतः शतपृथक्त्वसंख्याक होते हैं। १४३६.सत्तावीस जहन्ना, सहस्स उक्कोसतो उ पडिवत्ती। सयसो सहस्ससो वा, पडिवन्ना जहन्न उक्कोसा।। जघन्यतः सत्तावीस पुरुष और उत्कर्षतः सहस्रपृथक्त्व व्यक्ति इस कल्प को स्वीकार करते हैं। पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा जघन्यतः शतपृथक्त्व तथा उत्कर्षतः सहस्रपृथक्त्व। १४३७.पडिवज्जमाण भइया, इक्को विउ होज्ज ऊणपक्खेवे। पुव्वपडिवन्नया वि उ, भइया इक्को पुहुत्तं वा॥ इस कल्प में प्रतिपद्यमानक पुरुष विकल्पित होते हैं, जैसे-ऊनप्रक्षेप में एक भी हो सकता है और दो भी। पूर्वप्रतिपन्न भी विकल्पित हैं-एक भी और पृथक्त्व भी। १४३८.लंदो उ होइ कालो, उक्कोसगलंदचारिणो जम्हा। तं चिय मज्झ पमाणं, गणाण उक्कोस पुरिसाणं ।। लंद का अर्थ है-काल। वह तीन प्रकार का है-जघन्य, Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० बृहत्कल्पभाष्यम् उत्कृष्ट और मध्यम।' प्रस्तुत में उत्कृष्टलंद का प्रसंग है। विकल्प है। जिनकल्पी मुनि पाणिपात्र और वस्त्ररहित भी उत्कृष्टलंदचारी वे होते हैं जो उत्कृष्टलंद अर्थात् पंचरात्ररूप होते हैं और पात्रसहित तथा वस्त्रसहित भी होते हैं। एक ही वीथी में चरणशील होते हैं, उसका अतिक्रमण नहीं १४४३.गणमाणओ जहन्ना, तिन्नि गण सयग्गसो य उक्कोसा। करते यह यथालंद होता है। विकलक्षणप्रमाण वाला पुरिसपमाणे पनरस, सहस्ससो चेव उक्कोसा॥ गणप्रमाण मध्यम लंदमान होता है अर्थात तीन गण उस गणप्रमाण के अनुसार जघन्यतः तीन गण और उत्कर्षतः कल्प को स्वीकार करते हैं। वह एक-एक गण में पांच शताग्रशः-शतपृथक्त्वगण। पुरुषप्रमाण के आधार पर जघन्य पुरुषप्रमाण वाला होने पर उत्कृष्ट लंदमान कहलाता है। पन्द्रह पुरुष और उत्कर्षतः सहस्रपृथक्त्व। १४३९.ज च्चेव य जिणकप्पे, मेरा सा चेव लंदियाणं पि। १४४४.पडिवज्जमाणगा वा, एक्कादि हवेज्ज ऊणपक्खेवे। नाणत्तं पुण सुत्ते, भिक्खायरि मासकप्पे य॥ होति जहन्ना एए, सयग्गसो चेव उक्कोसा॥ जो जिनकल्पिकों की मर्यादा सामाचारी है, वही ये प्रतिपद्यमान जघन्यतः एक आदि हो सकते हैं, न्यूनयथालंदिक मुनियों की है। उनमें नानात्व इन विषयों में प्रक्षेप के बाद।३ सौ व्यक्तियों का न्यूनप्रक्षेप होने पर हे सूत्र, भिक्षाचर्या, मासकल्प तथा प्रमाण। प्रतिपद्यमानकों की उत्कृष्ट संख्या होती है। १४४०.पडिबद्धा इअरे वि य, इक्किक्का ते जिणा य थेरा य। १४४५.पुव्वपडिवन्नगाण वि, उक्कोस-जहन्नसो परीमाण। __ अत्थस्स उ देसम्मी, असमत्ते तेसि पडिबंधो॥ कोडिपुहुत्तं भणियं, होइ अहालंदियाणं तु॥ यथालंदिक के दो प्रकार हैं-गच्छप्रतिबद्ध और पूर्व प्रतिपन्नक यथालंदिकों का जघन्य और उत्कृष्ट गच्छमुक्त। प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं-जिन और स्थविर। जो परिमाण कोटिपृथक्त्व कहा गया है। (पांच महाविदेह में यथालंद कल्प की परिसमाप्ति पर जिनकल्प स्वीकार करते जघन्य परिमाण और पन्द्रह कर्मभूमियों में उत्कृष्ट परिमाण।) हैं वे जिन कहलाते हैं तथा पुनः स्थविरकल्प में जाते हैं वे १४४६.पव्वज्जा सिक्खापय, अत्थग्गहणं च अनियओ वासो। स्थविर कहलाते हैं। सूत्र के अर्थ का एकदेश अभी तक गुरु निप्फत्ती य विहारो, सामायारी ठिई चेव।। के पास समाप्त नहीं हुआ है, अर्थग्रहण पर्यन्त वे गच्छ से प्रव्रज्या, शिक्षापना, अर्थग्रहण, अनियतवास तथा शिष्य प्रतिबद्ध होते हैं, उनका प्रतिबंध रहता है। (भिक्षाचर्या में की निष्पत्ति ये पूर्ववर्णित जिनकल्प के तुल्य हैं। विहार की नानात्व-गांव के छह भाग कर प्रत्येक भाग में पांच-पांच दिन स्थिति और सामाचारी इस प्रकार है। पर्यटन करते हैं।) १४४७.निप्फतिं कुणमाणा, थेरा विहरंति तेसिमा मेरा। १४४१.थेराणं नाणत्तं, अतरंतं अप्पिणंति गच्छस्स। आयरिय उवज्झाया, भिक्खू थेरा य खुड्डा य॥ ते वि य से फासुएणं, करिति सव्वं तु पडिकम्म॥ शिष्य की निष्पत्ति करते हुए स्थविर अर्थात् गच्छवासी १४४२.एक्केक्कपडिग्गहगा, सप्पाउरणा हवंति थेराओ। मुनि अप्रतिबद्ध विहार करते हैं। विहार की यह सामाचारी है। जे पुण सिं जिणकप्पे, भय तेसिं वत्थ-पायाणि॥ गच्छवासी मुनि पांच प्रकार के हैं-आचार्य, उपाध्याय, भिक्षु, स्थविर कल्प यथालंदिकों की यह विशेष सामाचारी है स्थविर और क्षुल्लक। कि वे अपने ग्लान साधु को गच्छ को समर्पित कर देते हैं। १४४८.धीरपुरिसपन्नत्तो, सप्पुरिसनिसेविओ अ मासविही। गच्छवासी मुनि भी उसकी प्राशुक अन्न-पान से सारा तस्स पडिलेहगा पुण, सुत्तत्थविसारगा भणिया।। प्रतिकर्म करते हैं। (जिनकल्प स्वीकार करने वाले यथालंदिक धीर पुरुषों द्वारा प्रज्ञप्त तथा सत्पुरुषों द्वारा निषेवित मुनि अपने ग्लान साधु को गच्छ को समर्पित नहीं करते।) वे मासकल्पविधि है। उसकी प्रतिलेखना करने वाले साधु स्थविरयथालंदिक प्रत्येक मुनि एक-एक पतद्ग्रह सहित होते सूत्रार्थविशारद कहे गए हैं। हैं। वे सप्रावरणक-सवस्त्र होते हैं। उनमें से जो जिनकल्प १४४९.वासावासातीए, अट्ठसु चारो अतो उ सरदाई। ग्रहण करने वाले होते हैं, उनके वस्त्र-पात्र की भजना पडिलेह-संकमविही, ठिए अ मेरं परिकहेह।। १. जघन्यलंद-जितने समय में उदकार्द्र हाथ सूखता है, वह काल। लंबे समय के बाद प्राप्त होंगे अथवा प्राप्त न भी हों, तो वे अर्थदश को उत्कृष्टलंद-पांच रात-दिन एक ही वीथी में चरणशील। बिना समाप्त किए ही उस कल्प को स्वीकार कर लेते हैं और गुरु मध्यमलंद-दोनों के बीच का काल। द्वारा अधिष्ठित क्षेत्र से बाह्य क्षेत्र में व्यवस्थित होकर विशेष अनुष्ठान २. शिष्य पूछता है-वे शेष अर्थदश को समाप्त कर विवक्षित कल्प को में रत रहकर उस अवशिष्ट अर्थदश को ग्रहण करते हैं। स्वीकार क्यों नहीं करते? आचार्य कहते हैं-उसी समय ही लग्न, ३. अपना कोई मुनि ग्लान हो गया हो तो उसको गच्छ को सौंपने से यह योग, चन्द्र आदि प्रशस्त होते हैं। अन्य ऐसे प्रशस्त लग्न आदि बहुत न्यूनता होगी। धार 3 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक वर्षावास के अतीत हो जाने पर आठ मास तक विहार होता है। उसे शरदादि कहा जाता है। क्षेत्रप्रत्युपेक्षणविधि तथा क्षेत्रसंक्रमणविधि और उस क्षेत्र में स्थित मुनियों की मर्यादा कहूंगा। १४५०.निग्गमणम्मि उ पुच्छा, पत्तमपत्ते अइच्छिए वा वि। वाघायम्मि अपत्ते, अइच्छिए तस्स असतीए। वर्षावास क्षेत्र से निर्गमन विषयक यह पृच्छा होती है कि क्या कार्तिकचातुर्मासिक प्राप्त होने पर वहां से विहार करना चाहिए अथवा अप्राप्त होने पर अथवा उसके अतिक्रांत होने पर? यदि कोई व्याघात होता है तो कार्त्तिकचातुर्मासिक अप्राप्त होने पर अथवा अतिक्रांत होने पर भी विहार किया जा सकता है। यदि व्याघात नहीं है तो कार्तिकचातुर्मासिक के दिन (मृगशिर की प्रतिपदा) विहार करना होता है। १४५१.पत्तमपत्ते रिक्खं, असाहगं पुण्णमासिणिमहो वा। पडिकूल त्ति य लोगो, मा वोच्छिइ तो अईयम्मि॥ कार्तिकचातुर्मासिक दिन प्राप्त हो अथवा नहीं यदि आचार्य के विहार के लिए नक्षत्र साधक न हो, अनुकूल न हो, उस दिन पौर्णमासी का उत्सव हो तो उस दिन के अतीत होने पर ही वहां से निर्गमन करना चाहिए। अन्यथा लोग कहेंगे कि ये साधु हमारे उत्सव के प्रतिकूल हैं। १४५२.पत्ते अइच्छिए वा, असाहगं तेण णिति अप्पत्ते। नाउं निग्गमकालं, पडिचरए पेसविंति तहा॥ निर्गमनकाल के प्राप्त होने पर अथवा अतिक्रांत होने पर भी नक्षत्र असाधक है, यह जानकर कार्तिक चातुर्मासिक दिन प्रास न होने पर भी मुनि विहार कर देते हैं। निर्गमनकाल को जानकर प्रतिचरक अर्थात् क्षेत्रप्रत्युपेक्षकों को इस प्रकार भेजते हैं कि उनके लौट आने पर ही निर्गमनकाल की घोषणा करते हैं। १४५३. अप्पडिलेहियदोसा, वसही भिक्खं व दुल्लह होज्जा। बालाइ-गिलाणाण व, पाउग्गं अहव सज्झाओ॥ १४५४.तम्हा पुव्विं पडिलेहिऊण पच्छा विहीए संकमणं। पेसेइ जइ अणापुच्छिउं गणं तत्थिमे दोसा॥ अप्रत्युपेक्षित क्षेत्र में जाने पर ये दोष आते हैं जो पूर्व में ज्ञात वसति थी, वह गिर गई हो अथवा और किसी कारण से उपलब्ध न हो, भिक्षा वहां दुर्लभ हो, बाल तथा ग्लान मुनियों के प्रायोग्य आहार आदि प्रास न हो तथा स्वाध्याय यथावत् न हो पाता हो। इसलिए पहले क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा कर तदनन्तर विधिपूर्वक संक्रमण करना चाहिए। यदि आचार्य गण को बिना पूछे क्षेत्रप्रत्युपेक्षकों को भेजते हैं तो निम्नोक्त दोष प्राप्त होते हैं। १४५५.तेणा सावय मसगा, ओमऽसिवे सेहइत्थि पडिणीए। थंडिल्ल वसहि उट्ठाण एवमाई भवे दोसा।। स्तेनों द्वारा उपधि का अपहरण, श्वापदों का तथा मशकों का उपद्रव, दुर्भिक्ष, अशिव-व्यन्तरकृत उपद्रव, शैक्ष मुनियों के लिए स्त्रियों का उपसर्ग, प्रत्यनिक द्वारा उपस्थापित उपद्रव, स्थंडिल भूमी का अभाव, वसति का न मिलना, गांव का उजड़ जाना-आदि अनेक दोष होते हैं। १४५६.पच्चंत तावसीओ, सावय दुब्भिक्ख तेणपउराई। ___ नियग पउट्ठाणे, फेडणया हरियपत्ती य॥ वहां जाने पर ये दोष हो सकते हैं-म्लेच्छों का उपद्रव, तापसियों द्वारा संयमच्युत करने का प्रयत्न, श्वापदों का तथा दुर्भिक्ष का भय, चोरों की प्रचुरता, निज व्यक्तियों द्वारा उत्प्रव्राजन का प्रयत्न, प्रद्विष्ट व्यक्तियों का उपसर्ग, स्थान का उजड़ जाना, वसति का भंग हो जाना, हरित पत्रशाक' खाने की प्रचुरता। १४५७.सीसे जइ आमंते, पडिच्छगा तेण बाहिरं भावं। जइ इअरे तो सीसा, ते वि समत्तम्मि गच्छंति॥ १४५८.तरुणा बाहिरभाव, न य पडिलेहोवहिं न किइकम्म। मूलगपत्तसरिसगा, परिभूया वच्चिमो थेरा।। यदि क्षेत्र-प्रत्युपेक्षण के निमित्त समूचे संघ को आमंत्रित नहीं करते हैं तो ये दोष प्राप्त होते हैं यदि आचार्य इस विषय में अपने शिष्यों को ही आमंत्रित करते हैं पूछते हैं तो प्रतीच्छक शिष्य उससे बाह्यभाव को प्राप्त हो जाते हैं। यदि प्रतीच्छक शिष्यों को पूछते हैं तो अपने शिष्य बाह्यभाव को प्राप्त हो जाते हैं। (वे सोचते हैं-गुरु के ये प्रतीच्छक शिष्य ही कृपापात्र हैं। इस स्थिति में हम इनकी सेवा क्यों करें।) वे प्रतीच्छक भी सूत्रार्थ-ग्रहण समाप्त होने पर अपने गच्छ में चले जाते हैं। यदि केवल वृद्ध मुनियों को आमंत्रित करते हैं तो तरुण मुनि बाह्यभाव को प्राप्त हो जाते हैं तब वे न गुरु आदि के उपकरणों का प्रत्युपेक्षण करते हैं, न स्थविरों के उपधि का वहन करते हैं और न कृतिकर्म करते हैं। यदि वे तरुण मुनियों गया है। अतः मारने पर भी हमें कोई दोष नहीं है। चूर्णिकार के अनुसार जब वहां आगंतुक का वध कर दिया जाता है तब उसके प्रियपुच्छक हरितशाखा लेकर आते हैं। अथवा वहां विष या गरल दे दिया जाता है आदि-आदि। १. हरियपत्ती-इस शब्द के दो अर्थ है-हरितपत्रशाक अथवा उस देश में कुछेक घरों पर आईवृक्षशाखा का चिह्न किया जाता है। वहां राजा द्वारा दंडित आगंतुक पुरुष की देवता को बलि चढ़ाई जाती है। उस चिह्न के द्वारा यह पूर्वसूचित कर दिया जाता है कि यहां वध किया Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ -बृहत्कल्पभाष्यम् को आमंत्रित करते हैं तो वृद्ध मुनि सोचते हैं हम मौलकपत्र दिशा सभी मुनियों द्वारा अनुमत हो तो उस दिशा में प्रस्थान अथवा परिपक्व पत्ते की भांति हो गए हैं अथवा हम कर दे। पहले चारों दिशाओं में गमन की बात सोचनी मूलकपत्र कंद विशेष के निस्सार पत्र की भांति हो गए हैं, चाहिए। यदि कहीं उपद्रव ज्ञात हो तो तीन दिशाओं में, फिर इसलिए हम यहां पराभव को प्राप्त हो रहे हैं। अतः हमें दो दिशाओं में तथा अंत में एक दिशा निर्धारित करनी गणान्तर में चले जाना चाहिए। चाहिए। प्रत्येक दिशा में उत्कृष्टरूप में सात मुनि, उनके १४५९.जुन्नमएहिं विहूणं, जं जूहं होइ सुट्ठ वि महल्लं। अभाव में पांच और जघन्यतः तीन मुनि।। तं तरुणरहसपोइअ, मयगुम्मइअं सुहं हंतुं॥ १४६४.वेयावच्चगरं बाल वुड खमयं वहंतऽगीयत्थं। जो मृगयूथ वृद्ध मृगों से रहित है, वह चाहे कितना ही गणवच्छेइअगमणं, तस्स व असती य पडिलोमं ।। बड़ा क्यों न हो, वह तारुण्य के वशीभूत तरुण मृगों की वैयावृत्यकर, बालमुनि, वृद्ध, क्षपक, योगवाही और चंचलता से त्रस्त तथा मद से घूर्णित चेतना वाला होने के अगीतार्थ इनको क्षेत्रप्रत्युपेक्षा के लिए नहीं भेजना चाहिए। कारण, उसका सहजता से विनाश किया जा सकता है। गणावच्छेदक का गमन हो सकता है। इनके अभाव में १४६०.आयरियअवाहरणे, मासो वाहित्तऽणागमे लहुओ। प्रतिलोमक्रम से भेजना चाहिए। अर्थात् अगीतार्थ, योगवाही वाहिताण य पुच्छा, जाणगसिटे तओ गमणं॥ के क्रम से भेजना चाहिए। यदि आचार्य गण को आमंत्रित नहीं करते हैं तो उन्हें १४६५.आइतिए चउगुरुगा, लहुओ मासो उ होइ चरिमतिए। मासलघु का प्रायश्चित्त आता है तथा आमंत्रित किए जाने पर आणाइणो विराहण, आयरियाई मुणेयव्वा।। जो नहीं आते हैं तो उन्हें भी मासलघु का प्रायश्चित्त आता यदि पहले तीन (वैयावृत्य आदि) को भेजने पर चारगुरुक है। गण को आमंत्रित कर पूछना चाहिए-किस क्षेत्र की का तथा अंतिम को भेजने पर लघुमास का प्रायश्चित्त आता प्रत्युपेक्षा करनी चाहिए। क्षेत्रस्वरूपज्ञ जिस क्षेत्र का कथन है। आज्ञा आदि दोष तथा आचार्य आदि की विराधना भी करता है वहां प्रस्थान करना चाहिए। जाननी चाहिए। १४६१.थुइमंगलमामंतण, नागच्छइ जो व पुच्छिओ न कहे। १४६६.ठवणकुले व न साहइ, सिट्ठा व न दिति जा विराहणया। तस्सुवरि ते दोसा, तम्हा मिलिएसु पुच्छिज्जा। परितावणमणुकंपण, तिण्हऽसमत्थो भवे खमओ। आमंत्रण-विधि-स्तुतिमंगल करने के पश्चात् गण को यदि वैयावृत्त्यकर को भेजा जाता है तो वह स्थापनाकुलों आमंत्रित करना चाहिए। आमंत्रित करने पर जो नहीं आता की जानकारी नहीं देता। यदि वह उनकी जानकारी देता भी है अथवा आने के पश्चात् पूछने पर क्षेत्र का स्वरूप नहीं तो वे कुल उसके अतिरिक्त किसी को कुछ नहीं देते। ग्लान बताता तो मासलघु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। उसके आदि के लिए प्रायोग्य की प्राप्ति न होने पर उनकी विराधना पश्चात् जो दोष होते हैं (चोरों का, श्वापदों का) वे वहां होती है। इससे आचार्य को प्रायश्चित्त आता है। क्षपक को जाने वालों के होंगे। इसलिए आमंत्रित सभी मुनियों को भेजने पर उसके परितापना होती है, उससे निष्पन्न पूछना चाहिए। प्रायश्चित्त भी गुरु को आता है। अथवा लोग क्षपक पर १४६२.केई भणंति पुब्विं, पडिलेहिय एवमेव गंतव्वं। अनुकंपा कर, यह तीन गोचरचर्या अर्थात् तीन काल में तं तु न जुज्जइ वसहीफेडण आगंतु पडिणीए॥ भिक्षाटन करने में असमर्थ है, यह सोचकर उसे सब दे देते कुछेक आचार्य कहते हैं-पूर्व-प्रत्युपेक्षित क्षेत्र में बिना हैं, दूसरों को नहीं। अथवा क्षपक की सेवा में रहने वाला प्रत्युपेक्षकों को भेजे चले जाना चाहिए। यह उचित नहीं है। देवता उस पर अनुकंपा कर क्षेत्र में भी भक्त-पान का संभव है वहां की वसति नष्ट हो गई हो, गिर गई। उत्पादन कर देता है। हो अथवा वहां कोई प्रत्यनीक आकर रह रहा हो, १४६७. हीरेज्ज व खेलेज्ज व, कज्जा-ऽकजं न याणई बालो। इसलिए पूर्व-प्रत्युपेक्षित क्षेत्र की भी पुनः प्रत्युपेक्षा करनी सो व अणुकंपणिज्जो, न दिति वा किंचि बालस्स॥ चाहिए। यदि बालक को भेजा जाता है तो उसका कोई अपहरण १४६३.कयरी दिसा पसत्था, अमुगी सव्वेसि अणुमए गमणं। कर सकता है, वह बालक अन्य बालकों के साथ खेलने लग चउदिसि ति दु एक्कं वा, सत्तग पणगे तिग जहन्ने। जाता है, वह कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य को नहीं जानता, वह गण को आमंत्रित कर आचार्य पूछे-प्रस्थान के लिए अनुकंपनीय होता है अथवा बालक को कोई कुछ नहीं देताकौनसी दिशा प्रशस्त है। यदि कहे-अमुक दिशा। यदि वह अतः बालक को भेजना उचित नहीं होता। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक १४६८.वुड्डोऽणुकंपणिज्जो, चिरेण न य मग्ग थंडिले पेहे। ___ अहवा वि बाल-वुड्डा, असमत्था गोयरतियस्स॥ वृद्ध को भेजने पर वह वृद्ध सर्वत्र अनुकंपनीय होता है। उसकी गति मंद होती है अतः वह गंतव्य पर विलंब से पहुंचता है। न वह मार्ग की सम्यक् गवेषणा करता है और न स्थंडिल की। तथा बाल और वृद्ध त्रिकालभिक्षाटन करने में असमर्थ होते हैं। १४६९.तूरंतो व न पेहे, गुणणालोभेण न य चिरं हिंडे। विगई पडिसेहेई, तम्हा जोगिं न पेसिज्जा॥ यदि योगवाही को भेजा जाता है तो वह सोचता है-'मुझे श्रुत पढ़ना है' इसलिए वह त्वरा से मार्ग में गमन करता हुआ, मार्ग की सम्यग प्रत्युप्रेक्षा नहीं करता। वह पठित श्रुत के परावर्तन के लोभ से भिक्षा के लिए चिरकाल तक नहीं घूमता। भिक्षा में वह विकृति का प्रतिषेध करता है। इसलिए योगी (योगवाही) को नहीं भेजना चाहिए। १४७०.पंथं च मास वासं, उवस्सयं एच्चिरेण कालेण। एहामो त्ति न याणइ, अगीतो पडिलोम असतीए॥ यदि अगीतार्थ को भेजा जाता है तो वह न मार्ग को जान पाता है और न मासकल्पयोग्य या वर्षावासकल्पयोग्य गांव को तथा न उपाश्रय की परीक्षा कर पाता है। शय्यातर के पूछने पर वह कह देता है हम इतने समय के बाद यहां से चले जाएंगे। ऐसा बोलना दोष है। परन्तु वह अगीतार्थ नहीं जानता। अनः पहले गणावच्छेदक को भेजना चाहिए। उसके अभाव में प्रतिलोम के क्रम से क्षेत्र-प्रत्युपेक्षा के लिए भेजना चाहिए। १४७१.सामायारिमगीए, जोगिमणागाढ खमग पारावे। वेयावच्चे दायण, जुयल समत्थं व सहियं वा॥ अगीतार्थ को ओघसामाचारी बताकर भेजना चाहिए। अथवा अनागाढ़योगी (बाह्य योगवाही) को, उसके अभाव में क्षपक को पारणा करवाकर, उसके अभाव में वैयावृत्त्यकर को जिससे कि वह वास्तव्य साधुओं को स्थापनाकुलों की जानकारी दे सके, उसके अभाव में युगल अर्थात् बाल और वृद्ध मुनि को जो दृढ़शरीर वाले हों उनको भेजना चाहिए। अथवा उनके साथ वृषभ साधु भी हो। (ये अपनी उपधि को वहां स्थित साधुओं को सौंप कर, परस्पर क्षमायाचना कर जाते समय पुनः गुरु को पूछकर जाएं। १४७२.तिन्नेव गच्छवासी, हवंतऽहालंदियाण दोन्नि जणा। गमणे चोदगपुच्छा, थंडिलपडिलेहऽहालंदे॥ गच्छवासी जघन्यतः तीन-तीन मुनि एक-एक दिशा में जाते हैं। गच्छप्रतिबद्ध यथालंदिक दो मुनि एक दिशा में जाते हैं। शेष तीन दिशाओं के लिए आचार्य गच्छवासी मुनियों को आदेश देते हैं कि तुम यथालंदिकों के योग्य क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा भी करना। उनके गमन, नोदक की पृच्छा और यथालंदिकों की स्थंडिल प्रत्युपेक्षा के विषय में भी कहना चाहिए। १४७३.पंथुच्चारे उदए, ठाणे भिक्खंतरा य वसहीओ। तेणा सावय वाला, पच्चावाया य जाणविही। मार्ग, उच्चारप्रस्रवणभूमी, उदकस्थान, विश्रामस्थान, भिक्षा-जिन-जिन प्रदेशों में भिक्षा प्राप्त होती है या नहीं, अन्तरा-बीच-बीच में वसति-प्रतिश्रय सुलभ हैं या नहीं, स्तेन-श्वापद और व्याल हैं या नहीं, प्रत्यपाय-जहां रात या दिन में अपाय होते हैं या नहीं यह गमनविधि है। इसका सम्यक् निरूपण करके जाना चाहिए। १४७४.वावारिय सच्छंदाण वा वि तेसिं इमो विही गमणे। दव्वे खेत्ते काले, भावे पंथं तु पडिलेहे ।। आचार्य द्वारा नियुक्त तथा स्वच्छंद अर्थात् आभिग्रहिक मुनि-इन दोनों की शमनविधि यह है। वे द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः मार्ग की प्रत्युपेक्षा करे। १४७५.कंटग तेणा वाला, पडिणीया सावया य दव्वम्मि। सम विसम उदय थंडिल, भिक्खायरियंतरा खेत्ते॥ १४७६.दिय राओ पच्चवाए, य जाणई सुगम-दुग्गमे काले। भावे सपक्ख-परपक्खपेल्लणा निण्हगाईया॥ द्रव्यतः कंटक, स्तेन, व्याल, प्रत्यनीक तथा श्वापदमार्ग में इनकी प्रत्युपेक्षा करे। क्षेत्रतः यह प्रत्युपेक्षा करे-मार्ग सम है या विषम, उदक बहुल मार्ग है या उदकरहित, स्थंडिलभूमी, भिक्षाचर्या (सुलभ या दुर्लभ) तथा अपान्तराल में वसतियां हैं या नहीं आदि। कालतः दिन या रात में होने वाले प्रत्यपायों की जानकारी, मार्ग सुगम है अथवा दुर्गम यह जानना चाहिए। भावतः यह जानकारी करे कि यह ग्राम अथवा मार्ग स्वपक्ष से अथवा परपक्ष से आक्रांत है या नहीं। स्वपक्ष है निलव आदि और परपक्ष है-चरक, परिव्राजक आदि। इन सब तथ्यों की प्रत्युपेक्षा करता हुआ आगे बढ़ता है। १४७७.सुत्तत्थाणि करते, न व ति वच्चंतगाउ चोएइ। न करिति मा हु चोयग!, गुरूण निइआइआ दोसा।। शिष्य ने प्रश्न किया-विहार करते हुए क्षेत्रप्रत्युपेक्षक क्या सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी करते हैं या नहीं? आचार्य कहते हैं-शिष्य! नहीं करते। क्योंकि उससे गुरु को नित्यवास आदि का दोष प्राप्त होता है। (यदि सूत्रपौरुषी Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ करते हैं तो मासलघु और अर्थपौरुषी करते हैं तो मासगुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।) १४७८. सुत्तत्थपोरिसीओ, अपरिहवंता वयंतऽहालंदी। थंडिल्ले उवओगं, करिंति रत्तिं वसंति जहिं ॥ यथादिक मुनि सूत्र और अर्थ पौरुषी का हनन न करते हुए (यथासमय उनको करते हुए), बिहार और भिक्षाचर्या तीसरे प्रहर में करते हुए विहार करते हैं। जहां रात रहते हैं वहां कालग्रहणादि के लिए उपयोगी स्थंडिल को ध्यान में रखते हैं। १४७९. सुत्तत्थे अकरिंता, भिक्खं काउं अइंति अवरण्हे । बीयदिणे सज्झाओ, पोरिसि अद्धाए संघाडो ॥ सूत्रपौरुषी और अर्धपौरुषी न करते हुए गच्छवासी मुनि मिश्राचर्या कर अपराह्न में विवक्षित क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। ( वसति में रहकर, आवश्यक कर, काल की प्रत्युपेक्षा करते हैं । फिर प्रादोषिक स्वाध्याय कर, दो प्रहर तक सोते हैं। जो नहीं सोते वे अर्द्धरात्रिक और वैरात्रिक दोनों का काल ग्रहण करते हैं।) दूसरे दिन यथाकाल स्वाध्याय करना चाहिए । तदनन्तर आधी पौरूषी अतिक्रांत होने पर एक संघाटक भिक्षा के लिए जाता है। १४८०. बीयार भिक्खचरिया, वृच्छयणऽचिरुम्गयम्मि पडिलेहा । चोयग भिक्खायरिया, कुलाई तहुवस्सयं चैव ॥ अपराह्न में पहले विचारभूमी की प्रत्युपेक्षा करनी चाहिए । रात को वहां रहने पर, सूर्य के उदित होने के बाद अर्द्धपौरुषी में भिक्षाचर्या की प्रत्युपेक्षा होती है। शिष्य ने पूछा- प्रात: मिक्षाचर्या क्यों की जाती है? आचार्य कहते हैं- भिक्षाचर्या करते हुए वे दानकुलों को तथा उपाश्रय को जान पाएंगे। (पूरी व्याख्या गाथा १४८९ में) १४८१. वाले बुझे सेहे, आयरिय गिलाण मग पाहुणए । तिन्नि य काले जहियं, भिक्खायरिया उ पाउग्गा ॥ बल, वृद्ध, शैक्ष, आचार्य, ग्लान, क्षपक, प्राचूर्णक ( अतिथि) - इन सबके लिए तीनों काल में प्रायोग्य भिक्षा प्राप्त होती हो, वह क्षेत्र योग्य होता है। १४८२. खेत्तं तिहा करिता, दोसीणे नीणितम्मि उ वयंति। अन्नोने बहुलदे, थोवं दल मा य रूसिज्जा ॥ गोचरचर्या के लिए क्षेत्र के तीन विभाग किए जाते हैं-एक विभाग में प्रातःकाल घूमते हैं, दूसरे में मध्याह्न के समय, तीसरे में सायंकाल । जहां प्रातः भोजन का काल न हो, वहां १. प्रातः दो मुनि भिक्षाटन करते हैं और एक वसति की रक्षा करता है। मध्याह्न में, प्रातः जो मुनि भिक्षा के लिए गए थे, उनमें से एक वसति की रक्षा करता है और प्रातःकाल का रक्षपाल गोचरचर्या में जाता बृहत्कल्पभाष्यम् गृहिणी ने वासी आहार (पूर्व दिन का भोजन) मुनि के लिए बाहर निकाला हो तो मुनि कहे- 'अन्यान्य गृहों में भोजन बहुत प्राप्त हो चुका है, अतः थोड़ा दो । रोष मत करना कि ये मुनि लेते नहीं हैं ।' १४८३. अहव न दोसीणं चिय, जायामो देहि णे दहिं खीरं । खीरे घय गुल गोरस, थोवं थोवं च सव्वत्थ ॥ अथवा यह कहे- हम केवल पर्युषित भोजन ही नहीं लेते, उसकी ही याचना नहीं करते, तुम हमें वही दूध भी दो दूध प्राप्त होने पर घृत, गुड़, गोरस, की याचना करे और सभी घरों से थोड़ा-थोड़ा ग्रहण करे (इस प्रकार भद्रककुलों की जानकारी कर बाल, वृद्ध और क्षपक के प्रायोग्य पयः आदि लेकर आए ।) १४८४. मज्झहे पर मिक्खं परिताविय पेज जूस पय कढियं ओभट्टमणोभ, लब्भइ जं जत्थ पाउग्गं ॥ मध्यात में जहां प्रचुरमात्रा में भिक्षा प्राप्त होती हो, परितापित पदार्थ अर्थात् पक्वान मिलता हो, पेयायवागू, यूष- मूंग का रस, गर्म दूध तथा भाषित (विशिष्ट भोजन) या अनवभाषित (सामान्य भोजन) जो जहां जैसा प्रायोग्य प्राप्त होता हो, वह प्रशस्त क्षेत्र है । १४८५ चरिमे परिताविय पेज्ज खीर आएस- अतरणद्वाए। एक्वेक्कगसंजुत्तं, भत्तई एक्कमेक्कस्स ॥ चरिम भिक्षाकाल में (सायंकालीन मिक्षाकाल में) परितापित पेय, क्षीर प्राप्त हो उन कुलों की अवधारणा करे। उस समय कोई प्राघूर्णक या ग्लान मुनियों के लिए उन कुलों की आवश्यकता हो सकती है। भोजन आदि लाने के लिए एक साधु दूसरे साधु से संयुक्त होकर, एक साधु के उदरपूर्ति के लिए पर्यास भक्त लेकर आए। ' १४८६. ओसह भेसज्जाणि य, काले च कुले अ दाणसड्ढाई । सग्गामे हित्ता, पेहंति तओ परग्गामे ॥ औषध ( हरड आदि), भेषज (पेया, त्रिफला आदि) किनकिन कुलों में और किस बेला में प्राप्त होते हैं, तथा दानाश्राद्धादि कुलों का स्वग्राम में अवधारण करता है, तदनन्तर परग्राम में उनकी खोज करता है। १४८७. चोयगवयणं दीहं, पणीयगहणे य नणु भवे दोसा । जुज्जइ तं गुरु- पाहुण मिलाणगद्वा न दप्पष्ठा ॥ १४८८. जइ पुण खद-पणीए, अकारणे एक्कसि पि गिहिज्जा । तहियं दोसा तेण उ, अकारणे खद्ध-निहाई ॥ है। सायं दोनों रक्षपाल गोचरचर्या में जाते हैं और जो दो बार पर्यटन कर चुका है, वह वसति में रहता है। इस प्रकार प्रत्येक को दो-दो बार पर्यटन करना होता है। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक जिज्ञासु कहता है-दीर्घकाल तक भिक्षाचर्या के लिए घूमने तथा प्रणीत आहार ग्रहण करने में सूत्रार्थपरिमंथ तथा मोहोभव-ये दोषे होते हैं। आचार्य कहते हैं-भद्र! प्रणीत- ग्रहण और दीर्घ भिक्षाचर्या गुरु, प्राघूर्णक और ग्लान के लिए आवश्यक है, दर्प अर्थात् अपने बल और वर्ण को बढ़ाने के लिए नहीं। यदि मुनि अकारण ही एक मुनि के लिए भी प्रचुर प्रणीत आहार ग्रहण करते हैं तो उसमें दोष है। अकारण ही प्रचुर प्रणीत आहार स्वयं के लिए लेना भी दोष होता है। १४८९.दाणे अभिगम सड्ढे, सम्मत्ते खलु तहेव मिच्छत्ते। मामाए अचियत्ते, कुलाइं जाणंति गीयत्था।। दानश्राद्ध, अभिगमश्राद्ध (अणुव्रती), श्रावक, सम्यक्त्वी , मिथ्यात्वी, मामक, अप्रीतिकर-ये सब विभिन्न कुल हैं। इनको गीतार्थ मुनि जान लेता है। १४९०.जेहिं कया उ उवस्सय, समणाणं कारणा वसहिहे। परिपुच्छिया सदोसा, परिहरियव्वा पयत्तेणं॥ श्रमण पांच प्रकार के होते हैं-तापस, शाक्य, परिव्राजक, आजीवक और निर्मंथ। इनके रहने के लिए जिन गृहस्थों ने वसति का निर्माण कराया है उनको पूछकर, उन्हें सदोष जानकर, प्रयत्नपूर्वक उनका परिहार करना चाहिए। १४९१.जेहिं कया उ उवस्सय, समणाणं कारणा वसहिहे। परिपुच्छिय निदोसा, परिभोत्तुं जे सुहं होइ (होति)। जिन्होंने निर्ग्रथों को छोड़कर शेष चार प्रकार के श्रमणों के लिए उपाश्रय का निर्माण किया है, उनको पूछकर, उपाश्रय को निर्दोष जानकर उस उपाश्रय का परिभोग सुखपूर्वक कर सकते हैं। १४९२.जेहिं कया पाहुडिया, समणाणं कारणा वसहिहेउं। परिपुच्छिया सदोसा, परिहरियव्वा पयत्तेणं॥ जिन्होंने श्रमणों के निवास हेतु उपाश्रयों में प्राभृतिकाउपलेपन, धवलन आदि कराया है, उन्हें पूछकर, उसे सदोष जानकर, उसका प्रयत्नपूर्वक परिहार करना चाहिए। १४९३.जेहिं कया पाहुडिया, समणाणं कारणा वसहिहेउं। परिपुच्छिय निहोसा, परिभोत्तुं जे सुहं होइ (होति)। जिन्होंने निग्रंथों को छोड़कर शेष श्रमणों के लिए उपाश्रयों में प्राभृतिका की है, उन्हें पूछकर, उसे निर्दोष जानकर, उसका सुखपूर्वक उपभोग कर सकते हैं। १४९४.सिंगक्खोडे कलहो, ठाणं पुण नत्थि होइ चलणेसु। अहिठाणे पुट्टरोगो, पुच्छम्मि य फेडणं जाणे॥ १४९५.मुहमूलम्मि उ चारी, सिरे अ कउहे अ पूअ सक्कारो। खंधे पट्ठीइ भरो, पुट्टम्मि उ धायओ वसहो॥ (शिष्य ने पूछा-कैसे स्थान में वसति खोजनी चाहिए? आचार्य इस प्रसंग में वास्तु-विज्ञान के आधार पर कहते हैं-जितने क्षेत्र में वसि-वसति आक्रांत होती है उतने मात्र क्षेत्र में पूर्वाभिमुख वामपार्श्व में उपवष्टि वृषभ के आकर की परिकल्पना कर प्रशस्त स्थानों में वसति का ग्रहण करना चाहिए। किस अवयव के स्थान में प्राप्त वसति का क्या फल होता है, यह इन श्लोकों में बताया गया है।) शृंगप्रदेश में वसति करने पर कलह होता है। पादप्रदेश में अवस्थिति नहीं होती। अधिष्ठान (अपानप्रदेश) में वसति करने से उदररोग होता है। पुच्छप्रदेश में वसति करने से अपनयन होता है। मुखमूल में वसति करने से चारी अर्थात् भोजन-संपत्ति सुलभ होती है, शृंग के मध्य भाग अथवा ककुद के स्थान पर पूजा-सत्कार की प्राप्ति, स्कंधप्रदेश तथा पृष्ठप्रदेश से आने जाने वाले साधुओं का भार होता है, उदरप्रदेश में वसति करने पर नित्य-तप्स रहने का लाभ होता है। यह वसति संबंधी विचारणा है। १४९६. देउलियअणुण्णवणा, अणुण्णविए तम्मि जं च पाउग्गं। भोयण काले किच्चिर, सागरसरिसा उ आयरिया। सबसे पहले देवकुलिका की अनुज्ञापना करनी चाहिए। यदि देवकुलिका न हो तो गांव में प्रतिश्रय की खोज करे। स्वामी द्वारा अनुज्ञापित होने पर प्रायोग्य प्रतिश्रय का उपभोग करे। यदि वह प्रायोग्य की अनुज्ञापना न करे तो उसके समक्ष भोजन का दृष्टांत कहे (श्लोक १४९९)। यदि वह पूछे-आप कितने समय तक यहां रहेंगे तो उसे कहे जितने काल तक तुम और गुरु चाहोगे। यदि वह पूछे-आप यहां कितने मुनि रहेंगे? उसे कहे-आचार्य समुद्र सदृश होते हैं। १४९७.जं जं तु अणुन्नायं, परिभोगं तस्स तस्स काहिति। अविदिन्ने परिभोगं, जइ काहिइ तत्थिमा सोही। गृहस्वामी ने तृण, डगल आदि जिन-जिन वस्तुओं की अनुज्ञापना की है, उन-उनका परिभोग अपने इच्छित क्षेत्र में किया जा सकता है। यदि शय्यातर के द्वारा अननुज्ञात क्षेत्र और द्रव्य का परिभोग करेगा, उसकी शोधि (प्रायश्चित्त) इस प्रकार होगी। १४९८.इक्कड-कढिणे मासो, चाउम्मासो अ पीढ-फलएसु। कट्ठ-कलिंचे पणगं, छारे तह मल्लगाईसु॥ अदत्त इक्कडमय अथवा कठिनमय संस्तारक का उपभोग करने पर लधुमास तथा पीठ-फलक का परिभोग करने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त है। काष्ठ, किलिंच, क्षार, मल्लक आदि के परिभोग में पंचक (पांच दिन-रात) का प्रायश्चित्त है। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ =बृहत्कल्पभाष्यम् १४९९.दव्वे तण-डगलाई, अच्छण-भाणाइधोवणा खित्ते। अन्य कोई क्षेत्र मास प्रायोग्य न हो और अन्य वसति का काले उच्चाराई, भावि गिलाणाइ कूरुवमा॥ अलाभ हो तो वैसी वसति में रहना अनुज्ञात है। प्रायोग्य चार प्रकार का होता है-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, १५०३.सक्कारो सम्माणो, भिक्खग्गहणं च होइ पाहुणए। कालतः और भावतः। द्रव्यतः तृण, डगल आदि। क्षेत्रतः जइ वसइ जाणओ तहिं, आवज्जइ मासियं लहुगं। स्वाध्याय आदि के लिए अवस्थान। तथा भाजन आदि के अतिथि मुनि आने पर सत्कार, सम्मान, भिक्षाधोने के लिए प्रतिश्रय से बाहर का क्षेत्र। कालतः रात, दिन ग्रहण-भिक्षा लाकर देना-ये सब करणीय होते हैं। यदि या अकेला में उच्चार, प्रस्रवण का व्युत्सर्ग। भावतः-ग्लान वसति परिमित मुनियों के लिए अनुज्ञात हो तो जितने अतिथि आदि के लिए विशेष अवकाश। यहां कूर अर्थात् भक्त की मुनि आए हैं, इतने ही वास्तव्य मुनि वहां से अन्यत्र चले उपमा। जाएं। यदि नामग्राहपूर्वक परिमित साधुओं को ही वसति दी (वह इस प्रकार है-किसी ने किसी से भोजन की याचना हो तो प्राघूर्णक मुनियों को वसति के स्वरूप की जानकारी दे की। उसने उसे भोजन के साथ अवगाहिम, सूप, व्यंजन दे। यदि वसति स्वरूप को जानने वाला वहां रहता है तो उसे आदि भी दिया। इसी प्रकार तुमने वसति की अनुज्ञापना की। लघुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। हे तो उसके साथ-साथ मुनि के प्रायोग्य सभी की अनुज्ञापना १५०४. किइकम्म भिक्खगहणे, कयम्मि जाणाविओ बहिं बसइ। कर दी है। इतना कहने पर यदि वह सभी प्रायोग्य की अनुज्ञा हिय-नटेसुं संका, सुण्हा उब्भाम वोच्छेदो।। देता है तो सबका उपभोग करे तथा जहां व्युत्सर्ग का स्थान कृतिकर्म और भिक्षाग्रहण करने के पश्चात् यदि वसतिबताए वहां उत्सर्ग करे।) स्वरूप ज्ञापित किया जाए तो रात में अतिथि मुनि बाहर रहे। १५००.उच्चारे पासवणे, लाउअनिल्लेवणे य अच्छणए। यदि वह बाहर नहीं जाता है तो सागारिक हृत या नष्ट वस्तु करणं तु अणुन्नाए, अणणुन्नाए भवे लहुओ॥ के लिए उस अतिथि मुनि के प्रति शंका करता है। सागारिक उच्चार, प्रस्रवण, अलाबुनिर्लेपन (पात्रप्रक्षालन) तथा की पुत्रवधू किसी उद्भ्रामक के साथ गई हो, परंतु उस मुनि स्वाध्याय के लिए अवस्थान-इनका समाचरण शय्यातर पर ही शंका की जाती है। ऐसी स्थिति में सागारिक के द्रव्य द्वारा अनुज्ञात प्रदेश में करना चाहिए। अननुज्ञात प्रदेश में तथा अन्य द्रव्यों की प्राप्ति का व्यवच्छेद हो जाता है। करने पर लघुमास का प्रायश्चित विहित है। १५०५.पडिलेहियं च खेत्तं, थंडिलपडिलेहऽमंगले पुच्छा। १५०१.जाव गुरूण य तुब्भ य, केवइया तत्थ सागरेणुवमा। गामस्स व नगरस्स व, सियाणकरणं पढम वत्थु॥ केवइ कालेणेहिह, सागार ठवंति अन्ने वि॥ वसति-क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा करने के पश्चात् महास्थंडिल शय्यातर यदि पूछे-आप कितने काल तक यहां ठहरेंगे? (शवपरिष्ठापनभूमी) की प्रत्युपेक्षा करनी चाहिए। यहां उसे कहे-गुरु और तुम जितना चाहोगे उतने काल तक हम जिज्ञासु प्रश्न करता है-आप यह अमंगल क्यों करते हैं? रहेंगे। (निर्व्याघात होने पर एक मास और व्याघात होने पर आचार्य कहते हैं-वास्तुविज्ञान के अनुसार नए ग्राम या नगरएक मास से हीन या अधिक।) शय्यातर यदि पूछे-कितने निर्माण से पूर्व श्मशानस्थापनायोग्य प्रथम वास्तु का निवेशन मुनि यहां रहेंगे? उसे कहे-आचार्य को समुद्र की उपमा दी होता है। यह अमांगलिक नहीं है। गई है। (समुद्र कभी प्रसर्पण करता है और कभी अप्रसर्पण।) १५०६. दिस अवरदक्खिणा दक्खिणा य अवरा य दक्खिणापुव्वा। यदि शय्यातर पूछे-आप यहां कितने काल के पश्चात् अवरुत्तरा य पुव्वा, उत्तर पुव्वुत्तरा चेव।। आएंगे? तब उसे सविकल्प वचन कहे कि अन्य क्षेत्र- सबसे पहले महास्थंडिल के लिए पश्चिम-दक्षिण दिशा प्रत्युपेक्षक भी अन्यान्य दिशाओं में गए हुए हैं। सबके की प्रत्युपेक्षा करनी चाहिए। उसके अभाव में दक्षिण दिशा, निवेदन को ध्यान में रखकर, इतने दिनों के पश्चात् या पूर्व उसके अभाव में पश्चिम, फिर दक्षिण-पूर्व, उसके अभाव में भी आ सकते हैं। निश्चित दिनों की अवधि न कहे। पश्चिम-उत्तर, तदनन्तर पूर्व, फिर उत्तर, उसके अभाव में १५०२.पुव्वद्दिवविच्छइ, अहव भणिज्जा हवंतु एवइआ। पूर्व-उत्तर। तत्थ न कप्पइ वासो, असई खेत्तस्सऽणुन्नाओ॥ १५०७.पउरन्न-पाण पढमा, बीयाए भत्त-पाण न लहंति। यदि शय्यातर अपने पूर्वदृष्ट मुनियों की ही अवस्थिति तइयाइ उवहिमाई, चउत्थी सज्झाय न करिति ।। वहां देखना चाहता हो तथा वह कहे 'इतने ही साधु यहां १५०८.पंचमियाए असंखड, छट्ठीए गणस्स भेयणं जाण। रहे-ऐसी स्थिति में उस वसति में रहना नहीं कल्पता। यदि सत्तमिया गेलन्नं, मरणं पुण अट्ठमीए उ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक इन दिशाओं की गुण-दोष विचारणा इस प्रकार है-प्रथम अर्थात् पश्चिम-दक्षिण दिशा में प्रचुर अन्न-पान, दूसरी दिशा- दक्षिण में अन्न-पान का अलाभ, तीसरी दिशा अर्थात् पश्चिम में उपधि का अपहरण, चौथी दिशा अर्थात् दक्षिणपूर्व में स्वाध्याय की हानि, पांचवीं दिशा अर्थात पश्चिम उत्तर में साधुओं में कलह, छठी दिशा पूर्व में गच्छ का भेद, सातवीं दिशा उत्तर में साधुओं में ग्लानत्व - रोग की प्राप्ति । आठवीं दिशा अर्थात् पूर्व उत्तर में किसी मुनि का मरण । १५०९. समाही य भत्त-पाणे, उवगरणे तुमंतुमा य कलहो उ। भेदो गेलनं वा, चरिमा पुण कइए अन्नं ॥ इन दोनों गाथाओं का एक गाथा में उपसंहार इस प्रकार हे पहली दिशा में भक्त पान की समाधि, दूसरी दिशा में भक्त-पान का अभाव, तीसरी दिशा में उपाधि का अपहरण, चौथी दिशा में तुमंतुम ( तू-तू-मैं-मैं) पांचवीं दिशा में कलह, छटी दिशा में गणभेद, सातवीं दिशा में ग्लानत्व, आठवीं में अन्य साधु का मरण । १५१०. एक्केकम्मि उ ठाणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्धाया। आणाइणो अ दोसा, विराहणा जा जहिं भणिया ॥ एक-एक स्थान में इन दिशाओं में प्रत्युपेक्षण का अतिक्रम करने पर चार मास का अनुद्धात प्रायश्चित्त विहित है तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं तथा जिन-जिन दिशाओं में जोजो विराधना कही गई है, वह होती है। १५११. पडिलेहियं च खेतं, अह य अहालंदियाण आगमणं । नत्थि उवस्सयवालो, सव्वेहि वि होड़ गंतव्वं ॥ गच्छवासी मुनियों ने एक ओर क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा की, इतने में ही वहां दो यथालंदिक मुनियों का आगमन हो गया। वहां उनके साथ उस क्षेत्र में स्थापनायोग्य कोई उपाश्रय नहीं है अतः सबको बहां से जाना होता है। १५१२. पुच्छिय रुइयं खेत्तं गच्छे पडिबद्ध बाहि पेहिंति । जं तेसि पाउम्गं खेत्तविभागे य पूरिंति ॥ गच्छप्रतिबद्ध यथालंदिक मुनियों ने गच्छवासी मुनियों से पूछा- क्या क्षेत्र रुचिकर है? उन्होंने कहा हां! तब यथालंदिक मुनि बाहर के क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा करते हैं। जो उनके लिए प्रायोग्य वसति होती है, उसी का ग्रहण करते है तथा वे क्षेत्रविभाग अर्थात् उसके छह विभाग कर पूरा करते हैं। १५१३. जं पि न वच्चति दिसिं परनहियएसणाए तत्थ वि गच्छेल्लगा सिं पेहति । बिगई - लेवाडबन्जाई ॥ १५७ जिस दिशा में यथालंदिक मुनि नहीं जाते, उस दिशा में भी गच्छवासी मुनि यथालंदिकों के लिए क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा करते हैं। वे अभिग्रह धारण कर तीसरे प्रहर में, उपरीतन एषणा पंचक में से अन्यतर ऐषणा से विकृति और लेपकृत का वर्जन कर भक्तपान ग्रहण करते हैं। १५१४. जइ तिन्नि सव्वगमणं, एहामु त्ति लहुओ य आणाई । परिकम्म कुड्डकरणं, नीहरणं कट्टमाईणं ॥ यदि गच्छवासी तीनों मुनियों को वहां से गुरु के पास जाते हुए देखकर शय्यातर उन्हें पूछता है- क्या आप पुनः आयेंगे या नहीं ? और यदि उत्तर दिया जाता है कि हम पुनः आएंगे तो लघुमास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। शय्यातर यह सोचना है कि ये अवश्य आएंगे अतः वह वसति का परिकर्म, जीर्ण भित्ति का पुनः करण, काष्ठ आदि का वहां से निष्काशन करता है। १५१५. अन्द्राणनिग्नयाई, असिवाइ गिलाणओ अ जो जत्थ मत्तय लहुओ, तत्थ वि आणाइणो दोसा ॥ वहां पूर्वस्थित मुनि किसी कारणवश नहीं आते और दूसरे मुनि वहां आ जाते हैं। वे दूर मार्ग से अथवा अशिव आदि कारणों से परिभ्रांत होते हुए वहां पहुंचे हैं। उनके साथ ग्लान मुनि भी है वसतिस्वामी उन्हें वसति की अनुज्ञा यह कहकर नहीं देता कि पूर्वस्थित मुनियों ने 'हम पुनः आएंगे' यह कहकर गए हैं, अतः मैं तुम्हें वसति नहीं देता। इस स्थिति में मुनियों की परितापना से निष्पन्न प्रायश्चित्त पूर्व मुनियों को आता है। अतः 'आयेंगे' यह नहीं कहना चाहिए और 'नहीं आयेंगे' यह भी नहीं कहना चाहिए। ऐसा कहने पर मासलघु का प्रायश्चित्त तथा आनामंग आदि दोष होते हैं। १५१६. वाक्कइअ विकएण व फेडण धन्नाइछुभणमावासे । नीणिते अहिकरणं, विराहणा हाणि हिंडते ॥ 'साधु नहीं आयेंगे' यह सोचकर बसतिस्वामी अपने स्थान को भाड़े पर किसी को दे देता है अथवा बसति की गिरा देता है अथवा उस रिक्त स्थान में धान्य आदि भर देता है अथवा बटुक- चारणों को दे देता है। साधु उसी स्थान पर आते हैं। उनके लिए यदि बटुकों को वहां से निष्काशित करता है तो कलह होता है। वसति के अभाव में इधर-उधर घूमने पर संयम विराधना तथा सूत्रार्थ की परिहानि होती है। १५१७. जह अम्हे तह अन्ने, गुरु-जेट्ठमहाजणस्स अम्हे मो। पुव्वभणिया उ दोसा, परिहरिया कुड्डुमाईया || वसति से जाते समय साधु शय्यातर से कहे-जैसे हम यहां आए हैं वैसे ही अन्य साधु भी यहां आ सकते हैं हम गुरु तथा ज्येष्ठ आर्यसाधु समुदाय के अधीन हैं। वे जैसा . Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ बृहत्कल्पभाष्यम् कहेंगे वैसे ही हम करेंगे। इस प्रकार कहने वाले मुनियों के १५२३. पढमाए नत्थि पढमा, तत्थ य घय-खीर-कूर-दधिमाई। पूर्वभणित कुड्यादि दोष का परिहार हो जाता है। बिइयाए बीय तइयाए दो वि तेसिं च धुव लंभो॥ १५१८.जइ पंच तिन्नि चत्तारि छसु सत्तसु य पंच अच्छंति। १५२४.ओभासिय धुव लंभो, पाउग्गाणं चउत्थिए नियमा। चोयगपुच्छा सज्झायकरण वच्चंत-अच्छंते॥ इहरा वि जहिच्छाए, तिकाल जोगं च सव्वेसिं॥ यदि पांच मुनि हों तो तीन वहीं रहते हैं, दो गुरु के आचार्य आवश्यक संपन्न कर एकत्रित साधुओं को क्षेत्र पास जाते हैं, यदि छह हों तो चार वहीं रहते हैं, दो गुरु । विषयक अपने विचारों को प्रकट करने के लिए कहते हैं। तब के पास और सात हों तो पांच वहीं रहते हैं और दो गुरु के वे प्रत्युपेक्षक रत्नाधिक के क्रम से कहते हैं। एक कहता हैपास जाते हैं। शिष्य प्रश्न करता है क्या वहां रहने वाले पूर्व दिशा में हमने क्षेत्र की प्रत्युपेक्षणा की। वहां प्रथम अर्थात् मुनि तथा गुरु के पास जाने वाले मुनि स्वाध्याय करते हैं सूत्रपौरुषी नहीं हो सकती क्योंकि उसी में भिक्षाटन करना अथवा नहीं? होता है। वहां घृत, दूध, कूर, दही आदि की प्रचुरता है। १५१९.वच्चंतकरण अच्छंतअकरणे लहुओ मासो गुरुओ उ। दूसरा क्षेत्रप्रत्युपेक्षक कहता है-मेरे द्वारा प्रत्युपेक्षित क्षेत्र में जावइकालं गुरुणो, न इंति सव्वं अकरणाए॥ द्वितीया अर्थात् अर्थपौरुषी नहीं हो सकती, क्योंकि वहां वही आचार्य कहते हैं-जाने वाले यदि सूत्रपौरुषी करते हैं तो भिक्षावेला है। तीसरा बोला-मेरे द्वारा निरीक्षित क्षेत्र में दोनों लघुमास का प्रायश्चित तथा अर्थपौरुषी करते हैं तो गुरुमास पौरुषियां हो सकती हैं। वहां घृत, दूध आदि की प्राप्ति का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है और यदि वहां रहने वाले मुनि निश्चित होती है। चौथा बोला-मेरे द्वारा प्रत्युपेक्षित क्षेत्र में सूत्रपौरुषी नहीं करते तो लघुमास और अर्थपौरुषी नहीं करते प्रायोग्य-अवभाषित द्रव्यों (घृत दूध आदि) की प्राप्ति अवश्य तो गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। जब तक गुरु के पास वे होती है तथा वहां दोनों पौरुषियां नियमतः होती हैं। वहां नहीं पहुंच जाते तब तक सारा अर्थात् सूत्र-अर्थपौरुषी तीनों समय पूर्वाह्न, मध्याह्न और अपराह्न में यथेष्ठ सामान्य अकरणीय है। भोजन-पानी प्राप्त हो जाता है। (आचार्य क्षेत्र के गुण-दोष १५२०.जइ वि अणंतर खेत्तं, गयाओ तह वि अगुणंतगा एंति।। सुनकर तीन दिशाओं को छोड़कर चौथी दिशा में जाने का निययाई मा गच्छे, इतरत्थ य सिज्जवाघाओ॥ निश्चय करते हैं।) यद्यपि अनन्तर (अव्यवहित) क्षेत्र में गए हैं, फिर भी वे १५२५. इच्छागहणं गुरुणो, कत्थ वयामो त्ति तत्थ ओअरिया। सूत्रार्थपौरुषी न करते हुए जाते हैं। क्योंकि नित्यवास आदि खहिया भणंति पढम, तं चिय अणुओगतत्तिल्ला॥ दोष गच्छ में न हों, इसलिए वे वैसा करते हैं। तथा १५२६.बिइयं सुत्तग्गाही, उभयग्गाही य तइयगं खेत्तं। प्रत्युपेक्षित क्षेत्र में विलंब से आने पर शय्या-उपाश्रय का आयरिओ उ चउत्थं, सो उ पमाणं हवइ तत्थ।। व्याघात होता है। गुरु शिष्यों का अभिप्राय जानने के लिए पूछते हैं हम १५२१.ते पत्त गुरुसगासं, आलोएंती जहक्कम सव्वे। किस ओर जाएं? जो शिष्य औदरिक-प्रथम प्रहर में पर्यास चिंता वीमंसा या, आयरियाणं समुप्पन्ना॥ आहार करना चाहते हैं, वे संभ्रांत होकर कहते हैं हमें पूर्व वे क्षेत्रप्रत्युपेक्षक गुरु के पास आकर सभी यथाक्रम से दिशा में जाना चाहिए जहां प्रचुर अन्न-पान सुलभ होता है। क्षेत्र के स्वरूप की आलोचना करते हैं। आलोचना सुनकर अनुयोगग्रहण में तत्पर शिष्य भी उसी दिशा में जाना चाहते आचार्य के मन में किस दिशा में जाएं यह चिंतन तथा हैं जहां अर्थग्रहण में कोई व्याघात नहीं होता। सूत्रग्राही शिष्य बीमंसा (मीमांसा)-शिष्यों के अभिप्राय की विचारणा दूसरी दिशा में जाना चाहते हैं। उभयग्राही सूत्र और अर्थहोती है। दोनों का ग्रहण करने वाले शिष्य तीसरी दिशा में जाने का १५२२.गंतूण गुरुसगासं, आलोएत्ता कहिति खेत्तगुणे। अभिप्राय व्यक्त करते हैं। आचार्य चौथी दिशा वाले क्षेत्र में न य सेसकहण मा होज्जऽसंखडं रत्ति साहति॥ जाना चाहते हैं। आचार्य वहां सभी के मध्य प्रमाण होते हैं। वे क्षेत्रप्रत्युपेक्षक गुरु के पास जाकर, गमनागमन की १५२७.मोहुब्भवो उ बलिए, दुब्बलदेहो न साहए अत्थं। आलोचना कर, क्षेत्र के गुणों का वर्णन करते हैं। वे आचार्य तो मज्झबला साहू, दुट्ठस्से होइ दिद्रुतो॥ के अतिरिक्त शेष साधुओं को नहीं कहते। शेष साधुओं को आचार्य सोचते हैं-प्रचुर स्निग्ध आहार की प्राप्ति से कहने पर परस्पर कलह हो सकता है। अतः वे रात्री में सारी शरीर बलवान होता है। बलवान् के अवश्य मोहोद्भव होता बात कहते हैं। है। जहां भक्तपान की अप्राप्ति होती है वहां रहने से मुनि Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक अर्थ-ज्ञान, दर्शन, चारित्र की साधना निर्व्याघातरूप से नहीं कृतघ्न हैं। शय्यातर अथवा अन्य किसी की वस्तु अपहृत या कर सकते। जो मध्य बल वाले साधु हैं, अथवा मध्यम क्षेत्र नष्ट हो जाने पर मुनियों पर चोर की शंका होती है तथा में जाते हैं। यहां दुष्ट अश्व का दृष्टांत है।' वसति आदि का व्यवच्छेद भी हो जाता है। १५२८.पणपन्नगस्स हाणी, आरेणं जेण तेण वा धरइ। १५३४.वसहीए वोच्छेदो, अभिधारिताण वा वि साहूणं । जइ तरुणा नीरोगा, वच्चंति चउत्थगं ताहे॥ पव्वज्जाभिमुहाणं, तेणेहि व संकणा होज्जा। पचपन तथा उससे अधिक आयु वाले मनुष्य की विशिष्ट वह शय्यातर सोचता है-अब आगे से मैं 'साधु' आहार के बिना बल की हानि होती है। इस आयु से पूर्व नामधारी व्यक्तियों को कभी वसति नहीं दूंगा। इस प्रकार मनुष्य जैसे-तैसे आहार से निर्वाह कर लेता है। अतः जो वसति का व्यवच्छेद हो जाता है। इससे प्रव्रज्याभिमुख तरुण मुनि हैं वे चौथी दिशा वाले क्षेत्र में जाते हैं। व्यक्तियों के प्रति स्तेन की शंका हो सकती है। १५२९.जइ पुण जुन्ना थेरा, रोगविमुक्का व असहुणो तरुणा। १५३५.अविहीपुच्छणे लहुओ, तेसिं मासो उ दोस आणाई। ते अणुकूलं खेत्तं, पेसिंति न यावि खग्गूडे। मिच्छत्त पुव्वभणियं, विराहण इमेहिं ठाणेहिं॥ यदि जीर्ण अर्थात् पचपन वर्ष से अधिक आयुवाले स्थविर पृच्छा दो प्रकार की होती है-विधिपृच्छा और अविधिमुनि तथा सद्यः रोगमुक्त तरुण मुनि, जो असहिष्णु हैं, उनको पृच्छा। अविधिपृच्छा करने पर आचार्य को लधुमास का अनुकूल क्षेत्र में भेजना चाहिए। जो 'खग्गूड'२ अर्थात् आलसी प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष, पूर्वकथित मिथ्यात्व और रसलोलुप हो उन्हें वहां नहीं भेजना चाहिए। और इन स्थानों में विराधना होती है। १५३०.एग पणगऽद्धमासं, सट्ठी सुण-मणुय-गोण-हत्थीणं। १५३६.सहसा दटुं उग्गाहिएण सिज्जायरी उ रोविज्जा। राइंदिएहिं उ बलं, पणगं तो एक्क दो तिन्नि। सागारियस्स संका, कलहे य सएन्झिखिसणया॥ क्षीण शरीर वाले कुत्ते एक दिन में, मनुष्य पांच दिन में, अविधिपृच्छा का स्वरूप यह है-उपकरणों को लेकर बैल पन्द्रह दिनों में, हाथी साठ दिनों में बल प्राप्त कर लेते विहार करने के लिए प्रस्थित होते हुए शय्यातर को पूछना हैं। जो वृद्ध आदि मुनि हैं उनको प्रथम क्षेत्र में एक पंचक, दो। कि हम विहार कर रहे हैं। अकस्मात उपकरणों को लेकर या तीन पंचक तक रखना चाहिए, फिर चौथे क्षेत्र में ले जाना प्रस्थित मुनियों को देखकर शय्यातरी रोने लग सकती है। चाहिए। यह देखकर शय्यातर के मन में अनेक प्रकार की शंका हो १५३१.सागारिय आपुच्छण, पाहुडिया जह य वज्जिया होइ। सकती है। कलह होने पर पड़ोसिन आकर शय्यातरी की __ के वच्चंते पुरओ, उ भिक्खुणो उदाहु आयरिया॥ खिंसना कर सकती है। क्षेत्रान्तर गमन से पूर्व शय्यातर को इस प्रकार पूछना १५३७.हरियच्छेअण छप्पइअथिच्चणं किच्चणं च पुत्ताणं। चाहिए जिससे प्राभृतिका-हरियाली के छेदन आदि का वर्जन गमणं च अमुगदिवसे, संखडिकरणं विरूवं वा।। हो सके। गमन करते समय कौन आगे चले, भिक्षु अथवा यदि मुनि कहे-'हम अमुक दिन जाएंगे' तो यह भी आचार्य? अविधिपृच्छा है। क्योंकि उस दिन बालक अथवा पुत्रवधूएं वहां १५३२.सागारिअणापुच्छण, लहुओ मासो उ होइ नायव्यो। हरित का छेदन कर सकती हैं अथवा परस्पर जूं आदि का आणाइणो य दोसा, विराहण इमेहिं ठाणेहिं॥ थेच्चण उपमर्दन या किच्चण-कर्त्तन कर सकती हैं। वस्त्रों का १५३३. सागारिअपुच्छगमणम्मि बाहिरा मिच्छगमण कयनासी। प्रक्षालन कर सकती हैं। अथवा 'अमुक दिन हम जाएंगे' यह अन्नस्स वि हिय-नटे, तेणगसंका य जं चऽन्नं। कहने पर शय्यातर आदि जीमनवार कर सकते हैं अथवा यदि शय्यातर को पूछे बिना साधु जाते हैं तो उन्हें एक विरूव अर्थात् भींत आदि को पोतना आदि कर सकते हैं। लघुमास का प्रायश्चित्त आता है तथा आज्ञाभंग आदि दोष १५३८.जत्तो पाए खेत्तं, गया उ पडिलेहगा ततो पाए। और इन स्थानों में विराधना होती है। शय्यातर सोचता है ये सागारियस्स भावं, तणुइंति गुरू इमेहिं तु॥ लोकधर्म से भी बाह्य हैं। इनका मिथ्यागमन है, ये कृतनाशी- शिष्य पूछता है-पूछने की विधि क्या है? आचार्य कहते १. दुष्ट अश्व अर्थात् गर्दभ। उसे प्रचुर अन्न-पान मिलता था। वह कुछ ही दिनों में दर्पित हो गया। कुंभकार उस पर बर्तन लादकर ले जाता। वह बीच मार्ग में मद से कूद-फांदकर उन बर्तनों को गिरा देता। कुंभकार ने उसको भोजन देना बंद कर दिया। वह दुर्बल हो गया। अब वह भार वहन करने में असमर्थ था। कुंभकार उसे मध्यम आहार देने लगा। अब वह भार ढोने में समर्थ हो गया। उसका मद विलीन हो गया। यही बात साधु के विषय में भी समझनी चाहिए। २. अलसाः स्निग्धमधुराहारलम्पटाः खग्गूडा उच्यन्ते। (टीका) Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -बृहत्कल्पभाष्यम् हैं-जिस दिन क्षेत्रप्रत्युपेक्षक गए हैं उसी दिन से प्रारंभ कर गुरु सागारिक के प्रतिबंध को निम्न विधि से न्यून करने लग जाते हैं। १५३९.उच्छू वोलिंति वई, तुंबीओ जायपुत्तभंडाओ। वसहा जायत्थामा, गामा पव्वायचिक्खल्ला।। १५४०.अप्पोदगा य मग्गा, वसुहा वि य पक्कमट्टिया जाया। ____ अन्नोक्वंता पंथा, विहरणकालो सुविहियाणं॥ गुरु शरदकाल के आधार पर कहते हैं-इक्षु इतने बढ़ गए हैं कि वे अपनी वृति (बाड़) का भी अतिक्रमण कर रहे हैं। तुम्बियां जातपुत्रभांड अर्थात् पूर्णरूप से तुंबे हो चुके हैं। वृषभ बल संपन्न हो गए हैं। गांवों का कीचड़ सूख गया है। मार्ग का पानी भी सूख गया है। सारी पृथ्वी भी पक्व मिट्टी की भांति कठोर हो चुकी है। अन्यान्य पथिकों से मार्ग क्षुण्ण हो चुके हैं। अतः सुविहित मुनियों के लिए यह उत्तम काल है। (यह बात आचार्य शय्यातर के सुनते हुए कहते हैं। बार-बार इसको दोहराने से शय्यातर का स्नेहानुबंध कम हो जाता है। १५४१.आवासगकयनियमा, कल्लं गच्छामु तो उ आयरिया। सपरिजणं सागरियं, वाहेउं दिति अणुसढि॥ आवश्यक-प्रतिक्रमण अनुष्ठान करने के नियम वाले वे आचार्य कल अर्थात् प्रभात में हम विहार कर जाएंगे यह मानकर प्रतिक्रमण करने के पश्चात् सपरिवार शय्यातर को बुलाकर अनुशिष्टि-धर्मकथा करते हैं। १५४२.पव्वज्ज सावओ वा, सणसड्डो जहन्नओ वसहिं। जोगम्मि वट्टमाणे, अमुगं वेलं गमिस्सामो॥ धर्मकथा सुनकर शय्यातर अथवा अन्य सदस्य प्रव्रज्या ग्रहण कर सकता है अथवा श्रावक या दर्शनश्राद्ध-अविरतसम्यकदृष्टि हो सकता है। इतना भी न करने पर जघन्यतः उसे साधुओं को वसति-दान देने की प्रेरणा देनी चाहिए। फिर उसे कहे जो योग वर्तमान है, उसमें अमुक वेला में हम यहां से विहार कर देंगे। १५४३.तदुभय सुत्तं पडिलेहणा य उग्गयमणुग्गए वा वि। पडिच्छाहिगरण तेणे, नढे खग्गूड संगारो॥ वे सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी-दोनों सम्पन्न कर विहार करते हैं। क्षेत्र दूर है तो सूत्रपौरुषी करके, दूरतर हो तो पात्र- प्रत्युपेक्षणा करके, दूरतम हो तो सूर्य के उदित होते ही और यदि अतिदूर हो तो सूर्योदय से पहले ही चल पड़ते हैं। रात्री में विहरण करते समय प्रतिश्रय के बाहर परस्पर प्रतीक्षा करते हैं अन्यथा अधिकरण की संभावना होती है। पीछे आने वाले मुनि अग्रेतन साधुओं से विलग हो जाने के कारण उन्हें चोरों का उपद्रव हो सकता है। कोई खग्गूड़ अर्थात् आलसी मुनि को कोई संकेत देकर उसे संघ से परामख कर विपरिणत कर देता है। १५४४.पडिलेहंत च्चिय वेंटियाउ काउं कुणंति सन्झायं। चरिमा उग्गाहेडं, सोच्चा मज्झण्हेि वच्चंति॥ मुनि प्रभात में प्रत्युपेक्षा करते हुए ही वस्त्रों की विण्टिका कर लेते हैं। फिर चरमा-पादोनपौरुषी तक स्वाध्याय करते हैं। फिर पात्रों को बांधकर, अर्थ सुनकर मध्याह्न में विहार करते हैं। १५४५.तिहि-करणम्मि पसत्थे, णक्खत्ते अहिवईण अणुकूले। घेत्तूण णिति वसभा, अक्खे सउणे परिक्खंता॥ आचार्य के अनुकूल नक्षत्र और प्रशस्त तिथि तथा कारण में अक्ष अर्थात् गुरु के उपधि को लेकर वृषभ मुनि-गीतार्थ मुनि शकुनों की परीक्षा करते हुए वहां से विहरण करते हैं। १५४६.वासस्स य आगमणं, अवसउणे पट्ठिया नियत्ता य। ओभावणा उ एवं, आयरिया मग्गओ तम्हा॥ वे प्रस्थित वृषभ मुनि वर्षा के आ जाने पर अथवा अपशकुन होने पर पुनः निवृत्त हो जाते हैं, उनकी अपभ्राजना नहीं होती। यदि आचार्य निवर्तित होते हैं तो लोग यह कहते हए अपभ्राजना करते हैं कि ये आचार्य सामान्य ज्योतिष की बात भी नहीं समझते हैं तो फिर दूसरी बात क्या समझेंगे। अतः आचार्य बाद में जाते हैं, पहले नहीं। १५४७.मइल कुचेले अब्भंगियल्लए साण खुज्ज वडभे या। एए तु अप्पसत्था, हवंति खित्ताउ णितस्स॥ शरीर और वस्त्रों से मलिन, जीर्ण परिधान वाला व्यक्ति, तैल आदि से अभ्यंगित शरीर वाला, कुत्ते का वाम पार्श्व से दक्षिण पार्श्व में जाना, कुब्ज और वामन व्यक्ति का सामने मिलना-ये क्षेत्र से प्रस्थित होने वाले व्यक्ति के लिए अप्रशस्त होते हैं, अपशकुन होते हैं। १५४८.रत्तपड चरग तावस, रोगिय विगला य आउरा वेज्जा। कासायवत्थ उद्धूलिया य जत्तं न साहति॥ रक्तपट (बौद्ध भिक्षु), चरक, तापस, रोगी, विकल (शरीर के अंगों से रहित), आतुर-विविध दुःखों से व्याकुल, वैद्य, काषायवस्त्रवाले, उद्धूलित (भस्मलिप्स शरीर वाले)क्षेत्र से प्रस्थित होते समय ये मिलते हैं तो यात्रा सफल नहीं होती। प्रस्तुत दो श्लोकों में अपशकुन बताए गए हैं। १५४९.नंदीतूरं पुण्णस्स दंसणं संख-पडहसहो य। भिंगार-छत्त-चामर-वाहण-जाणा पसत्थाई।। १५५०.समणं संजयं दंतं, सुमणं मोयगा दधिं । मीणं घंटं पडागं च, सिद्धमत्थं वियागरे। (प्रस्तुत दो श्लोकों में शुभशकुन बताए गए हैं।) Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक नंदीसूर्य बारह प्रकार के तूर वाद्यों का एक साथ अजना, पूर्णकलश का दर्शन, शंख और पटह का शब्द सुनाई देना, भृंगार-झारी, छत्र, चामर, वाहन - हाथी, घोड़े आदि तथा यान-शिबिका आदि ये सारे प्रशस्त होते हैं। श्रमण, संयत, दांत, पुष्प, मोदक, दही, मत्स्य, घंटा, पताका देखकर या सुनकर जानना चाहिए या कहना चाहिए कि यात्रा का प्रयोजन सिद्ध होगा। १५५१. सज्जायरेऽणसासह, आयरिओ सेसमा चिलिमिलि तु। काउं गिण्हंतुवहिं, सारवियपडिस्सया पुव्विं ॥ शुभ शकुन होने पर आचार्य वहां से प्रस्थान करने से पूर्व शय्यातर को अनुशिष्टि-धर्मकथन करते हैं। वे कहते हैं हम विहार कर रहे हैं। धर्म-कर्म में अप्रमत्त रहना आदि। शेष साधु चिलिमिली से अन्तरित होकर उपधि ग्रहण करते हैं। वे इससे पूर्व-पहले प्रतिश्रय को सम्मार्जित कर देते हैं। मुनि को देना चाहिए तथा उसे जीर्ण या उपहृत उपधि चाहिए। P १५५५. वच्चंतेहि य दिट्ठो, गामो रमणिज्जभिक्ख-सज्झाओ। जं कालमणुत्राओ, अणणुनाए भवे लहुओ ।। विहरण करते हुए साधुओं ने एक रमणीय और भिक्षा तथा स्वाध्याय के लिए उपयुक्त गांव को देखा वहां रहने की जितने काल की अनुज्ञा प्राप्त हो, उतने समय तक रहने में कोई प्रायश्चित्त नहीं है अननुज्ञात काल में रहने पर लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। - १५५६. तवसोसिय उब्वाया, खुल लुक्खाहारदुब्बला वा वि एग दुग तिनि दिवसे वयंति अप्पाझ्या वसिउं ॥ अथवा जो मुनि तपस्या से कृशकाय हैं, अत्यंत परिश्रान्त हैं, जो 'खुल' अर्थात् कर्कश क्षेत्र से आए हैं, अथवा जो रूक्षाहार करने के कारण दुर्बल हो गए हैं ऐसे मुनि उस गांव में एक, दो, तीन दिन रहकर मनोज्ञाहार से स्वस्थ होकर वहां से विहार कर सकते हैं। १५५२. बालाईया उवहिं, जं वोढु तरंति तत्तियं गिण्हे । जहणणेण अहाजायं, सेसं तरुणा विरिंचंति ।।। बाल वृद्ध तथा राजप्रब्रजित मुनि जितनी उपधि वहन कर सकते हो, उतनी उपधि ही वे ग्रहण करते हैं। यदि सर्वथा उपधि का भार वहन नहीं कर सकते तो जघन्यतः यथाजात-मुंहपत्ती, रजोहरण आदि उपधि ग्रहण करते हैं। शेष तरुण मुनि उपधि का विभाजन कर ग्रहण कर लेते हैं। १५५३. आयरिओहि बालाइयाण गिण्डति संघयणजुत्ता । दो सोत्ति उण्णि संथारए य गहणेक्कपासेणं ॥ आचार्य तथा बालमुनियों की उपधि संहननयुक्त अर्थात् समर्थ साधु ग्रहण कर लेते हैं। दो सौत्रिक कल्प, एक ऊनी कल्प तथा संस्तारक-ये सारे एक कंधे पर उठाते हैं और दूसरे कंधे पर अपने उपकरण रखते हैं। १५५४.रत्तिं न चेव कप्पर, नीयदुवारे विराहणा दुविहा । पण्णवण बहुतर गुणा, अणिच्छ बीओ व उवही वा ॥ किसी ने कहा- मुनि को रात्री में विहार करना नहीं कल्पता । क्योंकि भगवान् ने कहा है- 'नीयदुवारं तमसं ......' दिन में भी नीचे द्वार वाले कोठे में मुनि को जाना नहीं कल्पता और जाने पर दो प्रकार की विराधना-संयमविराधना और आत्मविराधना होती है, तो फिर रात्री में विहार करना कैसे कल्प सकता है? इस प्रकार कहने वाले को कहना चाहिए कि दूरतमक्षेत्र में जाने के लिए रात्री में विहरण करने में बहुत गुण होते हैं। इतना कहने पर भी यदि वह रात्री में विहार करना नहीं चाहता तो उसे एक सहयोगी १. प्रायश्चित्त विषयक विशेषचूर्णि और बृहद्भाष्य में भिन्न मत है। (बृ. पृ. ४५८) १५५७. पढमविणे समणुण्णा, सोहीबुट्टी अकारणे परतो तिन्निव (वि) समणुन्नाया, तओ परेण भवे सोही ॥ पहले दिन वे मुनि वहां के वास्तव्य मुनियों के लिए समनोज्ञ होते हैं। दूसरे आदि दिनों में वहां निष्कारण रहने पर शोधि अर्थात् प्रायश्चित्त में वृद्धि होती है। कारण (पूर्व गाथोक्त) से तीन दिन रहने पर भी वे समनोज ही होते हैं। तीन दिनों के पश्चात् प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १५५८. सत्तरत्तं तवो होइ, तओ छेओ पहावई । छेणऽच्छिन्नपरियाए, तओ मूलं तओ दुगं ।। सात दिनों तक तप, उसके पश्चात् छेद, छेद के द्वारा अच्छिन्न पर्यायवाले मुनि को मूल, तदनन्तर द्विक अर्थात् अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त का विधान है। १५५९.मासो लहुओ गुरुओ, चउरो लहुया य होंति गुरुगा य । छम्मासा लघु गुरुगा, छेओ मूलं तह दुर्ग च ॥ पहले दिन समनोज्ञ होते हैं दूसरे दिन वहां रहने पर लघुक मास, तीसरे दिन गुरुक, चौथे दिन चार लघु, पांचवें दिन चार गुरू, छठे दिन छह मासलघु, सातवें दिन सात मास गुरु, आठवें दिन छेद, नौवें दिन मूल दसवें दिन अनवस्थाप्य, ग्यारहवें दिन पारांचिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १५६०. अणणुण्णाए निक्कारणे व गुरुमाइणं चउण्हं पि । गुरुगा लहुगा गुरुगो, लहुओ मासो य अच्छंते ॥ अननुज्ञात तीन दिन के पश्चात् तथा निष्कारण गुरु आदि www.jainelibrary.arg Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ बृहत्कल्पभाष्यम् चार प्रकार के मुनियों के रहने पर भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्त का तैल आदि से अभ्यंगित शरीर वाला, कुत्ते का वाम पार्श्व से विधान है। वह इस प्रकार है-आचार्य को चार गुरुमास, दक्षिण पार्श्व में जाना, कुब्ज और वामन व्यक्ति का सामने वृषभ को चार लघुमास, अभिषेक को एक गुरुमास तथा मिलना-ये क्षेत्र में प्रवेश होने वाले व्यक्ति के लिए अप्रशस्त भिक्षु को एक लघुमास। होते हैं, अपशकुन होते हैं। १५६१.नेहामु त्ति य दोसा, जे पुव्वं वण्णिया कइयमादी। १५६६.रत्तपड चरग तावस,रोगिय विगला य आउरा वेन्जा। ते चेव अणट्ठाए, अच्छंते कारणे जयणा।। कासायवत्थ उद्धूलिया य कज्जं न साहिति॥ 'हम नहीं आयेंगे' इस प्रकार कहने वाले मुनियों के जो रक्तपट (बौद्ध भिक्षु), चरक, तापस, रोगी, विकल पूर्वोक्त अर्थात क्रयित आदि वसति को किराए पर दे देना, (शरीर के अंगों से रहित), आतुर-विविध दुःखों से व्याकुल, विक्रयिक द्रव्यों से वसति को भर देना-दोष होते हैं। प्रयोजन वैद्य, काषायवस्ववाले, उद्धूलित (भस्मलिप्स शरीर वाले)के बिना ऐसा कहने पर ये, उस ग्राम में रहने पर प्राप्त होते क्षेत्र में प्रवेश होते समय ये मिलते हैं तो यात्रा सफल नहीं हैं। कारण से वहां रहना पड़े तो यतनापूर्वक एक, दो, तीन होती। प्रस्तुत दो श्लोकों में अपशकुन बताए गए हैं। दिन रहकर अपने गन्तव्य की ओर प्रस्थान कर देना चाहिए। १५६७.नंदीतूरं पुण्णस्स दसणं संख-पडहसदो य। १५६२.भत्तट्ठिया व खमगा, पुव्विं पविसंतु ताव गीयत्था। भिंगार-छत्त-चामर-वाहण-जाणा पसत्थाई।। परिपुच्छिय निद्दोसे, पविसंति गुरू गुणसमिद्धा॥ १५६८.समणं संजय दंतं, सुमणं मोयगा दधिं । यदि क्षपक मुनि भक्तार्थी होकर उस गांव में प्रवेश करना भीणं घंटं पडागं च, सिद्धमत्थं वियागरे। चाहते हैं तो वहां पहले गीतार्थ मुनि प्रवेश करें। वे शय्यातर (प्रस्तुत दो श्लोकों में शुभशकुन बताए गए हैं।) को पूछकर निर्दोष उपाश्रय का निश्चय कर लें, तदनन्तर नंदीतूर्य-बारह प्रकार के तूर वाद्यों का एक साथ बजना, गुणसमृद्ध गुरु प्रवेश करें। पूर्णकलश का दर्शन, शंख और पटह का शब्द सुनाई देना, १५६३.बाहिरगामे वुच्छा, उज्जाणे ठाण वसहिपडिलेहा।। भंगार-झारी, छत्र, चामर, वाहन-हाथी, घोड़े आदि तथा इहरा उ गहियभंडा, वसहीवाघाय उड्डाहो॥ यान-शिबिका आदि-ये सारे प्रशस्त होते हैं। रात्री में गांव के बाहर रहकर, प्रातःकाल गांव के उद्यान श्रमण, संयत, दांत, पुष्प, मोदक, दही, मत्स्य, घंटा, में ठहरें। फिर मुनियों को वसति को प्रत्युपेक्षा करने के लिए पताका देखकर या सुनकर जानना चाहिए या कहना चाहिए गांव में भेजें। यदि वसति की प्रत्युपेक्षा किए बिना जाते हैं कि प्रवेश का प्रयोजन सिद्ध होगा। और यदि वह वसति किसी को किराए पर दे दी गई हो तो १५६९.पविसंते आयरिए, सागरिओ होइ पुव्व दट्ठव्यो। मुनि अपने वस्त्र-पात्रों को लिए-लिए वसति की गवेषणा में अद्दट्टण पविट्ठो, आवज्जइ मासियं लहुयं॥ घूमते हैं तो लोगों में उड्डाह होता है। वसति में प्रवेश करने से पूर्व आचार्य को चाहिए कि वे १५६४.तम्हा पडिलेहिय साहियम्मि पुव्वगत असति सारविए। शय्यातर को देख ले। सागारिक को देखे बिना प्रवेश करने फड्डगफड्ड पवेसो, कहणा न य उट्ठऽणायरिए। पर आचार्य को लधुमास का प्रायश्चित्त आता है। इसलिए वसति की प्रत्युपेक्षा कर शय्यातर को कहे- १५७०.आयरियअणुट्ठाणे, ओभावण बाहिरा अदक्खिन्ना। आचार्य आ गए हैं। यह कहकर यदि वसति पहले समागत कहणं तु वंदणिज्जा, अणालवंते वि आलावो। क्षेत्र प्रत्युपेक्षकों द्वारा प्रमार्जित हो तो उचित है। अन्यथा आचार्य के आने पर यदि धर्मकथी मुनि नहीं उठता है तो स्वयं उसका सम्मान करे। एक धर्मकथिक मुनि को वसति आचार्य की लघुता होती है। शिष्यों के प्रति लोग कहते हैं-ये में छोड़कर शेष मुनि आचार्य को निवेदन करे। आचार्य वहां लोक व्यवहार से बाह्य हैं, गुरु के प्रति इनकी अनुकूलता कुछ साधुओं के साथ आएं। शेष साधु पृथक्-पृथक रूप से नहीं है। धर्मकथी मुनि शय्यातर को यह कहे कि गुरु को वहां प्रवेश करे। वह धर्मकथिक मुनि आचार्य के आने पर वंदना करो। तदनन्तर गुरु शय्यातर के न बोलने पर भी उठे, शेष मुनियों के आने पर न उठे, क्योंकि धर्मकथा में । उससे आलाप करे। यदि आलाप नहीं करते हैं तो ये दोष व्याघात होता है। होते हैं१५६५.मइल कुचेले अभंगियल्लए साण खुज्ज वडभे या। १५७१.थद्धा निरोवयारा, अग्गहणं लोकजत्त वोच्छेदो। एयाइं अप्पसत्थाई होति गाम अइंताणं॥ तम्हा खलु आलवणं, सयमेव य तत्थ धम्मकहा॥ शरीर और वस्त्रों से मलिन, जीर्ण परिधान वाला व्यक्ति, शय्यातर सोचता है ये आचार्य आत्माभिमानी हैं, Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक निरुपकार - कृतघ्न हैं, अग्रहण- मेरे प्रति इनके मन में कोई आदरभाव नहीं है, लोकयात्रा -लोक व्यवहार को भी ये नहीं जानते। शय्यातर रुष्ट होकर अन्यान्य द्रव्यों का व्यवच्छेद कर देता है। इसलिए आचार्य को चाहिए कि वे शय्यातर से आलाप करें और स्वयं ही धर्मकथा करे। १५७२. वसहिफलं धम्मकहा, कहणमलछीओ सीस बाबारे पच्छा अइंति वसहिं, तत्थ य भुज्जो इमा मेरा ॥ धर्मकथा करते हुए आचार्य वसति के फल का निरूपण करते हैं। यदि धर्मकयालब्धि से संपन्न न हो तो वे धर्मकथा - लब्धिसंपन्न शिष्य को इस कार्य में व्याप्त करते हैं। तदनंतर वसति में प्रवेश करते हैं वहां पुनः यह मर्यादा सामाचारी है। १५७३. मज्जाया-ठवणाणं, पवत्तगा तत्थ होंति आयरिया | जो उ अमज्नाइल्लो, आवज्जह मासियं लहुयं ॥ मर्यादा अर्थात् सामाचारी और दान आदि कुलों की स्थापना के प्रवर्तक आचार्य होते हैं जो इन मर्यादाओं का पालन नहीं करता उसे लघुमासिक का प्रायश्चित्त आता है। १५०४. पडिलेहण संधारण, आयरिए तित्रि सेस एक्केकं । विंटियउक्खेवणया पविसह ताहे य धम्मकही ॥ १५७५. उच्चारे पासवणे, लाउअनिल्लेवणे अ अच्छणए । करणं तु अणुन्नाए, अणणुनाए भवे लहुओ ॥ संस्तारकभूमी की प्रत्युपेक्षा करते हैं। आचार्य के तीन संस्तारकभूमियां होती है-निवात, प्रवात, निवात प्रवास शेष साधुओं के एक-एक संस्तारकभूमी होती है तब सभी मुनि अपनी-अपनी संस्तारकभूमी में अपनी-अपनी विटिका का उत्क्षेपण करते हैं। जब धर्मकधी मुनि प्रतिश्रय के भीतर प्रवेश करता है तब क्षेत्रप्रत्युपेक्षक शय्यातर द्वारा अनुज्ञात उच्चार, प्रस्रवण, अलाबू के कल्प करने योग्य, निर्लेपनपुतप्रक्षालन योग्य, स्वाध्याय करने वालों के बैटने योग्य - इन सभी भूमियों को दिखाता है और कहता है-इन-इन भूमियों में तद-तद् कार्य करने हैं। अननुज्ञात भूगी में करने पर मासलघु का प्रायश्चित्त है। यह मर्यादा सामाचारी है। १५७६. भत्तड़िया व खमगा अमंगलं चोयणा निणाहरणं । जइ खमगा वदंता, दाइंतियरे विहिं वोच्छं ॥ क्षेत्र में प्रवेश करने वाले साधु भक्तार्थी अथवा क्षपक होते हैं। यदि क्षपक होते हैं तो जिज्ञासु कहता है यह तो प्रारंभ से ही अमंगल हो गया क्योंकि उपवास आदि कर प्रवेश कर रहे हैं आचार्य यहां जिनेश्वरदेव का उदाहरण कहते हैं। जिनदेव तपस्या में ही निष्क्रमण करते हैं। उनका अमंगल नहीं है तो १६३ यहां भी अमंगल नहीं होता। यदि क्षपक चैत्यवंदन के लिए जाते हैं तो उन्हें उसी समय स्थापनाकुल दिखा देते हैं। अब भक्तार्थियों की विधि बताऊंगा। १५७७. सब्बे दहुं उग्गाहिएण ओवरिय भय समुप्पज्जे । लम्हेल दोहि तिहिं वा उग्गाहिय चेहए वंदे ॥ चैत्यवन्दन के समय सभी साधुओं को पात्र के साथ आते हुए देखकर श्रावक सोचता है ये सभी औवरिक पेटू हैं। उसके मन में यह भय पैदा हो जाता है कि मैं इतने साधुओं को भोजन कैसे दूंगा? इसलिए एक दो या तीन साधु पात्रों को लेकर तथा शेष बिना पात्र साथ लिए आचार्य के साथ चैत्यवंदन के लिए जाएं। १५७८. सद्भाभंगोऽणुग्गाहियम्मि ठवणाइया भवे दोसा । घरचेश्य आयरिए, कयवयगमणं च गहणं च ।। यदि एक भी साधु पात्र को लेकर नहीं जाता है तो भक्तपान का निमंत्रण देने वाले श्रावक की श्रद्धा टूट जाती है। तथा यदि उसको यह कहा जाता है कि हम पात्र लेकर आते हैं तो स्थापना आदि दोष हो सकते हैं। पात्रोद्वाहक कुछेक साधुओं के साथ आचार्य गृहचैत्यवंदन के लिए जाए। श्रावक यदि भक्तपान के लिए निमंत्रित करे तो वहां प्रासुक भक्तपान ग्रहण करे। १५७९. वाणे अभिगम सहे, सम्मते खलु तहेब मिच्छते। मामाए अचियत्ते, कुलाई दाइति गीयत्था ॥ १५८०. दाणे अभिगम सहे सम्मते खलु तहेव मिच्छत्ते । मामाए अचियत्ते, कुलाई ठाविंति गीयत्था ॥ १५८१. दाणे अभिगम स सम्मते खलु तहेब मिच्छते। , मामाए अचियत्ते, कुलाई अठविंति चउगुरुगा ॥ गीतार्थ मुनि सभी साधुओं को दानश्राद्ध, अभिगमश्राय (सम्यग्दृष्टि अणुव्रती), अविरतसम्यग्दृष्टिश्राद्ध, आभिराहिक मिथ्यादृष्टि, मामक तथा अचियत्त' - अप्रीतिकर - इनके कुलों की जानकारी देते हैं। गीतार्थ इन सभी कुलों की स्थापना करते हैं अर्थात् इन कुलों में जाना है और इन कुलों में नहीं ऐसी व्यवस्था करते हैं। इन कुलों की व्यवस्थापना न करने पर चार गुरुक का प्रायश्चित्त विहित है। १५८२, कयउस्सग्गाऽऽमंतण, अपुच्छणे अकहिएगयर दोसा ठवणकुलाण व ठवणं, पविसइ गीयत्थसंघाडो । स्थान पर आकर सभी साधु कायोत्सर्ग करे फिर गीतार्थ मुनि सभी साधुओं को गुरुपादमूल में आने के लिए निमंत्रित करे। आचार्य क्षेत्रप्रत्युपेक्षकों को पूछे कि कौन कौन १. यस्त्वीर्ष्यालुतयैव साधुषु गृहं प्रविशत्सु महदप्रीतिकं स्वचेतसि करोति वाचा न किमपि ब्रूते एष देशभाषया अचियत्तः । (वृ. पृ. ४६३) Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ =बृहत्कल्पभाष्यम् से कुलों में प्रवेश करना है और कौन-कौन से कुलों में प्रवेश १५८७.अन्नो चमढण दोसो,दव्वखओ उग्गमो वि य न सुज्झे। निषिद्ध है? यदि आचार्य न पूछे अथवा क्षेत्रप्रत्युपेक्षक न खीणे दुल्लभदव्वे, नत्थि गिलाणस्स पाउग्गं॥ बताए तो आचार्य को अथवा क्षेत्रप्रत्युपेक्षकों को संयम- 'चमढण'-उद्वेजन का अन्य दोष यह है। अन्यान्य विराधना तथा आत्मविराधना आदि दोष प्राप्त होते हैं। फिर मुनियों द्वारा ले लिए जाने पर द्रव्य की क्षीणता हो जाती है आचार्य प्रवेश करने योग्य स्थापनाकुलों की तथा प्रवेश न और उद्गम (वस्तुओं को निष्पन्न करना) भी शुद्ध नहीं होता। करने योग्य स्थापनाकुलों की स्पष्ट स्थापना करते हैं। फिर दुर्लभद्रव्य के क्षीण हो जाने पर, ग्लान के लिए आवश्यक वह आचार्य कहते हैं-प्रवेष्टव्य स्थापनाकुलों में भी एक ही प्रायोग्य द्रव्य नहीं मिलता। गीतार्थ संघाटक प्रवेश करे। १५८८.दव्वक्खएण पंतो, इत्थिं घाइज्ज कीस ते दिन्नं। १५८३.गच्छम्मि एस कप्पो, वासावासे तहेव उडुबद्धे। भद्दो हट्ठपहट्ठो, करेज्ज अन्नं पि साहूणं॥ गाम-नगर-निगमेसुं, अइसेसी ठावए सही। एक प्रान्तव्यक्ति की भार्या श्राविका थी। उसने अनेक वर्षावास तथा ऋतुबद्धकाल में गच्छ का यह कल्प है कि ___मुनियों को अनेक प्रकार की वस्तुएं दे दीं। द्रव्यक्षय को गांव, नगर और निगम में जो अतिशायी कुल हों, जैसे जानकर उस प्रान्त व्यक्ति ने पत्नी को पीटते हुए कहा तूने दानश्रद्धावाले आदि की स्थापना करे। उन साधुओं को सारी वस्तुएं क्यों दे दी. १५८४.किं कारणं चमढणा,दव्वखओ उग्गमो वि य न सुज्झे। इसी प्रकार एक भद्र व्यक्ति ने साधुओं को दी गई ___ गच्छम्मि नियय कज्जं, आयरिय-गिलाण-पाहुणए। वस्तुओं को जानकर, बहुत हृष्ट-प्रहृष्ट हुआ और साधुओं शिष्य ने पूछा-क्या कारण है कि स्थापनाकुलों में एक के लिए अन्य अवगाहिम आदि द्रव्य भी करवाए देने की ही संघाटक जाए? आचार्य कहते हैं अनेक संघाटक जाने व्यवस्था की। पर 'चमढणा' अर्थात् गृहस्वामी के मन में उद्वेलन होता १५८९.जड्डे महिसे चारी, आसे गोणे य जे य जावसिया। है। द्रव्यों-स्निग्ध-मधुर आदि द्रव्यों का क्षय होता है, एएसिं पडिवक्खे, चत्तारि उ संजया होति॥ उद्गम दोष की भी शुद्धि नहीं होती। गच्छ में निश्चित ही (प्राघूर्णक आने पर उनके स्वभावानुकूल आतिथ्य करे।) प्रायोग्य द्रव्यों का प्रयोजन होता है। क्योंकि गच्छ में जैसे-हाथी, महिष, अश्व और बैल-ये यावसिक होते हैं। मुद्ग, आचार्य, ग्लान, प्राघूर्णक के लिए उन द्रव्यों का प्रयोजन माष आदि से तथा अनुकूल चारी से इनका पोषण होता है। इनके होता है। प्रतिपक्ष'-सदृशपक्ष वाले चार प्रकार के संयत होते हैं। १५८५.पुव्विं पि वीरसुणिया, भणिया भणिया पहावए तुरियं। १५९०.जडो जं वा तं वा, सुकुमालं महिसओ महुरमासो। सा चमढणाए सिग्गा, निच्छइ द8 पि गंतुं जे ॥ ___ गोणो सुगंधिदव्वं, इच्छइ एमेव साहू वि॥ ___एक शिकारी के पास शुनिका थी। वह शिकारी बिना ___ हाथी 'यह वह'-सब कुछ खा लेता है। महिष सुकुमाल शस्त्रास्त्र के शिकार करता था। इसलिए वह वीर कहलाता द्रव्य खाता है। अश्व मधुर द्रव्य और बैल सुगंधित द्रव्य है। उसकी शुनिका वीरशुनिका कहलाती थी। वह वीर- खाने की इच्छा करता है। इसी प्रकार साधु भी चार प्रकार शुनिका पहले श्वापद न देखने पर भी 'छीत्कृत छीत्कृत' के आहार की आकांक्षा करते हैं-(एक कहता है-ठंडा या करने पर शीघ्र ही इतस्ततः दौड़ती थी। कई बार वह निरर्थक गरम, जैसा भी मिले वैसा आहार ले आना। मुझे पेट भरना ही उद्वेजित की गई। अतः वह श्रान्त हो गई। अब वह है। दूसरा कहता है-स्नेहरहित पूपलिका, जो सुकुमाल हो, प्रत्यक्षतः श्वापद को देखने पर भी, 'छीत्कृत छीत्कृत' करने वह ले आना। तीसरा कहता है-मधुर आहार ले आना। चौथा पर भी जाना नहीं चाहती थी। कहता है-अन्न-पान जो निष्प्रतिगंध वाला हो, वह ले आना। १५८६.एवं सढकुलाई, चमढिज्जंताई अन्नमन्नेहिं।। प्राघूर्णक साधुओं के लिए इस प्रकार का आहार स्थापना नेच्छंति किंचि दाउं, संतं पि तहिं गिलाणस्स। कुलों में ही प्राप्त हो सकता है, अन्यत्र नहीं।) इसी प्रकार अन्यान्य मुनियों द्वारा श्राद्धकुलों को १५९१.एवं च पुणो ठविए, अप्पविसंते इमे भवे दोसा। उद्वेजित कर दिए जाने पर वे वस्तुओं के होने पर भी कुछ वीसरण संजयाणं, विसुक्कगोणीइ आरामे॥ भी देना नहीं चाहते। परिणामस्वरूप ग्लान मुनियों को इस प्रकार 'चमढणा' के दोष कहे गए हैं। यदि स्थापनापरितापना होती है। उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त आता है। कुलों सर्वथा स्थापित हो जाते हैं, और साधु उनमें नहीं जाते १.प्रतिरूपः पक्षः प्रतिपक्षः सदृशपक्षः। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = हैं तो ये दोष होते हैं-संयतों का विस्मरण हो जाता है तथा काल से पहले ही भक्त का निष्पादन कर देता है। अथवा वह भिक्षा दातव्य है-इस नियम का अभाव होने के कारण श्रावक मुनि भिक्षा के लिए बहुत समय तक नहीं घूमता। इसलिए भिक्षा देना भूल जाते हैं। यहां दो दृष्टांत हैं-विशुष्क गाय उसे कुछ नहीं मिलता। तब वह यत्किचित् लेकर आ जाता तथा आराम। है। उसे खाने पर गुरु आदि के ग्लानत्व हो जाता है। १५९२.अलसं घसिरं सुविरं,खमगं कोह-माण-माय-लोहिल्लं। १५९६.गिण्हामि अप्पणो ता, पज्जत्तं तो गुरूण घिच्छामि। कोऊहल पडिबद्धं, वेयावच्चं न कारिज्जा। घेत्तुं च तेसि घिच्छं, सीयल-ओसक्क-ओमाई।। स्थापनाकुलों में प्रवेश करने वाले मुनि आलसी, बहुभक्षी मुनि को भिक्षा के लिए स्थापनाकुलों में व्याप्त बहुभक्षी, निद्रालु, क्षपक, क्रोधी, अहंकारी, मायी, लोभी, करने पर वह सोचता है मैं अपने लिए पर्याप्त भोजन ग्रहण कर कुतूहली, प्रतिबद्ध-सूत्रार्थग्रहण करने में आसक्त, हों तो लूं, तदनन्तर गुरु के लिए ले लूंगा। अथवा गुरु के योग्य भिक्षा आचार्य इनको उन कुलों में न भेजें, इनसे वैयावृत्ति न कराए। ग्रहण कर फिर मैं मेरे लिए भोजन ग्रहण करूंगा। यह सोचकर १५९३.तिसु लहुओ तिसु लहुया, यदि वह पहले गुरु के लिए सामग्री लेता है फिर अपने लिए गुरुओ गुरुया य लहुग लहुगो य।। तो गुरु का प्रायोग्य आहार शीतल हो जाता है। अथवा पेसग-करितगाणं, स्थापनाकुलों में भिक्षाटनवेला से पूर्व प्रवेश करने पर आणाइ विराहणा चेव॥ 'अवष्वष्कण' आदि दोष होते हैं। यदि वेलातिक्रम के भय उपरोक्त दोषों से युक्त व्यक्ति को जो आचार्य अपनी से पहले जाता है तो अवम न्यूनता होती है, उदरपूर्ति नहीं वैयावृत्ति में व्याप्त करता है अथवा जो इन दोषों से युक्त हो होती। वह वैयावृत्ति करता है तो प्रेषक और कारक दोनों को १५९७.परिताविज्जइ खमओ,अह गिण्हइ अप्पणो इयरहाणी। प्रायश्चित्त आता है। तीन अर्थात् आलसी, बहुभक्षी और अविदिन्ने कोहिल्लो, रूसइ किं वा तुम देसि॥ निद्रालु-लघुमास, तीन-क्षपक, क्रोधी और मानी-गुरुमास, क्षपक यदि भिक्षाटन करता हुआ गुरु के प्रायोग्य भिक्षा मायावी-गुरुमास, लोभी-चार गुरुमास, कुतूहली-चारलघु, ग्रहण करता है तो स्वयं परितप्त होता है और यदि स्वयं के सूत्रार्थप्रतिबद्ध- लघुमास तथा आज्ञाभंग और संयम तथा लिए ग्रहण करता है तो इतर अर्थात् आचार्य आदि के आत्मविराधना- दोनों होती हैं। हानि-परितापना होती है। क्रोधी भिक्षाटन करता है तो भिक्षा १५९४.ता अच्छइ जा फिडिओ, न देने पर वह गृहपति पर रुष्ट हो जाता है और कहता सइकालो अलस-सोविरे दोसा। -तुम क्या-कितना दोगे? गुरुमाई तेण विणा, १५९८.ऊणाणुट्ठमदिन्ने, थद्धो न य गच्छए पुणो जं च। विराहणुस्सक-ठवणादी॥ माई भद्दगभोई, पंतेण व अप्पणो छाए। आलसी और निद्रालु को इस कार्य में नियोजित करने पर अभिमानी मुनि यदि भिक्षा के लिए जाता है, वह गृहिणी भिक्षा का उपयुक्त काल अतिक्रांत हो जाता है और तब वे द्वारा कम दिए जाने पर, अभ्युत्थान आदि न करने पर अथवा भिक्षा के अतिक्रांत काल में भिक्षा के लिए घूमते हैं और जो कुछ भी न देने पर वह पुनः उस घर में नहीं जाता। उस घर कुछ प्राप्त होता है वह ले आते हैं। प्रायोग्य द्रव्य नहीं में प्रवेश के बिना प्रायोग्य द्रव्य नहीं मिलते। इससे परितापना मिलता। उसके बिना गुरु आदि (बाल, वृद्ध, ग्लान आदि) होती है। मायावी मुनि भद्रक-भद्रक द्रव्य स्वयं खाकर, की विराधना होती है। श्रावक प्रायोग्य का उत्ष्वष्कण कर अन्त-प्रान्त लेकर आता है। अथवा वह प्रान्त आहार से देते हैं। तथा उपस्कृत अन्न-पान की स्थापना करने पर अपने योग्य भद्रक आहार को आच्छादित कर लाता है। स्थापनादोष होता है। १५९९.ओभासइ खीराई, दिज्जंते वा न वारई लुद्धो। १५९५.अप्पत्ते वि अलंभो, हाणी ओसक्कणा य अइभहे। जेणेगविसणदोसा, एगस्स वि ते उ लुद्धस्स। अणहिंडतो य चिरं, न लहइ जं किंचि वाऽऽणेइ॥ लोलुप मुनि यदि भिक्षाटन करता है तो वह दूध आदि भिक्षा के लिए अप्राप्त काल में घूमने पर कुछ भी प्राप्त मांग कर लेता है अथवा गृहस्थ द्वारा दिए जाने वाले स्निग्ध नहीं होता। तब आचार्य आदि की हानि होती है, उन्हें भूखा आदि पदार्थों की वह वर्जना नहीं करता। अनेक संघाटक यदि रहना पड़ता है। अतिभद्रक गृहपति अवष्वष्कण-विवक्षित स्थापनाकुलों में प्रवेश करते हैं तो जो चमढणा आदि अनेक १.२. दृष्टान्त के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं.६२,६३। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = बृहत्कल्पभाष्यम् : दोष पहले वर्णित किए हैं वे सारे दोष अकेले लोलुप व्यक्ति के भिक्षाटन करने पर होते हैं। १६००.नडमाई पिच्छंतो, ता अच्छइ जाव फिट्टई वेला। सुत्तत्थे पडिबद्धो, ओसक्क-हिसक्कमाईया॥ भिक्षा के लिए प्रस्थित कुतूहली मुनि मार्गगत नट आदि के करतबों को देखता हुआ तब तक वहां रहता है कि भिक्षावेला अतिक्रांत हो जाती है। सूत्रार्थप्रतिबद्ध मुनि को यदि भिक्षाटन के लिए भेजा जाता है तो वह भिक्षा की अवेला या अतिक्रांत वेला में जाता है। ऐसी स्थिति में अवष्वष्कण- काल मर्यादा से पहले करना तथा अभिष्वष्कण-विवक्षित काल का संवर्धन करना आदि दोष होते हैं। १६०१.एयद्दोसविमुक्वं, कडजोगिं नायसीलमायारं। गुरुभत्तिमं विणीयं, वेयावच्चं तु कारिज्जा॥ इसलिए उपरोक्त दोषों से विमुक्त मुनि को भिक्षाटन में व्याप्त करना चाहिए। जो कृतयोगी है, जिसका शील और आचार ज्ञात है, जो गुरु के प्रति भक्तिमान् है, जो विनीत हैऐसे शिष्य से यह वैयावृत्त्य-भिक्षाटन आदि कराना चाहिए। १६०२.साहति य पियधम्मा, एसणदोसे अभिग्गहविसेसे। एवं तु विहिग्गहणे, दव्वं वर्ल्डति गीयत्था॥ प्रियधर्मा गीतार्थ मुनि प्रक्षित-निक्षिप्त आदि एषणा दोषों तथा जिनकल्प-स्थविरकल्प संबंधी अभिग्रहों की जानकारी देते हैं। इस विधि से स्थापनाकुलों में भिक्षा ग्रहण करते हुए वे मुनि श्रद्धा को वृद्धिंगत करते हैं तथा द्रव्यों की भी वृद्धि करते हैं। १६०३.एसणदोसे व कए, अकए वा जइगुणे विकत्थिता। कहयंति असढभावा, एसणदोसे गुणे चेव॥ एषणा दोष कृत है अथवा अकृत इस स्थिति में भी वे मुनि यतिगुणों की प्रशंसा करते हैं, अशठभाव से एषणादोषों को बताते हैं तथा साधुओं को प्रासुक भक्तपान देने से होने वाले गुणों का वर्णन करते हैं। १६०४.बालाई परिचत्ता, अकहितेऽणेसणाइगहणं वा। न य कहपबंधदोसा, अह य गुणा साहिया होति॥ यदि गीतार्थ मुनि अभिग्रहविशेष की बात गृहस्थों को नहीं बताएंगे तो संभव है वे स्निग्ध-मधुर आहार देना ही बंद कर देंगे। इससे बालमुनि, ग्लान, वृद्ध आदि को वे प्रायोग्य पदार्थ नहीं मिलेंगे। यदि वे मुनि एषणादोष की अवगति नहीं देंगे तो अनेषणीय आदि का ग्रहण होते रहेंगे। इसमें कथाप्रबंधन १. पार्श्वस्थ श्रावकों को वे इस प्रकार कहते हैं-किसी हरिण के पीछे एक लब्धक दौड़ता है, उसका पलायन श्रेयस्कर है।लब्धक का भी हरिण के पीछे दौड़ना श्रेय है। इसी प्रकार अनेषणीय ग्रहण करने से साधु आदि दोष नहीं होते। प्रत्युत इस प्रकार कहने वाले गीतार्थ मुनियों के गुण से (बाल-वृद्ध के उपष्टंभ, गुरुभक्ति आदि) साधित होते हैं। १६०५.ठाणं गमणाऽऽगमणं, वावारं पिंडसोहिमुल्लोगं। जाणताण वि तुज्झं, बहवक्खेवाण कहयामो॥ स्थान तीन प्रकार के होते हैं-आत्मोपघातवर्जित, प्रवचनोपघातवर्जित तथा संयमोपघातवर्जित। गीतार्थ भिक्षु यह बताना चाहते हैं कि भिक्षा दायक गृहस्थ तथा ग्राहक मुनि ऐसे स्थान पर स्थित होकर भिक्षा दे-ले। दायक भिक्षा लाने तथा भीतर गमन करते समय अथवा आगमन के समय उपयुक्त होकर गमनागमन करे। व्यापार अर्थात् कर्त्तन-कंडनपेषण आदि की सम्यग् जानकारी देनी चाहिए। वे मुनि गृहपति को उपरोक्त तथ्यों के साथ-साथ पिंडशुद्धि के लेशोद्देश-पिंडशुद्धि के उल्लोक-नियम-उपनियम भी बताए तथा उनसे कहे-तुम इस साधुधर्म को जानते ही हो, फिर भी तुम्हारे जीवन में बहुत विक्षेप आते हैं, इसलिए वह साधुधर्म विस्मृत हो सकता है, इसलिए हम तुम को पुनः स्मृति कराते हैं। १६०६.केसिंचि अभिग्गहिया,अणभिग्गहिएसणा उ केसिंचि। मा हु अवण्णं काहिह, सव्वे वि हु ते जिणाणाए। पुनः उनसे कहे-कुछ मुनि अभिग्रहधारी होते हैं, जैसे जिनकल्पी मुनि और कुछ मुनि अभिग्रहरहित होते हैं, जैसे स्थविरकल्पी मुनि। उन दोनों की भक्तपान ग्रहण-विधि भिन्नभिन्न होती है। उसे देखकर तुम अवज्ञा मत करना। वे सभी जिनाज्ञा में हैं। १६०७.संविग्गभावियाणं, लुद्धगदिद्रुतभावियाणं च। मुत्तूण खेत्त-काले, भावं च कहिंति सुद्धछ ।। श्रावकों के समक्ष इन दो के एषणा दोषों का कथन करना चाहिए-संविग्नभावितों के तथा लुब्धकदृष्टांत भावितों के। इन दोनों प्रकार के श्रावकों के समक्ष शुद्धउंछ का कथन करते हैं। तथा क्षेत्र-काल और भाव के प्रसंग में वे उन्हें अपवादपद की भी जानकारी देते हैं। १६०८.संथरणम्मि असुद्धं, दोण्ह वि गिण्हत-दितयाणऽहियं। आउरदिट्ठतेणं, तं चेव हियं असंथरणे॥ यदि प्रासुक-एषणीय आहार से संस्तरण हो सकता हो तो अशुद्ध देने वाले और लेने वाले दोनों के अहित-अपथ्य होता है। असंस्तरण की स्थिति में वही अशुद्ध अशन-पान को पलायन करना उचित है। श्रावक को भी एषणीय-अनेषणीय का (अपवाद में) दान देना युक्त है। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक हितकारी हो जाता है। यहां आतुर-रोगी का दृष्टांत है। (रोगी के किसी अवस्था में अन्न-औषधि आदि अपथ्य हो जाती है और कभी वही पथ्य बन जाती है।) १६०९.संचइयमसंचइयं, नाऊण असंचयं तु गिण्हति। __ संचइयं पुण कज्जे, निब्बंधे चेव संतरियं॥ प्रायोग्य द्रव्य दो प्रकार के होते हैं-संचयिक और असंचयिक। संचयिक अर्थात् घृत, गुड़, मोदक आदि, तथा असंचयिक अर्थात दूध, दही, शालि आदि। असंचयिक द्रव्य स्थापनाकुलों में प्रचुरमात्रा में हैं-यह जानकर वे उसे ग्रहण करते हैं तथा संचयिक द्रव्य प्रयोजन उत्पन्न होने पर ही ग्रहण करते हैं। श्रावकों का अति आग्रह होने पर ग्लान आदि के प्रयोजन के बिना भी सामान्य मुनि भी उसे लेते हैं, परंतु सान्तरित-एकांतरित उसे ग्रहण करते हैं। १६१०.अहवण सद्धा-विभवे, कालं भावं च बाल-वुड्ढाई। नाउ निरंतरगहणं, अछिन्नभावे य ठायंति॥ 'अहवण'-यह प्रकारान्तर द्योतक अव्यय है। प्रकारान्तर से कहा गया है-श्रावक की श्रद्धा, वैभव, काल और भाव को जानकर बाल-वृद्ध आदि मुनि परितृप्त हों-ऐसा सोचकर संचयिक द्रव्य भी निरंतर ग्रहण किया जा सकता है। वे प्रतिदिन उसे तब ले सकते हैं जब तक दायक का दानभाव अच्छिन्न रहता है। अवसर देखकर वे मुनि दानभाव को अच्छिन्न स्थिति में ही दीयमान संचयिक द्रव्य लेने का प्रतिषेध कर देते हैं। १६११.दव्वप्पमाण गणणा, खारिय फोडिय तहेव अद्धा य। संविग्ग एगठाणे, अणेगसाहसु पन्नरस॥ स्थापनाकुलों में भिक्षा-ग्रहण की सामाचारी स्थापनाकुलों के प्रत्येक गृह में पकने वाले द्रव्यों का प्रमाण, घृत आदि के पलों की गणना, क्षारित अर्थात् यहां व्यंजन कितनी मात्रा में होता है, स्फोटित-मिर्च, जीरक आदि 'कदभांड' से संस्कृत द्रव्य कितने प्रमाण में होते हैं तथा अद्धा अर्थात् किस प्रहर में यहां भिक्षावेला होती है-यह सारा जानकर संविग्नमुनि का एक संघाटक उस घर में भिक्षा के लिए प्रवेश करे। अनेक साधुओं का वहां प्रवेश करने पर पन्द्रह दोष होते हैं। (आधाकर्म से अनिसृष्ट तक उदगम दोष होते हैं। १६१२.असणाइदव्वमाणे, दसपरिमिय एगभत्तमुव्वरइ। सो एगदिणं कप्पइ, निच्चं तु अन्झोयरो इहरा॥ अशन आदि का द्रव्य प्रमाण जानना चाहिए। जहां दस व्यक्तियों के लिए भोजन उपस्कृत होता है वहां एक व्यक्ति के लिए भोजन शेष रह सकता है। वह एक दिन कल्प सकता है। यदि दूसरे दिन आदि उसे ग्रहण करते हैं तो श्रावक उसे नित्यभक्त मानते हैं, अतः उसके निमित्त अध्यवपूरक करते हैं। १६१३.अपरिमिए आरेण वि, दसण्हमुव्वरइ एगभत्तट्ठो। वंजण-समिइम-पिढे-वेसणमाईसु य तहेव।। जहां अपरिमित भोजन बनता है, वहां दस आदि मनुष्यों अथवा नौ-आठ आदि मनुष्यों के लिए बने भोजन में भी एक मनुष्य के योग्य भक्त बच जाता है। वह प्रतिदिन लेना कल्पता है। तथा व्यंजन, समितिमा-कणिका से निष्पन्न मंडक, पूपलिका आदि, पिष्ट-सत्तू आदि, वेसण-मिर्च, मसाले आदि-इनका परिमाण भी अशन जैसा ही समझना चाहिए। १६१४.सतिकालद्धं नाउं, कुले कुले ताहि तत्थ पविसंति। ओसक्कणाइदोसा, अलंभे बालाइहाणी वा॥ जिस देश-काल में भिक्षा का जो समय है, उसे जानकर उस देश-काल में कुलों में भिक्षा के लिए प्रवेश करते हैं। अतिक्रांतकाल अथवा अकाल में प्रवेश करने पर प्रायोग्य द्रव्य नहीं मिलता और उससे वृद्ध, बाल आदि मुनियों के हानि होती है, परिताप होता है। १६१५. एगो व होज्ज गच्छो,दोन्नि व तिन्नि व ठवणा असंविग्गे। सोही गिलाणमाई, असई य दवाइ एमेव॥ यह एक गच्छ को लक्ष्य कर विधि बतलाई गई है। जहां दो-तीन आदि गच्छ हों, जहां संविग्न मुनि जिन कुलों में प्रवेश करते हों, वहां अन्य मुनि न जाएं। यदि जाते हैं तो प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। यदि वे ग्लान आदि के लिए जाते हैं और शुद्ध भक्तपान ग्रहण करते हैं तो कोई दोष नहीं। अन्यत्र द्रव पदार्थ न मिलने पर, वह द्रव पदार्थ असंविग्नभावित कुलों से उसे प्राप्त किया जा सकता है। १६१६.संविग्गमणुन्नाए, अइंति अहवा कुले विरिंचंति। अन्नाउंछं व सहू, एमेव य संजईवग्गे॥ वहां वास्तव्य संविग्न मुनियों द्वारा अनुज्ञात होने पर वे आगंतुक संविग्न मुनि उन स्थापनाकुलों में जा सकते हैं। अथवा स्थापनाकुलों का विभाग कर देते हैं। यदि आगंतुक मुनि समर्थ होते हैं तो वे अज्ञात उंछ की गवेषणा करते हैं। संयतिवर्ग में भी यही विधि है। १६१७.एवं तु अन्नसंभोइआण संभोइआण ते चेव। जाणित्ता निब्बंधं, वत्थव्वेणं स उ पमाणं ।। यह विधि अन्य सांभोगिक मुनियों की बताई गई है। जो सांभोगिक हैं, उनके आने पर वास्तव्य सांभोगिक मुनि भक्तपान लाकर देते हैं। अथवा श्रावकों का अति आग्रह जानकर Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =बृहत्कल्पभाष्यम् वास्तव्य संघाटक उस आगंतुक संघाटक को लेकर उन कुलों में जाए। वास्तव्य संघाटक ही उसका प्रमाण होता है। १६१८.असइ वसहीए वीसु, रायणिए वसहि भोयणाऽऽगम्म। असहू अपरिणया वा, ताहे वीसुंऽसहू वियरे॥ विस्तीर्ण वसति के अभाव में, अन्य पृथक् वसति में स्थित मुनियों में, आगंतुक अथवा वास्तव्य मुनि रत्नाधिक हो तो उसकी वसति में अवम रात्निक उसको भोजन कराए। यदि एक या दोनों गच्छों में साधु असहिष्णु अथवा अपरिणत हों तो दोनों गच्छों के आचार्यों को पृथक् वसति में भोजन कराए। (यह दो गच्छो की विधि बतलाई गई है।) १६१९.तिण्हं एक्केण सम, भत्त8 अप्पणो अवहूं तु। पच्छा इयरेण समं, आगमण विरेगु सो चेव॥ एक वास्तव्य आचार्य हो। दो आगंतुक आचार्य आने पर जो रत्नाधिक हो उसके वैयावृत्तकर साधु के साथ वास्तव्य आचार्य का वैयावृत्तकर साधु जाए और आगंतुक के लिए श्राद्धकुलों से पूरा आहार और स्वयं के लिए आधा आहार लाए। तदनन्तर दूसरे आगंतुक आचार्य के वैयावृत्तकर साधु को लेकर जाए और पूर्ववत् मात्रा में ग्रहण करे। यदि तीनचार-पांच आदि आचार्यों का आगमन हो तो इसी प्रकार विभाग करे। १६२०.अतरंतस्स उ जोगासईए इयरेहिं भाविए विसिउं। अन्नमहाणसुवक्खड, जं वा सन्नी सयं भुंजे॥ ग्लान मुनि के लिए प्रायोग्य द्रव्य की अप्राप्ति होने पर इतर अर्थात् असंविग्नभावित कुलों में प्रवेश कर उस महानस में जाए जहां अध्यवपूरक आदि दोष रहित भोजन पक रहा हो अथवा 'सन्नी' अर्थात् श्रावक गृहपति स्वयं वहां भोजन करता हो, वहां से ग्लान प्रायोग्य आहार ग्रहण करे। १६२१.असतीए व दवस्स व,परिसित्तिय-कंजि-गुलदवाईणि। अत्तट्ठियाइं गिण्हइ, सव्वालंभे विमिस्साई॥ यदि ग्लान के प्रायोग्य द्रव-पानक की प्राप्ति न हो तो परिषिक्तपानक (गर्म पानी से दही के बर्तन आदि धोना), कांजी, गुड़ के बर्तन का पानक, इमली का पानक, जो गृहस्थ ने स्वयं के लिए बनाए हैं, उन्हें ग्लान के प्रयोजन के लिए ग्रहण करे। यदि ग्लान और गच्छ के प्रायोग्य पानक की अप्राप्ति हो तो विमिश्र अर्थात् असंविग्न श्रावकों के लिए अचित्तीकृत पानक लिया जा सकता है। १६२२.पाणट्ठा व पविट्ठो, विसुद्धमाहार छंदिओ गिण्हे। अद्धाणाइ असंथरि, जाउं एमेव जदसुद्धं ॥ पानक के लिए प्रविष्ट मुनि को यदि गृहपति विशुद्ध आहार ग्रहण करने के लिए निमंत्रित करे, तो मुनि वह आहार ग्रहण करे। तथा अध्वनिर्गत साधुओं के लिए अथवा अवमौदर्य-अशिव आदि में पूरा आहार प्राप्त न हो तो इसी प्रकार अर्थात् ग्लान के लिए ग्रहण करने की विधि से शुद्ध आहार की गवेषणा करे। उसकी प्राप्ति न हो तो अशुद्ध आहार भी ग्रहण कर सकता है। १६२३. इच्छा मिच्छा तहक्कारे,आवस्सि निसीहिया य आपुच्छा। पडिपुच्छ छंदण निमंतणा य उवसंपया चेव॥ दस प्रकार की सामाचारी यह है-इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, आवश्यिकी, नैषेधिकी, आपृच्छा, प्रतिपृच्छा, छंदना, निमंत्रणा और उपसंपदा। १६२४.सुय संघयणुवसग्गे, आतंके वेयणा कति जणा य। थंडिल्ल वसहि किच्चिर, उच्चारे चेव पासवणे॥ १६२५.ओवासे तणफलए, सारक्खणया य संठवणया य। पाहुडि अग्गी दीवे, ओहाण वसे कइ जणा य॥ १६२६.भिक्खायरिया पाणग, लेवालेवे तहा अलेवे य। आयंबिल पडिमाओ, गच्छम्मि उ मासकप्पोउ। ये तीनों द्वार गाथाएं हैं। इनमें स्थविरकल्पिक मुनियों की सामाचारी के २७ द्वारों का उल्लेख हैं १. श्रुत १०. उच्चार १९. अवधान २. संहनन ११. प्रस्रवण २०. वसति में कितने जन रहेंगे? ३. उपसर्ग १२. अवकाश २१. भिक्षाचर्या ४. आतंक १३. तृणफलक २२. पानक ५. वेदना १४. संरक्षणता २३. लेपालेप ६. कितने जन? १५. संस्थापनता २४. अलेप ७. स्थंडिल १६. प्राभृतिका २५. आचाम्ल ८. वसति १७. अग्नि २६. प्रतिमा ९. कितना काल १८. दीप २७. मासकल्प। इनमें से कुछेक की विस्तृत व्याख्या गाथा १६२७ से १६३३ तक हैं। १६३२वीं गाथा की टीका में शेष द्वारों की संक्षिप्त व्याख्या भी प्राप्त है। १६२७.ओहेण दसविहं पि य, सामायारिं न ते परिहवंति। पवयणमाय जहन्ने, सव्वसुयं चेव उक्कोसे॥ स्थविरकल्पी मुनि सामान्यतः दसविध सामाचारी का परिहार नहीं करते। गच्छवासियों के जघन्यतः श्रुत है आठ प्रवचन माताएं और उत्कृष्ट है-सर्वश्रुतज्ञान अर्थात् चतुर्दशपूर्व। १६२८.सव्वेसु वि संघयणेसु होति धिइदुब्बला व बलिया वा। आतंका उवसग्गा, भइया विसहंति व न व ति॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = स्थविरकल्पी सभी छहों संहननों में होते हैं। धृति से वे १६३४.खित्ते काल चरित्ते, तित्थे परियाय आगमे वेए। दुर्बल अथवा बली-दोनों प्रकार के होते हैं। जब आतंक और कप्पे लिंगे लेसा, झाणे गणणा अभिगहा य॥ उपसर्ग उत्पन्न होते हैं तब उनको सहन करने की भजना १६३५.पव्वावण मुंडावण, मणसाऽऽवन्ने उ नत्थि पच्छित्तं। है वे उन्हें सहन करते भी हैं और नहीं भी करते। सहन न कारण पडिकम्मम्मि उ, भत्तं पंथो य भयणाए॥ कर सकने के कारण वे उसकी चिकित्सा करवाते हैं। स्थितिद्वार के द्वार हैं१६२९.दुविहं पि वेयणं ते, निक्कारणओ सहति भइया वा। क्षेत्र, काल, चारित्र, तीर्थ, पर्याय, आगम, वेद, कल्प, ___ अममत्त अपरिकम्मा, वसही वि पमज्जणं मोत्तुं॥ लिंग, लेश्या, ध्यान और गणना-इनकी स्थिति कहनी वे दोनों प्रकार की वेदनाओं-आभ्युपगमिकी और चाहिए। अभिग्रह, प्रव्राजना, मुंडापना, मन से होने वाले पाप औपक्रमिकी को निष्कारण सहन करते भी हैं और नहीं भी का प्रायश्चित्त नहीं है, कारण तथा प्रतिकर्म में स्थिति, भक्तकरते। उनका वसति के प्रति ममत्व नहीं होता और न वे पान और पथ में भजना है। (इन सबका विवरण आगे हैं) उसका प्रमार्जन को छोड़कर परिकर्म ही करते हैं। १६३६.पन्नरसकम्मभूमिसु, खेत्तऽद्धोसप्पिणीइ तिसु होज्जा। १६३०.तिगमाईया गच्छा, सहस्स बत्तीसई उसभसेणे। तिसु दोसु य उस्सप्पे, चउरो पलिभाग साहरणे।। थंडिल्लं पि य पढम, वयंति सेसे वि आगाढे॥ क्षेत्र के संबंध में स्थविरकल्पी मुनि जन्म और सद्भाव स्थविरकल्पी मुनियों के गच्छ तीन-चार आदि पुरुष- से पन्द्रह कर्मभूमियों में होते हैं। काल की अपेक्षा से वे प्रमाणवाले होते हैं। यह जघन्य परिमाण है। भगवान् अवसर्पिणी कालचक्र में जन्म और सद्भाव से तीसरे, चौथे ऋषभदेव के प्रथम गणधर ऋषभसेन के गच्छ का उत्कृष्ट और पांचवें-इन तीन अरकों में होते हैं और उत्सर्पिणी में परिमाण था बत्तीस हजार मुनियों का। स्थविरकल्पी मुनि जन्म से वे तीन अरकों-दूसरे, तीसरे और चौथे में तथा प्रथम स्थंडिल में जाते हैं। वह है-अनापात-असंलोक। सद्भाव से तीसरे और चौथे-इन दो अरकों में होते हैं। नो आगाढ़ कारण उत्पन्न होने पर शेष स्थंडिलों में भी जाते हैं। अवसर्पिणी और नो उत्सर्पिणी काल में जन्म और सद्भाव से १६३१.किच्चिर कालं वसिहिह, न ठंति निक्कारणम्मि इइ पुट्ठा। दुःषमसुषमा प्रतिभाग में होते हैं और संहरण की अपेक्षा अन्नं वा मग्गंती, ठविंति साहारणमलंभे॥ चारों प्रतिभागों में होते हैं। वे चार हैं-सुषमसुषमाप्रतिभाग, 'तुम मुनि इस वसति में कितने काल तक ठहरोगे' इस सुषमप्रतिभाग, सुषमदुःषमाप्रतिभाग और दुःषमसुषमाप्रकार पूछने पर मुनि उस वसति में बिना कारण न रहे, प्रतिभाग। अन्य वसति की मार्गणा करे। अन्य. वसति न मिलने पर १६३७.पढम-बिइएसु पडिवज्जमाण इयरे उ सव्वचरणेसु। साधारण वचन कहे कि व्याघात न होने पर मास पर्यन्त ठहर नियमा तित्थे जम्मऽट्ठ जहन्ने कोडि उक्कोसे॥ सकते हैं और व्याघात होने पर कम या अधिक दिन भी रह १६३८.पव्वज्जाए मुहुत्तो, जहन्नमुक्कोसिया उ देसूणा॥ सकते हैं। आगमकरणे भइया, ठियकप्पे अट्ठिए वा वि।। १६३२.एमेव सेसएस वि, केवइया वसिहिह त्ति जा नेयं। प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से वे प्रथम चारित्र सामायिक में निक्कारण पडिसेहो, कारण जयणं तु कुव्वंति॥ अथवा दूसरे चारित्र छेदोपस्थानीय चारित्र में होते हैं। इतर इसी प्रकार शेष द्वारों-उच्चार-प्रस्रवण आदि में भी अर्थात् पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से वे सभी चारित्रों में होते हैं। 'कितने दिन निवास करेंगे' इस द्वार की भांति ही समझना । नियमतः ये तीर्थ में होते हैं। उनका गृहीपर्याय जन्म से आठ चाहिए। निष्कारण इनमें भी प्रतिषेध है। कारण में यतना वर्ष और उत्कृष्ट पूर्वकोटि। प्रव्रज्यापर्याय जघन्यतः अंतर्मुहूर्त करते हैं। तथा उत्कृष्टतः देशोनपूर्वकोटी। आगम अर्थात् अपूर्व१६३३.नियताऽनियता भिक्खायरिया पाणऽन्न लेवलेवाडं। श्रुताध्ययन के विषय में विकल्प है-वे करते भी हैं और नहीं ___ अंबिलमणंबिलं वा, पडिमा सव्वा वि अविरुद्धा॥ भी करते। वे स्थितकल्प अथवा अस्थितकल्प में होते हैं। स्थविरकल्पी मुनि की भिक्षाचर्या नियत (कदाचित् (प्रतिपत्तिकाल की अपेक्षा तीन वेद और प्रतिपन्नक की आभिग्रहिकी), अनियत (कदाचित् अनाभिग्रहिकी), पान और अपेक्षा से अवेद भी।) अन्न लेपकृत अथवा अलेपकृत, आचाम्ल अथवा अनाचाम्ल १६३९.भइया उ दव्वलिंगे, पडिवत्ती सुद्धलेस-धम्मेहि। तथा सभी प्रतिमाएं अविरुद्ध हैं। पुव्वपडिवन्नगा पुण, लेसा झाणे अ अन्नयरे।। १. वृत्ति में यतना विषयक विशेष जानकारी उपलब्ध है। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० तारिसआ । प्रतिपद्यमानक तथा पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से द्रव्यलिंग में विकल्पनीय होते हैं। भावलिंग तो सदा होता ही हैं। प्रतिपत्ति शुद्धलेश्या और धर्म्यध्यान में होती है। पूर्व प्रतिपन्नक छहों लेश्याओं में से किसी एक में तथा चारों प्रकार के ध्यानों में किसी एक ध्यान में होते हैं।' १६४०.झाणेण होइ लेसा, झाणंतरओ व होइ अन्नयरी। अज्झवसाओ उ दढो, झाणं असुभो सुभो वा वि॥ भावलेश्या ध्यान अथवा ध्यानान्तर से होती है। ध्यान दृढ़ अध्यवसाय है। वह शुभ अथवा अशुभ होता है। दृढ़ अध्यवसाय अंतर्मुहूर्त्तकाल तक ही रहता है। निरंतर वह नहीं होता। सारा अदृढ़ अध्यवसाय चिंता कहलाता है। १६४१.झाणं नियमा चिंता, चिंता भइया उ तीसु ठाणेसु। झाणे तदंतरम्मि उ, तब्विवरीया व जा काइ॥ ध्यान नियमतः चिंता है। चिंता की तीन स्थानों में भजना है। ध्यान में, ध्यानान्तर में, अथवा तद्विपरीत अर्थात् विप्रकीर्ण चिन्तचेष्टा जो ध्यान में या ध्यानान्तरिका में अवतरित नहीं होती। इसलिए जब दृढ़ अध्यवसाय से चिंतन किया जाता है तब चिंता और ध्यान का एकत्व होता है, अन्यथा अन्यत्व। १६४२.कायादि तिहिक्किक्कं, चित्तं तिव्व मउयं च मज्झं च। जह सीहस्स गतीओ, मंदा य पुता दुया चेव॥ दृढ़ अध्यवसायात्मक चित्त तीन प्रकार का होता हैकायिक, वाचिक और मानसिक। (कायिक जैसे-काया की प्रवृत्ति के व्याक्षेपों का परिहार करता हुआ भंगों की चारणिका करता है अथवा कूर्म की भांति अंगोपांगों को संलीन करता है। वाचिक-मुझे निरवद्य भाषा बोलनी है, सावध भाषा नहीं अथवा विकथा को छोड़ श्रुत परावर्तन करना चाहिए। मानसिक-एक वस्तु में चित्त की एकाग्रता।) ये तीनों तीन-तीन प्रकार के होते हैं-तीव्र, मृदु और मध्य। जैसे सिंह की गति तीन प्रकार की होती है-मन्द, द्रुत और प्लुत। १६४३.अन्नतरझाणऽतीतो, बिइयं झाणं तु सो असंपत्तो। झाणंतरम्मि बट्टइ, बिपहे व विकुंचियमईओ।। ध्यानान्तरिका किसे कहते हैं? किसी एक वस्तुविषयक ध्यान से उपरत होकर जब तक वह दूसरे ध्यान को असंप्राप्त होता है, तब तक वह ध्यानान्तरिका में वर्तन करता है। जैसे एक ध्यान से उपरत १. लेश्या-जीव का शुभ-अशुभ परिणाम । यह चल अथवा अचल दोनों प्रकार का होता है। ध्यान-आत्मा का शुभ-अशुभ परिणाम। यह अचल ही होता है। बृहत्कल्पभाष्यम् होकर वह सोचता है अब मैं किस वस्तु पर ध्यान करूं इस प्रकार का विमर्श ध्यानान्तरिका कहलाती है। दो गांवों में जाने के दो मार्ग देखकर पथिक 'विकुचितमतिक' अर्थात् किस मार्ग से जाऊं, इस प्रकार विमर्श से आकुल मतिवाला होकर अपान्तराल में रहता है। यह ध्यानान्तर है। यही स्वरूप है ध्यानान्तरिका का। १६४४.वण्ण-रस-गंध-फासा इट्ठाऽणिट्ठा विभासिया सुत्ते। अहिक्किच्च दव्वलेसा, ताहि उ साहिज्जई भावो॥ सूत्र (प्रज्ञापना आदि) में द्रव्य लेश्या के इष्ट-अनिष्ट वर्ण, रस, गंध और स्पर्श का अनेक प्रकार से वर्णन प्राप्त है। उन द्रव्य लेश्याओं से शुभ-अशुभ अध्यवसायरूप भाव सिद्ध होते हैं, जाने जाते हैं। १६४५.पत्तेयं पत्तेयं, वण्णाइगुणा जहोदिया सुत्ते। तारिसओ च्चिय भावो, लेस्साकाले वि लेस्सीणं ।। कृष्ण आदि प्रत्येक लेश्याओं में से एक-एक द्रव्यलेश्या के वर्ण आदि गुण जैसे सूत्र में बतलाए गए हैं वैसे ही भाव लेश्याकाल में लेश्यी (लेश्यावान् व्यक्ति) के होते हैं। १६४६. चिज्जए उ कम्म, जं लेसं परिणयस्स तस्सुदओ। ___ असुभो सुभो व गीतो, अपत्थ-पत्थऽन्न उदओ वा॥ जिस कृष्ण आदि लेश्या में परिणत जीव का जो शुभअशुभ कर्म बंधता है, उसका उदय भी शुभ-अशुभ ही होता है-ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। यहां अपथ्य-पथ्य भोजन का दृष्टांत दिया गया है। जैसे पथ्य भोजन उदय काल में शुभ होता है और अपथ्य भोजन उदय काल में रोग आदि का जनक होता है। १६४७.पडिवज्जमाण भइया, एगो व सहस्ससो व उक्कोसा। कोडिसहस्सपुहत्तं, जहन्न-उक्कोसपडिवन्ना॥ स्थविरकल्प साधना के प्रतिपद्यमानक विवक्षित काल में होते भी हैं और नहीं भी होते। यदि होते हैं तो एक, दो आदि और उत्कर्षतः सहस्रपृथक्त्व। पूर्वप्रतिपन्नक जघन्यतः कोटिसहस्रपृथक्त्व और उत्कर्षतः भी कोटिसहस्रपृथक्त्व। १६४८.लेवडमलेवडं वा, अमुगं दव्वं च अज्ज घिच्छामि। अमुगेण व दव्वेणं, अह दव्वाभिग्गहो नाम। अभिग्रह चार प्रकार से होता है-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः। द्रव्यतः-लेपकृत अथवा अलेपकृत, आज मैं अमुक द्रव्य लूंगा, अमुक साधन से दिया जाने वाला द्रव्य लूंगा। यह द्रव्य अभिग्रह है। २. ध्यानान्तर-अदृढ़ अध्यवसाय रूप चिंतन अथवा ध्यान-ध्यान की अन्तरिका। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक १७१ १६४९.अट्ठ उ गोयरभूमी, एलुगविक्खंभमित्तगहणं च। आचरण करते हैं। वे छह कल्प ये हैं-प्रव्राजना, मुंडापना, सग्गाम परग्गामे, एवइय घरा य खित्तम्मि॥ शिक्षापना, उपस्थापना, संभुंजना और संवासना। किसी क्षेत्रअभिग्रह-गोचरभूमियां आठ हैं ऋज्वी, गत्वा- कारणवश अथवा असमर्थता के कारण वे प्रव्राजना आदि लेने प्रत्यागतिका गोमूत्रिका, पतंगवीथिका, पेडा, अर्द्धपेडा, वाले को अन्यत्र गच्छान्तर में गीतार्थ आचार्य के पास जाने अभ्यन्तरशम्बूका, बहिःशम्बूका।' भिक्षा के लिए गमनागमन के लिए उपदेश देते हैं। के ये आठ प्रकार हैं। मैं देहली मात्र का उल्लंघन कर भिक्षा १६५५.जीवो पमायबहुलो, पडिवक्खे दुक्करं ठवेउं जे। ग्रहण करूंगा। मैं स्वग्राम और परग्राम में इतने घरों से भिक्षा केत्तियमित्तं वोज्झिति, पच्छित्तं दुग्गयरिणी वा॥ लूंगा-यह क्षेत्रतः अभिग्रह है। जीव प्रमादबहुल होता है। उसको अप्रमाद में स्थापित करना १६५०.काले अभिग्गहो पुण, आई मज्झे तहेव अवसाणे। दुष्कर होता है। जैसे दुर्गतऋणिक अर्थात् दरिद्र कर्जदार की अप्पत्ते सइ काले, आई बिइओ अ चरिमम्मि॥ भांति वह प्रमादबहुल जीव कितना प्रायश्चित्त वहन कर सकेगा। काल-अभिग्रह इस प्रकार है-भिक्षावेला के आधार पर इसलिए स्थविरकल्पिकों के मन से किए अपराध का कोई तपः काल अभिग्रह तीन प्रकार का होता है-आदि, मध्य और प्रायश्चित्त नहीं होता, आलोचना, प्रतिक्रमण-यह प्रायश्चित्त तो अवसान। अप्राप्त भिक्षाकाल में पर्यटन करना आद्यभिक्षा- होता ही है। श्लोक १६३५ के अंतिम दो चरण 'कारण कालविषयक प्रथम अभिग्रह है। भिक्षाकाल में पर्यटन पडिकम्मम्मि उ, भत्तं पंथो य भयणाए॥' का भावार्थ यह करना मध्यभिक्षाकालविषयक द्वितीय अभिग्रह है। अतिक्रांत है कारण अर्थात् अशिव, अवमौदर्य होने पर अपवाद पद का भिक्षा-काल में पर्यटन करना अवसानविषयक तीसरा सेवन किया जा सकता है। कारण में शरीर का परिकर्म भी मान्य अभिग्रह है। है। सामान्यतः तीसरे प्रहर में भिक्षाटन और विहार किया जाता १६५१.दिंतग-पडिच्छगाणं,हविज्ज सुहुमं पि मा हु अचियत्तं। है। अपवाद में इन दोनों में भी भजना है, विकल्प है। इअ अप्पत्ते अइए, पवत्तणं मा ततो मज्झे॥ १६५६.गच्छम्मि उ एस विही, नायव्वो होइ आणुपुव्वीए। भिक्षादाता और प्रतीच्छक-दोनों के सूक्ष्मरूप से भी जं एत्थं नाणत्तं, तमहं वोच्छं समासेणं॥ अप्रीतिक न हो, इसलिए अप्राप्त अथवा अतिक्रांत भिक्षाकाल गच्छवासी मुनियों की यह विधि परिपाटी से ज्ञातव्य है। में पर्यटन श्रेयस्कर है। पुरःकर्म और पश्चात्कर्म का प्रवर्तन न इसमें जो नानात्व है-विशेष है, वह मैं संक्षेप में कहूंगा। हो इसलिए मध्य अर्थात् भिक्षाकाल में पर्यटन करना १६५७.सामायारी पुणरवि, तेसि इमा होइ गच्छवासीणं। श्रेयस्कर है। पडिसेहो व जिणाणं, जं जुज्जइ वा तगं वोच्छं। १६५२.उक्खित्तमाइचरगा, भावजुया खलु अभिग्गहा होति। गच्छवासी मुनियों की पुनः वक्ष्यमाण यह सामाचारी गायंतो व रुदंतो, जं देइ निसन्नमादी वा॥ होती है। जिनकल्पी मुनियों के इसी सामाचारी का प्रतिषेध उत्क्षिप्तचरक, निक्षिप्तचरक, संख्यादत्तिक, दृष्टलाभिक, है। उनके भी जो प्रत्युपेक्षणा आदि आवश्यक है, वह मैं पृष्टलाभिक आदि भाव अभिग्रह वाले होते हैं। जो गाता बताऊंगा। हुआ, रोता हुआ, बैठा हुआ, प्रस्थित होता हुआ देगा, वह मैं १६५८.पडिलेहण निक्खमणे,पाहुडिया भिक्ख कप्पकरणे य। ग्रहण करूंगा ये सारे भाव अभिग्रह हैं। गच्छ सतिए अ कप्पे, अंबिल भरिए य ऊसित्ते॥ १६५३.ओसक्कण अहिसक्कण, परम्मुहाऽलंकिएयरो वा वि। १६५९.परिहरणा अणुजाणे, पुरकम्मे खलु तहेव गेलन्ने। भावन्नयरेण जुओ, अह भावाभिग्गहो नाम॥ गच्छपडिबद्धहालंदि उवरि दोसा य अववादे॥ इसी प्रकार अपसरण करता हुआ, सम्मुख आता हुआ, ये दोनों द्वारगाथाएं हैं। इनका पूरा विवरण आगे की पराङ्गख होकर, अलंकृत पुरुष, अनलंकृत पुरुष यदि देगा तो अनेक गाथाओं में है। मैं ग्रहण करुंगा। इन भावों से किसी अन्यतर भाव से देना प्रतिलेखन, निष्क्रमण, प्राभृतिका, भिक्षा, कल्पकरण, भी अभिग्रह है। शतिकगच्छ (सौ मुनियों वाला गच्छ), कल्प्य, अम्ल, १६५४. सच्चित्तदवियाकप्पं, छव्विहमवि आयरंति थेरा उ। भरण, उत्सिक्त, परिहरण, अनुयान, पुरःकर्म, ग्लानत्व, ___ कारणओ असहू वा, उवएसं दिति अन्नत्थ॥ गच्छप्रतिबद्ध यथालंदिक, मासकल्प के अधिक रहने से स्थविरकल्पी मुनि छह प्रकार के सचित्तद्रव्यकल्प का दोष, अपवाद....।। १. इन गृह-पंक्तियों में भिक्षाटन करने का विस्तार से वर्णन टीका में है। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ -बृहत्कल्पभाष्यम् १६६०.पडिलेहणा उ काले, अपडिलेह दोस छसु वि काएसु। न की जाए तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यदि पडिगहनिक्खेवणया, पडिलेहणिया सपडिवक्खा॥ ऋतुबद्ध काल में प्रतिग्रह और मात्रक धारण नहीं किया जाता यह भी द्वार गाथा है। काल में प्रत्युपेक्षणा करना। अथवा उपकरण को बांधा न जाए तो मासलघु का प्रायश्चित्त अप्रत्युपेक्षा। सदोष प्रत्युपेक्षा। छह जीवनिकाय पर विहित है। वर्षा ऋतु में उपधि को बांधा जाता है या दोनों प्रतिष्ठित। पतद्ग्रह का निक्षेपण। प्रतिलेखना सप्रतिपक्षा भाजनों को धारण किया जाता है तो मासलघु का प्रायश्चित्त (सापवाद) होती है। (व्याख्या आगे) आता है। १६६१.सूरुग्गए जिणाणं पडिलेहणियाए आढवणकालो। १६६५.असिवे ओमोयरिए, सागार भए व राय गेलन्ने। थेराणऽणुग्गयम्मी, ओवहिणा सो तुलेयव्वो॥ जो जम्मि जया जुज्जइ, पडिवक्खो तं तहा जोए। जिनकल्पी मुनियों के लिए प्रत्युपेक्षणा का आरंभकाल है अशिव, अवमौदर्य, सागारिक के देखते, स्तेन आदि के सूर्योदय। स्थविरकल्पी मुनियों के लिए उसका आरंभकाल है। भय से, प्रत्यनीक राजा के कारण, ग्लानत्व हो जाने पर-इन अनुद्गतसूर्य। उसको उपधि से तोलना चाहिए। (उपधि कारणों से उपधि आदि की प्रत्युपेक्षा नहीं की जाती। इन से तोलने का तात्पर्य है-पांच यथाजात, तीन कल्प (एक स्थितियों में जहां जैसा योग हो वहां वैसा प्रतिपक्ष अर्थात् ऊनी, दो सौत्रिक), संस्तारकपट्ट, उत्तरपट्ट तथा दंड-इन अपवाद का आलंबन लिया जा सकता है। ग्यारह उपकरणों की प्रतिलेखना करते-करते जब सूर्य उदित १६६६.तस-बीयरक्खणट्ठा, काएसु वि होज्ज कारणे पेहा। होता है।) नदिहरणपुत्तनायं, तणू य थूरे य पुत्तम्मि॥ १६६२.लहुगा लहुगो पणगं, उक्कोसादुवहिअपडिलेहाए। १६६७.जइ से हवेज्ज सत्ती, उत्तारिज्जा तओ दुवग्गे वि। दोसेहि उ पेहंते, लहुओ भिन्नो य पणगं च॥ थूरो पुण तणुअतरं, अवलंबंतो वि बोले। उत्कृष्ट उपधि की प्रतिलेखना न करने पर चार लघुक, कारणवश षट्काय पर प्रतिष्ठित होकर त्रस तथा बीजों मध्यम में मासलघु और जघन्य में पंचक का प्रायश्चित्त की रक्षा के लिए प्रत्युपेक्षा की जाती है। शिष्य प्रश्न करता है आता है। यदि वह दोषदृष्ट प्रतिलेखना करता है तो उत्कृष्ट कि क्या वह दोषभाग नहीं होता? आचार्य कहते हैं यहां उपधि के मासलघु, मध्यम के भिन्नमास और जघन्य के पांच नदीहरणोपलक्षितपुत्र का उदाहरण ज्ञातव्य है। एक व्यक्ति के दिन-रात। दोपवले. दो पुत्र थे-एक स्थूल और एक कृश। एक बार वह दोनों पुत्रों १६६३.काएसु अप्पणा वा, उवही व पइडिओऽत्थ चउभंगो। को साथ ले गामान्तर जा रहा था। बीच में एक नदी आ गई। ___ मीस सचित्त अणंतर-परंपरपइट्ठिए चेव॥ वह ऊंडी और विस्तृत थी। यदि उसमें शक्ति होती तो वह प्रतिलेखना करते समय स्वयं या उपधि छह कायों पर दोनों को नदी के पार पहुंचा देता। इतनी शक्ति न होने प्रतिष्ठित हो इस विषय में चतुर्भगी होती है। षट्काय मिश्र पर उसने कृश पुत्र को लेकर नदी पार की। यदि वह अथवा सचित्त हो सकती है। इन पर साधु अथवा उपधि स्थूल पुत्र को लेकर जाता तो दोनों डूब जाते। अतः उसकी अनन्तर या परंपररूप से प्रतिष्ठित हो सकती है। उपेक्षा की। १६६४.आयरिए य परिन्ना, गिलाण सरिसखमए य चउगुरुगा। १६६८.अंगारखड्डपडियं दट्टण सुयं सुयं बिइयमन्नं। उडु अधरऽबंध लहुओ, बंधण धरणे य वासासु॥ पवलित्ते नीणितो, किं पुत्ते नो कुणइ पायं। आचार्य, परिज्ञावान्-अनशन में संलग्न, ग्लान तथा इसी अर्थ की पुष्टि के लिए यह दूसरा दृष्टांत है-एक ग्लान के सदृश क्षपक-तपस्वी-इन चारों की यदि प्रत्युपेक्षा व्यक्ति के दो पुत्र थे। एक दिन घर में आग लग गई। एक पुत्र १. प्राभातिक प्रतिलेखना संबंधी अनेक आदेश हैं-जब कुक्कुट अथवा उत्तरपट्ट, तीन कल्प। आवश्यक के पश्चात् इन दसों की प्रतिलेखना कौए बोले तब, सूर्य उदित होने पर, जब प्रकाश हो जाए, जब उपाश्रय कर लेने पर सूर्य उदित होता है। (वृ. पृ. ४८८, ४८९) में प्रवजित मुनि एक दूसरे को दीखने लग जाए अथवा पहचानने लग २. पितृस्थानीयः साधुः, पुत्रद्वयस्थानीयाः स्थिराऽस्थिरसंहनिनः जाए, जब हाथ की रेखाएं दीखने लगे। आचार्य कहते हैं-ये सारे पृथिवीकायादयः, ततः साधुना प्रथमतो निर्विशेषं षडपि कायाः अनादेश हैं। प्रतिलेखना का वास्तविक काल है-आवश्यक करने के स्थिरसंहनिनोऽस्थिरसंहनिनश्च रक्षणीयाः। अथान्यतरेषां पश्चात् तीन स्तुतियां के पूर्ण होने पर प्रतिलेखना का काल होता है। विराधनामन्तरेणाध्वगमनादिषु प्रत्युपेक्षणादीनां प्रवृत्तिरेव न आवश्यक कर लेने के पश्चात् इन निम्नोक्त दस वस्तुओं की घटामञ्चति ततः स्थिरसंहनिनां पृथिव्यादीनां विराधनामभ्युपेत्याप्रतिलेखना कर लेने के बाद सूर्य उदित हो। वे दस वस्तुएं ये प्यस्थिरसंहनिनस्त्रसादयो रक्षणीया इति। (वृ. पृ. ४९१) हैं-मुंहपत्ति, रजोहरण, दो निषद्याएं, एक चुल्लपट्ट, संस्तारक, Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक घर से दौड़ा और रास्ते में अंगारों से भरे गढ़े में गिर गया। वह गृहपति दूसरे पुत्र को लेकर उस प्रदीप्त गृह से निकला । उसने देखा, एक पुत्र उस अंगारों से भरे गढ़े में गिरा पड़ा है। क्या वह गढ़े में गिरे पुत्र के सिर पर पैर रखकर उस अंगारभृत गढ़े को पार नहीं करेगा? अवश्य करेगा। १६६९.तं वा अणक्कमंतो, चयइ सुयं तं च अप्पगं चेव । नित्थिष्णो हु कदाई, तं पि हु तारिज्ज जो पडिओ ॥ यदि वह गर्ता में पतित पुत्र के सिर पर पैर रखकर उस गर्ता को पार नहीं करता है तो वह स्वयं का और अपने साथ वाले पुत्र का भी नाश कर डालता है। यदि वह स्वयं पुत्र के साथ निस्तीर्ण हो जाता है तो कदाचित् वह उस गढ़े में गिरे पुत्र का भी उद्धार कर सकता है। १६७०. निरवेक्खो तइयाए, गच्छे निक्कारणम्मि तह चेव । बहुवक्खेवदसविहे, साविकखे निम्गमो भइओ ॥ जो मुनि निरपेक्ष अर्थात् जिनकल्पी, प्रतिमाप्रतिपन्न हैं वे तीसरे प्रहर में उपाश्रय से विहरण करते हैं। गच्छवासी मुनि भी, कोई प्रयोजन न होने पर तीसरे प्रहर में ही विहार करते हैं। यदि गच्छ में दस प्रकार के वैयावृत्त्य में बहुत विशेष होता हो तो सापेक्ष अर्थात् गच्छवासी मुनि के निर्गमन की भजना है अर्थात् वह पहले दूसरे अथवा चौथे प्रहर में भी विहार कर सकता है। १६७१. अतरंत - बाल - वुड्ढे, तवस्सि आएसमाइकज्जेसु । बहुसो वि होज्ज विसणं, कुलाइकज्जेसु य विभासा ॥ निरपेक्ष मुनि तीसरे प्रहर में भिक्षाटन कर, भोजन ग्रहण कर खाकर आवश्यक अर्थात् कायिकी संज्ञा से निवृत्त होकर जिस प्रहर में गए थे उसी प्रहर में उपाश्रय में लौट आते हैं। इसी प्रकार क्षेत्रसंक्रमण भी उसी प्रहर में होता है। १६७२. गहिए भिक्खे भोनं, सोहिय आवास आलयमुवेद , जहिं निग्गओ तहिं चिय, एमेव य खेत्तसंकमणे ॥ १६७३. उच्चार-विहारादी, संभम-भय- चेहवंदणाईया | आयपरोभयहेतुं विणिग्गमा वष्णिया गच्छे॥ गच्छवासी मुनि को ग्लान, बाल, वृद्ध, तपस्वी तथा प्राचूर्णक आदि के कार्यों के लिए तथा कुल, संघ आदि के प्रयोजन से उपाश्रय से बाहर गृहस्थों के घर में अनेक बार जाना होता है। इसी प्रकार उच्चार- प्रस्रवण के लिए, स्वाध्याय के निमित्त निर्गमन करना पड़े, संभ्रम, भय, चैत्यवंदन आदि तथा अपने या पराए के लिए जो भी कार्य हो उनके लिए उपाश्रय से निर्गमन करने की बात कही गई है। १७३ १६७४. पाहुडिया बिय दुबिहा, बायर सुहुमा य होइ नायव्या । एक्वेक्का वि य एतो, पंचविहा होइ नायव्वा ॥ प्राभृतिका - ( वसति का छादन- लेपन आदि) दो प्रकार की होती है। उसे बावर और सूक्ष्म जाननी चाहिए। प्रत्येक के पांच-पांच प्रकार ज्ञातव्य हैं। यह आगे बताया जा रहा है। १६७५. विद्धंसण छायण लेवणे य, भूमीकम्मे पडुच्च पाहुडिया । ओसकण अहिसकण, देसे सव्ये य नायव्या ॥ बादर प्राभृतिका के पांच प्रकार ये हैं-विध्वंसन, छादन, लेपन, भूमीकर्म तथा प्रतीत्यकरण- साधुओं के निमित्त छोटा गृह बनाना अथवा अपना गृह साधुओं को निवासार्थ देकर दूसरे घर का निर्माण करना। इन पांचों के दो-दो प्रकार और हैं-अवष्वष्कण और अभिष्वष्कण। विध्वंसन आदि पांचों प्रकारों के दो-दो प्रकार ये हैं- देशतः और सर्वतः । १६७६. अच्छंतु ताव समणा, गएसु भंतूण पच्छ काहामो । ओभासिए व संते, न एंति जा भंतुणं कुणिमो ॥ एक गृहपति ने यह निश्चय किया कि मैं अपने इस घर को ज्येष्ठमास में तुड़वा कर नया भवन तैयार करूंगा। इधर ज्येष्ठमास में मुनि वहां आए और उस घर में मासकल्प के लिए ठहर गए। अब वह सोचता है-मुनि यहां रह रहे हैं। उनके जाने के बाद मैं नया भवन बना लूंगा। (यह अभिष्वष्कण है।) क्षेत्र प्रत्युपेक्षकों को अवभाषित अर्थात् वसति दे देने पर गृहपति सोचता है-जब तक यहां साधु न आएं तब तक इस मकान को तुड़वा कर नया बना लूं । (यह अवष्वष्कण है।) १६७७. एसेव कमो नियमा, छज्जे लेवे य भूमिकम्मे य । तेसाल चाउसालं, पडुच्चकरणं जईनिस्सा ॥ यही क्रम नियमतः छादन, लेपन और भूमीकर्म के विषय में है। प्रतीत्यकरण का यह उदाहरण है-त्रिशाल वाले गृह का निर्माण कराने का इच्छुक गृहपति यतियों की निश्रा के कारण चतुःशाल वाले गृह का निर्माण कराता है। १६७८. पुव्वघरं दाऊण व, जईण अन्नं करिंति सट्टाए । काउमणा वा अन्नं न्हाणाइस कालमोसक्के ॥ गृहपति अपने पूर्वगृह के श्रमणों को रहने के लिए देकर अपने लिए नया घर बनाता है (यह भी प्रतीत्यकरण है।) अथवा कोई श्रावक अपने लिए अन्य गृह का निर्माण कराने का इच्छुक है, परंतु स्नानोत्सव आदि के कारण वह काल का ह्रस्वीकरण कर, उस अवसर पर मकान बना लेता है। यह अवष्वष्करण प्रतीत्यकरण है। १. अवष्वष्कण-विध्वंसन आदि कालमर्यादा से पहले कर देना। अभिष्वष्कष्ण-विवक्षित काल का संवर्धन करना । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ बृहत्कल्पभाष्यम् १६७९.एमेव य पहाणाइसु सीयलकज्जट्ठ कोइ उस्सक्के। १६८४.मासे पक्खे दसरायए य पणए अ एगदिवसे य। मंगलबुद्धी सो पुण, गएसु तहियं वसिउकामो॥ वाघाइमपाहुडिया, होइ पवाया निवाया य॥ इसी प्रकार कोई श्रावक सोचता है-वैशाख मास में यहां जो प्राभृतिका मास के अन्त में, पक्ष या दस अहोरात्र के स्नानोत्सव, रथयात्रा आदि होंगे-ऐसा सोचकर वह शीतलता अन्त में, अथवा पांच रात-दिन के अंत में अथवा एकान्तरित के प्रयोजन से स्नानोत्सव आदि के सन्निकट काल में, काल दिन में या प्रतिदिन होती है, वह छिन्नकालिका कहलाती है का अभिष्वष्कण कर, नवगृह का निर्माण करता है तो यह और जो अनिश्चित काल में होती है वह अच्छिन्नकालिका अभिष्वष्कण से प्रतीत्यकरण है। वह गृहपति मंगलबुद्धि से कहलाती है। व्याघातिम प्राभृतिका सूत्र और अर्थ की पौरुषी अवष्वष्कण और अभिष्वष्कण करता है और यह सोचता है वेला में होती है। दो प्राभृतिकाएं और हैं-प्रवाता और कि नवगृह में पहले श्रमण निवास करेंगे और उनके जाने के निवाता। (इनकी व्याख्या १६८८वें श्लोक में।) पश्चात् मैं वहां निवास करूंगा। १६८५.पुव्वण्हे अवरण्हे, सूरम्मि अणुग्गए व अत्थमिए। १६८०.सव्वम्मि उ चउलया, देसम्मी बायराए लहुओ उ। मज्झंतिए व वसही, सेसं कालं पडिक्कट्ठा।। सव्वम्मि मासियं खलु, देसे भिन्नो य सुहुमाए॥ पूर्वाह्न अर्थात् सूर्य के उदय से पूर्व, अपराह्न अर्थात् सर्वतः बादर प्राभृतिकाओं में रहने पर चार लघुमास का सूर्यास्त होने के बाद, मध्याह्न इन कालों में जो प्राभृतिका और देशतः रहने पर मासलघु का प्रायश्चित्त आता है। सूक्ष्म की जाती है, उस वसति में रहना अनुज्ञात है, शेष वसतियो प्राभृतिका में सर्वतः रहने पर मासलघु तथा देशतः रहने पर में रहना प्रतिकुष्ट है। भिन्नमास का प्रायश्चित्त विहित है। १६८६.पुरिसज्जाओ अमुगो, पाहुडियाकारओ उ निहिट्ठो। १६८१.संमज्जण आवरिसण, उवलेवण सुहुम दीवए चेव। सेसा उ अनिहिट्ठा, पाहुडिया होइ नायव्वा ।। ओसक्कण अहिसक्कण, देसे सव्वे य नायव्वा॥ जिस प्राभृतिका में अमुक पुरुष प्राभृतिका कारक है-यह सूक्ष्म प्राभृतिका के पांच प्रकार ये हैं संमार्जन, आवर्षण निर्दिष्ट होता है, वह निर्दिष्टा प्राभृतिका होती है और शेष (पानी का छिटकाव करना), उवलेपन, सूक्ष्म' अर्थात् पुष्प सारी प्राभृतिकाएं अनिर्दिष्टा होती हैं। उनकी रचना करना, दीपक जलाना, मुनियों के निमित्त देशतः १६८७.काऊण मासकप्पं, वयंति जा कीरई उ मासस्स। या सर्वतः अवष्वष्कण या अभिष्वष्कण करना। __ सा खलु निव्वाघाया, तंवेलारेण निंताणं॥ १६८२.जाव न मंडलिवेला, ताव पमज्जामो होइ ओसक्का। मासान्तिक प्राभृतिका में पहले प्रविष्ट होकर मासकल्प उठेतु ताव पढिउं, उस्सक्कण एव सव्वत्थ।। कर प्राभृतिका करणवेला से पहले विहार कर जाते हैं, वह जब तक मंडलीवेला स्वाध्यायमंडली का काल नहीं आ प्राभृतिका निर्व्याघात कहलाती है। क्योंकि उससे सूत्रार्थ का जाता, उससे पूर्व हम वसति का प्रमार्जन कर लें, यह व्याघात नहीं होता। उसमें रहना कल्पता है। सोचकर प्रमार्जन करता है तो वह अवष्वष्कण है। अथवा वह १६८८.अवरण्हे गिम्ह करणे, पवाय सा जेण नासयइ घम्म। सोचता है ये मुनि जब पढ़कर (स्वाध्याय कर) उठ जायेंगे पुव्वण्हे जा सिसिरे, निव्वाय निवाय सा रत्तिं॥ तब प्रमार्जन करूंगा और वह वैसे ही करता है तो वह ग्रीष्म ऋतु के अपराह्न में जिसमें उपलेपन किया जाता अभिष्वष्कण होता है। ऐसा सर्वत्र अर्थात् आवर्षण, उलेपन है, वह प्रवाता प्राभृतिका होती है। वह रात्री में ग्रीष्मआदि में जानना चाहिए। ऋतुसंभव ताप का नाश कर देती है। शिशिर ऋतु के पूर्वाह्म १६८३.छिन्नमछिन्ना काले, पुणो य नियया य अनियया चेव। में उपलेपन करने पर निवाता प्राभृतिका रात्री में शुष्क हो निद्दिवाऽनिद्दिट्ठा, पाहुडिया अट्ठ भंगा उ॥ जाती है। वह निवाता प्राभृतिका होती है। इनमें कारणवश सूक्ष्म प्राभृतिका के दो प्रकार हैं-छिन्नकालिका और रहना कल्पता है। अच्छिन्नकालिका। प्रत्येक के दो-दो भेद हैं-नियत और १६८९.पुव्वण्हे अपट्ठविए, अवरण्हे उट्ठिएसु य पसत्था। अनियत। प्रत्येक के दो-दो भेद हैं-निर्दिष्ट और अनिर्दिष्ट। मज्झण्ह निग्गएसु य, मंडलिसुत-पेहऽवाघाया।। इस प्रकार प्राभृतिका के आठ भंग होते हैं। जिस प्राभृतिका में पूर्वाह्न में स्वाध्याय की प्रस्थापना न १. सूक्ष्माणि-समयभाषया पुष्पाणि। दशवैकालिक नियुक्ति में पुष्पों के एकार्थक शब्द पुप्फा य कुसुमा चेव, फुल्ला य कुसुमा वि य। सुमणा चेव सुहुमा य, सुहुमकाझ्या वि य॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक १७५ किए जाने पर तथा अपराह्न में भोजन से निवृत्त हो जाने पर तथा मध्याह्न में साधुओं के भिक्षाचर्या के लिए निर्गत होने पर जो प्राभृतिका की जाती है वह प्रशस्त प्राभृतिका है। यह प्रशस्त इसलिए है कि इसमें श्रुतमंडली और उपधि प्रेक्षण में कोई व्याघात उत्पन्न नहीं होता। १६९०.तं वेल सारविंती, पाहुडियाकारगं च पुच्छंति। मोत्तूण चरिम भंग, जयंति एमेव सेसेसु॥ जिस वेला में प्राभृतिका की जाती है उस वेला में उपकरणों का संगोपन किया जाता है। वे प्राभृतिकारक को पूछते हैं-तुम किस समय संमार्जन आदि करोगे? आठ विकल्पों में चरम भंग को छोड़कर शेष भंगों में यतना करनी चाहिए। १६९१.चरमे वि होइ जयणा, वसंति आउत्तउवहिणो निच्चं। दक्खे य वसहिपाले, ठविंति थेरा पुणित्थीसु॥ अच्छिन्नकालिका, अनियता और अनिर्दिष्टा प्राभृतिका में आगाढ़ कारण में रहने पर चरम भंग में भी यतना हो सकती है। वह नित्य उपधि में आयुक्त सावधान रहता है। वसतिपाल के रूप में दक्ष मुनि को स्थापित करता है। यदि प्राभूतिकारक स्त्रियां हों तो वसतिपाल के रूप में स्थविरों की स्थापना की जाए। १६९२.जिणकप्पिअभिग्गहिएसणाए पंचण्हमन्नतरियाए। गच्छे पुण सव्वाहिं, सावेक्खो जेण गच्छो उ॥ जिनकल्पिक मुनि अभिगृहीत पांच प्रकार की एषणाओं में से किसी एक एषणा से भक्त और किसी दूसरी एषणा से पानक ग्रहण करते हैं। गच्छवासी मुनि सभी प्रकार की एषणाओं से भक्तपान ले सकते हैं। क्योंकि गच्छवासी साधु सापेक्ष होते हैं। १६९३.बाले वुड्ढे सेहे, अगीयत्थे नाण-दसणप्पेही। दुब्बलसंघयणम्मि य, गच्छि पइन्नेसणा भणिया॥ बाल, वृद्ध, शैक्ष, अगीतार्थ, ज्ञानार्थी, दर्शनार्थी, दुर्बल- संहननवाले-इन सबके अनुग्रह के लिए प्रकीर्ण-अनियत एषणा कही गई है। १६९४.तिक्खछुहाए पीडा, उड्डाह निवारणम्मि निक्किवया। ___ इय जुवल-सिक्खगेसुं, पओस भेओ य एक्कतरे॥ १६९५.सुचिरेण वि गीयत्थो, न होहिई न वि सुयस्स आभागी। पग्गहिएसणचारी, किमहीउ धरेउ बा अबलो॥ अभिगृहीत एषणा होने पर भक्त-पान न मिलने अथवा अपर्याप्त प्राप्त होने पर बाल, वृद्ध आदि मुनियों के तीव्र क्षुधा के कारण पीड़ा होती है अथवा उड्डाह होता है, अन्य एषणाओं का निवारण करने पर मुनि सोचते हैं कि यहां के मुनि अकृपालु हैं, इनमें दया नहीं है-इन कारणों से बाल-वृद्ध इस युगल में अथवा शैक्ष में प्रद्वेष के कारण शरीरभेद अर्थात् मरण या चारित्रभेद हो सकता है। अगीतार्थ व्यक्ति लंबे समय में भी गीतार्थ नहीं होगा और वह श्रुतज्ञान का ग्राहक भी नहीं होता क्योंकि उसकी एषणा अभिग्रहयुक्त होती है, उसे उपष्टंभकारक भक्तपान की उपलब्धि नहीं होती। क्या अबल-दुर्बलसंहनन वाला व्यक्ति सूत्रार्थ को धारण करने या अध्ययन करने में समर्थ हो सकता है? १६९६.पमाणे काले आवस्सए य संघाडगे य उवगरणे। मत्तग काउस्सग्गो, जस्स य जोगो सपडिवक्खो। प्रकीर्णक एषणा की विधि प्रमाण अर्थात् कितनी बार पिंड-पान के लिए जाना चाहिए? कौन से काल में भिक्षा करनी चाहिए? आवश्यक अर्थात् शौचक्रिया से निवृत्त होकर जाना चाहिए। अकेले अथवा संघाटक-दो मुनियों के साथ जाना चाहिए। उपकरण साथ लेकर भिक्षाचर्या के लिए जाना चाहिए। मात्रक लेकर जाना चाहिए। कायोत्सर्ग करना चाहिए। भिक्षाचर्या में सचित्त (शैक्ष आदि) अथवा अचित्त (भक्तपान) का लाभ होगा, वह भी मैं ग्रहण करूंगा इन प्रमाण आदि को सापवाद जानना चाहिए। १६९७.दोन्नि अणुन्नायाओ, तइया आवज्ज मासियं लहुयं। गुरुगो उ चउत्थीए, चाउम्मासो पुरेकम्मे॥ चतुर्थभक्तिक मुनि के लिए दो बार गोचरचर्या करना अनुज्ञात है। तीसरी बार जाने पर लधुमास का तथा चौथी बार जाने पर गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। तीन-चार बार जाने पर गृहिणी पुरःकर्म आदि करती हैं तो चार लघुमास का प्रायश्चित्त विहित है। १६९८.सइमेव उ निग्गमणं,चउत्थभत्तिस्स दोन्नि वि अलद्धे। सव्वे गोयरकाला, विगिट्ठ छट्टऽट्ठमे बि-तिहिं॥ चतुर्थभक्तिक मुनि के लिए एक बार ही निर्गमन अनुज्ञात है, अलाभ होने पर दो बार जाया जा सकता है। विकृष्टभक्तिक-दस-बारह की तपस्या करने वाले के लिए सभी गोचरकाल अनुज्ञात हैं। षष्ठभक्तिक के लिए दो गोचरकाल तथा अष्टमभक्तिक के लिए तीन गोचरकाल अनुज्ञात हैं। १६९९.संखुन्ना जेणंता, दुगाइ छट्ठादिणं तु तो कालो। भुत्तणुभुत्ते अ बलं, जायइ न य सीयलं होइ॥ छट्ठ आदि तपस्या के कारण जिसकी आंतें संकुचित हो Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् गई हों उसके लिए दो आदि गोचरकाल अनुज्ञात हैं। जो १७०४.लहुया य दोसु गुरुओ, अ तइअए चउगुरू य पंचमए। तपस्वी बार-बार लाता है, खाता है उसे पुनः तपस्या करने सेसाण मासलहुओ, जं वा आवज्जई जत्थ॥ का बल प्राप्त हो जाता है। और उसे शीतभोजन भी नहीं गौरविक और काथिक को चार लघुमास, तीसरे अर्थात् खाना पड़ता। मायावी को गुरुमास, पांचवें लुब्धक को चार गुरुमास, शेष १७००.बहुदेवसिया भत्ता, एगदिणेणं तु जइ वि भुंजेज्जा। मुनियों को लघुमास का तथा विराधना आदि का जिसको तह वि य चाग-तितिक्खा -एगग्ग-पभावणाईया।। जितना प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, उतना दिया जाता है। बेले-बेले, तेले-तेले आदि की तपस्या करने वाला मुनि १७०५.भाणस्स कप्पकरणे, अलेवडे नत्थि किंचि कायब्वं । यदि अनेक दैवसिक भक्तों (भोजन) को एक दिन में ही खा तम्हा लेवकडस्स उ, कायव्वा मग्गणा होइ॥ जाता है, फिर भी तपस्या करने के कारण त्याग, तितिक्षा, पात्र के कल्पकरण के विषय में यह विचार है कि अलेपएकाग्रता तथा प्रभावना आदि होती है। (दूसरों में तपस्या के कृत द्रव्य हो तो पात्र का कल्प नहीं किया जाता। लेपकृत प्रति श्रद्धा और तपस्वी को देखकर प्रव्रज्या लेने की भावना द्रव्य हो तो पात्र का कल्प अवश्य करना होता है, अतः उत्पन्न होती है।) इनकी मार्गणा करनी चाहिए। १७०१.जह एस एत्थ वुड्डी, ओअरमाणस्स दसहि सपदं च। १७०६.कंजुसिण-चाउलोदे, संसट्ठा-ऽऽयाम-कट्ठमूलरसे। सेसेसु वि जं जुज्जइ, तत्थ विवड्डी उ सोहीए। ___ कंजियकढिए लोणे, कुट्टा पिज्जा य नित्तुप्पा।। जैसे दो-तीन बार आदि गोचरी के लिए जाने पर १७०७.कजिय-उदगविलेवी, ओदण कुम्मास सत्तुए पिढे। प्रायश्चित्त की वृद्धि कही गई है और वह बढ़ते-बढ़ते दसवें मंडग समिउस्सिन्ने, कंजियपत्ते अलेवकडे॥ स्थान पारांचिक तक पहुंच जाती है, वैसे ही शेष चतुर्थ- कांजी, उष्णोदक, चावल का धोवन, गोरस से संसृष्ट भक्तिक आदि के लिए भी होनी चाहिए, प्रायश्चित्त की वृद्धि भाजन का पानी (अवश्रावण), काष्ठमूलरस (चने, चवला होनी चाहिए। आदि द्विदल के रस से भावित पानक), कांजी से क्वथित, १७०२.एगाणियस्स दोसा, साणे इत्थी तहेव पडिणीए। लवणयुक्त, इमली, पेय तथा अचुपड़ी रोटी आदि, कांजिक भिक्खविसोहि महव्वय, तम्हा सबिइज्जए गमणं॥ विलेपिका, उदकविलेपिका, ओदन, कुल्माष, सक्तुक-भुंजे भिक्षा के लिए एकाकी पर्यटन करने के ये दोष हैं-कुत्ता । हुए यवों का आटा, पिष्ट-मूंग आदि का चूर्ण, समित-गेहूं काट सकता है, कोई प्रोषितभर्तृका स्त्री अथवा विधवा स्त्री का आटा, उत्स्विन्न (उंडेरक आदि), कांजिकपत्र-कांजी उपद्रव कर सकती है, प्रत्यनीक उसको उत्पीड़ित कर सकता के पानी से वाष्पित अरणिका आदि का शाक-ये सारे है, भिक्षा की पूर्ण शोधि नहीं हो सकती, महाव्रतों की अलेपकृत हैं। विराधना दो सकती है। इसलिए दो मुनियों को साथ जाना १७०८.विगई विगइअवयवा, अविगइपिंडरसएहिं जं मीसं। चाहिए। गुल-दहि-तेल्लावयवे, विगडम्मि य सेसएसुं च॥ १७०३.गारविए काहीए, माइल्ले अलस लुद्ध निद्धम्मे। दूध, दही आदि विकृतियां, विकृतियों के अवयव से दुल्लह अत्ताहिट्ठिय, अमणुन्ने या असंघाडो॥ मिश्रित, अविकृतिरूप पिंडरसों-खर्जूर आदि से मिश्रित ये मुनि एकाकी क्यों घूमना चाहता है? इसके कारण हैं- सारे लेपकृत हैं। गुड़-दही-तैल आदि के अवयव तथा अहंकार, कथा कहकर भिक्षा प्राप्त करना (काथिक), मायावी, विकट-मद्य के अवयव, तथा शेष अर्थात् घृत आदि के आलसी, लुब्ध, निर्धर्मा, दुर्लभभैक्षकाल में भिक्षा प्राप्त करना, अवयव इनमें कुछ विकृतियां हैं और कुछ अविकृतियां। आत्मार्थिक (अपनी लब्धि से प्राप्त आहार ही करने वाला), १७०९.दहिअवयवो उ मंथू, विगई तवं न होइ विगई उ। अमनोज्ञ होने के कारण (सबके लिए कलहकारी)। खीरं तु निरावयवं, नवणीओगाहिमा चेव।। १. इसीलिए बेले-बेले आदि की तपस्या करने वालों के लिए दो-तीन २. वृत्तिकार ने इस प्रसंग में कालद्वार और आवश्यकद्वार का पूरा आदि गोचरकाल अनुज्ञात हैं। नित्यभक्तिक यदि दूसरी बार गोचरी विवरण दिया है। जाता है तो लघुमास, तीन बार जाने पर गुरुमास, चार बार जाने पर ३. (१) वह जीवों की हिंसा कर सकता है। (२) कुण्टल-विण्टल आदि चतुर्लघु, पांच बार जाने पर चतुर्गुरु, छह बार जाने पर षड्लघु, सात कर सकता है। (३) घर में खुले घड़े हिरण्य आदि ले सकता है। बार जाने पर षड्गुरु, आठ बार जाने पर छेद, नौ बार जाने पर मूल, (४) स्त्री की प्रतिसेवना कर सकता है। (५) भिक्षा के साथ दस बार जाने पर अनवस्थाप्य, ग्यारह बार पर पारांचिक। समापतित स्वर्ण आदि ले सकता है। (वृ. पृ. ५००) Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक १७७ १७१०.घयघट्टो पुण विगई, वीसदण मो य केइ इच्छंति। उतरते हुए साधु ने देख लिया। वह ब्राह्मण गांव में गया और तेल्ल-गुलाण अविगई, सूमालिय-खंडमाईणि॥ लोगों को कहा कि साधु आहार कर रहे हैं।) १७११.महुणो मयणमविगई, खोलो मज्जस्स पोग्गले पिउडं। साधु ब्राह्मण को वृक्ष से उतरते देख और उसके __रसओ पुण तदवयवो, सो पुण नियमा भवे विगई। अभिप्राय को भांप कर सावचेत हो गए। उन्होंने पात्र को दही का अवयव मंथु विकृति नहीं है। तक्र विकृति नहीं पोंछकर, धोकर, पूर्णरूप से साफ कर रख दिया। ग्रामीण है। दूध अवयवरहित होता है। नवनीत और अवगाहिम- लोग वहां आए और पात्र को देखने का आग्रह किया। तब पक्वान्न अवयवरहित होते हैं। घृतघट्ट-घी का किट्ट विकृति मुनि ने उन निःशील और निव्रती ग्रामीणों को पात्र दिखाते है। विस्पंदन-आधे जले घृत को कई आचार्य विकृति मानते हुए कहा-यह देखो मेरा पात्र। इससे तुम्हारा कुतूहल शांत हैं। तैल और गुड़ से निष्पन्न सुकुमारिका' खंड आदि हो जाएगा। पात्र को देखकर ग्रामीणों ने उस ब्राह्मण की अविकृति है। मधु का अवयव मदन अविकृति है। मद्य का भर्त्सना की। साधु की कीर्ति और यश वृद्धिंगत हुआ। पात्र में खोल अर्थात् किट्ट विशेष तथा मांस का पिटक-उज्झ भोजन करने के कारण अन्यान्य दोष आच्छादित हो गए। अथवा अस्थि-ये भी विकृति नहीं है। मांस का अवयव जो मुनि के कारण प्रवचन की प्रशंसा हुई। (यह गुण है अच्छे रक्षक है (वसा, मेद आदि) नियमतः विकृति है। लेपकृत पात्र का)। १७१२.अंबंबाड-कविद्वे, मुद्दीया माउलिंग कयले य। १७१७.लेवाड विगइ गोरस, कढिए पिंडरस जहन्न उब्भज्जी। खज्जूर-नालिएरे, कोले चिंचा य बोधव्वा ।। एएसिं कायव्वं, अकरणे गुरुगा य आणाई॥ आम्र, आम्रातक, कपित्थ, द्राक्षा, मातुलिंग-बीजपूरक, ये लेपकृत द्रव्य हैं-सभी विकृतियां, गोरस-तक्र आदि, कयल कदलीफल, खजूर, नारियल, कोल-बदरीचूर्ण, क्वथित-तीमनादि, पिंडरस-खर्जूर आदि यावत् जघन्यतः इमली ये सारे पिंडरसद्रव्य हैं। उब्भज्जि-कोद्रवआउलक, इनके लेप का कल्प करना १७१३.खज्जूर-मुद्दिया-दाडिमाण पीलुच्छु-चिंचमाईणं।। चाहिए। कल्प न करने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त तथा पिंडरस न विगईओ, नियमा पुण होति लेवाडा॥ आज्ञाभंग आदि दोष तथा संयमविराधना और आत्मविराधना खर्जूर, मुद्रिका, दाडिम, पीलु, इक्षु, इमली-इनसे का प्रसंग। संबंधित जो पिंडरस होता है, वह विकृति नहीं होती, किन्तु १७१८.संचयपसंगदोसा, निसिभत्तं लेवकुच्छणमगंधं । ये नियमतः लेपकृत हैं। दव्वविणासुहादी, अवण्ण संसज्जणाऽऽहारे॥ १७१४.कुट्टिमतलसंकासो,भिसिणीपुक्खलपलाससरिसो वा। लेपकृतपात्र का कल्प न करने पर संचयप्रसंग (सूक्ष्म ___ सामास धुवण सुक्खावणा य सुहमेरिसे होति॥ सिक्थ आदि अवयव के कारण) ये दोष होते हैं-उसको पात्र का लेप कुट्टिमतलसदृश होना चाहिए अर्थात् पात्र के रात्रीभोजन का दोष लगता है। लेप क्वथित हो जाता है, चारों ओर समरूप में लेप होना चाहिए। तथा पद्मिनी के भाजन अतीव दुर्गन्धित हो जाता है। वैसे पात्र में गृहीत द्रव्य विस्तीर्ण पत्र के सदृश होना चाहिए जिससे कि सूक्ष्म सिक्थ । का विनाश होता है और खाने से वमन आदि होते हैं, प्रवचन भी वहां टिका न रह सके। इस प्रकार के लेपकृत पात्र का का उड्डाह होता है। दुर्गन्धित आहार में पनक, कुंथु आदि समास-संलेखन, धावन तथा सुखाना ये सारी क्रियाएं प्राणी संशक्त हो जाते हैं। सुखपूर्वक की जा सकती हैं। १७१९.लेवकडे कायव्वं, परवयणे तिन्नि वार गंतव्वं । १७१५.आउत्तो सो भगवं, चोक्खं सुइयं च तं कयं पत्तं। एवं अप्पा य परो, य पवयणं होति चत्ताई। निस्सील-निव्वयाणं, पत्तस्स य दायणा भणिया। लेपकृत भाजन का कल्प करना चाहिए। शिष्य कहता १७१६.ओभामिओ उ मरुओ, पत्तो साहू जसं च कित्तिं च। है-कल्पप्रायोग्यपानक के ग्रहण के लिए तीन बार गृहपति के पच्छाइआ य दोसा, वण्णो य पभाविओ तहियं। घर में जाना चाहिए। आचार्य कहते हैं-ऐसा करने पर स्वयं, (एक मुनि ने वृक्ष के नीचे बैठकर आहार करने से पूर्व पर तथा प्रवचन-ये तीनों परित्यक्त हो जाते हैं। चारों ओर देखा। वृक्ष पर एक ब्राह्मण चढ़ा हुआ था। उसने १७२०.गोउल विरूवसंखडि, अलंभे साधारणं च सव्वेसिं। साधु को आहार करते देख लिया। उसको वृक्ष से नीचे गहियं संती य तहिं, तक्कुच्छुरसादि लग्गट्ठा॥ १. सुकुमारिका-तैल का किट्ट विशेष। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ =बृहत्कल्पभाष्यम् गच्छ बड़ा है। अनेक साधु हैं। वे भिक्षा के लिए घूमते उत्पन्न होती है। वे सोचते हैं यह प्रव्रजित मुनि बार-बार यहां हुए गोकुल में गए। वहां उन्हें प्रचुर दूध-दही की प्राप्ति हुई। आता है तो क्या यह मैथुन संबंधी दूतत्व करता है अथवा उसी प्रकार विरूपसंखडी में उन्हें अनेक प्रकार के भक्ष्य- चोरों का चर बनकर आता है अथवा यह स्वयं के लिए ही भोज्य पदार्थ प्राप्त होते हैं। उन्होंने सोचा-अन्यत्र ये द्रव्य इस प्रकार कर रहा है। इस आशंका से गृहस्थ उसको दुर्लभ हैं। सभी साधारण मनियों के लिए ये द्रव्य उपष्टंभ पकडते हैं. उसका आकर्षण आदि कारक हैं, ऐसा सोचकर उन्होंने अपने सभी पात्र उन भोज्य १७२५.गिण्हति सिज्झियाओ, छिदं जाउग सवत्तिणीओअ। द्रव्यों से भर लिए। उपाश्रय में आए। पानक के बिना आहार सुत्तत्थे परिहाणी, निग्गमणे सोहिवुही य॥ कैसे किया जाए। उनके पास तक्र, इक्षु आदि रस हैं। आहार कांजिक देने वाली स्त्री अथवा गृहस्वामिनी के ये सभी करते समय गले में कुछ अटक जाने पर वे बीच में तक्र, लोग छिद्र देखते हैं-पड़ोसिन, जेठ-देवर, सौत आदि। वे पति इक्षुरस आदि पी सकते हैं। के पास शिकायत करते हैं। इससे हानि होती है। तथा सूत्रार्थ १७२१.मंडलितक्की खमए, गुरुभाणेणं व आणयंति दवं। की परिहानि होती है। बार-बार निर्गमन करने पर प्रायश्चित्त अपरीभोगऽतिरित्ते, लहुओऽणाजीविभाणे य॥ की वृद्धि होती है। जो क्षपक मंडली का उपजीवक है, उसके भाजन में (ये सारे दोष होते हैं। अतः एकाकी मुनि को बार-बार अथवा गुरु के भाजन में द्रव अर्थात् पानक ले आते हैं। यदि नहीं जाना चाहिए।) अपरिभोग्य भाजनों में अथवा अतिरिक्त भाजन में अथवा १७२६.संघाडएण एगो, खमए बिइयपय वुड्डमाइण्णे। मंडली के अनुपजीवी क्षपक के भाजन में पानक लाते हैं तो पुन्बुद्धि (दि)एण करणं, तस्स व असई य उस्सित्ते॥ लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। अतः संघाटक के साथ भावितकुलों में जाए। द्वितीयपद १७२२.भणइ जइ एस दोसो, तो आइमकप्पमाण संलिहिउं। अर्थात् अपवादरूप में क्षपक अथवा वृद्ध मुनि एकाकी भी अन्नेसि तगं दाउं, तो गच्छइ बिइय-तइयाणं॥ आकीर्ण कुलों में जा सकता है। जो पानक पहले ही उवृत्त दूसरा कहता है-यदि यह दोष है तो पात्र का अंगुलियों पृथक् रखा हुआ हो वह ग्रहण करे, उससे पात्र का कल्प से संलेखन कर फिर पात्रों के प्रथम कल्प करने योग्य पानक करे। यदि पहले पृथक् निकाला हुआ न हो तो उसका लाए और उसे अन्यान्य साधुओं को देकर स्वयं भी अपने उत्सेचन करा दे। पात्र को साफ करे। फिर पात्र के दूसरे-तीसरे कल्प के लिए १७२७.भावितकुलेसु धोवित्तु भायणे आणयंति सेसट्ठा। पानक लाने के लिए दूसरी-तीसरी बार जाए और दूसरी बार तविहकुलाण असई, अपरीभोगादिसु जयंति॥ उतना ही पानक लाए जिससे पात्र का दूसरी बार कल्प हो भावितकुलों से पानक लाकर अपने पात्रों को धोकर शेष सके और तीसरी बार भी उतना ही पानक लाए, जिससे मुनियों के लिए भी पानक भावितकुलों से ले आए। यदि उस तीसरी बार का कल्प हो सके। प्रकार के कुल न हों तो अपरिभोग्य कुलों से वह पानक लाने (आचार्य कहते हैं-इस प्रकार करने से स्वयं, पर तथा का प्रयत्न करते हैं। प्रवचन-तीनों परित्यक्त हो जाते हैं। जैसे-) १७२८.ओअत्तम्मि वहो, पाणाणं तेण पुव्वउस्सित्तं। १७२३.संदसणेण बहुसो, संलाव-ऽणुराग-केलि आउभया। असती वुस्सिंचणिए, जं पेक्खइ वा असंसत्तं॥ देंती णु कंजियं गुं, जइस्स इट्ठो त्ति य भणंति॥ जो सौवीर उत्पाद्यमान हो, उसकी गंध से अनेक प्राणी एक ही घर में बार-बार आते-जाते मुनि संदर्शन से वहां एकत्रित हो जाते हैं। उसको ग्रहण करने पर उन प्राणियों गृहस्वामिनी के साथ संलाप, अनुराग, क्रीड़ाभाव-परिहास के बाधा होती है, इसलिए पूर्वोत्सित पानक ही लेना चाहिए। आदि आत्मोभयसमुत्थ दोष हो सकते हैं। देखने वालों को यदि पूर्वोत्सित न मिले तो उत्सिञ्चनिका से यतनापूर्वक यह संदेह होता है कि क्या इस मुनि को पानक देने वाली उत्सिंचित कराकर यतनापूर्वक लिया जा सकता है। यदि स्त्री इष्ट है अथवा कांजी इष्ट है? उत्सिञ्चनिका न हो तो पार्यों को जीवों से असंसक्त १७२४.आयपरोभयदोसा, चउत्थ-तेणट्ठसंकणा णीए। देखकर, प्रातिहारिक गृहस्थ भाजन में पानक लेकर पात्र का ___ दोच्चं णु चारिओ j, करेइ आयट्ठ गहणाई॥ कल्प करे। स्व और पर से होने वाले दोष ये हैं। गृहस्वामिनी के १७२९.गिहिसंति भाण पेहिय, कयकप्पा सेसगं दवं घेत्तुं। निजकों के मन में चौथे व्रत संबंधी तथा स्तैन्य संबंधी शंका धोअण-पियणस्सट्ठा, अह थोवं गिण्हए अन्नं॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक गृहस्थ के भाजन की प्रत्युपेक्षा कर, उसमें पानक लाकर शिष्य पुनः कहता है यदि पूर्व गाथोक्त दोष होते हैं तो पात्रों का कल्प करे तथा शेष द्रव से अन्य मुनियों के पात्रों अच्छा है कि पात्र को मोक से न धोया जाए। इस स्थिति में को धोकर, बचे हुए पानक को पीने के लिए काम में लिया पात्र को हाथ में ले पूरी रात खड़ा रहे अथवा पात्र को लेकर जा सकता है। यदि पानक थोड़ा प्राप्त हो तो अन्य ग्रहों से . बैठे अथवा पात्र को हाथ में रख सोए। आचार्य कहते हैंलिया जा सकता है। शिष्य! यह आवश्यक नहीं है, क्योंकि इससे दो दोष उत्पन्न १७३०.जा भुंजइ ता वेला, फिट्टइ तो खमग थेरओ वाऽऽणे। होते हैं आत्मविराधना और संयमविराधना। अथवा पात्र के तरुणो व नायसीलो, नीयल्लग-भावियादीसु॥ गिरने से वह टूट जाता है, उसकी हानि होती है। साधु जब तक आहार करे तब तक पानक की वेला बीत १७३४.निद्धमनिद्धं निद्धं, गोब्बरपुढे ठविंति पेहित्ता। जाती है अतः क्षपक अथवा स्थविर एकाकी जाकर पानक ले जइ य दवं घेत्तव्वं, बिइयदिणे धोइउं गिण्हे ।। आए। अथवा तरुण मुनि जो ज्ञातशील अर्थात् दृढ़धर्मा और लेपकृत पात्र स्निग्ध हो अथवा अस्निग्ध, उसे उपल से निर्विकार हो वह भी एकाकी अपने स्वजनों के घरों से अथवा पोंछकर, प्रत्युपेक्षित कर, रात्री में स्थापित करे। यदि दूसरे भावित आदि कुलों से पानक ले आए। दिन उस पात्र में द्रव-पानक लाना हो तो उस पात्र को धोकर १७३१.बिइयपय मोय गुरुगा, ठाण निसीयण तुयट्ट धरणं वा। उसमें पानक ग्रहण करे। गोब्बरछण ठवणा, धोवण छटे य दव्वाइं॥ १७३५.जइ ओदणो अधोए, घिप्पइ तो अवयवेहिं निसिभत्तं। अपवादपद में यदि मोक-प्रस्रवण से आचमन करते हैं तो तिन्नि य न होति कप्पा, ता धोवसु जाव निग्गंध । चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। शिष्य प्रश्न १७३६.तम्हा गुब्बरपुढे, संलीढं चेव धोविउं हिंडे। करता है-यदि मोक से आचमन करने पर दोष होता है तो इहरा भे निसिभत्तं, ओअविअं चेव गुरुमादी। रात्री में स्थान, निषीदन, शयन करते हुए क्या संसृष्ट भाजन शिष्य ने कहा यदि दूसरे दिन उस अधौतपात्र में ओदन को धारण करे? आचार्य कहते हैं-ऐसा करने पर आत्म- लिया जाता है तो उसमें लगे हुए भोजन के अवयवों के विराधना और संयमविराधना होती है। ऐसी स्थिति में पात्र कारण, उस ओदन को खाने वाले के रात्रीभोजन का दोष को उपल से पोंछकर रखे। यदि दूसरे दिन उसमें पानक लगता है। शुद्धि के लिए आप तीन कल्प की बात करते हैं, लाना हो तो पहले उसका कल्पत्रय से धोए। यदि भक्त लाना । वह पर्याप्त नहीं है, क्योंकि गंध तो मिटती नहीं अतः उस हो तो धोने की आवश्यकता नहीं है। शिष्य ने कहा-बिना पात्र को इतना धोना चाहिए कि गंध मिट जाए। इसलिए उस धोए यदि पात्र में भक्त लाया जाता है तो उस पात्र में जो द्रव्य पात्र को उपल से रगड़ कर साफ करना चाहिए। यह के सिक्थ लगे हुए हैं, वे पर्युषित होने के कारण, उनसे सस्निग्ध पात्र के लिए है। जो पात्र अस्निग्ध हो उसको रात्रीभोजन व्रत का अतिक्रमण होता है। भलीभांति चारों ओर से साफ कर, धोकर, फिर उसमें भिक्षा १७३२.वइगा अदाणे वा, दव असईए विलंबि सूरे वा। लें। अन्यथा आपके निशिभक्त का दोष लगता है। ___ जइ मोएणं धोवइ, सेहऽन्नह भिक्ख गंधाई॥ अकल्पकृतपात्र में भक्त लेने पर वह ओअविय-उच्छिष्ट हो व्रजिका-गोकुल में गए हुए अथवा मार्गगत मुनियों को जाता है। उस भक्त को गुरु आदि को देने पर महान पानक की अप्रासि होने पर अथवा सूर्य के अस्तंगतप्रायः होने आशातना होती है। पर पानक न हो तो मोक से पात्र का धावन करना चाहिए। १७३७.भण्णइ न अण्णगंधा, हणंति छटुं जहेव उग्गारा। शिष्य द्वारा यह कहने पर आचार्य कहते हैं-मोक से पात्र का तिन्नि य कप्पा नियमा, जइ वि य गंधो जहा लोए। आचमन करने पर शैक्ष के मन में अन्यथा भाव आ सकता है इस प्रकार शिष्य के कहने पर आचार्य कहते हैं-अन्न के और दूसरे दिन उस पात्र में भिक्षा लाने पर गंध के कारण गंध मात्र से छठा व्रत-रात्रीविरमणव्रत का भंग नहीं होता। प्रवचन की अवहेलना होती है। इससे श्रावक विपरिणत हो । जैसे रात्री में अन्न की डकार या उगाली आने से छठा व्रत जाते हैं। नहीं टूटता। इसलिए पात्र में यदि गंध भी आती है तो १७३३.भणइ जइ एस दोसो, नियमतः तीन बार कल्प करने की विधि है। लोक में भी तो ठाण निसियण तुअट्ट धरणं वा। पात्रों के शोधन के लिए मृत्तिका आदि का विधान है। भण्णइ तं तु न जुज्जइ, १७३८.वारिखलाणं बारस, मट्टीया छ च्च वाणपत्थाणं। दु दोस पादे अ हाणी य॥ मा एत्तिए भणाही, पडिमा भणिया पवयणम्मि।। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० वारिखल परिव्राजकों के बारह मृत्तिकालेप से, वानप्रस्थ तापसों के छह मृत्तिकालेप से भाजन शोधन माना जाता है। इसलिए शिष्य ऐसा मत कहो कि पात्र का शोधन तब तक करना चाहिए जब तक कि वह निर्गन्ध न हो जाए। प्रवचन में मोक प्रतिमा का भी प्रतिपादन है। मोक पीकर भी मुनि शुचि रहता है। " १७३९. हि सोयाहं लोए अम्हं पि अलेवगं अगंधं च । मोएण वि आयमणं, दिट्ठ तह मोयपडिमाए । जैसे लोक में पृथक् पृथक् अनेक शौचसाधन प्रचलित हैं वैसे ही हमारे भी तीन कल्प कर देने पर पात्र अलेपकृत तथा अगंध हो जाता है। तथा मोकप्रतिमा में मोक से आचमन करना भी दृष्ट है। १७४०. जइ निल्लेवमगंधं, पडिकुट्टं तं कहं नु जिणकप्पे । तेसिं चेव अवयवा, रुक्खासि जिणा न कुव्वंति ॥ शिष्य कहता है- यदि निर्लेपन और अगंध शौच है तो फिर जिनकल्प में यह प्रतिकृष्ट क्यों है? आचार्य कहते हैंजिनकल्पिक मुनि रूक्ष भोजन करते हैं। उनके पुरीष (वर्चस्) के सूक्ष्म अवयव नहीं लगते। अतः वे शौच से निवृत्त होने के पश्चात् निर्लेपन नहीं करते। १७४१. थंडिल्लाण अनियमा, अभाविप इहि जुयलमुडयरे । सज्झाए पडिणीए, न ते जिणे जं अणुप्पेहे ॥ स्थविरकल्पी मुनियों के लिए निर्लेपन (शौच) अनिवार्य है क्योंकि उनकी स्थंडिल भूमियां अनियत होती हैं। अभावित- अपरिणत शिष्य शौच न करने पर विपरिणत हो जाता है तथा ऋद्धिमान् प्रव्रज्या लेने पर वह शौचकरणभावित होने के कारण शौच अवश्य करणीय हो जाता है। तथा युगल अर्थात् बाल मुनि और वृद्ध मुनि प्रायः भिन्नवर्चस्क होते हैं, अतः शीच आवश्यक है। 'उड्डयर' अर्थात् भोजन करते हुए संज्ञा का उत्सर्जन करने वाला चपलता से हाथ आदि को भी संज्ञा से लिप्त कर देता है। स्थविरकल्पिकों को निर्लेपन किए बिना स्वाध्याय वाणी से करना नहीं कल्पता । निर्लेपन न करने पर प्रत्यनीक व्यक्ति उहाह कर सकता है। जिनकल्पिकों के ये दोष नहीं होते। वे स्वाध्याय मन से ही कर लेते हैं, वाणी से नहीं । स्थविरकल्पी मन से स्वाध्याय करने पर लंबे काल में भी सूत्र और अर्थ से परिचित नहीं हो सकते। १७४२. एमेव अप्पलेवं सामासेउं जिणा न धोयंति । तंपियन निरावयवं अहाठिईए उ सुज्झति ॥ इसी प्रकार जिनकल्पिक मुनि अलेपकृत भाजन का बृहत्कल्पभाष्यम सम्यक संलेखन करते हैं, धोते नहीं। वह पात्र निरावयव नहीं होता फिर भी यथास्थिति अपने कल्प का अनुपालन करने से वे शुद्ध होते हैं। १७४३. मतो संस, जं इच्छसि धोवणं दिणे बिहए। इत्थ वि सुणसु अपंडिय!, जहा तयं निच्छए तुच्छं ॥ पात्र को संसृष्ट मानते हुए भी यदि दूसरे दिन उसके कल्प करने की इच्छा रखते हो तो हे अपंडित शिष्य ! सुनो, तुम्हारा कथन निश्चय अर्थात् परमार्थरूप से तुच्छ है, असारभूत है। १७४४. सव्वं पिय संसद्वं, नत्थि असंसट्टिएल्लयं किंचि । सव्वं पिय लेवकर्ड, पाणगजाए कई सोही ॥ यदि गंधमात्र से भक्त उच्छिष्ट होता है तो संसार में सारा संसृष्ट- उच्छिष्ट है। यहां किंचित्मात्र भी असंसृष्ट नहीं है। इस प्रकार सारा लेपकृत है। वह पानकजात से शुद्ध कैसे होगा ? १७४५. खीरं वच्छ, उदगं पि य मच्छ- कच्छभुच्छि । चंदो राहुच्छिद्रो, पुष्पाणि य महुअरगणेहिं । १७४६. रंधंतीओ बोट्टिंति वंजणे खल-गुले य तक्कारी । संसमुहा य दवं, पियंति जइणो कहं सुज्झे ॥ दूध बछड़े द्वारा उच्छिष्ट है। पानी भी मत्स्य कच्छप द्वारा उच्छिष्ट है चन्द्रमा राहु द्वारा उच्छिष्ट है तथा फूल भ्रमरों द्वारा उच्छिष्ट है रसोई बनाने वाली स्त्रियां शाक आदि को चखती है, खल-गुड़ आदि बनाने वाले उसको उच्छिष्ट करते हैं। मुनि उच्छिष्ट मुंह से पानी आदि पीते हैं। उस पात्र का शोधन कैसे हो सकता है ? (अतः गंधमात्र से ही पात्र उच्छिष्ट नहीं होता ।) १७४७. एक्किक्कम्मि उ ठाणे, वितह करिंतस्स मासियं लहुअं । तिगमासिय तिगपणगा, य होंति कप्पं कुणइ जत्थ ॥ एक-एक स्थान में वितथ सामाचारी का आचरण करने वाले मुनि के प्रत्येक के लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। जहां कल्प किया जाता है वहां तीन मासिक और तीन पंचक प्रायश्चित्त आता है। १७४८. भुत्ते भुजंतम्मि य, जम्हा नियमा दवस्स उवओगो । समहियतरो पयत्तो, कायव्वो पाणए तम्हा ॥ भोजन कर लेने के पश्चात् अथवा भोजन करते समय नियमतः पानक का उपयोग होता है। इसलिए पानक को लाने का सबसे अधिक प्रयत्न किया जाता है। १७४९. पाणगजाइणियाए, आहाकम्मस्स होइ उप्पत्ती । पूती य मीसजाए कडे य भरिए य ऊसिते ।। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक पानक की याचना में आधाकर्म की उत्पत्ति हो सकती है। इसी प्रकार पूतिकर्म, मिश्रजात, कृत, भरित, उत्सिक्त आदि होते हैं। यह द्वारगाथा है। व्याख्या आगे। १७५०.अन्नन्न दवोभासण, सदेसा पुन्न बेइ घरसामी। कल्लं ठवेहि अन्नं, महल्ल सोवीरिणिं गेहे ॥ कोई गृहपति अन्यान्य साधु संघाटकों को द्रव-पानक की अप्राप्ति विषयक बातचीत करते हुए देखकर, पहले आने वाले मुनि पानक ले गए हैं, ऐसा सुनकर मुनि कहता है- गृहस्वामिनी! तुमको पुण्य होगा यदि तुम पानक दोगी। तब गृहपति गृहस्वामिनी को कहता है कल तुम अत्यधिक कांजी बनाकर रखना जिससे सभी साधुओं को पानक दिया जा सके। १७५१.मा काहिसि पडिसिद्धो, जइ बूया कुणसु दाणमन्नेसिं। ते वुद्दिविवज्जी, न यावि निच्चं अहिवडंति॥ मुनि कहता है-साधु के लिए बनाया हुआ हमें ग्रहण करना नहीं कल्पता। ऐसा प्रतिषेध करने पर गृहस्वामी अपनी पत्नी को कहता है ये मुनि नहीं लेते, दूसरे साधुओं का दान दे देना। तब मुनि उनसे कहे-वे मुनि भी उद्दिष्ट का विवर्जन करने वाले हैं। वे भी प्रतिदिन पानक के लिए नहीं आते।' १७५२.अम्ह वि होहिइ कज्ज, घिच्छंति बहु य अन्नपासंडा। पत्तेयं पडिसेहो, साहारे होइ जयणा उ॥ इस प्रकार कहने पर गृहपति यह कहे-कांजिक हमारे काम भी आ जायेगी। अथवा अन्य पाषंडी भी उसको ले लेंगे। वहां साधारणरूप से यह यतना करनी चाहिए हमें वह लेना नहीं कल्पता। प्रत्येक निग्रंथ के लिए बना पानक, साधु को लेना नहीं कल्पता। १७५३.आहाकम्मिय सघर पासंडमीसए जाव कीयपूई अत्तकडे। एक्केक्कम्मि य सत्त उ, कए य काराविए चेव॥ इतना कहने पर भी कोई गृहपति सात प्रकार की सौवीरिणी की स्थापना कर दे, जैसे-(१) आधाकर्मिका (२) अपने लिए तथा साधु के लिए कृत (३) अपने लिए तथा पाषंडियों के लिए कृत (४) अन्य गृहस्थों तथा पाषंडियों के लिए कृत (५) क्रीतकृत (६) पूर्तिकर्मिका (७) आत्मकृतअपने लिए कृत। प्रत्येक के सात-सात भरण-भेद होते हैं। प्रत्येक के कृत और कारापित-ये दो-दो भेद और होते हैं। इस प्रकार सारे भेद ९८ होते हैं-(७४७४२)। १. दातुरुन्नतचित्तस्य, गुणयुक्तस्य चार्थिनः। दुर्लभः खलु संयोगः, सुबीज-क्षेत्रयोरिव ।। (वृ. पृ. ५१६) १७५४.कम्म घरे पासंडे, जावंतिय कीय-पूइ-अत्तकडे। भरणं सत्तविकप्पं, एक्केक्कीए उ रसिणीए॥ प्रत्येक रसीनी-सौवीरिणी के ये सात-सात भेद होते हैं(१) आधाकर्मिक (५) क्रीतकृत (२) स्वगृह-यतिमिश्र (६) पूतिकर्मिक (३) स्वगृह-पाषंडीमिश्र (७) आत्मार्थकृत। (४) यावदर्थिकमिश्र १७५५.सत्त त्ति नवरि नेम्म, उग्गमदोसा हवंति अन्ने वि। संजोगा कायव्वा, सत्तहि भरणेहिं रसिणीणं ।। यह सात की संख्या नेम्म-उपलक्षण से कही गई है। औद्देशिक आदि दोष अन्य भी हो सकते हैं। उनके संयोगविकल्प करने चाहिए इन सातों रसीनियों-सौवीरिणियों के साथ भंग करने चाहिए। १७५६.जावइया रसिणीओ, तावइया चेव होति भरणा वि। ___ अउणापन्नं भेया, सयग्गसो यावि णेयव्वा॥ जितनी रसीनियां होती हैं उतनी ही संख्या में भरण होते हैं। इस प्रकार ७४७-४९ भेद-विकल्प हुए। इसी प्रकार सैकड़ों भेद हो सकते हैं। १७५७.मूलभरणं तु बीया, तहिं छम्मासा न कप्पए जाव। तिन्नि दिणा कड्डियए, चाउलउदए तहाऽऽयामे। मूलभरण का अर्थ है-प्रासुक अम्लिनी-सौवीरिणी में राई आदि बीज मुनि के लिए प्रक्षिप्त करना, वह छह महीनों तक ग्रहण करना नहीं कल्पता। उसमें से राई आदि निकाल कर तंदुल धावन और अवस्रावण प्रक्षिप्त करने पर वह पूतिकर्म होने के कारण तीन दिन तक नहीं कल्पता। १७५८.एमेव सघर-पासंडमीस जाव कीय-पूइ-अत्तकडे। कय कीयकडे ठविए, तहेव वत्थाइणं गहणं॥ इसी प्रकार आधाकर्मिक की भांति स्वगृहमिश्र, पाषंडमिश्र, यावदर्थिकमिश्र, क्रीतकृत, पूर्तिकर्म तथा आत्मार्थकृत भरण को जानना चाहिए। इसी प्रकार श्रमण के लिए निष्पादित वस्त्र, क्रीतकृत तथा स्थापित वस्त्र के ग्रहण संबंधी नियम पानक की तरह जानना चाहिए। १७५९.जेण असुद्धा रसिणी, भरणं वुभयं व तत्थ जाऽऽरुवणा। सुद्धुभय लहूसित्ते, कम्ममजीवे वि मुणिभरणे॥ जहां रसिनी अशुद्ध हो अथवा भरण अशुद्ध हो अथवा दोनों अशुद्ध हो वहां आरोपणा प्रायश्चित्त वक्तव्य है। यदि Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् दोनों-रसिनी और भरण शुद्ध हों, परंतु श्रमण के १७६५.तत पाइयं वियं पि य, वत्थं एक्केक्कगस्स अट्ठाए। लिए उत्सिक्त हों, तो लघुमास का प्रायश्चित्त है। मुनि के पाउन्भिन्नं निकोरियं च जं जत्थ वा कमइ॥ लिए भरण, प्रासुक होने पर भी, उसे आधाकर्म मानना उपधि विषयक विधिचाहिए। वस्त्र के तीन घटक होते हैं ताना (तत), बाना (वितत), १७६०.तिन्नेव य चउगुरुगा, दो लहुगा गुरुग अंतिमो सुद्धो। और पाई (पायित) वस्त्र एक-एक के लिए होता है। यहों ___ एमेव य भरणे वी, एक्केक्कीए उ रसिणीए॥ चतुर्भंगी की गई है आधाकर्म, स्वगृहमिश्र तथा पाषंडमिश्र-इन तीनों में १. संयत के लिए तत, वितत और पायित। प्रत्येक के चार गुरुमास तथा यावदर्थिक और क्रीतकृत इन २. संयत के लिए तत, पायित और स्वयं के लिए दो में प्रत्येक के चार लघुमास का प्रायश्चित्त विहित है। वितत। अंतिम अर्थात् आत्मार्थकृत शुद्ध है। इस प्रकार एक-एक ३. संयत के लिए तत, वितत और स्वयं के लिए रसिनी विषयक तथा भरण में भी ज्ञातव्य है। पायित। १७६१.संजयकडे य देसे, अप्फासुग फासुगे य भरिए अ। ४. संयत के लिए तत, स्वयं के लिए वितत और अत्तकडे वि य ठविए, लहगो आणाइणो चेव॥ पायित। केवल संयतों के किया गया आधाकर्म होता है। देशकृत इसी प्रकार स्वयं के लिए तत के भी चार भंग होते अर्थात् संयत और आत्मार्थकृत तथा अप्रासुक या प्रासुक से हैं। दोनों के आठ भंग हए। आठवां भंग शुद्ध है क्योंकि भरण भी आधाकर्म है। आत्मार्थकृत परन्तु श्रमण के लिए तीनों (तत, वितत और पायित) स्वयं के लिए हैं, इसलिए स्थापित, वह भी ग्रहण करने योग्य नहीं है। यदि लिया जाता पात्र विषयक दो घटक हैं-उद्भिन्न और उत्कीर्ण। इसके है तो लघुमास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञा आदि के भंग का चार भंग ये हैं-(१) संयत के लिए उद्भिन्न और उत्कीर्ण दोष आता है। (२) संयत के लिए उद्भिन्न और आत्मार्थ उत्कीर्ण (३) १७६२.देसकडा मज्झपदा, आदिपदं अंतिमं चं पत्तेयं। आत्मार्थ उद्भिन्न संयतार्थ उत्कीर्ण (४) दोनों आत्मार्थ। यह उग्गमकोडी व भवे, विसोहिकोडी व जो देसो॥ ___भंग शुद्ध है। 'यद् वा क्रमते'.....क्रीतकृत, स्थापित आदि जो मध्यपद स्वगृहमिश्र, पाषंडमिश्र, यावदर्थिकमिश्र, वस्त्र या पात्र जहां जो प्रासंगिक हो वहां उसका सम्यग क्रीतकृत, पूतिकर्म हैं, वे सारे देशकृत हैं। जो आदिपद योजन करे। यहां तनन, वितनन अविशोधिकोटि के तथा अर्थात आधाकर्म है तथा जो अंतिमपद अर्थात् आत्मार्थकृत पावन विशोधिकोटि का है-यह आचार्य का मत है। है-ये प्रत्येक एकपक्षविषयक हैं। जो देशविषयक है-स्वगृह- जिज्ञासु कहता है-तनन और वितनन विशोधिकोटि के हैं, मिश्र आदि दोष वह उद्गमकोटि होता है अथवा विशोधि- पावन अविशोधिकोटि में हैं, क्योंकि वह कन्द आदि कोटि होता है। जीवोपघातनिष्पन्न होता है। सूरी कहते हैं-हम आधाकर्म में १७६३.जं जीवजुयं भरणं, तदफासुं फासुयं तु तदभावा। जीवोपघात ही मुख्य नहीं मानते, वहां मुख्यता है श्रमण के तं पि य ह होइ कम्म, न केवलं जीवघाएण॥ लिए बनाना। जो जीवयुक्त भरण है वह अप्रासुक है जो जीवरहित भरण १७६६.अत्तट्ठियतंतूहिं, समणट्ठ ततो उ पाइय वुतो अ। है वह प्रासुक है। निर्जीव भरण भी यदि निश्चितरूप से किं सो न होइ कम्म, फासूण विपज्जिओ जो उ॥ संयतार्थ किया जाता है तो वह भी आधाकर्म है, केवल १७६७.जइ पज्जणं तु कम्म, इतरमकम्मं स कप्पऊ धोओ। जीवघात से निष्पन्न ही आधाकर्म नहीं होता। अह धोओ विन कप्पइ, तणणं विणणं च तो कम्म। १७६४.समणे घर पासंडे, जावंतिय अत्तणो य मुत्तूणं। अपने लिए निष्पादित तंतुओं से श्रमण के लिए जो वस्त्र छट्ठो नत्थि विकप्पो, उस्सिंचणमो जयट्ठाए॥ तत वितत-व्यूत है तथा प्रासुक खलिका द्रव्य के संभार से सौवीरिणी से कांजी को बाहर निकालना उत्सिक्त कहलाता पायित है, वह क्या आधाकर्म नहीं होता? है। उसके पांच प्रकार हैं-१. श्रमणार्थ, २. स्वगृहयतिमिश्र, यदि पायन ही आधाकर्म है और इतर-तनन, वितनन ३. यावदर्थिकमिश्र, ४. पाषंडिमिश्र ५. आत्मार्थकृत। इन पांचों आधाकर्म नहीं है तो उस वस्त्र को धोना तो आपके कथन से के अतिरिक्त छठा विकल्प नहीं है। गृहस्थ ने जो स्वयं के लिए कल्पता है? धोने पर भी वह वस्त्र नहीं कल्पता। इसका उत्सिंचन किया है, वही लिया जा सकता है। तात्पर्यार्थ है कि तनन और वितनन भी आधाकर्म है। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = १८३ १७६८.चोअग जिणकालम्मि, १७७३.चेइय आहाकम्मं, उग्गमदोसा य सेह इत्थीओ। किह परिहरणा जहेव अणुजाणे। नाडग संफासण तंतु खुड निद्धम्मकज्जा य॥ अइगमणम्मि य पुच्छा, उन उत्सवों में जाने पर जो दोष होते हैं, वे ये हैं-चैत्यों निक्कारण कारणे लहुगा॥ के स्वरूप का वर्णन आधाकर्म, उद्गम आदि दोष, शैक्षों का जिज्ञासु पूछता है यदि सौ साधुओं वाले गच्छों में पार्श्वस्थों के पास गमन, स्त्रीदर्शन से समुत्थ दोष, नाटक आधाकर्म आदि दोष होते हैं तो फिर तीर्थंकरों के समय में तथा संस्पर्शन से उत्थित दोष, तन्तु-कोलिक-जाल संबंधी हजारों साधु वाले गच्छों में आधाकर्म आदि दोषों का दोष, क्षुल्ल के दर्शन से होने वाले दोष, निर्धर्मा-लिंगियों के परिहरण कैसे होता था? आचार्य कहते हैं-जैसे अनुयान- कार्यों से उत्थित दोष। (यह द्वारगाथा है। विवरण आगे की रथयात्रा में आज भी इन दोषों का परिहार किया जाता है। गाथाओं में।) शिष्य पूछता है क्या रथयात्रा में प्रवेश करना चाहिए या १७७४.साहम्मियाण अट्ठा, चउब्विहे लिंगओ जह कुटुंबी। नहीं? आचार्य कहते हैं-यदि बिना प्रयोजन अतिगमन-प्रवेश मंगल-सासय-भत्तीइ जं कयं तत्थ आदेसो॥ करता है तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है और प्रयोजनवश चैत्य चार प्रकार के हैं-साधर्मिकचैत्य, मंगलचैत्य, प्रवेश न करने पर भी चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। शाश्वतचैत्य और भक्तिचैत्य। साधर्मिकों के लिए निर्मितचैत्य १७६९.ण्हाणा-ऽणुजाणमाइसु, साधर्मिकचैत्य कहलाता है। साधर्मिक के दो प्रकार हैं-लिंग जतंति जह संपयं समोसरिया।। से तथा प्रवचन से। यहां लिंग से साधर्मिक का ग्रहण किया सतसो सहस्ससो वा, गया है। वह जैसे कुटुम्बी। कुटुम्बी अर्थात् अत्यधिक तह जिणकाले विसोहिंसु॥ परिचारकों से परिवृत तथा लिंगधारी। घरों में मंगल के स्नात्रपर्व, रथयात्रा आदि के समय आज भी सैकड़ों, निमित्त निर्मित चैत्य-मंगलचैत्य होता है। देवलोक आदि में हजारों साधु एकत्रित होते हैं और वे आधाकर्म आदि दोषों होने वाला शाश्वत चैत्य तथा भक्ति के लिए निर्मित चैत्य का शोधन करते हैं, वैसे ही तीर्थंकरों के समय में भी मुनि भक्तिचैत्य कहलाता है। यहां इसी का आदेश-अधिकार है, उन दोषों का शोधन करते थे। क्योंकि इसीमें अनुयान आदि महोत्सव संभव होते हैं। १७७०.पच्चक्खेण पराक्ख, साहिज्जइ नेव एस हीणुवमा। १७७५.वारत्तगस्स पुत्तो, पडिमं कासी य चेइयहरम्मि। जं पुरिसजुगे तइए, बोच्छिन्नो सिद्धिमग्गो उ॥ तत्थ य थली अहेसी, साहम्मियचेइयं तं तु॥ प्रत्यक्ष उपमान वस्तु के द्वारा परोक्ष उपमेय वस्तु को वारत्तपुर में अभयसेन वारत्त नाम का महर्षि रहता था। सिद्ध (समर्थन) किया जाता है। यह हीन उपमा नहीं है। तीन उसके पुत्र ने पितृभक्ति से प्रभावित होकर एक चैत्यगृह पुरुष युगों-महावीर, सुधर्मा और जम्बू-तक सिद्धिमार्गगमन बनवाया। उसमें रजोहरण, मुखवस्त्रिका और पात्र सहित होता रहा। तदनन्तर मोक्षमार्ग व्यवच्छिन्न हो गया। पिता की मूर्ति स्थापित की और वहां एक स्थली-सत्रशाला १७७१.आणाइणो य दोसा, विराहणा होइ संजमा-ऽयाए। प्रवर्तित की। वह साधर्मिक चैत्य था।' ___ एवं ता वच्चंते, दोसा पत्ते अणेगविहा॥ १७७६.अरहंतपइट्ठाए, महुरानयरीए मंगलाई तु। निष्कारण अनुयान अर्थात् रथयात्रा में जाने से आज्ञाभंग गेहेसु चच्चरेसु य, छन्नउईगामअ सु॥ आदि दोष तथा आत्मविराधना और संयमविराधना-दोनों होते मथुरा नगरी में, नए घर के निर्माण में पहले अर्हत् की हैं। इस प्रकार मार्ग में जाते हुए भी अनेक दोष प्राप्त होते हैं। प्रतिमा का प्रतिष्ठापन किया जाता है। यह मंगल के निमित्त १७७२.महिमाउस्सुयभूए, रीयादी न विसोहए। होता है, अन्यथा वह घर गिर जाता है-ऐसी किंवदन्ती थी। तत्थ आया य काया य, न सुत्तं नेव पेहणा॥ इसलिए नगरी के घरों में तथा चौराहों पर प्रतिमा की भगवत् महिमा को देखने की उत्सुकता के कारण ईर्या- प्रतिष्ठापना होती थी। मथुरा नगरी से प्रतिबद्ध ९६ ग्रामार्ध समिति आदि का पूरा शोधन नहीं होता। इससे आत्म- थे। (उत्तरापथ में ग्रामार्ध का अर्थ है-ग्राम। यह वहीं की संज्ञा विराधना और शरीरविराधना होती है। त्वरा के कारण वह न थी।)२ सूत्र का परावर्तन कर सकता है और न प्रतिलेखना ही कर १७७७.निइयाइं सुरलोए, भत्तिकयाइं तु भरहमाईहिं। सकता है। निस्सा-ऽनिस्सकयाई, जहिं आएसो चयसु निस्सं। १. आवश्यक, योगसंग्रह नियुक्ति गा. १३०३। २. इहोत्तरापथानां ग्रामस्य ग्रामार्द्ध इति संज्ञा। (बृ. पृ. ५२४) Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ सुरलोक में नित्य अर्थात् शाश्वतचैत्य होते हैं। भरत आदि के द्वारा कृत चैत्य भक्तिचैत्य कहलाते हैं। जहां भक्तिचैत्य से आदेश प्रकृत है, वह दो प्रकार का है- निश्राकृत और अनिश्राकृत निश्राकृत अर्थात् संघप्रतिबद्ध और अनिश्राकृत अर्थात् गच्छसाधारण से बद्ध। निश्रीकृत का परिहार कर अनिश्राकृत कल्पता है । १७७८. जीवं उद्दिस्स कडं, कम्मं सो वि य जया उ साहम्मी । सो वि य तइए भंगे, लिंगादीणं न सेसेसु ॥ जीव को उद्दिष्ट कर जो किया जाता है वह भी यदि जीव है तो जो साधर्मिक है वह भी साधर्मिक लिंग से अथवा प्रवचन से साधर्मिक की मीमांसा में तृतीय भंगवर्ती (लिंग से और प्रवचन से) साधर्मिक होता है, शेष भंगवर्ती नहीं। १७७९. संवट्टमेह- पुप्फा, सत्यनिमित्तं कया जइ जईणं । न हु लब्भा पडिसिन्धुं किं पुण पडिमट्ठमारचं ॥ शास्ता तीर्थंकर के निमित्त देवताओं द्वारा समवसरण में कृत संवर्तक मेघ तथा पुष्पवृष्टि मुनियों के लिए प्रतिषेध का विषय नहीं होता है, वे वहां समवसरण में बैठते हैं तो फिर अजीव प्रतिमाओं के लिए किया हुआ आरंभ कैसे प्रतिषिद्ध होगा ? १७८०. तित्थयरनाम गोयस्स खयग्रा अवि य दाणि साभव्वा । धम्मं कहेइ सत्था, पूयं वा सेवई तं तु ॥ तीर्थंकर नामकर्म और गोत्रकर्म के क्षय के लिए धर्म का उपदेश देते हैं तथा पूर्वोक्त पूजा महिमा का आसेवन करते हैं। यह उनका 'साभव्व' - स्वभाव है । " १७८१. खीणकसाओ अरिहा, कयकिच्चो अवि य जीयमणुयत्ती । पडिसेबंतो वि अओ, अवोसवं होइ तं पूयं ॥ अर्हत् क्षीणकषाय होते हैं। वे कृतकृत्य और जीतकल्प का अनुवर्तन करते हैं। वे पूजा का सेवन करते भी अदोषी होते हैं। 2 १७८२. साहम्मिओ न सत्था, तस्स कयं तेण कप्पइ जईणं । जं पुण पडिमाण कयं तस्स कहा का अजीवत्ता ॥ तीर्थकर किसी के साधर्मिक नहीं होते। इसलिए उनके लिए कृत मुनियों के लिए कल्पता है। तो फिर अजीव प्रतिमाओं के लिए किए हुए की बात ही क्या ? १. (क) 'दाणि' - वाक्यालंकार में प्रयुक्त निपात । (ख) साभव्व-त्ति स्वो भावः स्वभावः....तस्स भावः स्वाभाव्यं । बृहत्कल्पभाष्यम् १७८३. ठाहमठाई ओसरण मंडवा संजय देसे वा । पेढी भूमीकम्मे, निसेवतो अणुमई दोसा ॥ समवसरण में अनेक मुनि आयेंगे-यह सोचकर श्रावक स्थायी अथवा अस्थायी मंडप बनाते हैं। वे भी दो प्रकार के होते हैं-संयतों के लिए निर्मित तथा देशतः निर्मित - साधुओं के लिए तथा स्वयं के लिए इसी प्रकार बैठने के लिए पेढीपीठिका का निर्माण, भूमीकर्म - ऊबड़-खंड भूमी को समकरना - इन सबका सेवन करने से अनुमति का दोष लगता है। ये सदोष हैं। १७८४. ठवियग- संछोभादी, दुसोहया होंति उग्गमे दोसा । दट्टु, बट्टु इयरे सेहा तहिं गच्छे ॥ वंदिज्जं 'संछोभ' आदि ऐसे कुल जिनमें अनेषणीय भक्त पान की आशंका नहीं की जा जाती थी, वे कुल संयतों के लिए भक्तपान स्थापित कर देते थे । उद्गम दोष वहां दुःशोध्य होते थे । पार्श्वस्थ आदि मुनियों की पूजा- वंदना करते हुए लोगों को देखकर शैक्ष मुनि उन पार्श्वस्थ मुनियों के पास जाने के इच्छुक हो जाते हैं। १७८५. इत्थी विउव्वियाओ, भुत्ता ऽभुत्ताण दट्टु दोसाउ ! एमेव नादइज्जा, सविन्धमा नच्चिय-पगीया ॥ वस्त्र, अलंकार आदि से विभूषित स्त्रियों को देखकर मुक्त- अमुक्त मुनियों में दोष उद्भूत हो सकते हैं। इसी प्रकार नाटकीय-नाट्यस्त्रियों को सविभ्रम और नृत्य करते हुए तथा गीत गाते हुए देखकर सुनकर भुक्त अमुक्त आदि में उत्पन्न दोष होते हैं। १७८६. थी - पुरिसाण उ फासे, गुरुगा लहुगा सई य संघट्टे । आया-संगमदोसा, ओभावण पच्छकम्मादी ॥ समवसरण में स्त्रियों का स्पर्श होने पर गुरुमास का और पुरुषों का स्पर्श होने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। स्मृति और संघट्टन होने पर भुक्तभोगियों के कौतुक होता है। इससे आत्मविराधना और संयमविराधना होती है संघटन आदि से मुनियों की अपभ्राजना और पश्चात्कर्म होता है। १७८७.लूया कोलिगजालग, कोत्थलकारीय उवरि गेहे य । साडितमसार्दिते, लहुगा गुरुगा अभत्तीए ॥ चैत्य का प्रमार्जन न करने पर प्रतिमाओं पर ये हो सकते हैं- मकड़ी, मकड़ी के जाल, भ्रमरी के घर आदि। इनको हटाने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है और हटाने (ग) उदए जस्स सुराऽसुर-नरवइनिवहेहिं पूइओ लोए । तं तित्थयरं नामं, तस्स विवागो हु केवलिणो ॥ (बृहत्कर्म. वि. गा. १४९) Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक पर भक्ति नहीं होती। उस स्थिति में चार गुरुमास का प्रायश्चित्त विहित है। १७८८.घट्ठाइ इयरखुड्डे, दटुं ओगुंडिया तहिं गच्छे। उक्कुट्टधर-धणाईववहारा चेव लिंगीणं॥ १७८९.छिंदंतस्स अणुमई, अमिलंत अछिंदओ य उक्खिवणा। छिद्दाणि य पेहंती, नेव य कज्जेसु साहिज्जं॥ पार्श्वस्थ मुनियों के क्षुल्लकों को घृष्ट-मृष्ट (सजे-संवरे हुए) देखकर संविग्नक्षुल्लक जो मेले-कुचेले हैं, वे उन क्षुल्लकों के पास चले जाते हैं। वहां उनके बीच परस्पर उत्कृष्ट घर, धन आदि विषयक व्यवहार-विवाद होता है। और विवाद को निपटाने के लिए संविग्नों को बुलाया जाता है। यदि उनके विवाद का समाधान किया जाता है तो समाधान देने वाले को गृह, धन आदि के अनुमोदन का दोष लगता है। यदि वे परस्पर नहीं मिलते और विवाद का अन्त नहीं आता है तो साधुओं को संघ से निकाल दिया जाता है। वे साधुओं के छिद्र देखते हैं। वे साधुओं के कार्य में सहायक नहीं होते। इसलिए रथयात्रा आदि में बिना प्रयोजन नहीं जाना चाहिए। १७९..चेइयपूया रायानिमंतणं सन्नि वाइ खमग कही। संकिय पत्त पभावण, पवित्ति कज्जाइं उड्डाहो॥ निम्न कारणों से रथयात्रा आदि में अवश्य जाना चाहिए- चैत्यपूजा के लिए राजा का नियंत्रण प्राप्त होने पर, कोई श्रावक प्रतिष्ठा आदि कराने का इच्छुक हो, जहां वादी, क्षपक, धर्मकथी का आगमन होता हो, सूत्रार्थगत शंकाओं का समाधान करने के लिए, पात्र वहां योग्य शिष्य की प्राप्ति हो सकती है, संघ की प्रभावना होती है, आचार्य आदि की कुशलक्षेमवार्ता वहां प्राप्त होती है, कुल आदि के कार्य संपादित करने के लिए तथा उड्डाह आदि के निवारण के लिए। १७९१.सद्धावुड्डी रन्नो, पूयाए थिरत्तणं पभावणया। पडिघातो य अणत्थे, अत्था य कया हवइ तित्थे। कोई राजा रथयात्रा महोत्सव करने का इच्छुक होकर यत्र-तत्र निमंत्रण भेजता है, उस निमंत्रण पर आनेवाले मुनि राजा की श्रद्धा में वृद्धि करते हैं। चैत्यपूजा से स्थिरता और तीर्थ की प्रभावना होती है। जैनशासन के प्रत्यनीकों का प्रतिघात होता है। तीर्थ के प्रति आस्था पैदा होती है। १७९२.एमेव य सन्नीण वि, जिणाण पडिमासु पढमपट्ठवणे। मा परवाई विग्धं, करिज्ज वाई अओ विसइ॥ इसी प्रकार जो श्रावक पहली बार प्रतिमा-प्रतिष्ठा कराने का इच्छुक हो और उसमें मुनिगण की उपस्थिति होने पर उसकी श्रद्धा वृद्धिंगत होती है। वहां वादी इसलिए प्रवेश करता है कि प्रतिवादी उसमें विघ्न पैदा न कर सके। १७९३.नवधम्माण थिरत्तं, पभावणा सासणे य बहुमाणो। अभिगच्छंति य विदुसा, अविग्घ पूया य सेयाए॥ नये श्रावकों का स्थिरीकरण होता है। जिनशासन की प्रभावना और बहुमान होता है। तत्रस्थ विद्वान् व्यक्ति उस वादी को सुनने आते हैं। पूजा भी विघ्नरहित संपन्न होती है और वह सबके श्रेयस् के लिए होती है। १७९४.आयाविंति तवस्सी, ओभावणया परप्पवाईणं। जइ एरिसा वि महिम, उविति कारिंति सड्ढा य॥ समागत तपस्वी मुनि विविध तपस्याएं करते हैं। यह देखकर अन्य तीर्थकों को अपने-आप में लघुता का अनुभव होता है। श्रावक सोचते हैं-ऐसे-ऐसे महान् तपस्वी भी चैत्यपूजा की महिमा देखने आते हैं तो वे श्राद्ध विशेष श्रद्धाभाव से पूजा आदि कराते हैं। १७९५.आय-परसमुत्तारो, तित्थविवड्डी य होइ कहयंते। अन्नोन्नाभिगमेण य, पूया थिरया य बहुमाणो॥ धर्मकथी द्वारा धर्मकथा करने पर स्व और पर का संसार सागर से निस्तरण होता है। तीर्थ की विवृद्धि होती है। अन्यान्यश्रावकों का अवबोध से पूजा में स्थिरता और बहुमान होता है। १७९६.निस्संकियं च काहिइ, उभए जं संकियं सुयहरेहिं। अव्वोच्छित्तिकरं वा, लब्भिहि पत्तं दुपक्खाओ। वहां आने वाला मुनि सूत्र और अर्थ विषयक शंकाओं को श्रुतधर से समाधान प्रासकर निःशंकित हो जाता है। वहां अव्यवच्छित्तिकारक द्विपक्ष आधृत-गृहस्थपक्ष अथवा संयतपक्ष-शिष्य की प्राप्ति हो सकती है। १७९७.जाइ-कुल-रूव-धण-बलसंपन्ना इड्डिमंतनिक्खंता। __ जयणाजुत्ता य जई, समेच्च तित्थं पभाविंति॥ जाति, कुल, रूप, धन तथा बल से संपन्न-ऐसे राजपुत्र आदि अभिनिष्क्रमण करने वाले तथा यतनायुक्त मुनि वहां आकर तीर्थ की प्रभावना करने हैं। १७९८.जो जेण गुणेणऽहिओ, जेण विणा वा न सिज्झए जंतु। सो तेण तम्मि कज्जे, सव्वत्थामं न हावेइ॥ जो मुनि जिस गुण से अधिक है, अतिशायी है, जिसके बिना जो कार्य सिद्ध नहीं होता, वह उस कार्य की संपन्नता में Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् अपनी शक्ति का सर्वथा गोपन नहीं करता, किन्तु पूर्ण शक्ति लगाकर कार्य संपन्न करता है। (प्रावचनी धर्मकथी, वादी नैमित्तिकस्तपस्वी च। जिनवचनज्ञश्च कविः, प्रवचनमदभावयन्त्येते) प्रवचनकार, धर्मकथा करनेवाला, वाद-विवाद में निपुण, नैमित्तिक, तपस्वी, जिनवाणी का मर्मज्ञ, तथा कवि-ये सात व्यक्ति प्रवचन-जिनशासन की प्रभावना करते हैं। १७९९.साहम्मि-वायगाणं, खेम-सिवाणं च लब्भिइ पवित्तिं। गच्छिहिति जहिं ताई, होहिंति न वा वि पुच्छइ वा॥ वहां जाने पर दूरदेश से समागत साधर्मिक मुनियों की तथा वाचक-आचार्य की गतिविधियों की जानकारी प्राप्त होती है। क्षेम-शिव अर्थात् सुभिक्ष-दुर्भिक्ष आदि की अवगति होती है। अथवा जिस क्षेत्र में स्वयं जाता है वहां साधर्मिकों को पूछकर क्षेम-शिव आदि के विषय में जान लेता है। १८००.कुलमादीकज्जाई, साहिस्सं लिंगिणो य सासिस्सं। जे लोगविरुद्धाई, करेंति लोगुत्तराई च॥ वहां जाकर मैं कुल, गण आदि के कार्यों को संपादित करूंगा। जो लिंगी-पार्श्वस्थ आदि मुनि लोकविरुद्ध लोकोत्तर कार्य कर रहे हैं, उनको शिक्षा दूंगा। १८०१.एएहिं कारणेहिं, पुव्वं पडिलेहिऊण अइगमणं। अद्धाणनिग्गयादी, लग्गा सुद्धा जहा खमओ॥ इन कारणों से रथयात्रा आदि में जाना है, यह सोचकर जाने से पूर्व वहां की प्रत्युपेक्षा कर पश्चात् अतिगमन करना चाहिए। जो मुनि यात्रा में प्रस्थित हैं और किसी क्षेत्र में अपूर्व उत्सव का योग प्राप्त हो जाए तो पूर्व प्रत्युपेक्षा के बिना भी उस क्षेत्र में जाए और अशुद्ध भक्त-पान ग्रहण का दोष हो जाने पर भी वे शुद्ध हैं। जैसे-क्षपक।' १८०२.नाऊण य अइगमणं, गीए पेसिंति पेहिउं कज्जे। उवसय भिक्खायरिया, बाहिं उब्भामगादीया।। १८०३.सब्भाविक इयरे वि य, जाणंती मंडवाइणो गीया। सेहादीण य थेरा, वंदणजुत्तिं बहिं कहए। चैत्यपूजा आदि कार्य उत्पन्न होने पर क्षेत्र-प्रत्युपेक्षा के लिए गीतार्थ मुनियों को भेजा जाता है। उनसे क्षेत्र-स्वरूप की जानकारी प्राप्त कर अतिगमन करना चाहिए। प्रत्युपेक्षा के ये विषय हैं मूलगांव में उपाश्रय है या नहीं। वहां भिक्षाचर्चा, विचारभूमी कैसी है। बाह्य गांव में उद्भ्रामक भिक्षाचर्या है या नहीं। गीतार्थ मुनि जान जाते हैं कि मंडपों का निर्माण स्वाभाविक है अथवा ये संयतों के लिए किए हुए हैं। इस प्रकार प्रत्युपेक्षित क्षेत्र की जानकारी प्राप्त कर आचार्य अपने गच्छ के साथ उस अनुयानक्षेत्र में जाते हैं। स्थविर मुनि बाहर रहते हुए भी शैक्ष मुनियों को वंदनयुक्ति का कथन करते हैं-पार्श्वस्थ मुनियों की वंदनाविधि के विषय में बताते हैं। जिससे कि शैक्षों का मन विपरिणत न हो। १८०४.निस्सकडमनिस्से वा, वि चेइए सव्वहिं थुई तिन्नि। वेलं च चेइयाणि य, नाउं एक्किक्किया वा वि॥ निश्राकृत (गच्छप्रतिबद्ध) अथवा अनिश्राकृत चैत्य में, सर्वत्र तीन स्तुतियां दी जाती हैं। चैत्य अधिक हो और वेला का अतिक्रमण होता हो तो प्रत्येक चैत्य में एक-एक स्तुति दी जा सकती है। १८०५.निस्सकडे ठाइ गुरू, कइवयसहिएयरा वए वसहि। जत्थ पुण अनिस्सकडं, पूरिति तहिं समोसरणं॥ निश्राकृत चैत्य में आचार्य कुछेक परिणत शिष्यों के साथ रहते हैं और आचार्य की आज्ञा से वे शिष्य वहां से वसति में जा सकते हैं, बिना आज्ञा नहीं। जहां अनिश्राकृत चैत्य हो, वहां आचार्य समवसरण पूर्ण कर धर्मकथा करते हैं। १८०६.संविग्गेहि य कहणा, इयरेहिं अपच्चओ न ओवसमो। पव्वज्जाभिमुहा वि य, तेसु वए सेहमादी वा॥ संविग्न मुनियों को धर्मकथा करनी चाहिए क्योंकि असंविग्न मुनियों के प्रति विश्वास नहीं होता और न उनसे उपशम अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि की प्राप्ति होती है। प्रव्रज्या ग्रहण करने के इच्छुक शैक्ष उन असंविग्नों के प्रति आकृष्ट हो जाते हैं। १८०७.पूरिति समोसरणं, अन्नासइ निस्सचेइएसुं पि। इहरा लोगविरुद्धं, सद्धाभंगो य सड्ढाणं ।। असंविग्न मुनियों के न होने पर निश्राकृत चैत्यों में भी समवसरण पूरा कर धर्मदेशना देते हैं, अन्यथा लोकापवाद होता है। इससे श्रावकों का श्रद्धाभंग होता है। १८०८.पुव्वविद्वेहिं समं, हिंडती तत्थ ते पमाणं त। साभाविअभिक्खाओ, विदंतऽपुव्वा य ठवियादी। जो क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा के लिए पहले वहां गए हुए हैं, १. एक तपस्वी था। वह शुद्ध भक्त-पान की गवेषणा करता हुआ नगरी में घूम रहा था। बहुत प्रयत्न करने पर भी उसे भक्त-पान की प्राप्ति नहीं हुई। इतने में उसने देखा कि एक श्राविका वन्दना कर भक्त-पान ग्रहण करने के लिए प्रार्थना कर रही है। मुनि ने पूर्ण यतनापूर्वक, पूछताछ कर भक्त-पान ग्रहण किया। परंतु यथार्थ में वह श्राविका नहीं थी। उसने मुनि को छलने के लिए ही श्राविका का रूप बनाया था और आधाकर्मिक आहार-पानी मुनि को दिया था। इस स्थिति में भी मुनि अशुद्ध परिणामों वाली दात्री से गृहीत भक्त-पान शुन्द्र है। (पिंडनियुक्ति २०९,१०,११) Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक उनके साथ भिक्षाचर्या के लिए घूमते हुए, वे मुनि ही प्रमाणभूत होते हैं। क्योंकि वे ही जान सकते हैं कि यह भिक्षा स्वार्थनिष्पादित है-स्वयं के लिए की हुई है और यह अपूर्व भिक्षा है-संयतों के लिए स्थापित है। १८०९.वंदेण इंति निति व, जुव मज्झे थेर इथिओ तेणं। ठंति न य नाडएसुं, अह ठंति न पेह रागादी॥ स्त्रीसंकुल स्थानों में मुनि समूह में जाते-आते हैं। जो युवा मुनि हैं उनको मध्य में रखा जाता है। जिस ओर स्त्रियां होती हैं, उस ओर स्थविर रहते हैं। जहां नाटक आदि होते हैं, वहां वे नहीं ठहरते। यदि कारणवश वहां रुकना पड़ता है तो वे वहां नर्तकी आदि का रूप नहीं देखते। यदि दृष्टि उस ओर सहसा चली जाए तो राग आदि नहीं करते। १८१०.सीलेह मंखफलए, इयरे चोयंति तंतुमादीसु। अभिजोयंति सवित्तिसु, अणिच्छि फेडंतऽदीसंता॥ इतर अर्थात् असंविग्न देवकुलिक। उनको वे साधु तन्तुजाल-मकड़ी के जाल आदि को साफ करने के लिए प्रेरित करते हैं। वे कहते है-मंखफलक की भांति देवकुल का परिमार्जन करो। वे देवकुलिक सवृत्तिक होते हैं। वे साधु उनकी निर्भर्त्सना करते हैं। यदि वे तन्तुजाल आदि को हटाना न चाहें तो किसी के न देखते हुए स्वयं मुनि उनका अपनयन करते हैं। १८११.उज्जलवेसे खुड्डे, करिति उव्वट्टणाइचोक्खे अ। न य मुच्चंतऽसहाए, दिति मणुन्ने य आहारे॥ ____ वे मुनि क्षुल्लक मुनियों को उज्ज्वलवेष धारण करवाते हैं, उद्वर्तन आदि से उनके शरीर को सुन्दर बना देते हैं, उन क्षुल्लकों को वे एकाकी नहीं छोड़ते और उनको मनोज्ञ आहार आदि लाकर देते हैं। १८१२.आतुरचिण्णाई एयाई, जाई चरइ नंदिओ। सुक्कत्तेणेहि जावेहि, एयं दीहाउलक्खणं॥ गाय ने वत्स से कहा-वत्स! इस नंदिक (मेष) को जो मनोज्ञ आहार आदि दिया जा रहा है, वह सारा आतुरचीर्ण है अर्थात् मरणासन्न रोगी को दिए जाने वाले पथ्य-अपथ्य आहार की भांति है। इसलिए हे वत्स! तू शुष्क तृणों से अपने शरीर का निर्वाह कर। यह दीर्घ आयुष्य का लक्षण है।' इसी प्रकार ये जो असंविग्नक्षुल्लक मनोहर आहार आदि से लालित-पालित हो रहे हैं यह सारा नन्दिक (मेष) के लालन-पालन की तरह ही है।) १८१३.न मिलंति लिंगिकज्जे, अच्छंति व मेलिया उदासीणा। बिंति य निब्बंधम्मि, करेमु तिव्वं खु भे दंडं। ये लिंगी-अन्यलिंगी मुनि अपने गृह, धन आदि के १.देखें कथा परिशिष्ट, नं. ६६। विवादास्पद कार्यों के लिए एकत्र नहीं मिलते और यदि मिलते हैं तो उदासीन ही रहते हैं। परस्पर बातचीत कर विवाद को नहीं निपटाते। वे आकर संविग्न मुनियों को कहते हैं-हमारे विवाद का समाधान करो। इस प्रकार निर्बन्ध करने पर साधु कहते हैं-हम विवाद का समाधान कर देंगे, परंतु आपके दोनों पक्षों को तीव्र दंड देंगे। १८१४.अद्धाणनिग्गयादी, थाणुप्पाइयमहं व सोऊण। गेलन्न-सत्थवसगा, महाणदी तत्तिया वा वि|| मार्ग में जाते हुए सहसा उस गांव को प्राप्त हो गए अथवा स्थानौत्पातिकमह-वहां के श्रावकों ने कोई अपूर्व उत्सवविशेष करना प्रारंभ कर दिया अथवा उत्सवविशेष की बात सुनकर या किसी ग्लान मुनि की सेवा में व्याप्त हो गए या किसी सार्थ के परवश होने के कारण या मार्गगत महानदी आ जाने पर-इन कारणों से अथवा इनमें से किसी भी कारण से क्षेत्रप्रत्युपेक्षकों को नहीं भेजा जाता। अतः अप्रत्युपेक्षित क्षेत्र में प्रवेश करना भी अनुचित नहीं है। १८१५.समणुन्नाऽसइ अन्ने, वि पुच्छिउं दाणमाइ वज्जिंति। दव्वाई पेहता, जइ लग्गंती तह वि सुद्धा॥ यदि उस क्षेत्र में पूर्वप्रविष्ट समनोज्ञ मुनि हों तो उनके साथ भिक्षा के लिए जाए। वहां समनोज्ञ मुनि न हों और अन्य सांभोगिक मुनि हों तो उन्हें पूछकर दानश्राद्धकुलों को छोड़कर शेष कुलों में भिक्षाटन करे। शेष कुलों में द्रव्यतः क्षेत्रतः और भावतः शुद्ध एषणा करे। यदि वहां स्थापना आदि दोष लगते हैं, फिर भी उनकी एषणा शुद्ध है। १८१६.पुरकम्मम्मि य पुच्छा, किं कस्साऽऽरोवणा य परिहरणा। एएसिं तु पयाणं, पत्तेयपरूवणं वोच्छ॥ पुरःकर्म विषयक पृच्छा करनी चाहिए। पुरःकर्म क्या है ? किसका पुरःकर्म होता है? पुरःकर्म की आरोपणा क्या है ? पुरःकर्म का परिहरण कैसे किया जाता है?-इन चारों पदों की, प्रत्येक की, मैं प्ररूपणा करूंगा। १८१७.जइ जं पुरतो कीरइ, एवं उट्ठाण-गमणमादीणि। होति पुरेकम्मं ते, एमेव य पुव्वकम्मे वि॥ १८१८.एवं फासुमफासुं, न विज्जए न वि य काइ सोही ते। हंदि हु बहूणि पुरतो, कीरंति कयाणि पुव्वं च॥ जिज्ञासु कहता है-साधु भिक्षा के लिए घर में आ गए। उनके आगे दान देने के लिए उटना, चलना-फिरना आदि करना ये सारे पुरःकर्म होते हैं। इसी प्रकार पुरःकर्म को Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ बृहत्कल्पभाष्यम् समझना चाहिए। इस संदर्भ में भी पूर्वार्थवाचक पुरः शब्द है। (५) अन्य पुरुष, वह द्रव्य, उस पंक्ति में। इसका तात्पर्य है कि साधु के आगमन से पूर्व उसके निमित्त (६) अन्य पुरुष, वह द्रव्य, अन्य पंक्ति में। किए जाने वाले कर्म पुरःकर्म हैं। इस विधि में प्रासुक- (७) अन्य पुरुष, अन्य द्रव्य, उस पंक्ति में। अप्रासुक नहीं जाना जाता। इसकी शोधि-प्रायश्चित्त भी नहीं (८) अन्य पुरुष अन्य द्रव्य, अन्य पंक्ति में। हो सकता। भंते! बहुत सारी प्रवृत्तियां दायक पहले करता १८२४.कप्पइ समेसु तह सत्तमम्मि तइयम्मि छिन्नवावारे। है, दायक ने पहले बहुत प्रवृत्तियां की हैं ये सारी प्रवृत्तियां अत्तट्ठियम्मि दोसुं, सव्वत्थ य भयसु कर-मत्ते॥ पुरःकर्म के अंतर्गत आयेंगी। इन विकल्पों में से सम विकल्प अर्थात् दूसरे, चौथे, छठे १८१९.कामं खलु पुरसद्दो, पच्चक्ख-परोक्खतो दुहा होइ। तथा आठवें विकल्प में लेना कल्पता है। सातवें विकल्प में तह वि य न पुरेकम्मं, पुरकम्मं चोदग! इमं तु॥ भी कल्पता है, क्योंकि पुरुषान्तर से अन्य द्रव्य दिया जा आचार्य कहते हैं-पुरः शब्द प्रत्यक्ष और परोक्ष-दोनों रहा है। तीसरे विकल्प में छिन्नव्यापार होने के कारण अर्थ देता है, यह अनुमत है। फिर भी वे क्रियाएं पुरःकर्म नहीं कल्पता है। जैसे साधु को दान देने के लिए हाथ धोए, वह होतीं। हे वत्स! पुरःकर्म की व्याख्या यह है। यदि अन्य प्रवृत्ति में लग जाता है तो कल्पता है। दो १८२०.हत्थं वा मत्तं वा, पुव्विं सीतोदएण जं धोवे। विकल्पों-प्रथम और पंचम में यदि वह द्रव्य आत्मार्थित समणवाए दाया, पुरकम्मं तं विजाणाहि॥ होता है तो वह कल्पता है। सर्वत्र अर्थात् आठों विकल्पों में श्रमण को भिक्षा से पूर्व दाता हाथ और पात्र को सचित्त हस्त और मात्रक उदकार्द्र हो तो नहीं कल्पता, अन्यथा जल से धोता है, उसे पुरःकर्म जानना चाहिए। कल्पता है। १८२१.कस्स त्ति पुरेकम्मं, जइणो तं पुण पभू सयं कुज्जा। १८२५.अच्चुसिण चिक्कणे वा, कूरे धुविउं पुणो पुणो देइ। अहवा पभुसंदिट्ठो, सो पुण सुहि पेस बंधू वा॥ आयमिऊणं पुव्वं, दइज्ज जइणं पढमयाए।। यह पुरःकर्म किसके होता है? इस प्रश्न के उत्तर में कहा दाता जब यह देखता है कि कूर अत्युष्ण तथा चिकना है गया है कि यह साधु के लिए होता है। वह पुरःकर्म गृहस्वामी तो वह बार-बार हाथ धोकर मुनि को कर देता है, तब स्वयं करता है अथवा गृहस्वामी द्वारा संदिष्ट दूसरा कोई पुरःकर्म होता है। अथवा पहले आचमन कर, हस्त या पात्र करता है। गृहस्वामी द्वारा संदिष्ट के तीन प्रकार हैं-सुहृद्, धोकर पहले साधुओं को देता है, फिर दूसरों को परोसता है दास-दासी अथवा माता, भगिनी आदि। तब भी पुरःकर्म होता है। १८२२.दमए पमाणपुरिसे,जाए पंतीए ताण मोत्तूणं। १८२६.दाऊण अन्नदव्वं, कोई दिज्जा पुणो वि तं चेव। सो पुरिसो तं वऽन्नं, तं दव्वं अन्नो अन्नं वा॥ अत्तट्टिय-संकामियगहणं गीयत्थसंविग्गे।। द्रमक-भोजन परोसने के लिए नियुक्त कर्मकर, प्रमाण- पंक्ति में दूसरों को अन्य द्रव्य देकर उसी अनेषणाकृत पुरुष देयद्रव्यस्वामी-इन्होंने पंक्ति-भोज्य में पुरःकर्म किया द्रव्य को साधु को देता है, इस प्रकार पूर्व प्रवृत्ति के छिन्न हो है, उसको छोड़कर, वे अन्य पंक्ति में चले जाते हैं और वे जाने पर, आत्मार्थित हो जाने पर वह द्रव्य कल्पता है। यदि परिणत हस्त हों तो उनसे लेना कल्पता है। वह पुरुष । अनेषणीय द्रव्य भी संक्रामित हो जाने पर उसका ग्रहण उस पंक्ति में अथवा अन्य पंक्ति में, वह द्रव्य अथवा अन्य कल्पता है। गीतार्थ इसे ग्रहण कर सकता है। ग्रहण करने पर द्रव्य-प्रत्येक के चार-चार विकल्प होते हैं। भी वह संविग्न है। १८२३.सो तं ताए अन्नाए बिइअओ अन्न तीए दो वऽन्ने। १८२७.गीयत्थग्गहणेणं, अत्तट्ठियमाइ गिण्हई गीतो। एमेव य अन्नण वि, भंगा खलु होति चत्तारि।। संविग्गग्गहणेणं, तं गिण्हतो वि संविग्गो। अष्ट भंगों की रचना इस प्रकार है गीतार्थ मुनि के ग्रहण करने पर यह ज्ञात हो जाता है कि (१) वह पुरुष, वह द्रव्य और उस पंक्ति में। यह आत्मार्थित द्रव्य है। संक्रामित द्रव्य को भी गीतार्थ ही (२) वह पुरुष, वह द्रव्य, अन्य पंक्ति में। ग्रहण कर सकता है। संविग्न के ग्रहण से यह ज्ञात होता है (३) वह पुरुष, अन्य द्रव्य, उस पंक्ति में। कि आत्मार्थित आदि द्रव्य लेने वाला गीतार्थ संविग्न ही होता (४) वह पुरुष, अन्य द्रव्य, अन्य पंक्ति में। है, असंविग्न नहीं। इसी प्रकार अन्य पुरुष के आधार पर भी चार विकल्प १८२८.पुरतो वि हु जं धोयं, अत्तट्ठाए न तं पुरेकम्म। होते हैं तं उदउल्लं ससिणिद्धगं व सुक्खे तहिं गहणं ।। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक साधु के समक्ष भी अपने लिए धौत हस्त या पात्र भी पुरःकर्म नहीं होता, उदका और सस्निग्ध होता है। सूख जाने पर उनसे लेना पुरःकर्म नहीं होता। १८२९.तुल्ले वि समारंभे, सुक्के गहणेक्क एक्क पडिसेहो। अन्नत्थ छूढ ताविय, अत्तढे होइ खिप्पं तु॥ उदकाई और पुरःकर्म में अप्काय समारंभ तुल्य होने पर भी एक-एक उदकार्द्र में शुष्क होने पर ग्रहण करना कल्पता है, परन्तु एक-एक पुरःकर्म में शुष्क होने पर भी ग्रहण करने का निषेध है। हाथ या मात्रक को अपने स्व के लिए प्रासुक द्रव्य में डाल दे अथवा तापित कर दे तो शीघ्र ही ग्रहण किया जा सकता है। १८३०.चाउम्मासुक्कोसे, मासिय मज्झे य पंचग जहन्ने। पुरकम्मे उदउल्ले, ससिणिद्धाऽऽरोवणा भणिया॥ उदक समारंभ पुरःकर्म का उत्कृष्ट अपराधपद है, उदका मध्यम तथा सस्निग्ध जघन्य अपराधपद है। उत्कृष्ट में प्रायश्चित्त है चार लघुमास, मध्यम में लघुमास और जघन्य में पांच रात-दिन। इस प्रकार पुरःकर्म उदका और सस्निग्ध की आरोपण कही गई है। १८३१.परिहरणा वि य दुविहा, विहि-अविहीए अ होइ नायव्वा। पढमिल्लुगस्स सव्वं, बिइयस्स य तम्मि गच्छम्मि॥ १८३२.तइयस्स जावजीव, चउथस्स य तं न कप्पए दव्वं। तद्दिवस एगगहणे, नियट्ठगहणे य सत्तमए॥ परिहरणा भी दो प्रकार की जाननी चाहिए-विधि परिहरणा और अविधिपरिहरणा। अविधिपरिहरणा के सात प्रकार हैं(१) पहले के समस्त द्रव्य यावज्जीवन अकल्पनीय होता है। (२) दूसरे के उसी गच्छ में यावज्जीवन। (३) तीसरे के उसी एक के सारा द्रव्य अकल्पनीय होता है यावज्जीवन। (४) चौथे के वह द्रव्य यावज्जीवन। (५) पांचवे के उस दिन सब द्रव्य। (६) छठे के वह द्रव्य अकल्पनीय होता है। (७) सातवें में निवृत्त साधु को परिणत हाथ से ग्रहण कल्पता है। १८३३.पढमो जावज्जीवं, सव्वेसिं संजयाण सव्वाणि। दव्वाणि निवारेई, बीओ पुण तम्मि गच्छम्मि॥ १८३४.तइओ जावज्जीवं, तस्सेवेगस्स सव्वदव्वाई। वारेइ चउत्थो पुण, तस्सेवेगस्स तं दव्वं ।। १८३५.सव्वाणि पंचमो तदिणं तु तस्सेव छट्ठो तं दव्वं । सत्तमओ नियट्टतो, गिण्हइ तं परिणयकरम्मि। पहला कहता है-जिसने जिसके लिए पुरःकर्म किया है, दोनों जब तक जीवित हैं तब तक स्वगच्छ-परगच्छ के सभी साधुओं के लिए सारे द्रव्यों का निवारण किया जाता है। दूसरा उसी गच्छ में सभी साधुओं के लिए यावज्जीवन सारे द्रव्य का निवारण करता है। तीसरा कहता है जिसके लिए पुरःकर्म किया उस अकेले को सारे द्रव्य अकल्पनीय होते हैं। चौथा कहता है वह द्रव्य अकेले उसके लिए परिहरणीय है। पांचवा कहता है-उसके घर में एक दिन तक सभी द्रव्य अकल्पनीय हैं। छठा कहता है-वह द्रव्य उस दिन न लिया जाए। सातवां कहता है-दाता का हाथ परिणत हो जाने पर, भिक्षा करके निवर्तमान मुनि उससे ग्रहण कर सकता है। १८३६.एगस्स पुरेकम्म, वत्तं सव्वे वि तत्थ वारिंति। _-दव्वस्स य दुल्लभता, परिचत्तो गिलाणओ तेहिं। जहां एक साधु के लिए पुरःकर्म किया है वहां सभी द्रव्यों का वारण किया जाता है। इससे द्रव्य की दुर्लभता हो जाने पर उन मुनियों द्वारा ग्लान मुनि परित्यक्त हो जाता है। १८३७.जेसिं एसुवएसो, आयरिया तेहि ऊ परिच्चत्ता। खमगा पाहुणगा वि य, सुव्वत्तमजाणगा ते उ॥ यह उपदेश उन यथाच्छंदवादियों के लिए है क्योंकि उनकी इस प्रवृत्ति के द्वारा आचार्य, क्षपक और प्राघूर्णक परित्यक्त हो जाते हैं। उन्हें अपने प्रायोग्य दुर्लभ द्रव्य की प्राप्ति नहीं होती। वे यथाच्छंदवादी स्पष्टरूप से अज्ञअजानकार होते हैं। १८३८.अद्धाणनिग्गयाई, उब्भामग खमग अक्खरे रिक्खा। मग्गण कहण पंरपर, सुव्वत्तमजाणगा ते वि॥ जो मुनि अध्वनिर्गत अर्थात् अन्यत्र गए हुए हों, उद्भ्रामक बहिर्गाम में भिक्षा के लिए गए हुए हों वे उस गृह में प्रवेश न कर दें जहां पुरःकर्म किया गया है, इसकी जानकारी देने के लिए तत्रस्थ मुनि एक क्षपक को वहां बिठा देते हैं। क्षपक के न होने पर उस घर की दीवार पर ये अक्षर लिख दे–'इस घर में पुरःकर्म किया है, कोई यहां से भिक्षा न ले।' ये अक्षर न लिख सके तो उस घर की दीवार पर रेखाएं खींच दे। उसके अभाव में साधुओं की मार्गणा कर, एकत्रित कर, उनको उस घर की जानकारी दे। वे साधु भी परम्परा से अन्य साधुओं को यह बात Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बताएं-इस प्रकार जो कहते हैं, करते हैं, वे स्पष्टरूप से अज्ञ हैं-ऐसा आचार्य का कथन है। १८३९.उन्भामग-अणुब्भामग-सगच्छ-परगच्छजाणणट्ठाए। अच्छइ तहियं खमओ, तस्सऽसइ स एव संघाडो॥ १८४०.जइ एगस्स वि दोसा, अक्खर न उ ताई सव्वतो रिक्खा। जइ फुसण संकदोसा, हिंडंता चेव साहति॥ उद्भ्रामक बहिराम में भिक्षाटन करने वाले, अनुद्भ्रामक-मूल ग्राम में भिक्षाटन करने वाले, स्वगच्छ तथा परगच्छ इन सब साधुओं को जानकारी देने के लिए उस घर के आगे एक क्षपक बैठा रहता है। क्षपक के अभाव में जो संघाटक वहां आता है, वह बैठ जाता है। यदि उस संघाटक में से एक मुनि वहां नहीं बैठ सकता तो दूसरा मुनि अकेला वहां बैठता है। यदि उस अकेले मुनि के समक्ष कोई स्त्रीसमुत्थ दोष आता है तो वह पुरःकर्म सूचक अक्षर उस घर की भींत पर लिख कर अपने उपाश्रय में चला जाता है। यदि उन अक्षरों को लिखने में असमर्थ हो तो साधुजनसांकेतिकी रेखा कर दे। उस रेखा की स्पर्शना की आशंका से दोष जान पड़े तो वे ही मुनि भिक्षाटन करते हुए अन्यान्य मुनियों को बताएं। १८४१.एसा अविही भणिया, सत्तविहा खलु इमा विही होइ। तत्थाई चरिमदुए, अत्तट्ठियमाइ गीयस्स॥ यह सात प्रकार की अविधिपरिहरणा बताई गई है। विधिपरिहरणा इस प्रकार है। वह आठ प्रकार की है। उसमें प्रथम और अंतिम ये दो प्रकार आत्मार्थित आदि होने पर गीतार्थ का ग्रहण होता है। (स्पष्टार्थ आगे की गाथा में) १८४२.एगस्स बीयगहणे, पसज्जणा तत्थ होइ कब्बट्ठी। वारण ललियासणिओ, गंतूणं कम्म हत्थ उप्फोसे॥ वे आठ प्रकार ये हैं-(१) एक द्वारा किये पुरःकर्म का दूसरे के हाथ से ग्रहण। (२) प्रसजना वहां होती है। (३) कल्पस्थिका। (४) कारण ललिताशनिक। (५) जाकर। (६) कर्म। (७) हस्त। (८) उप्फोस-उत्स्पर्शन। (व्याख्या आगे की गाथाओं में)। १८४३.एगेण समारद्धे, अन्नो पुण जो तहिं सयं देइ। जयऽजाणगा भवंती, परिहरियव्वं पयत्तेण॥ किसी एक दायक ने पुरःकर्म किया, यदि दूसरा व्यक्ति उस द्रव्य को स्वयं देता है और यदि साधु अज्ञ हों तो वे प्रयत्नपूर्वक उसका परिहार करे, न ले। =बृहत्कल्पभाष्यम् १८४४.समणेहिं अभणंतो, गिहिभणिओ अप्पणो व छंदेणं। मोत्तु अजाणग मीसे, गिण्हति उ जाणगा साहू। दूसरे व्यक्ति को श्रमणों ने कहीं कहा कि हमें वह द्रव्य दो, परंतु वह अन्य गृहस्थ के द्वारा कहे जाने पर अथवा अपने स्वयं के अभिप्राय से वह द्रव्य देता है तो अज्ञ अर्थात अगीतार्थ अथवा अगीतार्थ मिश्र मुनियों को छोड़कर ज्ञायकगीतार्थ मुनि उस आत्मार्थित द्रव्य को ग्रहण करता है। १८४५.अम्हठ्ठसमारद्धे तद्दव्वण्णेण किह णु निहोस। सविसन्नाहरणेणं, मुज्जइ एवं अजाणतो॥ साधुओं के लिए बनाया हुआ वह द्रव्य यदि दूसरा देता है तो वह निर्दोष कैसे हो सकता है? यहां विषयुक्त आहार का उदाहरण है। किसी के लिए विषमिश्रित आहार बनाया गया, वह स्वयं दाता न देकर, यदि कोई दूसरा व्यक्ति उस भोजन को देता है तो क्या वह सदोष नहीं होगा? परन्तु अगीतार्थ उसमें मूढ़ हो जाता है। १८४६.एगेण समारद्धे, अन्नो पुण जो तहिं सयं देइ। जइ जाणगा उ साहू, परिभोत्तुं जे सुहं होइ।। एक ने पुरःकर्म किया और दूसरा व्यक्ति यदि स्वयं उस द्रव्य को मुनि को देता है तो ज्ञायक है, गीतार्थ मुनि है, वह उसका सुखपूर्वक परिभोग कर सकता है। १८४७.गीयत्थेसु वि भयणा, अन्नो अन्नं व तेण मत्तेणं । विप्परिणयम्मि कप्पइ, ससिणिछुदउल्लु पडिकुट्ठा॥ गीतार्थ मुनियों के लिए भी भजना है। अन्य पुरुष अथवा अन्य द्रव्य को पुरःकर्मकृत मात्रक से देता है और यदि वह मात्रक अप्काय आदि से विपरिणत हो तो कल्पता है। दायक का हाथ सस्निग्ध या उदका हो तो वह भिक्षा प्रतिकृष्ट है, उसे लेना नहीं कल्पता। १८४८.तरुणीउ पिडियाओ, कंदप्पा जइ करे पुरेकम्म। पढम-बिइयासु मोत्तुं, सेसे आवज चउलहुगा॥ कुछ तरुण युवतियां एकत्रित हुईं। साधु को भिक्षा के लिए आते देख कंदर्प के वशीभूत होकर एक युवति ने पुरःकर्म किया। साधु भिक्षा लिए बिना लौटने लगा। तब दूसरी युवति बोली-कुछ ठहरें। मैं आपको भिक्षा दूंगी। साधु के पुनः आने पर उसने भी पुरःकर्म कर दिया। साधु के निवर्तित होने पर तीसरी युवति यदि पुनः आने के लिए कहती है तो जानना चाहिए कि ये मेरा उपहास कर रही हैं। पहली, दूसरी युवति को छोड़कर शेष युवतियां यदि मुनि को प्रतिनिवर्तन के लिए कहती हैं और मुनि यदि प्रतिनिवर्तन करता है तो उसे चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक १८४९.पुरकम्मम्मि कयम्मी, जइ भण्णइ मा तुम इमा देउ। १८५४.दव्वेण य भावेण य, चउक्कभयणा भवे पुरेकम्मे। संकापदं व होज्जा, ललितासणिओ व सुव्वत्तं। सागरिय भावपरिणय, तइओ भावे य कम्मे य॥ पुरःकर्म किए जाने पर यदि साधु दात्री को कहे कि 'तुम १८५५.सुन्नो चउत्थ भंगो, मन्झिल्ला दोण्णि वी पडिक्कट्ठा। मत दो, यह देगी।' दात्री के मन में शंका हो सकती है। वह संपत्तीइ वि असती, गहणपरिणते पुरेकम्म। मुनि को कहती है-तुम स्पष्टरूप से ललिताशनिक हो, द्रव्य और भाव के आधार पर पुरःकर्म के चार विकल्प क्योंकि तुम अपनी इष्ट देने वाली को चाहते हो। हैं-(१) द्रव्यतः पुरःकर्म न भावतः। (२) भावतः पुरःकर्म, न १८५०.गंतूण पडिनियत्तो, सो वा अन्नो व से तयं देइ। द्रव्यतः। (३) द्रव्य और भाव दोनों से पुरःकर्म। (४) न अन्नस्स व दिग्जिहिई, परिहरियव्वं पयत्तेणं॥ द्रव्यतः और न भावतः पुरःकर्म। पुरःकर्म कर साधु को भिक्षा देने के लिए उद्युक्त दाता को सागारिक के भय से पुरःकर्म लेना और उसका प्रतिषिद्ध कर मुनि चला गया। दाता ने सोचा, मुनि प्रतिनिवृत्त परिष्ठापन कर देना, यह द्रव्यतः पुरःकर्म है। 'मैं पुरःकर्म होने पर मैं भिक्षा दूंगा। वह दाता अथवा अन्य व्यक्ति उस लूंगा'-इस भाव से परिणत होकर यदि पुरःकर्म नहीं भी द्रव्य की भिक्षा देता है तो वह भिक्षा लेना नहीं कल्पता। मिलता, फिर भी वह भावतः पुरःकर्म है। तीसरा विकल्प दाता सोचता है यह मुनि भिक्षा नहीं लेता तो मैं दूसरे मुनि भावतः पुरःकर्म लेना है। चौथा विकल्प शून्य है। मध्यवर्ती को दे दूंगा। दूसरे मुनि को भी उस भिक्षा का प्रयत्नपूर्वक दोनों भंग (दूसरा और तीसरा) प्रतिकुष्ट हैं, प्रतिषिन्द्र हैं। परिहार करना चाहिए। पुरःकर्म की प्राप्ति न होने पर भी, उसके ग्रहण में परिणत १८५१.पुरकम्मम्मि कयम्मी, मुनि के वह पुरःकर्म होता है। पडिसिद्धो जइ भणिज्ज अन्नस्स। १८५६.पुरकम्मम्मि कयम्मी जइ गिण्हइ जइ य तस्स तं होइ। दाहं ति पडिनियत्ते, एवं खु कम्मबंधो, चिट्ठइ लोए व बंभवहो। तस्स व अन्नस्स व न कप्पे॥ पुरःकर्म करने पर यदि ग्रहण करता है अथवा उसके पुरःकर्म ग्रहण करने का प्रतिषेध करने पर यदि दाता ग्रहण के भाव में परिणत होता है तो वह तीसरे भंग में आता कहता है-दूसरे मुनि को दूंगा। वह भिक्षा प्रतिनिवृत्त उस मुनि है। तब दायक और ग्राहक के कर्मबंध तटस्थ ही रहता है. को अथवा अन्य किसी मुनि को ग्रहण करना नहीं कल्पता। जैसे लौकिक व्यवहार में ब्राह्मण का वध।' १८५२.भिक्खयरस्सऽन्नस्स व, पुठ्वं दाऊण जइ दए तस्स। १८५७.संपत्तीइ वि असती, कम्मं संपत्तिओ वि य अकम्म। सो दाया तं वेलं, परिहरियव्वो पयत्तेणं॥ एवं खु पुरेकम्म, ठवणामित्तं तु चोएइ॥ पुरःकर्म कर साधु को देने से पूर्व अन्य भिक्षाचरों को द्वितीय भंग के अनुसार संप्राप्ति न होने पर भी साधु देकर मुनि को भिक्षा दे तो उस वेला का प्रयत्नपूर्वक परिहार के पुरःकर्म होता है। यदि संप्राप्ति होने पर भी पहले भंग करे, उस समय न ले। में पुरःकर्म नहीं होता तो मन में प्रतिष्ठित पुरःकर्म १८५३.अन्नस्स व दाहामी,अण्णस्स व संजयस्स न वि कप्पे। केवल स्थापनामात्र होता है। यह सारा कथन अपर व्यक्ति ___ अत्तट्ठिए व चरगाइणं च दाहं ति तो कप्पे॥ का है। यदि दाता यह संकल्प करे कि मैं यह भिक्षा दूसरे साधु १८५८.इंदेण बंभवज्झाा, कया उ भीओ अ तीए नासंतो। को दूंगा तो वह भिक्षा साधु को लेना नहीं कल्पता। वह यदि तो कुरुखेत्त पविट्ठो, सा वि बहि पडिच्छए तं तु॥ अपने लिए अथवा चरक आदि परिव्राजकों के लिए संकल्पित १८५९.निग्गय पुणो वि गिण्हे, कुरुखेत्तं एव संजमो अम्ह। करता है तो उस भिक्षा का ग्रहण कल्पता है। जाहे ततो नीइ जीवो, घेप्पइ तो कम्मबंधेणं॥ १. उडंक ऋषि की पत्नी रूपवती थी। इन्द्र उसमें आसक्त होकर उसके देवताओं ने उस ब्रह्मवध्या को चार भागों में विभक्त कर डाला-एक साथ समागम कर जाने लगा। ऋषि ने यह देखकर उसे शाप देते हुए विभाग स्त्रियों के ऋतुकाल में स्थित हो गया, दूसरा विभाग पानी में कहा-तुमने अगम्य कषिपत्नी के साथ समागम किया है, इसलिए कायिकी (मूत्र) का विसर्जन करने वाले के, तीसरा विभाग ब्राह्मण के तुम्हारे लिए ब्रह्मवध्या उपस्थित हुई है। इन्द्र भयभीत होकर कुरुक्षेत्र सुरापन में और चौथा विभाग गुरु पत्नी के साथ समागम करने वाले में चला गया। वह ब्रह्मवध्या भी कुरुक्षेत्र के आसपास घूमने लगी। में। वह ब्रह्मवध्या इन चारों में अवस्थित हो गई। इन्द्र देवलोक में इन्द्र उसके भय से बाहर नहीं निकलता था। इन्द्र के बिना इन्द्रलोक चला गया। इसी प्रकार जिसने पुरःकर्म किया उसका कर्मबंध दोष भी सूना हो गया। देवताओं ने इन्द्र को इन्द्रलोक में आने की प्रार्थना की। ब्रह्मवध्या की भांति व्यर्थ हो गया। इन्द्र ने कहा-मैं यहां से निकलूंगा तो मुझे ब्रह्मवध्या लग जाएगी। तब Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ आचार्य कहते हैं-प्रेरक! तुम्हारे द्वारा प्रस्तुत इन्द्र के दृष्टांत से हम अपना मत प्रस्तुत करते हैं इन्द्र ने ब्रह्महत्या की। उससे भयभीत होकर वह कुरुक्षेत्र में प्रविष्ट हो गया। ब्रह्महत्या बाहर स्थित होकर इन्द्र की प्रतीक्षा करने लगी। उसने सोचा-'यहां से निकलने पर मैं इन्द्र को पुनः ग्रहण कर लूंगी।' इसी प्रकार हमारा भी संयम कुरुक्षेत्र है। जब जीव संयम से बाहर निकलता है तब वह कर्मबंध से गृहीत हो जाता है। (वहां से निर्गत न होने पर पहले और चौथे भंग में वह गृहीत नहीं होता।) १८६०.जे जे दोसाययणा, ते ते सुत्ते जिणेहिं पडिकुट्ठा। ते खलु अणायरंतो, सुद्धो इहरा उ भइयव्वो॥ दोषों के जो जो आयतन हैं, वीतराग भगवान् ने सूत्रों में उनका निषेध किया है। जो उन स्थानों का आचरण नहीं करता वह शुद्ध है। जो इनका आचरण करता है उसके विकल्प है। १८६१.का भयणा जइ कारणि, जयणाए अकप्प किंचि पडिसेवे। तो सुद्धो इहरा पुण, न सुज्झए दप्पओ सेवं॥ वह विकल्प क्या है? जो कारणवश पुरःकर्म आदि किंचिद् अकल्प्य की यतनापूर्वक प्रतिसेवना करता है वह शुद्ध है। जो दर्प से अयतनापूर्वक प्रतिसेवना करता है वह शुद्ध नहीं होता। १८६२.समणुन्नापरिसंकी, अवि य पसंगं गिहीण वारिता। गिण्हति असढभावा, सुविसुद्धं एसियं समणा॥ समनुज्ञापरिशंकी वे मुनि होते हैं-जो पुरःकर्म के दोष से भीत होकर उसका परिहार करते हैं। पुरःकर्म भिक्षा लेने पर गृहस्थ के पुनः पुरःकर्म करने का प्रसंग आता है। अतः उसका निवारण करते हुए, अशठभाव के कारण, सुविशुद्ध एषणीय का ग्रहण करते हैं। १८६३.किं उवघातो हत्थे, मत्ते दव्वे उदाहु उदगम्मि। तिन्नि वि ठाणा सुद्धा, उदगम्मि अणेसणा भणिया॥ शिष्य प्रश्न करता है-पुरःकर्म करने पर क्या हाथ का उपधात अनेषणीयता होती है अथवा मात्रक की अथवा द्रव्य की अथवा उदक की। आचार्य कहते हैं-तीनों स्थान अर्थात् हाथ, मात्रक और द्रव्य शुद्ध हैं, अनेषणीय नहीं हैं। किन्तु उदक में अनेषणीयता कही गई है। १८६४.जम्हा तु हत्थ-मत्तेहिं कप्पती तेहिं चेव तं दव्वं। __ अत्तट्ठिय परिभुत्तं, परिणत तम्हा दगमणेसिं॥ जो द्रव्य आत्मार्थित होने पर भुक्तशेष है, अप्काय के बृहत्कल्पभाष्यम् परिणत हो जाने पर उसको उन्हीं हाथ और पात्र से लेना कल्पता है। अतः वे अनेषणीय नहीं हैं। केवल उदक ही अनेषणीय है। १८६५.किं उवघातो धोए, रत्ते चोक्खे सुइम्मि व कयम्मि। अत्तट्ठिय-संकामियगहणं गीयत्थसंविग्गे।। शिष्य वस्त्रविषयक प्रश्न करता है क्या मुनि के लिए वस्त्र को धोने, रंगने, उज्ज्व ल करने अथवा शुचि करने में उपघात-अनेषणीयता है? आचार्य कहते हैं-इन चारों में से किसी में भी उपघात नहीं है, केवल उदक में उपघात है। वही वस्त्र यदि आत्मार्थित हो अथवा संक्रामित हो-दूसरों को दे दिया गया हो, उसे गीतार्थ या संविग्न मुनि ही ग्रहण कर सकता है, अन्य नहीं। १८६६.गीयत्थग्गहणेणं, अत्तट्ठियमाइ गिण्हई गीतो। संविग्गग्गहणेणं, तं गिण्हतो वि संविग्गो।। गीतार्थ द्वारा ग्रहण करना यह सूचित करता है कि आत्मार्थित अथवा संक्रामित वस्त्र गीतार्थ ग्रहण करता है, अगीतार्थ नहीं। संविग्न द्वारा ग्रहण करना यह सूचित करता है कि संविग्न-मोक्षाभिलाषी ही उसे ग्रहण करता है. असंविग्न नहीं। १८६७.एमेव य परिभुत्ते, नवे य तंतुग्गए अधोयम्मि। उप्फुसिऊणं देते, अत्तट्ठिय सेविए गहणं ।। जो वस्त्र गृही पहन लेता है वह परिभुक्त कहलाता है। जो नया है, तन्तुद्गतमात्र है-ये अधौत हों, उदक के केवल छींटे दिए हुए हों, तो उन्हें ग्रहण करना नहीं कल्पता। वे यदि स्वयं द्वारा भुक्त हों तो उनका ग्रहण किया जा सकता है। १८६८.संसट्ठमसंसट्टे, य सावसेसे य निरवसेसे य। हत्थे मत्ते दव्वे, सुद्धमसुद्धे तिगट्ठाणा॥ संसृष्ट, असंसृष्ट, सावशेष, निरवशेष-इनसे हस्त, मात्रक और द्रव्य विषय में आठ भंग-विकल्प होते हैं। तीन भंग शुद्ध होते हैं और शेष अशुद्ध। आठ भंग ये हैं (१) संसृष्ट हस्त, संसृष्ट मात्रक सावशेष द्रव्य। (२) संसृष्ट हस्त, संसृष्ट मात्रक निरवशेष द्रव्य। (३) संसृष्ट हस्त, असंसृष्ट मात्रक सावशेष द्रव्य। (४) संसृष्ट हस्त, असंसृष्ट मात्रक निरवशेष द्रव्य। इसी प्रकार संसृष्ट हाथ से भी चार भंग होते हैं। १८६९.पढमे भंगे गहणं, सेसेसु य जत्थ सावसेसं तु। अन्नेसु उ अग्गहणं, अलेव-सुक्खेसु ऊ गहणं॥ इन आठ विकल्पों में पहला भंग तीनों पदों से शुद्ध होने के कारण उसमें ग्रहण करना शुद्ध है। शेष भंगों में भी जिन में द्रव्य सावशेष है, उसमें ग्रहण कल्पता है। निरवशेष पदयुक्त Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पहला उद्देशक = भंगों में ग्रहण नहीं कल्पता। अलेपकृत तथा शुष्क द्रव्यों से संबंधित निरवशेष में भी ग्रहण कल्पता है। १८७०.सग्गामे सउवसए, सग्गामे परउवस्सए चेव। खेत्ततो अन्नगामे, खेत्तबहि सगच्छ परगच्छे॥ १८७१.सोऊण ऊ गिलाणं, उम्मग्गं गच्छ पडिवहं वा वि। ___ मग्गाओ वा मग्गं, संकमई आणमाईणि॥ अपने ग्राम में, अपने उपाश्रय में, स्वग्राम के अन्य के उपाश्रय में, स्वक्षेत्र में अथवा ग्रामान्तर में भिक्षाचर्या के लिए जाते समय, क्षेत्र के बाहर जाते समय इन स्थानों में रहते हुए अपने गच्छ वाले अथवा परगच्छ वाले किसी मुनि को 'ग्लान है'-ऐसा सुने और सुनकर भी यदि मुनि उन्मार्ग से या प्रतिमार्ग से या गृहीत मार्ग से अन्य मार्ग से संक्रामित होकर जाता है तो उस मुनि के आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। १८७२.सोऊण ऊ गिलाणं, पंथे गामे य भिक्खवेलाए। जइ तुरियं नागच्छइ, लग्गइ गरुए स चउमासे। मुनि मार्ग में जाते हुए, नगर में प्रवेश करते हुए अथवा भिक्षाचर्या में घूमते हुए यदि 'अमुक मुनि ग्लान है' ऐसा सुने तो सभी कार्य छोड़कर वह ग्लान के पास पहुंचे। यदि ऐसा नहीं करता है तो उसे चतुर्गुरु मास का प्रायश्चित्त आता है। १८७३.जह भमर-महुयरिगणा, निवतंती कुसुमियम्मि चूयवणे। इय होइ निवइअव्वं, गेलन्ने कइयवजढेणं॥ जिस प्रकार भ्रमरगण तथा मधुकरीगण कुसुमित आम्रखंड में मकरंद के लोभ से आते हैं वैसे ही मुनि भी निर्जरा लाभ का आकांक्षी होकर मायारहित हो ग्लान की परिचर्या के लिए तत्काल उसके पास पहुंचे। १८७४.सुद्धे सड्डी इच्छकारे, असत्त सुहिय ओमाण लुद्धे य। अणुअत्तणा गिलाणे, चालण संकामणा तत्तो॥ शुद्ध, श्रद्धी, इच्छाकार, अशक्त, सुखित, अपमान, लुब्ध तथा अनुवर्तना, चालना, संक्रामणा-ये ग्लानविषयक कहने चाहिए। यह द्वार गाथा है। व्याख्या आगे। १८७५.सोऊण ऊ गिलाणं, जो उवयारेण आगओ सुद्धो। जो उ उवेहं कुज्जा, लग्गइ गुरुए सवित्थारे। जो ग्लान के विषय में सुनकर उपचार से ग्लान के पास आ जाता है, वह शुद्ध है। जो उपेक्षा करता है, वह ग्लानारोपणा से युक्त चार गुरुमास के प्रायश्चित्त का भागी होता है। १८७६.उवचरइ को णतिन्नो, अहवा उवचारमित्तगं एइ। उवचरइ व कज्जत्थी, पच्छित्तं वा विसोहेइ॥ उपचार पद की व्यख्या-जहां ग्लान है वहां जाकर पूछता हे-आपमें कौन अतिन्न अर्थात् ग्लान है ? अथवा उपचारमात्रलोकोपचार निभाने के लिए ग्लान के पास जाता है अथवा प्रयोजनवश ग्लान की सेवा करता है अथवा ग्लान के पास न जाने पर प्रायश्चित्त आएगा, अतः प्रायश्चित्त की विशोधि के लिए वह ग्लान के पास जाता है। यह सारा उपचार है। १८७७.सोऊण ऊ गिलाणं, तूरंतो आगओ दवदवस्स। संदिसह किं करेमी, कम्मि व अट्ठे निउज्जामि।। १८७८.पडिचरिहामि गिलाणं, गेलन्ने वावडाण वा काह। तित्थाणुसज्जणा खलु, भत्ती य कया हवइ एवं ।। ग्लान की सेवा करने से मुझे महान् निर्जरा का लाभ मिलेगा। ऐसा सोचने वाला श्रद्धावान होता है। वह ग्लान के विषय में सुनकर सारे कार्य छोड़कर, त्वरित गति से शीघ्र ही ग्लान के पास पहुंचता है और वहां के उपचारकों से अथवा आचार्य से पूछता है-भंते ! मुझे आदेश दें कि मैं ग्लान के विषय में क्या करूं? ग्लान से संबंधित किस प्रयोजन में आप मुझे नियुक्त करना चाहेंगे? मैं इसी प्रयोजन से यहां आया हूं। मैं ग्लान की प्रतिचर्या करूंगा। अथवा ग्लान की सेवा में व्याप्त मुनियों की वैयावृत्त्य करूंगा। इस प्रकार करने पर तीर्थ की अनुवर्तना और भगवान् की भक्ति होती है। १८७९.संजोगदिट्ठपाढी, तेणुवलद्धा व दव्वसंजोगा। सत्थं व तेणऽधीयं, वेज्जो वा सो पुरा आसि॥ ग्लान की परिचर्या के लिए जाने वाला वह मुनि संयोगदृष्टपाठी-औषधद्रव्यों के मिश्रण-योग का ज्ञाता हो, द्रव्यसंयोगों का ज्ञान विशिष्ट वैद्यकशास्त्रों के ज्ञाता से प्राप्त किया हो अथवा चरक-सुश्रुत आदि वैद्यक शास्त्र उसने पढ़े हों। अथवा गृहस्थाश्रम में वह वैद्य रहा हुआ हो, इसलिए वहां के वास्तव्य मुनि उसे विसर्जित न करें। १८८०.अत्थि य से योगवाही, गेलन्नतिगिच्छणाए सो कुसलो। सीसे वावारेत्ता, तेगिच्छं तेण कायव्वं॥ यदि आगन्तुक मुनि के गच्छ में योगवाही मुनि हैं, वह स्वयं ग्लान की चिकित्सा में कुशल है, तो वह शिष्यों को सूत्रार्थ पौरुषी के कार्य में व्याप्त कर स्वयं को चिकित्साकार्य में लगा दे। १८८१.दाऊणं वा गच्छइ, सीसेण व वायएहि वा वाए। तत्थऽन्नत्थ व काले, सोहिए सव्वुहिसइ हटे॥ सूत्र और अर्थ की दोनों पौरुषियों को संपन्न कर वह ग्लान के समीप जाता है और उसकी चिकित्सा करता है। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =बृहत्कल्पभाष्यम् यदि ग्लान का उपाश्रय दूर हो तो सूत्रपौरुषी संपन्न कर श्लाघा करना दुःखप्रद होता है, दुष्कर होता है। अतः बिना अर्थपौरुषी शिष्य से दिलाते हैं। यदि वह प्रतिश्रय बहुत दूर बुलाए मैं कैसे जा सकता हूं। हो तो दोनों पौरुषियां शिष्य से दिलाते हैं। आगाढ़योगवाही स्थविरों ने इस प्रसंग में महर्द्धिक राजा का दृष्टांत दिया मुनि ग्लान वाले क्षेत्र में या अन्यत्र हों तो आचार्य उन्हें कहते और मुनि को सविस्तार चतुर्गुरु की आरोपणारूप प्रायश्चित्त हैं-आर्य! काल का शोधन करो। वे यथावत् काल ग्रहण कर, दिया। जितने दिनों का कालशोधन किया है उतने दिनों के स्थविर बोले-जैसे वह ब्राह्मण राजा द्वारा बुलाए जाने की उद्देशनकालों को आचार्य उस ग्लान के स्वस्थ हो जाने पर प्रतीक्षा में मिलने वाले धन से वंचित रह गया, वैसे ही हे उसे एक दिन में ही उद्दिष्ट कर देते हैं। मुने! तुम भी अभ्यर्थना की प्रतीक्षा में महान निर्जरा लाभ से १८८२.निग्गमणे चउभंगो, अद्धा सव्वे वि निंति दोण्हं पि। वंचित हो जाओगे। भिक्ख-वसहीइ असती, तस्साणुमए ठविज्जा उ॥ १८८५.किं काहामि वराओ, अहं खु ओमाणकारओ होहं। क्षेत्र से निर्गमन की चतुर्भगी है ___ एवं तत्थ भणंते, चाउम्मासा भवे गुरुगा। १ वास्तव्य मुनियों का संस्तरण होता है, आगंतुकों का मैं सर्वथा वराक-अशक्त हूं तो वहां ग्लान-परिचर्या में नहीं। जाकर क्या करूंगा? मैं वहां जाकर अवमानारक ही होऊंगा। २. आगंतुक मुनियों का संस्तरण होता है, वास्तव्य का । इस प्रकार स्थविरों के सामने जो कहता है, उसको चार नहीं। गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। ३. दोनों का संस्तरण नहीं होता। १८८६.उव्वत्त-खेल-संथार-जग्गणे पीस-भाणधरणे य। ४. दोनों का संस्तरण होता है। तस्स पडिजग्गयाण व, पडिलेहेउं पि सि असत्तो।। संस्तरण न होने की स्थिति में वास्तव्य और आगंतुक स्थविर कहते हैं-आर्य! तुम ऐसा क्यों कहते हैं। क्या मुनियों में से आधे-आधे निर्गमन करते हैं। तृतीय भंग में तुम ग्लान का उद्वर्तन करना, खेलमल्ल को भस्म से दोनों के आधे-आधे अथवा सभी निर्गमन कर देते हैं। यह भरना, संस्तारक बिछाना, रात्री में जागरण करना, औषध सारा निर्गमन भिक्षा तथा वसति के अभाव में जानना चाहिए। आदि पीसना, भोजन-भाजनों को धारण करना, ग्लान तथा वहां ग्लान की सन्निधि में ग्लान द्वारा अनुमत मुनियों को उसके परिचारकों की उपधि आदि की प्रत्युपेक्षा करना क्या रखना चाहिए। तुम ये सारे कार्य करने में भी अशक्त हो? १८८३.अभणितो कोइ न इच्छइ, पत्ते थेरेहिं होउवालंभो। १८८७.सुहिया मो त्ति य भणती, दिÉतो महिड्डीए, सवित्थरारोवणं कुज्जा। अच्छह वीसत्थया सुहं सव्वे। १८८४.बहुसो पुच्छिज्जंता, इच्छाकारं न ते मम करिंति। एवं तत्थ भणते, पडिमुंडणा य दुक्खं, दुक्खं च सलाहिउं अप्पा। पायच्छित्तं भवे तिविह।। कोई मुनि बिना कहे ग्लान की वैयावृत्त्य करने के लिए ग्लान की परिचर्या का प्रसंग आने पर यदि कोई कहता उद्यत नहीं होता। एक बार कुलस्थविर, गणस्थविर या है-हम इस क्षेत्र में सुखपूर्वक रह रहे हैं। सभी यहां विश्वस्त संघस्थविर किसी कारणवश वहां आए और उस मुनि को होकर सुखपूर्वक निवास करें। वहां जाकर अपने आपको उपालंभ देते हुए कहा-तुम प्रत्यासन्न ग्राम में ग्लान की दुःखी क्यों करना चाहते हो? जो इस प्रकार कहता है प्रतिचर्या के लिए क्यों नहीं गए? उस मुनि ने कहा-मैंने उसको तीन प्रकार का प्रायश्चित्त आता है। (यदि आचार्य बार-बार वहां के साधुओं को पूछा। परन्तु उन्होंने मेरा इस प्रकार कहते हैं तो उन्हें चतुर्गुरु, उपाध्याय कहे तो उन्हें इच्छाकार नहीं किया-वैयावृत्त्य की मेरी इच्छा होते हुए भी चतुर्लधु और भिक्षु कहे तो मासगुरु का प्रायश्चित्त आता है।) मुझे नहीं बुलाया। दूसरी बात है कि मैं बिना उनके बुलाए १८८८.भत्तादिसंकिलेसो, अवस्स अम्हे वि तत्थ न तरामो। वहां गया, परन्तु उन्होंने मेरी प्रतिमुंडना कर दी-मुझे काहिंति केत्तियाणं, तेणं चिय तेसु अद्दन्ना॥ वैयावृत्त्य करने का निषेध कर डाला। प्रतिमुंडना से मुझे महद् १८८९.अम्हेहिं तहिं गएहिं, ओमाणं उग्गमाइणो दोसा। दुःख होता है। 'मैं ग्लान की जैसी वैयावृत्त्य करता हूं, वैसी एवं तत्थ भणते, चाउम्मासा भवे गुरुगा। वैयावृत्त्य करना दूसरा नहीं जानता'-इस प्रकार आत्मा की ग्लान-परिचर्या की बात सुनकर कुछ मुनि यह कहें कि १. दृष्टांत के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. ६७ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = वहां तो और अनेक मुनि आए हए होंगे। वहां भक्तपानी का अवश्य ही संक्लेश होगा। हम भी वहां अपना निर्वाह नहीं कर सकेंगे। वहां के वास्तव्य मुनि उस ग्लान के कार्य में आकुलीभूत होकर आगंतुक कितने मुनियों का आतिथ्य कर पायेंगे? हम भी वहां अवमान, उद्गम आदि दोषों के भागी होंगे अर्थात् ये दो वहां होंगे। वहां इस प्रकार कहने वालों के चार मास का गुरुक प्रायश्चित्त आता है। १८९० अम्हे मो निज्जरट्ठी, अच्छह तुब्भे वयं से काहामो। अत्थि य अभाविया णे, ते वि य णाहिति काऊण। ग्लान वाले क्षेत्र को प्रचुर अन्न-पान, वाला जानकर कुछेक लोलुप संत वहां जाते हैं और वहां के मुनियों को कहते हैं हम निर्जरार्थी हैं। हम ग्लान की वैयावृत्त्य करेंगे। इसलिए आप उस वैयावृत्त्य से निवृत्त हो जाएं। हमारे साथ अभावित शैक्ष मुनि भी हैं। वे भी हमें वैयावृत्त्य करते हुए देखकर, वैयावृत्त्य करना जानेंगे। १८९१.एवं गिलाणलक्खेण संठिया पाहण त्ति उक्कोसं। मग्गंता चमढिंती, तेसिं चारोवणा चउहा।। ___ इस प्रकार ग्लान के मिष से वहां संस्थित होकर प्राघूर्णक रूप में जानकर लोग उन्हें उत्कृष्ट भक्त-पान देते हैं। वे अन्य-अन्य उत्कृष्ट द्रव्य की मार्गणा करते हुए वहां रहते हैं और उस क्षेत्र को बिगाड़ देते हैं। अब ग्लान-प्रायोग्य द्रव्य मिलना भी कठिन हो जाता है। उन मुनियों के ये चार प्रकार की आरोपणा प्राप्त होती है-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः। १८९२.फासुगमफासुगे वा, अचित्त चित्ते परित्तऽणते य। असिणेह-सिणेहकए, अणहारा-ऽऽहार लहु-गुरुगा॥ क्षेत्र की उद्वेजना के कारण ग्लान प्रायोग्य द्रव्य की प्राप्ति नहीं होती। तब मुनि यदि प्रासुक-एषणीय अथवा अप्रासुकअनेषणीय भक्त-पान का अथवा अचित्त, सचित्त, परित्तवनस्पति, अनंत वनस्पति, अस्नेह, सस्नेह, अनाहार, आहार आदि भक्त-पान के लिए अवभाषण करता है या रातवासी रखता है, तो वह अनेक गुरु-लघु प्रायश्चित्तों का भागी होता है। (प्रासुक की अवभाषणा आदि में चार लघुक, अप्रासुक के चार गुरुक, अचित्त में चार लघु, सचित्त में चार गुरुक, परित्त में चार लघुक, अनन्त में चार गुरुक, अस्नेह में चार लघुक, सस्नेह भी चार गुरुक, अनाहार में चार लघुक और आहार में चार गुरुक ये प्रायश्चित्त आते हैं।) यह द्रव्य निष्पन्न प्रायश्चित्त है। १८९३.लुन्द्रस्सऽब्भंतरतो, चाउम्मासा हवंति उग्घाता। बहिया य अणुग्घाया, दव्वालंभे पसज्जणया॥ लोलुपता के वशीभूत होकर जो क्षेत्र को उद्धेजित कर देता है और उस मुनि को यदि क्षेत्र के अभ्यन्तर में ग्लान प्रायोग्य द्रव्य नहीं मिलता तो उस मुनि को चार उदघात अर्थात् चार लघुमास का और यदि क्षेत्र के बाहर भी वह द्रव्य प्राप्त नहीं होता तो उसे चार अनुद्धात अर्थात् गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। यहां ग्लान प्रायोग्य द्रव्य की अप्राति के कारण ‘पसजना' अर्थात् प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है। १८९४.खेत्तबहि अद्धजोअण, वुड्डी दुगुणेण जाव बत्तीसा। चउगुरुगादी चरिमं, खेत्ते काले इमं होइ॥ क्षेत्र के बाहर अर्द्धयोजन से आरंभ कर क्षेत्र की दुगुने परिमाण से वृद्धि बत्तीस योजन तक करे। इनमें चतुर्गुरु आदि प्रायश्चित्त से चरम अर्थात् पारांचिक तक प्रायश्चित्त प्राप्त हो जाता है। यह क्षेत्रविषयक प्रायश्चित्त है। कालविषयक प्रायश्चित्त इस प्रकार का है। १८९५.अंतो बहिं न लब्भइ, ठवणा फासुग महय मुच्छ किच्छ कालगए। चत्तारि छ च्च लहु-गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च॥ प्रकारान्तर से क्षेत्रविषयक प्रायश्चित्त जब क्षेत्र के भीतर और बाहर ग्लान-प्रायोग्य द्रव्य नहीं मिलता तब प्रासुक की स्थापना की जाती है। इसका प्रायश्चित्त है चार लघु। उससे ग्लान की अनागाढ़ परितापना होती है तो चार गुरु, महती दुःखासिका हो तो षडलघु, मूच्र्छा हो जाने पर षड्गुरु, प्राण कृच्छ्र हो जाएं तो छेद, उच्छ्रास कुछ हो जाए तो मूल, मारणांतिक समुद्घात होने पर अनवस्थाप्य और ग्लान के कालगत हो जाने पर पारांचिक। १८९६.पढमं राइ ठविते, गुरुगा बिइयादिसत्तहिं चरिमं । परितावणाइ भावे, अप्पत्तिय-कूवणाईया॥ कालविषयक प्रायश्चित्त-स्थापना की पहली रात में चतुर्गुरु, दूसरी से सातवीं रात्री तक प्रायश्चित्त की वृद्धि होते होते अंतिम प्रायश्चित्त पारांचिक तक बढ़ जाता है। परितापन आदि भाव से निष्पन्न प्रायश्चित्त भी होता है। परितापित होकर वह ग्लान अप्रीतिक करता है, कूजन आदि करता है तो चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त है। १८९७.अंतो बहिं न लब्भइ, परितावण महय मुच्छ किच्छ कालगए। चत्तारि छ च्च लहु-गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च॥ जब क्षेत्र के भीतर और बाहर ग्लान-प्रायोग्य द्रव्य नहीं Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =बहत्कल्पभाष्यम् मिलता तब अनागाढ़ परितापना होती है। उसका प्रायश्चित्त अभी अकाल है, वेला होने पर हम ला देंगे। परंतु यह न कहें है चतुर्लघु। आगाढ़ परितापना होती है तो चतुर्गुरु, महती कि हम नहीं देंगे। दुःखासिका हो तो षडलघु, मूर्छा होने पर षड्गुरु, प्राण १९०२.तत्थेव अन्नगामे, वुत्थंतरऽसंथरंत जयणाए। कृच्छ्र होने पर छेद, उच्छ्रास कुछ होने पर मूल, मारणांतिक असंथरणेसणमादी, छन्नं कडजोगि गीयत्थे। समुद्घात होने पर अनवस्थाप्य और ग्लान के कालगत हो ग्लान-प्रायोग्य द्रव्य की उसी गांव में अन्वेषणा करे। वहां जाने पर पारांचिक। प्राप्त न होने पर अन्य ग्राम में उसकी अनुवर्तना करे। यदि वह १८९८.अंतो बहिं न लब्भइ, अन्यग्राम दूर हो तो बीच वाले गांव में रात रहकर दूसरे दिन संथारग महय मुच्छ किच्छ कालगए। वह ले आए। यदि वह अपर्याप्त हो तो यतनापूर्वक एषणादोषों चत्तारि छ च्च लहु-गुरु, के आधार पर पंचक परिहानि से ग्लान प्रायोग्य द्रव्य की छेदो मूलं तह दुगं च॥ गवेषणा करे। प्रतिदिन यदि ग्लान प्रायोग्य द्रव्य लाना पड़े तो अति उद्वेजित क्षेत्र के भीतर और बाहर ग्लान-प्रायोग्य ___कृतयोगी मुनि अप्रकटरूप से वह ले आए। संस्तारक नहीं मिलता तब ग्लान के अनागाढ़ परितापना में १९०३.पडिलेह पोरुसीओ, वि अकाउं मग्गणा उ सग्गामे। चतुर्लघु, आगाढ़ में चतुर्गुरु......शेष यावत् पारांचिक तक खित्तंतो तदिवस, असइ विणासे व तत्थ वसे॥ पूर्ववत्। प्रतिलेखना करके सूत्रार्थ पौरुषियों को बिना किए ही १८९९.परिताव महादुक्खे, भुच्छामुच्छे य किच्छपाणगते। अपने ग्राम में ग्लान प्रायोग्य द्रव्य की मार्गणा करे। वहां न किच्छुस्सासे य तहा, समुघाए चेव कालगते॥ मिलने पर क्षेत्रान्त परग्राम में जाकर मार्गणा करे। उस द्रव्य पूर्व गाथाओं में परितापनपद तथा समुद्घातपद नहीं हैं। को लेकर उसी दिन लौट आए। यदि क्षेत्र दूर हो और उसी इसलिए प्रस्तुत गाथा में वे पद दे दिए गए हैं-लोलुपतावश दिन न आया जा सके और वह विनाशी द्रव्य हो तो वहीं रहे कोई मुनि क्षेत्र को उद्वेजित कर देता है, तब क्षेत्र के भीतर और दूसरे दिन आ जाए। या बाहर ग्लान-प्रायोग्य द्रव्य नहीं मिलता। तब अनागाढ़ १९०४.खित्तबहिया व आणे, विसोहिकोडिं वतिच्छितो काढे। परितापना होती है। इसमें चतुर्लघु, आगाढ़ परितापना में पइदिवसमलब्भंते, कम्मं समइच्छिओ ठवए। चतुर्गुरु, महती सुखासिका में षडलघु, मूर्छा में षड्गुरु, क्षेत्र के बाहर से भी ग्लान-प्रायोग्य द्रव्य ले आए। इस कृच्छ्र प्राण में छेद, कुछ उच्छ्रास में मूल, मारणांतिक प्रकार जब प्रायश्चित्त के अनुलोम से क्रीतकृत, अभ्याहृत समुद्घात में अनवस्थाप्य और ग्लान के प्राणान्त में आदि विशोधिकोटि को व्यतिक्रांत कर देते हैं तब ग्लान के पारांचिक। लिए औषध का काढ़ा स्वयं करे या दूसरों से कराए। यदि १९००.अणुयत्तणा गिलाणे, दव्वट्ठा खलु तहेव विज्जट्ठा।। प्रतिदिन वह प्राप्त न हो और आधाकर्म भी समतिक्रांत हो असतीइ अन्नओ वा, आणेउं दोहि वी कुज्जा॥ जाता है तो शुद्ध-अशुद्ध द्रव्य का उत्पादन कर ग्लान के लिए द्रव्य के प्रयोजन से जैसे ग्लान की अनुवर्तना की उसे स्थापित कर दे। जाती है, वैसे ही वैद्य की भी अनुवर्तना करनी चाहिए। १९०५.उव्वरगस्स उ असती, यदि स्वग्राम में ग्लानप्रायोग्य द्रव्य न हो और वैद्य की चिलिमिणि उभयं च तं जह न पासे। प्राप्ति न हो तो दूसरे ग्राम से भी दोनों की अनुवर्तना करनी तस्सऽसइ पुराणादिसु, चाहिए। ठविंति तदिवस पडिलेहा॥ १९०१.जायंते उ अपत्थं, भणंति जायामो तं न लब्भइ णे। उस द्रव्य की स्थापना किसी अपवरक में करे। अपवरक विणियट्टणा अकाले, जा वेल न बॅति उन देमो॥ न हो तो चिलिमिलि बांधकर ऐसे स्थान में रखें जहां से यदि ग्लान अपथ्य द्रव्य की याचना करे तब उसे साधु ग्लान और अगीतार्थ मुनि उसे न देख सके। यदि यह भी कहे-हम उसकी याचना कर ला देते परन्तु कहीं भी हमें उस शक्य न हो तो पुराण अर्थात् पश्चात्कृत आदि के घर में उसे द्रव्य की प्राप्ति नहीं हुई। अथवा ग्लान के आगे पात्रों को स्थापित करे और उसका प्रतिदिन' प्रत्युपेक्षा करे। लेकर जाए और कुछ काल पश्चात् विनिवर्तना-प्रत्यागमन १९०६.फासुगमफासुगेण व, अच्चित्तेतर परित्तऽणतेणं। कर कहे-हम गए थे, परन्तु वह द्रव्य नहीं मिला। अथवा आहार-तहिणेतर, सिह इअरेण वा करणं ।। १. तद्दिवस-तदिवसं नाम प्रतिदिनम् । देशी शब्द तद्दिवसं अणुदिअहे (देशी ५।८) Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक प्रासुक-अप्रासुक, सचित्त-अचित्त, परित्त-अनंत, आहार- यदि इस प्रकार करने पर भी रोग उपशांत नहीं होता है अनाहार, तद्दिवसक-परिवासित, सस्नेह-अस्नेह-ये ग्लान के तो वैद्य को पूछे। वैद्य आठ प्रकार के होते हैं। इनमें दो प्रकार करण अनुज्ञात हैं। के वैद्य ऋद्धिरहित होते हैं। शेष छह प्रकार के वैद्य ऋद्धि१९०७.विज्ज न चेव पुच्छह, जाणता बिंति तस्स उवदेसो। रहित और ऋद्धिसहित-दोनों होते हैं। ____ दट्ठ-पिलगाइएसु व, अजाणगा पुच्छए विज्जं॥ १९११.संविग्गमसंविग्गे, दिट्ठत्थे लिंगि सावए सण्णी। यदि ग्लान कहे-आप वैद्य को न पूछे, अपने आप अस्सण्णि इड्डि गइरागई य कुसलेण तेगिच्छं।। परिचर्या करें। यदि साधु चिकित्सा में कुशल हों तो वे कहते वैद्य के आठ प्रकार हैं-१. संविग्न, २. असंविग्न, हैं-हम जो कर रहे हैं वह वैद्य के उपदेश के अनुसार ही कर ३. लिंगी, ४. श्रावक, ५. संजी, ६. असंज्ञी-अनभिगृहीतरहे हैं। सर्प आदि द्वारा दष्ट, फोड़े-फुसी की चिकित्सा के मिथ्यादृष्टि, ७. अभिगृहीतमिथ्यादृष्टि, ८. परतीर्थिक। जानकार हों तो मुनि स्वयं चिकित्सा करें और यदि जानकर दृष्टार्थ का अर्थ है-गीतार्थ। संविग्न, असंविग्न, लिंगी, न हों तो वैद्य को पूछे। श्रावक तथा संज्ञी-ये गीतार्थ भी होते हैं और अगीतार्थ भी। १९०८.किह उप्पन्नो गिलाणो, अट्ठम उण्होदगाइया वुड्डी। शेष तीन नियमतः अगीतार्थ ही होते हैं। संविग्न-असंविग्न-ये ___किंचि बहु भागमद्धे, ओमे जुत्तं परिहरंतो॥ ऋद्धिमान् नहीं होते। शेष ऋद्धिमान् और अऋद्धिमान्-दोनों शिष्य ने आचार्य से पूछा-ग्लान होने का हेतु क्या है? होते हैं। गइरागइ-ऋद्धिमान् वैद्यों की गति-आगति में महान् आचार्य कहते हैं-रोग और आतंक से ग्लानत्व उत्पन्न होता अधिकरण होता है। सभी वैद्यों को छोड़कर कुशल वैद्य से है। यदि ज्वर आदि रोग हो तो जघन्यतः अष्टम-तेला चिकित्सा करानी चाहिए। कराना चाहिए। रोग से मुक्ति पाने के लिए उष्णोदक आदि १९१२.संविग्गेतर लिंगी, वइ अवइ अणागाढ आगाढे। की वृद्धि करनी चाहिए। यदि रोगी उपवास करने में समर्थ न परउत्थिय अट्ठमए, इड्डी गइरागई कुसले॥ हो तो उष्ण पानी में थोड़े मर्दित अथवा अमर्दित चावल डाल दूसरे आचार्य की परंपरा के अनुसार आठ प्रकार के वैद्य कर एक दिन या सात दिन तक देने चाहिए। फिर 'किंचि' ये हैंअर्थात् उल्लण-उष्णपानी में थोड़ा मीठा दही डालकर दूसरे १. संविग्न ५. अवती-अविरतसम्यग्दृष्टि सप्ताह तक या दूसरे दिन देना चाहिए। फिर 'बहू' अर्थात् २. असंविग्न ६. अनागाढ़-अनभिगृहीतदर्शनी बहुत मधुरोल्वण उष्णपानी में डालकर तीसरे सप्ताह या ७. आगाढ़-अभिगृहीतमिथ्यादर्शन तीसरे दिन देना चाहिए। तदनन्तर 'भागि'-चौथे सप्ताह में या ४. व्रती ८. परयूथिक-शाक्य, परिव्राजक आदि। चौथे दिन तीन भाग मधुरोल्वण और दो भाग उष्ण जल, ऋद्धि, गइरागइ तथा कुशल-इनकी व्याख्या पूर्व 'अद्धे'-पांचवे सप्ताह में या पांचवे दिन आधा भाग श्लोकवत् जान लेनी चाहिए। मधुरोल्वण और आधा भाग उष्णजल, 'ओमे'-छठे सप्ताह १९१३.वोच्चत्थे चउलहुगा,अगीयत्थे चउरो मासऽणुग्घाया। या छठे दिन तीन भाग मधुरोल्वण और एक भाग उष्णोदक, चउरो य अणुग्घाया, अकुसले कुसलेण करणं तु॥ "जुत्ते'-सातवें सप्ताह या सातवें दिन थोड़ा उष्णोदक और संविग्न गीतार्थ वैद्य को छोड़कर यदि असंविग्न सारा मधुरोल्वण दिया जाता है। उसके पश्चात् अवगाहिम अगीतार्थ वैद्य से चिकित्सा कराता है-इस प्रकार चिकित्सा आदि का पूरा परिहार करता है। कराने में व्यत्यय करता है तो उस चतुर्लघु का प्रायश्चित्त १९०९.जाव न मुक्को ता अणसणं तु मुक्के वि ऊ अभत्तट्ठो। आता है। गीतार्थ को छोड़कर अगीतार्थ से चिकित्सा असहुस्स अट्ठ छटुं, नाऊण रुयं व जं जोगं॥ कराने पर तथा कुशल वैद्य को छोड़कर अकुशल वैद्य से जब तक ज्वर आदि से मुक्त नहीं होता तब तक चिकित्सा कराने पर चार-चार अनुद्घात मास का प्रायश्चित्त अनशन-अभक्तार्थ करे। मुक्त होने पर एक दिन अभक्तार्थ करे। आता है। यदि वह लंबे समय तक अभक्तार्थ करने में समर्थ न हो तो एक १९१४.चोयगपुच्छा गमणे, पमाण उवगरण सउण वावारे। बार अष्टम-तेला या षष्ठ-बेला करे। रोग को जानकर, उसके संगारो य गिहीणं, उवएसो चेव तुलणा य॥ उपशमन के लिए जो योग्य उपाय हो वह करे। शिष्य की पृच्छा, गमन, प्रमाण, उपकरण, शकुन, १९१०.एवं पि कीरमाणे, विज्ज पुच्छे अठायमाणम्मि। व्यापार, संगार-संकेत गृहस्थों के उपदेश और तुलना। विज्जाण अट्ठगं दो, अणिड्डि इड्डी अणिड्डियरे॥ (विस्तृत अर्थ अगली गाथाओं में) Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ १९१५. पाहुडियति य एगो नेयब्वो जिलाणओ उ विज्जघरं । एवं तत्थ भणते, चाउम्मासा भवे गुरुगा ॥ (शिष्य पूछता है क्या ग्लान को वैद्य के पास ले जाना चाहिए अथवा वैद्य को ग्लान के पास लाना चाहिए ?) कोई एक कहता है- वैद्य को ग्लान के पास लाने पर प्राभृतिका - देनी होती है, इसलिए ग्लान को ही वैद्य के घर पर ले जाना चाहिए। इस प्रकार जो कहे उसे चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। + १९१६. रह- हत्थि - जाण तुरए - अणुरंगाईहिं इंति कायवहो । आसण मट्टिय उदए, कुरुकुय सघरे उ परजोगो ॥ वैद्य के लिए की जाने वाली प्राभृतिका यह है- रथ, हाथी, यान-शिविका आदि, अश्व, अनुरंग गाड़ी आदि - वैद्य इन साधनों से रोगी मुनि के पास आता है तब पृथ्वीकाय आदि कायों का वध होता है । वैद्य को बैठने के लिए आसन देना होता है। वैद्य के परामर्श से रोगी के शरीर पर कुरुकुचमिट्टी का लेप आदि करने पर मिट्टी और उदक के जीवों का वध होता है स्वगृह में परयोग होता है अर्थात् परप्रयोग से सब कुछ हो जाता है, साधुओं के कोई अधिकरण नहीं होता। १९१७. लिंगत्थमाइयाणं, छण्हं वेज्जाण गम्मऊ मूलं । संविग्गमसंविग्गे, उवस्सगं चेव आज्जा ॥ लिंगस्थ आदि छह प्रकार के वैद्यों के घर पर ग्लान को ले जाना चाहिए। उन्हें उपाश्रय में नहीं बुलाना चाहिए । संविग्न और असंविग्न-इन दो प्रकार के वैद्यों को उपाश्रय में ही लाना चाहिए। १९१८. वाता-ऽऽतवपरितावण, मयपुच्छा सुष्ण किं सुसाणकुडी । सच्चैव य पाहुडिया, उवस्सए फासूया सा उ ॥ रोगी वैद्य के घर ले जाते समय वायु से, आतप से परिताप का अनुभव करता है। रोगी को ले जाते हुए देखकर लोग पूछते हैं- 'क्या यह मृत है, जो इस प्रकार ले जा रहे हो?" रोगी रास्ते में मर गया वैध रोगी को मृत देखकर कहता है- क्या मेरा घर श्मशानकुटी है जो मरे हुए को यहां लाए हो ? वैद्य यह सोचकर स्नान आदि करता है कि मैंने शव का स्पर्श किया है अथवा गोबर के पानी का घर में छिड़काव करता है - इस सारी प्राभृतिका का निमित्त होता है। मुनि । उपाश्रय में प्रासुक पानी आदि से वह की जाती है, इसलिए कोई विराधना नहीं होती । १९१९.उग्गह-धारणकुसले, दक्खे परिणाम य पियधम्मे । तस्साणुमए काल देस अ पेसिज्जा ॥ बृहत्कल्पभाष्यम् ग्लान के निमित्त वैद्य के पास भेजा जाने वाला व्यक्ति अवग्रह और धारणाकुशल हो, दक्ष, परिणामक, प्रियधर्मा, कालज्ञ और देशज्ञ होना चाहिए तथा वह ग्लान अथवा वैद्य द्वारा अनुमत होना चाहिए। १९२०. एअगुणविष्यमुळे, पेसिंतस्स चउरो अणुग्धाया । यथेह य गमणं, गुरुगा य इमेहिं ठाणेहिं ॥ जो उपरोक्त गुणों से विप्रमुक्त हो, उसको वैद्य के पास मेजने पर चार अनुद्घात मास का प्रायश्चित है। वहां गीतार्थ मुनियों को जाना चाहिए। निम्नोक्त स्थानों के आचरण में चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। वे ये हैं-१९२१. एक दुगं चउकं दंडो दूया सहेब नीहारी । किण्हे नीले मइले, चोल रय निसिज्ज मुहपत्ती ॥ यदि वैद्य के पास एक मुनि को भेजा जाता है तो वैद्य उसे यमदंड, दो को भेजा जाए तो यमदूत और यदि चार को भेजा जाता है तो शव को कंधा देने वाले मानता है। इतनों को भेजने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। उपकरण जैसे चोलपट्टक, रजोहरण, निषद्या, मुंहपत्ती आदि काले, नीले और मलिन हों और उनसे ग्लान को प्रावृत किया जाए तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १९२२. मइल कुचेले अब्भंगियल्लए साण खुज्ज वडभे य कासायवत्थ उच्चूलिया व कन्जं न साहति ॥ शरीर और वस्त्रों से मलिन, जीर्ण परिधान वाला व्यक्ति, तैल आदि से अभ्यंगित शरीर वाला, कुत्ते का वामपार्श्व से दक्षिण पार्श्व में जाना, कुब्ज और वामन व्यक्ति का सामने मिलना, काषायवस्त्रवाले तथा भस्मलित शरीर वालों का सामने मिलना इनसे प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। १९२३. नंदीतूरं पुण्णस्स दंसणं संख-पडहसदो भिंगार छत्त चामर, एवमादी पसत्थाई ॥ नंदीसूर्य (बारह प्रकार के सूर्य वाद्यों का एक साथ बजना), पूर्णकलश का दर्शन, शंख और पटह का शब्द सुनाई देना, भृंगार, छत्र चामर आदि ये सारे प्रशस्त होते हैं। १९,२४. आवडणमाइएसुं चउरी मासा हवंतऽणुग्धाया। य। एवं ता वच्चंते, पत्ते य इमे भवे दोसा ॥ प्रस्थान करते हुए यदि आपतन - शिर आदि कहीं टकरा जाता है ( गिर पड़ना या स्खलित हो जाना, पीछे से कोई वस्त्र खींच कर पूछता है कहां जा रहे हो?') आदि अपशकुनों के होने पर भी जो जाता है उसे चार अनुदधात मास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है । वैद्य के घर जाकर इन दोषों का परिहार करना चाहिए। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक १९९ १९२५.साड-ऽब्भंगण-उव्वलण में भोजन आदि दें, अन्य वेला में नहीं। ग्लान के भाव के लोय-छारु-कुरुडे य छिंद-भिंदतो। अनुकूल ही सारे कार्य करने चाहिए। ग्लान को ऐसे स्थान में सुहआसण रोगविहिं, स्थापित करना चाहिए जहां उसके इन्द्रियों के विषय अनिष्ट उवएसो वा वि आगमणं॥ न हो। अथवा दृप्त आदि मुनियों के लिए प्रतिलोम क्रिया घर में यदि वैद्य एक शाटक पहने हुए हो, तैल आदि से करनी चाहिए।' अभ्यंगन करा रहा हो, उद्वर्तन कर रहा हो, शिरो मुंडन १९३०.अपडिहणंता सोउं, कयजोगाऽलंभि तस्स किं देमो। आदि करा रहा हो, राख या उकरडी के पास बैठा हो, कुछ जहविभवा तेगिच्छा, जा लंभो ताव जूहति॥ छेदन, भेदन कर रहा हो उस समय उसे कुछ भी नहीं पूछना वैद्य के वचनों को सुनकर उनके अनुसार औषधि या पथ्य चाहिए। जब वैद्य सुखासन में बैठा हो, वैद्यशास्त्र पढ़ रहा हो की व्यवस्था करनी चाहिए। यदि प्रयत्न करने पर भी सारी अथवा किसी की चिकित्सा कर रहा हो अथवा वैद्य के पूछने वस्तुएं न मिले तो वैद्य को पूछना चाहिए कि हम ग्लान को पर बताए या वैद्य को ग्लान के समीप ले जाए। क्या दें? वैद्यक शास्त्रों में भी कहा है-'यथाविभवा १९२६.पच्छाकडे य सन्नी, दंसणऽहाभद्द दाणसड्ढे य। चिकित्सा'-धन के अनुसार चिकित्सा होती है। जो कुछ मिच्छद्दिट्टि संबंधिए अ परतित्थिए चेव॥ सहज प्राप्त हो मुनि उसे याचित लाते हैं। पश्चात्कृत मुनि-चारित्र से भ्रष्ट होकर गृहवास को १९३१.नियएहिं ओसहेहिं, कोइ भणेज्जा करेमऽहं किरियं। प्रतिपन्न मुनि, संज्ञी-अणुव्रती, दर्शन-अविरतसम्यग्दृष्टि, तस्सऽप्पणो य थाम, नाउं भावं च अणुमन्ना॥ यथाभद्रक-सम्यक्वरहित किन्तु निग्रंथों के प्रति आदरवान, ग्लान का कोई संबंधी वैद्य यह कहता है-मैं अपनी निजी दानश्राद्ध-दानरुचि, मिथ्यादृष्टि-अन्य साधु-संन्यासी, औषधियों से इसकी चिकित्सा करूंगा। ऐसी स्थिति में ग्लान संबंधी ग्लान के परिजन और परतीर्थिक-इनको संकेत देते सोचे कि क्या यह वैद्य मेरी औषधियों की पूर्ति करने में हुए कहना चाहिए-हम वैद्य के पास जा रहे हैं। आप वहां रहें। समर्थ होगा? क्या यह मेरा उत्क्रमण करना चाहता है अथवा और वैद्य जो कहे उसे स्वीकार करें। मैं धृति से बलवान् हूं या नहीं? इन सारी स्थिति को तोलकर १९२७.वाहि नियाण विकारं, देसं कालं वयं च धातुं च। वह उस चिकित्सा को मान्य करे। आहार अग्गि-धिइबल, समुई च कहिंति जा जस्स॥ १९३२.जारिसयं गेलन्नं, जा य अवत्था उ वट्टए तस्स। वेद्य के पास पहुंच कर मुनि ग्लान की व्याधि, उसका अद्दट्टण न सक्का, वोत्तुं तं वच्चिमो तत्थ। कारण, विकार, रोगोत्पत्ति का काल, ग्लान की अवस्था, मुनिगण! जिस प्रकार के ग्लान मुनि का तुमने वर्णन उसमें किस धातु की उत्कटता है, आहार कैसा है, इसकी किया है, उसकी अभी जो अवस्था है, उसको देखे बिना पाचक अग्नि इस प्रकार की है, इसका धृतिबल ऐसा है, किसी औषधि का निर्देश नहीं दिया जा सकता। इसलिए हमें इसकी प्रकृति यह है-ग्लान संबंधी ये सारी बातें वैद्य को वहां चलना चाहिए। बताएं। १९३३.अब्भुट्ठाणे आसण, दायण भद्दे भती य आहारो। १९२८.कलमोदणो य खीरं, ससक्करं तूलियाइयं दव्वे। गिलाणस्स य आहारे, नेयव्वो आणुपुव्वीए॥ भूमिघरेट्टग खेत्ते, काले अमुगीइ वेलाए॥ वैद्य के प्रतिश्रय में आने पर जिस विधि का आचरण १९२९.इच्छाणुलोम भावे,न य तस्सऽहिया जहिं भवे विसया। किया जाता है उसकी द्वार गाथा यह है-अभ्युत्थान, आसन, अहवण दित्तादीसुं, पडिलोमा जा जहिं किरिया॥ दर्शन, भद्र, भृति, आहार तथा वैद्य का वेतन, ग्लान का ग्लान आदि की सारी बातें सुनकर वैद्य कहता है इस आहार-इनका विस्तार क्रमशः कहा जा रहा है। ग्लान को कलमोदन तथा शर्करायुक्त दूध भोजन के रूप में १९३४.अब्भुट्ठाणे गुरुगा, तत्थ वि आणाइणो भवे दोसा। देना, तूलिका में ग्लान को सुलाना है। ये सारे द्रव्यसंबंधी मिच्छत्त रायमादी, विराहणा कुल गणे संघे॥ निर्देश हैं। क्षेत्रसंबंधी-इस ग्लान को भूमिगृह में अथवा पक्की वैद्य के आने पर यदि आचार्य उठते हैं तो चार ईंटों के घर में रखें। कालतः जैसे-इस ग्लान को अमुक वेला गुरुमास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। १. जैसे दृप्तचित्त वाले मुनि का उन्माद अपमान आदि करने से शांत हो जाता है। क्षिप्तचित्त वाले की क्षिप्तता भी अपमान से नष्ट हो जाती है। यक्षाविष्ट व्यक्ति का यथायोग्य सम्मानना और अपमानना से आवेश नष्ट हो जाता है। (वृ. पृ. ५६२) २. जूहंति-देशीपदमेतद् आनयन्ति इत्यर्थः। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० =बृहत्कल्पभाष्यम् राजा आदि मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाते हैं तथा वह आचार्य, पूरी करेंगे' जो इस कथन का प्रतिषेध करते हैं उनको चार कुल, गण और संघ की विराधना कर सकता है। गुरुकमास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। १९३५.अणब्भुट्ठाणे गुरुगा, तत्थ वि आणाइणो भवे दोसा। यदि वहां पश्चात्कृत आदि न हों और वहां यदि कोई वैद्य का मिच्छत्त सो व अन्नो, गिलाणमादीविराहणया॥ प्रतिषेध करता है कि 'हम आपको मज्जनादि नहीं दे पाएंगे'यदि आचार्य नहीं उठते हैं तो चार गुरुक का उसको भी चतुर्गुरुक और आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। इससे वैद्य १९४१.जुत्तं सयं न दाउं, अन्ने दिते वि ऊ निवारिंति। मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकता है तथा ग्लान आदि की न करिज्ज तस्स किरियं, अवप्पओगं व से दिज्जा। विराधना होती है। वैद्य सोचता है-'ये मुनि निष्कंचन है। ये यदि कुछ भी न १९३६.गीयत्थे आणयणं, पुव्विं उद्वित्तु होइ अभिलावो। दें तो यह युक्त है, किन्तु जो दूसरे देते हों, उनको निवारित गिलाणस्स दावणं धोवणं च चुन्नाइगंधे य॥ करना उपयुक्त नहीं है।' इस प्रकार वह वैद्य प्रद्विष्ट होकर वैद्य को लाने के लिए गीतार्थ मुनि जाएं। वैद्य के आने से उस ग्लान की चिकित्सा नहीं करता अथवा वह अपप्रयोग पूर्व ही आचार्य आसन से उठकर खड़े हो जाएं। आचार्य वैद्य करता है, जिससे ग्लान की अवस्था और अधिक खराब हो से बात करें। वैद्य को दिखाने से पूर्व ग्लान के शरीर और जाती है। उपकरणों को धोकर शुचीभूत कर, वहां यदि दुर्गंध हो तो १९४२.दाहामो त्ति य गुरुगा, तत्थ वि आणाइणो भवे दोसा। वहां कोई सुगंधित चूर्ण चारों ओर बिखेर देना चाहिए। संका व सूयएहि, हिय नढे तेणए वा वि॥ १९३७. चउपादा तेगिच्छा, को भेसज्जाई दाहिई तुब्भं। यदि गृहस्थों के अभाव में साधु वैद्य को यह कहे कि 'हम तहियं च पुव्वपत्ता, भणंति पच्छाकडादऽम्हे॥ तुमको सब कुछ देंगे' तो साधुओं को प्रायश्चित्त स्वरूप चिकित्सा चतुष्पादा होती है-रोगी, परिचारक, वैद्य और ___चार गुरुमास और आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। तथा किसी भेषज। वैद्य रोगी के साथ आए व्यक्तियों को पूछता है-तुम गृहस्थ का हिरण्य-सुवर्ण नष्ट हो गया या उसका अपहरण लोगों में से ग्लान को योग्य औषधि कौन देगा? तब वहां कर लिया गया हो तो मुनियों पर ही शंका होती है कि आए हुए पश्चात्कृत आदि लोग कहते हैं हम देंगे। संभवतः इन्होंने ने ही यह लिया हो? अथवा सूचक१९३८.कोई मज्जणगविहिं, सयणं आहार उवहि केवडिए। आरक्षिक राजा के पास शिकायत करते हैं कि ये श्रमण गीयत्थेहि य जयणा, अजयण गुरुगा य आणाई॥ चोर हैं (क्योंकि इन्होंने वैद्य को स्वर्ण आदि देने का वादा कोई कोई वैद्य कहता है-मैं चिकित्सा करूंगा किन्तु किया है।) मुझे मज्जनगविधि-तैलाभ्यंगआदि प्रक्रियापूर्वक स्नान करने १९४३.पडिसेह अजयणाए, दोसा जयणा इमेहिं ठाणेहिं। की सुविधा तथा मेरे लिए शयन, भोजन, वस्त्र तथा रुपयों भिक्खण इड्डी बिइयपद रहिय जं भाणिहिसि जुत्तं॥ की व्यवस्था कौन करेगा? पश्चात्कृत व्यक्ति यह सब वैद्य को अयतनापूर्वक प्रतिषेध करने पर चार गुरुमास स्वीकार करे। उनके अभाव में गीतार्थ यतनापूर्वक सब का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। इन स्थानों स्वीकार कर लें। यदि अयतनापूर्वक निषेध या स्वीकार से यतना करनी चाहिए। वे वैद्य से कहे-हम भिक्षा करके किया जाता है तो चार गुरुकमास का प्रायश्चित्त तथा देंगे। हम धनवानों से लाकर देंगे। अपवादपद में हमें यदि आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। कभी स्वर्ण लाना पड़े तो उसमें से कुछ देंगे। 'रहित' अर्थात् १९३९.एयस्स नाम दाहिह, को मज्जणगाइ दाहिई मज्झं। पश्चात्कृत रहित होने पर ऐसे कहते हैं-वैद्य तुम जो कहते ते चेव णं भणंती, जं इच्छसि अम्हे तं सव्वं॥ हो, उसकी पूर्ति हम यथाशक्ति करेंगे अथवा जैसे उपयुक्त इसी रोगी के नामोल्लेखपूर्वक जो-जो औषधियां हैं, वे होगा वैसा करेंगे।' सारी इन्हें दें। मुझे मज्जनविधि कौन देगा? तब वे पश्चात्कृत १९४४.अहिरण्णग त्थ भगवं! सक्खी ठावेह जे ममं देति। आदि कहते हैं तुम जो चाहोगे वह हम सब देंगे। धंतं पि दुद्धकंखी, न लभइ दुद्धं अधेणूतो।। १९४०.जं एत्थ अम्हे सव्वं, पडिसेहे गुरुग दोस आणादी। तब वैद्य कह सकता है-भगवन् ! आप अहिरण्यक हैं, ___एएसिं असईए, पडिसेहे गुरुग आणादी॥ अतः आप साक्षी की स्थापना करें, जिससे मैं आपसे न जो यह कहते हैं कि 'हम आपकी सारी आवश्यकताएं मिलने पर उससे प्राप्त कर सकू। कोई व्यक्ति अत्यंत दुग्ध का १. केविडया त्ति रूपकाः। (वृ. पृ. ५६५)। २. धंतं-ति देशीवचनात् अतिशयेन। (वृ. पृ. ५६६) Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक आकांक्षी होने पर भी अधेनु के पास से कभी दूध प्राप्त नहीं कर सकता। १९४५. पच्छाकडाइ जयणा, दावणकज्जेण जा भणिय पुव्विं । सद्धा विभवविष्णा ति च्चिय इच्छंतना सक्खी ॥ वैद्य के इस प्रकार कहने पर जो पहले पश्चात्कृत द्वारा वैद्य को मज्जन आदि दिलाने के विषय की यतना कही गई है वही यहां गंतव्य है जो पश्चात्कृत आदि श्रद्धा और विभव से विहीन हैं, वे यदि चाहें तो साक्षी रूप में रखे जा सकते हैं। १९४६. पंचसयदाण- गहणे, पलाल खेलाण छड्डणं व जहा । सहसं व सयसहस्सं, कोडी रज्जं व अमुगं वा ॥ १९४७. एवं ता गिहवासे, आसी व हवाणि किं भणीहामो । जं तुब्भऽम्ह य जुत्तं तं उग्गाढम्मि काहामो ॥ ( यदि वे साक्षी बनना न चाहें तो कोई प्रव्रजित धनी मुनि यह कहे ) देखो, हम जब गृहवास में थे तब जैसे पलाल और श्लेष्म को फेंका जाता है, वैसे ही पांच सौ रुपयों का दान देना और पांच सौ रुपयों का अर्जन करना हमारे लिए साधारण काम था । इसी प्रकार हजार, लाख, करोड़, राज्य अथवा अमुक अनिर्दिष्ट संख्या तक द्रव्य दान देना और कमाना हमारे लिए सामान्य था । गृहवास में हमारे पास इतनी विभूति थी। अब हम अकिंचन हैं। क्या कहें ? फिर भी म्लान के स्वस्थ हो जाने पर तुम्हारे और हमारे लिए जो उपयुक्त होगा, वह हम करेंगे। ( यह स्वग्राम के वैद्य विषयक यतना है। आगे परग्राम से आने वाले वैद्य के विषय की यतना कही जा रही है ।) १९४८. पाहिज्जे नाणत्तं, बाहिं तु भईए एस चेव गमो । पच्छाकडाइएसुं, अरहिय रहिए उ जो भणिओ ॥ वैद्य विषयक पाथेय वैद्य को दिए जाने वाला यात्राव्यय, भोजनव्यय आदि, में नानात्व होता है, विशेष होता है। बहिर् ग्राम से आए हुए वैद्य के लिए वेतन आदि का यही गम है जो पश्चात्कृत से रहित होने या सहित होने से युक्त कहा गया है। १९४९. मज्जणगादिच्छंते, बाहिं अभिंतरे व अणुसी । धम्मकह - विज्ज- मंते, निमित्त तस्सऽट्ट अन्नो वा ॥ ग्रामान्तर से आने वाला वैद्य यदि मार्ग में स्नान करना चाहे या स्थान पर आकर स्नान करना चाहे तो उसकी व्यवस्था के पश्चात आदि व्यक्ति करें। वे न हों तो वैद्य को शिक्षा दें कि मुनि ऐसी व्यवस्थाएं कर नहीं सकते। यदि न माने तो धर्मकथा कहे। उससे भी बात न बने तो विद्या, मंत्र, निमित्त से उसको आवर्जित करना चाहिए। यदि वह भी न हो सके तो किसी अन्य व्यक्ति को तंत्र-मंत्र के द्वारा वश में करके वैद्य की मांगे पूरे कराए। २०१ १९५० तह से कहिंति जह होइ संजओ सन्नि दाणसहो वा । बहिया उ अण्हायंते, करिंति खुड्डा इमं अंतो ॥ मुनि धर्मकथा करें, जिससे वह वैद्य मुनि श्रावक, दानश्राद्ध या दानशीलश्रावक बने। ऐसा न हो तो बाहर स्नान करे, इस प्रकार प्रयत्न करे। यदि वह स्नान करने के लिए बाहर जाना न चाहे तो उसे यह कहते हुए प्रतिश्रय के अन्त ले जाए १९५१. उसिणे संसट्टे वा, भूमी-फलगाइ भिक्ख चड्डाई । अणुसठ्ठी धम्मकहा, विज्ज-निमित्ते य अंतो बहिं । उसे उष्ण, संसृष्ट (छाछ मिश्रित जल), अथवा अन्य प्रासुक जल स्नान करने के लिए प्रस्तुत करे उसके शयन की व्यवस्था भूमी, फलक पर करे उसे भोजन मिक्षा में प्राप्त द्रव्यों से चड्ड (कमढकमयपात्र) या कांस्यपात्र में कराए। यदि गांववैद्य या आगंतुकवैध रुपये आदि मांगे तो अनुशासन, धर्मकथा, विद्या, निमित्त आदि का प्रयोग करे। १९५२. तेल्लुव्वट्टण ण्हावण, खुड्डाऽसति वसभ अन्नलिंगेणं । पट्टदुगादी भूमी, अणिच्छि जा तूलि पल्लंके ॥ - क्षुल्लक मुनि उस वैद्य का तैलाभ्यंगन तथा उद्वर्तन कर प्रासुक पानी से स्नान कराए। यदि व न करा सकें तो गण के वृषभ अन्यलिंगी - गृहस्थ आदि से वैद्य को स्नान करवाए। यदि वैद्य सोना चाहे तो पट्टदुग - संस्तारकपट्ट और उत्तरपट्ट दोनों बिछाकर उसे सुलाए। यदि वह इस प्रकार सोना न चाहे तो अन्यान्य प्रकार कर उसे सुलाए और अन्त में पल्यंक और गादी पर सोना चाहे तो उसकी व्यवस्था करे । १९५३. समुदाणिओदणो मत्तओ वऽणिच्छंति वीसु तवणा वा । एवं पऽणिच्छमाणे, होइ अलंभे इमा जयणा ॥ भिक्षा में सामुदायिक ओदन प्राप्त होता है उसमें से पहले वैद्य को देना चाहिए। वह न चाहे तो पात्र को बदल कर अन्य पात्र में केवल उसके लिए ग्रहण करना चाहिए। वह भी न चाहे तो ओदन अलग और व्यंजन अलग ग्रहण कर देना चाहिए। वह ठंडा है ऐसा कहकर वह इन्कार करे तो उसे यतनापूर्वक तथा कर देना चाहिए। इस प्रकार भी न चाहे और द्रव्य न मिले तो यह यतना है । १९५४. तिगवच्छर तिग दुग, एगमणेगे य जोणिघाए अ संसट्टमसंसट्टे, फासुयमप्फासुए जयणा ॥ तीन वार्षिक तंदुक (तीन वर्षों में जिनकी योनी ध्वस्त हो जाती है, वे धान्य), तीन, दो एक, अनेक आदि वर्षों से विध्वस्तयोनि वाले धान्य तथा जिनकी योनि विध्वस्त कर दी गई हो वैसे धान्य तथा संसृष्ट, असंसृष्ट प्रासुक था . Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ अप्रासुक पानक यतनापूर्वक ग्रहण करे (व्याख्या आगे की गाथाओं में ।) १९५५. वक्तजीणितिच्छडएकछडणे वि होइ एस गमो । एमेव जोणिघाट, तिगाइ हतरेण रहिए वा ॥ जो धान्य त्रिच्छटित हों, दो या एक घटित हो व्युत्क्रान्तयोनिक हो, उन्हें ग्रहण करे। यही गम योनिघात विषयक धान्यों के प्रति है। अव्यक्तलिंग या पश्चात्कृत गृहस्थों से रहित होने पर प्रागुक्त यतना का अनुपालन करना चाहिए। १९५६. पुव्वाउत्ते अवचुल्लि चुल्लि सुक्ख घण मज्झसिर-मविछे। पुव्वकय असइ दाणे, ठवणा लिंगे य कल्लाणे ॥ उन धान्यों के उपस्कार की विधि जो अवचुल्ली पहले से तपी हुई है, उस पर धान का उपस्कार करे उसके अभाव में मूल चुल्ली पर यदि वह पूर्व तम न मिले तो उसमें शुष्क, सघन, अशुषिर तथा अविद्ध (घुणों द्वारा अखादित) - इस प्रकार का इंधन, जो प्रमाणोपेत तथा पूर्वकृत हो, उसे ग्रहण करे। वैसा प्रमाणोपेत उपलब्ध न हो तो स्वयं उनको वैसा करे। वैद्य को रुपये भी दान में दे । प्रश्न होता है कैसे ? शैक्ष मुनि ने प्रब्रजित होते समय जो धन रखा था, उसका दान करे। लिंग धारण कर अर्थ का उपार्जन करे और फिर दे जो परिचारक रहे हैं उनको पांच-पांच कल्याणक दे। १९५७. हत्थद्धमत्त दारुग, निच्छल्लिय अघुणिया अहाकडगा । असई सयंकरणं, अघट्टणोवक्खडमहाडं ॥ चुल्ली में डाले जाने वाले इंधन का परिमाण - आधा हाथ अर्थात् बारह अंगुल लंबा छालरहित, घुणों से अविद्ध तथा यथाकृत होना चाहिए। यदि यथाकृत प्राप्त न हो तो स्वयं उस प्रकार का इंधन करे। ओदन आदि उपस्कृत हो जाने पर अधजली लकड़ियों का घट्टन नहीं करना चाहिए। वे अग्नि के जीव अपनी आयुष्क के अनुसार स्वयं नष्ट हो जायेंगे। १९५८. कंजिय-चाउलउदए, उसिणे संसट्टमेतरे चेव । व्हाण - पियणाइपाणग, पादासइ वार दद्दरए ॥ वैद्य के द्वारा पानी मांगे जाने पर कांजिक अथवा चावलों का धावन अथवा गर्म पानी अथवा संसृष्टपानक अथवा संजीव जल अथवा कपुरवासित जल दे उसे स्नान, पान आदि के लिए ऐसा जल दे। वह जल पहले ही पात्र में बृहत्कल्पभाष्यम् स्थापित कर देना चाहिए और उस पात्र के मुख को सघन कपड़े से बांध दे। १९५९. चटुग सराव कंसिय, तंबक रयए सुवन्न मणिसेले। भोत्तुं स एव धोवइ, अणिच्छि किढि खुड्ड वसभा वा ॥ वैद्य को कमढक अथवा शराव अथवा कांस्य पात्र अथवा ताम्र या चांदी या स्वर्ण अथवा मणि शैलमय भाजन में भोजन कराए। वैद्य स्वयं उस भाजन को धोता है। यदि वह धोना न चाहे तो स्थविरा श्राविका या क्षुल्लक मुनि या वृषभ मुनि उसे धोए। १९६०. पूयाणि वि मग्गह, जह विज्जो आउरस्स भोगी। तह विज्जे पडिकम्मं, करिंति वसभा वि मुक्खट्टा ॥ जैसे भोगार्थी वैद्य रोगी के मवाद आदि का अपनयन करता है, वैसे ही मोक्षार्थी वृषभ भी वैध का परिकर्म करता है। १९६१.तेइच्छियस्स इच्छानुलोमगं जो न कुज्ज सह लाभे । अस्संजमस्स भीतो, अलस पमादी व गुरुगा से ॥ (शिष्य ने पूछा- असंयमी वैद्य का वैयावृत्त्य संयमी मुनि क्यों करें ?) चिकित्सा से लाभ होने पर भी जो चिकित्सक की इच्छा 'के अनुकूल असंयम से भीत होकर या आलस्य या प्रमादवश प्रतिकर्म नहीं करता उसे चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १९६२.लोगविरुद्धं दुप्परिचओ उ कयपडिकिई जिणाणा य । अतरंतकारणेते, तदट्ठ ते चेव विज्जम्मि ॥ ग्लान का वैयावृत्य करने के ये कारण है-ग्लान का वैयावृत्त्य न करने पर वह प्रवृत्ति लोकविरुद्ध मानी जाती हैं, ग्लान के साथ का संबंध अपरित्याज्य होता है, उसकी वैयावृत्त्य करने पर प्रत्युपकार करने जैसा होता है, और जिनेश्वरदेव की आज्ञा का पालन करने जैसा होता है। ये ही कारण वैच के वैयावृत्य करने के पक्ष में है। १९६३. एसेव गिलाणम्मि वि, गमो उ खलु होइ मज्जणाईओ । सविसेसो कायब्वो, लिंगविवेगेण परिहीणो ॥ मज्जन आदि का यही गम-प्रकार ग्लान के विषय में होता है । सविशेष अर्थात् भक्ति- बहुमान आदि विशेष से सहित वह लिंगविवेक से रहित रूप से सारा करना चाहिए। १९६४. को वोच्छिइ गेलने, दुविहं अणुअत्तणं निरवसेसं । जह जायइ सो निरुओ, तह कुज्जा एस संखेवो ॥ रोग होने पर जो दो प्रकार की अनुवर्त्तना है— ग्लानविषयक तथा वैद्यविषयक- उसकी संपूर्ण अवगति कौन देगा ? क्योंकि वह बहुत विस्तृत है इसलिए ग्लान जिस विधि से नीरोग हो, उस विधि को अपनाए। यह संक्षेप कथन है। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक १९६५. आगंतु पउण जायण, धम्मावण तत्थ कइयदिट्ठतो । पासादे कूवादी, वत्थुक्कुरुडे तहा ओही। ग्लान मुनि के स्वस्थ हो जाने पर आगंतुक (दूसरे गांव से आया हुआ) वैद्य यदि दक्षिणा मांगे तो उसे यह कहे हम निर्धन हैं। हमारा यह धर्म आपण है-धर्म के व्यवहरण का हट्ट है, यहां धन नहीं, धर्म का उपदेश ही मिलता है। उसको क्रयिक का दृष्टांत कहे- 'एक ग्राहक गंधी (गंध द्रव्यों का व्यापारी) की दुकान पर जाकर रुपयों से कुछ गंधद्रव्य खरीदे। कालान्तर में वह उसी दुकान पर गया और मद्य खरीदना चाहा। दुकानदार ने कहा- 'मेरी दुकान पर गंधद्रव्य ही मिलते हैं, मद्य नहीं।' इसी प्रकार हमारे यहां धर्म की बात ही मिलती है, धन नहीं इतने पर भी वैध न माने तो उसे प्रासाद, कूप आदि अथवा वास्तूत्कुरुट (खंडहर ) आदि में गड़े हुए निधान को अवधिज्ञानी आदि ज्ञानी पुरुषों से जानकर, वहां से धन लाकर दे। १९६६. वत्थव्व पउण जायण, धम्मादाणं पुणो अणिच्छंते । स च्चेव होइ जयणा, रहिए पासायमाईया ॥ ग्लान के स्वस्थ हो जाने पर यदि वास्तव्य (उसी गांव का) वैद्य भी दक्षिणा की याचना करे तो उसे भी धर्म रूपी धन ही देने की बात कहे। बार-बार कहने पर भी वह न माने तो उसे पश्चात्कृत व्यक्तियों से धन दिलाए। उनके न होने पर पूर्व श्लोकोक्त प्रासाद आदि से द्रव्य प्राप्तकर उसे दे । १९६७. उवहिम्मि पडगसाङग, संवरणं वा वि अत्थुरणगं वा । दुगभेदादाहिंडणऽणुसट्ठि परलिंग हंसाई ॥ ( वास्तव्य और आगंतुक - दोनों प्रकार के वैद्य वस्त्रों की याचना करें तो उसकी विधि यह है - ) उपकरणों में पटशाटक पहनने का वस्त्र, संवरण- शरीर ढंकने का वस्त्र आस्तरण - बिछाने का वस्त्र-वैद्य इनकी याचना करे तो उसे अपनी निर्गुणता की बात कहे वह न माने तो दो साधुओं के साथ घूमकर उन वस्त्रों की प्राप्ति करे। यदि प्राप्त न हो तो अनुशिष्टि-धर्मकथा आदि से समझाए। वह न समझे तो परलिंग धारण कर हंस आदि के प्रयोग से उन वस्त्रों का उत्पादन कर वैद्य को दे । १९६८. बिइयपदे कालगए, देसुद्वाणे व बोहिगाईसु । असिवाई असईइ व ववहारऽपमाण अदसाई ॥ द्वितीयपद में ग्लान के अथवा वैद्य के कालगत हो जाने पर वस्त्र आदि न दे। अथवा देश के उजड़ जाने पर, म्लेच्छ आदि का आतंक होने पर अशिव, दुर्भिक्ष आदि होने पर, २०३ वस्त्रों का अभाव होने पर वैद्य को वस्त्र न वे वह वैद्य यदि उसके लिए न्यायालय में जाए तो उसे जीत ले। अथवा न्यायालय से वस्त्र देने का आदेश हो तो प्रमाणहीन या बिना किनारी के वस्त्र उसे देने का प्रयत्न करे। १९६९. कवगमावी तंबे, रुप्पे पीते तहेव केवडिए । हिंडण अणुसद्वादी, पृहयलिंगे तिविह भेदो ॥ वैद्य यदि रुपये आदि मांगे तो उसकी विधि यह है-तब मुनि कौड़ियों के सिक्के, तांबे, चांदी या स्वर्ण के सिक्के अथवा 'केतर' नाम का नाणक की याचना से प्राप्त कर उसे दे। इनको प्राप्त करने के लिए दो साधुओं के समूह में घूमे। प्राप्त न होने पर वैद्य को अनुशिष्टि-धर्म कथा से समझाए । न समझने पर उस क्षेत्र में जो अर्चित लिंग हो, उसे धारण कर अर्थजात का उत्पादन करे। लिंग के तीन प्रकार हैं- स्वलिंग, गृहीलिंग तथा कुलिंग । । १९७०. विश्यपदे कालगए, देसुद्वाणे व बोहियादीसु असिवादी असईइ व, ववहारऽहिरण्णगा समणा ॥ अपवादपद में ग्लान या वैद्य के कालगत हो जाने पर, बोधिक आदि के भय से देश के उजड़ जाने पर, अशिव आदि के कारण अर्थजात सर्वथा अप्राप्त होने पर वैद्य को अर्थजात न दे। वैद्य यदि उसके लिए व्यवहार करे-न्यायालय मैं जाए तो कहे श्रमण सर्वथा अहिरण्यक होते हैं, यह सर्वत्र विदित है। १९७१.पउणम्मि य पच्छित्तं दिज्जइ कल्लाणगं दुवेहं पि । वूढे पायच्छिते, पविसंती मंडलिं दो वि॥ ग्लान के नीरोग हो जाने पर ग्लान और प्रतिचारक दोनों को 'कल्याणक' का प्रायश्चित्त दिया जाता है। (ग्लान को पांच कल्याणक और प्रतिचारक को एक कल्याणक) प्रायश्चित्त को वहन कर लेने के पश्चात् दोनों-ग्लान और प्रतिचारक मुनियों की भोजन आदि मंडली में प्रवेश पा सकते हैं। १९७२. अणुयत्तणा उ एसा, दव्वे विज्जे व वन्निया दुविहा इत्तो चालणदारं, वुच्छं संकामणं चुभओ ॥ ग्लान के प्रायोग्य द्रव्यविषयक तथा वैद्यविषयक इन दो प्रकार की अनुवर्त्तना का वर्णन किया जा चुका है। अब आगे चालनाद्वार और संक्रमणद्वार को द्रव्य और वैद्य इन दो विषयों में कहूंगा। १९७३. विज्जस्स व दव्वस्स व, अट्ठा इच्छंते होइ उक्खेवो । पंथो य पुव्वदिट्टो, आरक्खिओ पुष्वभणिओ उ ॥ यदि ग्लान वैद्य के लिए या औषध आदि द्रव्य के लिए १. ताम्रमय नाणक-काकिणी दक्षिणापथ में, रूप्यमय नाणक द्रम्म भिल्लमाले, सुवर्णमय नाणक दीनार, पूर्वदेश में, केतर नामक नाणक पूर्व देश में । (वृ. पृ. ५७३, ५७४) www.jainelibrary.arg Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ =बृहत्कल्पभाष्यम् ग्रामान्तर जाना चाहे तो उसका उत्क्षेप अर्थात् चालना करनी ग्राम में ले जाकर उसकी समस्त प्रयत्नपूर्वक परिचर्या करनी चाहिए। रात्री में जाना हो तो मार्ग का निरीक्षण पहले ही कर चाहिए। लेना चाहिए। तथा आरक्षिकों को पहले ही सूचित कर देना १९७९.सो निज्जई गिलाणो, अंतर सम्मेलणा य संछोभो। चाहिए। (कि हम ग्लान को लेकर रात्री में गमन करेंगे। आम नेऊण अन्नगाम, सव्वपयत्तेण कायव्वं ॥ चोर आदि की आशंका न करें।) जो ग्लान नगर से ग्राम में ले जाया जा रहा है और जो १९७४.चउपाया तेगिच्छा, ग्लान ग्राम से नगर की ओर आ रहा है, दोनों का बीच में इह विन्जा नत्थि न वि य दव्वाइं। सम्मेलन हो रहा हो तो परस्पर वंदना-व्यवहार कर दोनों का अमुगत्थ अत्थि दोन्नि वि, 'संछोभ-संक्रामण करते हैं (नगरवासी ग्रामीण ग्लान का और जइ इच्छसि तत्थ वच्चामो॥ ग्रामीण लोग नगर के ग्लान का)। ग्लान को अन्य ग्राम में परिचारक ग्लान को कहे-चिकित्सा चतुष्पादा होती है। संक्रमित कर उसकी सर्वप्रयत्नपूर्वक परिचर्या करनी चाहिए। इस क्षेत्र में न वैद्य है और न औषधद्रव्य। अमुक क्षेत्र में दोनों १९८०.जारिस दव्वे इच्छह, अम्हे मुत्तूण ते न लब्भिहिह। हैं। यदि तुम चाहो तो वहां चलें। __ इयरे वि भणंतेवं, नियत्तिमो नेह अतरते॥ १९७५.किं काहिइ में विज्जो, भत्ताइ अकारयं इहं मझं। जब दोनों ओर के परिचारक मिलते हैं तब वे एक दूसरे तुब्भे वि किलेसेमि य, अमुगत्थ महं हरह खिप्पं॥ से कहते हैं-नगरवासी ग्रामवासियों को कहते हैं-ग्लान के ग्लान परिचारकों को उत्तर देता है-आर्यो! मेरे विषय में लिए जैसे तिक्त, कटु आदि द्रव्य आप चाहते हैं, वैसे वैद्य क्या करेगा? यहां मेरे लिए भक्त आदि अकारक हैं। मैं द्रव्य हमारे बिना आपको नहीं मिलेंगे। ग्रामवासी नगरआप सब को भी उसी कारण से क्लेश दे रहा हूं। आप मुझे वासियों को कहते हैं-ग्लान के लिए दूध आदि द्रव्य हमारे शीघ्र ही अमुक क्षेत्र में ले जाएं जहां मेरे लिए भक्त आदि बिना आपको नहीं मिलेंगे। तब दोनों ओर के परिचारक कारक हो। परस्पर कहते हैं यदि ऐसा है तो हम निवर्तित होते १९७६.साणुप्पगभिक्खट्ठा, खीणे दुद्धाइयाण वा अट्ठा। हैं संक्रामणा करते हैं-तुम हमारे ग्लान को और हम तुम्हारे अभिंतरेतरा पुण, गोरससिंभुदय-पित्तट्ठा॥ ग्लान को ले जाते हैं क्योंकि दोनों उन-उन द्रव्यों के बिना सानुप्रगभिक्षा' के निमित्त ग्लान को अन्य ग्राम में ले जाते रह नहीं सकते। हैं। अथवा जहां दूध आदि की प्राप्ति दुर्लभ हो गई हो वहां से १९८१.देवा हुणे पसन्ना, जं मुक्का तस्स णे कयंतस्स। आभ्यन्तर अर्थात् नगर के वास्तव्य साधु ग्लान को ग्रामान्तर सो हु अइतिक्खरोसो, अहिगं वावारणासीलो॥ ले जाते हैं। और इतर अर्थात् ग्रामीण ग्लान परिचायक मुनि १९८२.तेणेव साइया मो, एयस्स वि जीवियम्मि संदेहो। ग्लान को दूध आदि से कफ कुपित हो गया हो अथवा किसी पउणो वि न एसऽम्हं, ते वि करिज्जा न व करिज्जा। कारण से पित्त उग्र हो गया हो तो उनके उपशमन के लिए (परस्पर संक्रामणा करके न ऐसा चिंतन करे और न ऐसे गांव से ग्लान को नगर में ले जाते हैं। कहे-) 'देवता हम पर प्रसन्न हुए हैं कि हम इस कृतान्तरूपी' १९७७.परिहीणं तं दव्वं, चमढिज्जंतं तु अन्नमन्नेहि।। ग्लान से मुक्त हो गए। वह अत्यंत क्रोधी, अत्यधिक कार्यों में कालाइक्कतेण य, वाही परिवडिओ तस्स॥ नियुक्त करने वाला है, उसके द्वारा ही हम खिन्न होते रहे हैं, १९७८.उक्खिप्पऊ गिलाणो, अन्नं गामं वयं तु नेहामो। इसकी हम परिचर्या करें परन्तु इसके जीवित रहने में भी नेऊण अन्नगाम, सव्वपयत्तेण कायव्वं॥ संदेह है, यह ग्लान नीरोग होने पर भी हमारा नहीं होगा, यह नगर में जो स्थापनाकुल आदि होते हैं वे यदि अन्यान्य हमारी परिचर्या करेगा अथवा नहीं, इसलिए हम भी इसकी ग्लान संघाटकों द्वारा बार-बार उनमें द्रव्यों को लाने के लिए परिचर्या क्यों करें? जाने पर परेशान हो गए हों तथा ग्लान-प्रायोग्य द्रव्यों की १९८३.जो उ उवेहं कुज्जा, आयरिओ केणई पमादेणं। उनमें क्षीणता हो गई हो तथा अन्यत्र द्रव्यों की प्राप्ति में आरोवणा उ तस्सा, कायव्वा पुव्वनिद्दिट्ठा। कालातिक्रांत होने पर ग्लान की व्याधि बढ़ती हो तो वे आचार्य यदि ऐसे सोचने या कहने वालों की किसी परस्पर विचार-विमर्श करते हैं कि ग्लान का उत्क्षेप कर हम प्रमादवश उपेक्षा करते हैं तो उनको पूर्वनिर्दिष्ट आरोपणा का उसे अन्य ग्राम में ले जायेंगे। यह विचार कर ग्लान को अन्य प्रायाश्चित्त-चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। १. सानुप्रगभिक्षा अर्थात् प्रत्यूषवेला में प्राप्त होने वाली भिक्षा। २. कृत्तान्त का अर्थ है-कृतघ्न अथवा यमराज। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक २०५ १९८४.उवेहऽप्पत्तिय परितावण महय मुच्छ किच्छ कालगए। चत्तारि छ च्च लहु-गुरु, छेओ मूलं तह दुगं च॥ ग्लान की उपेक्षा करने पर आचार्य आदि को चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। तथा ग्लान में अप्रीति उत्पन्न होती है, उसका प्रायश्चित्त है चार गुरुमास, अनागाढ़ परिताप होने पर चतुर्लधु, आगाढ़ परिताप में चतुर्गुरु, महान् दुःख होने पर षडलघु, मूर्छा होने पर षड्गुरु, कृच्छ्रप्राण होने पर छेद, कृच्छ्रोच्छ्रास होने पर मूल, समवहत होने पर अनवस्थाप्य तथा कालगत हो जाने पर पारांचिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १९८५.उवेहोभासण परितावण महय मुच्छ किच्छ कालगए। चत्तारि छ च्च लहु-गुरु, छेओ मूलं तह दुगं च॥ यदि ग्लान स्वयं जाकर गृहस्थों के सामने अपनी चिकित्सा की निन्दा करता है तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है तथा परितापन आदि में पूर्वोक्त श्लोक में कथित प्रायश्चित्त आता है। १९८६.उवेहोभासण ठवणे, परितावण महय मुच्छ किच्छ कालगए। चत्तारि छ च्च लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च॥ ग्लान की उपेक्षा करने पर वह स्वयं चिकित्सा की निंदा कर भक्त-पान-औषध आदि लाकर उनकी स्थापना (संग्रह) करता है तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। उस पर्युषित अन्न-पान के भोजन से परितापन आदि होते हैं तो प्रायश्चित्त गाथा १९८४ वत्। १९८७.उवेहोभासण करणे, परितावण महय मुच्छ किच्छ कालगए। चत्तारि छ च्च लहु-गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च। उपेक्षित ग्लान यदि अवभाषण कर स्वयं चिकित्सा करता है (अथवा गृहस्थों से करवाता है) तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है तथा परितापन आदि होने पर गाथा १९८४ वत् परिचारक प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। १९८८.वेहाणस ओहाणे सलिंगपडिसेवणं निवारिते। गुरुगा अनिवारिते, चरिमं मूल च जं जत्थ॥ ग्लान की देखभाल न होने पर वह यदि वैहायस मरण से मृत्यु को प्राप्त हो जाता है तो पारांचिक प्रायश्चित्त, अवधावन करने पर मूल, अपने स्वलिंग में रहकर यदि प्रतिसेवना करता है तो चतुर्गुरु, प्रतिसेवना से निवारित करने पर भी चतुर्गुरु तथा अनिवारित करने पर भी तत् तत् संबंधी प्रायश्चित्त आता है। १९८९.संविग्गा गीयत्थाऽसंविग्गा खलु तहेव गीयत्था। संविग्गमसंविग्गा, नवरं पुण ते अगीयत्था। १९९० संविग्ग संजईओ, गीयत्था खलु तहेवऽगीयत्था। गीयत्थ अगीयत्था, नवरं पुण ता असंविग्गा। संयत चार प्रकार के हैं१. संविग्न गीतार्थ ३. संविग्न अगीतार्थ २. असंविग्न गीतार्थ ४. असंविग्न अगीतार्थ। इसी प्रकार संयतियों के भी चार प्रकार हैं। १९९१.चउरो लहुगा गुरुगा, छम्मासा होति लहुग गुरुगा य। छेदो मूलं च तहा, अणवठ्ठप्पो य पारंची। इन आठ स्थानों में ग्लान का परित्याग करने पर निम्नोक्त प्रायश्चित्त है प्रथम स्थान चतुर्लघु, दूसरा स्थान चतुर्गुरु, तीसरा स्थान षड्लघु, चौथा स्थान षड्गुरु, पांचवां स्थान छेद, छठा स्थान मूल, सातवां स्थान अनवस्थाप्य और आठवां स्थान पारांचिक। १९९२.संविग्ग नीयवासी, कुसील ओसन्न तह य पासत्था। संसत्ता विंठाया, अहछंदा चेव अट्ठमगा।। १९९३.चउरो लहुगा गुरुगा, छम्मासा होति लहुग गुरुगा य। छेदो मूलं च तहा, अणवट्ठप्पो य पारंची।। ये आठ स्थान और हैं-(१) संविग्न (२) नित्यवासी (३) कुशील (४) अवसन्न (५) पार्श्वस्थ (६) संसक्त (७) वैण्ठक (८) यथाच्छंद। इनका प्रायश्चित्त क्रमशः इस प्रकार है-(१) चतुर्लघु (२) चतुर्गुरु (३) षड्लघु (४) षड्गुरु (५) छेद (६) मूल (७) अनवस्थाप्य (८) पारांचिक। १९९४.संविग्गा सिज्जातर, सावग तह दंसणे अहाभहे। दाणे सड्डी परतित्थिगे य परतित्थिगी चेव।। १९९५. चउरो लहुगा गुरुगा, छम्मासा होति लहुग गुरुगा य। छेदो मूलं च तहा, अणवठ्ठप्पो य पारंची। अथवा आठ स्थान ये हैं तथा प्रायश्चित्त यह है(१) संविग्न (२) शय्यातर (३) श्रावक (४) दर्शनअविरति सम्यग्दृष्टि, (५) यथाभद्रक (६) दानश्राद्ध (७) परतीर्थिक (८) परतीर्थिकी। इन स्थानों में ग्लान का परित्याग करने पर क्रमशः गा. १९९३वे की भांति प्रायश्चित्त। १९९६.उवस्सय निवेसण साही, गाममज्झे य गामदारेय। उज्जाणे सोमाए, सीममइक्कामइत्ताणं। १९९७. चउरो लहुगा गुरुगा,छम्मासा होति लहुगा गुरुगा य। __ छेदो मूलं च तहा, अणवठ्ठप्पो य पारंची। आचार्य आदि क्षेत्रान्तर जाते हुए ग्लान को यदि उपाश्रय Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ = बृहत्कल्पभाष्यम् में छोड़कर जाते हैं तो चतुर्लघु, निवेशन तक लाकर छोड़ने कुल, गण या संघ को समर्पित कर देने पर इन कारणों से पर चतुर्गुरु, गली में छोड़े तो षडलघु, ग्राममध्य में छोड़े तो ग्लान का परित्याग किया जा सकता है, फिर भी परित्याग न षड्गुरु, ग्रामद्वार पर छोड़े तो छेद, उद्यान में छोड़े तो मूल, कर उसको वहन किया जाता है। यदि वे उसके उपकरण गांव की सीमा पर छोड़े तो अनवस्थाप्य, ग्राम की सीमा से । वहन करने में समर्थ न हों तो उपकरणों का परित्याग कर दे, आगे छोड़े तो पारांचिक। ग्लान का नहीं। १९९८.छम्मासे आयरिओ, गिलाण परियट्टई पयत्तेणं। २००४.अहवा वि सो भणेज्जा, छड्डेउ ममं तु गच्छहा तुब्भे। जाहे न संथरेज्जा, कुलस्स उ निवेदणं कुज्जा॥ होउ त्ति भणिय गुरुगा, इणमन्ना आवई बिइया। ग्लान की प्रतिचर्या करने का काल अथवा वह ग्लान कहे-मुझको छोड़कर तुम सब चले आचार्य छह मास तक ग्लान की प्रयत्नपूर्वक परिचर्या । जाओ। ऐसा कहने पर यदि कोई कहे-ठीक है, ऐसा ही हो करे। यदि छह मास में भी ग्लान नीरोग न हो तो आचार्य तो उसको चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। यह दूसरे प्रकार कुल को निवेदन कर, उसे सौंप दे। की आपदा है। १९९९.संवच्छराणि तिन्नि य, कलं पि परियई पयत्तेणं। २००५.पच्चंतमिलक्खेसुं, बोहियतेणेसु वा वि पडिएस। जाहे न संथरिज्जा, गणस्स उ निवेदणं कुज्जा।। जणवय-देसविणासे, नगरविणासे य घोरम्मि। कुल भी पूरे तीन संवत्सरों तक प्रयत्नपूर्वक परिचर्या २००६.बंधुजणविप्पओगे, अमायपुत्ते वि वट्टमाणम्मि। करे, फिर भी यदि ग्लान नीरोग नहीं होता है तो कुल गण तह वि गिलाण सुविहिया, वच्चंति वहंतगा साहू। को निवेदन करे और ग्लान को उसे सौंप दे। प्रत्यंतदेशवासी म्लेच्छों और बोधिकस्तेन मनुष्यों का २०००.संवच्छरं गणो वी, गिलाण परियट्टई पयत्तेणं॥ हरण करने वालों का आक्रमण हो जाने पर, जनपद अथवा जाहे न संथरिज्जा, संघस्स निवेयणं कुज्जा॥ उसके एक भाग का विनाश हो जाने पर अथवा नगर का घोर गण में संवत्सर तक उस ग्लान की प्रयत्नपूर्वक विनाश हो जाने पर, बंधुजनों का विप्रयोग हो जाने पर अथवा परिचर्या करने पर भी यदि ग्लान नीरोग न हो तो गण संघ अमातापुत्र की स्थिति उत्पन्न हो जाने पर अर्थात् ऐसी स्थिति को निवेदन करे। संघ उस ग्लान की यावज्जीवन तक जिसमें सभी अपने-अपने जीवितव्य की चिंता करते हैं, न मां परिचर्या करे। का स्मरण करती है और न पुत्र माता की स्मृति करता है२००१.छम्मासे आयरिओ, कुलं तु संवच्छराई तिन्नि भवे। इन सारी स्थितियों में भी सुविहित मुनि ग्लान को वहन करते संवच्छरं गणो वी, जावज्जीवाय संघो उ॥ हैं, छोड़ते नहीं। आचार्य छह मास तक ग्लान की परिचर्या करे, कुल तीन २००७.तारेह ताव भंते!, अप्पाणं किं मएल्लयं वहह। संवत्सरों तक और गण भी एक संवत्सर तक तथा संघ एगालंबणदोसेण मा हु सव्वे विणस्सिहिह ।। यावज्जीवन तक परिचर्या करे। तब ग्लान उन्हें कहता है-भदंत! आप अपने आपको (यह सारा उस ग्लान मुनि के लिए है जो भक्तप्रत्याख्यान सुखासिका में रखें। आप मेरे जैसे मृतप्राय व्यक्ति का वहन नहीं कर सकता। जो भक्तप्रत्याख्यान कर सकता है क्यों कर रहे हैं? मेरे एक आलंबन के दोष से आप सब वह अठारह महीनों तक परिचर्या कराए। उससे भी यदि अपने आपका विनाश क्यों कर रहे हैं? क्यों अपने आपको स्वस्थ न हो तो भक्तप्रत्याख्यान कर दे। यदि रोग असाध्य कष्ट में डाल रहे हैं? हो जाए अथवा अन्यान्य अपरिहार्य कारण उत्पन्न हो जाने २००८.एवं च भणियमेत्ते, आयरिया नाण-चरणसंपन्ना। पर ग्लान की वैयावृत्त्य न भी करे अथवा उसका परित्याग अचवलमणलिय हितयं, संताणकरिं वइमुदासी॥ कर दे।) (वृ. पृ. ५८०) २००९.सव्वजगज्जीवहियं, साहुं न जहामो एस धम्मो णे। २००२.असिवे ओमोयरिए, रायडुढे भये व गेलन्ने। जति य जहामो साहू, जीवियमित्तेण किं अम्हं।। एएहिं कारणेहिं, अहवा वि कुले गणे संघे॥ ग्लान के इस प्रकार कहने मात्र से ज्ञान-चारित्र संपन्न २००३.एएहिं कारणेहि, तह वि वहंती न चेव छडिंति। आचार्य अचपल, सत्य, हितकारी तथा संत्राणकारी परित्राण __ असहू वा उवगरणं, छड्डिंति न चेव उ गिलाणं॥ देनेवाली वाणी में कहते हैं वत्स! हमारा यह धर्म है कि हम अशिव, अवमौदर्य, राजाद्विष्ट हो जाने पर भय के कारण समस्त जीवों के लिए कल्याणकर साधु का परित्याग नहीं अथवा सारा गण ग्लान हो जाने पर-इन कारणों से अथवा कर सकते। यदि हम साधु का परित्याग करते हैं तो हमारे Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक इस जीवन का क्या प्रयोजन? हमारे जीवित रहने मात्र से क्या ? २०१०. तं वयणं हिय मधुरं, आसासंकुरसमुब्धवं सयणो । समणवरगंधहत्थी, बेह गिलाणं परिवहंतो ॥ उनका यह हितकर, मधुर वचन आश्वासन के अंकुर को उत्पन्न करने वाला होता है। वे आचार्य ग्लान के स्वजनरूप होते हैं तथा वे श्रमणों के वरगंधहस्ती की भांति होते हैं। वे ग्लान का वहन करते हुए ऐसे वचन कहते हैं (जैसे गंधहस्ती विपदा में फंसे हुए अपने कलभ का परित्याग नहीं करता, वैसे ही ये आचार्य ग्लानत्व की आपदा में फंसे अपने शिष्य का परित्याग नहीं करते।) २०११. जइ संजमो जइ तवो, दढमित्तित्तं जहुत्तकारितं । जह बंभ जइ सोयं, एएस परं न अन्नेसुं ॥ यदि संयम है, यदि तप है, यदि वृदमैत्रिकत्व है, यथोक्त कारित्व है, यदि ब्रह्मचर्य है, यदि शौच-अनासक्ति है ये सारे निग्रंथ मुनियों में ही पाए जाते हैं, अन्य साधुओं में नहीं। २०१२ अच्चागाडे व सिया, निक्खित्तो जइ वि होज्ज जयणाए । तह वि उ दोण्ह वि धम्मो, रिजुभावविचारिणो जेणं ॥ अत्यागाद- अत्यंत भयप्रद स्थिति होने पर, कदाचित् यतनापूर्वक ग्लान को आपत्तिरहित स्थान में रखा जाए, फिर भी वह ग्लान तथा परिचारक दोनों का धर्म है, क्योंकि वे दोनों ऋजुभाव- मोक्षमार्ग में विचरण करने वाले हैं। २०१३. पत्तो जसो य विउलो, मिच्छत्त विराहणा य परिहरिया । साहम्मियवच्छल्लं, उवसंते तं विमग्गति ॥ जो आचार्य और मुनि ऐसी भयंकर स्थिति में भी ग्लान का परित्याग नहीं करते उन्हें विपुल यश प्राप्त होता है। ऐसी स्थिति में मिथ्यात्व तथा विराधना का परिहार होता है। साधर्मिक वात्सल्य का पालन होता है जब वह भय उपशांत हो जाता है तब ग्लान की विमार्गणा करते हैं-शोधन करते हैं। २०१४. पडिबद्धे को दोसो, आगमणेगाणियस्स वासासु । सुय - संघयणादीओ, सो चेव गमो निरवसेसो ॥ यथानंदिक मुनियों के गच्छप्रतिबद्धता में कौन सा दोष हे? जब आचार्य क्षेत्र के बाहर जाने में असमर्थ हों तो एकाकी यथालंदिक मुनि आचार्य के पास आते हैं । वर्षाकाल में जब जान लेते हैं कि वर्षा नहीं आएगी तो) वे एकाकी आचार्य के पास आते हैं। श्रुत संहनन आदि के विषय में जिनकल्पिक मुनियों की भांति सारे विकल्प संपूर्णरूप से कहने चाहिए। २०७ २०१५. सुत्तत्य सावसेसे, पडिबंधो तेसिमो भवे कप्पो आयरिए किइकम्मं, अंतर बहिया व वसहीए ॥ सूत्र और अर्थ का ग्रहण अभी पूरा नहीं हुआ है तो वे यथालंदिक मुनि गच्छ का प्रतिबंध स्वीकार करते हैं। उनका यह कल्प मर्यादा है। वे केवल आचार्य का ही कृतिकर्मवंदनक देते हैं, अन्य मुनियों को वंदना नहीं करते। यदि आचार्य नहीं जा सके तो वसति के मध्य या बाहर यथालंदिक को वाचना दे। २०१६. नमणं पुष्यन्भासा, अणमणे दुस्सील थप्पगासंका । आवड कुकुड त्ति य, वातो लोगे ठिई चेव ॥ (शिष्य पूछता है-आचार्य जहां रहते हैं वहां यथालंदिक रहते हैं तो क्या दोष हैं ?) आचार्य ने कहा यथालंदिक मुनि आचार्य के अतिरिक्त किसी मुनि को वंदना नहीं करते, यह उनका कल्प है। साथ रहने से पूर्व अभ्यास के कारण साधुओं को नमन भी कर लेते हैं। यथालंदिक मुनि जब गच्छवासियों को प्रतिनमन नहीं करते तो लोग कहते हैं-ये गच्छवासी मुनि दुःशील हैं इसीलिए ये प्रतिनमन नहीं करते। लोगों के मन में यह स्थाप्यक- दृढमूल आशंका हो जाती है कि गच्छवासी मुनि अवश्य ही दुःशील हैं, इसीलिए ये मुनि उनके लिए अवंदनीय हैं। अथवा ये गच्छवासी आत्मार्थिक हैं क्योंकि ये प्रतिनमन न करने वालों को भी नमन करते हैं। अथवा ये 'कौत्कुटिक' हैं- मायाचार करने वाले हैं। ये लोगों में विश्वास जमाने के लिए वंदना करते हैं। ऐसा वाद लोगों में प्रचलित हो जाता है। इसलिए यथालंबिक मुनि गांव के बाहिर भाग में रहते हैं। यह उनका कल्प मर्यादा है। २०१७. दोन वि दाडं गमणं, धारणकुसलस्स खेत्तवहि देह | किइकम्म चोलपट्टे, ओवग्गहिया निसिज्जा य ॥ आचार्य गच्छवासी मुनियों को सूत्र और अर्थ- दोनों पौरुषियां देकर, यथालंदिक मुनियों के समीप जाते हैं वहां जाकर अर्थ की बाचना देते हैं। यदि आचार्य न जा सके तो यथालंविक मुनियों के मध्य जो धारणाकुशल मुनि हो, वह क्षेत्र के बाहर जाता है और आचार्य वहां जाकर उसको अर्थ की वाचना देते हैं वह आचार्य को वंदना करता है और चोलपट्ट सहित औपग्रहिक निषद्या पर बैठकर अर्थ सुनता है । २०१८. अत्थं दो व अदाउं, बच्चइ वायावए व अनेणं । एवं ता उडुबन्धे वासासु य काउमुवओगं ॥ यदि आचार्य दोनों पौरुषियों को संपन्न कर जाने में असमर्थ हों तो अर्थ पौरुषी को न देकर जाएं। यदि उसे देकर जाने में भी असमर्थ हों तो दोनों पौरुषियों की वाचना न देकर . Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ =बृहत्कल्पभाष्यम् जाएं। अथवा अपने शिष्यों को वाचना देने के लिए किसी होता है तथा अनेक दोष होते हैं। अपवादरूप में ग्लान आदि दूसरे शिष्य को नियुक्त कर जाते हैं। यह सारा ऋतुबद्धकाल के लिए मास से अधिक भी रहा जा सकता है। उस स्थिति में की अपेक्षा से है। वर्षाऋत में वह स्वयं उपयोग लगाकर वसति और भिक्षा विषयक यतना का पालन करना चाहिए। (वर्षा आयेगी या नहीं) आचार्य के पास आता है। २०२४.परिसाडिमपरिसाडी, संथाराऽऽहार दुविह उवहिम्मि। २०१९.संघाडो मग्गेणं, भत्तं पाणं च नेइ उ गुरूणं। डगलग-सरक्ख-मल्लग-मत्तगमादीण पच्छित्तं॥ अच्चुण्हं थेरा वा, तो अंतरपल्लिए एइ॥ २०२५.ओवासे संथारे, वीयारुच्चार वसहि गामे य। यथालंदिक मुनि के पास आचार्य गए हए हों तो दो मुनि मास-चउम्मासाधिगवसमाणे होइमा सोही॥ गुरु के प्रायोग्य भक्त-पान लेकर पीछे से जाएं। यदि वेला दो प्रकार के संस्तारक-परिशाटी (तृणमय), अपरिशाटी अत्युष्ण हो, आचार्य स्थविर हों तो धारणासंपन्न यथालंदिक (पट्ट आदि), दो प्रकार की उपधि-औधिक और औपग्रहिक, मुनि अन्तरपल्ली में आ जाता है। गुरु भी वहीं जाकर वाचना आहार, डगलक, क्षार-राख, मल्लक, मात्रक आदि उसी देकर, शिष्यों द्वारा लाया हुआ भक्त-पान ग्रहण कर संध्या ग्राम में अथवा आहार आदि उन्हीं कुलों से जहां मास कल्प समय में अपने स्थान पर लौट जाएं। अथवा चातुर्मास किया है, लेने पर प्रायश्चित्त का विधान है। २०२०.अंतर पडिवसभे वा, बिइयंतर बाहि वसभगामस्स। तथा प्रतिश्रय, संस्तारकभूमि-ये पूर्वभुक्त का ही पुनः भोग अन्नवसहीए तीए, अपरीभोगम्मि वाएइ॥ करते हैं, विचार-प्रस्रवण, उच्चार-ये उसी स्थंडिल में यदि गुरु अन्तरपल्ली में भी जाने में असमर्थ हो तो परिष्ठापित करते हैं, उसी वसति का उपभोग करते हैं, उस प्रतिवृषभ ग्राम के अपान्तराल में जाकर यथालंदिक मुनि को ग्राम पर ममत्व करते हैं, मासकल्प में मास से अधिक तथा वाचना दे। वहां जाने में भी अशक्त हो तो दूसरे क्षेत्र के चातुर्मास में चार मास से अधिक रहते हैं-इन सभी प्रवृत्तियों अंतराल में जाकर वाचना दे। वहां भी न जा सके तो के लिए प्रायश्चित्त विहित है। वृषभग्राम अर्थात् मूलक्षेत्र के बाहर एकांत में वाचना दे। वहां २०२६.उक्कोसोवहि-फलए, वासातीए अ होति चउलहुगा। भी न जा सके तो मूलक्षेत्र में ही अन्य वसति में वाचना दे। डगलग सरक्ख मल्लग, पणगं सेसेसु लहुओ उ॥ वहां भी न जा सके तो मूल वसति में ही अपरिभोग्य स्थान में उत्कृष्ट उपधि जैसे वर्षाकल्प आदि का तथा फलक का बैठकर वाचना दे। ग्रहण वहीं करने पर, वर्षा के बीत जाने पर उसका प्रायश्चित्त २०२१.तस्स जई किइकम्म, करिति सो पुण न तेसि पकरेइ। है-चतुर्लघु। डगलक, राख, मल्लक का प्रायश्चित्त है पांच जा पढइ ताव गुरुणो, करेइ न करेइ उ परेणं॥ रात-दिन। शेष (२०२४, २०२५ में उल्लिखित) वस्तुओं का गच्छवासी मुनि यथालंदिक मुनि का कृतिकर्म करते हैं। यथालंदिक मुनि उनका कृतिकर्म नहीं करते। यथालंदिक मुनि २०२७.संवासे इत्थिदोसा, उग्गमदोसा व नेहतो कुज्जा। जब तक गुरु से वाचना लेते हैं तब तक उनका कृतिकर्म चमढण गिलाणदुल्लभ, वारत्तिसिभासियाहरणं॥ करते हैं। उसके पश्चात् गुरु का भी कृतिकर्म नहीं करते। काल-मर्यादा से अधिक एक स्थान में रहने पर स्त्री २०२२.एक्को वा सवियारो, हवंतऽहालंदियाण छ ग्गामा। संबंधी दोष, गृहस्थों के स्नेह के कारण उद्गम आदि दोषों ___ मासो विभज्जमाणो, पणगेण उ निहिओ होइ॥ की संभावना होती है, अन्य गृहस्थों के मन में अधिक रहने यदि गुरु के अधिष्ठित क्षेत्र के बाहर एक सविचार- वाले मुनियों के प्रति अवमानना का भाव उत्पन्न होता है, सविस्तृत ग्राम हो तो यथालंदिक मुनि उस ग्राम के छह ग्लान आदि के प्रायोग्य आहार की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है। विभाग करे और प्रत्येक वीथि में पांच-पांच अहोरात्र के यहां ऋषिभाषित ग्रंथ (२७वें अध्ययन) में वर्णित वारत्तक अनुसार एक मास का विभाजन करने पर वह पूरा हो जाता महर्षि का उदाहरण ज्ञातव्य है। है। यदि ऐसा विस्तीर्ण ग्राम न हो तो मूलक्षेत्र के पास में जो २०२८.बहुदोसे वऽतिरित्तं, जइ लब्भे वेज्ज-ओसहाणि बहिं। लघुतर छह ग्राम हों, उनमें प्रत्येक ग्राम में पांच-पांच दिन ' चउभाग तिभागऽद्धे, जयंतऽणिच्छे अलंभे वा।। घूमकर मास की पूर्ति करे। ग्लान के निमित्त काल-मर्यादा से अतिरिक्त भी रहा जा २०२३.मासस्सुवरिं वसती, पायच्छित्तं च होति दोसा य।। सकता है। यदि वह क्षेत्र बहु दोषयुक्त हो तो ग्लान को अन्यत्र बिइयपदं च गिलाणे, वसही भिक्खं च जयणाए॥ ले जाए, जहां वैद्य और औषधियों की प्राप्ति होती हो। यदि एक वसति में एक मास से अधिक रहने पर प्रायश्चित्त प्राप्त ग्लान जाना न चाहे अथवा वैद्य और औषधि की प्राप्ति होती Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = = २०९ हो तो उसी ग्राम के चार विभाग, तीन विभाग या दो विभाग से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा कर यतनापूर्वक भिक्षा करे। सपरिक्खेवंसि सबाहिरियंसि कप्पइ २०२९.ओमा-ऽसिव-दुट्टेसुं, चउभागादि न करिति अच्छंता। निग्गंथाणं हेमंत-गिम्हासु दो मासे वत्थए। पोरुसिमाईवुड्डी, करिति तवसो असंथरणे॥ अंते एगं मासं, बाहिं एगं मासं। अंतो यदि दुर्भिक्ष हो, अशिव हो या राजा द्वेषी हो गया हो तो वहां रहते हुए भी मुनि ग्राम के चार, तीन आदि विभाग नहीं वसमाणाणं अंतो भिक्खायरिया, बाहिं करते। यदि आहार की प्राप्ति पर्याप्त न हो तो पौरुषी आदि वसमाणाणं बाहिं भिक्खायरिया॥ तपस्या की वृद्धि करते हैं। (सूत्र ७) २०३०.मासे मासे वसही, तण-डगलादी य अन्न गिण्हंति। भिक्खायरिय-वियारा, जहिं ठिया तत्थ नऽन्नासु॥ २०३४.एसेव कमो नियमा, सपरिक्खेवे सबाहिरीयम्मि। प्रत्येक मास के अंत में दूसरी वसति की गवेषणा करते हैं नवरं पुण नाणत्तं, अंतो मासो बहिं मासो॥ तथा तृण, डगलक आदि भी दूसरे ग्रहण करते हैं। परंतु वे यही (प्रथम सूत्रोक्त) क्रम सपरिक्षेप तथा सबाहिरिक जहां मासकल्प के लिए स्थित थे वहीं भिक्षा करते हैं और ग्राम के विषय में नियमतः वक्तव्य है। यहां विशेष यह हैवहीं विचारभूमी में जाते हैं। प्राकार के भीतर एक मास तथा बाहर भी एक मास तक रहा २०३१.अट्ठाइ जाव एक्वं, करिति भागं असंथरे गाम। जा सकता है। __ अट्ठाइ च्चिय वसही, जयंति जा मूलवसही उ॥ २०३५.पुण्णम्मि मासकप्पे, बहिया संकमण तं पि तह चेव। कदाचित् एक ग्लान को आठ ऋतुबद्धमासों तक एक ही नवरं पुण नाणत्तं, तणेसु तह चेव फलएसु॥ गांव में रहना पड़ता है। ऐसी स्थिति में गांव के आठ भाग अभ्यन्तर में मास कल्प पूर्ण होने पर बाहर संक्रमण कर करने चाहिए और प्रत्येक मास में एक-एक भाग में वसति, एक मास वहां रहे। इसमें विशेष है-तृणविषयक और फलकतृण, डगलक, आहार आदि का उपभोग करना चाहिए। विषयक। बाहरिका में तृण-फलक मिले तो वहीं ले और वहां यदि उस एक भाग से पूर्ति न हो तो ७,६,५ आदि भागों से प्राप्त न हो तो आभ्यन्तरिका से वे तृण-फलक ले जाए जा पूर्ति करनी चाहिए। यदि ऐसा न हो तो गांव के सात, छह, सकते हैं।) पांच आदि भाग करे। दूसरी बात है कि आठ मास के २०३६.अन्नउवस्सयगमणे, अणपुच्छा नत्थि किंचि नेयव्वं । लिए आठ वसतियां ग्रहण करनी चाहिए। उसके अभाव में जइ नेइ अणापुच्छा, तत्थ उ दोसा इमे होति॥ सात, छह, पांच वसतियां ग्रहण करे। अंततः मूल वसति दूसरे मासकल्प में बाहरिका में, अन्य उपाश्रय में जाते में रहे। हुए बिना पूछे तृण-फलक न ले जाएं। यदि बिना पूछे ले जाते २०३२.इत्थं पुण संजोगा, एक्किक्कस्स उ अलंभे लंभे य। हैं तो ये दोष प्रास होते हैं। ___णेगा विहाणगुणिया, तुल्ला-तुल्लेसु ठाणेसु॥ २०३७.ताई तण-फलगाई, तेणाहडगाई अप्पणो वा वि। प्रत्येक वसति के विभाग में भिक्षाचर्या की प्राप्ति, अप्राप्ति निजंतय-गहियाई, सिट्ठाई तहा असिट्ठाई॥ के आधार पर तुल्य (समानसंख्यावाले) अथवा अतुल्य जिसने वे तृण-फलक साधुओं को दिए हैं वे स्तेनाहत्य (विषमसंख्यावाले) स्थान, उनके विधान से गुणित होने पर भी हो सकते हैं और आत्मसंबंधी भी हो सकते हैं। जो अन्य अनेक संयोग-भंग होते हैं। उपाश्रय में तृण-फलक ले जाए जा रहे हैं, गृहीत हैं, वे शिष्ट २०३३.एक्काइ वि वसहीए, ठिया उ भिक्खयरियाए पयतंति। हैं अथवा अशिष्ट। ___ वसहीसु वि जयणेवं, अवि एक्काए वि चरियाए॥ २०३८. कस्सेते तण-फलगा, सिटे अमुकस्स तस्स गहणादी। इन भंगों के आधार पर प्राप्त एक ही वसति में रहकर निण्हवइ व सो भीओ, पच्चंगिर लोगमुड्डाहो॥ भिक्षाचर्या के लिए प्रयत्न करते हैं। एक ही भिक्षाचर्या में पूछने पर कि ये तृण-फलक किसके हैं और वह मुनि यह पर्यटन करते हुए तथा वसति में भी यतना करनी चाहिए। कहे कि ये अमुक गृहस्थ के हैं तो संभव है वे उस मूल १. चारणकविधि से गुणित का क्रम यह है-(१) आठ वसतियां आठ भिक्षाचर्या, (२) आठ वसतियां सात भिक्षाचर्या-आदि। इसी प्रकार (१) सात वसतियां आठ भिक्षाचर्या (२) सात वसतियां सात भिक्षाचर्या आदि। इस प्रकार प्रत्येक के आठ-आठ भंग होते हैं। सारे भंग ८४८६४ होते हैं। (वृ. पृ. ५८८) नि Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० स्वामी का निराह कर सकते हैं (यदि वे स्तेनात हो तो) । यदि मुनि भय से मूल स्वामी का नाम छुपाता है तो प्रत्यंगिरादोष-चौर्यकरणलक्षण दोष होता है तथा लोक में उड्डाह होता है। २०३९. नयणे दिट्ठे सिट्ठे, गिण्हण कढण ववहारमेव ववहरिए । लहुओ लहुगा गुरुगा, छम्मासा छेय मूल दुगं ॥ बाहरिका में तृणों को ले जाते देख लेने पर चतुर्लघु, पूछने पर अमुक व्यक्ति से लाये हैं, यह कहने पर चतुर्गुरु, उस व्यक्ति का निग्रह करने पर चतुर्गुरु, राजकुल में उसको ले जाने पर षड्लघुमास, गृहीत गृहस्थ उन ले जाने वालों का प्रतिकूल आकर्षण करता है तो षड्गुरुक, यदि उस पर व्यवहार केस किया जाता है तो छेद, व्यवहृत होने पर यदि वह गृहस्थ पश्चात्कृत है तो मूल, हाथ पैर आदि काटे जाने पर अनवस्थाप्य मृत्युदंड दिए जाने पर अथवा देश से निकाल दिए जाने पर पारांचिक प्रायश्चित प्राप्त होता है ये सारे प्रायश्चित्त संयत को प्राप्त होते हैं। २०४०. अहवा वि असिम्मी, एसेव उ तेण संकणे लहुगा । नीसंकियम्मि गुरुगा, एगमणेगे य गहणादी ॥ अथवा वह मुनि पूछने पर भी नहीं बताता, तो उसी के प्रति चोर होने की आशंका होती है, तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। निःशंकित होने पर चतुर्गुरु का । तदनन्तर एक या अनेक साधुओं का ग्रहण आदि दोष होते हैं। २०४१. नयणे दिने गहिए, कहण ववहारमेव ववहरिए । उहणे य विरंगण, उन्हवणे चैव निव्विस ॥ २०४२. लहु लहुया गुरुगा, छल्लहु छग्गुरुग छेव मूलं च। अणवटुप्पो दोसु अ, दोसु अ पारंचिओ होइ ॥ तृणों को बिना पूछे प्रतिश्रय के भीतर ले जाने पर लघुमास, राजपुरुषों के देख लेने पर चतुर्लघु, साधु को पूछने पर यदि वह स्वामी का नाम नहीं बताता तो राजपुरुष उसको पकड़ते हैं तब चतुर्लघु उसको चोर मानकर राजकुल के अभिमुख ले जाने पर छह लघुमास, राजपुरुष और साधु के बीच कर्षकर्षण होने पर छह गुरुमास, व्यवहार प्रारंभ हो जाने पर छेद, व्यवहार में यदि साधु को पश्चात्कृत गृहस्थ बना देने पर मूल उद्दहन और हाथ-पैर व्यंगित करने पर अनवस्थाप्य तथा मृत्युदंड और देश से निष्कासन करने पर पारांचिक प्रायश्चित्त है। २०४३. दंतपुरे आहरणं, तेनाहड बब्बगादिसु तणेसु । छायण मीराकरणे, अत्थिरफलगं च चंपादी ॥ १. दृष्टांत के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. ६९ । २. मीराकरण - कटैः द्वारादेराच्छादनम्-इस तृण से बनी चटाइयों से द्वार बृहत्कल्पभाष्यम् स्तेनाहत तृण के विषय में दंतपुरविषयक उदाहरण वक्तव्य है।' 'बब्बक' (वल्वज) आदि तृणों से ग्लान आदि का छादन होता है, अथवा उपाश्रय का मीराकरण किया जाता है। चंपक पढ़ आदि अस्थिर फलक माने जाते हैं। ये भी स्तेनाहत होते हैं। २०४४. अंतेणाहडाण नयणे, लहुओ लहुया व होंति सिम्मि अप्पत्तियम्मि गुरुगा, बोच्छेद पसज्जणा सेसे ॥ अस्तेनाहत तृणों को बिना आज्ञा बाहर ले जाने पर लघुमास का प्रायश्चित्त आता है तथा दूसरे किसी ने तृणस्वामी को कहा कि मुनि तुम्हारे तृण बाहर ले जा रहे हैं। तो चतुर्लघु, यदि उस गृहस्वामी में अप्रीति उत्पन्न हो तो चतुर्गुरु। वह तृणस्वामी पुनः उस मुनि को तृण देने का व्यवच्छेद कर दे अथवा शेष द्रव्यों का देना भी बंद कर दे। उस मुनि को ही नहीं, अन्य साधुओं को भी अशन-पानक आदि द्रव्यों का व्यवच्छेद भी कर दे। २०४५. एसेव गमो नियमा, फलएस वि होइ आणुपुवीए । नवरं पुण नाणत्तं चउरो मासा जहन्नपदे ॥ यही प्रायश्चित्त का गम - प्रकार आनुपूर्वी से फलक के विषय में भी जानना चाहिए। विशेष यह है - जघन्यपद में चार मास का प्रायश्चित्त है। (जैसे तृण के ले जाने पर जघन्य है एक मास तो इसमें है चारमास ।) २०४६. दोन्हं उवरिं वसती, पायच्छित्तं च होंति दोसा य । विश्यपदं च गिलाणे, वसही भिक्खं च जयणाए । दो मास से अधिक यदि बाहरिका वसति में रहता है तो प्रागुक्त प्रायश्चित्त तथा वे ही दोष उत्पन्न होते हैं। ग्लानविषयक अपवाद पद भी उसी प्रकार है वहां रहते हुए वसति और भिक्षाचर्या में यतना बरतनी चाहिए। से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा सपरिक्खेवंसि अबाहिरियंसि कप्पइ निम्गंधीणं हेमंत गेम्हासु दो मासा - वत्थए । (सूत्र ८) २०४७. एसेव कमो नियमा, निग्गंथीणं पि होइ नायव्वो । जं एत्थं नाणत्तं तमहं वोच्छं समासेणं ॥ यही क्रम नियमतः निर्ग्रथीयों के लिए भी जानना चाहिए। जो इसमें नानात्व है वह भी संक्षेप में कहूंगा। आदि का आच्छादन किया जाता है। अथवा ग्लान के लिए संस्तारक भी किया है। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक साग २०४८.निग्गंथीणं गणहरपरूवणा खेत्तमग्गणा चेव। २०५४.तुच्छेण विलोभिज्जइ, भरुयच्छाहरण नियडिसड्ढणं। वसही वियार गच्छस्स आणणा वारए चेव॥ [तनिमंतण वहणे, चेइय रूढाण अक्खिवणं॥ २०४९.भत्तद्वणाए य विही, पडिणीए भिक्खनिग्गमे चेव। वे साध्वियां तुच्छ आहार आदि के लोभ से लुब्ध हो निग्गंथाणं मासो, कम्हा तासिं दुवे मासा॥ जाती हैं। यहां भृगुकच्छ के निकृतिश्राद्ध का उदाहरण है। निग्रंथी के गणधर की प्ररूपणा, क्षेत्र की प्ररूपणा, वसति उसने वस्त्रों का निमंत्रण देकर, प्रवहण के प्रस्थान के समय तथा विचारभूमियां, संयतीगण की आनयना, वारक, मंगलपाठ सुनने के बहाने, चैत्यवंदन के लिए यान-वाहन में भक्तार्थता की व्यवस्था, प्रत्यनीक का निवारण, भिक्षा के आरूढ़ संयतियों का आक्षेपण-अपहरण कर लिया।' लिए निर्गमन, निग्रंथों के एक मास क्यों और निग्रंथियों के दो २०५५.एएहिं कारणेहिं, न कप्पई संजईण पडिलेहा। मास क्यों ? ये सारे द्वार आगे की गाथाओं में व्याख्यात हैं। गंतव्व गणहरेणं, विहिणा जो वण्णिओ पुब्बिं॥ २०५०.पियधम्मे दढधम्मे, संविग्गेऽवज्ज ओय-तेयस्सी। इन कारणों से साध्वियों को क्षेत्र प्रत्युपेक्षा के लिए जाना संगहुवग्गहकुसले, सुत्तत्थविऊ गणाहिवई॥ नहीं कल्पता। जो पहले विधि कही गई है उसके अनुसार संयतियों का गणधर कैसा हो? प्रियधर्मा और दृढ़धर्मा गणधर को ही क्षेत्र-प्रत्युपेक्षा के लिए जाना चाहिए। हो, संविग्न और पापभीरू हो, ओजस्वी और तेजस्वी हो, २०५६.जत्थाहिवई सूरो, समणाणं सो य जाणइ विसेसं। संघ के लिए संग्रह और उपग्रह में कुशल, सूत्रार्थविद्-ऐसा । एतारिसम्मि खेत्ते, समणाणं होइ पडिलेहा॥ व्यक्ति आर्यिकाओं का गणाधिपति हो सकता है। २०५७.जहियं दुस्सीलजणो, तक्कर-सावयभयं व जहि नत्थि। २०५१.आरोह-परीणाहा चियमंसो इंदिया य पडिपुण्णा। निप्पच्चवाय खेत्ते, अज्जाणं होइ पडिलेहा॥ __ अह ओओ तेओ पुण, होइ अणोतप्पया देहे ॥ जिस क्षेत्र का अधिपति शूरवीर हों, जो श्रमणों के विषय ओजस्वी वह होता है जिसका शरीर आरोह और परिणाह में विशेष रूप से जानता हो-श्रमणियों के लिए ऐसी क्षेत्र की युक्त हो। आरोह का अर्थ है-शरीर से न अधिक लंबा और न प्रत्युपेक्षा श्रमण करे। तथा जहां दुःशील व्यक्ति न हों, जहां ठिगना और परिणाह का अर्थ है-दोनों भुजाओं की समानता। तस्कर तथा श्वापदभय न हो, जो क्षेत्र निष्प्रत्यपाय है, वैसा वह मांसल हो। वह इन्द्रियों से परिपूर्ण हो। तेजस्वी वह होता क्षेत्र आर्याओं के लिए प्रत्युपेक्षणीय है। है जो शरीर से अलज्जनीय हो। २०५८.गुत्ता गुत्तदुवारा, कुलपुत्ते सत्तमंत गंभीरे। २०५२.खित्तस्स उ पडिलेहा, कायव्वा होइ आणुपुवीए। भीयपरिस मद्दविए, ओभासण चिंतणा दाणे॥ किं वच्चई गणहरो, जो चरई सो तणं वहइ॥ श्रमणियों के लिए जो वसति हो वह गुप्त अर्थात् जिसके क्षेत्रमार्गणा-साध्वियों के लिए प्रायोग्य क्षेत्र की क्षेत्र चारों ओर बाड़ या दीवार हो, जिसके द्वार पर कपाट लगे प्रत्युपेक्षा के लिए गणधर क्यों जाए? जो बैल चारा चरता है हए हों, जिसका स्वामी (कुलपुत्र) शक्तिशाली, और गंभीर उसे ही चारी वहन करना होता है। इसी प्रकार जो साध्वियों हो, जिससे जनता डरती हो, जो मृदु हो-ऐसे उपाश्रय की का आधिपत्य करता है उसे ही उनकी सारी चिंताओं का । अवभाषणा-अनुज्ञा लेनी चाहिए, तथा जो कुलपुत्र श्रमणियों भार वहन करना होता है। को अपनी पुत्रियों की भांति चिंता करना स्वीकार कर २०५३.संजइगमणे गुरुगा,आणादी सउणि पेसि पिल्लणया। वसति का दान करता है, तब वैसे वसति की अनुज्ञा लेनी (उव) लोभे तुच्छा आसियावणाइणो भवे दोसा॥ चाहिए। यदि साध्वियां क्षेत्र प्रत्युपेक्षा के लिए जाती हैं तो आचार्य २०५९.घणकुड्डा सकवाडा, सागारियमाउ-भगिणिपेरंता। को चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोषों का निप्पच्चवाय जोग्गा, विच्छिन्नपुरोहडा वसही। भागी होना पड़ता है। जैसे पक्षिणी श्येन के लिए गम्य होती अन्य आचार्य के अनुसार वसति का स्वरूप-श्रमणियों के है तथा मांसपेशी या आम्रपेशी जैसे सबके अभिलषणीय होती। लिए वसति घनकुड्य अर्थात् पक्की ईंटों से युक्त भींतवाली, है वैसे ही ये स्त्रियां भी सबके अभिलषणीय होती हैं। कपाटयुक्त द्वारों वाली तथा जिसके पास में गृहस्थ उपासकों इसीलिए वे विषयार्थियों से प्रेरित होती हैं। वे तुच्छ होती हैं, तथा माता-भगिनी के घर हों जो प्रत्यपायरहित हो, जिसका इसीलिए किसी आहार आदि के प्रलोभन से असियावण- पश्चातभाग विस्तीर्ण हो, ऐसी वसति श्रमणियों के लिए इनका अपहरण कर लिया जाता है। ये दोष होते हैं। योग्य होती है। १. उदाहरण के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. ७०। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ च॥ २०६०. नासन्ने नातिदूरे, विहवापरिणयवयाण पडिवेसे । मज्झत्थ- ऽवियाराणं, अकुऊहल - भावियाणं श्रमणियों की वसति वहां हो, जिसके न अति निकट और न अति दूर. ऐसा पड़ौसी हो जहां की विधवाएं और परिणतवयवाली तथा मध्यमवयवाली स्त्रियां अविकारयुक्त, अकुतूहल बुद्धिवाली तथा भावित अर्थात् साधु समाचारी से वासित अन्तःकरणवाली हों। २०६१.भोइय- महतरगादी, बहुसयणो पिल्लओ कुलीणो य । परिणतवओ अभीरू, अणभिग्गहिओ अकुतूहली ॥ २०६२. कुलपुत्त सत्तमंतो, भीयपरिस भद्दओ परिणओ अ। धम्मट्ठी य विणीओ, अज्जासेज्जायरो भणिओ ॥ अन्य आचार्य के अनुसार शय्यातर का स्वरूप - जिस कुलपुत्र - शय्यातर के भोजिक नगरप्रधान, महत्तर - विशेष व्यक्ति आदि बहुस्वजन हों, प्रेरक अर्थात् जो अपने घर में दुराचारियों को आने नहीं देता, जो कुलीन है, जो परिणतवया - प्रौढ़ है, जो अभीरू है, जो मिथ्यात्वरहित है, अकुतूहली है, सत्ववान् है, भीतपर्षत् है, भद्रक और परिपक्व बुद्धिवाला है, धर्मार्थी है तथा विनीत है-ऐसा व्यक्ति श्रमणियों का शय्यातर होने योग्य होता है। २०६३.अणावायमसंलोगा, अणावाया चेव होइ चेव आवायमसंलोगा, आवाया स्थंडिलभूमी के चार प्रकार हैं१. अनापात असंलोक संलोगा । संलोगा ॥ ३. आपात असंलोक ४. आपात संलोक २. अनापात संलोक २०६४. वीयारे बहि गुरुगा, अंतो वि य तइयवज्जि ते चेव । तए वि जत्थ पुरिसा, उवेंति वेसित्थियाओ अ॥ यदि पुरोहडयुक्त (पिछवाड़ायुक्त) वसति हो और श्रमणियां ग्राम के बाहर विचारभूमी ( स्थंडिल) में जाती हैं तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। तथा ग्राम के आभ्यन्तर में भी तीसरे स्थंडिल - आपात असंलोक का वर्जन कर शेष तीन स्थंडिलों में जाती हैं तो भी चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। तथा तीसरे प्रकार के स्थंडिल में जहां पुरुष और वेश्याएं आती हैं, वहां जाने पर भी वही चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। २०६५. जत्तो दुस्सीला खलु, वेसित्थि नपुंस हेट्ठ तेरिच्छा । सा उ दिसा पडिकुट्ठा, पढमा बिइया चउत्थी य ॥ जिस दिशा में पहली, दूसरी और चौथी स्थंडिल भूमी हो वह दिशा भी प्रतिक्रुष्ट है, वर्जित है क्योंकि उस दिशा में दुःशील पुरुष, वेश्या स्त्रियां, नपुंसक, हे तिर्यञ्च वानर आदि आते हैं। अधोनापित, बृहत्कल्पभाष्यम् २०६६. चारभड घोड मिंठा, सोलग तरुणा य जे य दुस्सीला । उभामित्थी वेसिय, अपुमेसु उ इंति उ तदट्ठा ॥ चारभट - राजपुरुष, घोट-चट्ट (विद्यार्थी ?), महावत, सोल-अश्वचिन्तक- इत्यादि तरुण युवक दुःशील होते हैं। वे उद्भ्रामक स्त्रियों, वेश्याओं तथा नपुंसकों के साथ प्रतिसेवना करने के लिए पहले और दूसरे प्रकार के स्थंडिल में आते हैं। इसलिए इनका वर्जन किया गया है। (चौथे प्रकार का स्थंडिल इसलिए वर्जित है कि वह खुला होता है, दुःशील आदि दुर्जन लोग वहां श्रमणियों को जाते देखते हैं। श्रमणियों उनको देखती हैं ।) २०६७. हेट्ठउवासणहेउं, गहण उड्डाहो । णेगागमणम्मि वानर - मयूर - हंसा, छाला सुणगादि तेरिच्छा ॥ अधस्तादुपासनं-अधोलोचकर्म के लिए अनेक मनुष्यों का वहां आगमन होता है। वहां वे मनुष्य संयतियों को पकड़ लेते हैं। इससे उड्डाह होता है। तथा वहां वानर, मयूर, हंस, बकरे, कुत्ते आदि तिर्यंच पशु भी आते हैं और वे संयतियों को करते हैं। उपद्रुत २०६८. जइ अंतो वाघाओ, बहिया तासि तइया अणुन्नाया। सेसा नाणुन्नाया, अज्जाण वियारभूमीतो ॥ ग्राम के आभ्यन्तर यदि पुरोहड का व्याघात हो- अभाव हो तो श्रमणियों के लिए बाहर तीसरे प्रकार का स्थंडिल अनुज्ञात है। शेष अनापात असंलोक आदि विचारभूमियां आर्याओं के लिए अनुज्ञात नहीं हैं। २०६९.पडिलेहियं च खेत्तं, संजइवग्गस्स आणणा होइ । निक्कारणम्मि मग्गतो, कारणे समगं व पुरतो वा ॥ ऐसे प्रत्युपेक्षित क्षेत्र में संयतिवर्ग को लाया जाता है। यदि मार्ग निष्कारण- निर्भय हो तो साधु आगे चलते हैं और मार्गतः अर्थात् पीछे साध्वियां आती हैं। यदि कारण अर्थात् भय हो तो साध्वियां साधुओं के आस-पास अथवा आगे चलती हैं। २०७०. निप्पच्चवाय संबंधि भाविए गणहरऽप्पबिइ - तइओ । इ भए पुण सत्थेण सद्धि कयकरणसहितो वा ॥ उपद्रव के अभाव में साध्वियों के संबंधी तथा सम्यकभावित मुनियों के साथ गणधर आत्मद्वितीय या आत्मतृतीय रूप में साध्वियों को विवक्षित क्षेत्र में ले जाता है। यदि भय हो तो किसी सार्थ के साथ अथवा कृतकरण अर्थात् धनुर्विद्या में निपुण मुनि को साथ ले साध्वियों को निर्धारित क्षेत्र में पहुंचाता है। २०७१.उभयट्ठाइनिविट्टं, मा पेल्ले वइणि तेण पुर एगे। तं तु न जुज्जइ अविणय विरुद्ध उभयं च जयणाए । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक कायिकी तथा संज्ञा निवृत्ति के लिए अथवा अन्य किसी प्रयोजन से साधु को बैठा देखकर कोई साध्वी प्रेरित न करे, इसलिए साध्वियां आगे चलती हैं ऐसा कोई आचार्य मानते हैं। यह मानना अयुक्त है। साध्वियों का आगे चलना अविनय का द्योतक है तथा लोकविरुद्ध है इसलिए मुनि कायिकी तथा संज्ञानिवृत्ति यतनापूर्वक करे। (शिष्य ने पूछा-यतना क्या है? आचार्य कहते हैं-जहां एक मुनि कायिकी या संज्ञा निवृत्ति के लिए ठहरता है, वहां अन्य सभी मुनि ठहर जाएं। यह देखकर साध्वियां उनको लांघकर आगे नहीं जायेंगी। वे भी शरीरचिंता से पीछे रहकर ही निवृत्त हो जायेंगी।) २०७२.जहियं च अगारिजणो, चोक्खब्भूतो सुईसमायारो। कुडमुहदहरएणं, वारगनिक्खेवणा भणिया॥ जिस ग्राम के लोग चोक्षभूत-तथा शौचवादी हों वहां वारक-मात्रक (घट) का ग्रहण करना चाहिए तथा प्रस्रवण आदि उसमें करके, उसके मुख पर वस्त्र बांधकर उसका निक्षेपण करे, यह भगवदाज्ञा है। २०७३.थीपडिबद्धे उवस्सए, उस्सग्गपदेण संवसंतीओ। वच्चंति काइभूमि, मत्तगहत्था न याऽऽयमणं॥ उत्सर्गपद में साध्वियां स्त्री-प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहें और मात्रक को हाथ में लेकर कायिकीभूमी में जाएं परन्तु आचमन न करें। २०७४.दुक्खं विसुयावेउं, पणगस्स य संभवो अलित्तम्मि। संदंते तसपाणा, आवजण तक्कणादीया॥ वारक अन्तर्लिप्त रखना चाहिए। अलिप्त वारक को साफ करना दुष्कर होता है तथा उसमें पनक की संभावना बनी रहती है। अलिप्त वारक में पानक डालने से पानक उससे चूने लग जाता है और तब चींटी आदि त्रसप्राणी आ सकते हैं तथा आवज्जण-अनन्तकायिक तथा विकलेन्द्रियों के संघट्टन से प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। वारक के चूने वाले पानक में मक्षिकाएं गिरती है। उनको निगलने के लिए छिपकली दौड़ती है। उसको खाने के लिए मार्जारी। इस प्रकार तर्कणा-एक दूसरे को खाने के लिए प्रस्तुत होते हैं। इनका प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। २०७५.सागारिए परम्मुह, दगसहमसंफुसंतिओ नितं। पुलएज्ज मा य तरुणी, ता अच्छ दवं तु जा दिवसो॥ गृहस्थ हों तो उनसे परामख होकर कायिकी करें। तत्पश्चात् नेत्र-मूत्रेन्द्रिय का स्पर्श न करती हुईं पानक से प्रक्षालनानुमापक शब्द करने का आभास कराए। तरुण स्त्रियां इस जिज्ञासा से कि क्या पानी है या नहीं, वे वारक को देखती हैं। अतः वारक में साफ पानी रखे और संध्या समय में उसे फेंक दे। २०७६.मंडलिठाणस्सऽसती, बला व तरुणीसु अहिवडंतीसु। पत्तेय कमढभुंजण, मंडलिथेरी उ परिवेसे॥ यदि स्थान गृहस्थों से रहित हो तो मंडली में भोजन करें। यदि मंडली का स्थान न हो और तरुण स्त्रियां बलपूर्वक या प्रेमवश वहां आती हों तो प्रत्येक साध्वी कमढक (पात्रविशेष) में भोजन करे। मंडलिस्थविरा साध्वी सबको भोजन परोसे। २०७७.ओगाहिमाइविगई, समभाग करेइ जत्तिया समणी। ___तासिं पच्चयहेडं, अणहिक्खट्ठा अकलहो अ॥ जितनी साध्वियां हों उन सबको समभाग में पक्वान्न तथा विकृति (घृत आदि) दे। उन सभी साध्वियों के प्रत्यय के लिए न अधिक और न कम-अविषमतया सबको परोसे। इससे कलह का वर्जन होता है। २०७८.निव्वीइय एवइया, व विगइओ लंबणा व एवइया। अण्णगिलायबिलिया, अज्ज अहं देह अन्नासिं॥ भोजन मंडली में बैठी हुई साध्वियों में से एक साध्वी कहती है-आज मैं निर्विकृतिक हूं। दूसरी कहती है-आज मुझे इतनी ही विकृतियां खानी हैं, शेष का त्याग है। तीसरी कहती है-आज मुझे इतने ही कवल लेने हैं। चौथी कहती है-आज मुझे वासी अन्न ही खाना है। पांचवी कहती है-आज मुझे आचाम्ल करना है, अतः ये विकृतियां अन्य साध्वियों को दे दें। इस प्रकार सबको यथेष्ट भोजन करा दिया जाता है। (सभी अपना-अपना भोजनपात्र साफ करती हैं। प्रवर्तिनी का भोजनपात्र छोटी साध्वी साफ करती है।) २०७९.दट्ठण नियवासं, सोयपयत्तं अलुद्धयत्तं च। इंदियदमं च तासिं, विणयं च जणो इमं भणइ॥ आर्यिकाओं का सौहार्दपूर्ण एकत्र अवस्थिति, शौचप्रयत्न (वारकग्रहणरूप), अलुब्धत्व, इन्द्रियदमन तथा परस्पर विनय-व्यवहार देखकर लोग कहते हैं२०८०.सच्चं तवो य सीलं, अणहिक्खाओ अ एगमेगस्स। ___ जइ बंभं जइ सोयं, एयासु परं न अन्नासु॥ २०८१.बाहिरमलपरिछुद्धा, सीलसुगंधा तवोगुणविसुद्धा। धन्नाण कुलुप्पन्ना, एआ अवि होज्ज अम्हं पि॥ इन आर्यिकाओं में जैसी कथनी-करनी की सत्यता है, तप, शील, अनधिकस्वाद अस्वादवृत्ति, परस्परता, ब्रह्मचर्य तथा शौच है, वह परम है, संन्यासिनियों में वैसा नहीं है। यद्यपि ये बाह्यमल से उपेत हैं परंतु शील से सुगंधित तथा Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ तोगुण से विशुद्ध हैं। इनका जिन कुलों में जन्म हुआ है, वे धन्य हैं। हमारे कुल की बहु-बेटियां भी ऐसी हों। २०८२. एवं तत्य वसंतीणुवसंतो सो व सिं अमारिजणो । गिण्हेति य सम्मत्तं, मिच्छत्तपरम्मुहो जाओ ॥ इस प्रकार उन आर्यिकाओं के रहने से वह ( वसति स्वामी) गृहस्थ भी उपशांत अर्थात् प्रतिबुद्ध होकर, मिथ्यात्व से हो सम्यक्त्व को ग्रहण कर लेता है। पराङ्मुख २०८३. तरुणीण अभिद्दवणे, संवरितो संगतो निवारेइ । तह विय अठायमाणे, सागारिओ तत्थुवालभइ ॥ प्रत्यनीक व्यक्ति द्वारा तरुणी साध्वी को अभिद्भुत करने पर, संयतवेशधारी मुनि उसे निवारित करता है। यदि वह नहीं मानता है तो शय्यातर उसको उपालंभ देता है, उसका निग्रह करता है। २०८४. गणिणिअकहणे गुरुगा, सा वि य न कहेइ जइ गुरूणं पि सिद्धम्मि य ते गंतुं, अणुसट्टी मित्तमाईहिं ॥ इस प्रकार उपद्रुत होने पर यदि साध्वियां गुरुणी को नहीं कहती हैं तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। यदि गुरुणी आचार्य को नहीं कहती है तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। गुरुणी द्वारा निवेदन करने पर आचार्य उस व्यक्ति के पास जाकर साध्वियों के प्रति किए जाने वाले अभद्र व्यवहार के दारुण विपाक की बात उसे समझाते हैं इतने पर भी वह यदि शांत नहीं होता है तो उसके मित्रों या परिजनों को बात बताते हैं इतने पर वह शांत हो जाता है तो ठीक है। २०८५. तह विय अठायमाणे, वसभा भेसिंति तहवि य अठते । अमुगत्थ घरे एज्जह, तत्थ य वसभा वतिणिवेसा ॥ २०८६. सागारिए असंते, किच्चकरे भोइयस्स व कहिंति । अण्णत्थ ठाण णिती, खेत्तस्सऽसति णिवे चैव ॥ वह यदि अपनी कुचेष्टा नहीं रोकता तो वृषभ मुनि उसे डराते हैं। यदि वह न माने तो धनुर्विद् कोई मुनि संयती का वेश धारण कर उसे कहता है-अमुक व्यक्ति के घर पर मिलने आ जाना। वहां अनेक वृषभ मुनि साध्वियों का वेश बनाकर उसे समझाते हैं। वह समझ जाए तो अच्छा है, अन्यथा गृहस्थ को कहते हैं। यदि कोई गृहस्थ न हो तो कृतकर - ग्रामचिंता के लिए नियुक्त भोजिक को कहते हैं। उससे भी यदि वह उपशांत नहीं होता तो संयती को अन्य स्थान क्षेत्र में ले जाते हैं। यदि उपयुक्त क्षेत्र न हो तो राजा को निवेदन करना चाहिए। राजा उस प्रत्यनीक का निग्रह करता है। २०८७, दो थेरि तरुणि बेरी, चउरो अ अणुग्घाया, बृहत्कल्पभाष्यम् दोत्रिय तरुणीउ एक्छिया तरुणी सत्य वि आणाइणो दोसा ॥ यदि दो स्थविराएं अथवा एक तरुणी और एक स्थविरा, अथवा दो तरुणियां अथवा एक स्थविरा अथवा एक तरुणीये यदि भिक्षा के लिए इस प्रकार निर्गमन करती हैं तो चार अनुद्घात (गुरु) मास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं शिष्य प्रश्न करता है क्यों? २०८८. चउकण्णं होज्ज रहे संका दोसा व थेरियाणं पि कुट्टिणिसहिता बितिए, तइय- चउत्थीसु धुत्ति त्ति ॥ रहस्य चार कानों तक रहस्य रह सकता है। दोनों स्थविरा साध्वियां भिक्षा के लिए जाती है तो लोगों को शंका हो सकती है कि ये किसी व्यक्ति द्वारा दृति कार्य के लिए नियुक्त हो एक तरुणी और एक स्थविरा साथ हो तो लोग कहते हैं - यह कुट्टिणी के साथ घूम रही है। दो तरुण साध्वियां हों तो लोग कहते हैं ये दूतियां हैं। एक स्थविरा भी दूती मानी जाती है और एक तरुणी साध्वी भी तर्कणीय होती है। २०८९. पुरतो व मग्गतो या, थेरीओ मज्झ होंति तरुणीओ। अहगमणे निग्गमणे, एस विही होइ काययो ॥ साध्वियों की गमनविधि यह है आगे और पीछे स्थविरा साध्वियां हों, मध्य में तरुण साध्वियां हों - यह विधि गृहस्थ के घर में प्रवेश करने और निर्गमन के समय की है। २०९०. तिगमादसंकणिज्जा, अन्नोन्नरक्खणेसण, वीसत्थपवेसकिरिया य ॥ तीन आदि साध्वियां अशंकनीय होती हैं तथा श्वान, तरुणों के लिए अनभिलषणीय होती हैं। परस्पर वे अपनी रक्षा भी कर सकती हैं, एषणा की शुद्धि कर सकती हैं तथा विश्वस्त होकर गृहस्थ के घर में प्रवेश और निर्गमन कर सकती हैं। अतक्कणिज्जा य साण-तरुणाणं । २०९१. थेरी कोट्टगदारे, तरुणी पुण होइ तीए णादूरे। विश्य किती ठाइ वहिं पञ्चत्थियरक्खणट्टाए ॥ एक स्थविर साध्वी कोठे के द्वार पर, तरुणी साध्वी उससे अधिक दूरी पर न जाए। एक स्थविर साध्वी कोठे के द्वार से बाहर खड़ी रहे । यह इसलिए कि प्रत्यनीक से तरुण साध्वी की रक्षा की जा सके। यदि प्रत्यनीक कुछ अभद्र . Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक व्यवहार करता है तो वह सुखपूर्वक चिल्ला कर लोगों को इकट्ठा कर सकती है। २०९२.जाणंति तब्विह कुले, संबुद्धीए चरिज्ज अन्नोन्नं। ओराल निच्च लोय, खुज्ज तवो आउल सहाया॥ वे वैसे कुलों को जानती हैं जहां उपद्रव संभव होता है, जानकर वे उसे पहले ही छोड़ देती हैं। वे परस्पर सम्मत होकर भिक्षाचर्या में पर्यटन करती है। जो रूपवती साध्वी हो, वह प्रतिदिन अपना लुंचन करे। उसके पीछे कुब्जा की स्थापना करे और उस साध्वी को तपस्या कराए और जनाकीर्ण स्थानों में अनेक साध्वियों के साथ उसे भिक्षा के लिए भेजे। २०९३.तिप्पभिइ अडतीओ, गिण्हतऽन्नन्नहिं चिमे तिन्नि। संजम-दव्वविरुद्धं, देहविरुद्धं च जं दव्वं॥ तीन आदि के समूह में भिक्षा के लिए जाने पर ये तीन प्रकार के द्रव्य वे पृथक्-पृथक् पात्रों में ले सकती हैं-संयमविरुद्ध, द्रव्यविरुद्ध और देहविरुद्ध जो द्रव्य हो उसे। २०९४.पालंक-लट्टसागा, मुग्गकयं चाऽऽमगोरसुम्मीसं। संसज्जती उ अचिरा, तं पि य नियमा दुदोसाय॥ महाराष्ट्र देश में प्रसिद्ध पालंकशाक, लट्टाशाक-कौसुंभ- शालनक-इनको परस्पर मिलाने से सूक्ष्मजंतु उत्पन्न हो जाते हैं। मुद्गकृत अथवा द्विदल का शाक कच्चे दूध के साथ मिलाने पर, उसमें शीघ्र की सूक्ष्म जंतु उत्पन्न हो जाते हैं। जन्तुओं से संसक्त होने पर नियमतः दो दोष होते हैंसंयमोपघात और आत्मोपघात। २०९५.दहि-तेल्लाई उभयं, पय-सोवीराउ होति उ विरुद्धा। देहस्स विरुद्धं पुण, सी-उण्हाणं समाओगो॥ दही और तैल, दूध और कांजी-परस्पर मिलाने पर विरुद्ध होते हैं-यह द्रव्यविरुद्ध है। शीत और उष्ण द्रव्यों का परस्पर समायोग देहविरुद्ध होता है। इन द्रव्यों को पृथक-पृथक लेने पर संयमादि के उपघात के लिए नहीं होते। २०९६.नत्थि य मामागाई, माउग्गामो य तासिमब्भासे। सी-उण्हगिण्हणाए, सारक्खण एक्कमेक्कस्स॥ वहां कोई मामक कुल-मेरे घर में प्रवेश न करें, ऐसा निषेध करने वाले कुल-नहीं है। मातृग्राम-स्त्रीवर्ग ही प्रायः भिक्षा देता है अतः साध्वियों के साथ उनका संबंध निकटता का होता है। तीन आदि साध्वियों का साथ में भिक्षाटन करने से शीत तथा उष्ण द्रव्य लेने में तथा उनका संरक्षण करने में परस्पर सहयोग हो जाता है। २०९७.एगत्थ सीयमुसिणं, च एगहिं पाणगं च एगत्था। दोसीणस्स अगहणे, चिराडणे होज्जिमे दोसा॥ एक पात्र में शीत अर्थात् पर्युषित भक्त लेती हैं और एक में उष्ण। एक पात्र में पानक ग्रहण करती हैं। अतः तीन साध्वियों का साथ घूमना उचित है। यदि दोषान्न का ग्रहण नहीं किया जाता है तो चिरकाल तक घूमते रहने से ये दोष होते हैं। २०९८.थी पुरिसो अ नपुंसो, वेदो तस्स उ इमे पगारा उ। फुफुम-दवग्गिसरिसो, पुरदाहसमो, भवे तइओ। वेद तीन प्रकार का होता है-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद। इन तीनों के क्रमशः ये प्रकार हैं-फुफुमाग्नितुल्य करीषाग्निसदृश, दवाग्निसदृश, पुरदाहसम-तीसरा होता है। (करीषाग्नि अन्तर् में धग धग जलती है, न स्पष्टरूप से जलती है और न बुझती है। चालित होने पर तत्काल उद्दीप्त हो जाती है-ऐसा होता है स्त्रीवेद। जैसे दवाग्नि इंधन के योग से जलती है, अन्यथा बुझ जाती हैऐसा होता है पुरुषवेद। जैसे नगरदाह सर्वत्र दीप्त होता है, वैसे ही नपुंसकवेद भी स्त्री या पुरुष सर्वत्र उद्दीस होता है।) २०९९.जह फुफुमा हसहसेइ घट्टिया एवमेव थीवेदो। दिप्पइ अवि किढियाण वि, आलिंगण-छे (छं) दणाईहिं॥ जैसे फुफुकाग्नि चालित होने पर हसहसेइ-दीप्त होती है, इसी प्रकार स्त्रीवेद भी आलिंगन, निमंत्रण आदि से दीस होता है। स्थविर स्त्री के भी वह दीप्त होता है तो तरुण स्त्री की तो बात ही क्या! २१००.न वओ इत्थ पमाणं, न तवस्सित्तं सुयं न परियाओ। अवि खीणम्मि वि वेदे, थीलिंगं सव्वहा रक्खं॥ वेदोदय के लिए न अवस्था प्रमाण है, न तपस्या, न श्रुत और न संयमपर्याय। वेद के सर्वथा क्षीण हो जाने पर भी स्त्रीलिंग की सर्वथा रक्षा करनी चाहिए। (इसीलिए स्त्रीकेवली भी आर्यिका के प्रायोग्य प्रावरण आदि को धारण करती है।) २१०१.कामं तवस्सिणीओ, पहाणुव्वट्टणविकारविरयाओ। तह वि य सुपाउआणं, अपेसणाणं चिमं होइ।। शिष्य पूछता है-आर्यिकाएं इतनी यतना क्यों करती है? आचार्य कहते हैं-यह अनुमत है कि तपस्विनी आर्यिकाएं स्नान, उर्द्धतन आदि नहीं करतीं और वे विकार से रहित होती हैं, फिर भी वे उचितरूप से आच्छादित रहती १. माउग्गामो त्ति समयपरिभाषया स्त्रीवर्गः। (वृ. पृ. ६०४) Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ =बृहत्कल्पभाष्यम् हैं। वे अव्याप्त होती हैं, फिर भी उनका यह सौन्दर्य विशेष यह है कि वे अभ्यन्तर और बाहिरिका दोनों में चार होता हैं मास पूरा करें। २१०२.रूवं वन्नो सुकुमारया य निद्धच्छवी य अंगाणं। २१०७.चउण्हं उवरि वसंती, पायच्छित्तं च होति दोसा य। होति किर सन्निरोहे, अज्जाण तवं चरंतीणं॥ नाणत्तं असईए उ, अंतो वसही बहिं चरइ। रूप, वर्ण, कोमलस्पर्श तथा उनके शरीर के अवयवों की यदि चार मास से अधिक निवास होता है तो वही स्निग्ध चमड़ी होती है। अनेक उपकरणों से आच्छादित होने पूर्वोक्त प्रायश्चित्त और दोष प्राप्त होते हैं। अपवादपद भी पर भी तथा तपस्या करते रहने पर भी यह रूप, लावण्य पूर्वोक्त ही है। नानात्व अर्थात् विशेष यह है यदि बाहिरिका आदि होता है, अतः वह यतना युक्त है। में शय्यातर और वसति प्रायोग्य न हो तो उसके अभाव २१०३.नइ वि य महव्वयाई, निग्गंथीणं न होति अहियाई। में आभ्यन्तर वसति में रहे और भिक्षाचर्या बाहिरिका में तह वि य निच्चविहारे, हवंति दोसा इमे तासिं॥ ही करे। (शिष्य ने पूछा साधुओं को एकत्र एक मास और २१०८.जोग्गवसहीइ असई, तत्थेव ठिया चरिंति बाहिं तु। साध्वियों को दो मास रहने की अनुज्ञा क्यों? क्या उनके पुव्वगहिए विगिंचिय, तत्तो च्चिय मत्तगादी वि॥ महाव्रत अधिक हैं ?) आचार्य कहते हैं-यद्यपि आर्यिकाओं के बाहिरिका में साध्वियों के प्रायोग्य वसति के अभाव में महाव्रत अधिक नहीं होते, फिर भी नित्यविहार अर्थात् प्रत्येक आभ्यन्तर वसति में रहकर बाहिरिका में भिक्षाचारी करे। मास में क्षेत्र-संक्रमण से ये दोष होते हैं पूर्वगृहीत मात्रक, डगलक, तृण आदि का परित्याग कर, २१०४.मसाइपेसिसरिसी, वसही खेत्तं च दुल्लभं जोग्गं। बाहिरिका से ही दूसरे मात्रक, तृण आदि लाने चाहिए। एएण कारणेणं, दो दो मासा अवरिसासु॥ २१०९.गच्छे जिणकप्पम्मि य, आर्यिकाएं मांसादि पेशी के सदृश होती हैं। उनके दोण्ह वि कयरो भवे महिड्डीओ। प्रायोग्य क्षेत्र और वसति दुर्लभ होती है। इन कारणों से निप्फायग-निप्फन्ना, चातुर्मास के सिवाय अन्य काल में एकत्र निवास के दो-दो दोन्नि वि होती महिड्डीया॥ मास की अनुज्ञा है। शिष्य ने पूछा-गच्छ और जिनकल्पी मुनि के मध्य २१०५.दोण्हं उवरि वसंती, पायच्छित्तं च होति दोसा य। कौन महर्द्धिक होता है? आचार्य ने कहा-निष्पादक और बिइयपयं च गिलाणे, वसही भिक्खं च जयणाए॥ निष्पन्न की अपेक्षा दोनों महर्द्धिक हैं। गच्छ सूत्रार्थ का यदि आर्यिकाएं दो मास से एक स्थान में अधिक रहती प्रदाता है। उसी के आधार पर जिनकल्प होता है। गच्छ हैं तो प्रायश्चित्त आता है तथा अनेक दोष होते हैं। अपवाद । जिनकल्पत्व का निष्पादक होने के कारण महर्द्धिक है। पद में ग्लान के प्रति वसति और भिक्षा यतनापूर्वक लेनी जिनकल्प ज्ञान-दर्शन-चारित्र में परिनिष्ठित होता है, चाहिए। इसलिए वह महर्द्धिक है। २११०.दसण-नाण-चरित्ते, जम्हा गच्छम्मि होइ परिखुट्टी। से गामंसि वा जाव रायहाणिंसि वा एएण कारणेणं, गच्छो उ भवे महिड्डीओ।। सपरिक्खेवंसि सबाहिरियंसि कप्पइ गच्छ में दर्शन, ज्ञान और चारित्र की परिवद्धि होती है। निग्गंथीणं हेमंत-गिम्हासु चत्तारि मासा इसलिए गच्छ महर्द्धिक है। वत्थए-अंतो दो मासे, बाहिं दो मासे। २१११.पुरतो व मग्गतो वा, जम्हा कत्तो वि नत्थि पडिबंधो। अंतो वसमाणीणं अंतो भिक्खायरिया, एएण कारणेणं, जिणकप्पीओ महिड्डीओ।। बाहिं वसमाणीणं बाहिं भिक्खायरिया॥ आगे या पीछे जिसके कोई प्रतिबंध नहीं होता, जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से प्रतिबंधमक्त होते हैं-इन कारणों से (सूत्र ९) जिनकल्प महर्द्धिक होता है। २१०६.एसेव कमो नियमा, सपरिक्खेवे सबाहिरीयम्मि। २११२.दीवा अन्नो दीवो, पइप्पई सो य दिप्पइ तहेव। नवरं पुण नाणतं, अंतो बाहिं चउम्मासा॥ सीसो च्चिस सिक्खंतो, आयरिओ होइ नऽन्नत्तो॥ यही पूर्व सूत्रोक्त क्रम नियमतः सपरिक्षेप तथा एक दीपक से दूसरा दीपक जलाया जाता है और पूर्व सबाहरिका क्षेत्र में रहने वाली आर्यिकाओं के लिए है। दीपक भी प्रद्योतित रहता है, इसी प्रकार शिक्षमाण शिष्य ही Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक आचार्य होता है, अन्य प्रकार से नहीं । अतः स्थविरकल्पिक मुनि ही तपः आदि भावनाओं से भावित होता हुआ क्रमशः जिनकल्प को स्वीकार करता है, अन्यथा नहीं। २११३. दिवंतो गुहासीहे, दोन्नि य महिला पया य अपया य । गावीण दोत्रि वग्गा, सावेक्खो चैव निरवेक्खो || पूर्वोक्त गाथा के समर्थन में तीन दृष्टांत हैं१. गुफावासी सिंह | २. दो महिलाएं - एक पुत्रवती, दूसरी निःसंतान । ३. गायों के दो वर्ग एक सापेक्ष और दूसरा निरपेक्ष । २११४. सी पाले गुहा, अविहार्ड तेण सा महिड्डीया । तस्स पुण जोव्वणम्मिं, पओअणं किं गिरिगुहाए ॥ सिंहशिशु का पालन-रक्षण गुफा करती है, इसलिए गुफा महर्द्धिक है। जब सिंहशिशु यौवन को प्राप्त कर पूर्ण शक्तिसंपन्न हो जाता है तब उस गिरिगुफा का क्या प्रयोजन। अब सिंह महर्द्धिक है। २११५. दव्वावइमाईसुं कुसीलसंसग्गि - अन्नउत्थीहिं । रक्खइ गणीपुरोगो, गच्छो अविकोवियं धम्मे ॥ शक्तिसपंन्न आचार्य द्वारा पालित गच्छ सभी प्रकार की द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावगत आपत्तियों से मुनिजन का रक्षा करता है, कुशील तथा अन्यतीर्थिकों के संसर्ग से बचाता है, धर्म में अप्रतिबुद्ध शिष्यों को प्रतिबुद्ध करता है, इसलिए गच्छ महर्द्धिक होता है। २११६.आणा-इस्सरियसुहं, एगा अणुभवइ जइ वि बहुतत्ती । देहस्स य संठप्पं, भोगसुहं चेव कालम्मि ॥ २११७. परवावारविमुक्का, सरीरसक्कारतप्परा निच्वं । मंडण वक्खित्ता, भत्तं पि न चेयई अपया ॥ एक महिला सप्रसवा है। वह प्रसवकाल में बहुत कष्टों का अनुभव करती है और संतान के पालन-पोषण में भी उसे निरंतर व्याप्त रहना होता है परंतु गृहस्वामिनी बनकर वह आज्ञा और ऐश्वर्य का अनुभव करती है और कालान्तर में देह का संस्थापन कर भोगसुख को प्राप्त होती है। दूसरी निःसंतान महिला परव्यापार अर्थात् संतान के पालन-पोषण आदि चिंता से विप्रमुक्त रहती हुई निरंतर शरीर के संस्कार में तत्पर रहती है तथा शरीर के मंडन आदि में व्यस्त रहती हुई भोजन करना भी मूल जाती है। २११८. वेयावच्चे चोयण वारण-वावारणासु य बहूसु । एमादीवक्खेवा, सययं झाणं झाणं न गच्छम्मि ॥ १. अविहाडं - देशीभाषया बालकः । (वृ. पृ. ६०८) २१७ गच्छ भी सप्रसवा स्त्री की भांति अनेक कार्यों में व्यापूत रहता है। वैयावृत्त्य में व्यापृत होना होता है। मुनिचर्या में स्खलना करने वाले को नोबना - प्रेरणा देना, अकृत्य की प्रतिसेवना करने वाले को वर्जना, अनेक प्रवृत्तियों में व्यापारणा करनी होती है। ये सब व्याक्षेप हैं। इसलिए गच्छ में सतत ध्यान नहीं हो सकता। २११९. सहूलपोइयाओ, नस्संतीओ वि णेव घेणूओ । मोत्तूणं तण्णगाहं वयंति सपरक्रमाओ वि॥ २१२०. न वि वच्छएस सज्जति वाहिओ नेव वच्छमाऊसु । सबलमगृहंतीओ, नस्संति भएण वग्घस्स ॥ नई ब्याई हुई गायें व्याघ्र से त्रस्त होने पर भी इधरउधर होती हुई भी अपने लघु वत्सों को छोड़कर, समर्थ होने पर भी शीघ्र पलायन नहीं करती, क्योंकि वे अपत्यसापेक्ष हैं। जो धेनू वंध्या होती है, वह न वत्सों में और न वत्सों की माताओं में ममत्व करती है। वह अपने बल का गोपन न कर व्याघ्र के भय से पलायन कर जाती हैं। वह निरपेक्ष होती है। २१२१. आयसरीरे आयरिय बाल वुढेसु आवि सावेक्खा । कुल- गण - संघेसु तहा, चेइयकज्जाइएसुं च ॥ इसी प्रकार गच्छवासी मुनि अपने शरीर के प्रति, आचार्य, बाल, वृद्ध तथा कुल, गण, संघ तथा चैत्य कार्यों में सापेक्ष होते हैं। - २१२२. रयणाय उ गच्छो, निष्फादओ नाण दंसण चरिते । एएण कारणेणं, गच्छो उ उ भवे महिड्डीओ ॥ गच्छ रत्नाकर होता है वह ज्ञान, दर्शन और चारित्र का निष्पादक होता है। इन कारणों से गच्छ महर्द्धिक होता है। २१२३. रवणेसु बहुविहेसुं नीणिज्जंतेसु नेव नीरयणो । अतरो तीरइ काउं, उप्पत्ती सो य रयणाणं ॥ २१२४.इय रयणसरिच्छेसुं विणिग्गएसुं पि नेव नीरयणो । जायइ गच्छो कुणइ य, रयणब्भूते बहू अन्ने ॥ जिसको तैरा नहीं जा सकता, वह अतर होता है। वह है रत्नाकर। अनेक प्रकार के रत्नों को निकालने पर भी उसको रत्नरहित नहीं किया जा सकता क्योंकि वह रत्नों का उत्पादक है। इसी प्रकार गच्छरूपी रत्नाकर भी रत्नसदृश जिन कल्पिकों के विनिर्गत होने पर भी नीरत्न रत्नरहित नहीं हो जाता क्योंकि बाद में भी वह दूसरे मुनियों को रत्नभूत बनाता रहता है। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =बृहत्कल्पभाष्यम् २१८ = एगत्तवासविधिनिसेध-पदं से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा एगवगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणप्पवेसाए नो कप्पइ निग्गंथाण य निग्गंथीण य एक्कतओ वत्थए। (सूत्र १०) २१२५.गाम-नगराइएसुं, तेसु उ खेत्तेसु कत्थ वसियव्वं । जत्थ न वसति समणीमब्भासे निग्गमपहे वा॥ पूर्व सूत्रोक्त ग्राम-नगर आदि क्षेत्रों में कहां रहना चाहिए? सूत्रकार कहते हैं-जहां उपाश्रय के निकट तथा निर्गमपथ में श्रमणियां न रहती हों, वहां रहना चाहिए। २१२६.अहवा निग्गंथीओ, दट्ट ठिया तेसु गाममाईसु। इसु। मा पिल्लेही कोई, तेणिम सुत्तं समुदियं तु॥ अथवा श्रमणियों को वहां ग्राम आदि में स्थित देखकर कोई आचार्य आदि आकर मुनियों को वहां से निकाल दे इस भावना से यह सूत्र प्राप्त है। २१२७.वगडा उ परिक्खेवो, पुव्वुत्तो सो उ दव्वमाईओ। दारं गामस्स मुहं, सो चेव य निग्गम-पवेसो॥ वगड़ा का अर्थ है-ग्राम आदि का परिक्षेप। वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आधार पर चार प्रकार का होता है। वह पहले बताया जा चुका है। (देखें गाथा ११२३ आदि)। द्वार का अर्थ है-गांव का मुंह अर्थात् प्रवेश। वही निर्गम और प्रवेश कहलाता है। २१२८.दारस्स वा वि गहणं, कायव्वं अहव निग्गमपहस्स। जइ एगट्ठा दुन्नि वि, एगयरं बूहि मा दो वि॥ शिष्य कहता है-भंते! द्वार पद का ग्रहण करना चाहिए अथवा निर्गम प्रवेशपथ का ग्रहण करना चाहिए। यदि दोनों पद एकार्थक हैं तो इन दोनों में से किसी एक का कथन करना चाहिए. दो का नहीं। २१२९.एगवगडेगदारा, एगमणेगा अणेग एगा य। चरिमो अणेगवगडा, अणेगदारा य भंगो उ॥ शिष्य के इस प्रकार कथन करने पर आचार्य कहते हैं-प्रस्तुत में वगडा और द्वार के चार विकल्प हैं। १. एक वगडा एक द्वार। जैसे–पर्वत से परिक्षिप्त कोई ग्राम। २.एक वगडा अनेक द्वार। जैसे-प्राकार से परिक्षिप्त चार द्वार वाला नगर। ३.अनेक वगडा एक द्वार। जैसे-पद्मसरोवर आदि से परिक्षिप्त बहुपाटक ग्राम आदि। ४.अनेक वगडा अनेक द्वार। जैसे-पुष्पवाटिकाओं से परिक्षिप्त गृहवाले ग्राम। २१३०.तइयं पडुच्च भंगं, पउमसराईहिं संपरिक्खित्ते। अन्नोन्नदुवाराण वि, हवेज्ज एगं तु निक्खमणं॥ इन चार भंगों में से तीसरे भंग के आधार पर पद्मसर आदि से परिक्षिप्त ग्राम आदि में अनेक पाटकों के भिन्न-भिन्न द्वार होने पर भी एक ही निष्क्रमण होता है। तात्पर्य है कि तीनों दिशओं में पद्मसर आदि के व्याघात के कारण एक ही दिशा में निष्क्रमण-प्रवेश होता है। २१३१.तत्थ वि य होंति दोसा, वीयारगयाण अहव पंथम्मि। संकादीए दोसे, एगवियाराण वोच्छिहिई। तीसरे भंग में भी संज्ञाभूमी में जाते अथवा उसी एक ही मार्ग से प्रवेश-निष्क्रमण करते अनेक दोष होते हैं। एक ही संज्ञा भूमी में जाने वाले श्रमण-श्रमणी के होने वाले शंका आदि दोषों के विषय में स्वयं आचार्य आगे कहेंगे। २१३२.एगवगडं पडुच्चा, दोण्ह वि वग्गाण गरहितो वासो। जइ वसइ जाणओ ऊ, तत्थ उ दोसा इमे होति।। एक वगडा अथवा एक द्वार वाले ग्राम आदि में दोनों वर्गों-श्रमणवर्ग और श्रमणीवर्ग का रहना गर्हित है, निषिद्ध है। जो वर्ग जानबूझकर वहां रहता है तो ये दोष होते हैं। २१३३.एगवगडेगदारे, एगयर ठियम्मि जो तहिं ठाइ। गुरुगा जइ वि य दोसा, न होज्ज पुट्ठो तह वि सो उ॥ एक वगडा और एक द्वार वाले क्षेत्र में पहले एक वर्ग-- श्रमणीवर्ग अथवा श्रमणवर्ग स्थित हों और वहां बाद में आकर कोई ठहरता है उसे चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। यद्यपि वक्ष्यमाण दोष न भी हों, फिर भी उसे भावतः उन दोषों से स्पृष्ट मानना चाहिए। २१३४.सोऊण य समुदाणं, गच्छं आणित्तु देउले ठाइ। ___ठायंतगाण गुरुगा, तत्थ वि आणाइणो दोसा॥ जहां पहले से ही श्रमणीवर्ग स्थित है और वहां समुदान अर्थात् भिक्षा की सुलभता है, यह सुनकर कोई आचार्य गच्छ को लेकर उस क्षेत्र में आकर देवकुल आदि स्थान में ठहर जाते हैं तो उन्हें चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। २१३५.फड्डगपइपेसविया, दुविहोवहि-कज्जनिग्गया वा वि। उवसंपज्जिउकामा, अतिच्छमाणा व ते साहू।। २१३६.संजइभावियखेत्ते, समुदाणेऊण बहुगुणं नच्चा। संपुन्नमासकप्पं, बिंति गणिं पुट्ठऽपट्ठा वा॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक किसी स्पर्द्धकपति (अग्रगामी) ने अपने साधुओं को क्षेत्र- प्रत्युपेक्षण के लिए भेजा। अथवा दो प्रकार की उपधिऔधिक और औपग्रहिक लाने के लिए अथवा कुल-गणसंघ संबंधी कार्य के लिए भेजा। वे मार्ग को पार करते हुए वहां पहुंचे जहां कुछ व्यक्ति उपसंपदा ग्रहण करने वाले थे । वह क्षेत्र श्रमणी भावित था। उन्होंने भिक्षाचर्या में घूमकर जान लिया कि यह क्षेत्र बहुत गुणों वाला है। वे आचार्य के पास आए । आचार्य का मासकल्प संपूर्ण हो चुका था। आचार्य द्वारा पूछे जाने पर या बिना पूछे ही वे कहते हैं 3 २१३७. तुम्भ व पुण्णो कप्पो, न य खेत्तं पेहियं में जं जोन्गं । जं पिय रुइयं तुम्भं न तं बहुगुणं जह इमं तु ॥ भंते! आपका भी मासकल्प पूरा हो गया है। आपके योग्य क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा नहीं की गई है जो क्षेत्र आपको अभिप्रेत है, वह बहुगुण संपन्न नहीं है। हमने जिस क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा की है वह बहुगुण संपन्न है। २१३८. एगोऽथ नवरि दोसो मं पइ सो वि य न बाहए किंचि । न यं सो भावो विज्जइ, अदोसवं जो अनिययस्स ॥ परंतु वहां एक दोष है जो मेरे अभिप्राय से किंचित् भी बाधा उपस्थित नहीं करेगा। जगत् में ऐसा एक भी पदार्थ नहीं है जो अनुधमी व्यक्ति के लिए दोषवान् न हो । २१३९. अहवण किं सिद्वेणं, सिने काहिह न वा वि एवं ति खुडमुहा संति इहं, जे कोविज्जा जिणवई पि ॥ अथवा हमारा इस प्रकार कहने का भी क्या प्रयोजन ? हमारे इस प्रकार कहने पर भी करेंगे या नहीं, हम नहीं जानते। इस गच्छ में मधुमुख - मधुर बोलने वाले आपके प्रिय शिष्य हैं जो जिनवचन को भी अन्यथा कर देते हैं। २१४०. इइ सपरिहास निब्बंधपुच्छिओ बेइ तत्थ समणीओ । बलियपरिग्गहियाओ, होह दढा तत्थ बच्चामो ॥ इस प्रकार उसके परिहासयुक्त वचन को सुनकर आचार्य ने आग्रहपूर्वक पूछा और कहा बोलो- 'दोष क्या है?" शिष्य ने कहा- वहां श्रमणियां हैं जो बलशाली आचार्य द्वारा परिगृहीत हैं । परंतु आप दृढ़ रहें। हम वहां चलें । २१४१. भिक्खू साहइ सोउं, व भणइ जड़ वच्चिमो तहिं मासो लहुगा गुरुगा वसभे , गणिस्स एमेवुवेहाए ॥ यदि भिक्षु ऐसा कहता है अथवा सुनकर भिक्षु ही बोलता है- अच्छा, हम वहां चलें। तो लघुमास का प्रायश्चित्त आता १. सामत्थण - देशीशब्दत्वात् पर्यालोचनं । २१९ है यदि ऋषभ ऐसा कहता है या स्वीकार करता है तो चतुर्लघु और आचार्य स्वयं ऐसा कहते हैं या स्वीकार करते हैं तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। उपेक्षा करने पर यही प्रायश्चित्त है। २१४२. सामत्थण परिवच्छे, गहणे पयभेद पंथ सीमाए । गामे वसहिपवेसे, मासादी भिक्खुणो मूलं ॥ यदि सामत्थण:- पर्यालोचन करते हैं कि वहां जाना चाहिए या नहीं तो मासलघु का तथा परिवच्छ र जाने का निर्णय कर लेते हैं तो मासगुरु का प्रायश्चित्त है। निर्णय कर यदि उपधि ग्रहण करता है तो चतुर्लघु, चल पड़ता है चतुर्गुरु, मार्गगमन में पहलघु, ग्राम की सीमा में जाने से षड्गुरु, गांव में जाने पर छेद, वसति में प्रवेश करने पर मूल इस प्रकार भिक्षु के लिए प्रायश्चित्त विहित है। २१४३.गणि आयरिए सपदं, अहवा वि विसेसिया भवे गुरुगा । भिक्खूमाइचउण्हं, जइ पुच्छसि तो सुणसु दोसे || गणी - उपाध्याय के गुरुमास से प्रारंभ कर स्वपवपर्यन्त अनवस्थाप्य तथा आचार्य के चतुर्लघु से प्रारंभ कर स्वपदपर्यन्त पारांचिक प्रायश्चित है अथवा भिक्षु वृषभउपाध्याय और आचार्य इन चारों के तप और काल से विशेषित चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त विहित है। वहां रहने पर क्या दोष होते हैं यह तुम पूछते हो तो सुनो। २१४४. अनतरस्स निओगा, सव्वेसि अणुप्पिएण वा ते तु । देउल सभ सुन्ने वा निओयपमुहे ठिया गंतुं ॥ भिक्षु या वृषभ - किसी के कथन से अथवा सभी साधुओं की अनुमति से आचार्य उस गांव में जाकर देवकुल, सभागृह, शून्यगृह अथवा ग्राम के मुख-प्रवेश पर रहते हैं तो आने जाने वाले श्रमण श्रमणियों के परस्पर दर्शन से अनेक दोष होते हैं। २१४५. दुचिहो य होइ अग्गी, दव्वग्गी चेव तह य भावग्गी । दव्वग्गिम्मि अगारी, पुरिसो व घरं पलीवेंतो ॥ अग्नि के दो प्रकार हैं-द्रव्याग्नि और भावाग्नि । स्त्री या पुरुष द्रव्याग्नि को प्रदीप्त कर घर को जलाता हुआ अपना सर्वस्व जला डालता है, इसी प्रकार साधु-साध्वी परस्पर मदनाग्नि में अपना सर्वस्व जला डालते हैं। २१४६. तत्व पुण होइ दब्बे, डहणावीणेगलक्खणी अग्गी। नामोदयपच्चइयं, दिप्पs देहं समासज्ज ॥ दोनों अग्नियों के मध्य द्रव्याग्नि की परिभाषा यह है-जो दहन आदि लक्षण वाली होती है वह द्रव्य अग्नि है। देह २. परिवच्छ- देशीशब्दोऽयं निर्णयार्थे ॥ (वृ. पृ. ६१५) Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० = अर्थात् इन्धन को प्राप्त कर, नामोदय के उदय से जो दीप्त होती है वह द्रव्य अग्नि है। २१४७.दव्वाइसन्निकरिसा, उप्पन्नो ताणि चेव डहमाणो। दव्वग्गि त्ति पवुच्चइ, आदिमभावाइजुत्तो वि॥ द्रव्य तथा पुरुष के पराक्रम के समायोग से उत्पन्न तथा काष्ठ आदि द्रव्यों को जलाने वाली द्रव्याग्नि होती है। यद्यपि वह आदिमभाव अर्थात् औदयिकभाव अग्निनामकर्मोदय तथा पारिणामिक भाव से युक्त होती है, फिर भी वह द्रव्य अग्नि कहलाती हैं। (द्रव्य से उत्पन्न अथवा द्रव्यों का दहन करने वाली द्रव्याग्नि।) २१४८.सो पुण इंधणमासज्ज दिप्पती सीदती य तदभावा। नाणत्तं पि य लभए, इंधण-परिमाणतो चेव॥ वह द्रव्याग्नि इंधन को प्राप्त कर दीप्त होती है, और उसके अभाव में बुझ जाती है। इंधन और उसके परिमाण के आधार पर वह विशेषता को प्राप्त होती है। (इंधन से जैसे-- तृणाग्नि, काष्ठाग्नि आदि और परिमाण से जैसे-महान् तृण के आधार पर महान् अग्नि और अल्प के आधार पर अल्प अग्नि ) २१४९.भावम्मि होइ वेदो, इत्तो तिविहो नपुंसगादीओ। जइ तासि तयं अत्थी, किं पुण तासिं तयं नत्थी॥ वेद भावाग्नि है। वह तीन प्रकार का है-नपुंसक वेद आदि। यदि साध्वियों में वह हो तो अग्नि का दृष्टांत सफल होता है। परंतु उनमें वह नहीं होता तो फिर वह दृष्टांत कैसे लागू होगा। २१५०.उदयं पत्तो वेदो, भावग्गी होइ तदुवओगेणं। भावो चरित्तमादी, तं डहई तेण भावग्गी॥ यदि स्त्रीवेद का उदय हो और उसका उपयोग अर्थात् पुरुष की अभिलाषारूप निमित्त मिले तो वह भावाग्नि होती है। भाव है चारित्र आदि का परिणाम। उस भाव को वह जलाती है, इसलिए भावाग्नि कही जाती है। २१५१.जह वा सहीणरयणे, भवणे कासइ पमाय-दप्पेणं। डझंति समादित्ते, अणिच्छमाणस्स वि वसूणि॥ २१५२.इय संदसण-संभासणेहिं संदीविओ मयणवण्ही। ___ बंभादीगुणरयणे, डहइ अणिच्छस्स वि पमाया॥ रत्नों से परिपूर्ण अपने स्वाधीन भवन में प्रमाद या दर्प से अग्नि प्रदीप्त हो जाती है तो गृहस्वामी के न चाहने पर भी रत्न जल जाते हैं। इसी प्रकार परस्पर अवलोकन, बातचीत से मदनाग्नि प्रदीप्त हो जाती है और साधु-साध्वी के न चाहने पर भी प्रमादवश वह अग्नि ब्रह्मचर्य आदि गुणरत्नों को जला डालती है। =बृहत्कल्पभाष्यम् २१५३.सुक्खिंधण-वाउबलाऽभिदीवितो दिप्पतेऽहियं वण्ही। दिदिधण-रागानिलसमीरितो ईय भावग्गी॥ जैसे शुष्क इन्धन वाली अग्नि वायुबल से अभिदीप्त होकर अधिक दीप्त हो जाती है, वैसे ही दृष्टिरूपी इन्धन वाली अग्नि रागरूप अनिल के द्वारा उद्दीपित होकर भावाग्नि भी अत्यधिक दीप्त हो जाती है। २१५४.लुक्खमरसुण्हमनिकामभोइणं देहभूसविरयाणं। सज्झाय-पेहमादिसु, वावारेसुं कओ मोहो॥ शिष्य का प्रश्न था कि जो साधु-साध्वी रूक्ष, अरस, अनुष्ण तथा परिमित भोजन करने वाले होते हैं और वे शरीर की भूषा से विरत तथा स्वाध्याय और प्रत्युपेक्षण आदि कार्यों में व्याप्त होते हैं, उनके मोह-वेद का उदय कैसे संभव हो सकता है? २१५५.नियणाइलुणणमद्दण, वावारे बहुविहे दिया काउं। सुक्ख सुढिया वि रत्तिं, किसीवला किं न मोहंति॥ कृषक दिन में निदान, लवन, मर्दन आदि बहुविध कार्यों में व्याप्त होते हैं। वे शुष्क और श्रान्त हो जाते हैं। क्या वे रात्री में मोहग्रस्त नहीं होते? होते ही हैं। २१५६.जइ ताव तेसि मोहो, उप्पज्जइ पेसणेहिं सहियाणं। अव्वावारसुहीणं, न भविस्सइ किह णु विरयाणं॥ यदि विविध कार्यों से युक्त कृषक भी मोहग्रस्त होते हैं तो विरत व्यक्तियों-मुनियों के जो व्यापार से मुक्त हैं, सुखी हैं, उनके मोह का उदय क्यों नहीं होगा? २१५७.कोई तत्थ भणिज्जा, उप्पन्ने संभिउं समत्थो ति। सो उ पभू न वि होई, पुरिसो व घरं पलीवंतो॥ कोई कह सकता है कि मोह के उदित होने पर भी मैं उसका निरोध कर सकता हूं। गुरु कहते हैं-समय पर वह निरोध करने में समर्थ न हो तो पुरुष की भांति वह अपने घर को जला डालता है। २१५८.कामं अखीणवेदाण होइ उदओ जहा वदह तुब्भे। तं पुण जिणामु उदयं, भावण-तव-नाणवावारा।। २१५९.उप्पत्तिकारणाणं, सब्भावम्मि वि जहा कसायाणं। न ह निग्गहो न सेओ, एमेव इमं पि पासामो॥ शिष्य ने कहा-भंते! आपने जो कहा, हमने उसे अवधारित कर लिया। अपने कहा कि जिनका वेद क्षीण नहीं हुआ है, उनके मोहोदय होता है। हम भावना, तप तथा ज्ञान की प्रवृत्तियों से मोहोदय पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। मोहोदय के उत्पत्ति कारणों के सद्भाव में भी, जैसे कषायों का निग्रह श्रेयान नहीं है-ऐसा नहीं है किन्तु वह श्रेयस्कर ही है, इसी प्रकार प्रस्तुत प्रसंग को भी देखते हैं। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक २१६०, पहरण जाणसमग्गो, सावरणो वि ह छलिज्जई जोहो । वालेण य न छलिज्जइ, ओसहहत्यो वि किं गाहो । जैसे युद्धस्थल में शस्त्रों तथा वाहन आदि से सुसज्जित तथा कवच आदि से सुरक्षित योद्धा भी क्या शत्रु योद्धा से नहीं छला जाता ? किन्तु छला जाता है, मारा जाता है। क्या औषधियों से युक्त ग्राह- गारुडिक दुष्ट सर्प से नहीं छला जाता ? छला जाता है। वैसे ही मुनिचर्या में संलग्न मुनि भी स्त्रीदर्शन आदि से मोहग्रस्त होकर छला जाता है। २१६१. उदगघडे वि करगए, किमोगमादीवितं न उज्जलइ । अइइद्धो वि न सक्कर, विनिव्ववेउं कुडजलेणं ॥ एक व्यक्ति के हाथ में पानी से भरा हुआ पड़ा है। फिर भी क्या अग्नि से प्रज्वलित गृह नहीं जलेगा ? अतिदीप्स वह अग्नि एक घड़े पानी से नहीं बुझ पाएगी। २१६२. ढासंपत्ती व हु, न खमा संदेहियम्मि अत्थम्मि । नायकए पुण अत्थे, जा वि विवत्ती स निहोसा ॥ जिस अर्थ प्रयोजन की निष्पत्ति संदेहास्पद हो, वहां ढा-यथेष्ट संपत्ति भी श्रेयस्कर नहीं होती । प्रस्तुत प्रसंग में संयतीक्षेत्र में जाना अश्रेयस्कर होता है वहां जाने का प्रयोजन संदिग्ध है, अतः वहां जाना श्रेयस्कर नहीं हो सकता अर्थ प्रयोजन निर्दोष रूप से ज्ञात हो और वहां कोई विपत्ति भी आ जाए तो वह निर्दोष ही मानी जाती है। २१६३. दूरेण संजईओ, अस्संजइआहि उबहिमाहारो । जह मेलणाए दोसो, तम्हा रनम्मि बसियव्वं ॥ शिष्य ने कहा- दूर अर्थात् पृथग् वसति में रहने वाली साध्वियों का परिहार किया जा सकता है। परंतु गृहणियों के संसर्ग का परित्याग नहीं किया जा सकता, क्योंकि उनसे ही उपधि और आहार की प्राप्ति होती है। यदि संसर्ग का ही दोष है तो मुनियों को अरण्य में वास करना चाहिए । २१६४. रत्रे वि तिरिक्खीतो, परिन्न दोसा असंतती यावि लब्भीय कूलवालो, गुणमगुणं किं व सगडाली ॥ आचार्य बोले- वत्स! अरण्य में भी तियंच स्त्रियां रहती हैं। परिज्ञा- भक्तप्रत्याख्यान के दोष होते हैं। प्रव्राजना के अभाव में शिष्य प्रशिष्य आदि नहीं होते। कूलबाल अरण्य में रहता हुआ कौन से गुण को प्राप्त किया? शाकटालि-स्थूलभद्रस्वामी गणिका के घर में रहता हुआ भी कौन से अगुण का प्राप्त कर डाला ? २१६५. करसह विवित्तवासे, विराहणा दुन्नए अभेदो वा । जह सगडालि मणो वा तह बिइओ किं न रुंभिसु ॥ १. दृष्टान्त के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. ७१ । २२१ किसी-किसी मुनि के एकान्तवास में रहते हुए भी ब्रह्मचर्य की विराधना हो जाती है और किसी के दुर्नय-स्त्रीसंसक्त प्रतिश्रय में रहते हुए भी ब्रह्मचर्य का भेद नहीं होता। जैसे शाकटालि-स्थूलभद्रस्वामी ने स्त्रीसंसर्ग में रहते हुए भी अपने मन का निरोध किया, वैसे द्वितीय - सिंहगुफावासी मन का निरोध क्यों नहीं कर सका ? २१६६. होज्ज न वा वि पभुत्तं, दोसाययणेसु वट्टमाणस्स । चूयफलदोसवरिसी चूयच्छायं पि बज्जेइ ॥ दोष लगने के स्थानों में भी रहते हुए किसी का मन के निरोध में सामर्थ्य हो या न हो, फिर भी उन स्थानों का वर्जन करना चाहिए। जैसे आम्रफल के भक्षण में दोष देखने वाला आम्र की छाया का भी वर्जन करता है। २१६७. इत्थीणं परिवाडी, कायव्वा होइ आणुपुव्वीए । परिवाडीए गमणं, दोसा य सपक्खमुप्पन्ना ॥ स्त्रियों (तिर्यंच स्त्रियों) की परिपाटी, आनुपूर्वी से करनी चाहिए । परिपाटी में गमन । दोष स्वपक्ष से उत्पन्न होते हैं। (इसका विस्तृत अर्थ आगे ।) २१६८. एगखुर- दुखुर - गंडी - सणप्फइत्थीसु चेव परिवाडी । बद्धाण चरंतीणं, जत्थ भवे वग्गवग्गेसु ॥ २१६९. तत्थऽन्नतमो मुक्को, सजाइमेव परिधावई पुरिसो । पासगए वि विवक्खे, चरइ सपक्खं अवेक्खतो ॥ एक खुरा घोड़ी आदि विखुरा- गाय, भैंस आदि, गंडीपदा - हथिनी आदि, सनखपदा-कुत्ती आदि ये सब पृथक्-पृथक् समूह में बंधी हुई हैं अथवा चर रही हैं, वहां इनमें से किसी पशुजाति के पुरुष को मुक्त किया जाए तो वह इन सबमें से स्वजाति की स्त्री के पास ही जाएगा। विपक्ष की पशुस्वी के पार्श्वस्थित होने पर भी वह पशुपुरुष स्वपक्ष स्त्री की अपेक्षा रखता हुआ चरता है, परन्तु विपक्ष पशुस्त्री की ओर नहीं दौड़ता । ( इसी प्रकार श्रमण भी श्रमणियों से निःशंक होकर संसर्ग करता है, गृहिणियों से नहीं।) २१७०. आगंतुयदव्वविभूसियं च ओरालियं सरीरं तु । असमंजसो उ तम्हाऽगारित्विसमागमो जइणो ॥ स्त्रियों के शरीर आगंतुकद्रव्य अर्थात् वस्त्र, आभूषण आदि से अलंकृत होता है तथा वह औदारिक होता है अर्थात् स्नान, विलेपन आदि परिकर्म से रूपातिशय वाला होता है, अतः मुनियों का उन गृहिणी स्त्रियों के साथ समागम असमंजसवाला होता है। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ २१७१. अविभूसिओ तवस्सी, निक्कामोऽकिंचणो मयसमाणो । इयगारीसुं समणे, लज्जा भय संथवो न रहो ॥ संयमी मुनि अविभूषित होता है वह तपस्वी, निष्काम, अकिंचन, मृत के सामन होता है अतः ऐसे श्रमण के प्रति स्त्रियों की अवज्ञा होती है। श्रमण गृहस्थ स्त्रियों से लज्जा तथा भय रखते हैं। अतः वह उनसे संस्तव नहीं रख सकता, एकांत में उनसे मिल नहीं सकता। २१७२. निन्यया व सिणेहो, वीसत्थतं परोप्पर निरोहो । दाणकरणं पि जुज्जह, लग्गइ तत्तं च तत्तं च ॥ मुनि की साध्वियों से निर्भयता होती है। दोनों में परस्पर स्नेह होता है, परस्पर विश्वसनीयता होती है. दोनों में निरोध वस्तिनिग्रह होता है, दोनों में परस्पर वस्त्र पात्र आदि का लेन-देन चलता है, अतः जैसे तप्त लोहे से तम लोहा संबंधित हो जाता है, वैसे ही साधु-साध्वी भी निरोध से संतप्त होकर परस्पर संबंधित हो जाते हैं। २१७३. वीयार- भिक्खचरिया - विहार- जइ चे इवंदणादीसुं । 3 कज्जेसुं संपडिताण होंति दोसा इमे दिस्स ॥ विचारभूमी में जाते-आते, भिक्षाचर्या, विहार, यति और चैत्यवंदन आदि कार्य के लिए जाते परस्पर साधु-साध्वी के मिलने से, एक दूसरे को देखने से ये दोष होते हैं। २१७४. दूरम्मि दिट्ठि लहुओ, अमुगो अमुगि ति चउलहू होंति । किकम्मम्मि य गुरुगा, मिच्छत्त पसज्जणा सेसे ॥ साधु-साध्वी यदि दूर से भी एक दूसरे को देख ले तो लघुमास का प्रायश्चित्त आता है यदि परस्पर एक-दूसरे को पहचान लेते हैं कि वह अमुक-अमुक है तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। यदि साध्वी वंदना करती है तो चतुर्गुरु शैक्ष मुनि यह देखकर मिथ्यात्व को प्राप्त होता है। शेष अन्य विशेष व्यक्ति शंकाविष्ट हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है । २१७५ विद्रे संका भोइय घाडिय नाई य गाम बहिया य , चत्तारि छ च्च लहु गुरू, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ साध्वी को साधु के प्रति कृतिकर्म करते हुए देखकर शंका होती है भोजिक ग्रामरक्षक अपनी भार्या को कहता है तो चतुर्लघु, घाटिक-मित्र को कहता है तो चतुर्गुरु, ज्ञातिजनों को कहने पर षड्लघु, अज्ञातीजनों को कहने पर षड्गुरु, ग्राम में कहने पर छेद, गांव के बाहर कहने पर मूल, ग्राम की सीमा में कहने पर अनवस्थाप्य और सीमा के बाहर कहने पर पारंचिक प्रायश्चित आता है। बृहत्कल्पभाष्यम् २१७६. कुवियं नु पसादेती, आओ सीसेण जायए विरहं । आओ तलपन्नविया, पडिच्छई उत्तिमंगणं ॥ २१७७. इइ संकाए गुरुगा, मूलं पुण होइ निव्विसंके तु । सोही वाऽसन्नतरे, लक्ष्गतरी गुरुतरी इरे ॥ यह तर्कणा होती है कि क्या यह साध्वी कुपित साधु की प्रसन्न करना चाहती है ? अथवा मस्तक झुका कर यह एकांत की याचना कर रही है ? अथवा इस साधु द्वारा चुटकी बजाकर प्रज्ञापित किए जाने पर साध्वी शिर नमाकर उसको स्वीकार कर रही है? इन शंकाओं के होने पर चतुर्गुरु, यदि निर्विशंकरूप से यह निश्चित हो जाता है कि साध्वी का कृतिकर्म साधु को प्रसन्न करने के लिए है तो दोनों को मूल प्रायश्चित्त आता है। भोजिक आदि के निकटतम संबंधी के जान लेने पर शोधि है लघुकतर तथा मित्र या ज्ञाति के जान लेने पर वही प्रायश्चित्त गुरुतर हो जाता है। २१७८. विस्ससइ भोइ - मित्ताइएस तो नायओ भवे पच्छा। जह जह बहुजणनायं, करेह तह वहुए सोही । वह भोजिक मित्र आदि में विश्वास करता है अतः कुछ भी गोपनीय नहीं रखता। ज्ञातिजनों को बाद में ज्ञापित करता है जैसे-जैसे यह बात बहुत जनों को ज्ञात करता है, वैसे वैसे प्रायश्चित्त बढ़ता है। २१७९. डिसेहो जम्मि पदे, पायच्छितं तु ठाइ पुरिमषए। निस्संकियम्मि मूलं मिच्छत्त पसज्जणा सेसे ॥ भोजिक ने भोजिका से कहा तब भोजिका उसका प्रतिषेध करती हुई कहती है ऐसा नहीं हो सकता तो प्रायश्चित्त भी उपरत हो जाता है। भोजिका आदि पद में जो प्रतिषेध है, उससे पूर्वपद- शंका आदि में प्रायश्चित्त रहता है। कुपित को प्रसन्न करने के लिए ही कृतिकर्म करती है, यह निःशंकित हो जाने पर मूल प्रायश्चित्त आता है। शेष में मिध्यात्व आदि की प्राप्ति होती है। २१८०. किइकम्मं तीए कयं मा संक असंकणिज्जचित्ताई। न वि भूयं न भविस्सइ, एरिसगं संजमधरं ॥ भोजिका आदि प्रतिषेध यह कह कर करती है-साध्वी ने अमुक प्रयोजन से साधु का कृतिकर्म किया ऐसी आशंका अशंकनीयचित्त में नहीं करनी चाहिए। संयमधारी साधुसाध्वियों में न ऐसा कभी हुआ न होता है और न होगा। २१८१. पढम-बिइयातुरो वा, सइकाल तवस्सि मुच्छ संतो वा । रच्छामुहाइ पविसं, नितो व जणेण दीसिज्जा ॥ कोई मुनि पहले और दूसरे परीषह से क्षुधा और पिपासा से आकुल होकर गांव के रथ्यामुख आदि स्थानों में प्रवेश Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक करे, अथवा कोई तपस्वी मुनि विश्राम करने के लिए वहां प्रवेश करे, अथवा कोई मूर्च्छा को दूर करने के लिए वहां जाए, या कोई भिक्षाटन में थक कर विश्राम करने के लिए वहां जाए तो वे मुनि वहां जाते या लौटते हुए उसको कोई साध्वी देख लेती है अथवा इन्हीं प्रयोजनों से वहां जाती हुई या निर्गमन करती हुई साध्वी को साधु देख लेता है। २१८२. संजओ दिद्रो तह संजई य दोणि वि तहेव संपत्ती । रच्छामुहे व होज्जा, सुन्नघरे देउले वा वि॥ यहां चतुर्भंगी इस प्रकार होती है ९. वहां प्रवेश करते हुए साधु को देखा, साध्वी को नहीं। २. साध्वी को देखा, साधु को नहीं । ३. दोनों को देखा। ४. दोनों को नहीं देखा। जिन कारणों से साधु वहां गया है, उन्हीं कारणों से साध्वी भी वहां गई है। वह स्थान रथ्यामुख या शून्यगृह या देवकुल हो सकता है। । २१८३. वणी पुवपविद्वा, जेणायं पविसते जई इत्य एमेव भवति संका, वइणि दण पविसंतिं ॥ देखने वाले को यह शंका होती है- पहले यहां व्रतिनीसाध्वी प्रविष्ट हुई है इसलिए मुनि इसमें प्रवेश कर रहा है। इसी प्रकार साध्वी को वहां प्रवेश करते हुए देखकर भी यहीं शंका होती है। २१८४. उभयं वा दुदुवारे, दट्टु संगारउ त्ति ते पुण जइ अन्नोन्नं, पासंता तत्थ न वो द्वार वाले देवकुल में दोनों को प्रवेश करते हुए देखकर, गृहस्थ के मन में यह शंका होती है इन दोनों का परस्पर कोई संकेत किया हुआ है। यदि वे परस्पर एक दूसरे को देख लेते तो प्रवेश नहीं करते। २१८५. एमेव ततो णिते, भंगा चत्तारि होंति नायव्या । चरिमो तुल्लो दोसु बि, अदिद्वभावेण तो सत्त ॥ इसी प्रकार उन स्थानों से निकलते हुए साधु-साध्वी विषयक चतुभंगी होती है ५. वहां से निकलते हुए साधु को देखा, साध्वी को मन्नंति । विसंता ॥ ६. साध्वी को देखा, साधु को नहीं। ७. दोनों को देखा। ८. दोनों को नहीं देखा । दोनों के अदृष्टभाव के आधार पर अंतिम भंग, दोनों में अर्थात् प्रवेश और निर्गमन में, समान है। २२३ २१८६. एक्किक्कम्मि य भंगे, दिट्ठाईया य गहणमादीया । सत्तमभंगे मासो, आउभयाई अ सविसेसा ॥ प्रत्येक भंग में दृष्ट आदि में शंका आदि दोष होते हैं। दोनों को वहां प्रविष्ट करते हुए देखकर राजपुरुषों द्वारा ग्रहण और आकर्षण होता है, यह दोष है। सातवें भंग में मासलघु तथा आत्म-पर समुत्थ विशेष दोष होते हैं। २१८७. चरमे पढमे बिझ्ए, तइए भंगे व होहमा सोही मासो लहुओ गुरुओ, चउलहु-गुरुगा य भिक्खुस्स ॥ ( इस विषयक पांच आदेश हैं -) यह पहला आदेश है। चरम भंग अर्थात् जिसमें दोनों साधु-साध्वी दृष्ट नहीं हैं, प्रथम भंग में साधु दृष्ट है, द्वितीय भंग में साध्वी दृष्ट है, तृतीय भंग में दोनों दृष्ट हैं। इन भंगों में यथाक्रम यह शोधि है-लघुगास, गुरुमास, चतुर्लघु और चतुर्गुरु । २१८८. वस व उवज्झाए, आयरिए एगठाणपरिवृद्धी । मासगुरुं आरब्भा, नायव्वा जाव छेदो उ॥ वृषभ, उपाध्याय और आचार्य इनके एक-एक स्थान की वृद्धि करनी चाहिए। मासगुरु से आरंभ कर छेद पर्यन्त प्रायश्चित स्थान जानने चाहिए। (वृषभ के चतुर्थ भंग में मासुगुरु, प्रथम में चतुर्लघु, द्वितीय में चतुर्गुरु और तृतीय में षड्लघु उपाध्याय के चतुर्लघु से प्रारंभ कर षड्गुरुक पर्यन्त और आचार्य के चतुर्गुरु से प्रारंभ कर छेद पर्यन्त ।) २१८९. अहवा चरिमे लहुओ, चउगुरुगं सेसएस भंगेसु । भिक्खुस्स दोहि विलहू, काल तवे दोहि वी गुरुगा ॥ (दूसरा आदेश ) - अथवा चरम भंग में लघुमास, शेष तीन भंगों में चतुर्गुरु । ये प्रायश्चित्त भिक्षु के लिए दोनों अर्थात् तप और काल से लघु होते हैं, वृषभ के काल से गुरु, उपाध्याय के तप से गुरु और आचार्य के दोनों से गुरु होते हैं। २१९०. मासो विसेसिओ वा, तइयादेसम्मि होइ भिक्खुस्स । गुरुगो लहुगा गुरुगा, विसेसिया सेसगाणं तु ॥ (तीसरा आदेश ) - अथवा भिक्षु के लिए चारों भंगों में लघुमास, काल और तप से विशेषित प्रायश्चित्त है। शेष अर्थात् वृषभ, उपाध्याय और आचार्य के क्रमशः गुरुमास, चार लघुमास और चार गुरुमास यह भी काल और तप से विशेषित होता है। २१९१. अहवा चउगुरुग च्चिय, मासाइ जाव गुरुगा, विसेसिया हुंति भिक्खुमाईणं । अविसेसा हुंति सव्वेसिं ॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ बृहत्कल्पभाष्यम् (चौथा आदेश) २१९७.गड्डा कुडंग गहणे, गिरिदरि उज्जाण अपरिभोगे वा। अथवा भिक्षु आदि सभी के तप और काल से विशेषित पविसंते य पविद्वे, निते य इमा भवे सोही॥ चतुर्गुरु प्रायश्चित्त है। अथवा मास आदि से प्रारंभ कर अथ साधुओं को देखकर वे साध्वियां गढ़े में, कुडंगचतुर्गुरुक पर्यन्त प्रायश्चित्त आता है। सभी भंगों में यह बांस की जालियों में, बहुत वृक्षाच्छादित निकुंज में, पर्वत प्रायश्चित्त तप और काल से अविशेषित होता है। कन्दरा में, उद्यान में अथवा अपरिभोग्य स्थान में प्रवेश २१९२.दिह्रोभास पडिस्सुय, संथार तुअट्ट चलणउक्खेवे। करती हुई, प्रविष्ट तथा निकलने पर ये प्रायश्चित्त साधुओं फंसण पडिसेवणया, चउलहुगाई उ जा चरिमं॥ को आते हैं। प्रविष्ट होकर संयत-संयती एक दूसरे को देखते हैं तो २१९८.दूरम्मि दिढे लहुओ, अमुई अमुओ त्ति चउगुरू होति। चतुर्लघु, परस्पर बोलते हैं तो चतुर्गुरु, स्वीकार करने पर ते चेव सत्त भंगा, वीयारगए कुडंगम्मि॥ षड्लघु और संस्तारक करने पर षड्गुरु, सोने पर छेद, दूर से साधु यदि साध्वी को और साध्वी को साधु देख पैर का उत्क्षेप करने पर मूल, स्पर्श करने पर अनवस्थाप्य लेते हैं तो लघुमास, अमुक साध्वी है या अमुक साधु है-इस और प्रतिसेवना करने पर पारांचिक प्रायश्चित्त का प्रकार पहचान लेने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। कोई विधान है। संयत कुडंग में विचारार्थ पूर्व प्रविष्ट है, उससे संबंधित सात २१९३.पविसंते जा सोही, चउसु वि भंगेसु वन्निया एसा। भंग, पूर्ववत् होते हैं। निक्खममाणे स च्चिय, सविसेसा होइ भंगेसु॥ २१९९.आभीराणं गामो, गामदारे य देउलं रम्म। संयती संयत के प्रवेश करने पर जो शोधि-प्रायश्चित्त आगमण भोइयस्स य, ठाइ पुणो भोइओ तहियं॥ कहा है, वही शून्यगृह आदि से निर्गमन करते के चारों भंगों एक आभीरों का गांव था। ग्राम के द्वार पर एक रम्य में सविशेष प्रायश्चित्त आता है। देवकुल था। एक बार भोजिक वहां आया। वह भोजिक उस २१९४.अंतो वियार असई, अचियत्त सगार दुज्जणवते वा।। देवकुल में ठहर गया। बाहिं तु वयंतीणं, अपत्त-पत्ताणिमे दोसा।। २२००.महिलाजणो य दुहितो, ग्राम के अभ्यन्तर में विचारभूमी के अभाव में, अप्रीतिक निक्खमण पवेसणं च सिं दुक्खं। शय्यातर की भूमी में अथवा वह पुरोहड दुर्जनमनुष्यों द्वारा सामत्थणा य तेसिं, परिवृत है तो वहां से ग्राम बाहर जाते हुए स्थंडिल भूमी को गो-माहिससन्निरोधो य॥ प्राप्त या अप्राप्त के विषय में ये दोष होते हैं। आभीर की औरतें बहुत दुःखी हो जाती हैं। इस स्थिति २१९५.वीयाराभिमुहीओ, साहुं दट्टण सन्नियत्ताओ। में साध्वियों के निष्क्रमण और प्रवेश दुष्कर हो जाता है। लहुओ लहुया गुरुगा, छम्मासा छेद मूल दुगं॥ पर्यालोचन हुआ कि महिलाजनों को बाधा होती है। अतः विचारभूमी के अभिमुख जाती हुई साध्वियां साधु को किसी उपाय से इस भोजिक को अन्यत्र भेज देना चाहिए। देखकर यदि निवर्तित होती है तो लघुमास, आगाद अतः उन्होंने वहां गाय और भैंस आदि को बांधकर निरोध परितापना होने पर चतुर्गुरु, महादुःख होने पर षडलघु, कर डाला। मूर्छा होने पर षड्गुरु, दुःख पाने पर छेद, श्वास कृच्छ्र हो २२०१.विगुरुब्वियबोंदीणं, खरकम्मीणं तु लज्जमाणीओ। जाए तो मूल, समुद्घात होने पर अनवस्थाप्य और मृत्यु हो भंजंति अणिंतीओ, गोवाड-पुरोहडे महिला॥ जाने पर पारांचिक प्रायश्चित्त विहित है। २२०२.इति ते गोणीहिं समं, धिइमलभंता उ बंधिउं दारं। २१९६.एसो वि तत्थ वच्चइ, नियत्तिमो आगयम्मि गच्छामो। गामस्स विवच्छाओ, बाहिं ठाविंसु गावीओ॥ लहुओ य होइ मासो, परितावणमाइ जा चरिमं॥ भोजिक के कर्मकर जो वस्त्राभूषणों से अलंकृत थे, उनसे _ 'यह मुनि भी उसी विचार भूमी में जा रहा है'-यह लज्जा करती हुई स्त्रियां बाहर न जाती हुई गोवाटक तथा सोचकर यदि साध्वियां निवर्तित हो जाती हैं और सोचती हैं पुरोइड में ही शंका से निवृत्त होने लगी। मुनि के लौट जाने पर हम जाएंगी तो लघुमास का प्रायश्चित्त यह सोचकर आभीरी स्त्रियां धैर्य को प्राप्त न करती हुई आता है और संज्ञानिरोध से होने वाला अनागाढ़, परितापन अपने साथ बिना बछड़ों के केवल गायों को लेकर बाहर आदि में पूर्व श्लोकोक्त चरम-पारांचिक पर्यन्त प्रायश्चित्त आईं और गांव के द्वार पर उन्हें बांध दिया। वे गाएं अपने प्राप्त होता है। बछड़ों के लिए सारी रात जोर-जोर से चिल्लाने लगी और Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = २२५ पहला उद्देशक गांव में वे बछड़े अपनी माताओं से बिछुड़ कर शब्द करने लगे। २२०३.वच्छग-गोणीसहेण असुवणं भोइए अहणि पुच्छा। सब्भावे परिकहिए, अन्नम्मि ठिओ निरुवरोहे॥ गायों के और बछड़ों के शब्दों से भोजिक को नींद नहीं आई। प्रातःकाल उसने पूछा कि गाएं और बछड़े क्यों चिल्ला रहे थे। तब आभीरी ने यथार्थ बात बताई। तब भोजिक अन्यत्र नियाघात स्थान में जाकर ठहर गया। २२०४.एवं चिय निरविक्खा,वइणीण ठिया निओगपमुहम्मि। जा तासि विराधणया, निरोधमादी तमावज्जे॥ इसी प्रकार कुछ निरपेक्ष साधु-साध्वियों से संबंधित गांव के निर्गम-प्रवेश द्वार पर ठहर गए। उससे साध्वियों को निरोध परितापना आदि विराधना सहन करनी होती है। उस विराधना से निष्पन्न प्रायश्चित्त साधुओं को आता है। २२०५.अहवण थेरा पत्ता, दह्र निक्कारणट्ठियं तं तु। भोइयनायं काउं, आउट्टि विसोहि निच्छुभणा॥ अथवा उसी गांव में कुल स्थविर आदि आ गए और नगरद्वार पर स्थित आचार्य आदि से वहां ठहरने का कारण पूछा। यदि निष्कारण ही वहां ठहरे हैं तो उनको भोजिक का दृष्टांत कहे। यदि वे वहां से निवृत्त हो जाएं तो प्रायश्चित्त दे और उस क्षेत्र से निष्कासन करने के लिए कह दे। २२०६.एवं ता दप्पेणं, पुट्ठो व भणिज्ज कारण ठिओ मि। तहियं तु इमा जयणा, किं कज्जं का य जयणाओ॥ इस प्रकार जो दर्प से-बिना कारण ऐसे स्थान में रहते हैं उनके दोष बताए हैं। कुल स्थविर द्वारा पूछने पर यदि कहे कि हम कारणवश यहां ठहरे हैं तो उनके लिए यह यतना है। शिष्य ने पूछा-क्या कार्य अर्थात् कारण और क्या यतना? २२०७.अद्धाणनिग्गयाई, अग्गुज्जाणे भवे पवेसो य। पुन्नो ऊणो व भवे, गमणं खमणं च सव्वासिं॥ मुनि यात्रा में प्रस्थित हैं। उन्हें ठहरना है। वह क्षेत्र संयतीभावित है। वे ग्राम के अग्र उद्यान में ठहरें और गीतार्थ को साध्वी के स्थान पर भेजें। वे यतनापूर्वक वहां प्रवेश करें। यदि साध्वियों का मासकल्प पूरा हो गया हो तो गांव में गमन करे। यदि न्यून हो और साधु वहां रहे तो सभी साध्वियों को क्षपण करना होता है। २२०८.उव्वाया वेला वा, दूरुट्ठियमाइणो व परगामे। ___ इय थेरऽज्जासिज्जं, विसंतऽणाबाहपुच्छा य॥ अध्वनिर्गत वे साधु संयतिक्षेत्र में पहुंचे हैं। वे अत्यंत परिश्रान्त हो गए हों, भिक्षावेला अतिक्रांत हो रही है, परग्राम दूरस्थित हो, वहां जाना संभव नहीं है, ऐसे सोचकर गांव के उद्यान में ठहर जाए। फिर स्थविर अर्थात् गीतार्थ मुनि साध्वियों के प्रतिश्रय में प्रवेश करे और साध्वियों को आचार्यवचन से संयमयोग निराबाध हैं ? (सुखसाता) पूछे। २२०९.अमुगत्थ गमिस्सामो, पुट्ठाऽपुट्ठा व ईय वोत्तूणं। इह भिक्खं काहामो, ठवणाइघरे परिकहेह।। उनके पूछने या न पूछने पर हम वहां जाएंगे यह कहकर उन्हें बताए-हम गांव में भिक्षा करेंगे। हमें स्थापनागृहों की जानकारी दें। साध्वियों के उत्तर देने पर२२१०.सामायारिकडा खलु, होइ अवड्डा (हे) य एगसाहीय। सीउण्हं पढमादी, पुरतो समगं व जयणाए। हे आर्ये! क्या आपने सामाचारी संपन्न कर ली या नहीं? गांव के आधे भाग में मुनि भिक्षा के लिए जायेंगे और अन्य आधे भाग में साध्वियां। एक गली में साधु और दूसरी गली में साध्वियां घूमेंगी। वे शीत या उष्ण, प्रथमालिका आदि ग्रहण करेंगे। संयतियों से पहले या साथ-साथ यतनापूर्वक भिक्षा के लिए पर्यटन करेंगे। (इसका विस्तृत अर्थ आगे।) २२११.कडमकड त्ति य मेरा, कडमेरा मित्ति बिति जइ पट्ठा। ताहे भणति थेरा, साहह कह गिहिमो भिक्खं॥ स्थविर मुनि साध्वियों को पूछते हैं-आर्या ! क्या आप मर्यादा सामाचारी को जानती हैं अथवा नहीं? यदि वे कहेंहमने मर्यादा समाचारी करली है, विधि को हम जानती हैं। तब स्थविर उनको कहे-आप कहें हम भिक्षा कैसे ग्रहण करें। २२१२.ता बेति अम्ह पुण्णो, मासो वच्चामु अहव खमणं णे। संपत्थियाउ अम्हे, पविसह वा जा वयं नीमो॥ तब आर्यिका कहती है-हमारा मासकल्प पूरा हो गया है। हम अन्यत्र चली जाएंगी। यदि पूर्ण न भी हुआ है तो हम सभी के क्षपण-तपस्या है। यदि क्षपण न हो तो कहती हैंहम भिक्षाटन के लिए प्रस्थित हैं अथवा हम जाएं उससे पूर्व आप भिक्षा कर लें। २२१३.विच्छिन्नो य पुरोहडो, अंतो भूमी य णे वियारस्स। सागारिओ व सन्नी, कुणइ अ सारक्खणं अम्हं।। पुरोहड विस्तीर्ण है। हमारे विचारभूमी गांव के आभ्यन्तर में है। जो हमारा सागारिक है-शय्यातर है वह संज्ञी-श्रावक है। वह हमारा संरक्षण करता है। २२१४.उभयस्सऽकारगम्मी, दोसीणे अहव तस्स असईए। संथरे भणंति तुम्हे, अडिएसु वयं अडीहामो॥ साधु और साध्वी-दोनों के दोषान्न अकारक हो तो अथवा दोषान्न के अभाव में संस्तरण होने पर साध्वियां कहती हैं-आर्य! पहले आप भिक्षाचर्या के लिए घूमें, पश्चात हम घूमेगी। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -बृहत्कल्पभाष्यम् २२६ २२१५.तुब्भे गिण्हह भिक्खं, इमम्मि पउरन्न-पाण गामद्धे। वाडग साहीए वा, अम्हे सेसेसु घेच्छामो॥ साध्वियां कहती हैं-प्रचुर अन्न-पान वाले इस ग्रामार्द्ध में आप भिक्षा ले लें और उस ग्रामार्द्ध में हम भिक्षा ग्रहण करेंगी। अथवा इस पाटक में या इस गली में आप भिक्षा ग्रहण कर लें, हम शेष घरों में भिक्षा ग्रहण कर लेंगे। २२१६.ओली निवेसणे वा, वज्जेत्तु अडंति जत्थ व पविट्ठा। ___ न य वंदणं न नमणं, न य संभासो न वि य दिट्ठी॥ अथवा ओली-गांव के गृहों की एक पंक्ति या निवेशन में जहां साध्वियां भिक्षा के लिए जाती हैं उसको छोड़कर साधु अन्य ओली या निवेशन में भिक्षा करे। ऐसी स्थिति में भी जहां दोनों साधु-साध्वी का मिलन हो तो न वंदना, न नमन, न संभाषण और न एक दूसरे को देखे।। २२१७.पुव्वभणिए य ठाणे, सुन्नोगादी चरंति वज्जेता। पढम-बिइयातुरा वा, जयणा आइन्न धुवकम्मी॥ __ पूर्वकथित जो शंकास्थान हैं-शून्यगृह आदि उनकी दूर से ही वर्जना कर विहरण करे। यदि प्रथम और द्वितीय परीषह से आक्रांत हो जनाकीर्ण, ध्रुवकर्मिक काष्ठकार, लोहकार जहां देख रहे हों, वहां यतनापूर्वक कलेवा करे अथवा पानक आदि ग्रहण करे। २२१८.दोन्नि वि ससंजईया, एगग्गामम्मि कारणेण ठिया। तासिं च तुच्छयाए, असंखडं तत्थिमा जयणा॥ वास्तव्य तथा आगंतुक साधु-दोनों के साथ साध्वियां हों और कारणवश एक ही ग्राम में रहना पड़े और साध्वियों की नुच्छता के कारण परस्पर कलह हो जाए जो यह यतना है२२१९.चुण्णाइ-विंटलकए, गरहियसंथवकए य तुब्भाहिं। ताई अजाणंतीओ, फव्वीहामो कहं अम्हे॥ शिष्य ने पूछा-यतना रहने दें। कलहोत्पत्ति का कारण क्या है? वास्तव्य साध्वियों को पूछा-क्या आपको यथेष्ट भक्तपान मिला या नहीं? वे बोली-आपने अपना यह क्षेत्र वशीकरण चूर्ण, विंटल तथा गर्हित पूर्व-पश्चात् संस्तव से भावित कर रखा है। हम चूर्ण आदि करना नहीं जानती, तो हमें यहां यथेष्ट भक्तपान कैसे प्राप्त हो सकेगा? २२२०.सेणाणुमाणेण परं जणोऽयं, ठावेइ दोसेसु गुणेसु चेव। पावस्स लोगो पडिहाइ पावो, कल्लाणकारिस्स य साहुकारी॥ तब वास्तव्य साध्वियां उत्तर देती हैं-मनुष्य अपने ही अनुमान से दूसरे को गुणी या दोषी ठहराता है। यह सही है कि पापकर्म करने वाले को सारा लोक पापकर्मकारी प्रतीत होता है। और कल्याणकारी व्यक्ति को सारा जगत कल्याण करने वाला प्रतीत होता है। इसीलिए २२२१.नूणं न तं वट्टइ जं पुरा भे, इमम्मि खेत्ते जइभावियम्मि। अवेयवच्चाण जतो करेहा, __ अम्हाववायं अइपंडियाओ॥ आपने निश्चित ही पहले कुंटल-विंटल आदि किया है। यह क्षेत्र यतिभावित है। आपने यह कैसे जाना कि हमने यहां कुंटल-वेंटल किया है। आप अपेतावाच्य-जनप्रवाद रहित हैं, अतः आप अतिपंडित होने के कारण हम पर झूठा आरोप लगा रही हैं। २२२२.तत्थेव अणुवसंते, गणिणीइ कहिति तह वि हु अठंते। गणहारीण कहेंती, सगाण गंतूण गणिणीओ। इस प्रकार कलह हो जाने पर उसका वहीं उपशमन कर लेना चाहिए। यदि उपशांत न हो तो अपनी-अपनी गणिनी को कहना चाहिए। प्रवर्तिनी के द्वारा भी उपशांत न हो तो उन प्रवर्तिनियों को अपने-अपने गणधर को कहना चाहिए। २२२३.उप्पन्ने अहिगरणे, गणहारिनिवेदणं तु कायव्वं । जइ अप्पणा भणेज्जा, चाउम्मासा भवे गुरुगा। अधिकरण कलह उत्पन्न होने पर एक गणधर दूसरे गणधर को निवेदन करे। वह गणधर स्वयं जाकर दूसरे गणधर की साध्वी को कुछ कहता है. (उपालंभ देता है) तो चतुर्मास गुरुक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। २२२४.वतिणी वतिणिं वतिणी, व परगुरुं परगुरू व जइ वइणिं। जंपइ तीसु वि गुरुगा, तम्हा सगुरूण साहेज्जा। यदि साध्वी साध्वी को कहती है-उपालंभ देती है, या साध्वी परगुरु से कहती है या परगुरु उस साध्वी को कहते हैं-इन तीनों अवस्थाओं में चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। इसलिए अपने गुरु को ही कहना चाहिए। २२२५.जाणामि दूमियं भे, अंगं अरुयम्मि जत्थ अर्कता। को वा एअं न मुणइ, वारेहिह कित्तिया वा वि॥ परवतिनी को उपालंभ देने पर वह कहती है-मैं जानती हूं आपके पीड़ित अंग को मर्म की बात को। मैंने आपके साध्वी को कुछ कहा तो आपने मेरे पर ही आक्रमण कर डाला। इस मर्म की बात को कौन नहीं जानता? आप किन-किन को, यह तथ्य प्रगट न करने के लिए निवारित करेंगे? मैं निवारित होने पर यह रहस्य प्रगट नहीं करूंगी, परन्तु दूसरे प्रगट कर देंगे। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक २२२६.निग्गंधं न वि वायइ, अलाहि किं वा वि तेण भणिएणं। छाएउं च पभायं, न वि सक्का पडसएणावि॥ बिना कुछ हए बात नहीं फैलती। वायु में गंध है तो अवश्य ही उसका कारण है। निर्गंध वायु नहीं चलती। (अतः आपका इस व्रतिनी के प्रति जो पक्षपात है, वह असंबंध में नहीं हो सकता।) अथवा आप और अधिक न कहें। उस प्रकार का वचन कहने से क्या प्रयोजन? प्रभात को सैंकड़ों पटों से भी आच्छादित नहीं किया जा सकता। (इसी प्रकार उसके द्वारा लगाया गया झूठा आरोप जल में गिरे तैल बिन्दु की भांति सर्वत्र प्रसरणशील होकर आचार्य के प्रभाव को दूषित करता है।) २२२७.मन्झत्थं अच्छतं, सीहं गंतूण जो विबोहेइ। अप्पवहाए होई, वेयालो चेव दुज्जुत्तो॥ जैसे-उदासीन बैठे हुए सिंह के पास जाकर कोई उसको जगाता है तो वह सिंह उसी को मार डालता है। अथवा दुष्प्रयुक्त वैताल साधक को ही मार डालता है, इसी प्रकार यह वर्तिनी भी निवारित किए जाने पर आचार्य के प्रभाव की घात करने वाली होती है। २२२८.उप्पन्ने अहिगरणे, गणहारि पवत्तिणिं निवारेइ। ___अह तत्थ न वारेई, चाउम्मासा भवे गुरुगा॥ इसलिए अधिकरण के उत्पन्न होने पर गणधारी या प्रवर्तिनी निवारण करती है। यदि गणधारी निवारण नहीं करते हैं तो चतुर्गुरुक मास का प्रायश्चित्त आता है। २२२९.पाहुन्नं ताणं कयं, असंखडं देह तो अलज्जाओ। पुवट्ठिय इय अज्जा, उवालभंताऽणुसासंति॥ आगंतुक आर्यिकाओं का अच्छा आतिथ्य किया कि वे बेशर्म होकर इस प्रकार कलह करती हैं। पूर्वस्थित आचार्य (वास्तव्य आचार्य) अपनी आर्यायों को उपालंभ देते हुए, इस प्रकार अनुशासित करते हैं। २२३०.एगं तासिं खेत्तं, मलेह बिइयं असंखडं देह। आगंतू इय दोसं, झवंति तिक्खाइ-महुरेहिं।। आगंतुक संयतियों के उपशमन का यह अन्य उपाय है-आचार्य कहते हैं-यह क्षेत्र वास्तव्य साध्वियों का है। इसका विनाश कर रहे हैं। दूसरी बात है कि इनके साथ कलह भी कर रहे हैं। आगंतुक आचार्य अधिकरण उत्पन्न करने वाले इन दोषों को तीक्ष्ण और मधुरवचनों से उपशांत कर देते हैं। २२३१.अवराह तुलेऊणं, पुव्ववरद्धं च गणधरा मिलिया। __बोहित्तुमसागारिए दिति विसोहिं खमावेउं॥ दोनों गणधर मिलकर अपराध को तोलते हैं। जितना = २२७ जिसका अपराध है उसको परस्पर के संवाद से निश्चित कर, पहले किसने अपराध किया, उस साध्वी को एकांत में प्रतिबोध देकर दूसरी साध्वी से क्षमायाचना करानी चाहिए। दोनों के परस्पर क्षमायाचना हो जाने पर विशोधि-प्रायश्चित्त देना चाहिए। २२३२.अभिनिदुवार(ऽभि)निक्खमणपवेसे एगवगडि ते चेव। जं इत्थं नाणत्तं, तमहं वोच्छं समासेणं ।। एक गांव है। उसमें प्रवेश और अभिनिष्क्रमण के अनेक द्वार हैं परन्तु एक वगड-परकोटा वाला है। यहां रहने से जो दोष होते हैं, वे प्रथम भंग में कहे जा चुके हैं। उनमें जो नानात्व-विशेष है, वह मैं संक्षेप में कहूंगा। २२३३.तह चेव अन्नहा वा, वि आगया ठंति संजईखेत्ते। भोइयनाए भयणा, सेसं तं चेविमं चऽन्नं ॥ तथैव अर्थात् गाथा २१३४ के अनुसार अथवा अन्यथा संयती के क्षेत्र में आकर संत ठहर जाते हैं। उनके साथ भोजिक के उदाहरण की भजना है। शेष प्रायश्चित्त आदि प्रथम भंगोक्त के अनुसार ही है। यह अन्य है। २२३४.एगा व होज्ज साही, दाराणि व होज्ज सपडिहुत्ताणि। पासे व मग्गओ वा, उच्चे नीए व धम्मकहा।। अनेक द्वार तथा एक वगडे वाले गांव में साधु-साध्वियों के प्रतिश्रय के एक ही सही-गृहपंक्ति हो। द्वार एक दूसरे के अभिमुख हो। साध्वियों के प्रतिश्रय के पास में, पीछे, ऊंचे, नीचे स्थान में साधु स्थित हों और कोई धर्मकथा करता हो-यह इस नियुक्ति गाथा का संक्षेपार्थ है। विस्तार २२३५.वइअंतरियाणं खलु,दोण्ह वि वग्गाण गरहिओ वासो। आलावे संलावे, चरित्तसंभेइणी विकहा॥ वृत्ति द्वारा अंतरित स्थान में भी साधु-साध्वियों-दोनों वर्गों का एकत्र वास गर्हित है। उनका परस्पर आलाप, संलाप होने पर चारित्रसंभेदिनी विकथा हो सकती है। २२३६.उभयेगयरट्ठाए, व निग्गया दट्ट एक्कमेक्वं तु। संका निरोहमादी, पबंध आतोभया वाऽऽसु॥ दोनों प्रकार की कायिकी संज्ञा में से किसी एक संज्ञा की निवृत्ति के लिए साधु-साध्वी बाहर निर्गमन करते हैं। वहां परस्पर एक-दूसरे को देखकर शंका होती है। निरोध आदि भी हो सकता है। कथा-प्रबंध भी हो सकता है। उससे आत्मसमुत्थ और परसमुत्थ दोनों प्रकार के दोष होते हैं और उनसे शीघ्र ही संयमविराधना होती है। २२३७. पस्सामि ताव छिद्द, वन्न पमाणं व ताव से दच्छं। इति छिड्डेहि कुमारा, झायंती कोउहल्लेणं॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ कुमार अवस्था में प्रव्रजित कोई मुनि कुतूहल वश सोचते हैं अमुक साध्वी का वर्ण और शारीरिक परिमाण देखें, इसलिए वे किसी छिद्र में से देखते हैं। इससे संयमच्युत होने की संभावना रहती है। २२३८. बुब्बलपुच्छेगयरे, खमणं किं तं ति मोहभेसनं । तह वि य वारियवामो बलियतरं बाहए मोहो ॥ साधु-साध्वी परस्पर मिलने पर एक-दूसरे को दुर्बलतर देखकर साध्वी साधु को पूछती है - दुर्बल क्यों ? साधु कहता है - मैं तपस्या कर रहा हूं। तपस्या क्यों ? मोह की चिकित्सा के लिए। फिर भी मोह निवारित न होकर और अधिक प्रतिकूल हो रहा है। मोह मुझे अधिक बाधित कर रहा है। २२३९. मूलतिमिच्छं न कुणह, न हु तण्डा छिज्जए विणा तोयं । अम्हे वि वेयणाओ स्वहया एआ न वि पसंतो । साध्वी कहती है-आप मूल चिकित्सा नहीं कर रहे हैं। पानी के बिना प्यास नहीं मिटती। हमने भी तपस्या आदि की वेदनाओं का सहन किया है फिर भी मोह उपशांत नहीं हुआ है। २२४०. मोहम्मआहइनिभाहि ईय वायाहिं अहियवायाहिं। धतं पि धिइसमत्था, चलति किमु दुब्बलधिईया ॥ इस प्रकार की वाणी मोहरूपी अग्नि में आहुतितुल्य होती हे वह अत्यधिक अहितकर अर्थात् नरक में ले जाने वाली होती है । अत्यंत धृतिसंपन्न व्यक्ति भी चलित हो जाते हैं तो दुर्बल धृति वाले व्यक्तियों का तो कहना ही क्या ! २२४१.सपडिदुवारे उवस्सए, निग्गंथीणं न कप्पई वासो । । वण एक्कमेवं, चरत्तभासुंडा सज्जो ॥ यदि साध्वियों के उपाश्रय का द्वार अभिमुखद्वार वाला हो तो वहां साधुओं को रहना नहीं कल्पता। क्योंकि एकदूसरे को देखने से शीघ्र ही चारित्र की भ्रंशना होती है। २२४२. धम्मम्मि पवाया, निंता दठ्ठे परोप्परं वो वि लज्जा विसंति निंति य, संका य निरिक्खणे अहियं ॥ ग्रीष्म ऋतु में गर्मी से पीड़ित होकर मुनि वायु के निमित्त बाहर जाता है और साध्वी भी इसी निमित्त से बाहर निकलती है। दोनों परस्पर एक-दूसरे को देखकर, लज्जावश दोनों भीतर चले जाते हैं। फिर दोनों बाहर आते हैं फिर भीतर चले जाते हैं। इस प्रकार दो-तीन बार करने से शंका होती है तथा एक दृष्टि से देखने पर अत्यधिक शंका होती है। १. चरिता चारित्रशना सयो भवति (चूर्ण) बृहत्कल्पभाष्यम् २२४३. बीसत्थऽवाउडऽनन्नदंसणे होइ लज्जबोच्छेदी। ते चेव तत्थ तत्थ दोसा आलाबुल्लावमादीया ॥ अभिमुखद्वारवाले उपाश्रय में साधु-साध्वी विश्वस्त होकर कदाचित् निर्वस्व हो जाते हैं एक-दूसरे को देखने पर लज्जा का व्यवच्छेद हो जाता है। फिर आलाप उल्लाप आदि होने लगता है। ये दोष उत्पन्न होते हैं। २२४४. एमेव व एकतरे, ठियाण पासम्मि मग्गओ वा वि बहुअंतर एगनिवेसणे व दोसा उ पुब्बुत्ता ॥ इसी प्रकार साध्वी के प्रतिश्रय के पास या पीछे वृत्ति से अंतरित तथा एक निवेशन में दोनों के लिए पूर्वोक्त दोष उत्पन्न होते हैं। २२४५. उच्चे नीए व ठिआ, बद्रृण परोप्परं दुवग्गा वि संका व सईकरणं, चरित्तभासुंडणा चयई । ऊंचे, नीचे था स्थान में स्थित यदि दोनों वर्ग हों तो एक दूसरे को देखने पर शंका होती है, पूर्वभुक्त भोगों की स्मृति आती है, चारित्र का नाश होता है अथवा सर्वथा संयम से च्युत हो जाता है। २२४६. माले सभावओ वा, उच्चम्मि ठिओ निरिक्खई हेदूं । बेट्टो व निवन्नो वा, तत्थ इमं होइ पच्छित्तं ॥ कदाचित् मुनि वसति के ऊपर के माले (भाग) में स्थित हो, या स्वभावतः ऊंचे देवकुल आदि में स्थित हो और साध्वियां नीचे रहती हो और वह मुनि बैठे-बैठे या खड़े-खड़े नीचे साध्वी को देखता हो तो यह प्रायश्चित्त आता है। २२४७. संतर निरंतरं वा निरिक्खमाणे सई पकामं वा । काल तवेहिं विसिद्धो भिन्नो मासो तुयट्टम्मि ॥ मुनि नीचे स्थित साध्वी को सांतर - किसी सहारे से ऊंचा होकर देखता है या निरंतर स्वभावतः उसे देखता है, या सोते-सोते एक बार देखता है या बार-बार देखता है तो काल और तप से विशेषित भिन्नमास का प्रायश्चित आता है। २२४८. एसेब गुरु निविट्टे, द्वियम्मि मासो लहू उ भिक्स्स्स एक्वेक्क ठाण वुड्डी, चउगुरुअंतं च आयरिए ॥ यदि बैठा-बैठा निरंतर या सांतर देखता है तो वही भिन्नमास का प्रायश्चित्त, तप और काल से गुरु, का आता है और खड़े-खड़े देखता है तो वही प्रायश्चित्त तप और काल से लघु होता है। इसी प्रकार वृषभ, उपाध्याय और आचार्य के यथाक्रम एक-एक स्थान की वृद्धि करनी चाहिए। आचार्य के चतुर्गुरुक जैसे वृषभ के गुरुभिन्नमाष से प्रारब्ध गुरुमास, उपाध्याय के मासलघुक से प्रारब्ध चतुर्लघुक और . Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक - २२९ आचार्य के गुरुमास से प्रारब्ध चतुर्गुरुक पर्यन्त। यह पहला प्रायश्चित्त है चतुर्गुरु और तप से लघु। रहित सकाम में आदेश है। चतुर्गुरु, तप से गुरु। प्रकाम में चतुर्गुरु और तप और काल २२४९.दोहि वि रहिय सकामं, पकाम दोहिं पि पेक्खई जो उ। से भी गुरु।। चउरो य अणुग्घाया, दोहि वि चरिमस्स दोहि गुरु॥ २२५५.एक्केक्काए पयाओ, साहीमाईसु ठायमाणाणं । दूसरा आदेश यह है __ निकारणट्ठियाणं, सव्वत्थ वि अविहिए दोसा।। दोनों आंखों से देखना, 'अरहित' कहलाता है और एक अरहित, रहित, सकाम, प्रकाम निरीक्षण आदि एक-एक आंख से देखना वह 'रहित' कहलाता है। दोनों के दो-दो पद से गली में या प्रति मुखद्वार वाले उपाश्रय, आगे, पीछे, प्रकार हैं-सकाम (एक बार) और प्रकाम (अनेक बार)। दोनों ऊपर, नीचे-इन सबमें निष्कारण रहने या कारणवश से जो देखता है उसे चार अनुद्घात मास का प्रायश्चित्त अयतनापूर्वक रहने से ये दोष होते हैं। आता है। यह प्रायश्चित्त भी तप और काल से गुरु होता है। २२५६.दिट्ठा अवाउडा हं, भयलज्जा थद्ध होज्ज खित्ता वा। चरम भंग वाले के तप और काल से गुरु होते हैं। पडिगमणादी व करे, निच्छक्काओ व आउभया॥ २२५०.पायठिओ दोहिं नयणेहि पिच्छई रहिय मोत्तु एक्केणं। ___ कोई साध्वी विचारभूमी में गई। मुनि को आते हुए तं पुण सई सकामं, निरंतरं होइ उ पकामं॥ देखकर सोचती है-मुनि ने मुझे अपावृत देख लिया है। अतः यदि मुनि खड़ा-खड़ा दोनों आंखों से देखता है, वह वह लज्जा से, भय से स्तब्ध होकर क्षिप्तचित्त वाली हो जाती अरहित है। एक आंख को छोड़कर एक से देखता है, वह है। कोई साध्वी इससे प्रतिगमन आदि कर लेती है। कोई रहित है। जो एक बार देखता है वह सकाम और बार-बार निर्लज्ज हो जाती है। उससे आत्मसमुत्थ और परसमुत्थदेखता है, निरंतर देखता है वह प्रकाम है। दोनों प्रकार के दोष हो सकते हैं। २२५१.अहवण समतलपादो, दोहिं वि रहिअं तु अग्गपाएहि। २२५७.तासिं कक्खंतर-गुज्झदेस-कुच-उदर-ऊरुमादीए। इट्टालादी विरह, एकेक सकामग पकामं॥ निग्गहियइंदियस्स वि, दटुं मोहो समुज्जलति॥ अथवा समतलपाद से जो देखता है वह अरहित और साध्वियों के कक्षांतर, गृह्यप्रदेश, कुच, उदर, ऊरु आदि अग्रपाद से स्थित होकर देखता है वह रहित है। अथवा ईंटों शरीरावयवों को देखकर निगृहीतेन्द्रिय व्यक्ति के भी मोह का आदि पर चढ़कर देखता है वह अरहित है और इतर रहित उदय हो जाता है, दूसरे की तो बात ही क्या। है। दोनों सकाम और प्रकाम के भेद से द्विधा हैं। २२५८.चिंता य दट्टमिच्छइ, दीहं नीससइ तह जरो दाहो। २२५२.अहवण उच्चावेठ, कर-विटय-पीढगादिसुं काउं। भत्तअरोयग मुच्छा, उम्मत्तो न याणई मरणं॥ ताई वा वि पमोत्तुं, रहियं बिट्ठो पुण निसिज्ज॥ उससे वे दस प्रकार के कामवेग उत्पन्न होते हैं-चिंता, अथवा शिर या शरीर को ऊंचा कर देखना या हाथ, देखने की इच्छा, दीर्घनिःश्वास, ज्वर, दाह, भोजन की विंटिका, पीढे पर सिर ऊंचाकर देखना अरहित है अथवा अरुचि, मूर्छा, उन्मत्तता, कुछ न जानने की स्थिति और हाथ, विटिका आदि को छोड़कर देखना रहित है। अथवा मरण। बैठा-बैठा निषद्या को छोड़कर देखना रहित है। २२५९.पढमे सोयइ वेगे, दटुं तं इच्छई बिइयवेगे। २२५३.दिट्ठीसंबंधो वा, दोण्ह वि रहियं तु अन्नतरगत्ते। नीससइ तइयवेगे, आरुहइ जरो चउत्थम्मि। अप्पो दोसो रहिए, गुरुकतरो उभयसंबंधे॥ २२६०.डज्झइ पंचमवेगे, छठे भत्तं न रोयए वेगे। अथवा एक-दूसरे की आंख का संबंध हो तो वह अरहित सत्तमगम्मि य मुच्छा, अट्ठमए होइ उम्मत्तो॥ और एक-दूसरे का शरीर देखे तो रहित है। एक का दृष्टि- २२६१.नवमे न याणइ किंची, दसमे पाणेहिं मुच्चई मणूसो। संबंध अल्प दोष वाला होता है, वह रहित है। दोनों का एएसिं पच्छित्तं, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए। दृष्टिसंबंध अरहित होता है, गुरुतर दोष वाला होता है। पहले कामवेग में उसकी संप्राप्ति की चिंता रहती है। २२५४.दोहिं वि अरहिय रहिए, एक्केक्क सकामए पकामे य।। दूसरे में उसे देखने की इच्छा होती है। तीसरे में वह दीर्घ गुरुगा दोहि वि लहुगा, लहु गुरुग तवेण दोहिं पि॥ निःश्वास लेता है। चौथे में वह ज्वरग्रस्त हो जाता है। पांचवें दोनों-अरहित और रहित अनेक प्रकार के होते हैं। में शरीर जलने लगता है। छठे में भक्तपान के प्रति अरुचि प्रत्येक सकाम और प्रकाम-इन दो भेदों से विभक्त है। सकाम उत्पन्न हो जाती है। सातवें में वह मूर्छा से ग्रस्त होता है। का प्रायश्चित्त है चतुर्गुरु। तप और काल से लघु। प्रकाम का आठवें में वह उन्मत्त, नौवें में वह निश्चेष्ट और दसवें में वह Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० =बृहत्कल्पभाष्यम् मनुष्य प्राणों से वियुक्त हो जाता है-मर जाता है। इन दसों आपको दिलाऊंगी। कुछ दिनों के बाद उस साध्वी ने वेगों का मैं क्रमशः प्रायश्चित्त कहूंगा। पूछा-आर्य! आप दुर्बल कैसे दीख रहे हैं। २२६२.मासा लहुओ गुरुओ,चउरो मासा हवंति लहु-गुरुगा। २२६८.संदसणेण पीई, पीईउ रई रईउ वीसंभो। छम्मासा लहु-गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च॥ वीसंभाओ पणओ, पंचविहं बड्डए पिम्म। प्रथम वेग में लघुमास, दूसरे में गुरुमास, तीसरे में चार . दोनों के परस्पर देखने से प्रीति होती है. प्रीति से रतिलघुमास, चौथे में चार गुरुमास, पांचवें में छह लघुमास, छठे चित्त की विश्रान्ति, रति से विश्रंभ-विश्वास होता है, में छह गुरुमास, सातवें में छेद, आठवें में मूल, नौवें में। विश्वास से प्रणय-अशुभ राग पैदा होता है इन पांच प्रकारों अनवस्थाप्य और दसवें में पारांचिक। से प्रेम बढ़ता है। २२६३.एक्कम्मि दोसु तीसु व, ओहावितेसु तत्थ आयरिओ। २२६९.जह जह करेसि नेह, तह तह नेहो मे वड्डइ तुमम्मि। मूलं अणवठ्ठप्पो, पावइ पारंचियं ठाणं॥ तेण नडिओ मि बलियं, जं पुच्छसि दुब्बलतरो ति॥ यदि मोहोदय से प्रताडित होकर एक मुनि उत्प्रवजित हो मुनि कहता है-जैसे-जैसे तुम घी की व्यवस्था करती हो जाता है तो आचार्य को 'मूल' का प्रायश्चित्त आता है। दो वैसे-वैसे तुम्हारे प्रति मेरा स्नेह बढ़ता जाता है। उस स्नेह मुनियों के अवधावन से अनवस्थाप्य और तीन मुनियों के से मैं विडंबित हो रहा हूं। जो तुम मेरी दुर्बलता के विषय में अवधावन से पारांचिक प्रायश्चित्त आता है। पूछती हो कि मैं दुर्बलतर क्यों हूं, इसी कारण से मैं २२६४.धम्मकहासुणणाए, अणुरागो भिक्खसंपयाणे य।। दुर्बल हूं। ___संगारे पडिसुणणा, मोक्ख रहे चेव खंडीए॥ २२७०.अमुगदिणे मुक्ख रहो,होहिइ दारं व वोज्झिहिइ रत्तिं। मुनि द्वारा प्रदत्त धर्मकथा सुनकर साध्वी के मन में तइया णे पूरिस्सइ, उभयस्स वि इच्छियं एयं॥ अनुराग उत्पन्न होता है और तब वह भिक्षा आदि लाकर मुनि वह साध्वी कहती है-अमुक दिन रथयात्रा है। उस दिन को देती है। फिर संकेत का आदान-प्रदान होता है। संकेत साधु-साध्वियों के चले जाने पर रक्षा करने वालों से हमारी यह होता है-अमुक दिन रथयात्रा निकलेगी। उस दिन हमारी मुक्ति हो जाएगी। उस दिन रात्री में दरवाजा खुला रहेगा। रक्षा करने वालों से हम मुक्त हो जाएगी। छंडिका का द्वार उस समय हम दोनों की यह इच्छा पूरी होगी। (इस प्रकार रात्री में खुला रहेगा। प्रतिसेवना कर, स्वयं को भग्नव्रत वाला जानकर अवधावन २२६५.असुभेण अहाभावेण वा वि रत्तिं निसंतपडिसंते। कर लेते हैं।) वत्तेइ किन्नरो इव कोई पुच्छा पभायम्मि॥ २२७१.एगम्मि दोसु तीसु व, ओहावंतेसु तत्थ आयरिओ। कोई श्रमण अशुभ भावना से प्रेरित होकर अथवा मूलं अणवठ्ठप्पो, पावइ पारंचियं ठाणं॥ यथाभाव से रात्री में जब सारे लोग अपने-अपने घरों में एक, दो, तीन मुनियों का अवधावन होने पर आचार्य को विश्राम करते हैं तब वह मुनि उस किन्नर की भांति मधुर क्रमशः मूल, अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त प्राप्त वाणी में धर्मकथा करता है, उसको सुनकर कोई साध्वी । होता है। प्रभातकाल में पूछती है २२७२.अद्धाणनिग्गयाई, तिक्खुत्तो मग्गिऊण पडिलोमं । २२६६.कतरो सो जेण निसिं, कन्ना णे पूरिया व अमयस्स। गीयत्था जयणाए, वसंति तो अभिदुवाराए॥ सो मि अहं अज्जाओ!, आसि पुरा सुस्सरो किं वा॥ मार्ग में प्रस्थित मुनि अथवा अशिव आदि के कारण से वे आपमें से किस साधु ने रात्री में प्रवचन कर हमारे कानों अकस्मात् संयतीक्षेत्र में आ गए। वे निरुपहत वसति की तीन को अमृत से भर दिया था। तब धर्मकथाकारक मुनि सामने बार मार्गणा करते हैं, फिर भी यदि वह नहीं मिलती है तो आकर कहता है-आर्या! वह मैं था। पहले मेरा स्वर बहुत । प्रतिलोम के क्रम से गीतार्थ मुनि अनेकद्वार वाले संयतीक्षेत्र सुन्दर था। अब मेरा स्वर इतना मीठा नहीं रहा। में यतनापूर्वक रहते हैं। २२६७.रुक्खासणेण भग्गो, कंठो मे उच्चसइपढओ य। २२७३.सिंगारवज्ज बोले, अह एगो विज्जपाढऽणुच्चं च। __ संथुय कुलम्मि नेह, दावेमि कए पुणो पुच्छा। सड्ढादीनिब्बंधे, कहिए वि न ते परिकहिंति॥ रूक्ष आहार करने के कारण मेरा कंठ भग्न हो गया है। वहां धर्मकथा करते हुए शृंगार रस का वर्जन करते हुए ऊंचे स्वर से पढ़ने के कारण भी मेरा कंठ भग्न हो गया। यह समूह में धर्मकथा करे जिससे किसी एक का व्यक्त स्वर सुनकर कोई साध्वी कहती है-मैं भावितकुल से घी आदि उपलक्षित नहीं होता। अकेला यदि करे तो वैद्यपाठ की भांति Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक २३१ स्वरवर्जित की तरह मंद-मंद पाठ करे। वह यथास्वर से ही धर्मकथा करे, क्योंकि मधुर स्वरों में धर्मकथा करने पर श्रावक आदि बहुत बंध जाते हैं। मधुर स्वर में धर्मकथा करने पर प्रातः संयती के पूछने पर साधु यह न बताएं कि अमुक साधु ने धर्मकथा की थी। २२७४.कडओ व चिलिमिली वा, तत्तो थेरा य उच्च नीए वा। पासे ततो न उभयं, मत्तग जयणाऽऽउल ससद्दा॥ उस वसति में रहते हुए यदि प्रवेश और निर्गमन में साधु-साध्वी परस्पर दीखते हों तो वहां बांस से बनी हुई सघन चटाई अथवा चिलिमिली बांध दे। एक ओर स्थविर मुनि और दूसरी ओर क्षुल्लिका साध्वियां बैठ जाएं। ऊपर के भाग में या नीचे के भाग में बैठने की भी यही यतना है। यदि पास में या पीछे प्रतिश्रय हो तो दोनों एक ही दिशा में उत्सर्ग के लिए न जाएं। वैसी स्थंडिल भूमी न मिले तो मात्रक का उपयोग करे अथवा आकुल होकर शब्द करते हुए वहां जाएं। २२७५.पिहदारकरण अभिमुह, चिलिमिलि वेला ससद्द बहु निंति। साहीए अन्नदिसिं, निती न य काइयं तत्तो॥ परस्पर अभिमुखद्वार वाली वसति में रहना पड़े तो द्वार पर चिलिमिली डाल दे तथा संज्ञा विसर्जन की वेला हो तो अनेक मुनि सशब्द करते हुए निकलें। जहां एक ही गली हो तो अन्य दिशा में द्वार वाले प्रतिश्रय में रहे। जिस ओर साध्वियों का प्रतिश्रय हो उस ओर कायिकी भूमी में न जाएं। २२७६.जत्थऽप्पतरा दोसा, जत्थ य जयणं तरंति काउं जे। तत्थ वसंति जयंता, अणुलोमं किं पि पडिलोमं॥ जिस उपाश्रय में अल्पतर दोष हों और जहां यतना का पालन किया जा सकता है, वहां मुनि यतनापूर्वक रहें। वह उपाश्रय अनुकूल हो या प्रतिकूल, परंतु पूर्ण यतना रखें। २२७७.आय-समणीण नाउं, किढि कप्पट्ठी समाणयं वज्जे। बहुपाडिवेसियजणं, च खमयरं एरिसे होइ॥ स्वयं का तथा श्रमणी वर्ग को जानकर उचित यतना करे। स्थविर साध्वियों को तथा क्षुल्लक साध्वियों को दोनों ओर करके, समान वय वाली साध्वियों के संदर्शन का वर्जन करे। जो वसति अनेक पड़ौसियों से युक्त हो वह रहने योग्य होती है। २२७८.पउमसर वियरगो वा, वाघातो तम्मि अभिनिवगडाए। तम्मि वि सो चेव गमो, नवरं पुण देउले मेलो॥ जिस गांव के अनेक वगड़ा और प्रवेश-निर्गमन द्वार हो और पद्मसरोवर या कोई गर्ता व्यवधानरूप हो तो वहां भी वही यतना ज्ञातव्य है। केवल देवकुल में दृष्टि आदि के कारण साधु-साध्वियों का संगम होता है। २२७९.अंतो वियार असई, अज्जाण हविज्ज तइयभंगम्मि। संकिट्ठगवीयारे, व होज्ज दोसा इमं नायं॥ तीसरे भंग वाली अर्थात् आपात-असंलोक वाली विचारभूमी भीतर न हो तो साध्वियां बाहर जाती हैं, वहां संक्लिष्ट विचारभूमी के दोष होते हैं। अर्थात् एक द्वार के कारण अन्य संज्ञाभूमी न होने के कारण मुनि भी वहीं आते हैं। आते-जाते दोनों का मिलना होता है। यहां यह दृष्टांत है। २२८०.वासस्स य आगमणं, महिला कुड णंतगे व रत्तट्ठी। देउलकोणे व तहासंपत्ती मेलणं होज्जा॥ २२८१.गहिओ अ सो वराओ, बद्धो अवओडओ दवदवस्स। संपाविओ रायकुलं, उप्पत्ती चेव कज्जस्स॥ २२८२.जाणंता वि य इत्थिं, दोसवई तीए नाइवग्गस्स। पच्चयहेउं सचिवा, करेंति आसेण दिद्रुतं ।। २२८३.वम्मिय कवइय वलवा, अंगणमज्झे तहेव आसो य। वलवाए अवंगुणणं, कज्जस्स य छेदणं भणियं॥ कोई महिला कुसुंभरक्तवस्त्र युगल को पहन कर पानी लाने निकलती है। वर्षा आ जाती है तब महिला यह सोचती है कि वर्षा के पानी से कुसुंभरक्तवस्त्रों का रंग न मिट जाए, इसलिए वह दोनों वस्त्रों को घड़े में डालकर स्वयं अप्रावृत होकर देवकुल में प्रवेश करती है। वहां पहले से ही एक अनगार देवकुल के कोणे में स्थित है। उसने उस महिला को अप्रावृत अवस्था में देख लिया। ऐसे संयोग में दोनों का मिलन हुआ। राजपुरुष ने देख लिया। वह उस अनगार को पकड़ लेता है, उसे बांधकर, उसकी ग्रीवा को पीछे की ओर मोड़कर, हाथों को पीछे बांध शीघ्र ही राजकुल में ले आता है। वहां कारणिक-धर्माधिकारी के द्वारा पूछने पर वह यथार्थ बात कह देता है। यह जानते हुए भी कि स्त्री दोषवती है, वह धर्माधिकारी उस स्त्री के ज्ञातिजनों के विश्वास के लिए अश्व का दृष्टांत कहता है-एक घोड़ी राजा के आंगन में है। वह वर्मित अर्थात् लघु तनुवाणयुक्त है तथा कवचित अर्थात् कवच पहने हुए है। उसी आंगन में एक अश्व भी है। वह अश्व उससे सहवास करने के लिए दौड़ता है, परंतु सहवास कर नहीं सकता। यदि घोड़ी को अप्रावृत कर दिया जाए तो दोनों का सहवास सुकर हो सकता है। इसी प्रकार यदि यह स्त्री अप्रावृत नहीं होती तो यह अनर्थ घटित नहीं होता। कारणिक-धर्माधिकारी ने तब यह निर्णय दिया कि स्त्री ही अपराधकारिणी है। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ -बृहत्कल्पभाष्यम् २२८४.एवं खु लोइयाणं, महिला अवराहि न पुण सो पुरिसो। और अभिनिद्वार वाली वसति में, संयतीक्षेत्र में गीतार्थ इह पुण दोण्ह वि दोसो, सविसेसो संजए होइ॥ यतनापूर्वक रहते हैं। इस प्रकार वह लौकिक महिला अपराधिनी मानी गई, २२८९.पिहगोअर-उच्चारा,जे अब्भासे वि होति उ निओया। पुरुष नहीं। लोकोत्तर प्रसंग में संयत और संयती दोनों का वीसुं वीसुं वुत्तो, वासो तत्थोभयस्सावि॥ दोष माना जाता है, फिर भी विशेष दोष संयत का होता है, मूल क्षेत्र के निकट अन्य नियोग-गांव होते हैं, वे पृथक् मुनि का होता है। गोचरचर्या वाले तथा पृथक् उच्चारभूमी वाले होते हैं। ऐसे २२८५.पुरिसुत्तरिओ धम्मो, पुरिसे य धिई ससत्तया चेव। क्षेत्रों में साधु-साध्वियों को पृथग्-पृथग् उपाश्रय में निवास पेलव परज्झ इत्थी, फुफुग-पेसीए दिÉतो॥ किया जा सकता है। क्योंकि पुरुषोत्तर धर्म है। पुरुष में धृति-मानसिक २२९०.तं नत्थि गाम-नगरं, जत्थियरीओ न संति इयरे वा। स्वस्थता तथा सत्त्व की संपन्नता होती है। इस स्थिति में यदि पुणरवि भणामु रन्ने, वस्सउ जइ मेलणे दोसा॥ वह प्रतिसेवना करता है तो विशेष दोषी है। स्त्री निःसत्त्व ऐसा कोई ग्राम और नगर नहीं है जहां पार्श्वस्थ आदि और परवश होती है। यहां फुफुक और पेशी का दृष्टांत संप्रदाय की साध्वियां न हों अथवा इतर-पार्श्वस्थ आदि न वक्तव्य है। (जैसे करीषाग्नि को चालित करने से वह उद्दीप्स हों। तो हम पुनः कहते हैं कि परस्पर मेलना का दोष होता होती है, उसी प्रकार स्त्रीवेद भी। जैसे पेशी सभी के द्वारा हो तो वन में निवास करना चाहिए। अभिलषणीय होती है, वैसे ही स्त्री भी।) २२९१.दिट्ठतो पुरिसपुरे, मुरुडदूतेण होइ कायव्वो। . २२८६.जइ वि य होज्ज वियारो,अंतो अज्जाण तइयभंगम्मि। जह तस्स ते असउणा, तह तस्सितरा मुणेयव्वा॥ तत्थ वि विकिंचणादीविनिग्गयाणं तु ते दोसा।। यहां पुरुषपुर में मुरुण्डदूत का दृष्टांत कहना चाहिए। यदि तीसरे विकल्प के अनुसार आर्यायों के आपात- उस दूत के लिए रक्तपट वाले अशकुन होते थे। उसी प्रकार असंलोक वाली विचारभूमी भीतर में प्राप्त हो, फिर भी मुनि के पार्श्वस्थ आदि की संयतियां दोषकरी नहीं होती। परिष्ठापन आदि के लिए निर्गत होने पर पूर्वोक्त दोष हो २२९२.पाडलि मुरुडदूते, पुरिसपुरे सचिवमेलणाऽऽवासो। सकते हैं। भिक्खू असउण तइए, दिणम्मि रन्नो सचिवपुच्छा। २२८७.एते तिन्नि वि भंगा, पढमे सुत्तम्मि जे समक्खाया। २२९३.निग्गमणं च अमच्चे, सब्भावाऽऽइक्खिए भणइ दूयं । __ जो पुण चरिमो भंगो, सो बिइए होइ सुत्तम्मि। अंतो बहिं च रच्छा, नऽरहिंति इहं पवेसणया। प्रथम वगडा सूत्र में ये तीनों भंग-(१) एक वगडा, एक पाटलिपुत्र नगर में मुरुंड नाम का राजा था। एक बार द्वार (२) एक वगडा अनेक द्वार (३) अनेक वगडा, एक उसका दूत पुरुषपुर में गया। सचिव से वह मिला। सचिव ने द्वार-समाख्यात हैं। जो चरम भंग है-अनेक वगडा, अनेक उसे आवासस्थल दिया। वह राजा को देखने-मिलने के द्वार-वह दूसरे सूत्र में व्याख्यात है। लिए प्रस्थान करता, परंतु रक्तपट वाले भिक्षुओं का अपशकुन होता। वह लौट आता। तीसरे दिन राजा ने सचिव से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा अभि- से पूछा। निव्वगडाए अभिनिवाराए अभिनिक्खमण अमात्य अपने स्थान से प्रस्थित हुआ। दूत के आवास पर प्पवेसाए कप्पइ निग्गंथाण य निग्गंथीण य आया और राजभवन में न आने का कारण पूछा। दूत ने यथार्थ बात अमात्य को बता दी। अमात्य तब दूत से बोलाएगयओवत्थए। इन रक्तपट भिक्षुओं का मार्ग के भीतर या बाहर अपशकुन (सूत्र ११) नहीं होता, क्योंकि यह नगर इनसे भरा पड़ा है। यह सुनकर दूत राज भवन में प्रवेश कर गया। २२८८.एयद्दोसविमुक्के, विच्छिन्न वियारथंडिलविसुद्धे। २२९४.जह चेव अगारीणं, विवक्खबुद्धी जईसु पुव्वुत्ता। अभिनिव्वगड-दुवारे, वसंति जयणाए गीयत्था॥ तह चेव य इयरीणं, विवक्खबुद्धी सुविहिएसु॥ जो क्षेत्र प्रथम सूत्रोक्त दोषों से विप्रमुक्त हो, विस्तीर्ण हो, जैसे यह कहा जा चुका है (गाथा २१७०) कि स्त्रियों की विचार और स्थंडिलभूमी से विशुद्ध हो अर्थात् भिक्षाचर्या मुनियों के प्रति विपक्षबुद्धि होती है वैसे ही पार्श्वस्थ संयतियों और संज्ञाभूमी से दोषमुक्त हो, इस प्रकार के अभिनिवगडा का भी सुविहित साधुओं के प्रति विपक्षबुद्धि होती है। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक आवणगिहादिसु वासविधिनिसेध-पदं नो कप्पइ निग्गंथीणं आवणगिहंसि वा रच्छामुहंसि वा सिंघाडगंसि वा तियंसि वा चउक्कंसि वा चच्चरंसि वा अंतरावणंसि वा वत्थए ॥ (सूत्र १२) २२९५.एयारिसखेत्तेसुं, निग्गंथीणं तु संवसंतीणं । केरियम्मि न कप्पर, वसिऊण उवस्सए जोगो ॥ ऐसे क्षेत्रों में अर्थात् पृथग् वगडा और पृथग् द्वारवाले क्षेत्रों में रहने वाली साध्वियों को कैसे उपाश्रय में रहना नहीं कल्पता ? यह सूत्र से योग है संबंध है। २२९६.दिट्ठमुवस्सयगहणं, तत्थऽज्जाणं न कप्पर इमेहिं । वृत्ता सपक्खओ वा, दोसा परपक्खिया इणमो ॥ पहले सूत्र से यह ज्ञात होता है कि उपाश्रय का ग्रहण कैसे 'किया जाये ? साध्वियों को इन उपाश्रयों में रहना नहीं कल्पता वह इस सूत्र में प्रतिपादित है। अथवा स्वपक्ष वाले साधुसाध्वियों के परस्पर दोष बताए गए हैं। अब परपाक्षिक अर्थात् गृहस्थों से होने वाले ये दोष बताये जा रहे हैं। २२९७. आवणहि रच्छाए, तिए चउक्कंतरावणे तिविहे । ठायंतिगाण गुरुगा, तत्थ वि आणाइणो दोसा ॥ आपणगृह, रथ्यामुख, त्रिक, चतुष्क, तीन प्रकार के अन्तरापणों में रहने वाली साध्वियों के, प्रत्येक में रहने से, चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। २२९८. जं आवणमज्झम्मी, जं च गिहं आवणा य दुहओ वि । तं होइ आवणगिहं, रच्छामुह रच्छपासम्मि॥ जो गृह आपणों के मध्य में हो अर्थात् चारों ओर आपण हों या जिस गृह के दोनों ओर आपण हों, वह आपणगृह होता है । रथ्यामुख अर्थात् रथ्या के पार्श्व में होने वाला गृह । २२९९.तं पुण रच्छमुहं वा, बाहिमुहं वा वि उभयतोमुहं वा । अहवा जत्तो पवहs, रच्छा रच्छामुहं तं तु ॥ रथ्या के पास वाला गृह, रथ्या के अभिमुख वाला गृह, वह गृह जिसके पीछे रथ्या हो, अथवा उभयतोमुख वाला गृह-एक द्वार रथ्या के पराङ्मुख में खुलता हो, एक द्वार रथ्या के अभिमुख खुलता हो, अथवा जिस गृह से रथ्या जाती हो वह रथ्यामुख कहलाती है। २३००. सिंघाडगं तियं खलु, चउरच्छसमागमो चउक्कं तु । छण्हं रच्छाण जहिं पवहो तं चच्चरं बिंती ॥ जहां तीन मार्ग मिलते हों, वह श्रृंगाटक कहलाता है। २३३ जहां चार मार्गों का समागम होता है वह चतुष्क और जहां छह मार्गों का निर्गम होता है वह चत्वर कहलाता है। २३०१. अह अंतरावणो पुण, वीही सा एगओ व दुहओ वा । तत्थ गिह अंतरावण, गिहं तु सयमावणो चेव ॥ जिस गृह के एक ओर अथवा दोनों ओर वीथी होहट्टमार्ग हो, वह गृह अंतरापण कहलाता है। अथवा जो गृह स्वयं आपण का कार्य संपादित करता है वह गृह अंतरापण कहलाता है। २३०२. आवण रच्छगिहे वा, तिगाइ सुन्नंतरावणुज्जाणे । चउगुरुगा छल्लहुगा, छग्गुरुगा छेय मूलं च ॥ साध्वियां यदि आपणगृह में रहती हैं तो चतुर्गुरु, रथ्यामुख में रहती हों तो षड्लघु, त्रिक-चतुष्क- चत्वर में रहने पर षड्गुरु, शून्यगृह और अंतरापण में रहने पर छेद और उद्यान में रहने पर मूल प्रायश्चित्त आता है। (यह प्रायश्चित्त का विधान सामान्य भिक्षुणियों के लिए है। प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी आदि के लिए विशेष प्रायश्चित्त का विधान टीका में प्राप्त है | ) २३०३. सव्वेसु वि चउगुरुगा, भिक्खुणिमाईण वा इमा सोही । चउगुरुविसेसिया खलु, गुरुगादि व छेदनिट्ठवणा ॥ अथवा सभी आपणगृह आदि में चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। अथवा भिक्षुणी आदि के लिए यह शोधि- प्रायश्चित्त हैचतुर्गुरु, तप और काल से विशेषित । अथवा चतुर्गुरु से प्रारंभ कर छेद पर्यन्त जैसे भिक्षुणी के सभी स्थानों में चतुर्गुरुक, अभिषेका के षड्लघुक, गणावच्छेदिनी के षड्गुरुक और प्रवर्तिनी के छेद । २३०४.तरुणे वेसित्थि विवाह रायमादीसु होइ सइकरणं । इच्छमणिच्छे तरुणा, तेणा उवहिं व ताओ वा ॥ आपणगृह आदि में ठहरी हुई साध्वियां तरुण व्यक्तियों को, वेश्याओं को, विवाह को तथा राजा आदि को देखकर भुक्त भोगों का स्मरण कर सकती हैं। यदि वे तरुणों से समागम की इच्छा करती हैं तो संयमविराधना होती है और यदि इच्छा नहीं करती हैं तो तरुण उड्डाह आदि करते हैं। स्तेन उनकी उपधि का अथवा उनका अपहरण कर लेते हैं। २३०५. चउहालंकारविउव्विए तहिं दिस्स सललिए तरुणे । लडहपयंपिय-पहसिय-विलासगइ - णेगविहकिड्डे ।। चार प्रकार के अलंकार - वस्त्र, पुष्प, गंध तथा आभरणसे अलंकृत तथा सललित तरुणों को देखकर और उनकी मनोज्ञ वाणी, हास्य-विलासयुक्त गति तथा अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं को देखकर मोहोदय होता है। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ बृहत्कल्पभाष्यम् तेसिंह, २३०६.दटुं विउव्वियाओ, कुलडा धुत्तेहिं संपरिवुडाओ। बिब्बोय-पहसियाओ, आलिंगणमाइया मोहो॥ इसी प्रकार अलंकृत और धूर्तों से सपरिवृत कुलटाओं- वेश्याओं जो बिल्बोक और प्रहसितयुक्त हैं तथा उनके द्वारा किए जाने वाले आलिंगन आदि को देखकर मोह का उदय हो सकता है। २३०७.तत्थ चउरंतमादी, इब्भविवाहेसु वित्थरा रइया। भूसियसयणसमागम, रह-आसादीय निव्वहणा। वहां आपणगृह आदि में स्थित साध्वियां धनी व्यक्तियों के विवाह विस्तर में रचित चतुरंत अर्थात् चतुरिका तथा वंदन, कलश, तोरण आदि को देखकर, तथा वहां विवाह में सम्मिलित होने वाले वस्त्राभूषणों से अलंकृत होकर आने वाले स्वजनों को देखती हैं तथा वधू को रथ, अश्व, शिविका आदि से निर्वहण-श्वसुरगृह में ले जाते देखकर भुक्तभोगिनी साध्वियों के मोहोदय होता है और वे संयमपथ से च्युत हो जाती हैं। २३०८.बलसमुदयेण महया, छत्तसिया वियणि-मंगलपुरोगा। दीसंति रायमादी, तत्थ अतिता य निंता य॥ वे साध्वियां सफेद छत्र धारण किए हुए राजा आदि को महान् सेना के साथ नगर में प्रवेश करते हुए या निर्गमन करते हुए देखती हैं। राजा के आगे-आगे चामर तथा दर्पण, पताका आदि को लेकर अन्य कर्मकर चलते हैं। २३०९.ते नक्खि -वालि-मुहवासि जंघिणो दिस्स अट्ठियाऽणट्ठी। होसुंणे एरिसगा, न य पत्ता एरिसा इतरी॥ अन्यान्य उन्नत और स्निग्ध नखवाले, श्यामल केशवाले, सुवासित मुखवाले, सुरूप जंघावाले, पुरुष जो मैथुनार्थी हैं या स्वाभाविकरूप से वहां आए हैं, उनको देखकर भुक्तभोगिनी साध्वियां सोचती हैं हमारे पति भी ऐसे ही थे। कई सोचती हैं, हमें ऐसे पति प्राप्त नहीं हुए थे। ये दोष उत्पन्न होते हैं। २३१०.एयारिसए मोत्तुं, एरिसयविवाहिता य सइ भुत्ते। इयरीण कोउहल्लं, निदाण-गमणादयो सज्जं॥ पूर्वावस्था में भुक्तभोगिनी संयतियां सोचती हैं-इन सदृश पतियों को छोड़कर हमने दीक्षा ग्रहण की है, इनके सदृश तरुणों से हम भी विवाहिता थीं-इस प्रकार पूर्व की स्मृति होती हैं। अभुक्तभोगिनियों संयतियों के मन में कुतूहल होता है। उस अवस्था में दोनों के निदान हो सकता है अथवा पुनः गृहवास की ओर लौटना हो सकता है। २३११.आयाणनिरुद्धाओ, अकम्मसुकुमालविग्गहधरीओ। तेसिं पि होइ दटुं, वइणीओ समुब्भवो मोहे॥ उन श्रमणियों की इन्द्रियां निरुद्ध होती हैं तथा क्रिया न करने के कारण सुकुमार शरीरवाली उन श्रमणियां को देखकर उन तरुणों के मन में भी मोह का उदय होता है। २३१२.संजमविराहणा खलु, इच्छाए अणिच्छयं व बहि गिण्हे। तेणोवहिनिप्फन्ना, सोही मूलाइ जा चरिमं॥ यदि तत्रस्थित श्रमणियां उन तरुणों की वांछा करती हैं तो संयम की विराधना होती है। यदि वांछा नहीं करती हैं तो श्रमणियों को बाहर खींच लाते हैं। एकांत में स्थित उन श्रमणियों की उपधि स्तेन चुरा लेते हैं। उससे प्रायश्चित्त निष्पन्न होता है। संयती का अपहरण हो जाने पर आचार्य को मूल आदि चरम प्रायश्चित्त आता है। २३१३.ओभावणा कुलघरे, ठाणं वेसित्थि-खंडरक्खाणं। उद्धंसणा पवयणे, चरित्तभासुंडणा सज्जो॥ वहां रहने वाली श्रमणियों के कुलगृह का तिरस्कार होता है। आपणगृह आदि वेश्यास्त्रियों का और आरक्षिकों का स्थान होता है। उससे प्रवचन की हीनता होती है तथा सद्य चारित्र से परिभ्रंशना होती है। २३१४.ससिपाया वि ससंका, जासिं गायाणि सन्निसेविंस। ___ कुलफुसणीउ ता भे, दोन्नि वि पक्खे विधंसिंति॥ आपणगृहों में स्थित साध्वियों को देखकर कोई ज्ञातिजन उनके कुटुंबियों को जाकर कहता है-आपके पुत्रियों और पुत्रवधूओं के कोमल शरीर को चन्द्रमा की किरणें सशंक होकर स्पर्श करती थीं, वे अभी आपणगृह में रह रही हैं। इस प्रकार के निवास से वे आपके कुल को कलंकित करने वाली तथा दोनों पक्षों को-पैतृक पक्ष और श्वसुर पक्ष का विध्वंस करने वाली हैं। २३१५.छिन्नाइबाहिराणं, तं ठाणं जत्थ ता परिवसंति। इय सोउं दट्ठण व, सयं तु ता गेहमाणिंति॥ जहां वे रहती हैं वह छिन्नाल, वेश्या, खंडरक्ष आदि शिष्टव्यक्तियों से बाह्यभूत जनों के लिए है। यह सुनकर, देखकर ज्ञातिजन अपनी संबंधिनी साध्वी को घर ले आते हैं। २३१६.पेच्छह गरहियवासा, वइणीउ तवोवणं किर सियाओ। किं मन्ने एरिसओ, धम्मोऽयं सत्थगरिहा य॥ २३१७.साहूणं पि य गरिहा, तप्पक्खीणं च दुज्जणो हसइ। अभिमुहपुणरावत्ती, वच्चंति कुलप्पसूयाओ। वहां स्थित साध्वियों को देखकर कोई कहता है-देखो! Jain Education international Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = २३५ ये साध्वियां तपोवन में रहने वाली इस गर्हित स्थान में स्थित हो वहां नियंत्रित मुनियों का यंत्रितवास नित्य भी हो सकता हैं। क्या यह माने कि तीर्थंकर ने ऐसा धर्म कहा है? इस है, ऐसा कहा है। प्रकार वे शास्ता की गर्दा करते हैं। २३२३.बोलेण झायकरणं, ठाणं वत्थु व पप्प भइयं तु। साधुओं की भी गर्दी होती है। लोग कहते हैं-इन्होंने वंदेण इंति निति व, अविणीयनिहोडणा चेव। अपनी साध्वियों को यहां ठहराया है। साधु पक्ष वाले श्रावकों यतना क्या है? साथ में उच्चस्वर से स्वाध्याय करना के समक्ष दुर्जन व्यक्ति उपहास करते हैं। यह देखकर चाहिए। स्थान या वस्तु को प्राप्त कर लेने पर स्वाध्याय की प्रव्रज्याभिमुख साध्वियां भी संयम से निवर्तित हो जाती हैं। भजना है। संज्ञा व्युत्सर्जन करने जाना हो तो समूह में जाए तथा कुलप्रसूत साध्वियां भी घर चली जाती हैं। और साथ आए। अविनीत अर्थात् दुःशील तरुणों को वहां २३१८.तरुणादीए द8, सइकरणसमुब्भवेहिं दोसेहिं।। प्रवेश न करने दें। पडिगमणादी व सिया, चरित्तभासुंडणा वा वि॥ २३२४.एएसिं असईए, सुन्ने बहि रक्खियाउ वसहेहिं। तरुणों को देखकर स्मृतिकरण से उत्पन्न अनेक दोष होते तेसऽसती गिहिनीसा, वइमाइसु भोइए नायं॥ हैं। उनके कारण से साध्वियां प्रतिगमन कर देती हैं, अथवा इन आपणगृहों आदि के अभाव में वृषभों-समर्थ मुनियों चारित्रभ्रंश की भी स्थिति बन जाती है। द्वारा रक्षित शून्य उपाश्रय में साध्वियां रह सकती हैं। वृषभों २३१९.एए चेव य दोसा, सविसेसतरा हवंति सेसेसु। के अभाव में गृहस्थों के निश्रा में वृत्ति आदि से सुगुप्त रच्छामुहमादीसुं, थिरा-थिरेहिं थिरे अहिया॥ उपाश्रय में रहे और भोजिक-ग्रामस्वामी को वह बता दे। ये ही सारे दोष शेष रथ्यामुख, शृंगाटक, त्रिक-चतुष्क मार्ग के आवास में रहने से सविशेष होते हैं। तरुण दो प्रकार कप्पइ निग्गंथाणं नो आवणगिहंसि वा के होते हैं-स्थिर-वहीं के वास्तव्य और अस्थिर-अन्यत्र रच्छामुहंसि वा सिंघाडगंसि वा तियंसि वा रहने वाले। स्थिर तरुणों से ही अधिक दोष होते हैं। चउक्कंसि वा चच्चरंसि वा अंतरावणंसि २३२०.अद्धाणनिग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए। वा वत्थए॥ __ रच्छामुहे चउक्के, आवण अंतो दुहिं बाहिं। जो मार्ग में प्रस्थित हैं, वे मुनि निर्दोष वसति की तीन (सूत्र १३) बार गवेषणा करे, प्राप्त न होने पर साध्वियों को पहले रथ्यामुख वाले गृह में स्थापित करें। उसमें भी अंतर्मुखवाली २३२५.एसेव कमो नियमा, निग्गंथाणं पि नवरि चउलहुगा। रथ्या में, उसके न मिलने पर द्विधामुख वाले रथ्यागृह में सुत्तनिवातो अंतोमुहम्मि तह चेव जयणाए। और उसकी प्राप्ति न होने पर बहिर्मुखवाले रथ्यागृह में रखें। नियमतः यही क्रम मुनियों के लिए भी है। आपण गृह रथ्यामुखगृह की अप्राप्ति होने पर आपणगृह, उसके अभाव में आदि में रहने पर ये दोष होते हैं। उनका प्रायश्चित्त है शृंगाटक गृह या त्रिकगृह या चतुष्कगृह या चत्वर गृह में, चतुलघु। याद अन्य उपाश्रय न ।' चतुर्लघु। यदि अन्य उपाश्रय न मिले तो रथ्यागृह में उसके अभाव में अन्तरापण में साध्वियां ठहरें। यतनापूर्वक रहा जा सकता है। यहां प्रकृतसूत्र का निपात है।' २३२१.अंतोमुहस्स असई, उभयमुहे तस्स बाहिरं पिहए। उस स्थान के अभाव में अन्य स्थानों में यतनापूर्वक रहा जा ___तस्सऽसइ बाहिरमुहे, सइ ठइए थेरिया बाहिं। सकता है। अंतर्मुख वाले रथ्यामुख के अभाव में उभयमुख वाले अवंगुयदुवार-उवस्सय-पदं रथ्यागृह में रहे। उसका जो बहिर् द्वार है उसको ढक दे। उसके अभाव में बहिर्मुख वाले रथ्यागृह में रहे और वह द्वार नो कप्पइ निग्गंथीणं अवंगुयदुवारिए सदा ढका रहे। स्थविर साध्वियां बाहर वाले द्वार के निकट उवस्सए वत्थए। एगं पत्थारं अंतो किच्चा बैठे। एगं पत्थारं बाहिं किच्चा ओहाडिय२३२२.जत्थऽप्पयरा दोसा, जत्थ य जयणं तरंति काउं जे। चिलिमिलियागंसि एवण्हं कप्पइ वत्थए। निच्चमवि जंतियाणं, जंतियवासो तहिं वुत्तो॥ (सूत्र १४) जहां अल्पतर दोष होते हों और जहां यतना करना शक्य १. यह कारणिक सूत्र अपवाद सूत्र है। अन्य उपाश्रय न मिलने पर आपणगृह आदि में रहा जा सकता है। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ २३२६.पडिसिद्धविवक्खेसुं, उवस्सएहिं उ संवसंतीणं। बंभवयगुत्ति पगए, वारिंतऽन्नेसु वि अगुत्तिं॥ प्रतिषिद्ध आपणगृह आदि के प्रतिपक्ष उपाश्रयों में रहनेवाली साध्वियों के ब्रह्मचर्यगुप्ति की बात कही गई है। उन उपाश्रयों में भी अपावृतद्वारतारूप अगुप्ति का निषेध किया गया है। २३२७.दारे अवंगुयम्मी, निग्गंथीणं न कप्पए वासो। चउगुरु आयरियाई, तत्थ वि आणाइणो दोसा॥ उद्घाटित द्वारवाले उपाश्रय में साध्वियों को रहना नहीं कल्पता। यदि आचार्य प्रवर्तिनी को नहीं कहते हैं तो चतुर्गुरु, प्रवर्तिनी यदि साध्वियों को नहीं कहती हैं तो चतुर्गुरु आर्यिका यदि स्वीकार नहीं करती है तो मासलघु। न कहने और स्वीकार न करने पर आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। २३२८.दारे अवंगुयम्मी, भिक्खुणिमादीण संवसंतीणं। गुरुगा दोहि विसिट्ठा, चउगुरुगादी व छेदंता॥ उद्घाटित द्वारवाले उपाश्रय में रहने वाली भिक्षुणी आदि साध्वियों के चतुर्गुरु आदि प्रायश्चित्त तप और काल से विशिष्ट प्रायश्चित्त आता है। और वह वृद्धिंगत होते होते छेद पर्यन्त चला जाता है। (देखें टीका) २३२९.तरुणे वेसित्थीओ, विवाहमादीसु होइ सइकरणं। इच्छमणिच्छे तरुणा, तेणा ताओ व उवहिं वा॥ आपणगृह आदि में ठहरी हुई साध्वियां तरुणों को, वेश्याओं को, विवाह को तथा राजा आदि को देखकर भुक्तभोगों की स्मृति कर सकती हैं। यदि वे तरुणों की इच्छा करती हैं तो संयमविराधना होती है और यदि इच्छा नहीं करती हैं तो तरुण उड्डाह करते हैं। स्तेन उनकी उपधि का अथवा साध्वियों का अपहरण कर लेते हैं। २३३०.अन्ने वि होति दोसा, सावय तेणे य मेहुणट्ठी य। वइणीसु अगारीसु य, दोच्चं संछोभणादीया॥ अन्य दोष भी वहां उद्भूत होते हैं। अपावृत द्वार वाले उपाश्रय में श्वापद, चोर, मेथुनार्थी लोग प्रवेश कर सकते हैं। कोई व्रतिनी मोहोद्भव के कारण किसी गृहस्थ को चाह रही हो और वह गृहस्थ रात्री में दूती के रूप में किसी स्त्री को वहां खुले उपाश्रय में भेजता है। गृहिणियों के मध्य कोई गृहिणी संछोमण-परिवर्तन कर देती हैं। वह साध्वी का वेश पहन कर साध्वी के शयन पर सो जाती है और वह साध्वी उसके वस्त्र पहन कर जहां जाना हो चली जाती है। ये सारे दोष होते हैं। २३३१.पत्थारो अंतो बहि, अंतो बंधाहिं चिलिमिलिं उवरिं। पडिहारि दारमूले, मत्तग सुवणं च जयणाए। १. प्रस्तारः-कटः, स च द्विदलकटादिः। =बृहत्कल्पभाष्यम् यदि अपवादरूप में वहां रहना पड़े तो यह विधि हैउपाश्रय के भीतर और बाहर दो प्रस्तार-बांस की चटाई बांधनी चाहिए। भीतर वाले प्रस्तार के ऊपर एक चिलिमिली बांध कर उसे नियंत्रित करना चाहिए। फिर प्रतिहारी द्वार के पास बैठ जाती है। मात्रक-प्रस्रवण और स्वपन यतनापूर्वक करना चाहिए। २३३२.असई य कवाडस्सा,बिदलकडादी अ दो कडा उभओ। फरमुट्ठियस्स सरिसो, बाहिरकडयम्मि बंधो उ॥ २३३३.सुत्ताइरज्जुबंधो, दुछिड्ड अभिंतरिल्लकडयम्मि। हेट्ठा मज्झे उवरिं, तिन्नि व दो वा भवे बंधा। यदि उपाश्रय के कपाट न हों तो द्वार के दोनों ओर द्विदलकट-बांस की दो चटाईयां दोनों ओर बांधनी चाहिए। फिर स्फरक की मुष्टि (?) के सदृश बंध भीतर से बाहर के कट के बंध देना चाहिए। वह बंध सूत्रमय, वल्कलमय, ऊर्णामय या दवरकमय हो सकता है। अभ्यंतरकट में दो छिद्र करने चाहिए। वे नीचे और ऊपर समश्रेणी में हों और उनमें से दबरक को प्रविष्ट कर मजबूती से बांध देना चाहिए। ऐसे तीन या दो बंध बांधने चाहिए। २३३४.काएण उवचिया खलु, पडिहारी संजईण गीयत्था। परिणय भुत्त कुलीणा, अभीरु वायामियसरीरा।। २३३५.आवासगं करित्ता, पडिहारी दंडहत्थ दारम्मि। तिन्नि उ अप्पडिचरित्रं, कालं घेत्तूण य पवेए।। प्रतिहारी कैसी हो? आचार्य कहते हैं वह शरीर से उपचित, गीतार्था, परिणत, भुक्तभोगिनी, कुलीन, अभीरु, व्यायामित-शरीरवाली अर्थात् कष्टों को सहन करने में समर्थ साध्वियों के ऐसी प्रतिहारी होनी चाहिए। उसका कार्य है कि वह प्रतिक्रमण कर, हाथ में दंड लेकर मुख्यद्वार पर बैठ जाए। तीन साध्वियां अघोषित रूप से कालग्रहण कर प्रवर्तिनी को निवेदन करे। निवेदन करने के पश्चात् स्वाध्याय की प्रस्थापना की जाती है। तब सभी साध्वियां स्वाध्याय करती हैं। २३३६.ओहाडियदाराओ, पोरिसि काऊण पढमए जामे। पडिहारि अग्गदारे, गणिणी उ उवस्सयमुहम्मि॥ चिलिमिली से ढंके हुए द्वार में स्थित वे साध्वियां प्रथम प्रहर में सूत्रपौरुषी करती हैं, प्रतिहारी उस समय भी अग्रद्वार पर बैठी रहती है। गणिनी-प्रवर्तिनी उपाश्रय के मूल द्वार पर स्थित होकर स्वाध्याय करती है। २३३७.उभयविसुद्धा इयरी, पविसंतीओ पवत्तिणी छिवइ। सीसे गंडे वच्छे, पुच्छइ नामं च का सि ति॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = २३७ जब उभयसंज्ञा से निवृत्त होकर अन्य साध्वियां वहां २३४२.कुडमुह डगलेसु व काउ मत्तगं इट्टगाइदुरुढाओ। प्रवेश करती हैं, तब प्रवेश करते ही प्रवर्तिनी उनके शिर, लाल सराव पलालं, व छोढ मोयं तु मा सहो। कपोल और वक्षस्थान को छूती है और तुम्हारा नाम क्या घटकंठक अथवा डगलक पर मात्रक को स्थापित कर, है-यह पूछती है। (स्पर्श यह जानने के लिए करती है कि उस पर एक शराव रखे, उसके मध्य में छिद्र कर, उस छिद्र आगंतुक साध्वी है या नहीं?) में वस्त्र की एक लंबी लीरी अथवा पलाल उसमें डाले २३३८.किं तुज्झ इक्वियाए, घम्मो दारं न होइ इत्तो उ। जिससे कि प्रस्रवण करते समय उसका शब्द न हो। उसके न य निट्ठरं पि भन्नइ, मा जियगद्दत्तणं हुज्जा॥ दोनों पार्यों में ईंटें रखें और उस पर आरूढ़ होकर साध्वियां विलंब से आने पर प्रवर्तिनी कहती है क्या तुम्हारे प्रस्रवण करें। अकेली का ही यह धर्म है कि विलंब से आना? इधर द्वार २३४३.सोऊण दोन्नि जामे, चरिमे उज्झेत्तु मोयमत्तं तु। नहीं होता (अर्थात् बिलंब से आने पर स्थान नहीं है। यह कालपडिलेह झातो, ओहाडियचिलिमिली तम्मि॥ अन्यव्यपदेश से मधुर वचनों में कहे) वह निर्लज्ज न हो जाए दो प्रहरों तक सोकर, चरम याम में जाग कर मोक का इसलिए उसे निष्ठुर वचनों से न कहे। विसर्जन कर, काल की प्रतिलेखना करे और यतनापूर्वक २३३९.सव्वासु पविट्ठासुं, पडिहारि पविस्स बंधए दारं।। स्वाध्याय करे और केवल चिलिमिलि से द्वार को ढंका रखे, ___ मज्झे य ठाइ गणिणी, सेसाओ चक्कवालेणं॥ कटद्वय को हटाले। सभी साध्वियों के प्रवेश कर लेने पर प्रतिहारी प्रवेश का २३४४.संकापदं तह भयं, दुविहा तेणा य मेहुणट्ठी य। द्वार को पूर्ववत् बांध देती है। गणिनी मध्य में आकर बैठ देह-धिइदुब्बलाओ, कालमओ ता न जग्गंति॥ जाती है, अर्थात् बिछौना बिछाकर सो जाती है। और शेष यदि वे साध्वियां काल को ग्रहण कर प्रतिश्रय में आकर साध्वियां चक्रवाल के रूप में प्रवर्तिनी के चारों ओर अपना जागती रहती है तो लोगों को शंका होती है अथवा भय के अपना संस्तारक बिछाकर, एक दूसरे को संघट्टन न करती कारण वे जागती है। दो प्रकार के स्तेन होते हैं। वे साध्वियों हुईं सो जाती हैं। को अथवा उपधि की चोरी कर लेते हैं। अथवा मैथुनार्थी २३४०.सइकरण कोउहल्ला, साध्वियों को उपसर्गित करते हैं। शरीर और धृति से दुर्बल फासे कलहो य तेण तं मुत्तुं। होने के कारण वे काल-ग्रहण कर पुनः सो जाती हैं, जागृत किढि तरुणी किढि तरुणी, नहीं रहतीं। अभिक्ख छिवणा य जयणाए॥ २३४५.कम्मेहिं मोहियाणं, अभिद्दवंताण को त्ति जा भणइ। प्रश्न होता है कि एक दूसरे का संघट्टन क्यों नहीं? एक संकापदं व होज्जा, सागारिअ तेणए वा वि॥ दूसरे का स्पर्श होने पर भुक्त-अभुक्त भोगों की स्मृति तथा मोह कर्म से मूढ व्यक्ति साध्वियों को शीलच्युत करने के कुतूहल पैदा होता है। परस्पर कलह हो सकता है। इसलिए लिए उपाश्रय में आता है। उस उपद्रुत करने वाले व्यक्ति को उस स्पर्श-संघट्टन को टालने के लिए स्थविरा साध्वी पहले यदि साध्वी कहे-कौन ?। ऐसा कहने पर उसे प्रायश्चित्त बिछौना करे, उसके पास तरुण साध्वी, फिर स्थविरा आता है। स्तेन और सागारिक को यह शंका हो सकती है। साध्वी, उसके पास तरुण साध्वी इसी क्रम से शयनविधि २३४६.अन्नो वि नूणमभिपडइ इत्थ वीसत्थया तदट्ठीणं। करे। तरुण साध्वियों का बार-बार स्पर्श न हो, इस सागारि सेज्झगा वा, सइत्थिगाओ व संकेज्जा। प्रकार यतनापूर्वक शयन करे। प्रतिहारी द्वारमूल पर बिछौना आगन्तक स्तेन या मैथुनार्थी यह सोचता है-इस साध्वी करे। ने 'कौन' यह पूछा है, इसका तात्पर्य है कि यहां निश्चित ही २३४१.तणुनिदा पडिहारी, गोविय घेत्तुं च सुवइ तं दारं। कोई अन्य भी आता है, अतः वे विश्वस्त हो जाते हैं, जग्गंति वारएण व, नाउं आमोस-दुस्सीले॥ भयभीत नहीं होते। सागारिक-शय्यातर अथवा सेज्झगप्रतिहारी की निद्रा स्वल्प होती है। वह मूल को बांधकर पड़ौसी, अकेले अथवा सस्त्रीक, इनके मन में यह शंका उसके डोरे की ग्रंथि को गुप्त रख, डोरे को अपने हाथ में होती है कि इन साध्वियों के कोई उद्भ्रामक व्यक्ति यहां रखकर सोती है, जिससे कि अन्य साध्वियां उस द्वार को आता है। खोल न सके। वह चोर, दुःशील आदि व्यक्तियों से रक्षा के २३४७.तेणियरं व सगारो, गिण्हे मारेज्ज सो व सागरियं। लिए समय-समय पर रात्री में जागती रहती है। पडिसेह छोभ झामण, काहिंति पदोसतो जं च॥ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ 'कौन' यह सुनकर शय्यातर उठकर स्तेन या मैथुनार्थी को पकड़कर पीटेगा अथवा वह स्तेन या मैथुनार्थी उस शय्यातर को पकड़कर पीटेंगे। यह देखकर शय्यातर के ज्ञातिजन स्तेन के द्रव्य अथवा अन्य द्रव्य का व्यवच्छेद कर देंगे। अथवा वे स्तेन साध्वियों पर छोभ-झूठा आरोप लगायेंगे और प्रद्वेषवश शय्यातर का गृह या उस उपाश्रय में आग लगा देंगे। वे द्वेषवश और कुछ भी कर सकते हैं, अतः 'कौन है' ऐसा नहीं पूछना चाहिए। २३४८. संकियमसंकियं वा, उभयट्ठि नच्च बेंति अहिलितं । छुति हडि ति अणाहा!, नत्थि ते माया पिया वा वि ॥ चोरी के लिए अथवा मैथुन के लिए अथवा दोनों के लिए प्रतिश्रय में आए हुए को, चाहे शंकित हो या अशंकित, छुपने की कोशिश करते हुए को कहे- 'छुछु, हडि, अनाथ! क्या तेरे माता पिता नहीं है कि तू इस समय इस प्रकार गलियों में घूम रहा है-' २३४९. जंतुवस्सयं थे, छिन्नाल जरग्गगा सगोरहगा । नत्थि इह तु चारी, नस्ससु किं वाहिसि अहन्ना ! ॥ तुम्हारे जैसे छिन्नाल बूढ़े बैल, अथवा तरुण बैल हमारे उपाश्रय को तोड़ रहे हैं। तुम्हारे योग्य यहां चारि नहीं है। यहां से भाग जाओ । हे अधन्य ! निर्भागी ! तुम यहां क्या खाओगे। २३५०, अाण निम्नयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए । दव्वस्स व असईए, ताओ व अपच्छिमा पिंडी ॥ अध्वनिर्गत साध्वियां तीन बार उपयुक्त वसति की मार्गणा करे। न मिलने पर खुले द्वार वाले उपाश्रय में रहे। द्रव्य-कपाट के न होने पर, अन्य वस्तुओं से द्वार बंद कर दे। अंतिम यतना यह है कि वे सभी पिंडीभूत होकर परस्पर कर बांध कर बैठ जाएं। २३५१. अन्नत्तो व कवाडं, कंटिय दंड चिलिमिलि बहिं किढिया । पिंडीभवंति सभए, काऊणऽन्नोन्नकरबंधं ॥ उपाश्रय में कपाट के अभाव में अन्यत्र से भी कपाट लाकर द्वार बंद कर दे। वह न मिलने पर बांस का कट, कंटकशाखा से बंद करे अथवा दंडे को तिरछा रख चिलिमिली बांध दे बाहर के द्वार पर स्थविरा साध्वी बैठ जाए। उपसर्ग के समय सभी परस्पर करबंध कर एकत्रित होकर बैठ जाएं। २३५२, तो हवंति तरुणी सह दंडेहि ते पतालिति । अह तत्थ होंति वसभा, वारिति निही व ते होउं ॥ मध्य में तरुण साध्वियां हाथ में दंड लेकर बैठ जाएं और जोर-जोर से शब्द करें। कोई उपद्रवकारी आए तो उसे दंडों बृहत्कल्पभाष्यम से प्रताडित करे। यदि पास में कोई वृषभ मुनि हों, और उन्हें ज्ञात हो जाए तो वे गृहस्थ वेश में आकर उन आगंतुक चोरों आदि को निवारित करें। कप्पइ निग्गंथाणं निम्गंथाणं अवगुयदुवारिए उवस्सए वत्थए ॥ (सूत्र १५) २३५३. निग्गंथदारपिहणे, लहुओ मासो उ दोस आणादी । अइगमणे निम्गमणे, संघट्टणमाइ पलिमंथो ॥ साधु यदि उपाश्रय के द्वार को ढंकते हैं तो उन्हें लघुमास का प्रायश्चित आता है और आज्ञाभंग आदि दोष लगता है। वहां इस प्रकार की विराधना होती है-बाहर जाते या आते समय संघट्टन, परितापन आदि हो सकता है तथा सूत्रार्थ का व्याघात (कपाट खोलने बंद करने में जो समय लगता है ) - परिमंथ होता है। २३५४. घरकोहलिया सप्पे, संचाराई य होंति हिब्रुवरिं । दलित वंगुरिते, अभिघातो निंत इंताणं ॥ द्वार के नीचे या ऊपर छुछंदरी, सर्प, संचारिम-कीटिका, कुन्थु, कसारी आदि जीव होते हैं। इसलिए आते-जाते द्वार को ढंकने या खोलने में उन जीवों का अभिघात विनाश होता है। २३५५, सिय कारणे पिहिज्जा, जिण जाणग गच्छ इच्छिमो नाउं । आगाढकारणम्मि उ कप्पइ जयणाइ उ ठएउं ॥ कारण में कदाचित् द्वार को बंद किया जा सकता है। जिनकल्पी मुनि कारण को जानते हैं, परंतु वे कपाट बंद नहीं करते शिष्य ने पूछा- गच्छवासी हम मुनि इसकी विधि जानना चाहते हैं। आचार्य ने कहा- आगाढ़ कारण में यतनापूर्वक द्वार बंद करना कल्पता है। २३५६. जाणंति जिणा कज्जं, पत्ते वि उ तं न ते निसेवंति । थेरा वि उ जाणंती, अणागयं केइ पत्तं तु ॥ जिन अर्थात् जिनकल्पिक मुनि द्वार बंद करने के कारणों के ज्ञाता होते हैं, फिर भी कारण प्राप्त होने पर भी वे द्वार बंद नहीं करते, क्योंकि उनकी यह चर्या निरपवाद होती है। स्थविरकल्पी कई मुनि अनागत कारणों को भी जानते हैं और कई कारण उपस्थित होने पर ही जान पाते हैं। २३५७. अहवा निणप्पमाणा, कारणसेवी अदोसवं होइ। थेरा वि जाणग च्चिय, कारण जयणाए सेवंता ।। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = २३९ अथवा कारणवंश द्वारपिधानसेवी अदोषवान् होता है। क्योंकि इसमें तीर्थंकर ही प्रमाण है। जिनभगवान् का यह कथन है कि स्थविरकल्पिक भी ज्ञायक ही होते हैं। कारणवश यतनापूर्वक द्वारपिधान के वे ज्ञाता होते हैं। २३५८.पडिणीय तेण सावय, उब्भामग गोण साणऽणप्पज्झे। सीयं च दुरधियासं, दीहा पक्खी व सागरिए॥ उद्घाटित द्वार में प्रत्यनीक, स्तेन, श्वापद, उद्भ्रामक, बैल, कुत्ता आदि प्रवेश कर सकते हैं। अनात्मवश-क्षिप्तचित्त आदि व्यक्ति बाहर निकल जाते हैं। शीत को सहन करना कष्टप्रद हो जाता है। दीर्घ-सर्प, पक्षी तथा कोई सागारिक प्रवेश कर सकता है। २३५९.एक्केक्कम्मि उ ठाणे, चउरो मासा हवंति उग्घाया। आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमा-ऽऽयाए। पूर्वोक्त एक-एक स्थान में चार उद्घात-लघु का प्रायश्चित्त आता है तथा आज्ञाभंग आदि दोष तथा संयमविराधना और आत्मविराधना होती है। २३६०.अहि-सावय-पच्चत्थिसु, गुरुगा सेसेसु होति चउलहुगा। तेणे गुरुगा लहुगा, ___ आणाइ विराहणा दुविहा॥ सर्प, श्वापद, प्रत्यनीक के प्रवेश कर देने पर चतुर्गुरु और शेष के प्रवेश करने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। स्तेन का प्रवेश करने पर-शरीरस्तेन का चतुर्गुरु और उपधि-स्तेन के चतुर्लघु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष और दोनों प्रकार की विराधना-आत्मविराधना तथा संयमविराधना होती है। २३६१.उवओगं हेह्रवरिं, काऊण ठविंतऽवंगुरते अ। पेहा जत्थ न सुज्झइ, पमज्जिउं तत्थ सारिंति॥ कपाट के ऊपर, नीचे, उसको खोलते-ढंकते समय, उपयोगपूर्वक निरीक्षण करना चाहिए। जहां प्रेक्षा शुद्ध नहीं होती है वहां रजोहरण से प्रमार्जन कर कपाट खोलना-बंद करना चाहिए। २३६२.ओहाडियचिलिमिलिए, दुक्खं बहुसो अइंति निति विय। आरंभो घडिमत्ते, निसिं व वुत्तं इमं तु दिवा।। चिलिमिली से ढंके हुए द्वार से रात्री में मात्रक लेकर बाहर जाने-आने में साध्वियों को बहुत कष्ट होता है। इसलिए घटीमात्रकसूत्र का न्यास किया जाता है। अथवा रात में कायिकी मात्रक में की जाती है, यह सूत्र दिन में मात्रकविधि का दिग्दर्शन कराता है। २३६३.घडिमत्तंतो लित्तं, निग्गंथीणं अगिण्हमाणीणं। चउगुरुगाऽऽयरियादि, तत्थ वि आणाइणो दोसा॥ जो साध्वी लेप से लिप्त घटीमात्रक (घटी के संस्थान वाल मिट्टी का भाजन विशेष) को ग्रहण नहीं करती, उसे चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। यदि आचार्य आदि इस सूत्र का कथन नहीं करते हैं तो उन्हें प्रायश्चित्त आता है तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। २३६४.अपरिस्साई मसिणो, पगासवदणो स मिम्मओ लहुओ। सुइ-सिय-दहरपिहणो, चिट्ठइ अरहम्मि वसहीए॥ वह घटीमात्रक अपरिस्रावी, चिकना, चौड़े मुंह वाला, मृन्मय और हल्का होता है। वह पवित्र, श्वेत और वस्त्रमय पिधान वाला होता है। ऐसा मात्रक प्रकाशप्रदेशवाली वसति में रहता है। नो कप्पइ निग्गंथाणं अंतोलित्तयं घडिमत्तयं धारित्तए वा परिहरित्तए वा॥ (सूत्र १७) घडीमत्तय-पदं कप्पइ निग्गंथीणं 'अंतोलित्तयं घडिमत्तयं धारित्तए वा परिहरित्तए वा। (सूत्र १६) २३६५.साहू गिण्हइ लहुगा, आणाइ विराहणा अणुवहि त्ति। बिइयं गिलाणकारण, साहूण वि सोअवादीसु।। साधु घटीमात्रक को ग्रहण करता है तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग आदि दोष और दोनों प्रकार की विराधना (आत्मविराधना, संयमविराधना) होती है। यह साधु की उपधि नहीं होती। २३६६.दुविहपमाणतिरेगे, सुत्तादेसेण तेण लहुगा उ। मज्झिमगं पुण उवहिं, पडुच्च मासो भवे लहुओ॥ प्रमाण दो प्रकार का है-गणना और प्रमाण। अतिरिक्त १. उपकरण की परिभाषा-जं जुज्जइ उवयारे, उवगरणं तं सि होइ उवगरणं। अइरेगं अहिगरणं। (ओघ. नि. ७३१) Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० मध्यम उपधि में सूत्रादेश से चतुर्लघु प्रायश्चित्त है। क्योंकि मध्यमउपधि है घटीमात्रक। इसलिए यहां लघुमास का प्रायश्चित्त विहित है। २३६७. धारणया उ अभोगो, परिहरणा तस्स होह परिभोगो दुविशेण वि सो कप्पड़, परिहारेण तु परिभोतुं ॥ परिहरणा के दो प्रकार हैं- धारणा और परिहरणा धारणा का अर्थ है-अभोग, अपनी निश्रा में उसे स्थापित किए रखना, उपभोग नहीं करना और परिहरणा का अर्थ है उसका उपभोग करना। इस प्रकार साध्वियों को दोनों परिहार से घटीमात्रक रखना कल्पता है। २३६८. उड्डाहो वोसिरणे, गिलाणआरोवणा य धरणम्मि । बियप असईए, भिन्नोऽवह अद्धलित्तो वा ॥ साध्वियां यदि घटीमात्रक नहीं रखती हैं तो उन्हें कायिकी का व्युत्सर्ग बाहर करना पड़ता है। उससे प्रवचन का उड्डाह होता है। वेग को धारण करने से ग्लान की आरोपणा होती है। अपवाद में यदि घटीमात्रक न हो अथवा वह टूट गया हो, अर्द्धलिस हो, काम में लेने योग्य न हो तो बाहर यतनापूर्वक कायिकी का व्युत्सर्जन करे। २३६९. लाउय असह सिणेहो, ठाइ तहिं पुव्वभाविय कडाहो । सेहे व सोयवायी, धरंति देसिं व ते पप्प ॥ अलाबुपात्र का अभाव होने पर 'स्निग्ध' अर्थात् पूर्वमावित कटाहक या घटीमात्रक ग्रहण करें, जिसमें घृत भी ठहर सके, परिस्रावित न हो कोई शैक्ष शौचबादी हो वह शौचार्थ घटीमात्रक को ले जाता है। अथवा देश विशेष ( गोल्ल देश) में घटीमात्रक को धारण करते हैं। २३७०. गहणं तु अहागडए, तस्सऽसई होइ अप्यपरिकम्मे । तस्सऽसइ कुंडिगादी, घेत्तुं नाला विउज्जेति ॥ सबसे पहले यथाकृत घटीमात्रक ले। उसके अभाव में अल्पकर्मिक, उसके अभाव में कुंडिका - कमंडलु आदि ग्रहण कर उसकी नालिका को निकाल दे, उससे वियुक्त कर दे। चिलिमिलिया-पदं कप्पs निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा चेलचिलिमिलियं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥ १. रुन्दा- विस्तीर्णा । (वृ. पृ. ६७३) (सूत्र १८) बृहत्कल्पभाष्यम् २३७१. सागारिपच्चया, जह घडिमत्तो तहा चिलिमिली वि रत्तिं व हेऽणंतर, इमा उ जयणा उभयकाले ॥ सागारिक गृहस्थ के विश्वास के लिए जैसे घटीमात्रक का ग्रहण है वैसे ही चिलिमिलिका का भी ग्रहण जानना चाहिए। पहले सूत्र में रात्री में चिलिमिलिका की यतना के विषय में कहा गया था, प्रस्तुत सूत्र में उभयकाल -रात और दिन में यतना का निर्देश है। २३७२. धारणया उ अभोगो, परिहरणा तस्स होइ परिभोगी। चेलं तु पहाणयरं, तो गहणं तस्स नऽन्नासिं ॥ धारणा का अर्थ है-अभोग अर्थात् उपभोग न करना और परिहरणा का अर्थ है उपभोग करना वस्त्र कई दृष्टियों से प्रधानतर द्रव्य है । इसलिए सूत्र में उसीका ग्रहण किया गया है, अन्य द्रव्यों का नहीं। २३७३. भेदो य परूवणया, दुविहपमाणं च चिलिमिलीणं तु । उपभोगो उ दुपक्खे, अगहणऽधरणे व लहु दोसा ॥ चिलिमिलिका के ये द्वार हैं-भेद, प्ररूपणा, दो प्रकार के प्रमाण, दोनों पक्ष ( साधु-साध्वी) में उसका उपभोग, अग्रहण, अधारण से लघु प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष (विस्तार आगे की गाथाओं में ।) २३७४. सुत्तमई रज्जुमई, बागमई दंड- कडगमयई य पंचविह चिलिमिली पुण, उवग्गहकरी भवे गच्छे ॥ गच्छ में पांच प्रकार की चिलिमिली उपग्रहकारी होती है। वे पांच प्रकार हैं-सूत्रमयी रज्जुमयी वल्कगयी, दंडकमयी और कटकमयी ये चिलिमिली के भेद हैं। उनकी प्ररूपणा इस प्रकार है (१) सूत से बनी हुई- सूत्रमयी (वस्त्रमयी या कंबलमयी ।) (२) रज्जु से बनी हुई रज्जुमयी (उन आदि से निष्पन्न)। (३) वल्क से बनी हुई - वल्कमयी (शण से निष्पन्न) । (४) दंडक से बनी हुई दंडमयी (बांस, वेत्र आदि की यष्टि से निष्पन्न) | (५) कट से बनी हुई-कटमयी (बांस आदि से निष्पन्न) । २३७५. हत्थपणगं तु दीहा, तिहत्थ रुंदोन्निया असइ खोमा। एत प्पमाण गणणेक्कमेक्क गच्छं व जा वेढे ॥ सूत्रमयी चिलिमिलिका पांच हाथ लंबी और तीन हाथ चौड़ी हो उसके अभाव में क्षौमिकी चिलिमिलिका ले। वल्कमयी चिलिमिलिका का भी यही प्रमाण है। गणनाप्रमाण के आधार पर एक-एक साधु के लिए एक-एक चिलिमिलिका अथवा जितनी गच्छ को वेष्टित करती हैं, उतनी ले। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक २३७६. असतोणि खोमिरज्जू, एकपमाणेण जा उ वेढेइ । कडहूवागादीहिं पोत्तऽसह भए व बागमई ॥ रज्जु चिलिमिलिका पहले और्णिक दवरक वाली ले। उसके अभाव में क्षौमिकदवरक वाली ग्रहण करे। प्रत्येक के लिए एक-एक वही पांच हाथ लंबी और तीन हाथ चीटी। 'कडहू' वृक्ष आदि के वल्क से बनी हुई चिलिमिलिका ग्रहण करे वस्त्र की चिलिमिली न होने पर स्तेन आदि का भय होने पर वह वल्कमयी चिलिमिलिका ली जा सकती है। २३७७. देह हिओ गणणेक्को, दुवारगुत्ती भये व दंडमई । संचारिमा य चउरो, भय माणे कडमसंचारी ॥ शरीर के प्रमाण से चार अंगुल बाला दंडक, प्रत्येक साधु को, एक-एक कल्पता है भय की स्थिति में उन दंडकों से द्वार का स्थगन किया जाता है। यह दंडमयी चिलिमिलिका है। पूर्वोक्त चारों प्रकार की चिलिमिलिकाएं संचारिम होती हैं, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में ले जाई जा सकती हैं। कटकमयी चिलिमिलिका असंचारिम होती है। इसका प्रमाण नहीं होता। जितनी चिलिमिलिकाओं का प्रयोजन हो उतनी ली जा सकती हैं। २३७८. सागारिय सज्झाए, पाणदय गिलाण सावयभए वा । अद्भाण-मरण - वासासु चेव सा कप्पए गच्छे ॥ गृहस्थ के देखते स्वाध्याय करते समय, प्राणदया, ग्लान के लिए, श्वापद का भय होने पर, मार्ग में, मरण के समय तथा वर्षा में गच्छवासी साधुओं को चिलिमिलिका का परिभोग कल्पता है। २३७९.पडिलेहोभयमंडलि, इत्थी - सागारियट्ठ सागरिए । घाणा ऽऽलोग ज्झाए, मच्छिय डोलाहपाणेसु ॥ प्रत्युपेक्षण करते समय, भोजनमंडली और स्वाध्यायमंडली के समय, स्त्रियों से प्रतिबद्ध वसति में, सागारिक द्वार से संबंधित विषय में तथा स्वाध्याय के समय जहां दुर्गंध आती हो, जहां से रक्त चर्बी आदि दिखती हो, जहां अनेक लोगों का दृष्टिपात होता हो, मक्षिका - डोला -तिड्डी आदि प्राणियों की बहुलता हो तो चिलिमिलिका का उपयोग किया जा सकता है। २३८०. उभओसहकज्जे वा, देसी वीसत्थमाह गेलने । अदा छन्नासह, भओवही सावए दोनों संज्ञाओं के व्युत्सर्जन के समय, औषधी लेते समय, जिस देश में शाकिनी का उपद्रव हो वहां इन में ग्लान को चिलिमिलिका से आच्छन्न रखना चाहिए जिससे कि वह विश्वस्त रह सके। २४१ 3 २३८१. छत्रवहणद्र मरणे, वासे उन्झक्खणी य कडओ य उल्लुवहि विरल्लिंति व, अंतो बहि कसिण इतरं वा ॥ मृत्यु हो जाने पर जब तक शव का परिष्ठापन नहीं किया जाता तब तक उसको चिलिमिलिका से ढंक कर रखना चाहिए तथा दंडक और चिलिमिलिका से मृतक को उठाकर वहन करना चाहिए। वर्षा बरस रही हो. पवन से प्रेरित जलकणिकाएं आ रही हो तो कटक चिलिमिलीका काम में लेनी चाहिए। वर्षा में भीगे वस्त्रों को सुखाने के लिए रज्जु चिलिमिलिका का उपयोग करना चाहिए। उसमें भी कृत्स्नबहुमूल्य उपधि को मध्य में और दूसरी उपधि को बाहर सुखानी चाहिए। (इन पांच प्रकार की चिलिमिलिकाओं का ग्रहण न करने तथा उपभोग न करने पर चतुर्लघुमास का प्रायश्चित्त तथा संयम और आत्मविराधना से निष्पन्न प्रायश्चित भी आता है।) २३८२. बंभव्वयस्स गुत्ती, दुहत्थसंघाडिए सुहं भोगो । वीसत्यचिणादी, दुरहिगमा दुविह रक्खा य उपाश्रय में निवास करने वाली साध्वियां सदा चिलिमिलिका का उपयोग करती हैं। इससे ब्रह्मचर्य की गुप्ति तथा हाथ विस्तार वाली संघाटी में सुखपूर्वक रहा जा सकता है । वे विश्वस्त होकर बैठ-सो सकती हैं। दुःशील व्यक्तियों के लिए वे दुरधिगम्य होती हैं तथा आत्मरक्षा और संयमरक्षा भी सुखपूर्वक होती है। दगतीर पदं नो कप्पड निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा दगतीरंसि चिट्ठित्तए वा निसीइत्तए वा तुयट्टित्तए वा निद्दाइत्तए वा पयलाइत्तए वा, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेत्तए, उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा परिद्ववित्तए, सज्झायं वा करेत्तए 'धम्मजागरियं वा जागरितए' काउस्सग्गं वा ठाणं ठाइत्तए । (सूत्र १९) २३८३. मा मं कोई दच्छिह, वच्छं व अहं ति चिलिमिली तेणं । वगतीरे बिन चिट्ठ, तदालया मा हु संकेज्जा ।। मुझे कोई गृहस्थ न देखे और मैं भी किसी गृहस्थ का न देखूं, इसलिए चिलिमिलिका का उपयोग किया जाता है। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ =बृहत्कल्पभाष्यम् इसलिए नदी आदि के तट पर भी नहीं रहना चाहिए ताकि २३८९.पडिपहनियत्तमाणम्मि अंतरायं च तिमरणे चरिमं। दकतीर के आश्रय में रहने वाले प्राणी शंकित न हों। सिग्घगइतन्निमित्तं, अभिघातो काय-आयाए। २३८४.दगतीर चिट्ठणादी, जूयग आयावणा य बोधव्वा। साधु को वहां देखकर पशु प्रतिपथ से निवर्तित होते हैं लहुओ लहुया लहुया, तत्थ वि आणाइणो दोसा॥ तब प्यासे प्राणियों के अंतराय होती है और यदि कोई प्यास दकतीर पर बैठने, सोने आदि करने पर प्रत्येक में से मर जाता है तो क्रमशः चरम प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। लघुमास, यूपक में रहने पर चतुर्लघु तथा आतापना लेने पर साधु से भयत्रस्त होकर वे शीघ्र गति से पलायन करते हुए चतुर्लघु प्रायश्चित्त का विधान है और आज्ञाभंग आदि दोष परस्पर अभिघात करते हैं, छह काय की विराधना होती है भी होते हैं। तथा वे पशु साधु का भी घात कर सकते हैं। (वृत्तिकार ने २३८५.नयणे पूरे दिढे, तडि सिंचण वीइमेव पुढे य। एक, दो, तीन आदि पशुओं के मरने पर प्रायश्चित्त की ___ अच्छंते आरण्णा, गाम पसु-मणुस्स-इत्थीओ॥ क्रमशः वृद्धि का संकेत दिया है।) दकतीर विषयक अनेक परिभाषाएं हैं-(१) जहां से पानी २३९०.अतड-पवातो सो चेव य मग्गो अपरिभुत्त हरियादी। ले जाया जाता है वह (२) जितना स्थान नदी के प्रवाह से ओवग कूडे मगरा, जइ घुटे तसे य दुहतो वि॥ आप्लावित होता है वह (३) जहां स्थित व्यक्ति पानी को देख यदि पशु अतट अर्थात् अतीर्थ से पानी पीने उतरते हैं या सकता है वह (४) नदी का तट वह (५) जहां स्थित रहकर किसी अन्य स्थान पर कूदते हैं या वही अभिनव मार्ग है पानी सींचा जाता है वह (६) जितने भूभाग का लहरें स्पर्श जिसका उपयोग नहीं किया गया है, उससे जाते हुए करती हैं वह (७) जितना भूभाग जल से स्पष्ट होता है वह। हरियाली का छेदन होता है, अथवा अतीर्थ से प्रवेश करने आचार्य कहते हैं ये सारी दकतीर की परिभाषाएं नहीं हैं। पर वे गढ़े में गिर सकते हैं अथवा किसी शिकारी के द्वारा अरण्यक पशु, ग्रामीण व्यक्ति, गांव के पशु-मनुष्य अथवा स्थापित कूट में वे फंस सकते हैं अथवा वहां कोई मगरमच्छ स्त्रियां पानी के लिए आती हैं और साधु को वहां बैठे देखकर आदि हो तो उनको खा सकता है अथवा अन्य बस प्राणी ठहरती हैं या चली जाती हैं, वह दकतीर हैं। रहित तीर्थ में उतरकर वे पशु जितनी छूट पानी पीते हैं, उतने २३८६.सिंचण-वीई-पुट्ठा, दगतीरं होइ न पुण तम्मत्तं। चतुर्लघु प्रायश्चित्त अथवा जहां पानी भी सचित्त है और उसमें __ ओतरिउत्तरिउमणा, जहि दट्ट तसंति तं तीरं॥ त्रसकाय भी है, उस पानी की जितनी चूंट पीते हैं, उतने ही पूर्वोक्त सात आदेशों में से अंतिम तीन-सिंचन, तरंगस्पृष्ट प्रमाण में प्रायश्चित्त की वृद्धि होती जाती है। भूभाग तथा जल से स्पृष्ट भूभाग-भी दकतीर की परिभाषाएं २३९१.गामेय कुच्छियाउकुच्छिया य एक्कक्क दुट्ठऽदुट्ठा य। नहीं हैं किन्तु जहां मनुष्य और पशु पानी पीने के लिए उतरते ___दुट्ठा जह आरण्णा, दुगुंछियऽदुगुंछिया नेया॥ हैं और पानी पीकर बाहर निकल जाते हैं तथा वहां साधु को ग्रामीण पशु दो प्रकार के होते हैं-कुत्सित गर्दभ आदि स्थित देखकर भयभीत होते हैं, वह दकतीर है। और अकुत्सित-गाय आदि। प्रत्येक के दो प्रकार और हैं२३८७.अहिगरणमंतराए, छेदण ऊसास अणहियासे । दुष्ट और अदुष्ट। अरण्यक पशु भी दुष्ट-अदुष्ट, जुगुप्सित आहणण सिंच जलचर-खह-थलपाणाण वित्तासो॥ अजुगुप्सित होते हैं। दकतीर पर साधु को बैठे देखकर अधिकरण, अंतराय, २३९२.भुत्तियरदोस कुच्छिय, पडिणीय च्छोभ गिण्हणादीया। छेदन, उच्छ्रास, अनधिसह, आहनन, सिंचन, जलचर-खेचर आरण्णमणुय-थीसु वि, ते चेव नियत्तणाईया।। तथा स्थलचर प्राणियों को विभास होता है (विस्तार आगे जिस साधु ने गृहस्थ अवस्था में जुगुप्सित तिर्यक् स्त्री की गाथाओं में)। का सेवन किया था, उसको वहां आई देखकर स्मृति हो २३८८.दगुण वा नियत्तण, अभिहणणं वा वि अन्नतूहेणं।। सकती है, कोई अन्य साधु हो तो उसके मन में कुतूहल हो गामा-ऽऽरन्नपसूणं, जा जहि आरोवणा भणिया॥ सकता है। इस प्रकार भुक्त-अभुक्त दोष होते हैं। प्रत्यनीक साधु को दकतीर पर बैठा देखकर वहां पानी के लिए आने तिर्यक् स्त्री को क्षोभ हो सकता है। उसमें ग्रहण-आकर्षण वाले प्राणी लौट जाते हैं। उनका परस्पर अभिहनन होता है। आदि दोष होते हैं। आरण्यक मनुष्यों और स्त्रियों में निवर्तन, अन्य घाट पर वे पानी पीने उतरते हैं। आरण्यक पशुओं तथा अंतराय आदि दोष होते हैं। ग्रामीण पशुओं का निवर्तन होने पर छह कायों का मर्दन हो २३९३.पायं अवाउडाओ, सबराईओ तहेव नित्थक्का। सकता है। वहां आरोपणा प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। __आरियपुरिस कुतूहल, आउभयपुलिंद आसुवहो। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = २४३ आरण्यक शबरी (भील स्त्री) आदि स्त्रियां प्रायः पानी भरकर तूर्य का-सा शब्द करता है अथवा क्रोंचवीरकवस्त्रविरहित और निर्लज्ज होती हैं। साधु को वहां देखकर जलयान विशेष से पानी में घूमता है, स्नान कर कोई 'यह आर्य पुरुष है' ऐसा सोचकर कुतूहल से पास आती हैं। सुगंधित द्रव्य लगाता है, केशों को संवारता है, अन्य उनको देखकर साधु के संयमविराधना और अलंकार आदि धारण करता है-यह देखकर साधु के मन में आत्मविराधना-दोनों दोष होते हैं। साधु और शबरी को पास पूर्वस्मृति उभर आती है। में देखकर पुलिन्द क्रोधवश दोनों का वध कर सकता है। २३९८.मज्जणवहणट्ठाणेसु अच्छते इत्थिणं ति गहणादी। २३९४.थी-पुरिसअणायारे, खोभो सागारियं ति वा पहणे। एमेव कुच्छितेतर, इत्थि सविसेस मिहुणेसु॥ गामित्थी-पुरिसेहि वि, ते च्चिय दोसा इमे अन्ने॥ सामान्यतः स्त्रियों के स्नान करने के अथवा जल ले जाने अथवा पुलिन्द पुलन्द्रि के साथ अनाचार सेवन करता है, के स्थान में साधु को बैठा देखकर, स्त्री के ज्ञातिजन उस पर यह देखकर उसका मन क्षुब्ध हो जाता है। अथवा पुलिन्द शंका कर उसका ग्रहण-आकर्षण आदि कर सकते हैं। अथवा साधु को सागारिक मानकर उसका वध कर सकता है। ये जो स्त्रियां कुत्सित अथवा अकुत्सित जाति की हैं, उनसे दोष दोष ग्रामीण तथा आरण्यक स्त्री-पुरुषों से संबंधित दोष हैं।। उत्पन्न हो सकते हैं। दंपतियों को वहां क्रीडारत देखकर ये अन्य दोष भी होते हैं। विशेष दोषों का उद्भव होता है। २३९५.चंकमणं निल्लेवण, चिट्ठित्ता तम्मि चेव तूहम्मि। २३९९.चिट्ठण निसीयणे या, तुयट्ट निद्दा य पयल सज्झाए। अच्छंते संकापद, मज्जण दटुं सतीकरणं॥ झाणाऽऽहार वियारे, काउस्सग्गे य मासलहू॥ कोई गृहस्थ वहां दकतीर पर चंक्रमण या स्नान करने का दकतीर पर ये दस प्रवृत्तियां करने पर प्रत्येक के लिए इच्छुक हो और वहां साधु को देखकर वह अन्यत्र जाता है लघुमास का प्रायश्चित्त है-(१) खड़े रहना (२) बैठना या साधु के पास बैठकर गोष्ठी करता है या वहीं साधु के (३) विश्राम करना (४) निद्रा लेना (५) प्रचला नींद लेना समीप ही घाट में उतरकर स्नान आदि करता है। वह जब (६) स्वाध्याय करना (७) ध्यान करना (८) आहार करना साधु के पास बैठता तब गृहस्थ को शंका होती है। गृहस्थ के (९) उत्सर्ग करना तथा (१०) कायोत्सर्ग करना। स्नान को देखकर साधु की भी स्मृति उभर आती है। २४००.सुहपडिबोहो निद्दा, दुहपडिबोहो उ निहनिद्दा य। २३९६.अन्नत्थ व चंकमती, आयमणऽण्णत्थ वा वि वोसिरइ। पयला होइ ठियस्सा, पयलापयला य चंकमओ।। कोनाली चंकमणे, परकूलाओ वि तत्थेइ॥ जिससे सुखपूर्वक जागरण होता है वह है नींद, जो महान् चंक्रमण के लिए आया हुआ कोई गृहस्थ साधु को वहां प्रयत्न करने पर टूटती है वह है निद्रानिद्रा, जो बैठे या खड़ेबैठा देखकर अन्यत्र चला जाता है। स्नान करने का इच्छुक खड़े नींद आती है वह है प्रचला और जो चलते हुए नींद व्यक्ति, व्युत्सर्जन करने का इच्छुक व्यक्ति अन्यत्र जाकर ये आती है वह है प्रचला-प्रचला। क्रियाएं करता है। कोई साधु के साथ गोष्ठी करने के लिए २४०१.संपाइमे असंपाइमे व परकूल से भी वहां आता है। इसमें जीवों की विराधना दिढे तहेव अहिटे। होती है। पणगं लहु गुरु लहुगा, २३९७.दग मेहुणसंकाए, लहुगा, गुरुगा उ मूल निस्संके। गुरुग अहालंद पोरुसी अहिया॥ दगतूर कोंचवीरग, पघंस केसादलंकारे॥ दकतीर के दो प्रकार हैं-संपातिम और असंपातिम। दृष्ट दकतीर पर साधु को देखकर गृहस्थ को यह शंका हो या अदृष्टरूप में वहां साधु यथालंद२ अर्थात् पौरुषी तक सकती है यह मैथुनार्थी किसी की प्रतीक्षा कर रहा है अथवा अथवा अधिक बैठता है तो पंचक (पांच दिन-रात), लघु, स्नान करने या पानी पीने का इच्छुक है। उदक पान की शंका गुरुमास, चतुर्लघु, चतुर्गुरु मास का प्रायश्चित्त आता है। होने पर चतुर्लघु, निःशंकित होने पर चतुर्गुरु और मैथुन की २४०२.जलजा उ असंपाती, संपातिम सेसगा उ पंचिंदी। शंका में चतुर्गुरु और निःशंकित होने पर मूल का प्रायश्चित्त अहवा मुत्तु विहंगे, होति असंपातिमा सेसा।। है। कोई गृहस्थ मज्जन करते समय पानी में दगतूर-मुख में जो जलज प्राणियों से युक्त हो वह असंपातिम दकतीर १. क्रोंचवीरको नाम पेटासदृशो जलयानविशेषः। (वृ. पृ. ६८१) २. यथालंद के तीन प्रकार हैं-(१) जघन्य यथालंद-एक युवती का गीला हाथ जितने समय में सूखे वह काल (२) उत्कृष्ट यथालंद-पूर्व कोटिप्रमाण (३) मध्यम यथालंद-इनके बीच का काल। (वृ. पृ. ६८२) Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ =बृहत्कल्पभाष्यम् होता है। शेष अर्थात् पंचेन्द्रिय स्थलचर, खेचर प्राणियों से २४०८.पण दस पनरस वीसा, पणवीसा मास चउर छ च्चेव। युक्त दकतीर संपातिम होता है। अथवा पक्षी जहां आकर लहु गुरुगा सव्वेते, छेदो मूलं दुगं चेव। रहते हैं वह है संपातिम, उनको छोड़कर स्थलचर, जलचर पांच दिन-रात, दस-पन्द्रह-बीस-पचीस दिन-रात, आदि शेष प्राणियों से युक्त दकतीर असंपातिम है। मास, चार मास, छह मास-ये सब लघु और गुरु-दोनों होते २४०३.असंपाइ अहालदे, हैं। छेद, मूल, तथा दो-अनवस्थाप्य और पारांचिक-ये बीस अद्दिढे पंच दिट्ठि मासो उ।। प्रायश्चित्त स्थान हैं। पोरिसि अदिहि दिढे, २४०९.पणगाइ असंपाइम, संपाइमऽदिट्ठमेव दिवे य। ___ लहु गुरु अहि गुरुओ लहुआ उ॥ चउगुरुए ठाइ खुड्डी, सेसाणं वुटि एक्कक्कं ।। असंपातिम दकतीर पर जघन्य यथालंद तक अदृष्टरूप में इन सभी प्रायश्चित्तों की चारणिका, पंचविध साध्वियों के रहता है उसका प्रायश्चित्त है पांच दिन-रात और दृष्टरूप में रहता है, उसका प्रायश्चित्त है लघुमास। वहां पौरुषी काल पांच दिन-रात आदि। असंपातिम, संपातिम दकतीर, तक अदृष्ट रहता है तो लघुमास, दृष्ट रहता है तो गुरुमास, दृष्ट-अदृष्ट रूप में, ठहरना आदि, क्षुल्लिका साध्वी का पौरुषी से अधिक अदृष्ट रहता है तो मासगुरु और दृष्ट प्रायश्चित्त वर्णन है। शेष साध्वियों के एक-एक स्थान की रहता है तो चतुर्लघु। प्रारंभ में वृद्धि और अधस्तन में एक-एक स्थान की हानि २४०४.संपाइमे वि एवं, मासादी नवरि ठाइ चउगुरुए। होती है। जैसे स्थविरा साध्वी के गुरु पंचक से प्रारंभ कर भिक्खू-वसभाऽऽयरिए, तव-कालविसेसिया अहवा॥ षड्लघुक पर्यन्त आदि। संपातिम दकतीर में भी यही प्रायश्चित्त है। वह २४१०.छल्लहुए ठाइ थेरी, प्रायश्चित्त लघुमास से प्रारंभ होकर चतुर्गुरु पर्यन्त जाता है। ___ भिक्खुणि छग्गुरुए छेद गणिणी उ। अथवा ये प्रायश्चित्त भिक्षु, वृषभ तथा आचार्य के तप और मूले पवत्तिणी पुण, काल से विशेष हो जाते हैं। जह भिक्खुणि खुड्डए एवं॥ २४०५.अहवा भिक्खुस्सेयं वसभे लहुगाइ ठाइ छल्लहुए। स्थविरा साध्वी के षडलघु पर्यन्त, भिक्षुणी के षड्गुरु अभिसेगे गुरुगादी, छग्गुरु लहु छेदो आयरिए॥ पर्यन्त और गणिनी के छेद पर्यन्त और प्रवर्तिनी के मूल अथवा यह प्रायश्चित्त भिक्षु का जानना चाहिए। वृषभ का पर्यन्त प्रायश्चित्त आता है। भिक्षुणी की जो प्रायश्चित्त विधि मासलघु से प्रारंभ होकर षड्लघुक पर्यन्त, अभिषेक अर्थात् है, वही क्षुल्लक की है। उपाध्याय का मासगुरु से षड्लघुक पर्यन्त, आचार्य का २४११.गणिणिसरिसो उ थेरो, चतुर्गुरु से छेद पर्यन्त होता है। पवत्तिणिविभागसरिसओ भिक्खू। २४०६.अहवा पंचण्हं संजईण समणाण चेव पंचण्हं। अड्डोक्कंती एवं, पणगादी आरद्धं, णेयव्वं जाव चरिमपदं॥ सपदं सपदं गणि-गुरूणं॥ अथवा पांचों प्रकार की साध्वियों तथा पांचों प्रकार के गणिनी के सदृश होता है स्थविर, प्रवर्तिनी के सदृश श्रमणों का पांच दिन-रात से प्रारब्ध प्रायश्चित्त चरमपद होता है भिक्षु । अ पक्रांति से (अधस्तन के एक पद के ह्रास अर्थात् पारांचिक पर्यन्त जानना चाहिए। से तथा उपरितन के एक की वृद्धि से) गणी-उपाध्याय २४०७.संजइ संजय जह संपऽसंप अहलंद पोरिसी अहिया। गुरु-आदि का प्रायश्चित्त जानना चाहिए। गणी और आचार्य चिट्ठाई अद्दिद्वे, दिढे पणगाइ जा चरिमं॥ के स्वपद-स्वपद तक प्रायश्चित्त जानना है। गणी का स्वपद साध्वियां-क्षुल्लिका, स्थविरा, भिक्षुणी, अभिषेका और अर्थात् अनवस्थाप्य पर्यन्त और आचार्य का स्वपद अर्थात् प्रवर्तिनी-ये पांच तथा साधु-क्षुल्लक, स्थविर, भिक्षुक, पारांचिक पर्यन्त। उपाध्याय और आचार्य-ये पांच संपातिम और असंपातिम २४१२.एवं तु चिट्ठणादिसु, सव्वेसु पदेसु जाव उस्सग्गो। दकतीर, यथालंदकाल, पौरुषी काल तथा पौरुषी से पच्छित्ते आदेसा, इविक्कपयम्मि चत्तारि॥ अधिक काल, ठहरना आदि दस पद, दृष्ट-अदृष्ट इनमें पांच इसी प्रकार स्थान-निषीदन आदि कायोत्सर्ग पर्यन्त सभी दिन-रात से प्रारब्ध प्रायश्चित्त चरम प्रायश्चित्त पर्यन्त ले पदों के प्रायश्चित्त विषयक चार आदेश हैं। प्रत्येक पद में जाना चाहिए। चार-चार हैं। एक हे औधिक प्रायश्चित्त, दूसरा है वही तप चिहं सजावं जाव प्रकार Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक २४५ और काल से विशेषित, तीसरा है छेदान्त और चौथा है। कर देता है अथवा आतापना लेने वाला मुनि तृषा से आकुल चारणिका प्रायश्चित्त। या आतप से आकुल परिणाम वाला होकर स्नान और पान २४१३.संकम जूवे अचले, चले य लहुगो य हुंति लहुगा य। का इच्छुक हो सकता है। तम्मि वि सो चेव गमो, नवरि गिलाणे इमं होइ॥ २४१८.आउट्ट जणे मरुगाण अदाणे खरि-तिरिक्खिछोभादी। यूपक-वेटक नाम का जलमध्यवर्ती तट। वहां देवकुलिका पच्चखदेवपूयण, खरियाऽऽवरणं व खित्ताई। या अन्य गृह हो सकता है। यूपक पर सेतु अथवा जल से आतापना से प्रभावित होकर जनता ब्राह्मणों को दान नहीं आना-जाना हो सकता है। संक्रम-सेतु चल और अचल दोनों देती। उनको दान न देने पर वे मुनि पर दासी या तिरश्ची प्रकार के होते हैं। चल से जाने पर चतुर्लघु, अचल से जाने संबंधी मिथ्या आरोप लगा सकते हैं। यह प्रत्यक्ष देवता पर मासलघु। यूपक में भी दकतीर जैसी ही वक्तव्यता है। हैं-यह सोचकर उस मुनि की पूजा करते हैं, मूल देवता का ग्लान में कुछ अधिक दोष होते हैं। पूजन छोड़ देते हैं तब देवता दासी को साध्वी का वेष धारण २४१४.दगुण व सइकरणं, ओभासण विरहिए य आइयणं। करवा कर मुनि को प्रतिसेवना करते हुए दिखाता है, अथवा परितावण चउगुरुगा, अकप्प पडिसेव मूल दुगं॥ उसको क्षिप्तचित्त कर देता है। ग्लान पानी को देखकर पुरानी स्मृति में खो जाता है। वह २४१९.आयावण साहुस्सा, अणुकंपं तस्स कुणइ गामो उ। पानी मांगता है। पानी देने पर संयमविराधना होती है और न मरुयाणं च पओसो, पडिणीयाणं च संका य॥ देने पर वह टूट जाता है। प्रतिश्रय में साधु न रहने पर वह आतापना लेने वाले साधु को देखकर ग्रामजन उस पर पानी पी लेता है। न पीने पर परितापना होती है। पी लेता है अनुकंपा करते हैं, पारणा के दिन विशेष भक्तपान लाकर देते तो चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त आता है। अकल्प्य का सेवन हैं, ब्राह्मणों को दान न मिलने पर वे प्रद्वेषवश मुनि पर मिथ्या करने पर मूल। यदि एक ग्लान मुनि पलायन कर जाता है तो आरोप लगाते हैं अथवा जो मुनि के प्रत्यनीक होते हैं वे आचार्य को मूल प्रायश्चित्त आता है। द्विक-गृहिलिंग अथवा मिथ्या आशंका करते हैं कि मुनि यहां क्यों आतापना लेता अन्यतीर्थिक लिंग में ग्लान अप्काय का सेवन करता है तो है। क्या यह स्तेनार्थी या मैथुनार्थी है? उसे मूल प्रायश्चित्त आता है। २४२०.पढमे गिलाणकारण, बीए वसहीए असइए वसइ। २४१५.आउक्काए लहुगा, पूयरगादीतसेसु जा चरिम। रायणियकज्जकारण, तइए बिइयपय जयणाए॥ जे गेलन्ने दोसा, धिइदुब्बले हे ते चेव। अपवाद पद-दकतीर पर ग्लान के लिए रहा जा सकता अप्काय का प्रतिसेवन करने पर चतुर्लघुक तथा पूतरक है। निर्दोष वसति की प्राप्ति न होने पर यूपक में रहा जा आदि त्रसकाय का सेवन करने पर चरम अर्थात् पारांचिक सकता है। रायणिय अर्थात् राजा से संबंधित कोई कार्य हो पर्यन्त प्रायश्चित्त है। ग्लान विषयक जो दोष हैं, वे ही तो वहां यतनापूर्वक रहा जा सकता है। ये तीन आपवादिक धृतिदुर्बल शैक्ष के लिए भी हैं। कारण हैं। २४१६.आयावण तह चेव उ, नवरि इमं तत्थ होइ नाणत्तं। २४२१.विज्ज-दवियट्ठयाए, मज्जण सिंचण परिणाम वित्ति तह देवया पंता॥ निज्जंतो गिलाणो असति वसहीए। दकतीर अथवा यूपक पर आतापना आदि लेने पर जोग्गाए वा असती, वे ही दोष हैं। उनमें नानात्व यही है कि कोई साधु चिट्ठे दगतीरऽणोयारे॥ वहां आतापना लेता है और कोई गृहस्थ मुनि का ग्लान को वैद्य के पास ले जाते समय अथवा औषधी के मज्जन, सिंचन आदि करता है तो मुनि का स्नान आदि । लिए ले जाते समय योग्य वसति के अभाव में दकतीर पर विषयक परिणाम हो सकता है, ब्राह्मणों की आजीविका ग्लान ठहर सकता है परंतु वह मनुष्य और पशुओं के का छेदन हो सकता है तथा प्रान्त देवता उपसर्ग कर। अप्रवेशमार्ग को छोड़ दे। सकता है। २४२२.उदगंतेण चिलिमिणी, पडियरए मोत्तु सेस अन्नत्थ। २४१७.मज्जंति व सिंचंति व, पडिणीयऽणुकंपया व णं केई। पडियर पडिसंलीणा, करिज्ज सव्वाणि वि पयाणि ॥ तण्हण्हपरिगयस्स व, परिणामो ण्हाण-पियणेसु॥ वहां ठहरने वालों की यह यतना है-वहां उदकांत में आतापना लेते हुए मुनि को देखकर कोई शत्रुता से अथवा चिलिमिलि बांध दे। ग्लान के प्रतिचारकों को छोड़कर शेष अनुकंपा वश उसको स्नान करा देता है अथवा उसका सिंचन सभी बाहर ठहरे। प्रतिचारक भी गुप्तरूप में बैठें, जिससे कि Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ प्राणियों को भय न हो। यतनापूर्वक स्थान, निषीदन आदि सभी पद वहां किए जा सकते हैं। २४२३.अद्धाणनिग्गयादी, संकम अप्पाबहुं असुन्नं च। गेलन्न-सेहभावो, संसट्ठसिणं व निव्वविउं॥ अर्ध्वनिर्गत साधु अन्य वसति के अभाव में यूपक पर रह सकता है। अल्प-बहुत्व का चिंतन कर संक्रम का उपयोग करे। रात और दिन में वसति को शून्य कर दे। वहां रहने पर ग्लान और शैक्ष को पानी पीएं-ऐसा अशुभ भाव उत्पन्न हो तो उनको समझाए या संसृष्ट उष्ण उदक को सुशीतल कर उन्हें पिलाए। २४२४.ओलोयण निग्गमणे, ससहाओ दगसमीवे आयावे। उभयदढो भोगजढे, कज्जे आउट्ट पुच्छणया॥ राजा को आकृष्ट करने के लिए मुनि ऐसे दकतीर पर आतापना ले जो दकतीर राजा के अवलोकनपथ या निर्गमनपथ पर हो, मुनि अकेला न हो, कोई साथ में हो और जो धृति और संहनन-दोनों से दृढ़ हो तथा मनुष्य और पशुओं के उपभोग स्थान को छोड़कर आतापना ले। राजा उस मुनि से आकृष्ट होकर पास में आकर पूछ सकता है-महाराज! मैं आपकी क्या सेवा करूं? तब मुनि उसे अपना कार्य कहे। २४२५.भाविय करणो तरुणो, उत्तर-सिंचणपहे य मुत्तूणं। मज्जणमाइनिवारण, न य हिंडइ पुप्फ वारेइ॥ वह सहायक भावित, कृतकरण तथा तरुण हो। आतापना लेने वाला मुनि दकतीर पर तिर्यंच और मनुष्यों के उत्तरण पथ और सिंचन पथ को छोड़कर आतापना ले। ऐसा करने पर भी यदि कोई आतापना लेने वाले मुनि को स्नान कराता है, सिंचन करता है तो वह सहायक उसका निवारण करे। वह आतापक भिक्षा के लिए नहीं घूमता। आतापक पर कोई फूल चढ़ाता है तो भी वह सहायक निवारण करता है। =बृहत्कल्पभाष्यम् २४२६.पढम-चउत्थवयाणं, अतिचारो होज्ज दगसमीवम्मि। ___इह वि य हुज्ज चउत्थे, सचित्तकम्मेस संबंधो॥ पूर्व सूत्र में मुनि-साध्वी के पानी के समीप रहने-बैठने आदि से प्रथम और चतुर्थ महाव्रत में होने वाले अतिचारों का वर्णन था। प्रस्तुत सूत्र में सचित्र उपाश्रय में रहने पर होने वाले चतुर्थ महाव्रत के अतिचारों का वर्णन है। २४२७.नो कप्पइ जागरिया, चिट्ठणमाई पया य दगतीरे। चित्तगयमाणसाणं, जागरि-झाया कुतो अहवा॥ दकतीर पर जागरिका-धर्मध्यान आदि तथा स्थाननिषीदन आदि करना नहीं कल्पता। प्रस्तुत सूत्र में सचित्र उपाश्रय में रहने पर चित्र में लीन मन वाले साधु-साध्वियों के जागरिका और स्वाध्याय कैसे संभव हो सकता है? यह सूत्र से दूसरा संबंध है। २४२८.निद्दोस सदोसे वा, सचित्तकम्मे उ दोस आणादी। सइकरणं विकहा वा, बिइयं असतीए वसहीए। निर्दोष अथवा सदोष चित्रकर्म वाले उपाश्रय में रहने पर आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। वहां रहने पर स्मृतिकरण तथा विकथा का प्रसंग होता है। अपवादस्वरूप वसति के न मिलने पर वहां रहा जा सकता है। २४२९.तरु गिरि नदी समुहो, भवणा वल्ली लयावियाणा य। निहोस चित्तकम्म, पुन्नकलस-सोत्थियाई य॥ वह चित्रकर्म वाला उपाश्रय निर्दोष है जिसमें वृक्ष, पहाड़, नदी, समुद्र, भवन, वल्ली, लताओं का निकुरम्ब, पूर्णकलश, स्वस्तिक आदि भित्तिचित्र हो। . २४३०.तिरिय-मणुय-देवीणं, जत्थ उ देहा भवंति भित्तिकया। सविकार निविकारा, सदोस चित्तं हवइ एयं॥ वह चित्रकर्म वाला उपाश्रय सदोष है जिसमें पशुस्त्रियों, नारियों तथा देवियों के सविकार और निर्विकार शरीरों को चित्रित किया गया हो। २४३१.लहु गुरु चउण्ह मासो, विसेसितो गुरुगो आदि छल्लहुगा। चउलहुगादी छग्गुरु, उभयस्स वि दुविहचित्तम्मि। निर्दोष चित्रकर्म वाले उपाश्रय में रहने पर चारों आचार्य, उपाध्याय, वृषभ और भिक्षुक के तपःकाल विशेषित लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका और भिक्षुणी-इन चारों के तपकाल से विशेषित गुरुमास का प्रायश्चित्त है। सदोष चित्रकर्म वाले उपाश्रय में रहने पर निग्रंथों के गुरुमास आदि में और षडलघुक आदि पर्यन्त में। निग्रंथिनियों के .. चित्तकम्म-पदं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सचित्तकम्मे उवस्सए वत्थए। (सूत्र २०) कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अचित्तकम्मे उवस्सए वत्थए॥ (सूत्र २१) For Private & Personal use only. Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक २४७ चतुर्लघु आदि में और षड्गुरुक अन्त में। इस प्रकार द्विविध चित्रकर्मवाले उपाश्रय में दोनों वर्गों के प्रायश्चित्त का विधान है। २४३२.दिनुं अन्नत्थ मए, चित्तं तं सोभणं न एअं ति। इति विकहा पलिमंथो, सज्झायादीण कलहो य॥ चित्रकर्म वाले उपाश्रय में चित्रकर्म को देखकर कोई साधु कहता है-अन्यत्र मैंने जो चित्र देखा था वह सुन्दर था, यह वैसा नहीं है। दूसरा इसका प्रतिवाद करता है। यह विकथा है, स्वाध्याय का परिमंथ है। इससे परस्पर कलह भी होता है। २४३३.अद्धाणनिग्गयाई, तिपरिरया असइ अन्नवसहीए। तरुणा करिति दूरे, निच्चावरिए य ते रूवे॥ अध्वनिर्गत मुनि अन्य वसति के लिए तीन बार परिभ्रमण करते हैं। वसति प्राप्त न होने पर वे सचित्रकर्म वाले उपाश्रय में ठहरते हैं। तरुण साधु-साध्वियों को उनसे दूर रखते हैं। वे उन चित्रों को सदा चिलिमिलिका से आवृत रखते हैं। सागारिय-निस्सा-पदं नो कप्पइ निग्गंथीणं सागारियअनिस्साए वत्थए। (सूत्र २२) कप्पइ निग्गंथीणं सागारिय-निस्साए वत्थए॥ (सूत्र २३) २४३६.सागारियं अनिस्सा, भिक्खुणिमादीण संवसंतीणं। गुरुगा दोहिं विसिट्ठा, चउगुरुगाई व छेदंता॥ यदि भिक्षुणियां आदि अनिश्रा में रहती हैं तो उन्हें तप और काल-दोनों से विशिष्ट चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त आता है। अथवा चतुर्गुरुक से प्रारंभ कर छेदान्त पर्यन्त प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। २४३७.कंपइ वाएण लया, ___ अणिस्सिया निस्सिया उ अक्खोभा। इय समणी अक्खोभा, सगारिनिस्सेयरा भइया॥ अनिश्रित लता वायु से प्रकंपित होती है और निश्रित लता अक्षोभ्य होती है। इसी प्रकार सागारिकनिश्रित श्रमणी अक्षोभ्य होती है और अनिश्रित श्रमणी की भजना है यदि वह स्वयं धृति-बलयुक्त है तो अक्षोभ्य होती है और यदि धृति-दुर्बल होती है तो क्षोभ्य होती है। २३३८.दोहि वि पक्खेहिं सुसंवुयाण तह वि गिहिनीसमिच्छंति। बहुसंगहिया अज्जा, होइ थिरा इंदलट्ठी वा॥ यद्यपि आर्यायें आचार्य और प्रवर्तिनी-इन दोनों पक्षों से सुसंवृत होती हैं, फिर भी सागारिक की निश्रा वांछित है। जिस प्रकार इन्द्रयष्टि अनेक यष्टियों से बद्ध होकर ही निष्कंप होती है, वैसे ही आचार्य आदि चिंतकों से परिगृहीत आर्या ही निष्प्रकंप होती है। २४३९.पत्थितो वि य संकइ, पत्थिजंतो वि संकती बलिणो। सेणा वहू य सोभइ, बलवइगुत्ता तहऽज्जा वि॥ समर्थ सागारिक की निश्रा में रहने वाली आर्या की प्रार्थना करने वाला सशंक-भयभीत होता है और आर्या भी समर्थ सागारिक के कारण सशंक होती है। जैसे सेना सेनापति से और वधू बलवान् श्वसुरपक्ष और पितृपक्ष से गुप्त रहकर शोभित होती है, वैसे ही आर्या भी बलवान शय्यातर से परिगृहीत होने पर ही शोभित होती हैं। २४४०.सुन्ना पसुसंघाया, दुब्बलगोवा य कस्स न वितक्का। इय दुब्बलनिस्साऽनिस्सिया व अज्जा वितकाओ॥ जो पशुओं का समूह शून्य अथवा दुर्बल रक्षपाल से परिगृहीत होता है वह किसके लिए अभिलषणीय नहीं होता? इसी प्रकार दुर्बल निश्रा वाली अथवा अनिश्रावाली आर्या किसके लिए वितळ-अभिलषणीय नहीं होती? २४४१.अइया कुलपुत्तगभोइया उ पक्कन्नमेव सुन्नम्मि। इच्छमणिच्छे तरुणा, तेणा उवहिं व ताओ वा॥ २४३४.एरिसदोसविमुक्कम्मि आलए संजईण नीसाए। कप्पइ जईण भइओ, वासो अह सुत्तसंबंधो॥ इस प्रकार के दोषमुक्त आलय में सागारिकनिश्रा में साध्वियों को रहना कल्पता है। साधु के लिए ऐसा निवास विकल्पित है अर्थात् वे सागारिक की निश्रा या अनिश्रा में भी वे रह सकते हैं। यह प्रस्तुत सूत्र से संबंध है। २४३५.सागारियं अनीसा, निग्गंथीणं न कप्पए वासो। चउगुरु आयरियादी, दोसा ते चेव तरुणादी॥ सागारिक अर्थात शय्यातर की निश्रा के बिना साध्वियों को निवास नहीं कल्पता। यदि यह सूत्र आचार्य प्रवर्तिनी को नहीं कहते तो उन्हें चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। वे ही तरुण आदि दोष (गाथा २३०४ वत्) प्राप्त होते हैं। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ =बृहत्कल्पभाष्यम् कप्पइ निग्गंथाणं सागारिय-निस्साए वा अनिस्साए वा वत्थए॥ (सूत्र २४) बकरी, कुलपुत्र की महिला और पक्वान्न-ये यदि शून्य में रहते हैं, किसी के निश्रा में नहीं रहते वे प्रत्येक के लिए स्पृहणीय हो जाते हैं। यदि आर्यायें तरुणों द्वारा प्रार्थना किए जाने पर स्पृहा करती हैं तो ब्रह्मव्रत का भंग होता है, और यदि स्पृहा नहीं करती तो तरुण बलात् उनका ग्रहण कर लेते हैं। स्तेन आर्यायों का या उनकी उपधि का अपहरण कर लेते हैं। २४४२. उच्छुय-घय-गुल-गोरस-एलालुग-माउलिंगफलमादी। पुप्फविही गंधविही, आभरणविही य वत्थविही। इक्षु, घृत, गुड़, गोरस, ककड़ी, बीजपूरक फल आदि तथा पुष्पविधि, गंधविधि, आभरणविधि और वस्त्रविधि-ये शून्य अथवा दुर्बल परिगृहीत होने पर सबके लिए स्पृहणीय होते हैं। वैसे ही आर्यिकाएं भी अपरिगृहीत होने पर तरुणों के लिए स्पृहणीय होती हैं। २४४३.अद्धाणनिग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए। संवरणं वसभा वा, ताओ व अपच्छिमा पिंडी। अध्वनिर्गत साध्वियां परिगृहीत वसति की तीन बार गवेषणा करें। यदि वह प्राप्त न हो तो सागारिक के अनिश्रित वसति में भी रह सकती हैं। उसको कपाट से बंद रखें। कपाट न मिलने पर वृषभ मुनि गृहस्थ का वेश पहन कर साध्वियों की रक्षा करें। यदि वृषभ न हों तो वे साध्वियां ही हाथ में दंड धारण कर, पिंडीभूत होकर रहें। यह अपश्चिम यतना है। २४४४.भोइय-महतरगाई, समागयं वा भणंति गामं तु। निवगुत्ताणं वसही, दिज्जउ दोसा उ भे उवरिं।। गांव में भोजिक, महत्तर आदि को अथवा जहां गांववासी एकत्रित होते हैं उस सभा में जाकर साधु कहे-'हम नृप के द्वारा रक्षित रहकर ही अपने व्रतों का सम्यग् पालन कर सकते हैं। आप हमें उपयुक्त वसति दें। अन्यथा शून्य उपाश्रय में रहने वाली साध्वियों के जो उपद्रव आदि दोष होंगे, वे सब आप पर आयेंगे।' यह कहने पर वे उपयुक्त वसति की व्यवस्था कर देते हैं। २४४५.कयकरणा थिरसत्ता, गीया संबंधिणो थिरसरीरा। जियनिहिंदिय दक्खा, तब्भूमा परिणयवया य॥ साध्वियों की रक्षा के निमित्त जो वृषभ हों वे कृत- करण-धनुर्वेद के अभ्यासी, स्थिर सत्त्ववाले, गीतार्थ, साध्वियों के ही संबंधी, शरीरबलयुक्त, नींद तथा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त, दक्ष, उसी भूमी में रहने वाले तथा अवस्था प्राप्त हों। २४४६.साहू निस्समनिस्सा, कारणि निस्सा अकारणि अनिस्सा। निक्कारणम्मि लहुगा, कारणे गुरुगा अनिस्साए॥ साधु सागारिक की निश्रा या अनिश्रा में रह सकते हैं। कारण होने पर निश्रा में और अकारण में अनिश्रा में रहा जा सकता है। अकारण में निश्रा में रहने पर चतुर्लघु और कारण में अनिश्रा में रहने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। २४४७.उठेत निवेसिंते, भोजण-पेहासु सारि मोए अ। सज्झाय बंभगुत्ती, असंगता तित्थऽवण्णो य॥ निष्कारण सागारिक की निश्रा में रहने पर ये दोष होते हैं-कोई साधु उठते-बैठते नग्न हो जाता है, भोजन करते समय प्रत्युपेक्षा करते समय सागारिक उच्चक (मजाक) करते हैं, रात्री में कायिकी से आचमन करने पर वे उड्डाह करते हैं। स्वाध्याय करते समय मजाक तथा स्त्रियों के अंगप्रत्यंग को देखने से ब्रह्मचर्य की अगुप्ति होती है। लोग कहते हैं-ये असंगत हैं, इनको स्त्रीरहित उपाश्रय में रहना चाहिए। इस प्रकार तीर्थ की अवमानना होती है। सागारिय-उवस्सय-पदं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सागारिए उवस्सए वत्थए। (सूत्र २५) २४४८.तेण सावय मसगा, कारण निक्कारणे य अहिगरणं। एएहिं कारणेहिं, वसंति नीसा अनीसा वा। जहां स्तेन, श्वापद और मशकों का उपद्रव हो वहां मुनि को निश्रा में रहना चाहिए। निष्कारण रहने पर अधिकरण होता है। इन कारणों से निश्रा या अनिश्रा में रहा जा सकता है। २४४९.निस्स ति अइपसंगेण मा हु सागारियम्मि उ वसिज्जा। ते चेव निस्सदोसा, सागारिए निवसतो मा हु॥ साध्वियों को सागारिक के निश्रा में ही रहना कल्पता है और साधुओं को कारण में निश्रा में रहना कल्पता है--यह Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = = २४९ कहने पर अतिप्रसंग दोष से सागारिक प्रतिश्रय में भी रह किसकी कैसी महात्मता और समर्थता है? कुछेक साधु धृति सकते हैं, ऐसा न मान लिया जाए क्योंकि सागारिक उपाश्रय से दुर्बल होते हैं, वे स्त्रियों के पास जाते हैं, उनका परिभोग में रहने पर वे निश्रा दोष होते हैं, अतः सागारिक सूत्र का करते हैं। प्रारंभ किया गया है। २४५६.केइत्थ भुत्तभोगी, अभुत्तभोगी य केइ निक्खंता। २४५०.सागारियनिक्खेवो, चउव्विहो होइ आणुपुव्वीए। रमणिज्ज लोइयं ति य, अम्हं पेतारिसा आसी॥ नामं ठवणा दविए, भावे य चउव्विहो भेदो॥ २४५७.एरिसओ उवभोगो, 'सागारिक' शब्द का निक्षेप अनुपूर्वी से चार प्रकार का __अम्ह वि आसि ण्ह इण्हि उज्जल्ला। है नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। दुक्कर करेमु भुत्ते, २४५१.रूवं आभरणविही, वत्थालंकार भोयणे गंधे। कोउगमियरस्स दट्टणं॥ - आउज्ज नट्ट नाडग, गीए सयणे य दव्वम्मि॥ गच्छ में कुछ जन भोगों को भोग कर निष्क्रमण करते हैं रूप, आभरणविधि, वस्त्र, अलंकार, भोजन, गंध, और कुछ भोगों को भोगे बिना ही। भुक्तभोगी और अभुक्तआतोद्य, नृत्त, नाटक, गीत, शयन-ये सारे द्रव्य सागारिक भोगी-दोनों ही सोचते हैं कि यह लौकिक चरित रमणीय है। हैं। (व्याख्या आगे।) हम भी जब गृहस्थी में थे तब हमारे भी ऐसे ही भोग थे। २४५२.जं कट्ठकम्ममाइसु, रूवं सट्ठाणे तं भवे दव्वं। ऐसा ही उपभोग था। अब हम अत्यंत मलिन शरीर वाले हैं ___जं वा जीवविमुक्वं, विसरिसरुवं तु भावम्मि॥ और हम दुष्कर-केशलुंचन, भूमीशयन आदि कर रहे हैं। यह जो काष्ठकर्म (चित्रकर्म और लेप्यकर्म) में पुरुष और स्त्री भुक्तभोगी का चिंतन है। अभुक्तभोगी रूप-आभरण आदि के रूप का निर्माण किया जाता है वह स्वस्थान में द्रव्य- देखकर कुतूहल से भर जाता है। सागारिक है। (स्वस्थान का अर्थ है-निग्रंथों का पुरुषरूप और २४५८.सति-कोउगेण दुण्णि वि, साध्वियों का स्त्रीरूप। जो विसदृशरूप होता है वह परिहिज्ज लइज्ज वा वि आभरणं। भावसागारिक है-निग्रंथों का स्त्रीरूप और साध्वियों का अन्नेसिं उवभोगं, पुरुषरूप। जो जीव विप्रमुक्त पुरुषशरीर या स्त्रीशरीर है करिज्ज वाएज्ज वुड्डाहो॥ वह भी स्वस्थान में द्रव्यसागारिक है, परस्थान में भाव स्मृति और कुतूहल से अभिभूत दोनों भुक्तभोगी और सागारिक है)। अभुक्तभोगी वस्त्र आदि पहन लें, आभूषण आदि धारण कर २४५३.नट्ट होइ अगीयं, गीयजुयं नाडयं तु नायव्वं । लें तथा अन्य गंध आदि का भी उपभोग कर लें, वादित्र ___ आभरणादी पुरिसोवभोग दव्वं तु सट्ठाणे॥ बजाने लग जाएं। यह सारा देखकर गृहस्थ उड्डाह करने लग गीतरहित नृत्य होता है और गीतयुक्त होता है नाटक। जो जाते हैं। पुरुषों के उपभोगयोग्य आभरण आदि होता है वह स्वस्थान २४५९.तच्चित्ता तल्लेसा, भिक्खा-सज्झायमुक्कतत्तीया। में द्रव्य-सागारिक है। भोजन, गंध, आबोद्य तथा शयन-ये विकहा-विसुत्तियमणा, गमणुस्सुय उस्सुयब्भूया॥ साधु-साध्वी के समान होने के कारण द्रव्यसागारिक हैं और वैसे मुनि तच्चित्त और तल्लेश्य होकर भिक्षाचर्या और शेष साधु-साध्वियों के स्वस्थानयोग्य हों तो द्रव्यसागारिक स्वाध्याय की तप्ति-प्रवृत्ति से मुक्त हो जाते हैं। वे विकथा में और परस्थानयोग्य हों तो भावसागारिक। लीन हो जाते हैं तथा वे चित्तविप्लुति के शिकार होकर २४५४.एक्विक्कम्मि य ठाणे, भोअणवज्जे य चउलह हुंति। संन्यास से पलायन करने के लिए उत्सुक होकर उत्प्रवजित चउगुरुग भोअणम्मि, तत्थ वि आणाइणो दोसा॥ हो जाते हैं, गृहस्थाश्रम में चले जाते हैं। रूप, आभरण आदि प्रत्येक स्थान में चतुर्लघु २४६०.सुट्ठ कयं आभरणं,विणासियं न वि य जाणसि तुम पि। प्रायश्चित्त है। इसमें भोजन वर्ण्य है। भोजनसागारिक में सुदृड्डाहो गंधे, विसुत्तिया गीयसद्देसु॥ चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। वहां भी आज्ञाभंग आदि दोष साधु परस्पर विकथा करते हुए कहते हैं यह आभरण होते हैं। अच्छा बना है। दूसरा कहता है-इसका तो विनाश कर २४५५.को जाणइ को किरिसो, कस्स व माहप्पया समत्थत्ते। डाला। तुम कुछ नहीं जानते। कोई शरीर पर गंध द्रव्य धिइदुब्बला उ केई, डेविति तओ अगारिजणं॥ लगाता है तो उड्डाह करते हैं। आतोद्य आदि के शब्दों से कौन जानता है कौन साधु किस परिणाम वाला है? विस्रोतसिका होती है। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० =बृहत्कल्पभाष्यम् २४६१.निच्चं पि दव्वकरणं, अवहियहिययस्स गीयसदेहिं। स्त्रीशरीर भूषणविरहित तथा जीववियुक्त है उसे रूप कहा पडिलेहण सज्झाए, आवासग भुंज वेरत्ती॥ जाता है। जो मुनि गीत आदि के शब्दों में लवलीन होते हैं उनके २४६७.तं पुण रूवं तिविहं, दिव्वं माणुस्सयं तिरिक्खं च। सदा प्रत्युपेक्षण, स्वाध्याय, आवश्यक, भोजनक्रिया, पायावच्च-कुडुंबिय-दंडियपारिग्गहं चेव। वैरात्रिक तथा प्राभातिक क्रियाएं द्रव्यक्रियाएं होती हैं, वह रूप तीन प्रकार का है-दिव्य, मानुष्य और तैरश्च। भावक्रियाएं नहीं। पुनः एक-एक के तीन-तीन प्रकार हैं-प्राजापत्यपरिगृहीत मणसहिएण उ काएण कुणइ वायाए भासई जं च। (प्राजापत्या-सामान्यलोकाः), कौटुम्बिकपरिगृहीत और एअंतु भावकरणं, मणरहितं तं दव्वकरणं तु॥ दंडिकपरिगृहीत। इन सबके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद (आ. नि. १४८६) से तीन-तीन प्रकार हैं। २४६२.ते सीदितुमारद्धा, संजमजोगेसु वसहिदोसेणं। २४६८.वाणंतरिय जहन्नं, भवणवई जोइसं च मज्झिमगं। गलइ जतुं तप्पत्तं, एव चरित्तं मुणेयव्वं॥ वेमाणिय उक्कोसं, पगयं पुण ताण पडिमासु॥ वे मुनि वसति के दोषों से दुःख पाते हैं और उनके दिव्यरूपों में वानमंतरिकरूप जघन्य, भवनपति और संयमयोग अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। जैसे लाख अग्नि से ज्योतिष्क मध्यम और वैमानिकरूप उत्कृष्ट होता है। प्रस्तुत तप्त होकर पिघल जाता है वैसे ही राग से संतप्त प्रसंग में सागारिक उपाश्रय में वानमंतरियों की जो प्रतिमाएं मुनियों का चारित्र भी परिगलित हो जाता है, यह जानना हैं उन्हीं का यहां अधिकार है। चाहिए। २४६९.कट्ठ पुत्थे चित्ते, जहन्नयं मज्झिमं च दंतम्मि। २४६३.उन्निक्खंता केई, पुणो वि सम्मेलणाए दोसेणं । सेलम्मि य उक्कोसं, जं वा रूवाउ निष्फन्नं ।। वच्चंति संभरंता, भंतूण चरित्तपागारं॥ प्रकारान्तर से दिव्य प्रतिमाओं के जघन्य आदि प्रकार ये कुछेक मुनि उपाश्रय में स्त्रीरूप आदि के सम्मेलन के हैं-काष्ठकर्म में, पुस्तकर्म में तथा चित्रकर्म में जो दिव्यरूप दोषों से प्रभावित होकर उत्प्रवजित हो जाते हैं, और उत्कीर्ण होते हैं वे जघन्य, जो हाथीदांत पर होते हैं वे मध्यम चारित्ररूपी प्राकार को तोड़कर उन स्त्रीरूपों का स्मरण तथा जो पत्थर पर, मणि आदि पर उत्कीर्ण होते हैं वे उत्कृष्ट करते हुए पुनः गृहवास में चले जाते हैं। माने जाते हैं। अथवा जो रूप से निष्पन्न है वह जघन्य, मध्यम २४६४.एगम्मि दोसु तीसु व, ओहावितेसु तत्थ आयरिओ। आदि होती है। मूलं अणवठ्ठप्पो, पावइ पारंचियं ठाणं॥ २४७०.ठाण-पडिसेवणाए, तिविहे वी दुविहमेव पच्छित्तं। इस प्रकार एक साधु के उत्प्रवजित होने पर आचार्य को लहुगा तिन्नि विसिट्ठा, अपरिगहे ठायमाणस्स। मूल, दो होने पर अनवस्थाप्य और तीन के होने पर पारांचिक तीनों प्रकार की दिव्य प्रतिमा वाले उपाश्रय में रहने पर स्थान प्राप्त होता है। अथवा जिनके अधीन वे साधु हों उनको दो प्रकार का प्रायश्चित्त आता है-स्थाननिष्पन्न और यह प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। प्रतिसेवनानिष्पन्न। अपरिगृहीत दिव्य प्रतिमायुत उपाश्रय में २४६५.अट्ठारसविहऽबंभं, भावउ ओरालियं च दिव्वं च। रहने पर स्थाननिष्पन्न प्रायश्चित्त यह है-जघन्य में चार लघु मण-वयस-कायगच्छण, भावम्मि य रूव संजुत्तं॥ तप और काल से भी लघु, मध्यम में चार लघु काल से गुरु, अब्रह्मचर्य अठारह प्रकार का है। उसके दो मूल भेद उत्कृष्ट में वही तपोगुरु। हैं-औदारिक और दिव्य। इनके मन, वचन और काया के २४७१.चत्तारि य उग्घाया, पढमे बिइयम्मि ते अणुग्घाया। आधार पर नौ-नौ भेद होते हैं। यह अठारह प्रकार का अब्रह्म छम्मासा उग्घाया, उक्कोसे ठायमाणस्स। भाव सागारिक है अथवा रूपसहगत जो अब्रह्म है वह भी २४७२.पायावच्चपरिग्गहे, दोहि वि लहु होति एते पच्छित्ता। भाव सागारिक है। कालगुरू कोडुबे, दंडियपारिग्गहे तवसा॥ २४६६.अहव अबंभं जत्तो, भावो रूवाउ सहगयाओ वा। परिगृहीत में यह प्रायश्चित्त है-प्रथम अर्थात जघन्य में भूसण-जीवजुयं वा, सहगय तव्वज्जियं रूवं॥ चार उद्घातिम अर्थात् लघुमास, दूसरा अर्थात् मध्यम में वे अथवा रूप से या रूपसहगत भाव से अब्रह्म की उत्पत्ति अनुद्घातिम अर्थात् गुरुमास, उत्कृष्ट में छह उद्घातिम होती है, वह भावसागारिक है। जो स्त्रीशरीर भूषित है अथवा अर्थात् छह लघुमास। अभूषित, परंतु जीवयुक्त है उसे रूपसहगत कहा जाता है। जो ये ही प्रायश्चित्त प्राजापत्यपरिगृहीत में दोनों अर्थात् तप Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ पहला उद्देशक और काल से लघु, कौटुम्बिकपरिगृहीत में कालगुरु और दंडिकपरिगृहीत में तप से गुरु। २४७३.चत्तारि य उग्घाता, पढमे बिइयम्मि ते अणुग्घाया। तइयम्मि अणुग्घाया, चउत्थ छम्मास उग्घाता। २४७४.पंचमगम्मि वि एवं, छटे छम्मास होतऽणुग्घाया। असन्निहिए सन्निहिए, एस विही ठायमाणस्स॥ प्रथम जघन्य-असन्निहित, द्वितीय जघन्य सन्निहित, तृतीय मध्यम असन्निहित, चतुर्थ मध्यम सन्निहित, पंचम उत्कृष्ट असन्निहित और षष्ठ उत्कृष्ट सन्निहित। विधि यह है-जघन्य असन्निहित प्राजापत्यपरिग्रहीत में रहने पर चार उद्घात मास, सन्निहित में चार अनुद्घात मास, मध्यम असन्निहित में चार अनुद्घातमास, सन्निहित में छह उद्घात मास, उत्कृष्ट असन्निहित में छह उद्घातमास और सन्निहित में छह अनुरातमास। यह विधि वहां रहने पर है। २४७५.पढमिल्लुगम्मि ठाणे, दोहि वि लहुगा तवेण कालेण। बिइयम्मि अ कालगुरू, तवगुरुगा होति तइयम्मि॥ प्रथम स्थान अर्थात् प्राजापत्यपरिगृहीत में ये सारे प्रायश्चित्त तप और काल दोनों से लघु होते हैं। दूसरे अर्थात् कौटुम्बिकपरिगृहीत में ये ही कालगुरुक और तीसरे अर्थात् दंडिकपरिगृहीत में ये तपोगुरुक होते हैं। २४७६.अहवा भिक्खुस्सेयं, जहन्नगाइम्मि ठाणपच्छित्तं। गणिणो उवरिं छेदो, मूलायरिए पदं हसति॥ अथवा जघन्य आदि में चतुर्लघु से प्रारंभ कर षड्गुरु पर्यन्त जो स्थानप्रायश्चित्त कहा है वह भिक्षु से संबंधित है। गणी अर्थात् उपाध्याय के षड्गुरु से ऊपर छेद पर्यन्त प्रायश्चित्त है। आचार्य के एक उपरीतन पद बढ़ता है और अधस्तन एक पद का ह्रास होता है अर्थात् आचार्य के षड्लघु से मूलपर्यन्त प्रायश्चित्त आता है। (यह स्थान-प्रायश्चित्त कहा गया है। आगे प्रतिसेवना प्रायश्चित्त है।) २४७७.चत्तारि छ च्च लहु गुरु, छम्मासितो छेदो लहुग गुरुगो य। मूलं जहन्नगम्मि, सेवंति पसज्जणं मोत्तुं॥ प्राजापत्यपरिगृहीत जघन्य प्रतिमा जो असन्निहित है उसकी अदृष्टरूप में प्रतिसेवना करने पर चतुर्लघु और दृष्ट में चतुर्गुरु, सन्निहित अदृष्ट में चतुर्गुरु और दृष्ट में षड्लघु। कौटुम्बिकपरिगृहीत जघन्य, असन्निहित अदृष्टप्रतिसेवना का षडलघु, दृष्ट में षड्गुरु, सन्निहित अदृष्ट में षड्गुरु और दृष्ट में लघुषाण्मासिक छेद। दंडिकपरिगृहीत जघन्य असन्निहित अदृष्ट प्रतिसेवना का लघुषाण्मासिक छेद, दृष्ट में गुरुषाण्मासिक छेद, सन्निहित अदृष्ट में गुरुषाण्मासिक छेद तथा दृष्ट में मूल। यह जघन्य दिव्यप्रतिमा की प्रतिसेवना का प्रायश्चित्त है। प्रसज्जना अर्थात् किसी के देख लेने पर ग्रहण, आकर्षण आदि जो दोषों के प्रसंग आते हैं, उन्हें छोड़कर इनका प्रायश्चित्त अलग से आता है। २४७८.चउगुरुग छ च्च गुरु, छम्मासिओ छेदो लहुओ गुरुगो य। मूलं अणवठ्ठप्पो, ___ मज्झिमए पसज्जणं मोत्तुं॥ मध्यमरूपवाली प्रतिमाओं की प्रतिसेवना का प्रायश्चित्त यह है-प्राजापत्यपरिगृहीत असन्निहित अदृष्ट-चतुर्गुरु, दृष्ट षड्लघु, सन्निहित अदृष्ट षड्लघु, दृष्ट षड्गुरु। कौटुम्बिकपरिगृहीत असन्निहित अदृष्ट षड्गुरु, दृष्ट लघुषाण्मासिकछेद, सन्निहित अदृष्ट लघुषाण्मासिक छेद, दृष्ट गृहषाण्मासिकछेद। दंडिकपरिगृहीत असन्निहित अदृष्ट गुरुषाण्मासिक छेद, दृष्ट मूल, सन्निहित अदृष्ट मूल, दृष्ट अनवस्थाप्य। इसमें भी प्रसज्जना को छोड़कर पूर्ववत्। २४७९.तव छेदो लहु गुरुगो, छम्मासितो मूल सेवमाणस्स। अणवट्ठप्पो पारंचि, उक्कोसे पसज्जणं मोत्तुं। उत्कृष्ट-प्राजापत्यपरिगृहीत असन्निहित अदृष्ट लघुपाण्मासिक तप, दृष्ट गुरुषाण्मासिक तप, सन्निहित अदृष्ट गुरुषाण्मासिक तप, दृष्ट लघुषाण्मासिक छेद। कौटुंबिक असन्निहित अदृष्ट लघुषाण्मासिक छेद, दृष्ट गुरुषाण्मासिक छेद, सन्निहित अदृष्ट गुरुषाण्मासिक छेद, दृष्ट मूल। दंडिक असन्निहित अदृष्ट मूल, दृष्ट अनवस्थाप्य, सन्निहित अदृष्ट अनवस्थाप्य, दृष्ट पारांचिक। इसमें भी पूर्ववत् प्रसज्जना को छोड़कर। २४८०.पायावच्चपरिग्गहे, जहन्न सन्निहियए असन्निहिए। दिट्ठाऽदिद्वे सेवइ, एसाऽऽलावो उ सव्वत्थ॥ प्राजापत्यपरिगृहीत जघन्य सन्निहित असन्निहित दृष्ट अदृष्ट की जो प्रतिसेवना करता है-यह आलापक सर्वत्र समझना चाहिए। गाथा में असन्निहित और अदृष्ट पद का बंधानुलोमता के कारण पश्चात् निर्देश है। २४८१.जम्हा पढमे मूलं, बिइए अणवट्ठो तइए पारंची। तम्हा ठायंतस्सा, मूलं अणवट्ठ पारंची॥ जिससे प्रथम अर्थात् जघन्य की प्रतिसेवना करने वाले के चतुर्लघु से प्रारंभ कर मूल पर्यन्त, द्वितीय अर्थात् मध्यम में चतुर्गुरु से अनवस्थाप्य पर्यन्त और तृतीय अर्थात् उत्कृष्ट में षड्लघु से पारांचिक पर्यन्त प्रायश्चित्त आता है। इसीलिए जो वहां रहता है उसके स्थाननिष्पन्न जघन्य, मध्यम और Jain Education international Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ =बृहत्कल्पभाष्यम् उत्कृष्ट में मूल, अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त यदि अप्रतिसेवी को भी प्रायश्चित्त आता है तो फिर एक विहित है। भी अप्रायश्चित्ती नहीं मिलेगा। कोई भी अभी कर्मबंधनों से २४८२.पडिसेवणाए एवं, पसज्जणा तत्थ होइ एक्केक्के। मुक्त नहीं होगा। तथा दोष करने वाला और न करने वाला चरिमपदे चरिमपदं, तं पि य आणाइनिप्फन्नं॥ दोनों समान हो जाएंगे। इस प्रकार प्रायश्चित्त देने पर रागप्रतिसेवना में ये प्रायश्चित्त हैं। प्रत्येक प्रायश्चित्त में द्वेष की बात आएगी। प्रसज्जना होती है।' चरमपद का अर्थ है-अदृष्टपद से २४८७.मुरियादी आणाए, अणवत्थ परंपराए थिरिकरणं। दृष्टपद और उस प्रायश्चित्त का चरमपद है पारांचिक तक मिच्छत्ते संकादी, पसज्जणा जाव चरिमपदं॥ प्रायश्चित्त है। तथा आज्ञाभंग आदि से निष्पन्न प्रायश्चित्त भी मौर्यवंशीय तथा आज्ञा को सार मानने वाले अन्य राजाआता है। इनका दृष्टांत है। पहले अनवस्था, फिर परंपरा और फिर २४८३.जइ पुण सव्वो वि ठितो, उसी अपराध पद का स्थिरीकरण। फिर मिथ्यात्व, शंका सेविज्जा होज्ज चरिमपच्छित्तं। आदि। पसज्जना फिर चरमपद अर्थात् पारांचिक पर्यन्त तम्हा पसंगरहियं, प्रायश्चित्त। ___जं सेवइ तं न सेसाई॥ २४८८.अवराहे लहुगयरो, किं णु हु आणाए गुरुतरो दंडो। जो ऐसे उपाश्रय में ठहरता है, वह प्रतिसेवना करता ही आणाए च्चिय चरणं, तब्भंगे किं न भग्गं तु॥ है तो चरम प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ऐसा नहीं होता। अतः शिष्य ने पूछा-अपराध में लघुतर दंड और आज्ञाभंग में जो प्रसंगरहित ऐसे स्थान उपाश्रय का सेवन करता है, गुरुतर दंड-यह क्यों? आचार्य ने कहा-आज्ञा से ही चरण उसके तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त ही आता है, शेष मूल आदि नहीं। व्यवस्थित होता है। आज्ञा के भंग होने पर चरण का भंग २४८४.अहिट्ठाओ दि8, चरिमं तहि संकमाइ जा चरिमं। क्यों नहीं होगा? ___अहवण चरिमाऽऽरोवण, ततो वि पुण पावए चरिमं॥ २४८९.भत्तमदाणमडते, आणट्ठवणंब छेत्तु वंसवती। अदृष्टपद से दृष्टपद चरम है। चरमपद में शंका आदि गविसण पत्त दरिसए, पुरिसवइ सबालडहणं च। होती है। तो क्रमशः पारांचिक पर्यन्त प्रायश्चित्त आता है। मौर्य दृष्टांत चंद्रगुप्त मौर्य राजा बना। वह मोरपोषक का अथवा चरम आरोपणा जैसे जघन्य में चरम है मूल, मध्यम पुत्र है, यह सोचकर उसकी आज्ञा का पालन नहीं होता था। में चरम है अनवस्थाप्य और उत्कृष्ट में चरम है पारांचिका चाणक्य ने सोचा आणाहीणो केरिसो राया। इसलिए मुझे फिर वह पुनः चरम अर्थात् पारांचिक प्रायश्चित्त को प्राप्त । ऐसा प्रयत्न करना चाहिए जिससे राजा की आज्ञा तीक्ष्ण हो। करता है। चाणक्य भिक्षा के लिए एक गांव में गया। वहां उसे भिक्षा २४८५.अहवा आणाइविराहणाउ एक्विकियाउ चरिमपदं। नहीं मिली। उस गांव में अनेक आम के वृक्ष और बांस थे। पावइ तेण उ नियमो, पच्छित्तिहरा अइपसंगो॥ चाणक्य ने आज्ञा की स्थापना के लिए, उस गांव वालों के अथवा आज्ञा, अनवस्था, मिथ्यात्व और विराधना में पास राजा का एक आदेश भेजा-आम के वृक्षों को उखाड़ चरमपद है विराधना। विराधना के दो प्रकार हैं-आत्म- कर बांस के चारों तरफ बाड़ लगा दें। यह आदेश गांव वालों विराधना और संयमविराधना। उसके एक-एक से चरमपद के पास पहुंचा। उन्होंने सोचा-राजाज्ञा दुर्लिखित है। गांव प्रायश्चित्त आता है। इसलिए यह नियम है कि जो वहां वालों ने बांस का छेदन कर आम के चारों ओर उनकी बाड़ ठहरता है उसके स्थान प्रायश्चित्त ही आता है, प्रतिसेवना लगा दीं। चाणक्य ने यह देखा। उसने गांव वालों को प्रायश्चित्त नहीं। अन्यथा अतिप्रसंग होगा। उपालंभ देते हुए कहा यह क्या किया? आज्ञा का पालन २४८६.नत्थि खलु अपच्छित्ती, क्यों नहीं किया? पुरुषों से बाड बनाई। गांव को जला एवं न य दाणि कोइ मुच्चिज्जा। डाला। कारि-अकारीसमया, २४९०.एगमरणं तु लोए, आणऽइआरुत्तरे अणंताई। एवं सइ राग-दोसा य॥ अवराहरक्खणट्ठा, तेणाणा उत्तरे बलिया। १. प्रसज्जना होती है अर्थात् मुनि को वहां बैठा देखकर कोई स्त्री सोच सकती है कि यह मुनि प्रतिसेवना के लिए यहां बैठा है। उससे भोजिक आदि का दोष प्रसंग होता है। यह प्रसज्जना प्रति प्रायश्चित्त के लिए होती है। २.देखें कथा परिशिष्ट, नं.७३। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २५३ पहला उद्देशक लोक में आज्ञा का अतिक्रमण करने पर एक बार ही मरना होता है। लोकोत्तर आज्ञा का अतिक्रमण करने पर अनंत जन्म-मरण प्राप्त होते हैं। इसलिए लोकोत्तर में अपराध की रोकथाम के लिए आज्ञा बलवान होती है। २४९१.अणवत्थाए पसंगो, मिच्छत्ते संकमाइया दोसा। दुविहा विराहणा पुण, तहियं पुण संजमे इणमो॥ यह बहुश्रुत मुनि भी सागारिक प्रतिश्रय में रहता है तो मैं क्यों न रहूं-इस प्रकार अनवस्था का प्रसंग उपस्थित होता है। शंका आदि दोष के कारण मिथ्यात्व का प्रसंग आता है। विराधना के दो प्रकार हैं-संयमविराधना और आत्म- विराधना। संयमविराधना यह है२४९२.अणट्ठादंडो विकहा, वक्खेवो विसोत्तियाए सइकरणं। ___ आलिंगणाइदोसा, असन्निहिए ठायमाणस्स॥ अनर्थदंड-ज्ञान आदि की हानि, विकथा, व्याक्षेप-प्रतिमा को देखने से सूत्रार्थ का परिमंथ, विस्रोतसिका, स्मृतिकरण, आलिंगन आदि दोष ये सारे असन्निहित प्रतिमा वाले उपाश्रय में रहने से होते हैं। २४९३.सुट्ट कया अह पडिमा, विणासिया न वि य जाणसि तुमं पि। इय विकहा अहिगरणं, आलिंगणे भंगे भहितरा॥ प्रतिमा को देखकर विकथा करते हुए एक कहता है यह प्रतिमा सुन्दर बनाई है। दूसरा कहता कहता है-इस प्रतिमा का विनाश कर डाला। तुम कुछ भी नहीं जानते। इस विकथा से अधिकरण का प्रसंग आता है। प्रतिमा का आलिंगन करने पर प्रतिमा का भंग हो सकता है। इससे भद्रक अर्थात् प्रतिमा का हस्तभंग आदि होने पर भद्रक हो तो पुनः उसका संस्थापन करना होता है और इतर अर्थात् प्रान्त हो तो ग्रहण, आकर्षण आदि दोष होता है। २४९४.वीमंसा पडिणीयट्ठया व भोगत्थिणी व सन्निहिया। काणच्छी उक्कंपण, आलाव निमंतण पलोभे॥ देवता द्वारा सन्निहित प्रतिमावाले उपाश्रय में रहने से उपरोक्त दोष तो होते ही हैं, ये दोष और अधिक होते हैं जो देवता सन्निहित है वह साधु को तीन कारणों से प्रलुब्ध करती है-विमर्श से (जिज्ञासा से), प्रत्यनीकता से तथा भोगार्थिता से। पहले प्रतिमा-स्थित देवी यह विमर्श करती है कि क्या मैं इस मुनि को पथच्युत कर सकती हूं या नहीं। फिर वह प्रतिमा में प्रवेश कर काणाक्षी-कटाक्ष करती है, १. सन्निहित अर्थात् देवता द्वारा अधिष्ठित। असन्निहित अर्थात देवता द्वारा अनधिष्ठित। स्तनों को प्रकंपित करती है, आलाप करती है, फिर निमंत्रण देती हुई कहती है-स्वामिन् ! मेरे साथ भोग भोगें और वह . कक्षान्तर आदि दिखाकर मुनि को प्रलुब्ध करती है। २४९५.काणच्छिमाइएहिं, खोभिय उद्धाइयस्स भद्दा उ। नासइ इयरो मोहं, सुवण्णकारेण दिळंतो॥ कटाक्ष आदि से क्षुब्ध मुनि उसको पकड़ने के लिए दौड़ता है तो यदि वह देवी भद्र है तो वह अदृश्य हो जाती है। साधु उसके प्रति मोहग्रस्त हो जाता है। यहां स्वर्णकार का दृष्टांत वक्तव्य है। २४९६.वीमंसा पडिणीया,विद्दरिसण-ऽक्खित्तमादिणो दोसा। __ असंपत्ती संपत्ती, लग्गस्स य कड्डणादीणि॥ प्रत्यनीक देवी भी मुनि को विमर्श कटाक्ष आदि से क्षुब्ध करती है, मुनि जब उसे पकड़ने दौड़ता है। तब वह उसके हाथ में न आकर अपना विकृतरूप दिखाती है अथवा वह साधु के क्षिप्तचित्त आदि दोषों को पैदा कर देती है अथवा परिभोगसंपत्ति करती है। साधु को देवी के साथ लगा हुआ देखकर स्वामी या अन्य उसको पकड़ लेता है, उसको राजा आदि के पास ले जाता है। २४९७.पंता उ असंपत्तीइ चेव मारिज्ज खेत्तमादी वा। संपत्तीइ वि लाएतु कड्ढणादीणि कारेज्जा॥ जो प्रान्त देवी है वह इस प्रकार की चेष्टा करने वाले साधु को, बिना संप्राप्ति के ही मार देती है अथवा उसमें क्षिप्तचित्त आदि दोष उत्पन्न कर देती है। संप्राप्ति में भी उसको पकड़ कर राजा आदि के पास ले जाया जाता है। २४९८.भोगत्थी विगए कोउगम्मि खित्ताइ दित्तचित्तं वा। दह्रण व सेवंतं, देउलसामी करेज्ज इमं॥ २४९९.तं चेव निट्ठवेई, बंधण निच्छुभण कडगमहे अ। आयरिए गच्छम्मि य, कुल गण संघे य पत्थारो॥ भोगार्थी देवी मुनि के साथ भोग भोगकर भोगविषयक कौतुक समाप्त हो जाने पर 'दूसरी देवी के साथ भोग न भोगे' यह सोचकर उस मुनि को क्षिप्तचित्त, दृप्तचित्त या यक्षाविष्ट कर देती है। अथवा देवता के साथ भोग भोगते साधु को देखकर देवकुल का स्वामी उसके साथ इस प्रकार करता है-वह साधु के साथ मारपीट करता है, उसको बांध देता है, अथवा उसको नगर के बाहर निकाल देता है अथवा कटकमद-एक साधु के अपराध के कारण समस्त साधुवर्ग को मार देता है, अथवा उसके आचार्य, गच्छ, कुल, गण, संघ का प्रस्तार-विनाश कर देता है। २. आवश्यक, हारिभद्रीया टीका पत्र २९६। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ - =बृहत्कल्पभाष्यम् २५००.गिण्हणे गुरुगा छम्मास कडणे छेदो होइ ववहारे। पच्छाकडम्मि मूलं, उड्डहण-विरुंगणे नवमं॥ २५०१.उद्दावण निव्विसए, एगमणेगे पदोस पारंची। अणवठ्ठप्पो दोसु उ, दोसु उ पारंचिओ होइ॥ यदि देवकुल का स्वामी प्रतिसेवना करते हुए मुनि को पकड़ता है तो चार गुरुमास, हाथ या वस्त्र खींच कर राजकुल ले जाता है तो षडलघु, साधु द्वारा प्रत्याकर्षित करने पर षड्गुरुमास, व्यवहार प्रारंभ होने पर छेद, पश्चात्कृत अर्थात् पराजित होने पर मूल, उड्डहन-गधे पर बिठाए जाने पर या विरूप बनाने पर अर्थात् नाक आदि काटने पर नौवां प्रायश्चित्त-अनवस्थाप्य, एक या अनेक साधुओं का प्रद्वेष से अपद्रावण, या देश-निष्काशन होने पर पारांचिक प्रायश्चित्त आता है। इस प्रकार उनको उड्डहन तथा विरूप किए जाने पर इन दोनों में अनवस्थाप्य, तथा इन दोनों में अपद्रावण या देशनिष्काशन होने पर पारांचिक प्रायश्चित्त आता है। २५०२.एयस्स नत्थि दोसो, अपरिक्खियदिक्खगस्स अह दोसो। इति पंतो निव्विसए, उद्दवण विरुंचणं व करे॥ अथवा प्रद्विष्ट होने पर कहा जाता है-इस मुनि का दोष नहीं है, किन्तु इसकी परीक्षा किए बिना जिस आचार्य ने इसको दीक्षित किया है उसका दोष है, यह सोचकर वह प्रान्त व्यक्ति आचार्य को देश से निष्काशन अथवा अपद्रावण या विरूंपन-कर्ण-नासा आदि का छेदन कर दिया जाता है। २५०३.तत्थेव य पडिबंधो, अदिट्ठगमणाइ वा अणितीए। __ एए अन्ने य तहिं, दोसा पुण होति सन्निहिए॥ अथवा वहीं उसी देवी में मुनि का प्रतिबंध हो जाता है अथवा वह व्यन्तरी अदृष्ट हो जाए, पुनः न आए, तब वह मुनि प्रतिगमन आदि कर सकता है। ये तथा इसी प्रकार के अन्य दोष प्रतिमारूप सन्निहित उपाश्रय में होते हैं। २५०४.कटे पुत्थे चित्ते, दंतकम्मे य सेलकम्मे य। दिट्ठिप्पत्ते रूवे, वि खित्तचित्तस्स भंसणया॥ सन्निहित प्रतिमाओं के ये प्रकार हैं-काष्ठमयी, पुस्तमयी, चित्रमयी, दन्तकर्ममयी, शैलकर्ममयी। इनका रूप देखने मात्र से क्षिप्तचित्त मुनि की संयमजीवन से भंसना हो जाती है। २५०५.सुहविन्नवणा सुहमोयगा य सुहविन्नवणा य होति दुहमोया। दुहविन्नप्पा य सुहा, दुहविन्नप्पा य दुहमोया॥ सन्निहित देवियों के ये चार प्रकार हैं-(१) सुखविज्ञपनासुखमोचा। (२) सुखविज्ञपना-दुःखमोचा, (३) दुःखविज्ञपनासुखमोचा (४) दुःखविज्ञपना-दुःखमोचा। (विज्ञपना का अर्थ है-प्रार्थना या प्रतिसेवना।) २५०६.सोपारयम्मि नगरे, रन्ना किर मग्गितो उ निगमकरो। अकरो त्ति मरणधम्मा, बालतवे धुत्तसंजोगो॥ २५०७.पंच सय भोइ अगणी, अपरिग्गहि सालिभंजि सिंदूरे। तुह मज्झ धुत्त पुत्तादि अवन्ने विज्जखीलणया।। प्रथम विकल्प में यह दृष्टांत है सोपारक नगर के राजा ने निगमों (विशेष वणिकों) को कर देने के लिए कहा। उन्होंने राजा से कहा-हम अकर हैं। आज हम कर देंगे तो वह सदा-सदा के लिए लागू हो जाएगा। हम कर नहीं देंगे। उन्होंने कर देने के बदले अग्नि में प्रवेश कर मरना श्रेयस्कर समझा। वे सब अग्नि में प्रवेश कर मर गए। उनकी पत्नियां भी अग्नि में प्रवेश कर मर गईं। सभी बालतप के कारण मरकर अपरिगृहीत देवियां बनीं। वहां एक सिन्दूर की भांति लाल देवकुल था। वहां पांच सौ पुतलियां थीं। उन देवियों ने इन पुतलियों में प्रवेश कर डाला। वे सभी वहां स्थित धूर्तों से संप्रलग्न हो गईं। 'यह तुम्हारी है, यह मेरी है' इस प्रकार धूर्तों में विवाद होने लगा। उन सबका पूर्वभव वृत्तांत सुनकर यह हमारा अवर्णवाद है, यह मानकर उन्होंने विद्याप्रयोग से सबको कीलित कर डाला। २५०८.बिइयम्मि रयणदेवय, तइए भंगम्मि सुइगविज्जाओ। गोरी-गंधाराइ, दुहविण्णप्पा य दुहमोया॥ दूसरे भंग में रत्न देवी का निदर्शन है। वह अल्प ऋद्धिवाली तथा कामातुर देवी थी। वह सुखविज्ञपना और दुःखमोचा थी। तीसरे भंग में शुचिभूत विद्यादेवियों का निदर्शन है। वे शुचिभूत और महर्द्धिक होने के कारण दुःखविज्ञपना होती हैं। वे उग्ररूप नित्य अप्रमत्त साधक द्वारा आराधनीय होती हैं। अन्त में अपाय के कारण सुखमोचा होती हैं। चौथे भंग में गौरी, गान्धारी आदि मातंग विद्यादेवियां आती हैं। वे लोक-गर्हित होने के कारण दुःखविज्ञप्या और दुःखमोचा होती हैं। २५०९.तिण्ह वि कतरो गुरुतो, पागइ कोडुबि दंडिए चेव। साहस अपरिक्ख भए, इयरे पडिपक्ख पभु राया। शिष्य ने पूछा-भंते! प्राजापत्य, कौटुंबिक और दंडिकपरिगृहीत-इन तीनों में कौन सा गुरुतर है? शिष्य ही कहता है-मैं मानता हूं कि प्राजापत्य परिगृहीत प्रतिमा ही गुरुतर होती है, शेष दोनों लघुतर। क्योंकि साहस अर्थात् प्राकृत जन मूर्खता से साहसिक और अपरीक्षितकारी होता है। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक =२५५ अनीश्वर होने के कारण उसमें भय नहीं रहता, अतः वह आचार्य ने कहा इस अपराध में नृप प्रस्तार कटकमर्द कर साधु को मार भी सकता है। शेष दोनों कौटुंबिक और दंडिक सकता है। इसलिए प्रायश्चित्त भी अधिक है। रागभाव भी प्राकृत के प्रतिपक्षभूत हैं। आचार्य कहते हैं-दंडिक और वस्तु के आधार पर होता है। कौटुंबिक गुरुतर हैं, क्योंकि उनका प्रभु राजा होता है। वह २५१५.जइभागगया मत्ता, रागादीणं तहा चओ कम्मे। एक साधु पर रुष्ट होता है तो सारे संघ का विनाश कर रागाइविहुरया वि हु, पायं वत्थूण विहुरत्ता॥ देता है। मुनि की राग आदि की मात्रा जितने भाग में होती है, २५१०.ईसरियत्ता रज्जा व भंसए मन्नुपहरणा रिसओ। कर्म का चय भी उसी मात्रा में होता है। राग आदि की मात्रा ते य समिक्खियकारी, अण्णा वि य सिं बहू अत्थि॥ का वैषम्य भी प्रायः वस्तु की विधुरता-सुंदर, सुंदरतर या इसके प्रतिपक्ष में कहा जाता है ये ऋषि मन्युप्रहरण- सुंदरतम के आधार पर होती है। क्रोधरूपी शस्त्र वाले होते हैं। कौटुंबिक सोचता है ये कुपित २५१६.माणुस्सं पि य तिविहं, जहन्नगं मज्झिमं च उक्कोसं। होकर मुझे ऐश्वर्य से च्युत कर सकते हैं। राजा सोचता है ये पायावच्च-कुटुंबिय-दंडियपारिग्गहं चेव॥ मुझे राज्यच्युत कर सकते हैं। राजा आदि समीक्षितकारी मनुष्यणी के भी तीन प्रकार हैं-जघन्य, मध्यम और होते हैं। उनके अन्यत्र भी अनेक प्रतिमाएं होती हैं। उनका उत्कृष्ट। प्रत्येक के तीन-तीन भेद हैं-प्राजापत्यपरिगृहीत एक के प्रति ही अनादर नहीं होता। कौटुंबिकपरिगृहीत और दंडिकपरिगृहीत। २५११.पत्थारदोसकारी, निवावराहो य बहुजणे फुसइ। २५१७.उक्कोस माउ-भज्जा, मज्झं पुण भगिणि-धूतमादीयं। पागइओ पुण तस्स व,निवस्स व भया न पडिकुज्जा॥ खरियादी य जहन्नं, पगयं सजितेतरे देहे। राजा प्रस्तारदोषकारी होता है। राजा के प्रति किया उत्कृष्ट है-माता और भार्या। मध्यम है-भगिनी, दुहिता, जाने वाला अपराध बहुत लोगों को ज्ञात हो जाता है। इसी पौत्री आदि और जघन्य है-खरिका दासी आदि अन्य प्रकार कौटुंबिक का भी होता है। प्राकृतापराध अनेक स्त्रियां। यहां अधिकार है-देहयुत सजीव अथवा अजीव। व्यक्तियों का स्पर्श नहीं करता। प्राकृतजन संयत या राजा के २५१८.पढमिल्लुगम्मि ठाणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्घाया। भय से कुछ प्रत्युपकार नहीं करता। छम्मासाऽणुग्घाया, बिइए तइए भवे छेदो॥ २५१२.अवि य हु कम्मद्दण्णो, न य गुत्ती ओ सि नेव दारट्ठा। प्रथम स्थान अर्थात् जघन्य मनुष्यणी वाले स्थान में रहने तेण कयं पिन नज्जइ, इतरत्थ पुणो धुवा दोसा॥ से चार अनुद्घातमास का प्रायश्चित्त आता है। द्वितीय तथा प्राकृत जन अपने कार्य (खेतीबाड़ी) आदि में इतना अर्थात् मध्यम में छह अनुद्घातमास और तीसरे अर्थात् लगा रहता है कि उसे अदन्न-क्षणभर का भी अवकाश उत्कृष्ट में छेद प्रायश्चित्त का विधान है। नहीं मिलता। उसकी देवालयों के प्रति .गुप्ति नहीं है, न २५१९.पढमस्स तइयठाणे, छम्मासुग्घाइओ भवे छेदो। वहां द्वारपाल ही है। कोई प्रतिमा की प्रतिसेवना करता चउमासो छम्मासो, बिइए तइए अणुग्घाओ॥ है, वह भी ज्ञात नहीं होता। इतरत्र अर्थात् दंडिक और प्रथम अर्थात् प्राजापत्यपरिगृहीत के तृतीय अर्थात् कौटुंबिक के प्रति अपराध से ध्रुव दोष होते हैं, वे ज्ञात हो उत्कृष्ट स्थान में रहने पर षाण्मासिक उद्घातिक छेद। जाते हैं। द्वितीय कौटुंबिकपरिगृहीत का तृतीय स्थान अर्थात् उत्कृष्ट २५१३.रन्नो य इत्थियाए, संपत्तीकारणम्मि पारंची। स्थान में चतुर्गुरुक छेद और दंडिकपरिगृहीत के तृतीय स्थान अमच्ची अणवठप्पो, मूलं पुण पागयजणम्मि॥ में पाण्मासिक अनुद्घातिक छेद का प्रायश्चित्त है। राजा की स्त्री अग्रमहिषी में जो मैथुनसंपत्ति लक्षण २५२०.पढमिल्लुगम्मि तवऽरिह, कारण में पारांचिक, अमात्य की पत्नी में अनवस्थाप्य और दोहि वि लहु होति एते पच्छित्ता। प्राकृतजन की स्त्री में मूल प्रायश्चित्त का विधान है। बिइयम्मि य कालगुरू, २५१४.तुल्ले मेहुणभावे, नाणत्ताऽऽरोवणाय कीस कया। तवगुरुगा होति तइयम्मि॥ जेण निवे पत्थारो, रागो वि य वत्थुमासज्ज॥ प्रथम-प्राजापत्यपरिगृहीत के जघन्य और मध्यम स्थान शिष्य पूछता है-स्त्रियों में मैथुनभाव की तुल्यता होने पर में रहने पर जो तपोर्ह प्रायश्चित्त-चतुर्गुरु और षड्गुरु-ये भी यह आरोपणा–प्रायश्चित्त का नानात्व क्यों किया गया? तप और काल-दोनों से लघु होते हैं, कौटुंबिकपरिगृहीत में वे १. प्रस्तारदोषकारी-कटकमर्द करने के अधिकार से संपन्न। कटकमर्द का अर्थ है-एक के अपराध पर सबको मौत के घाट उतार देना। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ बृहत्कल्पभाष्यम् ही तप और काल से गुरु और दंडिकपरिगृहीत में वे ही तप इतना ही है कि दिव्य प्रतिमा में आलिंगन आदि से होने वाले से गुरु और काल से लघु होते हैं। (यह सारा स्थान- जो प्रतिमा भंग आदि दोषों को छोड़कर देहयुत मानुष्यक की प्रायश्चित्त है।) प्रतिसेवना से शेष दोष होते हैं। २५२१.चउगुरुका छग्गुरुका, छेदो मूलं जहण्णए होइ।। २५२६.आलिंगते हत्थाइभंजणे जे उ पच्छकम्मादी। छग्गुरुक छेअ मूलं, अणवठ्ठप्पो अ मज्झिमए॥ ते इह नत्थि इमे पुण, नक्खादिविछेअणे सूया। २५२२.छेदो मूलं च तहा, अणवठ्ठप्पो य होइ पारंची। लेप्य प्रतिमा के आलिंगन से जो हाथ-पैर आदि के टूट एवं दिट्ठमदिढे, सेवंते पसज्जणं मोत्तुं॥ जाने पर पश्चात्कर्म आदि जो दोष कहे गए हैं वे देहयुत प्रथम के जघन्य अदृष्ट प्रतिसेवना चतुर्गुरु, दृष्ट में मानुष्यणी के आलिंगन में नहीं होते। किन्तु ये दोष होते षड्गुरु। द्वितीय में जघन्य अदृष्ट प्रतिसेवना षण्मासगुरु, हैं-वह कामातुर स्त्री उस साधु के शरीर को अनेक स्थानों दृष्ट में छेद। तृतीय के मध्यम अदृष्ट प्रतिसेवना छेद, दृष्ट पर नखों से विच्छेदन करती है। इससे यह सूचा होती है कि में मूल। यह श्रमण प्रतिसेवक है। प्रथम के मध्यम अदृष्ट प्रतिसेवना षण्मासगुरु, दृष्ट में २५२७.सुहविन्नप्पा सुहमोइगा य छेद। द्वितीय के मध्यम अदृष्ट प्रतिसेवना छेद, दृष्ट में मूल। सुहविन्नप्पा य होति दुहमोया। तृतीय के मध्यम अदृष्ट प्रतिसेवना मूल, दृष्ट में दुहविन्नप्पा य सुहा, अनवस्थाप्य। दुहविन्नप्पा य दुहमोया॥ प्रथम के उत्कृष्ट अदृष्ट प्रतिसेवना छेद, दृष्ट में मूल। मानुषी के ये चार विकल्प हैंद्वितीय के उत्कृष्ट अदृष्ट प्रतिसेवना मूल, दृष्ट में १. सुखविज्ञप्या-सुखमोच्या। अनवस्थाप्य। तृतीय में उत्कृष्ट अदृष्ट प्रतिसेवना में २. सुखविज्ञप्या-दुःखमोच्या। अनवस्थाप्य, दृष्ट में पारांचिक। इस प्रकार दृष्ट-अदृष्ट ३. दुःखविज्ञप्या-सुखमोच्या। प्रतिसेवना करने वाले के प्रसज्जना तथा भोजिक आदि की ४. दुःखविज्ञप्या-दुःखमोच्या। शंका को छोड़कर यह प्रायश्चित्त है। २५२८.खरिया महिड्डिगणिया, अंतेपुरिया य रायामाया य। २५२३.जम्हा पढमे मूलं, बिइए अणवट्ठो तइए पारंची। उभयं सुहविन्नवणा, सुमोय दोहिं पि य दुमोया।। तम्हा ठायंतस्सा, मूलं अणवट्ठ पारंची॥ पहले विकल्प का उदाहरण हे दासी, दूसरी का महर्द्धिका जिससे प्रथम अर्थात् जघन्य की प्रतिसेवना करने वाले के गणिका, तीसरे का अंतःपुरिका और चौथे का उदाहरण है चतुर्लघु से प्रारंभ कर मूल पर्यन्त, द्वितीय अर्थात् मध्यम में । राजमाता। पहला विकल्प दोनों सुखपूर्वक, दूसरे में चतुर्गुरु से अनवस्थाप्य पर्यन्त और तृतीय अर्थात् उत्कृष्ट में सुखविज्ञपना पर दुःखमोच्या, तीसरे में सुखमोच्या पर षड्लघु से पारांचिक पर्यन्त प्रायश्चित्त आता है। इसीलिए जो दुःखविज्ञपना और चौथे में दोनों दुःखपूर्वक होते हैं। वहां रहता है उसके स्थाननिष्पन्न जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट २५२९.तिण्ह वि कयरो गुरुओ, पागय कोडुबि दंडिए चेव। में मूल, अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त विहित है। साहस असमिक्ख भए, इयरे पडिपक्ख पभु राया। २५२४.पडिसेवणाए एवं, पसज्जणा तत्थ होइ इक्किक्के। शिष्य ने पूछा-भंते! प्राजापत्य, कौटुंबिक और दंडिक चरिमपदे चरिमपदं, तं पि य आणाइनिप्फन्नं। परिगृहीत-इन तीनों में कौन सा गुरुतर है ? शिष्य ही कहता प्रतिसेवना में ये प्रायश्चित्त हैं। प्रत्येक प्रायश्चित्त में है-मैं मानता हूं कि प्राजापत्य परिगृहीत स्त्रियां ही गुरुतर प्रसज्जना होती है। चरमपद का अर्थ है-अदृष्टपद से होती है, शेष दोनों लघुतर। क्योंकि साहस अर्थात् प्राकृत दृष्टपद और उस प्रायश्चित्त का चरमपद है पारांचिक तक जन मूर्खता से साहसिक और अपरीक्षितकारी होता है। प्रायश्चित्त है। तथा आज्ञाभंग आदि से निष्पन्न प्रायश्चित्त भी अनीश्वर होने के कारण उसमें भय नहीं रहता, अतः वह आता है। साधु को मार भी सकता है। शेष दोनों-कौटुंबिक और दंडिक २५२५.ते चेव तत्थ दोसा, मोरियआणाए जे भणिय पुब्विं। प्राकृत के प्रतिपक्षभूत हैं। आचार्य कहते हैं दंडिक और आलिंगणाइ मोत्तुं, माणुस्से सेवमाणस्स॥ कौटुंबिक गुरुतर हैं, क्योंकि उनका प्रभु राजा होता है। वह वे ही अर्थात् अनवस्था-मिथ्यात्व आदि मनुष्यणी संबंधी एक साधु पर रुष्ट होता है तो सारे संघ का विनाश कर दोष होते हैं जो पूर्व गाथा (२४८७) में कहे गए हैं। अन्तर देता है। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = = २५७ कार्य में ला गुप्ति भी ननयों के प्रा २५३०.ईसरियत्ता रज्जा, व भंसए मन्नुपहरणा रिसओ। ते य समिक्खियकारी, अन्ना वि य सिं बहू अत्थि॥ इसके प्रतिपक्ष में कहा जाता है-ये ऋषि मन्युप्रहरणक्रोधरूपी शस्त्र वाले होते हैं। कौटुंबिक सोचता है ये कुपित होकर मुझे ऐश्वर्य से च्युत कर सकते हैं। राजा सोचता है ये मुझे राज्यच्युत कर सकते हैं। राजा आदि समीक्षितकारी होते हैं। उनके अन्यत्र भी अनेक स्त्रियां होती हैं। उनका एक के प्रति ही अनादर नहीं होता। २५३१.पत्थारदोसकारी, निवावराहो य बहुजणे फुसइ। पागइओ पुण तस्स व,निवस्स व भया न पडिकुज्जा॥ राजा प्रस्तारदोषकारी होता है। राजा के प्रति किया जाने वाला अपराध बहुत लोगों को ज्ञात हो जाता है। इसी प्रकार कौटुंबिक का भी होता है। प्राकृतापराध अनेक व्यक्तियों का स्पर्श नहीं करता। प्राकृतजन संयत या राजा के भय से कुछ प्रत्युपकार नहीं करता। २५३२.अवि य हु कम्मद्दण्णा, न य गुत्तीओ सि नेव दारट्ठा। तेणं कयं पि न नज्जइ, इतरत्थ पुणो धुवो दोसो॥ प्राकृत जन अपने कार्य में लगा रहता है। उसे क्षणभर का भी अवकाश नहीं रहता। उनमें गुप्ति भी नहीं होती और वर्जना करने वाला भी नहीं होता। उसके द्वारा स्त्रियों के प्रति किया जाने वाला अनर्थ ज्ञात नहीं होता। इतरत्र किये जाने वाला दोष जनता को ज्ञात हो जाता है। २५३३.तुल्ले मेहुणभावे, नाणत्ताऽऽरोवणा उ कीस कया। जेण निवे पत्थारो, रागो वि य वत्थुमासज्जा॥ शिष्य पूछता है-स्त्रियों में मैथुनभाव की तुल्यता होने पर भी यह आरोपणा-प्रायश्चित्त का नानात्व क्यों किया गया? आचार्य ने कहा-इस अपराध में नप प्रस्तार-कटकमर्द कर सकता है। इसलिए प्रायश्चित्त भी अधिक है। रागभाव भी वस्तु के आधार पर होता है। २५३४.तेरिच्छे पि य तिविहं, जहन्नयं मज्झिमं च उक्कोसं। पायावच्च-कुडुंबिय-दंडियपारिग्गहं चेव॥ तिर्यंचस्त्रियों के भी रूप तीन प्रकार के हैं-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। प्रत्येक के तीन-तीन भेद हैं- प्राजापत्यपरिगृहीत, कौटुंबिकपरिगृहीत और दंडिक-परिगृहीत। २५३५.अइय अमिला जहन्ना, खरि महिसी मज्झिमा वलवमादी। गोणि करेणुक्कोसा, पगयं सजितेतरे देहे॥ जघन्यरूप-छगलिका, एडका। मध्यम-गधी, महिषी, घोड़ी आदि। उत्कृष्ट गाय, हथिनी। इन तीनों के दो-दो प्रकार हैं-प्रतिमायुत और देहयत। प्रस्तुत में सजीव तथा इतर अर्थात् अजीव देहयुत का अधिकार है। २५३६.चत्तारि य उग्घाया, जहन्नए मज्झिमे अणुग्धाया। छम्मासा उग्घाया, उक्कोसे ठायमाणस्स॥ प्राजापत्यपरिगृहीत आदि जघन्य देहयुत तिर्यंची वाले स्थान पर रहने से चार उद्घातमास, मध्यम में चार अनुद्घात और उत्कृष्ट स्थान में रहने पर षण्मासउद्घात का प्रायश्चित्त है। २५३७.पढमिल्लुगम्मि ठाणे, दोहि वि लहुगा तवेण कालेणं। बिइयम्मि उ कालगुरू, तवगुरुगा होति तइयम्मि। प्रथम स्थान में रहने पर जो प्रायश्चित्त आता है वह तप और काल से लघु होता है। दूसरे में कालगुरु और तीसरे में तपःगुरु। २५३८.चउरो लहुगा गुरुगा, छेदो मूलं जहन्नए होइ। चउगुरुग छेद मूलं, अणवट्ठप्पो य मज्झिमए॥ २५३९.छेदो मूलं च तहा, अणवठ्ठप्पो य होइ पारंची। एवं दिट्ठमदिद्वे, सेवंते पसज्जणं मोत्तुं॥ प्राजापत्यपरिगृहीत जघन्य अदृष्ट प्रतिसेवना चतुर्लघु। प्राजापत्यपरिगृहीत जघन्य दृष्ट प्रतिसेवना चतुर्गुरु। कौटुंबिकपरिगृहीत जघन्य अदृष्ट प्रतिसेवना चतुर्गुरु। कौटुंबिकपरिगृहीत जघन्य दृष्ट प्रतिसेवना छेद। दंडिकपरिगृहीत जघन्य अदृष्ट प्रतिसेवना छेद। दंडिकपरिगृहीत जघन्य दृष्ट प्रतिसेवना मूल। प्रथम मध्यम अदृष्ट चतुर्गुरु, दृष्ट छेद। द्वितीय मध्यम अदृष्ट छेद, दृष्ट मूल । तृतीय मध्यम अदृष्ट मूल, दृष्ट अनवस्थाप्य। प्रथम उत्कृष्ट अदृष्ट छेद, दृष्ट मूल। द्वितीय उत्कृष्ट अदृष्ट मूल, दृष्ट अनवस्थाप्य। तृतीय उत्कृष्ट अदृष्ट अनवस्थाप्य, दृष्ट पारांचिक। यह प्रायश्चित्त दृष्ट-अदृष्ट की प्रसज्जना को छोड़कर कहा गया है। २५४०.जम्हा पढमे मूलं, बिइए अणवठ्ठो तइए पारंची। तम्हा ठायंतस्सा, मूलं अणवट्ठ पारंची। जिससे प्रथम अर्थात् जघन्य की प्रतिसेवना करने वाले के चतुर्लघु से प्रारंभ कर मूल पर्यन्त, द्वितीय अर्थात् मध्यम में चतुर्गुरु से अनवस्थाप्य पर्यन्त और तृतीय अर्थात् उत्कृष्ट में षड्लघु से पारांचिक पर्यन्त प्रायश्चित्त आता है। इसीलिए जो वहां रहता है उसके स्थाननिष्पन्न जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट में मूल, अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त विहित है। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ बृहत्कल्पभाष्यम् २५४१.पडिसेवणाए एवं, पसज्जणा तत्थ होइ इक्केक्के । (एक सिंहनी ऋतुकाल में मैथुनार्थी हो गई। उसे कोई चरिमपदे चरिमपदं, तं पि य अणाइनिप्फन्नं॥ सिंह न मिलने पर, वह किसी एक सार्थ से एक पुरुष को प्रतिसेवना में ये प्रायश्चित्त हैं। प्रत्येक प्रायश्चित्त में उठाकर अपने गुफा में ले आई और उसकी चाटुकारिता करने प्रसज्जना होती है। चरमपद का अर्थ है-अदृष्टपद से लगी। पुरुष ने सिंहनी के साथ मैथुन प्रतिसेवना की। दोनों में दृष्टपद और उस प्रायश्चित्त का चरमपद है पारांचिक तक अनुराग हो गया। यह क्रम प्रतिदिन चलता रहा। सिंहनी मांस प्रायश्चित्त है। तथा आज्ञाभंग आदि से निष्पन्न प्रायश्चित्त भी के द्वारा उस पुरुष का पोषण करने लगी। पुरुष को अब आता है। उसका भय नहीं रहा।) २५४२.ते चेव तत्थ दोसा, मोरियआणाए जे भणिय पुब्बिं। २५४७.एसेव कमो नियमा, निग्गंथीणं पि होइ नायव्वो। आलावणाइ मोत्तुं, तेरिच्छे सेवमाणस्स॥ पुरिसपडिमाउ तासिं, साणम्मि य जं च अणुरागो॥ वे ही दोष जो मौर्य आज्ञा के संदर्भ में पहले कहे गए यही द्रव्य भावसागारिक का क्रम नियमतः श्रमणियों के (गाथा २४८७) तथा मनुष्यद्वार में (२५२५-२५२६) बताए लिए भी ज्ञातव्य है। पुरुष प्रतिमा वाले स्थान में वे न रहें। गए हैं वे होते हैं। केवल आलापना आदि को छोड़कर शेष तिर्यंच पुरुष में श्वान के अनुराग का दृष्टांत है। (एक स्त्री सारे तिर्यंची देहयुत सेवना करने वाले के होते हैं। एकांत में कायिकी का उत्सर्ग कर रही थी। एक कुत्ते ने २५४३.जह हास-खेड्ड-आगार-बिब्भमा होति मणुयइत्थीसु। उसे देख लिया। वह अपनी पूंछ हिलाता हुआ उसके पास आलावा य बहुविधा, तह नत्थि तिरिक्खइत्थीसु॥ आया और चाटुकारिता करने लगा। स्त्री ने सोचाजैसे मनुष्यस्त्रियों के साथ हास्य, क्रीडा, आकार, देखती हूं, यह क्या करता है? वह अपनी योनि को विभ्रम, तथा बहुविध आलापक होते हैं, वैसे तिर्यंच स्त्रियों के उस कुत्ते के सामने कर सो गई। कुत्ते ने उसके साथ साथ नहीं होते। प्रतिसेवना की। स्त्री का कुत्ते के प्रति अनुराग हो गया। २५४४.सुहविण्णप्पा सुहमोइगा य, इसी प्रकार मृग, बकरा, वानर आदि भी स्त्री की अभिलाषा सुहविष्णप्पा य होति दुहमोया॥ करते हैं।) दुहविण्णप्पा य सुहा, २५४८.अद्धाणनिग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए। दुहविण्णप्पा य दुहमोया॥ गीयत्था जयणाए, वसंति तो दव्वसागरिए॥ तैरश्ची के चार विकल्प हैं अध्वनिर्गत श्रमणियों को यदि तीन बार गवेषणा करने १. सुखविज्ञप्या-सुखमोच्या। पर भी उपयुक्त प्रतिश्रय प्राप्त न हो तो गीतार्थ श्रमणियां २. सुखविज्ञप्या-दुःखमोच्या। द्रव्य-सागारिक पुरुष उपाश्रय में रह सकती हैं। ३. दुःखविज्ञप्या-सुखमोच्या। २५४९.जहिं अप्पतरा दोसा, आभरणादीण दूरतो य मिगा। ४. दुःखविज्ञप्या-दुःखमोच्या। चिलिमिलि निसि जागरणं, गीए सज्झाय-झाणादी॥ २५४५.अमिलाई उभयसुहा, अरहण्णगमाइमक्कडि दुमोया। जहां रूप और आभरण आदि से अल्पतर दोष होते हैं गोणाइ तइयभंगे, उभयदुहा सीहि-वग्घीओ॥ वहां रहती हैं। मृग की भांति अज्ञ वे आभरण आदि का दूर से अमिला-एडका आदि तिर्यंच उभयसुख वाले होते हैं। ही परिहार करती हैं। चिलिमिलिका आदि बांधकर आवरण अरहन्नक की भाभी का उसके प्रति अनुराग था। वह मरकर कर लेती हैं। रात्री में जागरण करती हैं, जिससे उन बंदरी बनी। वह उसके लिए दुःखमोचा हो गई। तीसरे भंग में प्रतिमाओं को पहनाए गए आभरण कोई चुरा न ले। गीत गाय आदि। ये दुःखविज्ञप्या और सुखमोचा होती हैं। सिंहनी, आदि के शब्द सुनाई देने से जोर-जोर से स्वाध्याय करे, व्याघ्री आदि उभयदुःखा होती हैं। ध्यान में लीन हो जाए। २५४६.जइ ता सणप्फईसुं, मेहुणभावं तु पावए पुरिसो। २५५०.अदाणनिग्गयादी, वासे सावयभए व तेणभए। ___ जीवियदोच्चा जहियं, किं पुण सेसासु जाईसु॥ आवरिया तिविहे वी. वसंति जयणाए गीयत्था। यदि सनखपदवाली तिर्यंच स्त्रियों में-सिंहनी, व्याघ्री अध्वनिर्गत यदि ग्राम में वसति प्राप्त न हो तो बाह्य आदि जिनमें जीवितदोच्च-प्राणभय बना रहता है, उनमें भी उद्यान में भी ठहरा जा सकता है। वहां ये भय रहते हैं-वर्षा मैथुनभाव को प्राप्त होता है तो फिर शेष तिर्यंचस्त्रियों की तो का भय, चोरों का भय। अतः वे श्रमणियां तीनों प्रकार के बात ही क्या? सागारिक प्रतिश्रय में, गांव में प्रतिमाओं को आवृत कर रह Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक - २५९ सकती हैं। वहां वे गीतार्थ श्रमणियां यतनापूर्वक वास कर २५५५.ओहे सव्वनिसेहो, सरिसाणुन्ना विभागसुत्तेसु। सकती हैं। जयणाहेउं भेदो, तह मज्झत्थादओ वा वि॥ ओघसूत्र-सामान्यसूत्र में समस्त सागारिक का निषेध नो कप्पइ निग्गंथाणं इत्थिसागारिए किया गया है। विभागसूत्रों में सदृश अनुज्ञा दी जाती उवस्सए वत्थए॥ (सूत्र २६) है। यतना संबंधी सूत्रों में स्त्री-पुरुषों का विभाग किया कप्पइ निग्गंथाणं पुरिससागारिए जाता है। मध्यम सूत्रों में स्त्री-पुरुषों का अर्थतः भेद बताया जाता है। उवस्सए वत्थए॥ (सूत्र २७) २५५६. पुरिससागारिए उवस्सयम्मि, नो कप्पइ निग्गंथीणं पुरिससागारिए चउरो लहुगा य दोस आणादी। उवस्सए वत्थए॥ ते वि य पुरिसा दुविहा, (सूत्र २८) सविकारा निव्विकारा य॥ कप्पइ निग्गंथीणं इत्थिसागारिए पुरुष सागारिक उपाश्रय में निर्ग्रथों को रहना कल्पता उवस्सए वत्थए॥ (सूत्र २९) है परंतु सामान्यतः रहना नहीं कल्पता। जो रहते हैं उन्हें चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। तथा आज्ञाभंग आदि दोष २५५१.अविसिटुं सागरियं, वुत्तं तं पुण विभागतो इणमो। प्राप्त होते हैं। पुरुष दो प्रकार के होते हैं सविकार और मज्झे पुरिससगारं, आदी अंते य इत्थीसु॥ नेय इत्थीस॥ निर्विकार। पूर्वसूत्र में अविशिष्ट (स्त्री-पुरुषविशेष रहित) सागारिक २५५७.रूवं आभरणविहिं, वत्था-ऽलंकार-भोयणे गंधे। की बात कही गई है। प्रस्तुत सूत्र में विभागशः सागारिक की आउज्ज नट्ट नाडग, गीए अ मणोहरे सुणिया॥ बात कही गई है। मध्यवर्ती सूत्र में पुरुषसागारिक विषयक सविकार पुरुष वे होते हैं जो अपने रूप को संवारते हैं, तथा आदि सूत्र और अन्त्यसूत्र में स्त्रीसागारिक विषयक आभरण-विधि का उपयोग करते हैं, केशों को संवारते हैं, विधि कही गई है। शरीर को अलंकृत करते हैं, विशेष भोजन करते हैं, गंध का २५५२.इत्थीसागरिए उवस्सयम्मि स च्चेव इत्थिया होइ। प्रयोग करते हैं, बाजे बजवाते हैं, नृत्य करवाते हैं, नाच देवी मणुय तिरिच्छी, स च्चेव पसज्जणा तत्थ॥ करवाते हैं, मधुर गीत गाते हैं या गवाते हैं। मनोहर रूप स्त्रीसागारिक उपाश्रय में रहना नहीं कल्पता। स्त्री चाहे आदि को देखकर, गीत आदि सुनकर पूर्व देखें रूपों और देवी हो, मानुषी हो या तैरश्ची हो। वहीं प्रसज्जना यहां भी गीतों का स्मरण करते हैं, वे सविकार पुरुष होते हैं। ज्ञातव्य है। २५५८.एक्वेक्कम्मि उ ठाणे, चउरो मासा हवंति उग्घाया। २५५३.जइ स च्चेव य इत्थी,सोही य पसज्जणा य स च्चेव। आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमाऽऽयाए।। सुत्तं तु किमारद्धं, चोदग! सुण कारणं इत्थं॥ २५५९.एवं ता सविकारे, निव्वीकारे इमे भवे दोसा। शिष्य ने पूछा-यदि वही स्त्री, वही प्रायश्चित्त और वही संसद्देण विबुद्धे, अहिगरणं सुत्तपरिहाणी। प्रसज्जना है तो फिर यह स्त्रीसागारिक संबंधी सूत्र का उपरोक्त स्थान में रहने पर प्रत्येक रूप आदि के स्थान आरंभ क्यों? आचार्य ने कहा-शिष्य ! इसके कारण को तुम का प्रायश्चित्त है-चार उद्घातमास (लघु), आज्ञाभंग आदि सुनो। दोष तथा आत्मविराधना तथा संयमविराधना। ये सविकार २५५४.पुव्वभणियं तु पुणरवि, जं भण्णइ तत्थ कारणं अत्थि।। पुरुष के दोष हैं। निर्विकार पुरुष से संबंधित उपाश्रय में रहने पडिसेहोऽणुन्ना कारणं विसेसोवलंभो वा॥ के ये दोष हैं--साधुओं के स्वाध्याय आदि के शब्दों से अन्य पहले कहे हुए को जो पुनः कहा जाता है उसका भी। लोग जाग जाते हैं और वे अधिकरण करने में संलग्न हो जाते कारण है। जो पहले अनुज्ञा के आधार पर कहा गया है वही हैं। इससे सूत्रपरिहानि होती है। प्रतिषेध द्वार के द्वारा कहा जा रहा है। जो पहले प्रतिषेध २५६०.आउ ज्जोवण वणिए, किया है, उन्हीं की अनुज्ञा देते हुए पुनः कहा जा रहा है। जो अगणि कुटुंबी कुकम्म कुम्मरिए। पहले सामान्यरूप से कहा गया, वही विशेष उपलंभ के द्वारा तेणे मालागारे, कहा जाता है। उन्भामग पंथिए जंते॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० =बृहत्कल्पभाष्यम् साधुओं तथा गृहस्थों के शब्दों को सुनकर स्त्रियां जाग २५६६.एक्केक्का ते तिविहा, थेरा तह मज्झिमा य तरुणा य। जाती हैं और वे पानी लाने चल पड़ती हैं। रथकार बैलों को एवं सन्नी बारस, बारस अस्सन्निणो होति॥ रथों में जोत कर काम पर चले जाते हैं। वणिक् माल बेचने इन चारों के तीन-तीन प्रकार हैं-स्थविर, मध्यम और ग्रामान्तर चल पड़ते हैं। लोहकार अग्नि जला कर अपना तरुण। इस प्रकार संज्ञी पुरुषों के बारह भेद और असंज्ञी काम करने लगते हैं। कौटुंबिक-कृषक खेतों में जाते हैं। पुरुषों के भी बारह भेद हैं। कुकर्म अर्थात् मत्स्यमार आदि मछलियों को पकड़ने चलते २५६७.काहीयातरुणेसुं, चउसु वि चउगुरुग ठायमाणस्स। हैं। कुमारक-कसाई अपने काम में लग जाते हैं। चोर और सेसेसुं चउलहुगा, समणाणं पुरिसवग्गम्मि॥ मालाकार तथा उद्भ्रामक व्यक्ति, पथिक तथा यांत्रिक अपनी संज्ञी-असंज्ञी के काथिक तरुण ये दो भेद तथा पुरुषप्रवृत्ति में संलग्न हो जाते हैं। वेशधारी नपुंसक के काथिक तरुण ये चार भेद-इनमें से २५६१.एवं सुत्तं अफलं, सुत्तनिवाओ उ असइ वसहीए। किसी उपाश्रय में रहने से चतुर्गुरु तथा शेष भेद वाले गीयत्था जयणाए, वसंति तो दव्वसागरिए॥ उपाश्रय में रहने से चतुर्लघु प्रायश्चित्त है। यह प्रायश्चित्त यदि ये सारे दोष होते हैं तो पुरुषवाले उपाश्रय में भी पुरुषवर्ग वाले श्रमणों के लिए कहा गया है। साधु को नहीं रहना चाहिए। यदि ऐसा है तो सूत्र अफल हो २५६८.सन्नीसु पढमवग्गे, असती अस्सन्निपढमवग्गम्मि। जाएगा। गुरु बोले-सूत्र का निपात इसलिए है कि यदि तेण परं सन्नीसुं, कमेण अस्सन्निसुं चेव ।। विशुद्ध वसति की प्राप्ति न हो तो गीतार्थ मुनि यतनापूर्वक निर्दोष वसति की प्राप्ति न होने पर संज्ञी के प्रथम वर्ग द्रव्य सागारिक-पुरुष सागारिक वाले वसति में रहते हैं। अर्थात् मध्यस्थ पुरुषों में रहे। यदि वैसा स्थान न मिले तो २५६२.ते वि य पुरिसा दुविहा, सन्नी अस्सन्निणो य बोधव्वा।। असंज्ञी के प्रथमवर्ग में रहे। उसके अभाव में संज्ञी के द्वितीय मज्झत्थाऽऽभरणपिया, कंदप्पा काहिया चेव॥ वर्ग आदि में क्रमशः रहे। उसके अभाव में असंज्ञी के द्वितीय वे भी पुरुष दो प्रकार के होते हैं-संज्ञी और असंज्ञी। वर्ग आदि में क्रमशः रहे। संज्ञी का अर्थ है-श्रावक और असंज्ञी का अर्थ है-अश्रावका २५६९.एवं एक्वेक्क तिगं, वोच्चत्थकमेण होइ नायव्वं । ये दोनों चार-चार प्रकार के होते हैं-मध्यस्थ, आभरणप्रिय, मोत्तूण चरिम सन्नी, एमेव नपुंसएहिं पि॥ कांदर्पिक और काथिका इस प्रकार एक-एक पद के त्रिक अर्थात् स्थविर, फिर २५६३.आभरणपिए जाणसु, अलंकरिते उ केसमादीणि। मध्यम, फिर तरुण-इनको वैपरीत्यविधि से जानना चाहिए। सइरहसिय-प्पललिया, सरीरकुइणो य कंदप्पा॥ पर चरमसंज्ञी को छोड़कर। इसी प्रकार नपुंसकों के विषय में २५६४.अक्खाइयाउ अक्खाणगाई गीयाई छलियकव्वाई। भी जानना चाहिए। (वृत्तिकार ने इसका विस्तार किया है।) कहयंता य कहाओ, तिसमुत्था काहिया होति॥ २५७०.एमेव होति दुविहा, पुरिसनपुंसा वि सन्नि अस्सन्नी। २५६५.एएसिं तिण्हं पी, जे उ विगाराण बाहिरा पुरिसा। मज्झत्थाऽऽभरणपिया, कंदप्पा काहिया चेव॥ वेरग्गरुई निहुया, निसग्गहिरिमं तु मज्झत्था॥ २५७१.एक्केक्का ते तिविहा, थेरा तह मज्झिमा य तरुणा य। जो केश आदि को माल्य आदि से अलंकृत करते हैं वे एवं सन्नी बारस, बारस अस्सन्निणो होति॥ आभरणप्रिय होते हैं। जो स्वेच्छा से अट्टहास आदि करते हैं, इसी प्रकार नपुंसक भी दो प्रकार के हैं-स्त्रीनेपथ्यिक प्रललित-द्यूतक्रीड़ा करते हैं, झूले झूलते हैं और शरीर- और पुरुषनेपथ्यिक। पुरुषनपुंसक दो प्रकार के होते हैं-संज्ञी कुच-विविध प्रकार की नपुंसक चेष्टाएं करते हैं वे कान्दर्पिक और असंज्ञी। दोनों के चार-चार प्रकार हैं-मध्यस्थ, होते हैं। जो आख्यायिका-तरंगवती, मलयवती आदि, आभरणप्रिय, कान्दर्पिक, काथिक। इन चारों के तीन-तीन आख्यानक धूख्यिान आदि, गीत तथा ललितकाव्य- प्रकार हैं-स्थविर, मध्यम और तरुण। इस प्रकार संज्ञी के शृंगारकाव्य, कथा-वसुदेवचरित, चेटक कथा आदि कहते हैं बारह और असंज्ञी के बारह प्रकार होते हैं। तथा त्रिसमुत्थ-धर्म, काम और अर्थ लक्षण वाली कथाएं २५७२.जह चेव य पुरिसेसुं, सोही तह चेव पुरिसवेसेसु। कहते हैं वे काथिक होते हैं। इन तीनों के विकारों से जो रहित तेरासिएसु सुविहिय!, पडिसेवग-अपडिसेवीसु॥ होते हैं, बाह्य होते हैं वे वैराग्यरुचिवाले, निभृत-जितेन्द्रिय जैसे पुरुषों के विषय में शोधि-प्रायश्चित्त है वही शोधि स्वभावतः लज्जाशील पुरुष मध्यस्थ होते हैं। पुरुषवेशधारी त्रैराशिक अर्थात् नपुंसकों की है। हे सुविहित मोग Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक : २६१ शिष्य! वे नपुंसक दो प्रकार के हैं-प्रतिसेवक और यही क्रम श्रमणियों के लिए नियमतः ज्ञातव्य है। जैसे अप्रतिसेवका श्रमणों के लिए स्त्रियां गुरुकतर होती हैं, वैसे ही श्रमणियों २५७३.जह कारणे पुरिसेसु, के लिए पुरुष गुरुकतर होते हैं। तह कारणे इत्थियासु वि वसेज्जा। २५७९.काहीयातरुणीसुं, चउसु वि चउगुरुग ठायमाणीणं। अद्धाण-वास-सावय-तेणेसु सेसासु वि चउलहुगा, समणीणं इत्थिवग्गम्मि। व कारणे वसती॥ स्त्रियों तथा स्त्रीवेशधारी नपुंसकों के बीच काथिक जैसे कारण में पुरुषों वाले या पुरुषवेशधारी नपुंसकों में तरुणी स्त्रियों के चारों प्रकार के उपाश्रय में रहने पर रहा जा सकता है, उसी प्रकार कारण में स्त्रियों वाले या श्रमणियों को चतुर्गुरु तथा शेष अर्थात् मध्यस्थ आदि के स्त्रीवेशधारी नपुंसक स्त्रियों के उपाश्रय में रहा जा सकता उपाश्रय में रहने से चतुर्लघु प्रायश्चित्त है। यह श्रमणियों के है। कारण की जिज्ञासा का समाधान करते हुए कहा है- लिए स्त्रीवर्ग वाले उपाश्रय में रहने का प्रायश्चित्त है। अध्वान प्रतिगत, वर्षा के समय, श्वापदभय या स्तेनभय के २५८०.काहीयातरुणेसु वि, चउसु वि मूलं तु ठायमाणीणं। होने पर। __ सेसेसु उ चउगुरुगा, समणीणं पुरिसवग्गम्मि॥ २५७४.काहीयातरुणीसुं, चउसु वि मूलं तु ठायमाणाणं। पुरुष तथा पुरुषनपुंसक के संज्ञी-असंज्ञी के प्रत्येक के सेसासु वि चउगुरुगा, समणाणं इत्थिवग्गम्मि॥ जो चार काथिक तरुण आदि भेद हैं, उस उपाश्रय में रहने स्त्रियों के या स्त्रीवेशधारी नपुंसकों के जो चौथे विभाग में पर श्रमणियों को मूल तथा शेष अर्थात् पुरुष तथा पुरुषअर्थात् काथिक तरुण स्त्रियों के उपाश्रय में रहने से मूल का नपुंसक के उपाश्रय में रहने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त आता है। प्रायश्चित्त तथा संज्ञी या असंज्ञी स्त्रियों के उपाश्रय में रहने यह श्रमणियों के पुरुषवर्ग वाले उपाश्रय में रहने पर से चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। यह निग्रंथों के स्त्रीवर्ग वाले प्रायश्चित्त है। उपाश्रय में रहने का प्रायश्चित्त है। २५८१.थेराइएसु अहवा, पंचग पन्नरस मासलहुओ य। २५७५.जह चेव य इत्थीसुं, सोही तह चेव इत्थिवेसेसु। छेदो मज्झत्थादिसु, काहियतरुणेसु चउलहुओ॥ तेरासिएसु सुविहिय!, ते पुण नियमा उ पडिसेवी॥ २५८२.सन्नी-अस्सन्नीणं, पुरिस-नपुंसेसु एस साहूणं । हे सुविहितशिष्य! श्रमणों के लिए स्त्रियों के उपाश्रय में एएसुं चिय थीसुं, गुरुओ समणीण विवरीओ। रहने पर जो शोधि कही गई है वही शोधि त्रैराशिक अथवा स्थविर आदि तीन पदों में पंचक, पंचदशक, स्त्रीवेशधारी के लिए जानो। वे स्त्रीनपुंसक नियमतः प्रतिसेवी मासलघु तथा छेद प्रायश्चित्त आता है। मध्यम स्थविर के होते हैं। विषय में भी यही प्रायश्चित्त है। काथिक तरुणों में चतुर्लघु २५७६.एमेव होति इत्थी, बारस सन्नी तहेव अस्सन्नी। प्रायश्चित्त है। इसी प्रकार पुरुष या पुरुषनपुंसक जो संज्ञी सन्नीण पढमवग्गे, असइ असन्नीण पढमम्मि॥ अथवा असंज्ञी हों उनके विषय में यह पंचक से छेदपर्यन्त इस प्रकार स्त्रियां तथा स्त्रीवेशधारी नपुंसक बारह प्रकार प्रायश्चित्त साधुओं के लिए है। यह प्रायश्चित्त श्रमणों के के संज्ञी और बारह प्रकार के असंज्ञी होते हैं। संज्ञी के प्रथम लिए गुरुक और श्रमणियों के लिए वही प्रायश्चित्त विपरीत वर्ग-मध्यस्थ के उपाश्रय की अप्राप्ति होने पर असंज्ञी वर्ग के अर्थात् लघु होता है। प्रथम वर्ग--मध्यस्थ के उपाश्रय में कहा जा सकता है। २५७७.एवं एक्कक्क तिगं, वोच्चत्थकमेण होइ नेयव्वं। पडिबद्धसेज्जा-पदं मोत्तूण चरिम सन्निं, एमेव नपुंसएहिं पि॥ इस प्रकार प्रत्येक वर्ग के त्रिक अर्थात् तरुणी आदि के नो कप्पइ निग्गंथाणं पडिबद्धसेज्जाए भेदत्रिक के विपर्यस्तक्रम से (पहले स्थविर, फिर मध्यम, वत्थए॥ (सूत्र ३०) फिर तरुणी) रहे परंतु चरम अर्थात् काथिक तरुणी संज्ञी को छोड़कर। इसी प्रकार स्त्रीवेशधारी नपुंसक के विषय में २५८३.इति ओह-विभागेणं, सेज्जा सागारिका समक्खाया। जानना चाहिए। तं चेव य सागरियं, जस्स अदूरे स पडिबद्धो।। २५७८.एसेव कमो नियमा, निग्गंथीणं पि होइ नायव्वो। इस प्रकार ओघ और विभाग से सागारिकयुक्त जह तेसि इत्थियाओ, तह तासि पुमा मुणेयव्वा॥ शय्याप्रतिश्रय का आख्यान किया गया है। वही सागारिक Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ = बृहत्कल्पभाष्यम् जिस उपाश्रय से निकट रहता है, वह प्रतिबद्ध कहलाता है। २५८८.आसज्ज निसीही वा, वहां निग्रंथों को नहीं रहना चाहिए। सन्झाय न करिति मा हु बुज्झिज्जा। २५८४.नाम ठवणा दविए, भावम्मि चउव्विहो उ पडिबद्धो। तेणासंका लग्गण, दव्वम्मि पट्ठिवंसो, भावम्मि चउव्विहो भेदो॥ संजम आयाए भाणादी॥ प्रतिबद्ध चार प्रकार का है-नामप्रतिबद्ध, स्थापना- अधिकरण के भय से मौन रहने पर ये दोष होते हैं-मुनि प्रतिबद्ध, द्रव्यप्रतिबद्ध और भावप्रतिबद्ध। द्रव्यतः प्रतिबद्ध है यह सोचे कि हमारे शब्दों से गृहस्थ जाग न जाएं, इसलिए वे पृष्ठवंश अर्थात् जो उपाश्रय गृहस्थ के घर से संबद्ध होता है आसज्ज-शब्दों का उच्चारण नहीं करते, आवश्यिकी आदि वह द्रव्यप्रतिबद्ध है। भावप्रतिबद्ध चार प्रकार का होता है। नहीं करते, स्वाध्याय नहीं करते-इनमें सूत्रपरिहानि होती है। २५८५.पासवण ठाण रूवे, सद्दे चेव य हवंति चत्तारि।। गृहस्थ जागकर उसे चोर मानकर उसको पकड़ लेते हैं। दव्वेण य भावेण य, संजोगो होइ चउभंगो॥ परस्पर कलह से संयमविराधना और आत्मविराधना होती है भावप्रतिबद्ध के ये चार प्रकार होते हैं-प्रस्रवण, स्थान, तथा भाजनविराधना होती है। इसलिए द्रव्यप्रतिबद्ध उपाश्रय रूप और शब्द।' द्रव्य और भाव प्रतिबद्ध के आधार पर में नहीं रहना चाहिए। चतुर्भंगी होती है २५८९.अद्धाणनिग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए। (१) द्रव्यतः प्रतिबद्ध भावतः नहीं। गीयत्था जयणाए, बसंति तो दव्वपडिबद्धे ।। (२) भावतः प्रतिबद्ध द्रव्यतः नहीं। जो अध्वनिर्गत हैं, उन्हें तीन बार गवेषणा करने पर भी (३) दोनों से प्रतिबद्ध। अप्रतिबद्ध उपाश्रय प्राप्त नहीं होता तो गातीर्थ मुनि (४) दोनों से प्रतिबद्ध नहीं। यतनापूर्वक द्रव्यप्रतिबद्ध उपाश्रय में रह सकते हैं। २५८६.चउत्थपदं तु विदिन्नं, दव्वे लहुगा य दोस आणादी। २५९०.आपुच्छण आवासिय, संसद्देण विबुद्धे, अहिकरणं सुत्तपरिहाणी॥ आसज्ज निसीहिया य जयणाए। चतुर्थपद वितीर्ण-अनुज्ञात है। ऐसे प्रतिश्रय में रहा जा वेरत्ती आवासग, सकता है। द्रव्यतः प्रतिबद्ध प्रतिश्रय में रहने पर चतुर्लघु का जो जाहे चिंधण दुगम्मि॥ प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। साधुओं के यतना यह है-यदि कोई मुनि कायिकीभूमी में जाना चाहे आवश्यिकी-नैषधिकी शब्दों से जाग कर गृहस्थ अधिकरण तो वह दूसरे साधु को पूछ कर जाए। आवश्यिकी और में लग जाते हैं। इससे सूत्र की परिहानि होती है। नैषधिकी के शब्दों का यतनापूर्वक उच्चारण करे। वैरात्रिकी २५८७.आउ ज्जोवण वणिए, वेला का ग्रहण, आवश्यक करना आदि जो जहां स्थित हो अगणि कुटुंबी कुकम्म कुम्मरिए। वहीं करे। यदि स्वाध्याय करते समय सूत्र और अर्थ-दोनों के तेणे मालागारे, विषय में शंका होने पर रात्री में विचार विमर्श न करे दिन में उन्भामग पंथिए जंते॥ परामर्श कर समाधान पाले। साधुओं तथा गृहस्थों के शब्दों को सुनकर स्त्रियां जाग २५९१.जणरहिए वुज्जाणे, जयणा भासाए किमुय पडिबद्धे। जाती हैं और वे पानी लाने चल पड़ती हैं। रथकार बैलों को ढड्डरसऽणुप्पेहा, न य संघाडेण वेरत्ती। रथों में जोत कर काम पर चले जाते हैं। वणिक् माल बेचने जनरहित उद्यान में रहने वाले मुनि को भाषा विषयक ग्रामान्तर चल पड़ते हैं। लोहकार अग्नि जला कर अपना । यतना करनी चाहिए-इतने जोर से न बोले कि पशु-पक्षी काम करने लगते हैं। कौटुंबिक-कृषक खेतों में जाते हैं। भयभीत होकर व्याकुल हो जाएं। तो फिर द्रव्यप्रतिबद्ध कुकर्म अर्थात् मत्स्यमार आदि मछलियों को पकड़ने चलते उपाश्रय की तो बात ही क्या? ढड्डर स्वर वाला मुनि जोरहैं। कुमारक कसाई अपने काम में लग जाते हैं। चोर और जोर से स्वाध्याय न करे, अनुप्रेक्षा करे-मन से स्वाध्याय मालाकार तथा उद्भ्रामक व्यक्ति, पथिक तथा यांत्रिक अपनी करे। मिलजुल कर स्वाध्याय न करे। एक-एक मुनि धीमे प्रवृत्ति में संलग्न हो जाते हैं। स्वरों में स्वाध्याय करे। १. जहां स्त्रियां और साधुओं के कायिकी भूमी एक ही होती है वह है। जहां से स्त्रियों के भाषा, भूषण, रहस्यशब्द सुनाई देते हैं वह प्रस्रवणप्रतिबद्ध है। जहां दोनों का एक ही बैठने का स्थान होता है, वह शब्दप्रतिबद्ध है। (वृ. प. ७२७) स्थानप्रतिबद्ध है। जहां से स्त्रियों का रूप दिखता है वह रूपप्रतिबद्ध Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = रात २५९२.भावम्मि उ पडिबद्धे, चउरो गुरुगा य दोस आणादी। ते वि य पुरिसा दुविहा, भुत्तभोगी अभुत्ता य॥ भावतः प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष। वे पुरुष दो प्रकार के होते हैं-भुक्तभोगी और अभुक्तभोगी। २५९३.भावम्मि उ पडिबढे, पनरससु पदेसु चउगुरू होति। एकेक्काउ पयाओ, हवंति आणाइणो दोसा॥ भावप्रतिबद्ध उपाश्रय चार प्रकार के हैं। उनके विकल्प सोलह होते हैं। प्रथम भंग से पन्द्रहवें विकल्प तक चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। एक-एक पद से आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। सोलहवां विकल्प चारों पदों से शुद्ध होता है। २५९४.ठाणे नियमा रूवं, भासासदो य भूसणे भइओ। काइय ठाणं नत्थी, सद्दे रुवे य भय सेसे॥ स्थानप्रतिबद्ध उपाश्रय में नियमतः रूप अवलोकन और भाषा-शब्दों का श्रवण होता है और भूषण शब्दों की वहां भजना है। प्रस्रवण प्रतिबद्ध उपाश्रय में स्थान नहीं होता, भाषा, भूषण और रूप की संभावना होती है। शब्द और रूप प्रतिबद्ध उपाश्रय में शेष की भजना है। २५९५.आयपरोभयदोसा, काइयभूमी य इच्छऽणिच्छंते। संका एगमणेगे, वोच्छेद पदोसतो जं च॥ कायिकीभूमी से प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने से आत्मसमुत्थदोष, परसमुत्थदोष तथा उभयसमुत्थदोष होते हैं। साधु की इच्छा होने पर वह संयम से भ्रष्ट हो जाता है और इच्छा न होने पर वह स्त्री उड्डाह करती है। स्त्री पहले कायिकीभूमी में गई और यदि मुनि भी वहीं जाता है तो शंका होती है। इससे एक साधु अथवा साधु समुदय का व्यवच्छेद हो सकता है। अथवा प्रद्वेषवश उस स्त्री के स्वजन उस साधु को पकड़ कर आकर्षण आदि कर सकते हैं। २५९६.दुग्गूढाणं छन्नंगदंसणे भुत्तभोगि सइकरणं। वेउव्वियमाईसु य, पडिबंधुडंचयाऽऽसंका।। जो स्त्रियां दुYढ़ अर्थात् दुष्प्रावृत्त हैं उनके गुप्तांगों को देखता है, उस भुक्तभोगी मुनि के सारी स्मृतियां ताजी हो जाती हैं। किसी मुनि के वैक्रिय सागारिक (प्रजनन लिंग) को देखकर स्त्री उसके साथ प्रतिबंध कर लेती है, कोई अगार उहुंचक (लिंग में जकड़न) करता है, लोगों को आशंका होती है कि ये श्रमण स्त्रियों के साथ ऊठ-बैठ रहे हैं, इनका आचार शुद्ध नहीं है। २५९७.बंभवयस्स अगुत्ती, लज्जानासो य पीइपरिवुड्डी। साहु तवोवणवासो, निवारणं तित्थपरिहाणी॥ सभी प्रस्रवण आदि स्थानों में ये दोष होते हैं-ब्रह्मचर्य की अगुप्ति, लज्जानाश, प्रीति की परिवृद्धि, लोग उपहास करते हुए कहते हैं-ये मुनि तो तपोवनों में रहते हैं। इनके पास कोई दीक्षित न हो-ऐसा कहकर वे निवारण करते हैं। इससे तीर्थ का व्यवच्छेद होता है। २५९८.चंकम्मियं ठियं मोडियं च विप्पेक्खियं च सविलासं। आगारे य बहुविहे, द8 भुत्तेयरे दोसा।। रूपप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने से ये दोष होते हैं-स्त्रियों के चंक्रमण, उनकी ऊर्ध्वस्थित अवस्था, शरीर का मोड़ना, विशेषरूप से देखने की स्थितियां, विलासयुक्त हावभाव तथा अनेक प्रकार के आकारों को देखकर भुक्तभोगी तथा अन्य मुनियों में अनेक दोष होते हैं। २५९९.जल्ल-मलपंकियाण वि, लायन्नसिरी जहेसि देहाणं। सामन्नम्मि सुरूवा, सयगुणिया आसि गिहवासे॥ नानादेशीय उन मुनियों को देखकर स्त्रियों में ये दोष होते हैं-जल्ल और मल से पंकिल शरीर वाले इन मुनियों की लावण्यश्री श्रामण्य में भी इतनी प्रबल है, सुरूप है तो गृहवास में इन मुनियों की लावण्यश्री शतगुणित होनी चाहिए। २६००.गीयाणि य पढियाणि य, हसियाणि य मंजुला य उल्लावा। भूसणसद्दे राहस्सिए अ सोऊण जे दोसा॥ शब्दप्रतिबद्ध उपाश्रय के दोष-स्त्रियों के गीत, पठित, हसित, मंजुल उल्लाप, भूषणशब्द, राहस्यिकशब्द आदि शब्दों को सुनकर भुक्त-अभुक्तदोषों से निष्पन्न प्रायश्चित्त आचार्य को आता है। २६०१.गंभीर-महुर-फुड-विसयगाहओ सुस्सरो सरो जह सिं। सज्झायस्स मणहरो, गीयस्स णु केरिसो आसी॥ साधुओं के स्वाध्याय के शब्दों को सुनकर स्त्रियां सोचती हैं-इन मुनियों का शब्द गंभीर, मधुर, स्फुट, विषयग्राहक-अर्थवाची, सुस्वर-ऐसा मनोहर स्वर इनका स्वाध्याय में है तो फिर गृहवास में इनके गीतों का स्वर कैसा रहा होगा? २६०२.पुरिसा य भुत्तभोगी, अभुत्तभोगी य केइ निक्खंता। कोऊहल-सइकरणुब्भवेहिं दोसेहिमं कुज्जा । वे मुनि (संयत पुरुष) दो प्रकार के होते हैं-कई भुक्तभोगी और कई अभुक्तभोगी निष्क्रान्त होते हैं। उन मुनियों के ऐसे Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ =बृहत्कल्पभाष्यम् उपाश्रयों में स्मृतिजन्य और कौतूहलजन्य ये दोष होते हैं। तब वे इस प्रकार करते हैं२६०३.पडिगमणमन्नतित्थिग, सिद्धी संजइ सलिंग हत्थे य। ___ अद्धाण-वास-सावय-तेणेसु व भावपडिबद्धे॥ वे मुनि प्रतिगमन कर देते हैं अथवा अन्यतीर्थिकों में चले जाते हैं अथवा सिद्धपुत्रिका, संयती या स्वलिंगी स्त्री के साथ प्रतिसेवना करते हैं या हस्तकर्म में लग जाते हैं। ये दोष हो सकते हैं, अतः भावप्रतिबद्ध उपाश्रय में नहीं रहना चाहिए। इन कारणों से वहां रहा भी जा सकता है-अध्वान प्रतिगत, अन्य वसति न मिलने पर, श्वापद या चोरों का भय होने पर। २६०४.विहनिग्गया उजइउं, रुक्खे जोइ पडिबद्ध उस्सा वा। ठायंति अह उ वासं, सावय-तेणादओ भावे॥ मार्गनिर्गत अथवा तीन बार गवेषणा करने भी अन्य वसति न मिलने पर वे वृक्ष के नीचे या ज्योतियुत द्रव्यप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहते हैं अथवा वर्षा गिर रही हो, श्वापद या चोरों का भय होने पर भावप्रतिबद्ध वसति में भी रहा जा सकता है। २६०५.भावम्मि ठायमाणा, पढम ठायंति रूवपडिबद्धे। तहियं कडग चिलिमिली, तस्सऽसती ठंति पासवणे॥ भावप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने वाले मुनि सर्वप्रथम रूप- प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहे। वहां अंतराल में कटक या चिलिमिलिका बांध दे। उस रूपप्रतिबद्ध उपाश्रय के अभाव में प्रस्रवणप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहे। २६०६.असई य मत्तगस्सा, निसिरणभूमीइ वा वि असईए। वंदेण बोलकरणं, तासिं वेलं च वज्जिति॥ मात्रक के अभाव में, दूसरी कायिकी निसर्जनभूमी के अभाव में दो-चार मुनि एक साथ आवाज करते हुए उसी कायिकी भूमी में प्रवेश करें। वे श्रमणियों के कायिकी- व्युत्सर्जनवेला का वर्जन अवश्य करें। २६०७.भूसण-भासासद्दे, सज्झाय ज्झाण निच्चमुवओगो। उवगरणेण सयं वा, पेल्लण अन्नत्थ वा ठाणे॥ प्रस्रवणप्रतिबद्ध उपाश्रय के अभाव में मुनि भूषणशब्द- प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहे। उसके अभाव में भाषाप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहे। वहां स्वाध्याय करें और ध्यान में नित्य उपयोगवान् रहे। इस प्रकार के उपाश्रय के अभाव में स्थानप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहे। वहां यदि स्त्रियां उपकरणों अथवा स्वयं को इस प्रकार प्रस्तुत करें कि मुनि को उस ओर देखने की प्रेरणा मिले। मुनि ऐसे स्थान को छोड़कर अन्यत्र स्थान में जाकर रहे। २६०८.परियारसद्दजयणा, सद्द वए चेव तिविह तिविहा य। उदाण-पउत्थ-सहीणभोइया जा जस्स वा गुरुगी॥ स्थानप्रतिबद्ध उपाश्रय के अभाव में रहस्यशब्दप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहे। परिचार शब्द (स्त्री का भोग करते समय होने वाला स्त्री का शब्द) को सुनकर वहां मुनि की यतना यह है कि वह स्वाध्याय आदि में लग जाए। इस प्रकार के शब्द और अवस्था के आधार पर स्त्री के तीन प्रकार हैंतीव्रशब्दवाली, मध्यमशब्दवाली और मन्दशब्दवाली। अवस्था के आधार पर स्त्रियों के तीन प्रकार हैं-स्थविरा, मध्यमा और तरुणी। इनमें प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार हैं-अपद्राणभर्तृका, प्रोषितभर्तृका, स्वाधीनभोक्तृका। जो मुनि जिस शब्द में अनुरक्त है, वह उसके लिए गुरुक है। वह ऐसे गुरूकस्त्री से प्रतिबद्ध उपाश्रय को छोड़ दे। २६०९.उद्दाण परिदृविया, पउत्थ कन्ना सभोइया चेव। थेरी मज्झिम तरुणी, तिव्वकरी मंदसदा य॥ जहां कन्या-अपरिणीत स्त्री हो, उसके अभाव में अपद्राणभर्तृका स्त्री हो, उसके अभाव में भर्ता द्वारा परिष्ठापित-त्यक्त स्त्री हो, उसके अभाव में प्रोषितभर्तृका स्त्री हो, उसके अभाव में सभोजिका स्वाधीन भर्तृका स्त्री हो, उसमें भी स्थविरा आदि के क्रम से अर्थात् स्थविरा. मध्यमा, तरुणी के क्रम से, उनमें भी तीव्रशब्दकरी, मध्यमशब्दकरी, मंदशब्दकरी-इनमें व्युत्क्रम से मुनि उन उपाश्रयों में रह सकता है। २६१०.थेरी मन्झिम तरुणी, वएण तिविहित्थि तत्थ एक्केका। तिव्वकरी मज्झकरी, मंदकरी चेव सहेणं॥ वय से स्त्रियां तीन प्रकार की हैं-स्थविरा, मध्यमा और तरुणी। प्रत्येक के तीन-तीन भेद हैं-तीव्रशब्दकरी, मध्यमशब्दकरी और मंदशब्दकरी। २६११.पासवण मत्तएणं, ठाणे अन्नत्थ चिलिमिली रूवे। सज्झाए झाणे वा, आवरणे सद्दकरणे वा।। कायिकीप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहना हो तो प्रस्रवण मात्रक में करे। स्थानप्रतिबद्ध उपाश्रय की स्थिति में अन्यत्र जाकर रहे। रूपप्रतिबद्ध उपाश्रय में चिलिमिलिका का उपयोग करे। शब्दप्रतिबद्ध उपाश्रय में स्वाध्याय करे, जिससे कि परिचारणा का शब्द सुनाई न दे अथवा ध्यान करे। इतने पर भी शब्द सुनाई दे तो कानों का स्थगन करे या ऐसा शब्द करे कि वह शब्द स्थगित हो जाए। २६१२.वेरग्गकरं जं वा, वि परिजियं बाहिरं व इअरं वा। सो तं गुणेइ साहू, झाणसलद्धी उ झाएज्जा।। अथवा मुनि वैराग्यपरक सूत्र या जो स्वयं का अभ्यस्त . Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = २६५ हो, अत्यंत परिचित हो वह सूत्र, अंगबाह्य या अंगप्रविष्ट कोई आगम जो कंठस्थ हो, उसका इस प्रकार परावर्तन करे कि वह परिचारणा शब्द सुनाई न दे। जो साधु ध्यानलब्धिसंपन्न है वह ध्यान करे। २६१३.दोसु वि अलद्धि कण्णे, ठएइ तह वि सवणे करे सह। जह लज्जियाण मोहो, नासइ जणनायकरणं वा।। दोनों अर्थात् स्वाध्याय और ध्यान की लब्धि न होने पर कानों का स्थगन कर दे। फिर भी यदि शब्द सुनाई दे तो इस प्रकार शब्द करे कि वे दोनों (पति-पत्नी) लज्जित हो जाएं। और उनका मोह नष्ट हो जाए। फिर भी यदि संभोग से उपरत नहीं हो तो लोगों को ज्ञात करा देते हैं कि देखो, यह हमारे सामने अनाचार का सेवन कर रहा है। २६१४.उभओ पडिबद्धाए, भयणा पन्नरसिया य कायव्वा। दव्वे पासवणम्मि य, ठाणे रुवे य सद्दे य॥ उभयत अर्थात् द्रव्य और भाव से प्रतिबद्ध वसति के पन्द्रह भंगों की रचना करनी चाहिए। सोलहवां भंग-द्रव्यतः प्रतिबद्ध परन्तु प्रस्रवण आदि से नहीं यह होता है, इसी प्रकार स्थान, रूप और शब्द से प्रतिबद्ध-यह भंग नहीं होता। अतः पन्द्रह भंग ही गृहीत है। २६१५.उभओ पडिबद्धाए, ठायंते आणमाइणो दोसा। ते चेव पुव्वभणिया, तं चेव य होइ बिइयपयं॥ उभयतः प्रतिबद्ध प्रतिश्रय में रहने से पूर्वभणित आज्ञा- भंग आदि दोष होते हैं। इसमें अपवादपद भी पूर्वोक्त की भांति ही जानना चाहिए। द्रव्यप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने से अप्काय-शकटयोजन आदि दोष श्रमणियों के भी वैसे ही होते हैं, विशेष यह है कि वह उपाश्रय वहां रहने वाली स्त्रियों से ही प्रतिबद्ध है, पुरुषों से नहीं। वह श्रमणियों का प्रतिश्रय गृहस्थ के न अत्यन्त निकट और न अतिदूर होता है। २६१८.अज्जियमादी भगिणी, __ जा यऽन्न सगारअब्भरहियाओ। विहवा वसंति सागारियस्स पासे अदूरम्मि॥ जहां अति दूर नहीं, निकट में आर्यिका-दादी, नानी रहती हो, भगिनी अथवा अन्य-भाभी आदि तथा शय्यातर की कोई पूज्य विधवा रहती हों, उनसे प्रतिबद्ध उपाश्रय में श्रमणियां रह सकती हैं। २६१९.एयारिस गेहम्मी, वसंति वइणीउ दव्वपडिबद्धे। पासवणादी य पया, ताहि समं होति जयणाए। इस प्रकार स्त्रियों से द्रव्यतः प्रतिबद्ध उपाश्रय में श्रमणियां रहती हैं। उनके साथ रहती हुई वे प्रस्रवण आदि पदों को यतनापूर्वक करती हैं। २६२०.कामं अहिगरणादी, दोसा वइणीण इत्थियासुं पि। ते पुण हवंति सज्झा, अणिस्सियाणं असज्झा उ॥ स्त्रीप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहती हुई श्रमणियों के भी अधिकरण आदि दोष होते हैं, यह कामं अनुमत है। परन्तु वे दोष साध्य होते हैं, अर्थात् यतना से उनका परिहार किया जा सकता है। (देखें गाथा २५९०)। अनिश्रित रहने पर जो तरुण आदि से समुत्थदोष होते हैं वे असाध्य होते हैं। २६२१.पासवण-ठाण-रूवा, सद्दो य पुमंसमस्सिया जे उ। भावनिबंधो तासिं, दोसा ते तं च बिइयपदं॥ जो प्रस्रवण-स्थान-रूप-शब्द वाले उपाश्रय पुरुषों से आश्रित हों, प्रतिबद्ध हों, वहां साध्वियों का भावनिबंध अर्थात् भावप्रतिबद्ध है। उसमें पूर्वोक्त दोष तथा अपवाद पद भी वही है। २६२२.बिइयपय कारणम्मी, भावे सद्दम्मि पूवलियखाओ। तत्तो ठाणे रूवे, काइय सविकारसद्दे य॥ अपवाद में तथा कारण में अर्थात् अध्वनिर्गत आदि में भावप्रतिबद्ध प्रतिश्रय में रहना पड़े तो सबसे पहले पूपलिकाखादक वाले शब्दप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहे, ततः उसीके स्थानप्रतिबद्ध ततः रूपप्रतिबद्ध, ततः कायिकप्रतिबद्ध अथवा वायुकाय के विसर्जन से शब्द होता है, उससे सविकारशब्द वाले प्रतिश्रय में रहे। कप्पइ निग्गंथीणं पडिबद्धसेज्जाए वत्थए। (सूत्र ३१) २६१६.एसेव कमो नियमा, निग्गंथीणं पि नवरि चउलहुगा। सुत्तनिवाओ निहोसे, पडिबद्धे असइ उ सदोसे॥ यही क्रम नियमतः श्रमणियों के लिए भी है। जो प्रतिबद्ध उपाश्रय में ठहरती हैं उनके लिए चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। शिष्य ने कहा-तब तो इस नवीन का निपात निरर्थक है, क्योंकि पूर्व में श्रमणियों का वहां अवस्थान अनुज्ञात है। आचार्य कहते हैं-सूत्र का निपात तो निर्दोषप्रतिबद्ध उपाश्रय के लिए है, प्रायश्चित्त सदोष प्रतिश्रय के लिए है। यदि निर्दोष प्रतिबद्ध उपाश्रय प्राप्त न हो तो सदोषप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहा जा सकता है। २६१७.आउज्जोवणमादी, दव्वम्मेि तहेव संजईणं पि। नाणत्तं पुण इत्थी, नऽच्चासन्ने न दूरे य॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ -बृहत्कल्पभाष्यम् गाहावइकलमज्झवास-पदं २६२३.नउई-सयाउगो वा, खट्टामल्लो अजंगमो थेरो। अन्नेण उद्यविज्जइ, भोइज्जइ सो य अन्नेणं ।। जो स्थविर नब्बे वर्ष का या शतायु वर्ष का हो, जो खट्रामल्ल है-खाट में पड़ा रहता हो, जो बाहर जा नहीं सकता, जो दूसरों के द्वारा उठाया जाता है, भोजन कराया जाता है वैसा स्थविर 'पूपलिकाखादक' कहा जा सकता है। २६२४.पूवलियं खायंतो, चब्बच्चबसद्द सो परं कुणइ। एरिसओ वा सहो, जारिसओ पूवभक्खिस्स। वह स्थविर पूपलिका खाता हुआ केवल चव-चव शब्द करता है। जैसा शब्द पूपलिका खाने वाले का होता है वैसा शब्द बोलने वाले का हो वह पूपलिकाखादक कहा जाता है। २६२५.सो वि य कुटुंतरितो, खाहुत्थूभाउ कुणइ जत्तेणं। परिदेवइ किच्छाहि य, अवितक्वंतो विगयभावो॥ वह पूपलिकाखादक श्रमणियों के प्रतिश्रय के कुड्यान्तरित रहता हुआ भी खांसी और निष्ठीवन ये दो क्रियाएं भी कष्ट से करता है। वह कष्ट से उठ-बैठ सकता है। वह वितर्क न करता हुआ विगतभाव होता है। इस प्रकार के पूपलिकाखादक शब्द से प्रतिबद्ध उपाश्रय में श्रमणियां रह सकती हैं। २६२६.अवि होज्ज विरागकरो, सद्दो रूवं च तस्स तदवत्थं । ठाणं च कुच्छणिज्जं, किं पुण रागोब्भवो तम्मि॥ उस पूपलिकाखादक स्थविर के शब्द, उस अवस्था में उसका रूप तथा उसका कुत्सनीय स्थान ये सभी स्त्रियों के लिए वैराग्यकर होते हैं। उनमें रागोद्भव कैसे हो सकता है? २६२७.एयारिसम्मि रूवे, सद्दे वा संजईण जइऽणुण्णा। समणाण किंनिमित्तं, पडिसेहो एरिसे भणिओ॥ यदि इस प्रकार के रूप, शब्द आदि में श्रमणियों को रहने की अनुज्ञा है तो फिर श्रमणों को इस प्रकार के स्त्रीप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने का निषेध क्यों किया गया है? २६२८.मोहोदएण जइ ता, जीवनिउत्ते वि इत्थिदेहम्मि। ___दिट्ठा दोसपवित्ती, किं पुण सजिए भवे देहे॥ जब मोहोदय के कारण जीववियुक्त स्त्रीदेह में भी पुरुषों की प्रतिसेवना की प्रवृत्ति देखी जाती है तो फिर सजीव देह में वह क्यों नहीं होगी! इसलिए प्रतिषेध किया गया है। नो कप्पइ निग्गंथाणं गाहावइकुलस्स मज्झमज्झेणं गंतुंवत्थए॥ (सूत्र ३२) २६२९.जह चेव य पडिबंधो,निवारिओ सुविहियाण गिहिएसु। तेसिं चिय मज्झेणं, गंतूण न कप्पए जोगो॥ जैसे पूर्व सूत्र में सुविहित मुनियों के लिए गृहस्थ विषयक प्रतिबंध निवारित किया था उसी प्रकार यहां भी गृहस्थों के बीच रहना नहीं कल्पता, यह योग संबंध है। २६३०.मज्झेण तेसि गंतुं, गिही व गच्छंति तेसि मज्झेणं। पविसंत निंत दोसा, तहियं वसहीए भयणा उ॥ गृहस्थों के बीच से जहां प्रवेश और निर्गमन किया जाता है अथवा संयमियों के मध्य होकर गृहस्थ आते-जाते हैं, वहां रहना नहीं कल्पता। वैसे उपाश्रय में मुनियों के तथा गृहस्थों के आने-जाने में जो दोष होते हैं वे आगे (गाथा २६४० में) कहे जाएंगे। ऐसी वसति में रहने से दोषों की भजना है। २६३१.सब्भावमसब्भावं, मज्झमसब्भावतो उ पासेणं। निव्वाहिमनिव्वाहिं, ओकमइंतेसु सब्भावं॥ मध्य के दो प्रकार हैं-सद्भावमध्य और असदावमध्य। जहां आना-जाना गृहपतिगृह के पार्श्व से होता है वह असद्भावमध्य है। जहां घर के बीच से आना-जाना होता है वह सद्भावमध्य है। दोनों के दो-दो प्रकार हैं-निर्वाही और अनिर्वाही। जहां घर और उपाश्रय का फलिह पृथक्-पृथक हो वह निर्वाही और जहां दोनों का फलिह एक ही हो वह अनिर्वाही होता है। २६३२.साला य मज्झ छिंडी, निग्गंथाणं न कप्पए वासो। चउरो य अणुग्घाया, तत्थ वि आणाइणो दोसा। उपरोक्त चारों प्रकारों के तीन-तीन भेद होते हैं-शाला, मध्यम और छिंडिका (घर का पिछवाड़ा)। इन तीनों में निर्ग्रथों को रहना नहीं कल्पता। यदि रहते हैं तो चार अनुद्घातमास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। २६३३.सालाए पच्चवाया, वेउब्वियऽवाउडे य अदाए। कप्पट्ठ भत्त पुढवी, उदगऽगणी बीय अवहन्ने॥ शाला में रहने से ये प्रत्यवाय होते हैं-अपावृत वैक्रिय अंगादान, अपावृत कल्पस्थ, भक्त, पृथ्वी, उदग, अग्नि, बीज, उदूखल.... (इनकी व्याख्या आगे।) २६३४.सालाए कम्मकरा, घोडा पेसा य दास गोवाला। पेह पवंचुहुंचय, असहण कलहो य निच्छुभणं ।। शाला में रहने वाले कर्मकर, घोटा-विद्यार्थी, प्रेष्य- बाहर Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = २६७ भेजे जाने वाले नौकर, दास, गोपाल-ये शाला में रहते हैं, या सोते हैं, वे साधुओं को प्रत्युपेक्षणा करते देखकर प्रपंच करते हैं स्वयं प्रत्युपेक्षणा करने लग जाते हैं, उपहास करते हैं, साधुओं को स्वाध्याय करते देखकर उड्डुचक साधुओं की भांति बोलकर उनको चिढ़ाते हैं। इन सबको सहन न करने वाला साधु उनसे कलह करने लग जाता है। गृहपति उन कर्मकरों से उत्तेजित होकर साधुओं को वहां से निष्काशित कर देता है। २६३५.आवासग सज्झाए, पडिलेहण भुंजणे य भासा य। उच्चारे पासवणे, गेलन्ने जे भवे दोसा॥ मुनि यदि यह सोचकर कि लोग देखते हैं इसलिए आवश्यक, स्वाध्याय, प्रत्युपेक्षणा आदि नहीं करते या अविधिपूर्वक करते हैं तो उसका प्रायश्चित्त आता है। साधुओं को आहार करते हुए देखकर तथा उनकी भाषा को सुनकर तथा उनको उच्चार-प्रस्रवण करते देखकर गृहस्थ उपहास करते हैं या जुगुप्सा करते हैं। कोई मुनि ग्लान हो तो वह गृहस्थों के रहते कष्ट का अनुभव करता है। ये सारे दोष शाला में रहने से होते हैं। २६३६.आहारे नीहारे, भासादोसे य चोदणमचोदे। किड्डासु य विकहासु य, वाउलियाणं कओ झाओ॥ आहार नीहार तथा भाषा दोष-ये वहां रहने से होते हैं। यदि साधु परस्पर सामाचारी के लिए प्रेरणा देते हैं तो वहां गृहस्थ उपहास करते हैं। प्रेरणा न देने पर सामाचारी की हानि होती है। वहां के गृहस्थ परस्पर क्रीड़ा करते हैं, विकथाओं में संलग्न रहते हैं। उनकी कथाओं में व्याकुल बने हुए मुनियों के स्वाध्याय कैसे होगा? २६३७.वंदामि उप्पलज्जं, अकालपरिसडियपेहुणकलावं। धम्मं किह णु न काहिइ, कन्ना जस्सेत्तिया विद्धा॥ किसी मुनि के स्वभाव से ही या विक्रिया से उसका पुंलिंग त्वचारहित होता है, उसको अपावृत देखकर कोई कर्मकर कहता है-मैं उत्पलार्थ को वंदना करता हूं, अनवसर में परिशटित मयूरपिच्छकलाप वाले साधु को वंदन करता हूं। अथवा किसी महाराष्ट्रदेशीय मुनि के वेंटक से विद्ध लिंग को देखकर उपहास में कहता है-अरे! यह मुनि धर्म कैसे करेगा जिसके इतने कर्ण विद्ध हैं? २६३८.अहिगरणं तेहि समं, अज्झोवायो य होइ महिलाणं। तक्कम्मभाविताणं, कुतूहलं चेव इतरीणं। यह सब सुनकर कोई असहनशील साधु उनके साथ कलह करने लग जाता है। जो महिलाएं उस प्रकार के विकुर्वीत लिंग से प्रतिसेवना करने से भावित मन वाली हों, उनका उस साधु के प्रति अनुराग हो जाता है। दूसरी महिलाओं को कुतूहल होता है। २६३९.अहाइय ने वयणं, वच्चामो राउलं सभं वा वि। गोसे च्चिय अदाए, पेच्छंताणं सुहं कत्तो। नग्न मुनियों को देखकर वे कर्मकर आदि कहते हैं-आदर्श दर्शन से हमारा वदन पवित्र हो गया है, अतः हम राजकुल या सभा में जाएं। अथवा आज प्रभातवेला में ही इन मुनियों को अपावृत पुतों के दर्शन हुए हैं, अतः आज हमें सुख कहां? २६४०.हत्थाईअक्कमणं, उप्फुसणादी व ओहुए कुज्जा। गेलन्न मरण आसिय, विणास गरिहं दिय निसिं वा॥ मुनियों के आगमन-निर्गमन पथ पर बच्चे बैठे हों या खेल रहे हों। मुनियों द्वारा उनके हाथ-पैर आदि आक्रांत होने पर या उस बालक का उल्लंघन होने पर उसकी मां पानी से उत्स्पर्शन करती है अथवा लवणोत्तारण करती है। अथवा वह बालक ग्लान हो जाए या मर जाए तो शाला से साधुओं को निकाल देते हैं। २६४१.भोत्तव्वदेसकाले, ओसक्कऽहिसक्कणं व ते कुज्जा। दरभुत्ते वऽचियत्तं, आगय णिते य वाघाओ।। भोजन करने के देश-काल में वे गृहस्थ अवष्वष्कण या अभिष्वष्कण करते हैं। वे सोचते हैं जब साधु यहां से जायेंगे, तब उससे पूर्व हम भोजन कर लेंगे अथवा साधुओं के भिक्षा के लिए जाने के बाद भोजन कर लेंगे। वे गृहस्थ अभी आधा भोजन ही कर पाए हैं, इतने में साधु आ जाएं तो गृहस्थों के मन में अप्रीति होती है। इस अप्रीति के भय से मुनि भिक्षा लेकर आने और भिक्षा के लिए जाने में गृहस्थों के भोजन की प्रतीक्षा करते हैं। इससे भोजन, स्वाध्याय आदि में व्याघात होता है। २६४२.कुड्डाइलिंपणट्ठा, पुढवी दगवारगो य उहित्ता। कयविक्कयसंवहणे, धन्नं तह उक्खल तडे य॥ वहां कुड्य आदि के लिंपन के लिए मिट्टी रखी हुई है, पानी का घड़ा भरा हुआ हो, अग्नि जल रही हो, धान्य के क्रय-विक्रय के लिए उनका बिखराव हो, तो साधुओं के आने-जाने से संघट्टन आदि दोष होते हैं। उस शाला के पास ही कहीं उदूखल रखा हो। वहां स्त्रियां धान कूटने आती हैं और विविध गीत गाती हैं। २६४३.एवं ता पमुहम्मी, जा साला कोट्टतो अलिंदो वा। भूमीइ व मालम्मि व, ठियाण मालम्मि सविसेसा॥ इस प्रकार प्रमुख-गृहद्वार में, शाला में, कोष्ठक में तथा आलिंद में रहने से ये दोष होते हैं। ये शाला आदि भूमीतल पर भी होते हैं और माल-ऊपरीतन भूमी में भी होते हैं। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ==बृहत्कल्पभाष्यम् मालोपरि-स्थित शाला आदि में रहने से ये ही दोष सविशेष तो घरवाले मानेंगे कि कोई चोर आ गया है अथवा कोई होते हैं। उद्भ्रामक होगा। २६४४.दुरुहंत ओरुभंते, हिट्ठठियाण अचियत्त रेणू य। २६४९.मज्जणविहिमज्जंतं, दुदु सगारं सईकरणमादी। संकाय संकुडते, पडणा भत्ते य पाणे य॥ सिज्जायरीउ अम्ह वि, एरिसया आसि गेहेसु॥ ऊपर चढ़ते-उतरते हुए मुनि के चरणों से रेणु नीचे बैठे २६५०.तासिं कुचोरु-जघणाइदसणे खिप्पऽइक्कमो कीवे। व्यक्तियों पर गिरती हैं। उससे उनके मन में अप्रीति होती है। इत्थीनाइ-सहीण य, अचियत्तं छेदमाईया।। वह संकोचवश अपने शरीर को संकुचित करता हुआ चढ़ता- मज्जनविधि स्नान की महती प्रक्रिया से स्नान करते हुए उतरता है। वह नीचे गिर सकता है। भक्त-पान गिरकर सागारिक को देखकर स्वयं की पूर्व स्मृति उभर आती है। जमीन पर बिखर जाते हैं। शय्यातरी को स्नान करते देखकर मुनि के मन में आता है २६४५.उव्वरए वलभीइ व, अंतो अन्नत्थ वा वसंताणं। कि हमारे गृहवास में भी ऐसा ही होता था। स्नान करती हुई ते चेव तत्थ दोसा, सविसेसतरा इमे अन्ने॥ शय्यातरी के कुच, उरु, जघन आदि देखकर दर्शन क्लीब अपवरक, वलभी अथवा अन्यत्र गृहमध्य के मध्य रहने मुनि के शीघ्र ही अतिक्रम-ब्रह्मव्रत की विराधना हो जाती है। से वे सारे दोष हैं जो शाला में रहने से होते हैं। वे तथा ये उसी स्त्री के ज्ञातीजन, सुहृद्जन के मन में अप्रीति उत्पन्न अन्य दोष भी होते हैं। होती है। वे तब मुनि को दिए जाने वाले द्रव्यों का व्यवच्छेद २६४६.अइगमणमणाभोगे, ओभासण मज्जणे हिरन्ने य। कर देते हैं। ते चेव तत्थ दोसा, सालाए छिंडिमज्झे य॥ २६५१.आसंकितो व वासो, दुक्खं तरुणा य सन्नियत्तेउ। गृहमध्य में रहने से दूसरे अपवरक में अनायास धंतं पि दुब्बलासो, खुब्भइ वलवाण मज्झम्मि॥ अतिगमन-प्रवेश हो सकता है। वहां महिला अचानक मुनि सदा उनका वहां वास आशंकित होता है। जो मुनि तरुण को प्रविष्ट हुआ देखकर उसका अपमान कर सकती है। कोई हैं, उनको स्त्रियों के अंग-प्रत्यंगों को देखने की आसक्ति से स्नान आदि कर रहा हो वहां हिरण्य या भोजन आदि बिखरा मोड़ना अत्यंत कष्टप्रद होता है। जैसे अत्यंत दुर्बल अश्व भी हुआ हो, यह देखकर किसी मुनि की आकांक्षा हो सकती है। वडवाओं के मध्य रहता हुआ क्षुब्ध हो ही जाता है। ये विशेषदोष होते हैं। शाला तथा छिन्दिका विषयक जो दोष २६५२.तत्थ उ हिरण्णमाई, संमतओ दट्ट विप्पकिन्नाई। कहे हैं, वे तो होते ही हैं। लोभा हरेज्ज कोई, अन्नेण हिए व संकेज्जा। २६४७.उभयट्ठाय विणिग्गए, अइंति सं पई ति मन्नएऽगारी। वहां शाला आदि में चारों ओर चांदी-सोना आदि को अणुचियघरप्पवेसे, पडणा-ऽऽवडणे य कुइयादी॥ बिखरा हुआ देखकर कोई मुनि लोभवश उसका अपहरण कर कोई मुनि रात्री में कायिकी या संज्ञा के व्युत्सर्ग के लिए लेता है और उत्प्रवजित हो जाता है अथवा कोई दूसरा बाहर जाता है, लौटते समय वह अन्य कमरे में घुस जाता उसका अपहरण कर लेने पर भी मुनियों पर आशंका हो है। वहां कोई स्त्री सोई रहती है। वह उसे अपना पति मान सकती है। लेती है। इससे अनर्थ होता है। अज्ञात गृह में प्रवेश करने पर २६५३.छिंडीइ पच्चवातो, तणपुंज-पलाल-गुम्म-उक्कुरुडे। वहां स्तंभ आदि से टकरा कर गिर सकता है। वहां यदि कोई मिच्छत्ते संकादी, पसज्जणा जाव चरिमपदं।। स्त्री आदि हो तो वह जोर से चिल्लाती है। उस स्थिति में छिंडिका में रहने से ये दोष हैं। उस पुरोहड में तृणपुंज, प्रवचन का उड्डाह होता है। साधु का निष्काशन आदि हो पलालपुंज, गुल्म, ईंट-काठ आदि का पुंज होता है। वहां रहने सकता है। पर नवप्रव्रजित को मिथ्यात्व आ सकता है। उसे अनेक २६४८.अट्ठिगिमणट्ठिगी वा, उड्डाहं कुणइ सव्वनिच्छुभणं। प्रकार की शंका आदि हो सकती है। उसकी पसज्जना तेणुब्भामे मन्नइ, गिहिआवडिओ व छिक्को वा॥ भोजिक, घाटिक आदि को निवेदन करने पर चरम पद अर्थात् कोई महिला मैथुनार्थी होकर मुनि से भोग की याचनापारांचिक प्रायश्चित्त आ सकता है। करती है अथवा मुनि मैथुनार्थी होकर भोग की याचना करता २६५४.एक्कतरे पुव्वगते, आउभए गभीर गुम्ममादीसु। है-दोनों ओर से प्रवचन का उड्डाह होता है। मुनियों का अह तत्थेव उवस्सओ, निरोहऽसज्झाय उड्डाहो। निष्काशन कर देते हैं। वह मुनि उस अपवरक में घुसा, किसी उस गुल्म-तृण पुंज आदि से गभीर-गहन पुरोहड में स्त्री से टकरा गया, गिर पड़ा, हाथ आदि से स्पर्श कर दिया पहले मुनि गया है और फिर कोई स्त्री गई है या पहले स्त्री अहत Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = २६९ गई है और बाद में मुनि गया है वहां आत्मसमुत्थ और कुछ अपहरण कर ले जाते हैं। ये सारे दोष शाला आदि में परसमुत्थ-दोनों प्रकार के दोष होते हैं। और यदि वहीं रहने से होते हैं। पुरोहड में ही उपाश्रय हो तो स्त्रियों के कायिकी का निरोध २६५८.अद्धाणनिग्गयाई, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए। होता है। तरुण मुनियों के स्वाध्याय में व्याघात होता है। सालाए मज्झे छिंडी, वसंति जयणाए गीयत्था।। क्योंकि स्त्रियों के आने-जाने से उनकी दृष्टि उस ओर चली ___ अध्वनिर्गत मुनि तीन बार शुद्ध वसति की मार्गणा करे। जाती है। शासन का उड्डाह भी होता है। उसके प्राप्त न होने पर गीतार्थ मुनि पहले शाला में रहे, २६५५.छिंडीए अवंगुयाए, उब्भामग-तेणगाण अइगमणं। उसके न मिलने पर गृहमध्य में, उसके अभाव में छिंडिका में वसहीए वोच्छेदो, उवगरणं राउले दोसा॥ यतनापूर्वक रहें। छिंडिका रात्री में अपावृत रहने पर उद्भ्रामक लोग तथा २६५९.बोलेण झायकरणं, तहा वि गहिएऽणुसट्ठिमाईणि। चोर उसमें प्रवेश कर जाते हैं। वे कुछ अपहरण कर लेते हैं वेउब्वि खद्धऽवाउडि, छिड्डा चोले य पडले य॥ अथवा अगारी की प्रतिसेवना करते हैं तो शय्यातर वसति शाला में यह यतना है-सभी मुनि एकत्रित होकर का व्यवच्छेद कर देता है। चोर वस्त्रों को चुरा ले जाता है स्वाध्याय करे, फिर भी वहां स्थित गृहस्थ उनके पदों को तो शय्यातर राजकुल में शिकायत करता है। उससे अनेक सुनकर ग्रहण करते हैं तो उनको समझाने का प्रयत्न करे, दोष होते हैं। उन्हें कहे-गुरुगम के बिना पदों को ग्रहण करना हानिकारक २६५६.किं नागओ सि समणेहिं ढक्कियं दोस कूयरा जं तु। होता है। किसी मुनि का सागारिक (लिंग) बहुत बड़ा एतेहऽवंगुएण व, अज्ज पइट्ठो सइरचारी॥ हो, विंटकविद्ध हो, ऊपर की त्वचा रहित हो तो वह (शय्यातर की लड़की उद्भ्रामक से संप्रलग्न है। उसे चोलपट्ट की पटली के एक पटल में छिद्र कर सागारिक को रात्री में आने का संकेत दिया हुआ है। दूसरे दिन उसके ढंक दे। आने पर वह पूछती है-) कल रात क्यों नहीं आए? वह २६६०.अहागदोससंकी, जा पढमा ताव पाउया णिति। कहता है-मैं आया था परंतु श्रमणों ने छिंडिका का द्वार उट्ठण-निवेसणेसु य, तत्तो पढेि न कुव्वंति। ढक दिया था। तदनन्तर वे कुचर-उद्भ्रामक और मुनि प्रथम प्रहर में बाहर जाएं तो प्रावृत होकर ही उद्भामिका, जो कुछ प्रद्वेषवश उत्पीड़न करते हैं, उससे निकले। क्योंकि नग्नमुनियों को देखने वालों के मन में निष्पन्न प्रायश्चित्त मुनि को आता है। अथवा सागारिक यह अमंगल की भावना बन जाती है। वे ऊठते-बैठते हुए गृहस्थों सोचता है-श्रमणों ने द्वार खुला छोड़ दिया इसलिए आज की ओर पीठ न करें, क्योंकि उनके पुतों को देखने से स्वैरचारी स्तेन या उद्भ्रामक हमारे गृह में प्रविष्ट हो गया। अमंगल होता है, ऐसी उनकी मान्यता है। वह शय्यातर कोपाकुल होकर मुनियों को वसति से निकाल २६६१.अवणाविंतिऽवणिंति व, कप्पढे परिरयस्स असईए। देता है। अप्पत्ते सइकाले, बाहि वियदृति निग्गंतुं॥ २६५७.अवहारे चउभंगो, पसंग एएहिं संपदिन्नं तु। मुनि बालकों के मार्ग को छोड़कर परिरय-मार्गान्तर से संजयलक्खेण परे, हरिज्ज तेणा दिय निसिं वा॥ गमन करे। यदि मार्गान्तर न हो तो, शय्यातर आदि को अपहार की चतुर्भंगी होती है कहकर मार्ग से उन बालकों को हटवाए या स्वयं उन बालकों (१) कुछेक चोर संयतों के उपकरण आदि का अपहरण को हटाए। मुनि गृहस्थों की भोजन वेला में भिक्षाकाल अप्रास करते हैं, गृहस्थों के नहीं। होने पर ही जाता है, और खड़ा रहकर भिक्षावेला की प्रतीक्षा (२) कुछ गृहस्थों के, संयतों के नहीं। करता है। (३) कुछ दोनों के। २६६२.नीउच्चा उच्चतरी, चिलिमिलि भुजंत सेसए भयणा। (४) कुछ दोनों के नहीं। पुढवी-दगाइएसुं, सारण जयणाए कायव्वा॥ गृहस्थों का कुछ भी चोरी हो जाने पर वे कहते हैं-इन जहां गृहस्थ संलग्न हों वहां मुनि आहार आदि करते समय श्रमणों ने द्वार को खुला रख दिया इसलिए इन्होंने स्तेनों को तीन चिलिमिलिका बांधे-एक से दूसरी ऊंची और तीसरी स्वर्ण आदि दिया है। यह सोचकर वे गृहस्थ राजकुल में सबसे ऊंची। यदि कुछेक मुनि अभक्तार्थी हों तो चिलिमिलि की शिकायत कर मुनियों के ग्रहण-आकर्षण का प्रसंग पैदा भजना है। जहां पृथ्वी, पानी आदि की विराधना संभावित हो करते हैं। कुछेक चोर संयत के वेश मिष से आकर रात्री में वहां गृहस्थों को यतनापूर्वक अनुशिष्टि दे। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० २६६३. जर कुणी गायंति विस्सरं साइयाउ मुसलेहिं । विलवंतीसु सकलुणं, हयहियय ! किमाकुलीभवसि ॥ यदि कुट्टनियां धान्य को कूटती हुई गीत गाती है तो साधुओं को सोचना चाहिए कि यदि ये कुट्टनियां मुसलों को ऊंचा -नीचा फेंकती हुई उससे होने वाले श्रम को दूर करने के लिए ये विस्वर में गाती हैं। वास्तव में सकरुण विलाप करती हुई इनके गीतों को सुनकर हे हतहृदयशिष्य ! तुम क्यों आकुल व्याकुल हो रहे हो । २६६४. मज्झे जग्गंति सया, निंति ससद्दा य आउला रत्तिं । , फिडिए य जयण सारण, एहेहि इओ इमं दारं ॥ जहां मुनि गृहमध्य में रहते हैं वहां वृषभ मुनि सारी रात जागते रहते हैं। मुनि कायिकी - व्युत्सर्ग के लिए बाहर जाते हुए शब्द करते हैं और शीघ्र ही लौट आते हैं। कोई मुनि बाहर मार्गच्युत हो जाता है या अपने निवासस्थान को भूल जाते है तो यतनापूर्वक उसकी सारणा करते हुए कहना चाहिए इधर आ जाओ यह रहा द्वार २६६५. अविजाणतो पविट्ठो, भणइ पविट्ठो अजाणमाणो मि एहामि वए ठविडं न पवत्तइ अत्थि मे इच्छा ॥ यदि कोई मुनि अजानकारी के कारण दूसरे अपवरक में प्रवेश कर जाता है, वहां कोई पूछने पर कड़े में अजानकारी के कारण यहां प्रविष्ट हुआ हूं। यदि स्त्री उसको अपने साथ भोग भोगने के लिए आग्रह करे तो उसे कहे देखो, जिन गुरुओं के पास मैंने व्रत ग्रहण किए हैं, उनके पास व्रतों को स्थापित कर आऊंगा। मेरी भी तुम्हारे प्रति इच्छा है। गुरु के पास व्रतों को स्थापित किए बिना वैसा करना युक्त नहीं है। इस प्रकार कह कर वहां से निर्गमन कर देना चाहिए। २६६६. कडओ व चिलिमिली वा, मज्जतिसु थेरगा य तत्तो उ। आइन्नहिरन्नेसु य थेर च्चिय सिक्खगा दूरे ॥ शय्यातर या उसकी स्त्री स्नान आदि करती हो तो अंतराल में चटाई या चिलिमिलिका का परदा लगाना चाहिए। वहां स्थविर मुनियों को स्थापित करना चाहिए। जहां हिरण्य आदि बिखरे हुए हों वहां भी स्थविर ही बैठे रहें । शिक्षकों (शैक्षों) को वहां से दूर रखें। २६६७. दारमसुखं काउं, निंति अती ठिया उ छिंडीए काइयजयणा स च्चिय, वगडासुत्तम्मि जा भणिया ॥ छिंटिका में रहते उसको संपूर्ण खाली न कर बाहर आते-जाते हैं। कायिकी की यतना तो पूर्ववत् ही है जो वगडा सूत्र (२२७२-२२७७) आदि के प्रकरण में कही गई है। बृहत्कल्पभाष्यम् कप्पइ निग्गंथीणं गाहावइकुलस्स मज्झमज्झेणं गंतुं वत्थए । (सूत्र ३३) २६६८. एसेव कमो नियमा, निग्गंधीणं पि नवरि चउलहुगा । नवरं पुण नाणतं, सालाए छिंडि मन्झे ।। श्रमणियों के लिए भी यही नियमतः क्रम है। विशेष इतना ही है कि वहां रहने वाली श्रमणियों को चतुर्लघु प्रायश्चित्त आता है। शाला, छिंडिका तथा गृहमध्य इनमें नानात्व है। २६६९. सालाए कम्मकरा, उहुंचय गीयए य ओहसणा । घर खामणं च वाणं, बहुसो गमणं च संबंधो ॥ शाला में कर्मकर इस प्रकार उहुंचक- उपहास करते - यह जैसी आर्थिका है वैसी ही मेरी मृत पत्नी थी, आदि । वे गीत गाते हुए भी विविध प्रकार के प्रपंच करते हैं, उपहसन करते हैं। जब वे श्रमणियां घरों में भिक्षार्थ जाती हैं तब वे क्षमायाचना करते हैं, दान देते हैं। फिर वे अनेक बार उन श्रमणियों के पास जाते हैं। इस प्रकार उनका परस्पर संबंध हो जाता है। २६७०. पाणसमा तुज्झ मया, इमा य सरिसी सरिव्वया तीसे । संखे खीरनिसेओ, जुज्जद तत्तेण तत्तं च ॥ २६७१. सो तत्थ तीए अन्नाहि वा वि निब्भत्थिओ ओ गेहं । खामितो किल सुढिओ अक्खुन्नइ अग्गहत्थेहिं ॥ २६७२. पाए चेडरूवे, पाडेत्तू भणइ एस भे माता । जं इच्छइ तं दिज्जह, तुमं पि साइज्ज जायाई ॥ श्रमणियां शाला में स्थित हैं। दो मित्र आते हैं। एक की पत्नी का सद्यः देहावसान हो गया है। मित्र उसका उपहास करते हुए कहता है-मित्र प्राणसमा तेरी पत्नी का देहान्त हो गया। यह श्रमणी उसके सदृश है, समानवयवाली है। यदि इसके साथ तुम्हारा संबंध हो जाए तो शंख में दूध का अभिषेक तथा तम लोहे के साथ दूसरे लोह का संश्लेष जैसा होगा। यह सुनकर उस श्रमणी तथा अन्य श्रमणियों से वह अत्यंत निर्भर्त्सित होता है, घर चला जाता है। एक दिन वही श्रमणी भिक्षा के लिए घूमती हुई उसी के घर चली जाती है। वह तब वंदना करता हुआ क्षमायाचना करता है, अत्यंत आदर दिखाता है और हाथों को लंबा कर श्रमणीजी के चरणों में चित्रलिखित की भांति प्रदर्शित करता है। वह अपनी संतानों को श्रमणीजी के चरणों में गिरा कर कहता है-'यह तुम सबकी माता है। यह भिक्षा में जो चाहे वह दो और श्रमणी को कहना है ये सब आपके ही बच्चे हैं। इनका पालन-पोषण करो।' इस Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = २७१ प्रकार संबंध स्थापित होता है, और वह गाढ़तर होता अप्पणा चेव उवसमियव्वं। से किमाहु जाता है। भंते? उवसमसारं सामन्नं ।। २६७३.सुत्तनिवाओ पासेण गंतु बिइयपय कारणज्जाए। (सूत्र ३४) सालाए मज्झे छिंडी, सागारिय निग्गहसमत्थो॥ सूत्रनिपात यह है कि पार्श्व से निर्गमन-प्रवेश करते हैं, २६७६.एगत्थ कहमकप्पं, कप्पं एगत्थ इच्चऽसद्दहतो। अध्वनिर्गत निर्ग्रथिनीयां अपवादपद में कारण होने पर वहां पडिसिद्धे व वसंते, निवारण वइक्कमे कलहो। रह सकती हैं। वहां शाला में, गृहमध्यभाग में या छिंडिका में एकत्र अर्थात् गृहपतिकुल के मध्य में साधुओं का रहना रहा जा सकता है यदि शय्यातर निग्रहसमर्थ हो तो। अकल्प्य कैसे हो जाता है और साध्वियों के लिए कल्प्य २६७४.पासेण गंतु पासे, व जं तु तहियं न होइ पच्छित्तं। कैसे हो जाता है? अथवा प्रतिषिद्ध वसति में रहने का किसी मज्झेण व जं गंतुं, पिह उच्चारं घरं गुत्तं॥ ने निवारण किया, उसका व्यतिक्रम करने पर कलह होता है। २६७५.दुज्जणवज्जा साला, सागारअवत्तभूणगजुया वा। २६७७.घेप्पंति चसदेणं, गणि आयरिया य भिक्खुणीओ य। एमेव मज्झ छिंडी, निय-सावग-सज्जणगिहे वा॥ अहवा भिक्खुग्गहणा, गहणं खलु होइ सव्वेसिं॥ जहां पार्श्व से निर्गमन-प्रवेश करते हैं अथवा वह गृहपति प्रस्तुत सूत्र में 'च' शब्द से गणी, आचार्य तथा निवास के पास है, वहां रहने से कोई प्रायश्चित्त नहीं है। जिस भिक्षुणीयों का ग्रहण किया गया है। अथवा भिक्ष के ग्रहण से तिकुल के मध्य जाकर प्रवेश किया जाता है, सभी साधु-साध्वियों का ग्रहण हो जाता है। जहां पृथक उच्चार-कायिकी भूमी हो, जो कपाट आदि से गुप्त २६७८.खामिय वितोसिय विणासियं च झवियं च होति एगट्ठा। हो वहां रहने पर प्रायश्चित्त नहीं आता। शाला में रहना पड़े तो पाहुड पहेण पणयण, एगट्ठा ते उ निरयस्स। वह दुर्जनों से रहित होनी चाहिए तथा जहां सागारिक के क्षामित, व्यवशमित, विनाशित और क्षपित-ये एकार्थक बालक रह रहे हों वहां रहा जा सकता है। इसी प्रकार हैं। प्राभत. प्रहेनक, प्रणयन-ये तीनों शब्द नरक के चतुःशाला आदि गृहमध्य में तथा छिडिका में जहां अपने एकार्थवाची हैं। निजक-संबंधीजन, श्रावक अथवा सज्जन व्यक्ति रह रहे हों २६७९.इच्छा न जिणादेसो, आढा उण आदरो जहा पुव्विं। वहां रहा जा सकता है। भुंजण वास मणुन्ने, सेस मणुन्ने व इतरे वा॥ इच्छा शब्द जिनादेश नहीं है। आढाई आदि पद भी विओसवण-पदं स्वच्छंद से कहे गए हैं। 'आढा' का अर्थ है-आदर। वह पूर्ववत् करना होता है। संभोजन और संवासन-ये दो पद भिक्खू य अहिगरणं कट्ट तं अहिगरणं मनोज्ञ अर्थात् सांभोगिक के विषय से संबद्ध हैं। शेष पद 'विओसवित्ता विओसवियपाहुडे', इच्छाए मनोज्ञ-अमनोज्ञ-दोनों से संबंधित हैं। परो आढाएज्जा इच्छाए परो नो २६८०.नामं ठवणा दविए, भावे य चउव्विहं तु अहिगरणं। आढाएज्जा, इच्छाए परो अब्भुटेज्जा दव्वम्मि जंतमादी, भावे उदओ कसायाणं ।। इच्छाए परो नो अब्भुटेज्जा, इच्छाए परो अधिकरण के चार प्रकार हैं-नामअधिकरण, स्थापनावंदिज्जा इच्छाए परो नो वंदिज्जा, इच्छाए अधिकरण, द्रव्यअधिकरण और भावअधिकरण। द्रव्यपरो संभुजेज्जा इच्छाए परो नो अधिकरण है-यंत्र आदि और भाव अधिकरण है-क्रोध आदि कषायों का उदय। संभुजेज्जा, इच्छाए परो संवसेज्जा २६८१.दव्वम्मि उ अहिगरणं, चउब्विहं होइ आणुपुव्वीए। इच्छाए परो नो संवसेज्जा, इच्छाए परो निव्वत्तण निक्खिवणे, संजोयण निसिरणे य तहा।। उवसमेज्जा इच्छाए परो नो उवसमेज्जा। द्रव्य विषयक अधिकरण क्रमशः चार प्रकार का होता जो उवसमइ, तस्स अत्थि आराहणा; जो है-निर्वर्तनाधिकरण, निक्षेपणाधिकरण, संयोजनाधिकरण' न उवसमइ, तस्स नत्थि आराहणा। तम्हा और निसर्जनाधिकरण।२ १. दृष्टांत के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. ७६। २. वृत्तिकार ने इनकी विस्तृत व्याख्या की है तथा कुछेक ऐतिहासिक तथ्य भी प्रस्तुत किए हैं। (वृ. पृ. ७५३) Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुपमा २७२ =बृहत्कल्पभाष्यम् २६८२.अह-तिरिय-उड्ढकरणे, अगुरुलघु हैं। (आनपान, कार्मणप्रायोग्य-द्रव्य तथा उसके बंधण निव्वत्तणा य निक्खिवणं। अपान्तरालवर्ती द्रव्य ये सारे अगुरुलघु हैं।) उवसम-खएण उहूं, २६८७.अहवा बायरबोंदी, कलेवरा गुरुलहू भवे सव्वे। उदएण भवे अहेगरणं॥ सुहुमाणंतपदेसा, अगुरुलहू जाव परमाणू॥ कषायों का उदय भावाधिकरण है। अधोगति, तिर्यक्रगति ____ अथवा बादरबोंदी-बादरनामकर्मोदयवर्ती जीवों के कलेवर तथा ऊर्ध्वगतिनयन में उनका स्वरूप क्या होता है, उसकी तथा सारे बादर परिणामपरिणत द्रव्य-भू, भूघर, इन्द्रधनुष, मीमांसा करनी चाहिए। बंधन का अर्थ है-संयोजना, गांधर्व नगर आदि गुरुलघु होते हैं। सूक्ष्मनामकर्मोदयवर्ती निर्वर्तना, निक्षेपणा और निसर्जना। कषायों के उदय से जंतुओं के शरीर तथा अनन्तप्रदेशी से परमाणु पर्यन्त सभी अधोगतिगमन होता है और उपशम और क्षय से ऊर्ध्वगति द्रव्य अगुरुलघु होते हैं। गमन होता है। २६८८.ववहारनयं पप्प उ, गुरुया लहुया य मीसगा चेव। २६८३.तिव्वकसायसमुदया, गुरुकम्मुदया गती भवे हिट्ठा। लेट्टग पदीव मारुय, एवं जीवाण कम्माई॥ नाइकिलिट्ठ-मिऊहि य, उववज्जइ तिरिय-मणुएसु॥ व्यवहारनय के अनुसार द्रव्य तीन प्रकार के होते हैंतीव्र कषाय के उदय से गुरुकर्म-ज्ञानावरणीयादि गुरुक, लघुक और गुरुक-लघुक (मिश्र)। पत्थर गुरुक है। का उपचय होता है और उससे अधस्ताद् गति होती है। प्रदीपकलिका लघुक है और पवन-गुरुलघुक है। इसी प्रकार जो कषाय अतिक्लिष्ट नहीं होते, उनके उदय से जीव जीवों के कर्म भी तीन प्रकार के होते हैं-गुरुक, लघुक और तिर्यक-गति में उत्पन्न होता है और जो कषाय मृदु होते हैं, गुरुक-लघुक (मिश्र)। प्रतनु होते हैं उनके उदय से जीव मनुष्ययोनि में उत्पन्न २६८९.कम्मं चिणंति सवसा, तस्सुदयम्मि उ परव्वसा होति। होता है। रुक्खं दुरुहइ सवसो, विगलइ स परव्वसो तत्तो। २६८४.खीणेहि उ निव्वाणं, उवसंतेहि उ अणुत्तरसुरेसु। जीव कर्मों को बांधने में स्वतंत्र होता है, परन्तु कर्मों के जह निग्गहो तह लह, समुवचओ तेण सेसेसु॥ उदय में वह परवश होता है, परतंत्र होता है। जैसे कषायों के क्षीण होने पर निर्वाण प्राप्त होता है। उनके पर चढ़ने में स्ववश होता है, परंतु उससे स्खलित-विगलित . उपशांत होने पर जीव अनुत्तर देवों में उत्पन्न होते हैं। इन होने में वह परवश होता है। कषायों का जैसा निग्रह होता है, वैसा ही जीव लघु होता २६९०.कम्मवसा खलु जीवा, जीववसाई कहिंचि कम्माई। जाता है। यदि वैसा निग्रह नहीं है तो कर्मों का समुपचय होता कत्थइ धणिओ बलवं, धारणिओ कत्थई बलवं॥ है और तब जीव अनुत्तर विमानवासी देवों में उत्पन्न न होकर (शिष्य ने पूछा-क्या संसारी जीव कर्मपरवश होते हैं ? शेष देवलोकों में उत्पन्न होता है। आचार्य ने कहा नहीं, यह एकान्ततः सत्य नहीं है।) २६८५.गुरुयं लहुयं मीसं, पडिसेहो चेव उभयपक्खे वि। संसारी जीव कर्म के वशीभूत होते हैं। परन्तु कहीं-कहीं तत्थ पुण पढमबिइया, पया उ सव्वत्थ पडिसिद्धा॥ कर्म जीव के वशीभूत होते हैं। कहीं धनिक (ऋण देने वाला) व्यवहार से द्रव्य चार प्रकार का होता है-गुरुक, लघुक, बलवान् होता है और कहीं धारणिक (ऋण लेने वाला) मिश्र अर्थात् गुरु-लघुक और उभयतः प्रतिषेध अर्थात् न बलवान होता है। गुरुक और न लघुक। इनमें जो प्रथम और द्वितीय पद है २६९१.धणियसरिसं तु कम्म, (गुरुक और लघुक) वे सर्वत्र प्रतिषिद्ध हैं।' धारणिगसमा उ कम्मिणो होति। २६८६.जा तेयगं सरीरं, गुरुलह दव्याणि कायजोगो य। संताऽसंतधणा जह, मण-भासा अगुरुलह, अरूविदव्वा य सव्वे वि॥ धारणग धिई तणू एवं॥ औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तैजस शरीर पर्यन्त द्रव्य धनिक के सदृश होते हैं कर्म और धारणिक के सदृश तथा उनका काययोग-शरीरव्यापार-यह सारा गुरु-लघुक है। होते हैं सकर्मक जीव। धारणिक दो प्रकार के होते हैं-धन मन और भाषा के पुद्गल अगुरुलघु तथा जितने अरूपी द्रव्य वाले और अधनवाले। (धनवान् धारणिक अपना ऋण चुका हैं (धर्मास्ति, अधर्मास्ति, आकाशास्ति, जीवास्ति) ये सब कर मुक्त हो जाता है और अधनवाला धनिक के वशीभूत १. निश्चयमत के अनुसार संसार में एक भी वस्तु ऐसी नहीं है जो एकांततः गुरुक हो या लघुक हो। इसलिए संसार में जितनी बादर वस्तुएं हैं वे सब गुरुलघु और शेष पदार्थ अगुरुलघु है। (वृ. पृ. ७५६) Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = होकर अनेक दुःखों का अनुभव करता है।) इसी प्रकार जिस मनुष्य का धृतिबल और शरीरबल होता है वह कर्मों का क्षय कर देता है। जिसमें ये दोनों बल नहीं होते, वे कर्म के वशीभूत होकर दुःख पाते हैं। २६९२.सहणोऽसहणो कालं, जह धणिओ एवमेव कम्मं तु। उदिया-ऽणुदिए खवणा, होज्ज सिया आउवज्जेसु॥ धनिक दो प्रकार के होते हैं-सहिष्णु और असहिष्णु। जो सहिष्णु होता है वह काल की प्रतीक्षा करता है। इसी प्रकार कर्म भी, काल की पूर्ति होने पर अथवा पूर्ति के बिना भी अपना विपाक दिखाते हैं। जो धृतिसंपन्न, संहननसंपन्न होते हैं वे आयुष्यकर्म को छोड़कर उदीर्ण और अनुदीर्ण शेष कर्मों की क्षपणा कर देते हैं। किन्हीं के ऐसा होता भी है और किन्हीं के यह नहीं भी होता। (इस प्रकार जीव और कर्म दोनों की यथायोग्य बलवत्ता है। यह श्लोक इसका वाचक हैदृग्नाशो ब्रह्मदत्ते भरतनृपजयः सर्वनाशश्च कृष्णे, नीचैर्गोत्रावतारश्चरमजिनपतमल्लिनाथेऽबलात्वम । निर्वाणं नारदेऽपि प्रशमपरिणतिः सा चिलातीसुतेऽपि, इत्थं कर्मात्मवीर्ये स्फुटमिह जयतां स्पर्द्धया तुल्यरूपे॥ (वृ. पृ. ७५८) २६९३.सच्चित्ते अच्चित्ते, मीस वओगय परिहार देसकहा। सम्ममणाउट्टते, अहिगरणमओ समुप्पज्जे॥ भावाधिकरण की उत्पत्ति के हेतु-सचित्त, अचित्त, मिश्र, वचोगत, परिहार, देशकथा-इन स्थानों में वर्तन न करने की प्रेरणा देने पर जो सम्यग स्वीकार नहीं करता, इससे अधिकरण उत्पन्न होता है। (गाथा की विस्तृत व्याख्या आगे की गाथाओं में)। २६९४.आभव्वमदेमाणे, गिण्हत तहेव मग्गमाणे य। सच्चित्तेतरमीसे, वितहापडिवत्तिओ कलहो॥ किसी आचार्य के पास शैक्ष-शैक्षिका प्रव्रज्या लेने आते हैं, वे उस आचार्य के आभाव्य होते हैं। उनको यदि कोई दूसरा आचार्य ग्रहण कर लेता है, या पूर्वगृहीत आभाव्य की याचना करने पर वह आचार्य वितथप्रतिपत्तियों-झूठे तर्कों से उसे झुठला देता है तो कलह होता है। आभाव्य सचित्त, अचित्त और मिश्र हो सकता है। (सचित्त-शैक्ष-शैक्षिका। अचित्त-वस्त्र, पात्र आदि। मिश्र-सभांडोपकरण शैक्ष आदि।) २६९५.विच्चामेलण सुत्ते, देसीभासा पवंचणे चेव। अन्नम्मि य वत्तव्वे, हीणाहिय अक्खरे चेव॥ सूत्र विषयक व्यत्यामेडित (अन्यान्य सूत्रालयों को यत्र- तत्र मिलाकर बोलना), अपनी-अपनी देशीभाषा बोलने पर, प्रपंच नाना प्रकार की चेष्टाएं करना, अन्य के बोलने के समय अन्य का बोलना, हीनाक्षर, अत्याक्षर पद बोलनारोकने पर ये सब कलह के कारण होते हैं। २६९६.परिहारियमठवेंते, ठवियमणट्ठाए निव्विसंते वा। कुच्छियकुले व पविसइ, चोइयऽणाउट्टणे कलहो॥ परिहारिक कुल वे होते हैं जहां गुरु, ग्लान, बाल आदि मुनियों के लिए प्रायोग्य भक्त-पान प्राप्त हो जाता है। यदि उनकी स्थापना न की जाए या स्थापित करने पर भी निष्कारण उनमें प्रवेश किया जाए और यदि उसमें जाने से रोका जाए तो कलह होता है। अथवा परिहारिककुल अर्थात् कुत्सित कुल में मुनि जाता है तो रोकने पर यदि नहीं रुकता है तो कलह होता है। २६९७.देसकहापरिकहणे, एक्के एक्के व देसरागम्मि। मा कर देसकहं ति य, चोइय अठियम्मि अहिगरणं ॥ __ अनेक मुनि देशकथा में संलग्न हैं। अलग-अलग मुनियों की भिन्न-भिन्न देश के प्रति रागभाव होता है। वह उसकी प्रशंसा करता है, दूसरा उसका खंडन करता है। कोई कहता है देशकथा मत करो। यदि वे मुनि उपरत नहीं होते हैं तो कलह होता है। २६९८.जो जस्स उ उवसमई, विज्झवणं तस्स तेण कायव्वं । जो उ उवेहं कुज्जा, आवज्जइ मासियं लहुगं॥ जो साधु जिस साधु को कुपित कर देता है, वह उस क्रोध का उपशमन करे, उससे क्षमायाचना करे। जो उपेक्षा करता है, उसे लघुमासिक का प्रायश्चित्त आता है। २६९९.लहुओ उ उवेहाए, गुरुओ सो चेव उवहसंतस्स। उत्तुयमाणे लहुगा, सहायगत्ते सरिसदोसो॥ जो उपेक्षा करता है उसे लघुमास का प्रायश्चित्त और जो उपहास करता है उसे गुरुमास का प्रायश्चित्त तथा जो कलह करने वाले को उत्तेजित करता है उसे चार लघुक तथा जो कलह में सहायक होता है, उसे कलह करने वाले की भांति प्रायश्चित्त आता है अर्थात् चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। २७००.चउरो चउगुरु अहवा, विसेसिया होति भिक्खुमाईणं। अहवा चउगुरुगादी, हवंति ऊ छेद निट्ठवणा॥ भिक्षु, वृषभ, उपाध्याय और आचार्य-इनके कलह करने पर प्रत्येक को चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त आता है। अथवा वे ही चतुर्गुरु तप और काल से विशेषित होते हैं। अथवा चतुर्गुरु से प्रारंभ कर उस प्रायश्चित्त की छेद में निष्ठापना होती है। २७०१.परपत्तिया न किरिया, मोत्तु परटुं च जयसु आयटे। अवि य उवेहा वुत्ता, गुणो वि दोसो हवइ एवं॥ शिक्ष, Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ =बृहत्कल्पभाष्यम् परप्रत्ययिक क्रिया-कर्मबंध हमारे नहीं होता। इसलिए और वृक्षों की छाया में विश्राम करने आता-जाता था। एक परार्थ को छोड़कर आत्मार्थ में प्रयत्नशील रहना चाहिए। दिन वहीं दो शरट परस्पर झगड़ने लगे। यह देखकर इसीलिए उपेक्षा की बात कही गई है। आचार्य कहते हैं- वनदेवता ने सबको सचेत करते हुए कहाउपेक्षा गुण है परन्तु वह भी इस प्रकार दोष हो जाता है।' 'हे हाथियो! हे सभी जलचर प्राणियो! तथा सभी त्रस (उपेक्षा सर्वत्र गुणकारी नहीं होती।) और स्थावर जीवो! सुनो जो मैं कहता हूं। जहां तालाब के २७०२.जइ परो पडिसेविज्जा, पावियं पडिसेवणं। पास शरट लड़ रहे हों तो तुम जान लो कि वहां विनाश होने मज्झ मोणं चरंतस्स, के अद्वे परिहायई॥ वाला है।' यदि कोई मुनि पापिका प्रतिसेवना (अकुशलकर्मरूप इतना सुनने पर भी उन प्राणियों ने सोचा-ये शरट हमारा अधिकरण आदि) की प्रतिसेवना करता है तो मेरा क्या? क्या बिगाड़ लेंगे? इतने में दोनों शरट लड़ते-लड़ते विश्राम मौन का आचरण करने वाले मेरे क्या कोई ज्ञान आदि के कर रहे हाथियों के निकट आ गए। एक शरट, बिल अर्थ की परिहानि होती है? कुछ भी नहीं। समझकर, हाथी के सूंड में घुस गया। दूसरा भी उसके पीछे २७०३.आयढे उवउत्ता, मा य परट्टम्मि वावडा होह।। उसी सूंड में घुस गया। भीतर शिर-कपाल में जाकर वहां हंदि परट्ठाउत्ता, आयट्ठविणासगा होति॥ लड़ने लगे। हाथी को बहुत कष्ट होने लगा। वह आकुलआत्मार्थ में उपयुक्त होना ही उत्तम है। परार्थ में कभी व्याकुल होकर उठा और उस वनखंड को चूर-चूर करता व्याप्त मत होओ। जो परार्थ में उपयुक्त होते हैं वे आत्मार्थ के हुआ, उस तालाब में प्रविष्ट हो गया। वनखंड में अनेक विनाशक होते हैं। स्थलचर प्राणी नष्ट हो गए। तालाब की पाल तोड़ डाली। २७०४.एसो वि ताव दम्मउ, हसइ व तस्सोमयाए ओहसणा। सभी जलचर प्राणी विनष्ट हो गए। उत्तरदाणं मा ओसराहि अह होइ उत्तुअणा।। इसलिए कलह छोटा हो या बड़ा, उसकी उपेक्षा नहीं दो मुनि कलह कर रहे हैं। एके कुछ खिन्न हो रहा है। करनी चाहिए। उसके तत्काल उपशमन का प्रयत्न करना दूसरा मुनि कहता है इसका भी (जो खिन्न नहीं हो रहा है) चाहिए। दमन करना चाहिए। एक की अवमानना होने पर दूसरा २७०८.तावो भेदो अयसो, हाणी दंसण-चरित्त-नाणाणं। हंसता है, यह उपहास है। दोनों के बीच कोई कहता है-उत्तर साहपदोसो संसारवड्वणो साहिकरणस्स। देते रहना। अपने निश्चय से मत हटना। तुम उससे हार मत अधिकरण के ये दोष हैं-ताप, भेद, अकीर्ति, ज्ञान-दर्शन मान लेना। यह उसको उत्तेजना देना है। और चारित्र की हानि, साधुओं में प्रद्वेष और संसार का २७०५.वायाए हत्थेहि व, पाएहि व दंत-लउडमादीहिं। प्रवर्धन। जो कुणइ सहायत्तं, समाणदोसं तयं बेति॥ २७०९.अइभणिय अभणिए वा, तावो भेदो उ जीव चरणे वा। दो व्यक्ति कलह कर रहे हैं। एक के पक्ष में होकर जो रूवसरिसं न सीलं, जिम्हं व मणे अयस एवं॥ वाणी से, हाथों से, पैरों से, दांतों से तथा लकड़ी आदि से ताप दो प्रकार का होता है-प्रशस्त और अप्रशस्त । उनका सहयोग करता है, वह भी कलहकारी व्यक्तियों की अतिभणित प्रशस्त ताप है। व्यक्ति सोचता है-मैंने उसे बहुत भांति ही दोषी है, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। ज्यादा कह डाला। अभणित अप्रशस्त ताप है। व्यक्ति २७०६.नागा! जलवासीया!, सुणेह तस-थावरा!। सोचता है-मैंने उसे बहुत कम कहा। मुझे उसके ये-ये दोष सरडा जत्थ भंडंति, अभावो परियत्तई। उद्घाटित करने थे। भेद का अर्थ है-कलह करके स्वयं का २७०७.वणसंड सरे जल-थल-खहचर वीसमण देवया कहणं। जीवितभेद या चारित्रभेद कर देना। लोग कहने लगते वारेह सरडुवेक्खण, धाडण गयनास चूरणया॥ हैं-इसके रूप के सदृश शील नहीं है। अथवा इसने कुछ जो अधिकरण कलह की उपेक्षा करते हैं, उससे क्या लज्जनीय कार्य किया है, इसलिए यह म्लानवदन दिख रहा अनर्थ होता है वह निम्न निदर्शन से बताया गया है है। इस प्रकार उसका अयश होता है। एक अरण्य के मध्य एक विशाल तालाब था। उसमें २७१०.अक्कट्ठ तालिए वा, पक्खापक्खि कलहम्मि गणभेदो। जलचर, स्थलचर और खेचर प्राणी थे। वहीं एक विशाल एगयर सूयएहिं व, रायादीसिटे गहणादी॥ हस्तीयूथ था। वह यूथ उस तालाब में पानी पीने, क्रीड़ा करने आकुष्ट या ताडित होने पर साधुओं का परस्पर १. असंयतों के प्रति की जाने वाली उपेक्षा गुण है, संयतों के प्रति की जाने वाली उपेक्षा महान् दोष है। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक २७५ पक्षग्रहण करने पर कलह होता है और उससे गणभेद हो जाता है। कोई एक पक्ष राजकुल में जाकर इस कलह की सूचना देता है अथवा सूचक-राजपुरुषों द्वारा राजा को ज्ञापित करने पर, ग्रहण-आकर्षण आदि दोष होते हैं। २७११.वत्तकलहो वि न पढइ, अवच्छलत्ते य दंसणे हाणी। जह कोहाइविवड्डी, तह हाणी होइ चरणे वि॥ कलह के समाप्त हो जाने पर भी जो पढ़ने से विमुख होता है, उसके ज्ञान की हानि होती है। साधु-प्रद्वेष से साधर्मिक मुनियों का वात्सल्य नहीं रहता। इससे दर्शन की हानि होती है। जैसे-जैसे कषायों की वृद्धि होती है, वैसे-वैसे चारित्र की हानि होती है। २७१२.अकसायं खु चरित्तं, कसायसहितो न संजओ होइ। साहूण पदोसेण य, संसारं सो विवड्ढेइ। निश्चयनय के अनुसार अकषाय ही चारित्र है। कषायसहित कोई संयत नहीं होता। साधुओं के प्रति प्रद्वेष रखने वाला मुनि संसार-भवभ्रमण को बढ़ाता है। २७१३.आगाढे अहिगरणे, उवसम अवकड्डणा य गुरुवयणं । उवसमह कुणह ज्झायं, छड्डणया सागपत्तेहिं॥ कर्कश अधिकरण हो जाने पर दोनों को उपशांत करना चाहिए। पार्श्वस्थित मुनि दोनों का अपसारण करे। गुरु उनको कहे-कलह का उपशमन कर ध्यान करो, स्वाध्याय करो। अनुपशांत के न ध्यान होता है और न स्वाध्याय। तुम द्रमक की भांति कनकरस को शाकपत्रों के लिए क्यों फेंक रहे हो? (एक परिव्राजक ने दीन-हीन द्रमक से पूछा-इतने चिंतातुर क्यों हो? उसने कहा-मैं दरिद्रता से अभिभूत हूं। 'परिव्राजक बोला-यदि तुम मेरे कथनानुसार चलोगे, करोगे तो मैं तुम्हें वैभवशाली बना दूंगा। उसने परिव्राजक की बात स्वीकार कर ली। दोनों चले। एक निकुंज में प्रविष्ट होकर परिव्राजक ने कहा यह कनकरस है। इसके ग्रहण का उपचार (विधि) यह है कि जो उसे ग्रहण करता है वह शीत, आतप, परिश्रम, क्षुधा, पिपासा सहन करता हुआ, ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ, अचित्त कंदमूल का भोजन करता हुआ, कषायों का उपशमन कर, शमीवृक्ष के पुटकों में इसे ग्रहण करे। यह इसको ग्रहण करने की विधि है।' द्रमक ने वैसे ही किया और एक तुंबक को कनकरस से भरकर, दोनों वहां से चले। परिव्राजक ने कहा यह बहुमूल्य रस है। इसको क्रोधवश फेंकना नहीं हैं।' चलतेचलते परिव्राजक बार-बार कहता-तुम मेरे प्रभाव से धनी बन जाओगे। द्रमक ने एक-दो बार सुना। फिर रुष्ट होकर बोला तुम्हारे प्रभाव से मैं धनी बनूं, यह मुझे इष्ट नहीं है। उसने उस कनकरस को फेंक दिया। तब परिव्राजक बोला-अरे दुरात्मन् ! यह तुमने क्या किया? कषाय के कारण इतने बड़े लाभ से हाथ धो बैठा?) २७१४.जं अज्जियं समीखल्लएहिं तव-नियम-बंभमइएहिं। तं दाणि पच्छ नाहिसि, छड्डितो सागपत्तेहिं।। परिव्राजक ने कहा-जो तुमने तप, नियम, ब्रह्मचर्य से अर्जित गुण रूप कनकरस को तप आदि रूप शमीवृक्ष के पत्रपुटकों में एकत्रित किया था, उसको फेंक दिया। अब तुम जान पाओगे कि तुमने शाकवृक्ष के पत्रतुल्य कषाय के कारण स्वयं की आत्मा को गुणों से रिक्त कर डाला है। २७१५.जं अज्जियं चरित्तं, देसूणाए वि पुव्वकोडीए। तं पि कसाइयमेत्तो, नासेइ नरो मुहत्तेण ॥ जो चारित्र देशोनपूर्वकोटी वर्षों में अर्जित किया है, उसको भी कषायितमात्र व्यक्ति एक मुहुर्त में विनष्ट कर देता है। २७१६.आयरिय एगु न भणे, अह एगु निवारि मासियं लहुगं। राग-दोसविमुक्को, सीयघरसमो उ आयरिओ। दो मुनि अधिकरण कर रहे हैं। आचार्य एक को कुछ नहीं कहते, एक को कलह करने से निवारित करते हैं। इस प्रवृत्ति से आचार्य को लघुमासिक का प्रायश्चित्त आता है। आचार्य शीतघर के समान होते हैं। वे राग-द्वेष से विप्रमुक्त होते हैं। २७१७.वारेइ एस एयं, ममं न वारेइ पक्खरागेणं। बाहिरभावं गाढतरगं च मं पेक्खसी एक्वं॥ आचार्य अमुक मुनि को कलह से निवारित करता है। तब दूसरा सोचता है-आचार्य मुझे परबुद्धि से देखते हैं, अतः मुझे निवारित नहीं करते। इस पक्षराग के कारण वह मुनि बाह्यभाव को प्राप्त हो जाता है अथवा कलह को बढ़ा देता है अथवा वह आचार्य को कहता है-आप मुझ एक को बाह्यरूप से देखते हैं। २७१८.उवसंतोऽणुवसंतं, तु पासिया विन्नवेइ आयरियं । तस्स उ पण्णवणट्ठा, निक्खेवो पर इमो होइ॥ २७१९.नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले तदन्नमन्ने । आएस कम बहु पहाण भावओ उ परो होइ॥ उपशांत मुनि अनुपशांत मुनि को देखकर आचार्य को निवेदन करता है कि अमुक मुनि उपशांत नहीं हो रहा है। तब आचार्य उसको प्रज्ञापित करने के लिए 'परनिक्षेप' करते हैं। 'परनिक्षेप' यह है-नामपर, स्थापनापर, द्रव्यपर, क्षेत्रपर, कालपर। ये द्रव्यपर आदि प्रत्येक दो-दो प्रकार के होते हैंतद्रव्यपर और अन्यद्रव्यपर। तथा आदेशपर, क्रमपर, Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ बहुपर, प्रधानपर और भावपर - इस प्रकार परनिक्षेप मूलभेद की अपेक्षा से दस प्रकार का है। २७२०. परमाणुपुग्गलो खलु तद्दव्वपरो भवे अणुस्सेव । अन्नद्दव्वपरो खलु, दुपएसियमाइणो तस्स ॥ परमाणु पुद्गल का अपर परमाणु पुद्गल परतया विचार करने पर वह तद्द्रव्यपर होता है। उसी परमाणुपुद्गल के दिप्रदेशिक आदि स्कंध परतया विचार किए जाने पर अन्यद्रव्यपर होते हैं। २७२१. एमेव य खंघाण वि, तदव्वपरा उ तुल्लसंघाया। जे उ अतुल्लपएसा, अणू य तस्सऽन्नदव्वपरा ॥ इसी प्रकार स्कंधों के भी तुल्यसंघात वाले स्कंध तद्द्रव्यपर होते हैं। अतुल्यप्रदेश वाले स्कंध तथा अणु-ये सब अन्यद्रव्यपर होते हैं। २७२२. एगपएसोगाढादि खेत्ते एमेव जा असंखेज्जा । एगसमयाइठिहणो कालम्मि वि जा असंखेज्जा ॥ इसी प्रकार एकप्रदेशावगाढ़ परमाणु से असंख्येयप्रदेशावगाढ़ पर्यन्त जानना चाहिए। जैसे- एकप्रवेशावगाढ़ तत्क्षेत्रपर होता है और द्विप्रदेशावगाढ़ आदि अन्यक्षेत्रपर होता है। इसी प्रकार कालविषयक भी यही स्थिति है। एक समय की स्थितिवाले पुद्गल से एक समय स्थितिवाले पुद्गल तत्कालपर और द्वि आदि समय स्थितिवाले अन्यकालपर होते हैं। इसी प्रकार असंख्येय समय की स्थितिवाले पुद्गल समान स्थितिवालों के साथ तत्कालपर और शेष एकसमय की स्थितिवालों के साथ अन्यकालपर होते हैं। २७२३. भोअण-पेसणमादीसु एगखित्तट्ठियं तु जं पच्छा । आदिसह भुंज कुणसु व आएसपरो हवह एस ॥ भोजन, प्रेषण कार्य में व्याप्त करने आदि में एकक्षेत्रस्थित व्यक्ति को पश्चात् अन्त में आदेश दिया जाता है कि जाओ, तुम भोजन करो अथवा यह कार्य करो यह आदेशपर है। तात्पर्य है कि 'पर' व्यक्ति आज्ञापित होता है। २७२४. दव्वाइ कमो चउहा, दव्वे परमाणुमाइ जाऽणतं । एगुत्तरखुट्टीए विवड्डिया परो होइ ॥ क्रम का अर्थ है परिपाटी । उसकी अपेक्षा 'पर' चार प्रकार का है- द्रव्यक्रमपर, क्षेत्रक्रमपर, कालक्रमपर और भावक्रमपर। द्रव्यक्रमपर है परमाणु से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कंध पर्यन्त एकोत्तर प्रदेशवृद्धि से बढ़ते हुए, जो जिसकी अपेक्षा से 'पर' है वह उससे द्रव्यक्रमपर होता है (वृत्ति में वृत्तिकार ने अन्य क्रमपरों का भी वर्णन दिया है।) बृहत्कल्पभाष्यम् २७२५. जीवा पुग्गल समया, दव्व पएसा य पज्जवा चेव । थोवा णंता णंता, विसेसमहिया दुवेऽणंता ॥ जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे पुद्गल अनन्तगुणा, उनसे समय अनन्तगुणा, उनसे द्रव्य विशेषाधिक, उनसे प्रदेश अनन्तगुणा, उनसे पर्याय अनन्तगुणा होते हैं । २७२६. बब्बे सचित्तमादी, सचित्तदुपएस होइ तित्थयरो सीहो चउप्पएसुं, अपयपहाणा बहुविहा उ॥ प्रधानपर के दो प्रकार हैं- द्रव्यप्रधानपर और भावप्रधानपर। द्रव्यप्रधानपर के तीन भेद हैं- सचित्त, अचित्त और मिश्र । सचित्तप्रधान के तीन प्रकार हैं-द्विपद, चतुष्पद और अपद द्विपद में तीर्थंकर प्रधान होते हैं चतुष्पद में सिंह प्रधान होता है। अपदप्रधान बहुविध होते हैं। (सचित्त में सुदर्शनवृक्ष, जम्बूवृक्ष, पनस आदि । अचित्त धातु में स्वर्ण, वस्त्र में चीनांशुक, गंधद्रव्य में गोशीर्षचन्वन, मिश्र में स्वर्ण आदि से अलंकृत मूर्ति आदि) । २७२७. वण्ण-रस-गंध फासेसु उत्तमा जे उ भू-दग-वणेसु । मणि खीरोवगमादी, पुष्फ-फलादी य रुक्खेसु ॥ जो पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय वर्ण, रस, गंध और स्पर्श में उत्तम होते हैं वे भावप्रधानपर हैं। जैसे पृथ्वीकाय में मणि, अप्काय में क्षीरोदक और वनस्पतिकाय में पुष्प और फलवाले वृक्ष । २७२८. आढणमन्भुद्वाणं वंदण संभुंजणा य संवासो । एयाई जो कुणई, आराहण अकुणओ नत्थि ॥ २७२९. अकसायं निव्वाणं, सव्वेहि वि जिणवरेहिं पन्नत्तं । सो लब्भह भावपरो, जो उवसंते अणुवसंतो॥ जो मुनि आहार अभ्युत्थान, वंदन, संभोजन ये पद उपशांत होकर करता है, उसके आराधना होती है, जो ये पद नहीं करता उसके आराधना नहीं होती। सभी जिनेश्वर देवों ने कहा- अकषाय निर्वाण है। जो अनुपशांत मुनि उपशांत मुनि के प्रति आदर आदि पद नहीं करता, वह भावपर अर्थात् औदयिकभाव को प्राप्त होता है। क्योंकि उसके मन में अभी भी कषाय हैं। २७३०. सो वट्टइ ओदइए, भावे तं पुण खओवसमियम्मि | जह सो तुह भावपरो, एमेव य संजम - तवाणं ॥ वह औदधिकभाव में प्रवर्तित है और तुम क्षायोपशमिकभाव में प्रवृत्त हो । अतः वह तुम्हारे से अपरभाव में है तथा वह संयम और तप से भी पर है - पृथग है। २७३१ खेलाकोविओ वा अनलविगिंचया व जाणं पि अहिगरणं तु करेत्ता, करेज्ज सव्वाणि वि पयाणि ॥ क्षिप्तचित्त, दृप्तचित्त, यक्षाविष्ट मुनि अधिकरण करते हैं। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = अकोविद मुनि भी अधिकरण करता है। जानता हुआ गीतार्थ वर्षावास (श्रावण-भाद्रपद) में विहार करने पर अनुद्घात मुनि भी प्रव्रज्या के लिए अयोग्य मुनि के निष्काशन के लिए चार मास अर्थात् चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। तथा आज्ञा अधिकरण करता है। उसके साथ अधिकरण करके भी आदर आदि दोष, और आत्म-संयमविराधना होती है। इस काल में आदि सभी पदों का समाचरण करता है। विहरण से छहकाय की विराधना होती है। चलते-चलते फिसल कर गिरना, विषम भूभाग में स्खलित होना, पांवों चार-पदं स्थाणु और कांटों का लगना, पानी में बह जाना, नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा रुक्खोल्ल-वृक्ष के नीचे विश्राम करते वृक्ष के गिरने से विराधना होना, अभिघात-गिरिनदी आदि के मार्ग से जाने से 'वासावासासु चारए'॥ (सूत्र ३५) अभिघात होना, श्वापद तथा स्तेनों का उपद्रव होना, वर्षा में २७३२.अहिगरणं काऊण च, गच्छइ तं वा वि उवसमेउं जे। भीगने से ग्लान हो जाना ये सारी आपत्तियां वर्षावास में ___पुव्वं च अणुवसंते, खामेस्सं वयइ संबंधो॥ विहरण करने से आती हैं। अधिकरण करके अन्यत्र ग्राम में चला जाता है। अथवा २७३७.अक्खुन्नेसु पहेसुं, पुढवी उदगं च होइ दुहओ वि। उस अधिकरण को जानकर कोई मुनि उसके उपशमन के उल्लपयावण अगणी, इहरा पणगो हरिय कुंथू॥ लिए आता है। अथवा पूर्व अधिकरण उपशांत नहीं हुआ है, अक्षुण्ण पथ में विहरण करने से पृथ्वीकाय की विराधना इसलिए उस ग्राम में जाकर क्षमायाचना करूंगा, इस उद्देश्य तथा दोनों प्रकार के अप्काय-भौम और अंतरिक्ष की से वहां जाता है ये सारे पूर्व सूत्र से इस सूत्र के साथ संबंध विराधना होती है। भीगे हुए को सुखाने के लिए अग्नि की स्थापित करते हैं। विराधना तथा पनक, हरित और कुंथु जीवों की विराधना २७३३.अहवा अखामियम्मि त्ति होती है। कोई गच्छेज्ज ओसवणकाले। २७३८.असिवे ओमोयरिए, रायडुढे भए व गेलन्ने। सुभमवि तम्मि उ गमणं, __आबाहाईएसु व, पंचसु ठाणेसु रीइज्जा॥ वासावासासु वारेइ॥ अपवाद पद में विहरण किया जा सकता है। ये कारण हो अथवा कोई मुनि अधिकरण करने के बाद बिना सकते हैं अशिव, अवमौदर्य, राजद्विष्ट, स्तेन का भय, ग्लान क्षमायाचना किए अन्यत्र चला जाता है। फिर 'ओसवण- या आबाधा आदि पांच स्थान उत्पन्न होने पर। काल' अर्थात् पर्युषणकाल में क्षमायाचना करने के लिए २७३९.आबाहे व भये वा, दुब्भिक्खे वाह वा दओहंसि। उस द्वितीय मुनि के ग्राम में जाता है। यद्यपि यह गमन पव्वहणे व परेहिं, पंचहिं ठाणेहिं रीइज्जा॥ शुभ है, फिर भी यह सूत्र वर्षावास में आने-जाने का निषेध ___ पांच स्थान ये हैं-आबाधा-मानसिक पीड़ा, भय चोरों करता है। का भय, दुर्भिक्ष, पानी के प्रवाह से गांव या वसति के बह २७३४.वासावासो दुविहो, पाउस वासा य पाउसे गुरुगा। जाने पर, प्रव्यथन-दूसरों द्वारा पीड़ा आदि दिए जाने पर-इन वासासु होति लहुगा, ते च्चिय पुण्णे अणितस्स॥ पांच कारणों से विहार किया जा सकता है। वर्षावास के दो प्रकार हैं-प्रावृड और वर्षारात्र। श्रावण २७४०.एतं तु पाउसम्मी, भणियं वासासु नवरि चउलहुगा। और भाद्रपद-प्रावृड और आश्विन और कार्तिक-वर्षारात्र।' ते चेव तत्थ दोसा, बिदयपदं तं चिमं वऽन्नं॥ प्रावृड में विहरण करने पर चतुर्गुरु और वर्षारात्र में विहरण पूर्वोक्त प्रायश्चित्त अपवादरूप में प्रावृइ में विहार करने पर चतुर्लघु। वर्षारात्र के पूर्ण होने पर उस गांव से करने पर होते हैं। वर्षारात्र-आश्विन, कार्तिक में विहार विहार न करने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। करने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। वहां वे ही दोष होते हैं २७३५.वासावासविहारे, चउरो मासा हवंतऽणुग्घाया। तथा अपवादपद भी वही है। अथवा यह अपवादपद भी हो आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमाऽऽयाए। सकता है२७३६.छक्कायाण विराहण, आवडणं विसम-खाणु-कंटेसु। २७४१.असिवे ओमोयरिए, रायडुढे भए व गेलन्ने। वुब्भण अभिहण रुक्खोल्ल, सावय तेणे गिलाणे य॥ नाणादितिगस्सऽट्ठा, वीसुंभण पेसणेणं वा॥ १. बृहद्चूर्णि में-पाउसो सावणो भद्दवओ य, वासारत्तो आसाओ-कत्तियओ अ ति। विशेष चूर्णि-पाउसो आसाणे सावणो य, वासारत्तो भद्दवओ अस्सोगे अत्ति। यह मतभेद है। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ==बृहत्कल्पभाष्यम् अशिव, अवमौदर्य, राजद्विष्ट, भय अथवा ग्लान हो जाने आ गए हों तो स्वक्षेत्र के प्रतिवृषभग्राम में भिक्षा के लिए पर यह प्रागुक्त द्वितीयपद है। यह दूसरा द्वितीयपद है-ज्ञान- प्रयत्न करते हैं। शय्या दुर्बल हो जाने पर शय्यातर को कह दर्शन और चारित्र इस त्रिक की प्रासि के लिए, आचार्य का कर स्थूणा आदि से उसे टिकाए रखें। देहावसान हो जाने पर अथवा आचार्य द्वारा किसी प्रयोजन- २७४६.दोन्नि उ पमज्जणाओ,उडुम्मि वासासु तइय मज्झण्हे। वश भेजे जाने पर इन कारणों से वर्षाकाल में भी विहरण वसहिं बहुसो पमज्जण, अइसंघट्टऽन्नहिं गच्छे॥ किया जा सकता है। आठ ऋतुबद्धमासों में वसति का प्रमार्जन दो बार२७४२.आऊ तेऊ वाऊ, दुब्बल संकामिए अ ओमाणे। पूर्वाह्न और अपराह्न में किया जाता है। वर्षा में तीन बार पाणाइ सप्प कुंथू, उट्टण तह थंडिलस्सऽसती॥ मध्याह्न में भी प्रमार्जन किया जाता है। आवश्यकतावश अथवा यह अपवाद है-पानी से वसति प्रवाहित हो गई। अनेक बार प्रमार्जन भी किया जा सकता है। यदि अनेक हो, अग्नि से जल गई हो, तेजवायु से यत्र-तत्र गिर गई हो, प्रमार्जन से त्रस प्राणियों का अतिसंघट्टन होता हो तो दुर्बल हो गई हो, किसी प्रत्यनीक को संक्रामित हो गई हो, अन्यत्र ग्राम में चला जाए। अथवा श्राद्धकुल अन्यत्र संक्रामित हो गए हों अन्यतीर्थिकों से २७४७.उत्तण ससावयाणि य, गंभीराणि य जलाणि वज्जेता। अपमानित किए जाने पर, वसति में जीवों का उपद्रव होने तलियरहिया दिवसओ, अब्भासतरे वए खेते॥ पर, सर्प आदि का निवास हो जाने पर कुंथु आदि सूक्ष्म जिस मार्ग में तृण बहुत ऊंचे हो गए हों, जो मार्ग श्वापदों प्राणियों से वसति संसक्त हो जाने पर, ग्राम उजड़ जान पर और बहुत ऊंडे जल से युक्त हों-इन मार्गों का वर्णन करे। या स्थंडिलभूमी का अभाव हो जाने पर-वर्षावास में विहरण पैरों में बिना कुछ पहनें, दिन में, अत्यंत निकटवर्ती ग्राम में किया जा सकता है। जाकर रहे। २७४३.मूलग्गामे तिन्नि उ, पडिवसभेसु पि तिन्नि वसहीओ। ठायंता पेहिंति उ, , वियार-वाघायमाइट्ठा। कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इन सभी कारणों को ध्यान में रखकर साधु मूलग्राम में हेमंत-गिम्हासु चारए॥ तीन वसतियों की प्रत्युपेक्षा करते हैं तथा प्रतिवृषभग्राम (सूत्र ३६) अर्थात् जहां भिक्षाचर्या के लिए जाया जाता है वहां भी तीन वसतियों की प्रत्युपेक्षा वर्षाकाल के प्रारंभ होने से पूर्व ही कर २७४८.दुस्संचर बहुपाणादि काउ वासासु जं न विहरिंसु। ली जाती है। मूलग्राम में विचारभूमी और वसति का व्याघात तस्स उ विवज्जयम्मी, चरंति अह सुत्तसंबंधो॥ होने पर प्रतिवृषभग्राम में ठहर जाते हैं। वर्षाकाल में मेदिनी दुःसंचर तथा बहुप्राणियों से २७४४.उदगा-ऽगणि-वायाइसु,अन्नस्सऽसतीइ थंभणुद्दवणे। संकुल हो जाती है, इसलिए मुनि ग्रामानुग्राम विहरण नहीं संकामियम्मि भयणा, उट्ठण थंडिल्ल अन्नत्थ॥ करते। वर्षावास के विपर्यय काल में अर्थात् ऋतुबद्धकाल में वहां भी यदि पानी, अग्नि, वायु आदि के कारण किसी भी वे मुनि विहरण करते हैं। यही पूर्वसूत्र के साथ इस सूत्र का प्रकार का व्याघात होता है तो साधु अन्य वसति में जाकर संबंध है। ठहर जाते हैं। अन्य वसति के अभाव में स्तंभनी विद्या के द्वारा २७४९.पुण्णे अनिग्गमे लहुगा, दोसा ते चेव उग्गमादीया। पानी, अग्नि और वायु का स्तंभन करते हैं, सर्प को विद्या के दुब्बल-खमग-गिलाणा, गोरस उवहिं पडिच्छंति॥ द्वारा अन्यत्र भेज देते हैं। यदि ग्राम संक्रामित कर दिया हो तो वर्षावास के पूर्ण होने पर यदि उस क्षेत्र से निर्गमन नहीं वहां से अन्य वसति में जाने की भजना है-भद्रक कुल वाले हों किया जाता तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त विहित है। वे ही तो वहीं रहे अन्यथा अन्यत्र चले जाएं। ग्राम उजड़ गया हो या उद्गम आदि दोष वहां होते हैं। दूसरे ये दोष भी होते हैंस्थंडिलभूमी का व्याघात हो तो दूसरे ग्राम में चले जाएं। आचाम्ल आदि से शरीर दुर्बल हो गया हो, क्षपक, ग्लान, २७४५.इंदमहादी व समागतेसु परउत्थिएसु य जयंति। गोरस की उपलब्धि न होती हो, उपधि क्षीण हो गई हो-इन पडिवसभेसु सखित्ते, दुब्बलसेज्जाए देसूणं॥ कारणों से साधु वहां से जाने की प्रतीक्षा करते हैं। निर्गमन न उस ग्राम में यदि इन्द्रमहोत्सव आदि के कारण परतीर्थिक करने पर तद्विषयक परितापना के प्रायश्चित्त विहित है। १. प्रतिवृषभग्राम-यह स्वग्राम से पांच कोश की दूरी तक हो सकता है। यही स्वक्षेत्र है। २. स्वक्षेत्र-सक्रोशयोजनप्रमाण। (वृ. पृ. ७७४) Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक २७५०, एएन होंति दोसा, बहिया सुलभं च भिक्ख उवही य भवसिद्धिया उ वाणा, वियपय गिलाणमादीसु ॥ वर्षावास के पूर्ण होने पर उस क्षेत्र से निर्गमन कर देने पर ये दोष नहीं होते। उस क्षेत्र से अन्य बाहर वाले क्षेत्र में भिक्षा और उपधि सुलभ होते हैं। भवसिद्धिक प्राणी मुनियों से बोध प्राप्त करते हैं। अतः बिहार कर देना चाहिए। द्वितीयपद में ग्लानत्व आदि के कारण विहार नहीं भी किया जाता। २७५१. लम्हा उ विहरियव्वं विहिणा जे मासकप्पिया गामा। छड्डेइ वंदणादी, तइ लहुगा मग्गणा पत्था । इसलिए वर्षावास के पश्चात् मासकल्पप्रायोग्य ग्रामों में विधिपूर्वक विहरण करना चाहिए। जो मासप्रायोग्य क्षेत्रों को वक्ष्यमाण बंदन आदि कारणों से छोड़कर अन्यत्र विहरण करता है, वह जितने क्षेत्र छोड़े हैं उतने ही चतुर्लघु प्रायश्चित्त का भागी होता है। द्वितीयपद में मासप्रायोग्य क्षेत्रों के परित्याग में जो गुण हैं उनकी मार्गणा पथ्य अर्थात् हितकारी होती है। · २७५२. आयरिय साहु वंदण, चेइय नीयल्लए तहा सन्नी । गमणं च देसदंसण, वइगासु य एवमाईणि ॥ आचार्य साधु, चैत्य की वंदना करने के लिए, अपने स्वजन या श्रावकों को देखने के लिए, देशदर्शन के लिए अथवा गोकुल आदि के लिए इन कारणों से मुनि मासकल्पप्रायोग्य क्षेत्रों को छोड़कर जाता है। २७५३. अप्पुव्व विवित्त बहुस्सुया य परियारखं च आयरिया । परियारवज्ज साहू, चेहय पुव्वा अभिनवा वा ॥ २७५४. गाहिस्सामि व नीए, सण्णी वा भिक्खुमाइ बुग्गाहे । बहुगुण अपुव्व देसो, वइगाइसु खीरमादीणि ॥ अदृष्टपूर्व, विविक्त निरतिचारचारित्रवाले, बहुश्रुत तथा बहुतसाधुपरिवारवाले आचार्य को वंदना करने के लिए, तथा इन गुणों से युक्त परन्तु साधु परिवार से रहित साधुओं को तथा प्राचीन और अभिनव चैत्यों को वंदन करने के लिए बह साधु जाता है। अपने सगे-संबंधियों को बोधि प्राप्त कराऊंगा, श्रावक जो अन्यतीर्थिकों से व्युद्गाहित हो रहे हैं, उनको स्थिर करूंगा- इस दृष्टि से जाता है। अथवा देश अपूर्व और बहुगुणोपेत है उसको देखने के लिए तथा जिका - गोकुल आदि में दूध, दही, घृत आदि का प्रचुर लाभ होता है, इन कारणों से वह मासकल्पप्रायोग्य क्षेत्रों को छोड़कर अन्यत्र जाता है। १. आगाढ़ सात प्रकार का होता है १. द्रव्यागाढ़ - जहां एषणीय द्रव्य की प्राप्ति नहीं होती। २. क्षेत्रागा अत्यंत खुलक्षेत्र स्वल्प मिशा देने वालों का क्षेत्र । ३. कालागढ़ - जो किसी भी ऋतु के योग्य न हो। २७९ २७५५. अद्धाणे उव्वाता, भिक्खोवहि साण तेण पडिणीए । ओमाण अभोज्ज घरे, थंडिल असतीह जे जत्थ ॥ इस प्रकार गमन करने पर ये दोष होते हैं-मार्ग में विहरण करते हुए मुनि परिश्रान्त हो जाते हैं, भिक्षा प्राप्त नहीं होती, उपधि आदि का अपहरण हो जाता है, कुत्तों का और चोरों का उपद्रव होता है प्रत्यनीक को अवसर मिल जाता है, अपमान हो सकता है, अभोज्यगृहों से भिक्षा लेनी हो सकती है, वहां स्थंडिल भूमी का अभाव होने से संयम और आत्मविराधना होती है। इस प्रकार जहां जो दोष होते हैं, उनकी योजना करनी चाहिए। २७५६. वियप असिवाई उबहिस्स उ कारणा व लेयो वा । बहुगुणतरं व गच्छे, आयरियाई व आगाडे ॥ द्वितीयपद में इन कारणों से उन क्षेत्रों को छोड़ा भी जा सकता है-अशिव आदि कारण होने पर वहां उपधि न मिलने पर, लेप आदि की प्राप्ति न होने पर आगे का क्षेत्र गच्छ के लिए बहुगुणवाला है, इस स्थिति में आचार्य आदि के प्रायोग्य द्रव्यों के न मिलने पर तथा आगाढः योगवाही मुनियों के लिए प्रायोग्य की प्राप्ति न होने पर मासकल्पप्रायोग्य क्षेत्र को छोड़कर अन्यत्र जाया जा सकता है। २७५७. एएहिं कारणेहिं एक-दगंतर तियंतरं वा वि संकममाणो खेत्तं, पुट्टो वि जओ नऽइक्कमइ ॥ इन सभी कारणों से एक, दो, तीन अपान्तराल क्षेत्रों का अतिक्रमण कर आगे बढ़ने वाला मुनि पूर्वोक्त दोषों से स्पृष्ट होने पर भी दोषवान् नहीं होता क्योंकि वह यतनापूर्वक वैसा कर रहा है, वह यतनावान् मुनि है । २७५८.निक्कारणगमणम्मिं, जे च्चिय आलंबणा उ पडिकुट्ठा । कज्जम्मि संकमंतो, तेहिं चिय सुज्झई जयणा ॥ निष्कारण क्षेत्रसंक्रमण करने में जो आचार्य साधुचैत्यवंदन आदि आलंबन प्रतिकृष्ट प्रतिषिद्ध हैं तथा कार्य अर्थात् द्वितीयपद में ज्ञान दर्शन आदि की शुद्धि के लिए उन्हीं आचार्य आदि के आलंबनों से संक्रमण करता हुआ, यतनावान् मुनि अदोषभाग होता है। - वेरज्ज - विरुद्धरज्ज -पदं नो कप्पs निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा बेरज्ज विरुद्धरज्जंसि सज्जं गमणं सज्जं ४. भावागाढ़ - ग्लान प्रायोग्य द्रव्य की अप्राप्ति वाला। ५. पुरुषागाढ़ - आचार्य आदि विशिष्ट पुरुषों के लिए अकारक । ६. चिकित्सागाढ़ - वैद्यों से रहित क्षेत्र । ७. सहायागाढ़ - सहायकों की प्राप्ति रहित । (बृ. पृ. ७७७) www.jainelibrary.arg Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० आगमणं सज्जंगमणागमणं करेत्तए। जो खलु निग्गंथो वा निग्गंथी वा वेरज्ज-विरुद्धरज्जंसि सज्जं गमणं सज्जं आगमणं सज्जं गमणागमणं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ, से दुहओ 'वि अइक्कममाणे' आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं॥ (सूत्र ३७) २७५९.चारो त्ति अइपसंगा, विरुद्धरज्जे वि मा चरिज्जाहि। __ इय एसो उवधाओ, वेरज्जविरुद्धसुत्तस्स॥ हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में विहरण करना कल्पता है, ऐसे कहना अतिप्रसंग हो जायेगा। प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है कि विरुद्धराज्य में विहरण नहीं करना चाहिए इस अभिप्राय से यह सूत्र प्रारंभ किया जाता है। यह विरुद्धराज्यसूत्र का उपोद्घात है, संबंध है। २७६०.वेरं जत्थ उ रज्जे, वेरं जायं व वेररज्जं वा। जं च विरज्जइ रज्ज, रज्जेणं विगयरायं वा॥ जिस राज्य के साथ परंपरागत वैर है, वह वैराज्य कहलाता है। अथवा दो राज्यों के मध्य जो वैर हो गया है, वह वैराज्य है। अथवा परकीय राज्य से जो विरोध में प्रसन्न रहता है, वह वैराज्य है। अथवा जो विवक्षित राजा के साथ विरोध रखता है, वह वैराज्य है। अथवा जहां का राजा मर गया हो, जहां कोई राजा न हो, वह वैराज्य है। जहां दो राज्यों के मध्य गमनागमन विरुद्ध हो, वह विरुद्धराज्य कहलाता है। २७६१.सज्जग्गहणा तीय, अणागयं चेव वारियं वरं। पन्नवग पडुच्च गयं, होज्जाऽऽगमणं व उभयं वा॥ जहां सद्य अथवा वर्तमानकालभावी वैर हो, वहां गमनागमन नहीं कल्पता। इससे अतीत और अनागत वैर वाले क्षेत्र में भी गमनादिक निवारित हो जाता है। प्रज्ञापक (गुरु) की अपेक्षा 'गत' अर्थात् गमन या आगमन तथा दोनोंगमनागमन होता है। (जहां प्रज्ञापक हो वहां से अन्यत्र जाना गमन और दूसरे स्थान से प्रज्ञापक के पास आना आगमन है। जाकर लौट आना गमनागमन कहलाता है।) २७६२.नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले य भाववेरे या तं महिस-वसभ-वग्धा-सीहा नरएसु सिज्झणया॥ वैर शब्द के छह निक्षेप हैं-नामवैर, स्थापनावैर, द्रव्यवैर, क्षेत्रवैर, कालवैर और भाववैर। भाववैर संबंधी यह दृष्टांत १. दृष्टान्त के लिए देखें-कथा परिशिष्ट, नं. ७९। =बृहत्कल्पभाष्यम् है-महिष-वृषभ-व्याघ्र-सिंह-मनुष्य-सिद्धगति को प्राप्त हो गए। २७६३.अणराए जुवराए, तत्तो वेरज्जए अ बेरज्जे। एत्तो एक्किक्कम्मि उ, चाउम्मासा भवे गुरुगा। इसी प्रकार अराजक, यौवराज्य, वैराज्य और द्वैराज्यइन चारों में गमनागमन करने से, प्रत्येक में चतुर्गुरु मास का प्रायश्चित्त विहित है। (पहले में तप और काल से गुरु, दूसरे में कालगुरु, तीसरे में तपोगुरु और चौथे में दोनों से गुरु।) २७६४.अणरायं निवमरणे, जुवराया जाव दोच्च णऽभिसित्तो। वेरज्जं तु परबलं, दाइयकलहो उ बेरज्जं॥ राजा के मर जाने पर जब तक दूसरे राजा तथा युवराजा का अभिषेक नहीं होता तब तक वह राज्य 'अराजक' कहलाता है। जब तक पूर्व युवराजा अपने दूसरे युवराजा का अभिषेक नहीं करता, तब तक वह राज्य 'यौवराज्य' कहलाता है। जिस राज्य में शत्रुराजा आकर उपद्रव मचाता है वह 'वैराज्य' कहलाता है। एक ही राज्य के दो दायक हों और वे परस्पर कलह कर रहे हों, वह द्वैराज्य कहलाता है। २७६५.अविरुद्धा वाणियगा, गमणाऽऽगमणंच होइ अविरुद्धं। निस्संचार विरुद्धे, न कप्पए बंधणाईया।। जिस राज्य में वणिकों का गमनागमन अविरुद्ध है, वहां मुनियों का भी गमनागमन अविरुद्ध है। जहां वणिकों का संचरण निषिद्ध है, उस विरुद्ध राज्य में मुनियों को संचरण नहीं कल्पता। वहां जाने से बंधन आदि दोष होते हैं। २७६६.अत्ताण चोर मेया, वग्गुर सोणिय पलाइणो पहिया। पडिचरगा य सहाया, गमणागमणम्मि नायव्वा॥ कितने प्रकार से वहां जाया जाता है, वह इस श्लोक में निर्दिष्ट है-आत्मना (स्वयं) या अत्राण-जो कार्पटिक आदि देशान्तर जाते हैं, उनके साथ जाना। इसी प्रकार चौरों के साथ, मेद-म्लेच्छविशेषों के साथ, वागुरिकशौनिक-इनके साथ, पलायन करने वाले भटों के साथ, पथिकप्रतिचरक (गुप्तचर)-ये आठ प्रकार के व्यक्ति वैराज्य में गमनागमन करने में मुनियों के सहायक होते हैं। २७६७.अत्ताणमाइएसुं, दिय पह दिढे य अट्ठिया भयणा। एत्तो एगयरेणं, गमणागमणम्मि आणाई।। आत्मा (स्वयं) या अत्राण आदि पदों में प्रत्येक सहायक में दिवा-पथ-दृष्टपदों से सप्रतिपक्ष से आठ प्रकार से भजना होती है-आठ-आठ विकल्प होते हैं। इन आठ भेदों के, प्रत्येक के आठ-आठ प्रकार होते हैं। इनमें से किसी भी Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक प्रकार से जो गमनागमन करता है उसके आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। (आठ भंग ये हैं१. बिना किसी सहायक के आत्मना-स्वयं दिन में, मार्ग से, राजपुरुषों द्वारा दृष्ट, जाते हैं। २. आत्मना दिन में मार्ग से राजपुरुषों द्वारा अदृष्ट। ३. आत्मना दिन में उन्मार्ग से राजपुरुषों द्वारा दृष्ट। ४. आत्मना दिन में उन्मार्ग से राजपुरुषों द्वारा अदृष्ट। ५. आत्मना रात्री में मार्ग से राजपुरुषों द्वारा दृष्ट। ६. आत्मना रात्रि में मार्ग से राजपुरुषों द्वारा अदृष्ट। ७. आत्मना रात्री में उन्मार्ग से राजपुरुषों द्वारा दृष्ट। ८. आत्मना रात्री में उन्मार्ग से राजपुरुषों द्वारा अदृष्ट। इसी प्रकार चौर आदि के साथ प्रतिचरकान्त तकप्रत्येक के आठ-आठ भंग होते हैं।) २७६८.अत्ताणमाइएसुं, दिय-पह-दिवेसु चलउहू होति। राओ अपह अदिढे, चउगुरुगाऽइक्कमे मूलं॥ आत्मा या अत्राण आदि पदों में दिवा, पथ दृष्ट-इनमें तथा इनके प्रतिपक्ष में गमनागमन करने से चतुर्लघु प्रायश्चित्त है। जो रात्री विषयक चार भंग हैं, उनमें अपथ और अदृष्ट पदों में चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। अतिक्रम करने पर मूल का प्रायश्चित्त है। २७६९.अत्ताणमाइयाणं, अट्ठण्हऽट्ठहि पएहिं भइयाणं। चउसट्ठिए पयाणं, विराहणा होइमा दुविहा॥ आत्मा या अत्राण आदि आठ पदों को आठ भंगों के साथ भक्त करने पर, गुणित करने पर चौंसठ पद होते हैं। इन चौसठ पदों में से किसी भी पद या भंग में गमनागमन करने पर दोनों प्रकार की विराधना-आत्मविराधना और संयमविराधना होती है। २७७०.छक्काय गहणकङ्कण, पंथं भित्तूण चेव अइगमणं। सुन्नम्मि य अइगमणे, विराहणा दुण्ह वग्गाणं॥ षट्काय की विराधना होती है-यह संयमविराधना है। राजपुरुषों द्वारा ग्रहण और आकर्षण होने पर यह आत्म- विराधना है। वे मुनि यदि मार्ग को छोड़कर, उत्पथ से परजनपद में प्रवेश करते हैं तो अत्यधिक अपराधी माने जाते हैं। शून्य अर्थात् स्थानपालविरहित मार्ग से अतिगमन-प्रवेश करते हैं तो मुनियों तथा सहायकों-दोनों की विराधना मानी जाती है, दोनों अपराधी होते हैं। २७७१.छक्काय चउसु लहुगा, परित्त लहुगा य गुरुग साहारे। संघट्टण परितावण, लहु गुरुगऽइवायणे मूलं॥ छह कायों में से चार काय-पृथ्वी, अप, तेजो और वायु २८१ तथा परित्त वनस्पतिकाय का संघट्टन होने पर लघुमास, साहार-अनन्तवनस्पति काय के संघट्टन में गुरु, द्वीन्द्रिय आदि के संघट्टन में लघु और परितापन में गुरु और इनका अतिपात होने पर मूल। २७७२.संजय-गिहि-तदुभयभहया य तह तदुभयस्स वि य पंता। चउभंगो गोम्मिएहिं, संजयभद्दा विसज्जेंति॥ गोल्मिक (स्थानपालक) द्वारा निर्दिष्ट मार्ग-रक्षक। उनकी चतुर्भंगी इस प्रकार है १. संयतभद्रक गृहस्थप्रान्त। २. गृहस्थभद्रक संयतप्रान्त। ३. दोनों के प्रति भद्रक। ४. दोनों के प्रति भद्रक नहीं। जो गोल्मिक संयतभद्रक होते हैं (प्रथम, तृतीय भंगवर्ती) वे साधुओं का निरोध नहीं करते। २७७३.संजयभद्दगमुक्के, बीया घेत्तुं गिही वि गिण्हति। जे पुण संजयपंता, गिण्हंति जई गिही मुत्तुं॥ संयतभद्रक गोल्मिकों द्वारा मुक्त साधुओं को द्वितीय भंगवर्ती संयतप्रान्त गोल्मिक उनको पकड़ लेते हैं। तथा उनके साथ वाले गृहस्थों को भी पकड़ लेते हैं। जो गोल्मिक संयतों के प्रति प्रद्विष्ट होते हैं, वे संयतों का ग्रहण कर लेते हैं और साथ वाले गृहस्थों को मुक्त कर देते हैं। २७७४.पढम-तइयमुक्काणं, रज्जे दिवाण दोण्ह वि विणासो। पररज्जपवेसेवं, जओ वि णिती तहिं पेवं॥ प्रथम और तृतीय भंगवर्ती स्थानपालकों द्वारा मुक्त साधु यदि परराज्य में प्रविष्ट होते हैं और राजपुरुष उन्हें देख लेते हैं तो दोनों संयतों और स्थानपालकों का विनाश होता है। परराज्य में प्रवेश के ये दोष कहे गए हैं। तथा जिस राज्य से निर्गमन करते हैं वहां भी ये ही दोष होते हैं। २७७५.रक्खिज्जइ वा पंथो, जइ तं भित्तूण जणवयमइंति। गाढतरं अवराहो, सुत्ते सुन्ने व दोण्हं पि॥ जिस मार्ग की स्थानपालक रक्षा करते हैं, उस मार्ग को छोड़कर जो मुनि उत्पथ से परराज्य के जनपद में प्रवेश करता है तो यह गाढ़तर-महान् अपराध माना जाता है। यह केवल साधु का अपराध है। यदि स्थानपालक सोए हुए हों या वह स्थान सूना हो और साधु यदि जाते हैं तो साधु और स्थानपालक-दोनों का अपराध माना जाता है। २७७६.गण्हणे गुरुगा छम्मास कड्ढणे छेओ होइ ववहारे। पच्छाकडे य मूलं, उड्डहण विरुंगणे नवमं॥ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ २७७७ उहावण निव्विसए एनमणेगे पओस पारंची। अणवटुप्पो दोसु य, दोसु य पारंचिओ होइ ॥ अन्य राज्य की सीमा में चोरी से प्रवेश करते हुए साधु को देखकर यदि आरक्षक उसे पकड़ ले तो चतुर्गुरुक, आकर्षण करने पर षड्गुरुमास, व्यवहार न्यायपालिका में ले जाने पर छेद, व्यवहार में यदि वह पश्चात्कृत - पराजित हो जाता है तो मूल, चौराहे पर उसकी उद्दा- भर्त्सन होने पर तथा व्यंगन हाथ-पैर आदि काटे जाने पर नौवां अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त आता है। राजा द्वारा अपद्रावित या देशनिष्काशन दिए जाने पर अथवा एक साधु के अपराध पर अनेक साधुओं पर प्रद्विष्ट हो जाने पर पारांचिक तथा उद्दहन और व्यंगन दोनों करने पर अनवस्थाप्य तथा अपद्रावण और निर्विषयी दोनों करने पर पारांचिक प्रायश्चित्त आता है। २७७८. एमेव सेसएहि वि, चोराईहि समगं तु वच्यते । सविसेसयरा बोसा पत्थारो जाव भंसणया ॥ इसी प्रकार चोर-प्रतिचरक आदि शेष सहायकों के साथ जाने पर भी वे ही दोष होते हैं। सविशेष यह होता है कि उन साधुओं के दोष से कुल, गण, संघ का प्रस्तार होता हैउनका ग्रहण आकर्षण होता है तथा जीवितव्य और चारित्र की भ्रंसना भी हो सकती है। । २७७९. ते डुम्मि पसज्जण, निस्संकिए मूल अहिमरे चरिमं जइ ताव होंति भद्दय, दोसा ते तं चिमं चऽन्नं ॥ चोरों के साथ जाने पर चोरी आदि करता है, कराता है। या अनुसंधान करता है, यह प्रसज्जना है। यह स्तेन है यह आशंका होने पर चतुर्गुरु, निःशंकित होने पर 'मूल' और यह 'अभिमर' है, यह होने पर चरम प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यदि स्थानपालक भद्र होते हैं, उनके द्वारा विसर्जित और परराष्ट्र में प्रविष्ट साधुओं के लिए वे ही दोष होते हैं तथा ये अन्य दोष भी होते हैं। २७८०. आयरिय उवज्झाया, कुल गण संघो य चेहयाई च सव्ये वि परिच्चत्ता, वेरज्जं संकमंतेणं ॥ वेराज्य में संक्रमण करने वाला मुनि, आचार्य, उपाध्याय, कुल, गण, संघ और चैत्य - इन सबको परित्यक्त कर देता है। २७८१. किं आगय त्थ ते बिंति संति णे इत्थ आयरियमादी | उग्घाएमो रुक्खे, मा एंतु फलत्थिणो सउणा ॥ वहां जाने पर राजपुरुष साधुओं को पूछते हैं - यहां क्यों आए हैं ? वे कहते हैं-'यहां हमारे आचार्य आदि हैं।' तब राजपुरुष कहते हैं-फलार्थी पक्षी वृक्षों के पास आते हैं। इसलिए हम उन वृक्षों को ही उखाड़ देते हैं, जिससे कि पक्षी बृहत्कल्पभाष्यम् वहां न आए। ( इसी प्रकार हम उन आचार्य आदि का ही विनाश कर देते हैं कि उनके पास कोई न आए।) २७८२. एयारिसे विहारो, न कप्पई समणसुविहियाणं तु । दो सीमेऽइक्कमई, जिणसीमं रायसीमं च॥ अतः सुविहित श्रमणों का ऐसे वैराज्य - विरुद्धराज्य में विहार नहीं कल्पता । वहां जाने वाला मुनि दो सीमाओं का अतिक्रमण करता है - जिनसीमा और राजसीमा । २७८३. बंधं वहं च घोरं आवज्जह एरिसे विहरमाणो । तम्हा उ विवज्जेज्जा, वेरज्ज - विरुद्धसंकमणं ॥ वैराज्य विरुद्ध राज्य में गमनागमन का विवर्जन करे, क्योंकि वहां जाने पर घोर बंधन तथा वध आदि की प्राप्ति हो सकती है। २७८४. दंसण नाणे माता, भत्तविसोही गिलाणमायरिए । अधिकरण वाद वाद राय कुलसंगते कप्पई गंतुं ॥ अपवाद स्वरूप वहां जाया जा सकता है। ज्ञान और दर्शन की प्राप्ति के लिए, माता-पिता को संबोध देने के लिए, किसी भक्त प्रत्याख्यान करने वाले साधु की विशोधि के लिए, ग्लान की परिचर्या के लिए, आचार्य के आदेश से अधिकरण के उपशमन के लिए, बाद करने के लिए, द्विष्ट राजा को उपशांत करने के लिए कुल गण संघ के कार्य के लिए उस राज्य में जाना कल्पता है। , २७८५. सुत्तत्तदुभयविसारयम्मि पडिवन्न उत्तिमम्मि । एतारिसम्मि कप्पा, वेरज्ज- विरुद्धसंकमणं ।। वैराज्य विरुद्ध राज्य में कोई आचार्य सूत्र, अर्थ और तदुभय में विशारद हैं। उन्होंने अनशन को स्वीकार कर लिया है। उनसे सूत्रार्थ का ज्ञान लेने के लिए उस राज्य में संक्रमण करना कल्पता है। २७८६. आपुच्छि आरक्खिय सेडि सेणावई - अमच्य राईणं । अइगमणे निग्गमणे, एस विही होइ नायव्वो । परराज्य में अतिगमन- प्रवेश और निर्गमन की यह विधि हे साधु पहले आरक्षिक को पूछे। अनुज्ञा न मिलने पर क्रमशः इनको पूछे - श्रेष्ठी, सेनापति, अमात्य और राजा । २७८७, आरक्खितो विसज्जइ, अव भणिज्जा स पुच्छह तु सेट्ठि । जव निवोता नेयं, मुद्दा पुरिसो व दूतेणं ॥ आरक्षिक को पूछने पर यदि वह विसर्जित करता है, अनुज्ञा देता है तो ठीक है अथवा वह यह कहे श्रेष्ठी को पूछो तो श्रेष्ठी को पूछना चाहिए। इसी प्रकार यावत् राजा को पूछना चाहिए । राजा की आज्ञा मिलने पर मुद्रापट्टक और दूतपुरुष को साथ भेजने की मांग करनी चाहिए । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक २८३ २७८८.जत्थ वि य गंतुकामा, तत्थ वि कारिंति तेसि नायं तु। वा उवनिमंतेज्जा, कप्पइ से सागारकडं .. आरक्खियाइ ते वि य, तेणेव कमेण पुच्छंति॥ गहाय आयरियपायमूले ठवेत्ता दोच्चं पि जिस राज्य में साधु जाना चाहे और यदि वहां साधु हो उग्गहं अणुण्णवेत्ता परिहारं परिहरित्तए॥ तो उनको अवगत कराना चाहिए कि हम आ रहे हैं। तब तत्रस्थित मुनि भी वहां के आरक्षिकों आदि को उसी क्रम से (सूत्र ३८) पूछते हैं। उनकी अनुज्ञा मिलने पर उन साधुओं को यह कहलवा देते हैं कि यहां आने की अनुमति प्राप्त हो गई है। २७९२.अविरुद्ध भिक्खगतं, कोइ निमंतेज्ज वत्थमाईहिं। २७८९.राईण दोण्ह भंडण, आयरिए आसियावणं होइ। कारण विरुद्धचारी, विगिंचितो वा वि गेण्हेज्जा॥ ___ कयकरणे करणं वा, निवेद जयणाए संकमणं॥ कोई साधु अविरुद्ध अर्थात् विरुद्धराज्यविरहित ग्राम दो राजाओं में परस्पर कलह चल रहा था। एक राज्य में आदि में भिक्षा के लिए गया। वहां कोई उपासक वस्त्र आदि जो आचार्य थे, उनके प्रति राजा का अतीव सत्कार ग्रहण करने के लिए निमंत्रण दे अथवा विरुद्धराज्यचारी आदरभाव था। दूसरे राजा ने उन आचार्यों का 'असिवायण' किसी मुनि के वस्त्र स्तेनों ने चुरा लिए हों और वह वस्त्र अपहरण कर दिया। यदि कोई 'कतकरण' साधु हो, वह ग्रहण करता है तो वस्त्र-ग्रहण की विधि बतलाई जाती है। अपहरणकर्ता के साथ 'करण' युद्ध कर आचार्य को मुक्त कर २७९३.अहवा लोइयतेण्णं, निवसीम अइच्छिए इमं भणितं । देता है। यदि कोई कृतकरण न हो तो अपहर्ता राजा से दोच्चमणणुन्नवेडं, उत्तरियं वत्थभोगादी॥ निवेदन कर यतनापूर्वक शेष साधु वहां से संक्रमण कर दें। अथवा नृपति की सीमा का अतिक्रमण करना लौकिक२७९०.अब्भरहियस्स हरणे, उज्जाणाईठियस्स गरुणो उ। स्तैन्य है-यह पूर्वसूत्र में कथित है। प्रस्तुत सूत्र में दूसरी बार उव्वट्टणासमत्थे, दूरगए वा वि सवि बोलं॥ अवग्रह अर्थात् आचार्य को बिना ज्ञापित किए, बिना अनुज्ञा २७९१.पेसवियम्मि अदेंते, रन्ना जइ विउ विसज्जिया सिस्सा। लिए जो मुनि वस्त्र का परिभोग, धारण आदि करता है तो गुरुणो निवेइयम्मि, हारिंतगराइणो पुव्विं॥ यह लोकोत्तरिकस्तैन्य होता है। उद्यान आदि में स्थित अभ्यर्हित गुरु का हरण कर लिया २७९४.दुविहं च होइ वत्थं, जायणवत्थं निमंतणाए य। जाता है। कोई उद्वर्तनासमर्थ होता है वह आचार्य को छुड़ा निमंतणवत्थं ठप्पं, जायणवत्थं तु वोच्छामि। लेता है। यदि उद्वर्तना समर्थ कोई नहीं होता है तो अपहर्ता वस्त्र के दो प्रकार हैं-याञ्चावस्त्र और निमंत्रणावस्त्र। जब दूर चला जाता है तब सभी साध बाढ स्वरों से निमंत्रणावस्त्र स्थाप्य हैं अर्थात् उनके विषय में बाद में कहा चिल्लाते हैं कि हमारे आचार्य का अपहरण हुआ है। यह जाएगा। याञ्चावस्त्र के विषय में अभी कहूंगा।' सुनकर राजा अपने दूत को भेजता है। आचार्य को समर्पित न २७९५.एयं जायणवत्थं, भणियं एत्तो निमंतणं वोच्छं। करने पर शिष्य राजा को कहते हैं हमको वहां भेज दो। राजा पुच्छादुगपरिसुद्धं, पुणरवि पुच्छेज्जिमा मेरा॥ उनको विसर्जित कर देता है, जाने की अनुज्ञा दे देता है तो इस प्रकार याञ्चावस्त्र विषयक कथन किया गया है। भी उस अपर राज्य में अपहृत गुरु को निवेदन करवाना आगे निमंत्रणावस्त्र की बात कहूंगा। जो निमंत्रणावस्त्र दो चाहिए कि हम भी वहां आ रहे हैं। तब गुरु उस अपर राज्य प्रश्नों-'यह वस्त्र किसका है?' क्या यह प्रतिदिन निवसनीय के राजा को जिसने अपहरण किया था, निवेदन करते हैं कि था? से परिशुद्ध होने पर पुनः तीसरी पृच्छा से पूछे। उसकी 'मेरे शिष्य यहां आ रहे हैं। आप अपने स्थानपालकों को यह मेरा-सामाचारी है। आदेश दें कि वे उनको निरुद्ध न करें।' २७९६.विउसग्ग जोग संघाडएण भोइयकुले तिविह पुच्छा। कस्स इमं किं व इम, कस्स व कज्जे लहुग आणा॥ ओग्गह-पदं मुनि व्युत्सर्ग और योग करके एक दूसरे मुनि को साथ ले भिक्षा के लिए निकलता है। वह भोगिककुल में गया। वहां निग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिंडवाय वस्त्र के लिए निमंत्रित होने पर वह तीन प्रकार की पृच्छा पडियाए अणुप्पविर्से केइ वत्थेण वा करे-(१) यह वस्त्र किसका है? (२) पहले यह क्या था? पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पाय-पुंछणेण यह किस प्रयोजन से दे रहे हो?-यदि ऐसा नहीं पूछा जाता १. वृत्तिकार ने यहां पीठिकान्तरगत वस्त्रकल्पिक द्वार की ४६ गाथाओं (६०२ से ६४८ तक) को यथावत् ग्रहण करने की बात कही है। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ है तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष प्राप्त होते हैं। २७९७. मिच्छत्त सोच्च संका, विराहणा भोइए तहिं गए वा । चड व विंटलं वा, वेंटल दाणं च वबहारो ॥ भोगिनी द्वारा दिए गए वस्त्र की बात सुनकर भोगिक में मिथ्यात्व आ सकता है, उसे शंका हो सकती है। भोगिक के वहां रहते या देशान्तर में चले जाने पर, वहां से लौट आने पर यह विराधना होती है वह स्त्री मैथुन की याचना करे या वेंटल ( वशीकरण प्रयोग) आदि का प्रयोग पूछे तो वह मुनि इन बातों को नकारता हुआ उसको कहे ऐसा करना हमें नहीं कल्पता । यदि वह स्त्री वस्त्र को लौटाने के लिए कहे तो उसे यह वस्त्र लाकर दे दे। यदि वह वस्त्र अन्य किसी के काम आ गया हो और वह स्त्री उसी वस्त्र के लिए आग्रह करे तो राजकुल में शिकायत करे। २७९८. वत्थम्मि नीणियम्मिं, किं दलसि अपुच्छिऊण जह गेहे । अन्नरस भोयगस्स ब. संका घडिया णु किं पुव्विं ॥ भोगिनी के द्वारा वस्त्र दिए जाने पर यदि 'क्यों दे रही हो ?' यह पूछे बिना ही यदि वस्त्र का ग्रहण किया जाता है तो उस स्त्री के पति या अन्य घर वालों (श्वसुर देवर) को शंका होती है। वे सोचते हैं-इन दोनों के परस्पर पहले से ही कोई संबंध रहा है कि वस्त्र का दान और ग्रहण मौन भावं से किया जा रहा है। २७९९.मिच्छत्तं गच्छेज्जा, दिज्जंतं दट्टु भोयओ तीसे । वोच्छेद पओसं वा एगमणेमाण सो कुज्जा ॥ उस भोगिनी को वस्त्र देते हुए देखकर उसका पति (भोगिक) मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकता है। तब वह उस एक साधु या अनेक साधुओं के प्रति प्रविष्ट होकर दान देने का व्यवच्छेद कर सकता है। २८००. एमेव पउथे भोइयम्मि तुसिणीयदान महणे तु । महतरगादीकहिए, एगतर पतोस वोच्छेदो ॥ २८०१. मेहुणसंकमसंके, गुरुगा मूलं च वेंटले लहुगा । संकमसंके गुरुगा, सविसेसतरा पउत्थम्मि ॥ इसी प्रकार प्रोषित - देशान्तर गए हुए भोगिक के विषय में भी दोष जानने चाहिए। जब भोगिक देशान्तर से लौटा तब महत्तरिका, दासी आदि ने भोगिनी और मुनि के मौन दान और ग्रहण की बात कही। तब वह भोगिक अपनी पत्नी या मुनि के प्रति प्रद्विष्ट हो जाता है तब वह उस मुनि का या समस्त मुनियों के दान का व्यवच्छेद कर डालता है। इस बृहत्कल्पभाष्यम् प्रसंग में मैथुन की शंका होने पर चतुर्गुरु और निःशंकित होने पर मूल का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। वेंटल की शंका होने पर चतुर्लघु और निःशंकित होने पर चतुर्गुरु । प्रोषितभर्तृक में विशेषतर दोष होते हैं, उनका यथास्थान पहले ही निर्देश कर दिया गया है। २८०२. एवं ता गेण्हते, गहिए दोसा पुणो इमे होंति । घरगयमुवस्सए वा, ओभासइ पुच्छए वा वि ॥ वस्त्र को ग्रहण करते हुए ये दोष होते हैं। वस्त्र को ग्रहण करने के पश्चात् ये दोष होते हैं। उसी घर में जब वह मुनि जाता है या उस घर की स्त्री उपाश्रय में आती है तब वह मैथुन के लिए कहती है अथवा बॅटल वशीकरण के लिए पूछती है। २८०३. पुच्छाहीणं गहियं आगमणं पुच्छणा निमित्तस्स । छिन्नं पि हु दायव्वं ववहारो लब्भए तत् ॥ मुनि ने वस्त्र ग्रहण काल में बिना पूछे ही वस्त्र ले लिया । तब वह स्त्री उपाश्रय में आकर निमित्त विषयक बात पूछती है। न बताने पर वस्त्र को लौटाने की बात कहती है। तब वस्त्र देना चाहिए वस्त्र को फाड़ डाला हो तो भी उसे वह दे देना चाहिए। यदि वह छिन्न वस्त्र न ले तो राजकुल में व्यवहार के लिए जाना चाहिए। वहां के कारणिक (न्याय करने वालों के) समक्ष यह व्यवहार प्राप्त होने की बात कहनी चाहिए। एक व्यक्ति ने वृक्ष बेचा खरीददार ने उसकी लकड़ियां बना घर ले गया। अब बेचने वाला कहता है-मूल्य लेकर मेरा वृक्ष मुझे दो क्या उसको वृक्ष लौटाया जा सकता है? इसी प्रकार वस्त्र के खंड कर दिए जाने पर, खंड ही लौटाए जा सकते हैं, पूरा वस्त्र नहीं। २८०४. पाहुणएणऽण्णेण व नीयं व हियं व होइ द वा तहियं अणुसहाई, अन्नं वा दड्ढ वह मोतृणं ॥ वह वस्त्र प्राघूर्णक मुनि द्वारा अन्यत्र ले जाया गया हो, या चोरों ने उसका हरण कर लिया हो या अग्नि द्वारा जल गया हो तो दाता को धर्मकथा कहकर समझाना चाहिए। दग्ध वस्त्र को छोड़कर उसे अन्य वस्त्र देना चाहिए। २८०५. न वि जाणामो निमित्तं, न य णे कप्पह पउंजिडं गिहिणो । परदारदोसकहणं, तं मम माया य भगिणी य॥ वह दात्री स्त्री मैथुन या वेंटल की बात कहे तो मुनि उसे कहे-हम निमित्तशास्त्र नहीं जानते तथा गृहस्थों को उस विषय में बताना भी हमें नहीं कल्पता मैथुन की याचना Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक करने पर उसे परदारदोष की बात समझाए और कहे तुम मेरी मां हो, बहिन हो। २८०६. एक्स्स व एक्कस्स व, कज्जे दिज्जंत गिण्हई जो उ । ते चैव तस्स दोसा, बालम्मि य भावसंबंधो ॥ पूर्वसंबंध या पश्चात् संबंध के प्रयोजन से दिए जाने वाले और ग्रहण किए जाने वाले वस्त्र के वे ही पूर्वोक्त दोष होते हैं। बालविषयक भावसंबंध आगे प्रतिपाद्य हैं। २८०७. अहवण पुट्ठा पुव्वेण पच्छबंधेण वा सरिसमाह । ww संकाइया उ तत्थ वि, कडगा य बहू महिलियाणं ।। अथवा उस वस्त्रदात्री को पूछने पर वह पूर्वसंबंध के आधार पर कहती है-जैसा मेरा भाई है वैसे ही तुम दीख रहे हो, और पश्चात्संबंध के आधार पर कहती है-तुम मेरे पति के सदृश दीख रहे हो यदि इस कथन द्वारा दिए जाने वाले वस्त्र को मुनि ग्रहण करता है तो वहां भी शंका आदि दोष होते हैं। महिलाओं में बहुत माया होती है। २८०८. एयोसविमुखं वत्थम्गहणं तु होइ कायव्यं । खमउत्ति दुब्बलो त्ति य, धम्मो त्ति य होति निद्दोसं ॥ इन दोषों से विमुक्त वस्त्रग्रहण करना चाहिए। यदि दात्री कहे कि तुम क्षपक तपस्वी हो, दुर्बल हो अथवा वस्त्रदान से धर्म होता है इसलिए तुमको वस्त्र दे रही हूं, तो वह निर्दोष है। , २८०९. आरंभनियत्ताणं, अकिणंताणं अकारविंताणं । धम्मट्ठा दायव्वं, गिहीहि धम्मे कयमणाणं ॥ जो आरंभ से निवृत्त हैं, जो कुछ भी क्रय नहीं करते तथा न दूसरों से आरंभ और क्रय करवाते हैं, जो धर्म में मन लगाए हुए हैं अर्थात् साधु हैं, उनको गृहस्थ धर्म के लिए दान दें। २८१०. संघाइए पविद्वे, रायणिए तह य ओमरायणिए । जं लब्भइ पाओग्गं रायणिए उग्गहो होइ ॥ एक संघाटक अर्थात् दो मुनि भिक्षा के लिए गए। एक रात्निक है, दूसरा उससे छोटा है जो कुछ प्रायोग्य प्राप्त होता है, वह सारा रात्निक मुनि का अवग्रह होता है, वह उसका स्वामी है। २८११. दोच्चं पि उग्गहो त्ति य, hs गिहत्थेसु दोच्चमिच्छंति । साग ! गुरुणो नयामो, अणिच्छे पच्चाहरिस्सामो ॥ दूसरी बार भी अवग्रह की अनुज्ञा लेनी चाहिए। यह जो सूत्र में आल कही है, उसकी अर्थाभिव्यक्ति कुछ आचार्य यह करते हैं कि गृहस्थ से दूसरी बार अवग्रह की अनुज्ञा लेनी २८५ चाहिए। वह कहे - श्रावक ! हम वह वस्त्र गुरु के पास ले जाते हैं, (यदि वे चाहेंगे तो हम दूसरी बार तुम्हारी अनुज्ञा ले लेंगे।) यदि वे नहीं चाहेंगे तो हम यह वस्त्र तुम्हें लाकर दे देंगे। २८१२. इहरा परिवणिया, तस्स व पच्चप्पिणंति अहिगरणं । गिहिगहणे अहिगरणं, सो वा दडूण वोच्छेदं ॥ यदि ऐसा नहीं करते हैं तो परिष्ठापनिका दोष आता है। अप्रातिहारिक वस्त्र का परिभोग कर गृहस्थ को पुनः लौटाते हैं तो अधिकरण होता है। गृहस्थ उसको लेता है तो भी अधिकरण होता है। यदि उस वस्त्र को अन्य गृहस्थ लेता है, तो पूर्व वस्त्रदाता साधुओं के लिए वस्त्रदान का व्यवच्छेद कर देता है। २८१३. चोयग गुरूपडिसिद्धे, तहिं पउत्थे धरित दिनं तु । धरणुज्झणे अहिगरणं, गेण्डेज्ज सयं व परिणीयं ॥ शिष्य ! तुमने जो दोष बताए हैं, वे सारे दोष तुम्हारी क्रिया में होते हैं। वस्त्र लाकर गुरु को समर्पित किया। उसकी प्रयोजनीयता न होने पर गुरु ने उसका प्रतिषेध दिया। शिष्य को ग्रामान्तर भेज दिया। यदि वह वस्त्र का परिभोग करता है तो वह अदत्तादान है। अमुक का मानकर उस वस्त्र को धारण करता है या परिष्ठापना करता है तो अधिकरण तथा परिष्ठापना दोष लगता है वह उस प्रतिनीत वस्त्र को स्वीकार कर लेता है, लौटाता नहीं। अतः द्वितीय अवग्रह गृहस्थ का नहीं, आचार्य का ही होता है। निग्गंथं च णं बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खतं समाणं केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा उवनिमंतेज्जा, कप्पड़ से सागारकडे गहाय आयरियपायमूले ठवेत्ता दोच्चं पि ओम्हं अणण्णुवेत्ता परिहारं परिहरित्तए ॥ (सूत्र ३९) २८१४. बहिया व निग्गयाणं जायणवत्थं तहेव जयणाए । निमंतणवत्थे तहेव, सुखमसुद्धं च खमगादी ॥ बहिः का अर्थ है-विचारभूमी (संज्ञाभूमी) या विहारभूमी ( स्वाध्यायभूमी) में निर्गत साधुओं का याञ्चावस्त्र पूर्वोक्त यतनापूर्वक ग्रहण करना कल्पता है निमंत्रण वस्त्र भी उसी प्रकार (गाथा २७९५ आदि) शुद्ध या अशुद्ध होता है। शुद्ध वह है जो क्षपक को या धर्म की बुद्धि से दिया जाता है। अशुद्ध वह है जो मैथुन - वेंटल आदि कार्य के लिए दिया जाता है। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ निग्गंथिं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविद्धं 'केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा उवनिमंतेज्जा, कप्पर से सागारकडं गाय' पवत्तिणिपायमूले ठवेत्ता दोच्चं पि ओग्गहं अणुवेत्ता परिहार परिहरित्तए । (सूत्र ४०) निग्गंथिं च णं बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा 'निक्खतं समाणिं केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा उवनिमंतेज्जा, कप्पइ से सागारकडं गहाय पवत्तिणी पायमूले ठवेत्ता दोच्चं पि ओग्गहं अणण्णुवेत्ता' परिहारं परिहरित्तए ॥ (सूत्र ४१) २८१५.निग्गंथिवत्थगहणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्घाया । मिच्छत्ते संकाई, पसज्जणा जाव चरिमपदं ॥ साध्वी यदि गृहस्थ से वस्त्र ग्रहण करती है तो उसे चार अनुद्घात - गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। मिथ्यात्व, शंका आदि दोष होते हैं तथा प्रसजनाः यावत् पारांचिक पर्यन्त प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। २८१६. पुरिसेहिंतो वत्थं, गिण्हंतिं दिस्स संकमादीया । ओभासणा चउत्थे, पडिसिद्धे करेज्ज उड्डाहं ॥ पुरुषों से वस्त्र - ग्रहण करती हुई साध्वी को देखकर शंका आदि दोष होते हैं। गृहस्थ वस्त्र देकर साध्वी से मैथुन की याचना करता है। प्रतिषेध करने पर वह उड्डाह कर सकता है। २८१७. लोभेअ आभिओगे, विराहणा पट्टएण दिट्टंतो । दायव्व गणहरेणं, तं पि परिच्छित्तु जयणा ॥ स्त्री को सहजतया प्रलुब्ध किया जा सकता है। कोई उसको वस्त्र आदि से लुब्ध करता है, कोई उसको वश में करने के लिए अभियोग का प्रयोग करता है। इससे चारित्र विराधना होती है। यहां पट्टक का दृष्टांत है। इसलिए गणधर ही सात दिनों तक वस्त्र की परीक्षा करके यतनापूर्वक संयतियों को वस्त्र दे) १. प्रसजना नाम - भोजिका घाटिकादि प्रसंगपरंपरा । बृहत्कल्पभाष्यम् २८१८. पगई पेलवसत्ता, लोभिज्जइ जेण तेण वा इत्थी । अवि य हु मोहो दिप्पइ सइरं तासिं सरीरेसु ॥ स्त्री प्रकृति से ही तुच्छधृतिबलवाली होती है, अतः उसे किसी भी प्रकार से प्रलुब्ध किया जा सकता है। वह स्वभावतः प्रबल मोहवाली होती है। जब वह पुरुषों से संलाप करती है या दान ग्रहण करती है तब स्वेच्छा से उसके शरीर में मोह उद्दीप्त होता है। २८१९. वियरग समीवारामे, ससरक्खे पुप्फदाण पट्ट कया । निसि वेल दारपिट्टण, पुच्छा गामेण निच्छुभणं ॥ पट्टक दृष्टांत - एक गांव में बगीचे के पास एक विदरककूपिका थी। वहां स्त्रियां पानी लेने आती थीं। उस बगीचे में एक संन्यासी रहता था। वह उस स्त्री के प्रति आसक्त हो गया। उसने उस स्त्री को अभिमंत्रित फूल दिए। उस स्त्री ने उन फूलों को पट्ट पर रख दिया। वे फूल आधी रात में घर का दरवाजा खटखटाते थे। गृहस्वामी ने सारी बात की जानकारी कर, ग्रामवासियों को वस्तुस्थिति से परिचित करा उस संन्यासी को गांव से निष्कासित कर डाला । २८२०. सत्त दिवसे ठवेत्ता, थेरपरिच्छाऽपरिच्छणे गुरुगा । देइ गणी गणिणीए, गुरुगा सय दाण अट्ठाणे ॥ गणधर साध्वियों के प्रायोग्य वस्त्रों को प्राप्तकर सात दिनों तक उनको स्थापित रखें। फिर उन वस्त्रों से स्थविर मुनि को प्रावृत करे। यदि कोई विकार न हो तो बहुत अच्छा । इस प्रकार परीक्षा करे। यदि बिना परीक्षा किए संयतियों को वस्त्र देते हैं तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है | गणी - गणधर वस्त्रों को गणिनी - प्रवर्तनी को दे । प्रवर्तनी फिर साध्वियों को वितरित करे। यदि आचार्य साध्वियों को वस्त्र देते हैं तो उनको चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। यदि आचार्य स्वयं वस्त्र का दान देते हैं तो उनकी अस्थान में स्थापना होती है - कोई साध्वी कह सकती है-इस साध्वी को सुंदर वस्त्र दे दिया, मुझे यह पुराना वस्त्र दिया है। २८२१. असइ समणाण चोयग ! जाइय- निमंतणवत्थ तह चेव । जयंति थेरि असई, विमिस्सिया मोत्तिमे ठाणे ॥ यदि ऐसा है तो यह सूत्र निरर्थक हो जाएगा, क्योंकि सूत्र में संयतियों को वस्त्र याचना की अनुज्ञा दी है। आचार्य कहते हैं - शिष्य ! सूत्र निरर्थक नहीं होता । श्रमणों के अभाव में स्थविरा साध्वी वस्त्र ग्रहण कर सकती है। याञ्चाप्राप्त और निमंत्रणवस्त्रों के लिए पूर्व विधि ही ज्ञातव्य है । स्थविरा Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक २८७ साध्वी वस्त्र की याचना करे। उसके अभाव में, इन स्थानों को छोड़कर, तरुणी विमिश्रित स्थविरा साध्वी वस्त्र की याचना कर सकती है। वे स्थान ये हैं२८२२.कावालिए य भिक्खू, सुइवादी कुव्विए अ वेसित्थी। वाणियग तरुण संसठ्ठ मेहणे भोइए चेव॥ २८२३.माता पिया य भगिणी, भाउग संबंधिए य तह सन्नी। ___भावितकुलेसु गहणं, असई पडिलोम जयणाए। कापालिक, बौद्ध भिक्षु, शुचिवादी, कूर्चन्धर, वेश्यास्त्री, वणिक, तरुण, संसृष्ट (पूर्वपरिचितउद्भ्रामक), मैथुन-मामा का पुत्र, भोक्ता-पति, माता, पिता, भगिनी, भ्राता, संबंधी तथा श्रावक-इन स्थानों को छोड़कर साध्वियां भावितकुलों से वस्त्र का ग्रहण कर सकती हैं। इन कुलों के अभाव में इन प्रतिषिद्ध स्थानों से प्रतिलोम के क्रम से यतनापूर्वक वस्त्र की याचना की जा सकती है। २८२४.अट्ठी विज्जा कुच्छित, भिक्खु निरुद्धा उ लज्जएऽण्णत्थ। एव दगसोय कुच्चिग, सुइग त्ति य बंभचारित्ता। अस्थि अर्थात् अस्थिसरजस्क कापालिक लोग विद्या या मंत्र से कुत्सित अभिप्राय वाले होते हैं। भिक्षु-बौद्ध भिक्षु, अपनी कामभावना को जबरन निरोध करते हैं और वे अन्यत्र उसकी पूर्ति करने में लज्जा का अनुभव करते हैं, इसलिए वे श्रमणियों के प्रति आसक्त होते हैं। इसी प्रकार दकसौकरिक-परिव्राजक और कूर्चिक-कूर्चन्धर वे भी यह मानते हैं कि श्रमणियां ब्रह्मचारिणी होने के कारण अप्रसवा होती हैं, इसलिए ये शुचिभूत हैं। २८२५.अन्नठवणट्ठ जुन्ना, अभिओगे जा व रूविणी गणिया। भोइग चोरिय दिन्नं, दटुं समणीसु उड्डाहो॥ कोई जीर्ण गणिका अपने स्थान पर अपरगणिका को स्थापित करने के लिए किसी रूपवती श्रमणी के प्रति अभियोग का प्रयोग करती है। किसी मातुलपुत्र ने अपनी भोजिका के वस्त्र को चुराकर साध्वी को दिया। साध्वी को उस वस्त्र से प्रावृत देखकर भोजिका उसका उड्डाह करती है। २८२६.देसिय वाणिय लोभा, सई दिन्नेण उ चिरं पि होहित्ति। तरुणुब्भामग भोयग, संका आतोभयसमुत्था॥ देशान्तर से आया हुआ वणिक् सोचता है यदि इन श्रमणियों को एक बार प्रचुर दान दूंगा तो चिरकाल तक मेरी हो जाएंगी, इस प्रकार वह उनको प्रलुब्ध करता है। तरुण, उद्भ्रामक तथा भोक्ता इनके हाथ से वस्त्र आदि लेने पर शंका तथा आत्मोभयसमुत्थ दोष होते हैं। २८२७.दाहामो णं कस्सइ, नियया सो होहिई सहाओ थे। सन्नी वि संजयाणं, दाहिइ इति विप्परीणामे।। निजक-स्वजन सोचते हैं, इस साध्वी को हम कुछ देंगे तो यह हमारी सहायक होगी। श्रावक सोचता है-यह मेरी होगी तो अनेक मुनियों को दान दे सकेगी। इस सोच से वह उस साध्वी को विपरिणत करता है। २८२८.मग्गंति थेरियाओ, लद्धं पि य थेरियाउ गेण्हति। आगार दट्ठ तरुणीण व देंते तं न गिण्हंति॥ स्थविर साध्वियां वस्त्र की अन्वेषणा करती हैं। प्राप्त होने पर स्थविर साध्वियां ही उन वस्त्रों को ग्रहण करती हैं। वस्त्र दाता स्थविर साध्वी को वस्त्र न देकर, कुछ आकार-इशारे कर कहता है-मैं उस तरुण साध्वी को वस्त्र दूंगा। इस प्रकार वस्त्र देने वाले दाता से वस्त्र न लें। २८२९.सत्त दिवसे ठवित्ता, कप्पे कते थेरिया परिच्छंति। सुद्धस्स होइ धरणा, असुद्ध छेत्तुं परिठ्ठवणा॥ वस्त्र को उपाश्रय में लाकर सात दिन तक स्थापित रखें। फिर उनका कल्प करें, उनका प्रक्षालन करें। कल्प करने के पश्चात् स्थविर मुनि उसका प्रयोग कर परीक्षा करें। यदि शद्ध है तो उसका उपभोग किया जा सकता हैं। अशुद्ध अर्थात् अशुद्ध भावोत्पादक होता है तो खंड-खंड कर उसको परिष्ठापित करना होता है। २८३०.जं पुण पढमं वत्थं, चउकोणा तस्स होति लाभाए। वितिरिच्छंऽता मज्झे, य गरहिया चउगुरू आणा।। वस्त्र से होने वाले लाभ-अलाभ के परिज्ञान का उपायजो पहला वस्त्र प्राप्त होता है उसके यदि चारों कोने अंजनखंजन आदि चिह्न से उपलक्षित हों तो वह लाभ के लिए होता है। वस्त्र के तिरश्चीन दोनों अन्त्यविभाग तथा मध्यविभाग यदि अंजन लेप आदि से चिह्नित हों तो वह गर्हित माना जाता है। इसके ग्रहण से चतुर्गुरु प्रायश्चित्त तथा भगवद् आज्ञा की विराधना होती है। २८३१.नवभागकए वत्थे, चउसु वि कोणेसु होइ वत्थस्स। लाभो विणासमन्ने, अंते मज्झे य जाणाहि॥ वस्त्र के नौ भाग करने पर, चारों कोनों तथा मध्यवर्ती दो भाग यदि अंजन आदि लेप से युक्त हों तो वह लाभ के लिए होता है। वस्त्र के मध्यवर्ती तीन भाग-दो अन्त्यविभाग और एक सर्वमध्यवर्ती विभाग यदि वे लेप युक्त हों तो वह वस्त्र विनाश के लिए होता है। २८३२.अंजण-खंजण-कद्दमलित्ते, मूसगभक्खिय अग्गिविदड्डे। तुन्नि य कुट्टिय पज्जवलीढे, होइ विवाग सुहो असुहो वा।। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ -बृहत्कल्पभाष्यम् कुछक __अंजन-खंजन-कर्दम से लिप्त, चूहों आदि द्वारा भक्षित, २८३७.अहवा पिंडो भणिओ, अग्नि के द्वारा विशेषरूप से दग्ध, तुन्नित, कुट्टित रजक न यावि तस्स भणिओ गहणकालो। आदि के द्वारा बहुत पीटा हुआ, पर्यवलीढ-अत्यंत पुराना तस्स गहणं खपाए, ऐसे वस्त्रग्रहण से शुभ-अशुभ विपाक होता है। जो वारेइ अणंतरे सुत्ते शुभविभाग वाले वस्त्र हैं, उनसे शुभ विपाक और जो पूर्व सूत्रों में पिंड का कथन किया गया है, परंतु उसके अशुभविभाग वाले वस्त्र हैं, उनसे अशुभ विपाक होता है। ग्रहण-काल का निर्देश नहीं है। प्रस्तुत सूत्र में रात्री में उसके २८३३.चउरो य दिग्विया भागा, दुवे भागा य माणुसा। ग्रहण का वर्जन किया गया है। आसुरा य दुवे भागा, मज्झे वत्थस्स रक्खसो॥ २८३८.रातो व वियाले वा, संज्झा राई उ केसिइ विकालो। २८३४.दिव्वेसु उत्तमो लाभो, माणुसेसु य मज्झिमो। चउरो य अणुग्घाया, चोदगपडिघाय आणादी॥ आसुरेसु य गेलन्नं, मज्झे मरणमाइसे॥ कुछेक आचार्य संध्या को रात्री और शेष रात्री को वस्त्र के नौ विभागों के स्वामी विकाल मानते हैं और कुछेक आचार्य संध्या को विकाल और चार कोने दैव्य, अंचलमध्यवर्ती दो भाग-मानुष्य, दो शेष रात्री को रात्री मानते हैं। जो मुनि रात्री या विकाल में भाग आसुर, सर्वमध्यगत भाग राक्षस। इन में शुभ-अशुभ चतुर्विध आहार ग्रहण करता है, खाता है, उसके चतुर्गुरु विभाग ये हैं-दैव्यभाग यदि अंजन आदि से लिप्स हो तो उत्तम मास का प्रायश्चित्त आता है। शिष्य पूछता है-बयालीस लाभदायी होता है। मनुष्य भाग वाला वस्त्र लिप्त हो तो दोषों में रात्रीभोजन का प्रतिषेध नहीं है। बयालीस दोष वर्जित मध्यम लाभ, आसुर भागवाला वस्त्र लिप्त हो तो ग्लानत्व आहार लेने और परिभोग करने में क्या दोष है? आचार्य का कारण और राक्षस भाग वाला वस्त्र लिप्त हो तो मरण की उसके कथन का प्रतिघात करते हुए कहते हैं-इसमें आज्ञाभंग प्रासि होती है। आदि दोष होते हैं। २८३५.जं किंचि होइ वत्थं, पमाणवं सम रुइं थिरं निद्धं। २८३९.जइ वि य न प्पडिसिद्धं, बायालीसाए राइभत्तं तु। परदोसे निरुवहतं, तारिसगं खू भवे धन्नं ॥ छठे महव्वयम्मी, पडिसेहो तस्स नणु वुत्तो॥ जो वस्त्र प्रमाणोपेत, सम, रुचिकारक, स्थिर और यद्यपि बयांलीस दोषों में रात्रीभक्त का प्रतिषेध नहीं किया स्निग्ध होता है तथा जो परदोषों से निरुपहत होता है, वही गया है। किन्तु छठे महाव्रत में उसका प्रतिषेध किया है। वस्त्र धन्य होता है-ज्ञानादि प्राप्त कराने वाला होता है। २८४०.जइ ता दिया न कप्पइ, तमं ति काऊण कोट्ठयाईसु। राइभोयाण-पदं किं पुण तमस्सईए, कप्पिस्सइ सव्वरीए उ॥ जब अंधकार से व्याप्त नीचे द्वार वाले कोठों से दिन में नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा भी भक्त-पान लेना नहीं कल्पता, तब बहुल अंधकारमय 'राओ वा वियाले वा असणं वा पाणं वा रात्री में वह कैसे ग्रहण किया जा सकता है। खाइमं वा साइमं वा' पडिग्गाहेत्तए। २८४१.मिच्छत्तम्मी भिक्खू, विराहणा होइ संजमायाए। नऽन्नत्थ एगेणं पुव्वपडिलेहिएणं पक्खलण खाणु कंटग, विसम दरी वाल साणे य॥ २८४२.गोणे य तेणमादी, उन्भामग एवमाइ आयाए। सेज्जा -संथारएणं॥ संजमविराहणाए, छक्काया पाणवहमादी॥ (सूत्र ४२) रात्री में भिक्षा के लिए घूमता हआ निपँथ भगवान् की २८३६.वयअहिगारे पगए, राईभत्तवयपालणा इणमो। सर्वज्ञता के प्रति शंका का उत्पादन करता है। इससे सुत्तं उदाहु थेरा, मा पीला होज्ज सव्वेसिं॥ मिथ्यात्व की वृद्धि होती है। इस प्रसंग में भिक्षुक का दृष्टांत पूर्व में तीसरे महाव्रत प्रकरणगत अवग्रह की बात कही है। उससे संयमविराधना और आत्मविराधना-दोनों होती गई थी। प्रस्तुत में रात्रीभक्तव्रत के पालन के लिए यह सूत्र है। रात्री में अंधकार के कारण मुनि प्रस्खलित हो सकता है, स्थविर श्री भद्रबाहस्वामी ने कहा है। इस छठे व्रत के भग्न पैरों में स्थाणु और कांटे लग जाते हैं, विषम गढ़े में गिर होने पर सभी महाव्रतों की पीड़ा-विराधना होती है, इसलिए सकता है, सर्प काट सकता है, कुत्ते उपद्रव कर सकते हैं, इसका प्रतिपादन है। बैल हनन कर सकता है, रात्री में घूमने के कारण आरक्षिक १. वृत्तिकृता एतत् स्वतंत्रसूत्रं स्वीकृतम्। २. दृष्टांत के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. ८१ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक उसे चोर समझ कर पकड़ सकते हैं, उसे अभिमर मानकर उत्पीड़ित कर सकते हैं यह आत्मविराधना होती है। संयमविराधना में छह कायों की विराधना अथवा प्राणवध आदि दोष होते हैं। २८४३. पाणवह पाणगहणे, कप्पट्टोद्दाणए अ संका उ भणिओ न ठाइ ठाणे, मोसम्मि उ संकणा साणे ॥ रात्री प्रत्युपेक्षा न कर सकने के कारण प्राणी (बीज आदि) ग्रहण से प्राणवध होता है । रात्री में मुनि को देखकर बालक भयभीत हो जाने पर गृहस्वामी के मन में शंका होती है । कोई गृहस्थ साधु को कहता है-रात्री में मेरे घर मत आया करो। वह साधु कहता है-अब तेरे घर में कुत्ते आयेंगे। परन्तु वह साधु अपने वचनों में स्थिर नहीं रहता । वह उसी घर में रात को जाता है। तब गृहस्थ को शंका होती है कि ये मुनि मृषावादी हैं। २८४४. तु सवित्तिणिसुयं पडियरई काउमऽग्गदारम्मि । समणेण णोल्लियम्मी, पवेदण जणस्स आसंका ॥ कोई स्त्री रात्री में अपने सौत के बच्चे को मारकर घर के अग्रद्वार पर उसको हाथ में लेकर जागती हुई खड़ी रहती है। इतने में ही श्रमण भिक्षा के लिए आया, दरवाजा खोला तो सहसा वह मृत बालक भूमी पर आ गिरा। स्त्री ने चिल्लाते हुए कहा - इस श्रमण ने बालक की हत्या की है। लोग एकत्रित हुए। उनको श्रमण पर आशंका हुई। उस समय ग्रहण आकर्षण आदि दोष होते हैं। २८४५. मा निसि मोकं एज्जसु, भणाइ एहिंति ते गिहं सुणगा। पुणरितं सडिपई, भणाइ सुणओ सि किं जातो ।। २८४६. एवं चिय में रति, कुसणं विज्जाहि तं च सुणए । खइयं ति य भणमाणे, भणाइ जाणामि ते सुणए ॥ रात्री में साधु को मिक्षा के लिए आया हुआ देखकर गृहपति बोला- 'रात्री में मेरे घर मत आया करो।' साधु ने कहा- 'तुम्हारे घर पर कुत्ते आयेंगे।' साधु पुनः उसी घर में आया गृहपति बोला- क्या तुम कुत्ते हो गए? एक दिन गृहपति ने अपनी पत्नी से कहा- मेरे लिए 'कुसण' रखना । रात्री में वह मुझे देना रात्री में गृहपति ने पत्नी को 'कुसण' परोसने के लिए कहा। पत्नी बोली- कुत्ते उसे खा गए। इस प्रकार कहती हुई पत्नी से पति बोला- मैं तुम्हारे (पुरुष) कुत्तों को जानता हूं। इस प्रकार मृषावाद विषयक शंका होती है। ९ २८४७. सयमेव कोह लुछो, अवहरती तं पडुच्च कम्मकरी । वाणिगिणी मेहुन्नं, बहुसो व चिरं व संका या ।। १. कुसणं मुङ्गदाल्यादि तस्य यदुकं तदपि कुरुवम् । २८९ कोई मुनि भिक्षा के लिए रात्री में गृहस्थ के घर में प्रविष्ट हुआ वहां वस्त्र हिरण्य आदि बिखरे पड़े थे। वह स्वयं लोभवश उनका हरण कर लेता है अथवा घर में काम करने वाली कर्मकरी, उन्हें यह सोचकर उठा लेती है कि श्रमण पर ही अपहरण का आरोप आयेगा रात्री में मुनि को घर पर आया देख कोई प्रोषितभर्तृका वणिक्स्त्री उससे मैथुन की याचना करती है इससे चतुर्थव्रत की विराधना होती है। अथवा उस घर में बार-बार आने, चिरकाल तक आलापसंलाप करने से लोगों को मैथुनप्रतिसेवना की आशंका होती है। २८४८. अणभोगेण भरण व पडिणीओम्मीस भत्तपाणं तु । दिज्जा हिरन्नमादी, आवज्जण संकणा दिट्ठे ॥ कोई अजानकारी में या भय से भक्त पान में मिश्रित हिरण्य आदि दे देता है अथवा कोई शत्रुता के कारण भक्तपान के साथ स्वर्ण आदि दे देता है। उसे मूर्च्छावश पास में रख लेने पर दूसरों द्वारा दृष्ट होने पर मुनि के प्रति शंका आदि दोष होते हैं इसलिए रात्री में भिक्षाचर्या के लिए पर्यटन नहीं करना चाहिए। २८४९ तं पय चउब्विहं राहभोयणं चोलपट्टमहरेगे। परियावन्न विगिंचण, दर गुलिया रुक्ख सुन्नघरे ॥ रात्री भोजन चार प्रकार का है १. दिन में लाया हुआ, दिन में खाता है। २. दिन में लाया हुआ रात्री में खाता है। ३. रात्री में लाया हुआ दिन में खाता है । ४. रात्री में लाया हुआ, रात्री में खाता है। चोलपट्टक, अतिरेक, पर्यापन्न, विगिंचण, दर, गुलिका, वृक्ष, शून्यगृह - ( विस्तारार्थ आगे की गाथाओं में यह नियुक्ति गाथा है) । २८५०, खमणं मोहतिगिच्छा, पच्छित्तमजीरमाण खमओ वा गच्छह सचोलपट्टो, पुच्छ द्रुवणं पढमभंगो ॥ एक साधु ने क्षपण-उपवास किया। वह मोहचिकित्सा के लिए या प्रायश्चित्त स्वरूप या अजीर्ण हो जाने के कारण या एकान्तरिक तप हेतुक किया गया हो। उस मुनि के संज्ञातकों के वहां आज संखड़ी है। वह बिना पात्र लिए, केवल घोलपट्ट पहनकर वहां गया। उन्होंने पूछा- पात्र नहीं लाए। क्या आज उपवास है? उसने कहा- हां! तब गृहस्वामी ने उस संबंधी मुनि के लिए, संखड़ी में बने भोज्य का, एक विभाग स्थापित कर दिया। 'हम कल पारणक में इस मुनि को देंगे' - यह उसकी भावना थी। दूसरे दिन पारणक में उस द्रव्य को ग्रहण Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० बृहत्कल्पभाष्यम् कर. उसका परिभोग करने वाले को, रात्रीभोजन का प्रथम ६. जब तक वह भोजन जीर्ण नहीं हो जाता। भंग लगता है। इन सब मतान्तरों को सुनकर आचार्य ने कहा ये सारे २८५१.कारणगहिउव्वरिय आवलियविहीए पुच्छिऊण गओ। अनादेश हैं। सिद्धांत का सद्भाव यह है-जब तक वह मुनि भोक्खं सुए दराइसु, ठवेइ साभिग्गहऽन्नो वा॥ उस क्रिया का प्रायश्चित्त नहीं करता तब तक उसके (उस विभिन्न कारणों से यदि प्रायोग्य द्रव्य अतिरिक्त ले लिया निमित्त से) कर्मबंध होता रहता है। गया और परिभोग के पश्चात् भी वह बच गया हो तो २८५४.संखडिगमणे बीओ, वीयारगयस्स तइयओ होइ। आवलिका विधि-आचाम्ल, उपवास आदि करने वाले मुनियों सन्नायगमण चरिमो, तस्स इमे वन्निया भेदा॥ की परिपाटी से पूछने पर भी यदि बच जाए तो उसको अपराह्न में संखड़ी में जाने से 'द्वितीय भंग' और सूर्योदय परिष्ठापन के लिए वह मुनि गया परंतु उसने सोचा कल मैं से पूर्व बाहर विचार भूमी में गए हुए मुनि द्वारा गृहीत भोज्य इसे खालूंगा। यह सोचकर वह उस द्रव्य को 'दर' (गढ़े) 'तृतीय भंगवर्ती' तथा संज्ञातक कुल में जाकर रात्री में ग्रहण आदि में स्थापित कर देता है। वह मुनि साभिग्रहिक भी हो ___ कर, रात्री में खाने में 'चरम भंग' होता है। चौथे भंग के ये सकता है और अनभिग्रहिक भी हो सकता है। (साभिग्रहिक प्रायश्चित्त भेद वर्णित है। (ये चारों भंग रात्रीभोजन के हैं)। अर्थात् जो कुछ परिष्ठापनायोग्य होता है उसको परिष्ठापित २८५५.गिरिजन्नगमाईसु व, संखडि उक्कोसलंभे बिइओ उ। करने वाला और उससे विपरीत अनभिग्रहिका) अग्गिट्टि मंगलट्ठी, पंथिग-वइगाइसू तइओ॥ २८५२.बिले मूलं गुरुगा वा,अणते गुरु लहुग सेस जं चऽन्नं । गिरियज्ञ आदि संखड़ियों में मुनि गया। सूर्यास्त से पूर्व थेरीय उ निक्खित्ते, पाहुण-साणाइखइए वा॥ उसने वहां से उत्कृष्ट द्रव्य-अवग्राहिम आदि लिए। परंतु २८५३.आरोवणा उ तस्सा, बंधस्स परूवणा य कायव्वा। स्थान पर आते-आते सूर्यास्त हो गया। उसने रात्री में उस कुल नामऽट्ठिगमाउं, मंसाऽजिन्नं न जाऽऽउट्टो॥ द्रव्य का उपभोग किया। यह रात्रीभोजन का द्वितीय भंग है। बिल में स्थापित करने पर मूल प्रायश्चित्त अथवा अग्निष्टिका में पका हुआ मांड अरुणोदय वेला में लेना, चतुर्गुरु, अनन्तवनस्पति के कोटर में स्थापित करने पर सूर्योदय से पूर्व यात्रायित होने के कारण मंगलपाठ सुनने चतुर्गुरु और शेष स्थानों में चतुर्लघु। स्थविरा के घर में रखने वालों से कुछ भोज्य ग्रहण करना, पथिकों से अथवा पर चतुर्लघु और वहां यदि प्राघूर्णक या श्वान आदि के खा जिकाओं-गोकुलों से सूर्योदय से पूर्व कुछ लेना-इनको जाने पर उस स्थापित करने वाले मुनि के आरोपणा लेकर उनका परिभोग करना तीसरा भंग है। प्रायश्चित्त (चतुर्लघु आदि यथायोग्य) आता है। यहां कर्मबंध २८५६.छन्दिय-सयंगयाण व, सन्नायगसंखडीइ वीसरणं। की प्ररूपणा करनी चाहिए। शिष्य ने पूछा-प्राघूर्णक आदि के दिवसे गते संभरणं, खामण कल्लं न इण्हिं ति॥ खा जाने पर कितने काल तक कर्मबंध होता है? कर्मबंध किन्हीं साधुओं के संज्ञातकों के वहां संखडी का उपक्रम विषयक अनेक मत हैं था। उन्होंने साधुओं को निमंत्रित किया। परंतु वे मुनियों को १. प्राघूर्णक के सातवें कुलवंश तक प्रतिसमय उस भूल गए। दिवस के बीतने पर उन्होंने संयतों को याद किया। भोजन को स्थापित करने वाले मुनि के कर्मबंध। वे साधुओं के उपाश्रय में गए और अपनी विस्मृति के लिए होता है। क्षमायाचना की और भक्तपान लेने की प्रार्थना की। मुनियों ने २. जब तक उसका नाम-गोत्र प्रक्षीण नहीं होता। कहा-अभी रात में नहीं, कल देखेंगे/लेंगे। ३. जब तक उसकी हड्डियां रहती हैं। २८५७.संसत्ताइ न सुज्झइ, ४. जब तक वह जीवित रहता है। नणु जोण्हा अवि य दो वि उसिणाई। ५. जब तक उस भोजन से होने वाले मांसोपचय को काले अब्भ रए वा, धारण करता है। मणिदीवुद्दित्तए बेंति॥ १. गिरियज्ञ-इसके तीन अर्थ हैं-गिरियज्ञः कोंकणादिषु भवति उस्सूरे त्ति (१) कोंकण आदि देशों में होने वाला सायंकालभावी भोज। (२) गिरियज्ञ को मत्तबाल संखडी भी कहा जाता है। यह लाटदेश में वर्षारात्र (आश्विन, कार्तिक मास) में होता है। गिरिजन्नो मत्तवाल-संखडी भन्नई, सा लाडविसए वरिसारत्ते भवइ त्ति। (३) भूमिदाह-गिरिकं (ज) न्नत्ति भूमिदाहो त्ति भणितं होइ-(विशेष चूर्णि)। २. दक्षिणापथ में अर्द्धकुडव आटे से प्रभूत मंडक बनाया जाता है। उसे हेमन्त काल में अरुणोदय के समय अग्निष्टिका में पकाकर (गुड़, घी से मिश्रित कर) पथिकों को दिया जाता है। इसे अग्निष्टिका ब्राह्मण भी कहा जाता है। (वृ. पृ. ८०८) Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक गृहस्थों ने पूछा- क्या कारण है? मुनि बोले- रात्री में भक्तपान जीवों से संसक्त है या नहीं इस प्रकार शुद्धि नहीं होती। तब चांदनी रात थी। गृहस्थ बोले- आज पूर्ण ज्योत्स्ना है तथा दोनों - कूर और कुसण उष्ण हैं । इस काल में यदि चन्द्रमा अभ्रच्छन्न या रजच्छन्न होता तो हमारे पास मणिरत्न है। उसका भी अपूर्व प्रकाश होता है। तथा प्रदीप जल रहा हे अथवा पहले ही ज्योति उन्हील है। २८५८. जोण्हा - मणी पदीवा, उद्दित्त जहन्नगाई ठाणाई । चउगुरुगा छम्गुरुगा, छेओ मूलं जहण्णम्मि ॥ ज्योत्स्ना के प्रकाश में भोजन करने वाले मुनि के चतुर्गुरु, मणि के प्रकाश में षड्गुरु, प्रदीप के प्रकाश में छेद और उद्दीम ज्योति के प्रकाश में मूल ये प्रायश्चित्त स्थान जघन्य हैं। २८५९. भोत्तूण व आगमणं, गुरूहिं बसभेहि कुल गणे संपे आरोवणा कायव्वा, बिइया य अभिक्खगहणेणं ॥ रात्री में ज्योत्स्ना आदि के प्रकाश में भोजन कर मुनि गुरु के पास आए। गुरु ने उन्हें कहा-निशाभक्त का आसेवन करना उचित नहीं है। यदि वे इसे स्वीकार कर लेते हैं तो चतुर्गुरु, स्वीकार न करने पर षड्गुरुक प्रायश्चित्त है। इसी प्रकार वृषभ, कुल, गण और संघ का कथन स्वीकार करने या न करने पर प्रायश्चित्त की वृद्धि होती रहेगी। ऐसी आरोपणा अर्थात् प्रायश्चित्त वृद्धि करनी चाहिए। द्वितीय है- रात्रिभक्त का पुनः पुनः सेवन करने पर प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है। (वृत्ति में पूरा विवरण है।) २८६०. तिहिं थेरेहिं कथं जं, सहाणे तं तिगं न बोलेइ डिल्ला वि उमरिमे, उवरिमथेरा उ भइयव्वा ॥ (शिष्य ने पूछा-कुल, गण और संघ के स्थविरों के वचन का अतिक्रमण करने पर गुरुतर प्रायश्चित्त की बात क्यों कही गई है? कहा जाता है कि ये तीनों स्थविर आचार्य से भी बड़े होते हैं। ये प्रमाणपुरुष के रूप में स्थापित होते हैं। क्योंकि ये ) कुल, गण और संघ - इन तीनों स्थविरों द्वारा जो कार्य किया गया है, जो निर्णय लिया गया है, वह स्वस्थान में उचित है। तीनों स्थविर उसका परस्पर व्यतिक्रम नहीं करते। इन तीनों में जो नीचे वाला स्थविर कर लेता है, उसका उल्लंघन ऊपर वाले स्थविर नहीं करते। जैसे नीचे वाले हैं कुलस्थविर वे उपरितन स्थविर अर्थात गणस्थविर और संघस्थविरों द्वारा कृत का उल्लंघन नहीं करते। गणस्थविर, संघस्थविरों द्वारा कृत का अतिक्रमण नहीं करते। उपरितन स्थविरों द्वारा कृत की भजना है जैसे- कुलस्थविरों द्वारा अरक्तद्विष्टभाव से २९१ जो किया है उसे गण और संघस्थविर अन्यथा नहीं करते और राग-द्वेष से प्रेरित होकर किया हो तो उसे प्रमाण नहीं मानते। इसी प्रकार गणस्थविरों द्वारा अरक्तद्विष्टभाव से किए हुए का संघस्थविर अन्यथा नहीं करते और राग-द्वेष से किए हुए को प्रमाण नहीं मानते। अतः इन स्थविरों के वचनों का अतिक्रमण करने पर गुरुतर प्रायश्चित्त आता है। २८६१. चंदुज्जोवे को दोसो, अप्पप्पाणे य फासुए दव्वे । भिक्खू वसभाऽऽयरिए, गच्छम्मि य अट्ठ संघाडा ॥ ज्योत्स्ना के प्रकाश में रात्रीभक्त का आसेवन कर आने वाले साधुओं को यदि भिक्षु आदि उनको ऐसा न करने के लिए कहते हैं तो वे कहते हैं ज्योत्स्ना के प्रकाश में प्राणरहित प्रासुक द्रव्य लेने में क्या दोष है ? इस प्रकार कहने पर प्रायश्चित्त आता है और वृषभ, आचार्य, गच्छ अर्थात् कुलस्थविर, गणस्थविर तथा संघस्थविर के कहने पर स्वीकार या अस्वीकार करने पर वह प्रायश्चित्त बढ़ता जाता है उस प्रायश्चित्त के आठ संघाटक (लता, प्रकार) हो जाते हैं । (वृत्ति में इस वृद्धि को विस्तार से समझाया गया है।) २८६२. सन्नाय आगमणे, संखडि राओ अ भोवणे मूलं । बिए अणवटुप्पो, तइयम्मि य होइ पारंची ॥ संज्ञातक कुल में आगमन कर अथवा संखडी में जाकर यदि मुनि रात्री में भोजन करता है तो उसको मूल प्रायश्चित्त आता है। दूसरी बार रात्री में भोजन करने पर अनवस्थाप्य और तीसरी बार करने पर पारांचिक प्रायश्चित्त आता है। २८६३.जइ वि य फासुगदव्वं, कुंथू - पणगाइ तह वि दुप्पस्सा | पच्चक्खनाणिणो वि हु, राईभत्तं परिहरति ॥ यद्यपि कुछेक द्रव्य प्रासुक हैं परन्तु कुंथु, पनक आदि रात्री में दुर्दर्श होते हैं। प्रत्यक्षज्ञानी भी रात्रीभक्त का परिहार करते हैं। २८६४. जइ विय पिपीलियाई, दीसंति पईव - जोइउज्जोए । तह वि खलु अणाश्त्रं मूलवयविराहणा जेणं ॥ यद्यपि प्रदीप, ज्योति तथा चन्द्रमा के उद्योत में पिपीलिका आदि जन्तु दृष्टिगोचर हो जाते हैं, फिर भी रात्रीभक्त अनाचीर्ण है क्योंकि यह मूलव्रत महाव्रतों की विराधना है। २८६५. गच्छगहणेण गच्छो, भणाह अहवा कुलाइओ गच्छो । गच्छग्गहणे व कप, गहणं पुण गच्छवासीणं ॥ (गाथा २८६१ में प्रयुक्त 'गच्छम्मि' पद की व्याख्या) गच्छ शब्द के ग्रहण से गच्छ अर्थात् साधु समुदाय । वह रात्रीभक्तप्रतिसेवक साधुओं को कहता है अथवा कुल आदि अर्थात् कुल गण संघ रूप गच्छ वे उन साधुओं को कहते . Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ फिट । ==बृहत्कल्पभाष्यम् हैं। अथवा गच्छ ग्रहण करने पर गच्छवासियों का ग्रहण भिक्षु आदि कहते हैं-देखो, इन मुनियों का अनाचार। जानना चाहिए, जिनकल्पिकों का नहीं। रात्री में भोजन कर किसी को नहीं कहते। इस प्रकार भिक्षु २८६६.बिइयादेसे भिक्खू, भणंति दुट्ठ भे कयं ति वोलेंति। वृषभों को और वृषभ आचार्य को तथा आचार्य एक-एक को छल्लहु वसभे छग्गुरु, छेदो मूलाइ जा चरिमं॥ कहने पर प्रायश्चित्त की वृद्धि होती जाती है। द्वितीयादेश का तात्पर्य है-द्वितीय नौ संस्थित प्रायश्चित्त २८७१.को दोसो को दोसो, त्ति भणते लग्गई बिइयठाणं। का प्रकार। निशिभक्तसेवी मुनियों को जब भिक्षु कहते हैं अहवा अभिक्खगहणे, अहवा वत्थुस्स अइयारो॥ 'आपने उचित कार्य नहीं किया।' यदि वे मुनि इस कथन को क्या दोष है? क्या दोष है? इस प्रकार कहने वाले उन स्वीकार नहीं करते हैं तो उनको षडलघु का प्रायश्चित्त रात्रिभक्तप्रतिसेवियों को द्वितीय प्रायश्चित्तस्थान प्राप्त विहित है। वृषभ के वचन का अतिक्रमण करने पर षड्गुरु, होता है। अथवा पुनः पुनः रात्रिभक्त का आसेवन करने पर आचार्य के वचन का अतिक्रमण करने पर छेद, कुलस्थविर ___ अथवा वस्तु-आचार्य आदि के वचनों को अतिक्रमणरूप की बात का उल्लंघन करने पर मूल, गणस्थविर के वचन का अतिचार से प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है। इसलिए चारों अतिक्रमण करने पर अनवस्थाप्य और संघस्थविर की बात न प्रकार के रात्रीभक्त का आसेवन नहीं कल्पता। कारण में वह मानने पर चरम अर्थात् पारांचिक प्रायश्चित्त आता है। कल्पता है। २८६७.तइयादेसे भोत्तूण आगया नेव कस्सइ कहिंति। २८७२.बिइयपयं गेलन्ने, पढमे बिइए य अणहियासम्मि। तेसऽन्नतो व सोच्चा, खिसंतऽह भिक्खूणो ते उ॥ फिट्टइ चंदगवेज्झं, समाहिमरणं व अद्धाणे॥ तृतीय आदेश-रात्रीभक्त की प्रतिसेवना कर आए हुए मुनि अपवादपद में ग्लानत्व, पहले तथा दूसरे परीषह को न किसी को कुछ नहीं कहते। किन्तु भिक्षु उन मुनियों के सह सकने के कारण, चन्द्रकवेध नामक अनशन का निर्वाह न आलाप-संलाप सुनकर अथवा उन प्रतिसेवी मुनियों ने कर सकने के कारण, समाधिमरण के लिए तथा मार्ग मेंश्रावकों को कहा हो और उन श्रावकों से सुनकर भिक्षु उन इनमें रात्रीभक्त के चारों प्रकार की प्रतिसेवना की जा सकती मुनियों की खरंटना करते हैं, उनकी भर्त्सना करते हैं। यदि वे है। (विस्तार अगली गाथाओं में।) मुनि खरंटना का अतिक्रमण करते हैं, स्वीकार नहीं करते तो २८७३.पइदिणमलब्भमाणे, विसोहि समइच्छिउं पढम भंगो। निम्न प्रायश्चित्त का विधान है दुल्लभ दिवसंते वा, अहि-सूलरुयाइसु बिइओ॥ २८६८.भिक्खुणो अतिक्कमंते, २८७४.एमेव तइयभंगो, आइ तमो अंतए पगासो उ। - छल्लहुगा वसभे होति छग्गुरुगा। दुहओ वि अप्पगासो, एमेव य अंतिमो भंगो॥ गुरु-कुल-गण-संघाइक्कमे य ग्लान के लिए प्रतिदिन प्रायोग्यद्रव्य की प्राप्ति न होने __ छेदाइ जा चरिमं॥ पर विशोधिकोटि के दोषों के आधार पर प्रतिदिन लाकर भिक्षुओं के कथन का अतिक्रमण करने पर षडलघु, दिया जा सकता है। यदि वह भी अतिक्रांत हो जाता है तो वृषभों के अतिक्रमण में षड्गुरु, गुरु के अतिक्रमण में छेद, प्रथम भंग अर्थात् 'रात्री में लाकर दिन में देना' का आसेवन कुलस्थविर के अतिक्रमण में मूल, गणस्थविर के अतिक्रमण । किया जा सकता है। ग्लान प्रायोग्य दुर्लभ द्रव्य प्राप्त कर, में अनवस्थाप्य और संघस्थविर के अतिक्रमण में पारांचिक स्थान पर आते-आते दिन अस्त हो जाए तो वह रात्री में प्रायश्चित्त है। (यह तीसरी नौ है।) दिया जा सकता है। अथवा सायं सर्प ने डस दिया या २८६९.भिक्खू वसभाऽऽयरिए, शूलरोग उत्पन्न हो गया तो रात्री में औषध आदि दी जा वयणं गच्छस्स कुल गणे संघे। सकती है। यह रात्रीभक्त का दूसरा विकल्प है। इसी प्रकार गुरुगादऽइक्कमंते, तीसरा भंग होता है। इसमें आदि में अंधकार यानि रात्री जा सपद चउत्थ आदेसो॥ और अंत में प्रकाश यानि दिन। चतुर्थ भंग में आदि और चतुर्थ आदेश-भिक्षु के वचन का अतिक्रमण करने पर अंत में अप्रकाश- आगाढ़ कारण में यह विहित है। चतुर्गुरु, वृषभ के षड्गुरु, आचार्य के षड्गुरुक, गच्छस्थविर के छेद, कुलस्थविर के मूल, गणस्थविर के अनवस्थाप्य और असहुस्स हवेज्ज अहव जुअलस्स। संघस्थविर के स्वपद अर्थात् पारांचिक प्रायश्चित्त है। कालम्मि दुरहियासे, २८७०.पेच्छह उ अणायारं, रत्तिं भुत्तुं न कस्सइ कहंति। भंगचउक्केण गहणं तु॥ एवं एकेक्कनिवेयणेण वड्ढी उ पच्छित्ते॥ पहले और दूसरे परीषह में जो मुनि आकुल हो गया हो Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = २९३ पहला उद्देशक = अथवा जो उनको सहन करने में अक्षम हो अथवा युगल- २८८०.सगुरु कुल सदेसे वा, नाणे गहिए सई य सामत्थे। बाल और वृद्ध मुनि असहिष्णु हो गए हों या काल वच्चइ उ अन्नदेसे, दंसणजुत्ताइअत्थो वा।। अवमौदर्य का हो-इन सबमें चारों भंगों का आसेवन किया अपने गुरु के पास जो ज्ञान-श्रुत विषयक ज्ञान था वह जा सकता है। ग्रहण कर लिया परंतु श्रुत के ग्रहण में और सामर्थ्य है तो २८७६.एमेव उत्तिमद्वे, चंदगवेज्झसरिसे भवे भंगा। वह अपने देश में, स्वकुल में वह श्रुत ज्ञान प्राप्त करे। उसके उभयपगासो पढमो, आदी अंते य सव्वतमो॥ अभाव में परकुल में जाकर भी ग्रहण करे। स्वदेश में यदि चन्द्रकवेध (आठ चक्रों के बीच की पुत्तलिका के दांई ऐसे बहुश्रुत आचार्य न हों तो अन्य देश में जाकर वह श्रुत आंख को बींधने के) सदृश अनशन करने वाले मुनि के प्राप्त करे। तथा दर्शनविशोधिकारक ग्रंथों (गोविन्दनियुक्ति कदाचिद् असमाधि उत्पन्न हो जाए तो चारों भंग विहित हैं। आदि) के प्रयोजन से प्रमाणशास्त्र में निपुण आचार्यों के पास इनमें प्रथम भंग आदि-अंत-उभयतः प्रकाशवान् है, द्वितीय वाचना ले। भंग आदि में प्रकाशवान् अन्त में अंधकारमय, तृतीय भंग २८८१.पडिकुट्ट देस कारण गया उ तदुवरमि निति चरणट्ठा। आदि में अंधकारमय, अन्त में प्रकाशवान् और चतुर्थ भंग असिवाई व भविस्सइ, भूए व वयंति परदेसं॥ सर्व अधंकारमय होता है-रात्री में ग्रहण और रात्री में ही मुनियों के विहार के लिए सिन्धुदेश आदि प्रतिकुष्ट हैं। परिभोग। वहां अशिव आदि कारणों से गए हुए मुनि उन कारणों के २८७७.अद्धाणम्मि व होज्जा, भंगा चउरो उतं न कप्पइ उ।। उपरत हो जाने पर चारित्र की पालना के लिए वहां से आ दुविहा उ होति उ दरा, पोट्टे तह धन्नभाणे य॥ जाएं। अथवा वहां रहते हुए निमित्त बल से जान लिया कि . अध्वनिर्गत मुनियों के लिए चारों भंग होते हैं। परंतु जो यहां अशिव आदि होंगे, अथवा हुआ है, तो वे परदेश में मुनि ऊर्ध्वदर में अध्वगमन करते हैं, उनके लिए नहीं परिखजन कर दें। कल्पता। दर दो प्रकार के हैं-पोट्टदर और धान्यभाजनदर। २८८२.चम्माइलोहगहणं, नंदीभाणे य धम्मकरए य। (पोट्ट का अर्थ है उदर, तद्प दर होता है-पोट्टदर, परउत्थियउवकरणे, गुलियाओ खोलमाईणि॥ धान्यभाजन-कट, पल्य आदि, वे ही हैं दर-धान्यभाजनदर। चर्म आदि तथा लोह, नन्दीभाजन, धर्मकरक, परतीर्थिक वे दर ऊर्ध्व अर्थात् जहां भरे जाते हैं, वह है ऊर्ध्वदर।) के उपकरण, गुलिका तथा खोल (गोरस से भावित वस्त्र)२८७८.उद्दहरे सुभिक्खे, अद्धाणपवज्जणं तु दप्पेण। अर्ध्वनिर्गत मुनि ये उपकरण साथ में ले। (विस्तार आगे)। लहुगा पुण सुद्धपए, जं वा आवज्जई जत्थ॥ २८८३.तलिय पुडग वज्झे या, कोसग कत्ती य सिक्कए काए। ऊर्ध्वदर और सुभिक्ष के चार भंग होते हैं पिप्पलग सूइ आरिय, नक्खच्चणि सत्थकोसे य॥ (१) ऊर्ध्वदर तथा सुभिक्ष। तलिका (पदत्राण), पुटक-खल्लक, वर्ध, कोशक(२) ऊर्ध्वदर असुभिक्ष। अंगुलिवाण, कृत्ति-चर्म, सिक्कक, कापोतिका, पिप्पलक, (३) सुभिक्ष न ऊर्ध्वदर। सूची, आरिका, नखार्चनी-नाखून काटने का ओजार तथा (४) न ऊर्ध्वदर और न सुभिक्ष। शस्त्रकोश-ये साथ में ले। इनमें दूसरे और चौथे भंग में अध्वगमन करना चाहिए। २८८४.तलियाउ रत्तिगमणे, कंटुप्पहतेण सावए असहू। पहले और तीसरे भंग में दर्प से कोई अध्वगमन करता है तो पुडगा विवच्चि सीए, वज्झो पुण छिन्नसंधट्ठा। शुद्धपद में भी चतुर्लधु का प्रायश्चित्त है तथा संयमविराधना रात्री में गमन करने पर पैरों में कांटे आदि न चुभे आदि होने पर तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त भी आता है। इसलिए तलिका उपयोगी है। चोर और श्वापद से बचने के २८७९.नाणट्ठ दंसणट्ठा, चरितट्ठा एवमाइ गंतव्वं । लिए (वेग से चलने या भागने के लिए) तथा सुकुमारपाद उवगरणपुव्वपडिलेहिएण सत्थेण गंतव्वं॥ होने के कारण बिना क्रमणिका के चलने में असहिष्णु होने के कारण तलिका बांधी जाती है। शीत में पैरों के फट है-ज्ञान के लिए, दर्शन के लिए तथा चारित्र के लिए। गमन जाने पर (बवाई के कारण) पुटक अर्थात् खल्लक पहने करने वाले जाने वाले तलिकादि उपकरण लेकर जाएं तथा जाते हैं। त्रुटित तलिकाओं को सांधने के लिए वर्ध पूर्व प्रत्युपेक्षित सार्थ के साथ जाए। प्रयोजनीय होता है। १. स्थूलभद्र के लघु भ्राता श्रीयक की भांति (वृ. पृ.८१५)। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ =बृहत्कल्पभाष्यम् च से अगद-एक द्रव्य से निष्पन्न औषधि तथा एकांगिक जो होती है वह औषधि कहलाती है। अथवा 'च' शब्द से क्षेत्र में, काल में जो दुर्लभ हो वह साथ में ले तथा गच्छ और पुरुष (आचार्य आदि) के लिए जो योग्य हो वह सब साथ २८८५.कोसग नहरक्खट्ठा,हिमा-ऽहि-कंटाइसू उ खपुसादी। कत्ती वि विकरणट्ठा, विवित्त पुढवाइरक्खट्ठा॥ नखों की रक्षा के लिए कोशक, शीत, सर्प तथा कंटक- इनसे बचने के लिए 'खपुस', कृत्ति-चर्म इसलिए लिया जाता हे कि प्रलंब आदि का विकरण करने पर वे धूल के साथ न मिल जाएं तथा कभी-कभी चोर मुनियों के वस्त्रों का अपहरण कर लेते हैं तब मुनि चर्म का परिभोग करते हैं तथा पृथ्वीकाय की रक्षा के लिए चर्म को बिछाकर भोजन करते हैं। या चर्म को बिछाकर बैठते हैं। २८८६.तहिं सिक्कएहिं हिंडति, जत्थ विवित्ता व पल्लिगमणं वा। परलिंगग्गहणम्मि वि, निक्खिवणट्ठा व अन्नत्थ॥ यदि मुनि विविक्त-लूटे जा चुके हैं अथवा चौरपल्ली में भिक्षा के लिए जाना हो तो वे सिक्कक लेकर घूमते हैं। परलिंग में भिक्षार्थ जाते समय सिक्कक में ही घूमना होता है। अध्वकल्प आदि का निक्षेपण सिक्कक में ही किया जाए तथा प्रलंब आदि भी सिक्कक में ही लाकर स्थविरगृह में उनका निक्षेपण किया जाता है। २८८७.जे चेव कारणा सिक्कगस्स ते चेव होंति काए वि। कप्पुवही बालाइ व, वहति तेहिं पलंबे वा॥ सिक्कक के उपयोग के विषय में जो कारण कहे गए हैं, वे ही कारण कापोतिका के विषय में हैं। अध्वकल्प, आचार्य तथा अन्य मुनियों की उपधि, बाल मुनि या प्रलंब आदि का वहन कापोतिका में किया जाता है। २८८८.पिप्पलओ विकरणट्ठा, विवित्त जुन्ने व संधणं सूई। आरि तलिसंधणट्ठा, नक्खच्चण नक्ख-कंटाई॥ पिप्पलक प्रलंब को काटने के लिए, लुटे गए मुनियों के जीर्ण वस्त्रों को सीने के लिए सूची, तलिकों का संधान करने के लिए आरिका, नखार्चन नखों को काटने के लिए तथा कंटक आदि शल्यों को निकालने के लिए काम आता है। २८८९.कोसाऽहि-सल्ल-कंटग, अगदोसहमाइयं तु चग्गहणा। अहवा खेत्ते काले, गच्छे पुरिसे य जं जोग्गं॥ शस्त्रकोश का यह प्रयोजन-सर्प ने जितने अंग को डसा हे उसका छेदन करने के लिए तथा शल्य और कांटों का उद्धरण करने के लिए शस्त्रकोश काम आता है। गाथा २८८३ में चकार का प्रयोग है-'नक्खच्चणि सत्थकोसे या १. शून्यग्राम-वह गांव जो चोरों आदि के भय से उजड़ गया हो। २८९०.एक्वं भरेमि भाणं, अणुकंपा णंदिभाण दरिसंति। निति व तं वइगाइसु, गालिंति दवं तु करएणं॥ कोई श्रावक अध्वगत मुनियों को अनुकंपावश कहता है'मैं प्रतिदिन आपका एक भाजन पूरा भर दूंगा।' तब उसको नन्दीभाजन दिखाते हैं। अथवा उस नन्दीभाजन को जिका आदि में ले जाते हैं तथा धर्मकरक से द्रव अर्थात् पानक गालते हैं। २८९१.परउत्थियउवगरणं, खेत्ते काले य जं तु अविरुद्धं । तं रयणि-पलंबट्ठा, पडिणीए दिया व कोट्टादी। अन्यतीर्थिक के जो उपकरण जिस क्षेत्र और काल में अविरुद्ध होते हैं उसका प्रयोग रात्री में प्रलंब लाने के लिए करना चाहिए। जहां प्रत्यनीक होते हैं अथवा म्लेच्छ कोट्ट (म्लेच्छपल्ली) में जाना होता है, वहां अन्यतीर्थिक के वेष में जाए। २८९२.गोरसभाविय पोत्ते, पुव्वकय दवस्सऽसंभवे धोवे। असईय उ गुलिय मिए, सुन्ने नवरंगदइयादी॥ खोल का अर्थ है-गोरस से भावित वस्त्र। अध्वगत मुनि पूर्वकृत खोल साथ में लेते हैं और जहां प्रासुक द्रव की प्राप्ति नहीं होती तब वे उन खोल-वस्त्रों को धोते हैं। वह द्रव प्रासुक हो जाता है। खोल न होने पर 'गुलिका'तुवरवृक्ष के चूर्ण से निर्मित गुटिका से पानक को प्रासुक बना लेते हैं और मृग अर्थात् अगीतार्थ मुनियों को कहते हैं-शून्यग्राम से नवरंगदृतिका से यह पानक लाया गया है। २८९३.एक्केक्कम्मि य ठाणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्घाया। आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमाऽऽयाए।। अध्वनिर्गत मुनि यदि पूर्वोक्त उपकरणों को साथ नहीं लेता है तो प्रत्येक उपकरण के लिए चार अनुद्धात (गुरु) मास का प्रायश्चित्त आता है तथा आज्ञाभंग आदि दोष और संयमविराधना तथा आत्मविराधना दोनों होती हैं। २८९४.एमाइ अणागयदोसरक्खणट्ठा अगेण्हणे गुरुगा। अणुकूले निग्गमओ, पत्ता सत्थस्स सउणेणं॥ इस प्रकार के अनागतदोषों की रक्षा के लिए उन उपकरणों का ग्रहण करना चाहिए। ग्रहण न करने पर प्रत्येक उपकरण के लिए चतुर्गुरुमास का प्रायश्चित्त है। चन्द्रबल, ताराबल, अनुकूल होने पर निर्गमक-प्रस्थान करना चाहिए। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक २९५ उपाश्रय से निर्गत हो जाने तथा सार्थ को प्राप्त न करने तक भक्तपान का प्रतिषेध करने पर या उसका लाभ न होने स्वयं का शकुन और सार्थ को प्राप्त हो जाने के पश्चात् सार्थ पर गीतार्थ मुनि स्वयं रात्रीभक्तचतुर्भंगी की यतनापूर्वक के शकुन से जाएं। प्रतिसेवना करे। यदि मुनि गीतार्थमिश्र हों तो सार्थ में स्थविरा २८९५.अप्पत्ताण निमित्तं, पत्ता सत्थम्मि तिन्नि परिसाओ। श्राविका हो तो उसके पास उस भोजन का निक्षेप कर देते सुद्धे त्ति पत्थियाणं, अद्धाणे भिक्खपडिसेहो॥ हैं। फिर मृगतुल्य शिक्षार्थी मुनियों को भेजकर वह भक्तपान सार्थ को प्राप्त न होने तक स्वयं का निमित्त अर्थात् शकुन मंगा लेते हैं और कहते हैं यह भक्तपान स्थविरा के पास से होता है। सार्थ के साथ हो जाने पर सार्थ का शकुन काम लाया गया है। आता है। सार्थ को प्राप्त कर तीन परिषदें करते हैं-सिंहपर्षद्, २९००.कुओ एयं पल्लीओ, सड्ढा थेरि पडिसत्थिगाओ वा। वृषभपर्षद् और मृगपर्षद। सार्थ को शुद्ध समझ कर उसके नायम्मि य पन्नवणा, न हु असरीरो भवइ धम्मो॥ साथ प्रस्थान किया। मार्ग में भिक्षा का प्रतिषेध कर डाला। वृषभ मुनियों को यदि वे शिक्षार्थी शिष्य पूछते हैं कि यह (व्याख्या आगे) भक्तपान कहां से लाए हैं? तब कहे-पल्ली से। अथवा २८९६.कडजोगि सीहपरिसा, दानादिश्राद्धों ने दिया है, स्थविरा से या प्रतिसार्थिकों से प्रास गीयत्थ थिरा य वसभपरिसा उ।। हुआ है। इतने पर भी यदि उन शिष्यों को यथार्थ ज्ञात हो सुत्तकडमगीयत्था, जाए तो यह प्रज्ञापना करनी चाहिए–'न हु असरीरो भवइ मिगपरिसा होइ नायव्वा॥ धम्मो'-'शरीर से विरहित धर्म नहीं होता', अतः सर्वप्रयत्न जो कृतयोगी-गीतार्थ हैं वे सिंहपर्षद्, जो गीतार्थ और से शरीर की रक्षा करनी चाहिए। स्थिर हैं वे वृषभपर्षद् और जो अगीतार्थ हैं, कृतसूत्र-सूत्र २९०१.पुरतो वच्चंति मिगा, मज्झे वसभा उ मग्गओ सीहा। पढ़ने वाले हैं वे मृगपर्षद् होते हैं। पिट्ठओ वसभऽन्नेसिं, पडियाऽसहरक्खगा दोण्हं ।। २८९७.सिद्धत्थग पुप्फे वा, एवं वुत्तुं पि निच्छुभइ पंतो। मार्ग में जाते समय 'मृग' अगीतार्थ मुनि आगे, मध्य में भत्तं वा पडिसेहइ, तिण्हऽणुसट्ठाइ तत्थ इमा। 'वृषभ'-समर्थ गीतार्थ और मार्गतः-पीछे 'सिंह'-गीतार्थ मुनियों ने सार्थवाह से पूछा-हम आपके साथ प्रस्थान मुनि चलें। अन्य आचार्यों के मत के अनुसार वृषभ पीछे करना चाहते हैं। क्या आप हमारा योगक्षेम वहन करेंगे? चलें, क्योंकि दोनों अर्थात् मृग-सिंह अर्थात् बाल-वृद्ध में जो सार्थवाह ने कहा-शिर पर डाले हुए सरसों के दाने और श्रान्त हो गए हैं या क्षुधा-पिपासा परीषह से पीड़ित हो गए चंपक पुष्प कोई पीड़ा नहीं करते वैसे ही आप भी हमारे लिए हैं, उनके रक्षक वृषभ होते हैं, अतः वे पीछे चलते हैं। कोई भार नहीं हैं। इस प्रकार कहने के पश्चात् भी कोई प्रान्त २९०२.पुरतो य पासतो पिट्ठतो य वसभा हवंति अद्धाणे। सार्थवाह अटवी के मध्य मुनियों को निष्काशित कर देता है गणवइपासे वसभा, मिगमज्झे नियम वसभेगो॥ और भक्तपान का प्रतिषेध कर देता है, तब तीनों-सार्थ, अथवा मार्ग में चलते समय वृषभ आगे-पीछे तथा मध्य सार्थवाह तथा आयत्तिक (व्यवस्थापक) को अनुशिष्टि आदि में होते हैं। गणपति के पास नियमतः वृषभ होते हैं तथा मृग की यह यतना करनी चाहिए। मुनियों के पास नियमतः एक वृषभ मुनि रहता है। २८९८.अणुसट्ठी धम्मकहा, विज्ज निमित्ते पभुत्तकरणं वा। २९०३.वसभा सीहेसु मिगेसु चेव थामावहारविजढा उ। परउत्थिगा व वसभा, सयं व थेरी व चउभंगो॥ जो जत्थ होइ असहू, तस्स तह उवग्गह कुणंति॥ अनुशिष्टि का अर्थ है-धर्मकथा। तीनों को विस्तार से धर्म, वृषभ मुनि अपने बल और वीर्य को छपाते नहीं। वे मग कर्म, पुण्य, पाप आदि की बात बतानी चाहिए। विद्या, मंत्र, तथा सिंह मुनियों में जो अक्षम हो जाता है उसका वे यथार्थ निमित्त के द्वारा उनको वश में करना चाहिए। जो मुनि बलवान् उपग्रह सहयोग करते हैं। हो उसे प्रभुत्व स्थापित करना चाहिए। सर्वथा भक्त-पान का २९०४.भत्ते पाणे विस्सामणे य उवगरण-देहवहणे य। प्रतिषेध करने पर वृषभ अन्यतीर्थिकों के वेष में भक्तपान का थामावहारविजढा, तिन्नि वि उवगिण्हए वसभा।। उत्पादन करे अथवा स्वलिंग से रात्रीभक्त विषयक चतुभंगी से वे उनको भक्त-पान लाकर देते हैं। उनके परिश्रान्त हो प्रयत्न करे अथवा स्थविरा श्राविका से प्राप्त करे। जाने पर विश्रामणा की व्यवस्था करते हैं। जो चल नहीं २८९९.पडिसेह अलंभे वा, गीयत्थेसु सयमेव चउभंगो। सकते उनको तथा उनके उपकरणों का वहन करते हैं। इस थेरिसगासं तु मिए, पेसे तत्तो व आणीयं॥ प्रकार शक्ति का गोपन करने से विमुक्त वे वृषभ तीनों-मृग, जा जर Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ सिंह और वृषभ के उपकारी होते हैं, तीनों का सहयोग करते हैं। २९०५. जो सो उवगरणगणो, पविसंताणं अणागयं भणिओ । सहाणे सहाणे, तस्सुवओोगो इ कमसो ॥ अध्वनिर्गत मार्ग में प्रविष्ट मुनि को उपकरणसमूह लेना चाहिए यह जो कथन है, उसके अनुसार उन उन उपकरणों का अपने- अपने प्रयोजनीय स्थान पर क्रमशः उपयोग करना चाहिए। २९०६. असई व गम्ममाणे, पडिसत्ये तेण सुन्नगामे वा । रुक्खाईण पलोयण, असई नंदी दुविह दव्वे || यदि मार्ग-निर्गत मुनि को भक्तपान की प्राप्ति न हो तो प्रतिसार्थ या स्तेनपल्ली या शून्यग्राम में उसकी एषणा करनी चाहिए | प्रलंब आदि के निमित्त वृक्षों का अवलोकन करना चाहिए। यदि सर्वथा अप्राप्ति हो तो दो प्रकार के द्रव्यों परीत और अनन्त में से जिस द्रव्य से नंदी तप-संयम की वृद्धि होती हो वैसे करे । २९.०७. भत्ते व पाणेण व निमंतऽणुग्गए व अत्यमिए । आइच्चो उदिय त्ति य, गहणं गीयत्थसंविग्गे ॥ अध्वनिर्गत मुनियों को यदि कोई सूर्योदय से पूर्व या सूर्यास्त के पश्चात् भक्तपान के लिए निमंत्रण दे तो गीतार्थ मुनि उसे ग्रहण कर ले सार्थ के पड़ाव पर पहुंच कर सभी मुनियों को सुनाते हुए यह कहे आदित्य उदित है, यह मानकर हमने भक्तपान ग्रहण किया है। इस प्रकार की यतना गीतार्थ, संविग्न मुनि करते हैं। २९.०८. गीयत्थम्हणणं, सामाए गिण्हए भवे गीओ। संविग्गग्गहणेणं, तं गेण्हंतो वि संविग्गो ॥ गीतार्थ का ग्रहण इसलिए किया गया है कि गीतार्थ मुनि ही रात्री में भक्तपान लेता है, अगीतार्थ नहीं। संविग्न का ग्रहण इसलिए है कि रात्रीभक्त लेता हुआ, करता हुआ संविग्न ही है, मोक्षाभिलाषी ही है। २९०९. बेइंदियमाईणं, संथरणे चउलहू उ सविसेसा । ते चैव असंघरणे, विविरीय सभाव साहारे ॥ स्तेनपल्ली में भक्तपान के लिए जाने पर वहां तो केवल मांस ही मिल सकता है। इतरभक्तपान से निर्वाह होता हो तो द्वीन्द्रिय आदि का मांस लेने पर तप और काल से विशेषित चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है यदि उससे संस्तरण - निर्वाह न हो तो उनसे विपरीत उत्क्रम से त्रीन्द्रिय आदि का मांस लेने पर भी चतुर्लघु का ही प्रायश्चित्त है । ( द्वीन्द्रिय का मांस-बल अधिक इन्द्रिय वाले प्राणियों के मांसबल से बृहत्कल्पभाष्यम् अल्पतरबल वाला होता है) अतः मुनि स्वभावतः जो साधारण है, उसे ही वे ग्रहण करते हैं। ', २९१०. जत्थ विसेसं जाणंति तत्थ लिंगेण चउलहू पिसिए । अन्नाएण उ महणं, सत्यम्मि वि होह एसेव ॥ जिस गांव में लोग विशेषरूप से यह जानते हों कि 'श्रमण मांस नहीं खाते', वहां यदि स्वलिंग से मांस ग्रहण हो जाता है तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है अतः अज्ञात रहकर परलिंग से उसे ग्रहण करे। साथ में भी मांस ग्रहण करने में भी यही विधि है। - २९११. अछाणासंघरणे, सुन्ने दव्वम्मि कप्पई गहणं । लहुओ लहुया गुरुगा, जहन्नए मज्झिमुक्कोसे ॥ अध्वगत मुनि यदि प्राप्त से निर्वाह नहीं कर पाते तो वे शून्यग्राम - भय से उजड़े हुए गांव में द्रव्य अर्थात् जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ले सकते हैं। यदि संस्तरण होने पर भी लेते हैं तो जघन्य द्रव्य ग्रहण में मासलघु, मध्यम में चतुर्लघु और उत्कृष्ट में चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। २९१२. उक्कोसं विगईओ, मज्झिमगं होइ कूरमाईणि । दोसीणाइ जहन्नं, गिण्हंते आयरियमादी || उत्कृष्ट द्रव्य है- घृत, दूध आदि विकृतियां, मध्यम द्रव्य है - कूर, कुसण आदि तथा जघन्य द्रव्य है-वासी चावल आदि । इनको ग्रहण करने पर आचार्य आदि के आज्ञाभंग का दोष होता है। २९१३. अद्धाणे संथरणे, सुन्ने गामम्मि जो उ गिण्हेज्जा । छेदादी आरोवण, नायव्वा जाव मासलहू ॥ मार्ग में संस्तरण होने पर भी जो शून्यग्राम से विकृति आदि ग्रहण करता है उसके छेद से प्रारंभ कर मासलघु यावत् आरोपणा प्रायश्चित्त आता है। २९१४. छेदो छम्गुरु छल्लहु, चउगुरु चउलहु य गुरु लहू मासो । आयरिय वसभ भिक्खु, उक्कोसे मज्झिम जहने । उत्कृष्ट द्रव्य-अन्तर्दृष्ट लेने पर छेद, अदृष्ट लेने पर षड्गुरु, बहिर्दृष्ट लेने पर षड्गुरु और अदृष्ट लेने पर षड्लघु । मध्यम द्रव्य-अन्तर्दृष्ट षड्गुरु, अदृष्ट षड्लघु, बहिर्दृष्ट - षड्लघु, अदृष्ट चतुर्गुरु । जघन्य द्रव्य-अन्तर्दृष्ट षड्लघु, अदृष्ट चतुर्गुरु, बहिर्वृष्ट चतुर्गुरु, अदृष्ट चतुर्लघु । यह आचार्य से संबंधित द्रव्यों का प्रायश्चित्त विधान है। इसी प्रकार वृषभ और भिक्षु से संबंधित, कुछ अन्तर से, ऐसा ही प्रायश्चित है इसलिए संस्तरण होने पर नहीं लेना चाहिए। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'एमा६ट्टा पहला उद्देशक २९७ २९१५.विलओलए व जायइ, अहवा कडवालए अणुन्नवए। २९२०.नंदंति जेण तव-संजमेसु नेव य दर त्ति खिज्जति। इयरेण व सत्थभया, अन्नभया वुट्टिते कोट्टे॥ जायंति न दीणा वा, नंदि अतो समयतो सन्ना।। विलओलग-लूटेरों से विकृति द्रव्य की याचना करता है अध्वगत मुनि जिस भोजन से तप-संयम में समाधि का अथवा कटपालक-वृद्ध और अजंगम गृहपालकों को अनुभव करते हैं वह नन्दी अथवा जिस द्रव्य के उपभोग से अनुज्ञापित कर, लेता है। परलिंग से ग्रहण करता है। कोट्ट- शीघ्र कृशता नहीं आती, वह है नन्दी अथवा जिसके योग से भिल्लदुर्ग में सार्थ के भय से अथवा अन्य भय से जो वसति मुनि दीन नहीं होते, वह है नन्दी। यह आगमिक परिभाषा है। उजड़ गई हो वहां जघन्य द्रव्य की याचना करता है, वहां यह २९२१.परिनिट्ठिय जीवजढं, जलयं थलयं अचित्तमियरं च। यतना है परित्तेतरं च दुविहं, पाणगजयणं अतो वोच्छं। २९१६.उद्दृढसेस बाहिं, अंतो वी पंत गिण्हमट्टि। द्रव्य दो प्रकार के होते हैं-परिनिष्ठित (दूसरों के लिए बहि अंत तओ दि8, एवं मज्झे तहुक्कोसे॥ अचित्त किया हुआ), जीव विप्रमुक्त (मुनियों के लिए अचित्त लुटेरों द्वारा लूटा हुआ तथा खाने के पश्चात् शेष रहे। किया हुआ अर्थात् आधाकर्म)। अथवा द्रव्य दो प्रकार के हुए भोज्य पदार्थ जो उनके द्वारा गांव के बाहर छोड़ दिए हों, हैं-जलज और स्थलज। अथवा अचित्त और इतर-सचित्त।' वह जघन्य अदृष्ट द्रव्य पहले ग्रहण करे। उसके अभाव में अथवा परीत्त और अनन्त। यह आहार विषयक यतना है। गांव के मध्य प्रान्त अदृष्ट द्रव्य, उसके अभाव में ग्राम के आगे पानक विषयक यतना कहूंगा। बाहर दृष्ट, फिर ग्राम के मध्य दृष्ट ग्रहण करे। उसके २९२२.तुवरे फले अ पत्ते, रुक्ख-सिला-तुप्प-महणाईसु। अभाव में मध्यम द्रव्य तथा उत्कृष्टद्रव्य का भी इसी पासंदणे पवाए, आयवतत्ते वहे अवहे॥ चारणिका के आधार पर ग्रहण करे। अध्वगत मुनि को यदि कांजिक आदि प्रासुक पानक प्राप्त २९१७.तुल्लम्मि अदत्तम्मी, तं गिण्हसु जेण आवई तरसि। न हो तो निम्न पानक-एक के अभाव में दूसरा और दूसरे के तुल्लो तत्थ अवाओ, तुच्छबलं वज्जए तेणं॥ अभाव में तीसरा-इस क्रम से ले सकता है। सभी प्रकार के द्रव्यों में अदत्तदोष तुल्य होने पर जिससे (१) तुवर फल-हरीतकी आदि तथा तुवरपत्र-पलाशपत्र असंस्तरण की आपदा दूर हो सके वह द्रव्य ग्रहण करे, आदि से परिणामित पानक। क्योंकि वहां संयम और आत्मविराधना रूप अपाय तुल्य है, (२) वृक्ष के कोटर में कटुक फल या पत्र से परिणामित। इसलिए तुच्छबल वाले आहार का वर्जन करे। (३) सिलाजित से भावित। २९१८.फासुग जोणिपरित्ते, एगट्टि अबद्ध भिन्न भिन्ने य। (४) तुप्प-मृत कलेवर, वशा, घृत से भावित। बद्धट्ठिए वि एवं, एमेव य होइ बहुबीए॥ (५) मर्दन-हाथी आदि से आक्रांत। प्रासुक परीत्तयोनिक, एकास्थिक, अबद्धास्थिक, भिन्न- (६) प्रस्यंदन-निर्झर का पानक। विदारित अभिन्न-अविदारित। इसी प्रकार बद्धास्थिक तथा (७) प्रपातोदक। बहुबीज में भी भिन्न-भिन्न भंग होते हैं। वृत्ति में इन सबके ३२ (८) आतप से तप्त। भंग बतलाए हैं। यह वृक्ष के नीचे पड़े प्रलंब के विषय में है। (९) अवहमान-जो बहता नहीं है। २९१९.एमेव होइ उवरिं, एगट्ठिय तह य होइ बहुबीए। (१०) वहमान। साहारणं सभावा, आदीए बहुगुणं जं च॥ ये पानक क्रमशः लिए जा सकते हैं। इसी प्रकार वृक्ष के ऊपर प्रलंब आदि एकास्थिकपद तथा २९२३.जड्डे खग्गे महिसे, गोणे गवए य सूयर मिगे य। बहुबीजपद के साथ भी बत्तीस भंग होते हैं। इनमें जो उप्परिवाडी गहणे, चाउम्मासा भवे लहुगा। स्वभावतः साधारण द्रव्य है, शरीरोपष्टंभकारक है, वह इनके द्वारा आक्रांत पानक (पानी) लिया जा सकता हैग्रहण करे। वही बहुगुण-बहुत उपकारी हो सकता है। हाथी, गेंडा, महिष, गाय, गवय, शूकर, मृग। जो क्रम का १. विलओलग त्ति देशीपदत्वाद् लुण्टाकाः। ५. (क) अचित्तं ति जं नावि परट्ठाए अचित्तीभूयं, नावि संजयटाए, २. कोट्ट-अटवी में भिल्ल, पुलिन्द्र आदि चतुर्वर्णजनपदमिश्र भिल्लदुर्ग। केवलं आयुक्खएण अचित्तं ति॥ चूर्णि ३. उहूढ-देशीवचनत्वात् मुषितं। (ख) तीन शब्द हैं-परिनिहित, जीवविप्रमुक्त और अचित्त। तीनों के ४. चूर्णि-परिनिट्ठियं ति जं परकडमचित्तं, जीवजढं ति आहाकम्म। अर्थ भिन्न हैं। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ उल्लंघन कर पानक ग्रहण करता है उसे चार लघुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। २९२४. रातो सिन्जा-संवारगहणे, चउरो मासा हवंति उग्घाया। आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमाऽऽयाए । रात्री में जो मुनि शय्या संस्तारक ग्रहण करता है, उसे चार उद्घात (लघु) मास का प्रायश्चित्त आता है। आज्ञाभंग आदि दोष तथा संयम और आत्मविराधना होती है। २९२५. छक्कायाण विराहण, विराहण, पासवणुच्यारमेव संथारे। पक्खलण खाणु कंटग, विसम दरी वाल गोणे य॥ रात्री में अप्रत्युपेक्षित भूमी में उच्चार- प्रस्रवण का व्युत्सर्ग करने तथा संस्तारक करने से भी षट्काय विराधना होती है। स्थाणु आदि के कारण प्रस्खलन हो सकता है, पैरों में कांटे लग सकते हैं, निम्नोन्नत भूमी पर या गढ़ों में गिर सकते है, व्याल सर्प का दंश तथा बलीवर्द का अभिघात हो सकता है। २९.२६. एरंडइए साणे, गोम्मिय आरक्खि तेणगा दुविहा एए हवंति दोसा, वेसित्थि - नपुंसएसुं वा ॥ हडकिया पागल कुत्ता काट सकता है, गौल्मिक आरक्षक- रक्षपाल पकड़ लेते हैं, दो प्रकार के स्तेनकों से वह पीडित हो सकता है। रात में शय्या संस्तारक ग्रहण करने से ये दोष होते हैं वेश्यास्त्री तथा नपुंसकों के पांटक में रात्री में शय्या आदि का परिवर्तन करने पर लोगों में अपवाद होता है। २९.२७. सुत्तं निरत्थगं कारणियं, इणमो अद्धाणनिग्गया साहू । मरुगाण कोट्ठगम्मी, पुव्वदिट्ठम्मि संज्झाए | शिष्य ने कहा- यदि ऐसा है तो सूत्र निरर्थक है। आचार्य ने कहा- नहीं, यह कारणिकसूत्र है। अध्वनिर्गत साधु सूर्यास्त की वेला में एक गांव में पहुंचे। वहां उन्होंने ब्राह्मणों का कोष्ठक-अध्ययन कक्ष देखा। उस समय स्वामी वहां नहीं था। संध्या - रात्री में उसके आने पर अनुज्ञा लेकर पूर्वदृष्ट उस कोष्ठक में वे रह जाते हैं। २९२८. दूरे व अन्नगामो, उब्वाया तेण सावय नदी वा । दुल्लभ वसहि ग्गामे, रुक्खाइठियाण समुदाणं ॥ अध्वगत मुनि जहां जाना चाहते थे, वह अन्य ग्राम दूर निकल गया अथवा वे थक गए थे, इसलिए विश्राम करते हु चले चोरों तथा श्वापद का भय था, इसलिए बिना सार्थ आ 2 नहीं पाए या सार्धं विलंब से मिला इसलिए पहुंचने में विलंब हो गया अथवा नदी प्रवाहित हो गई और मध्यवर्ती गांव में बृहत्कल्पभाष्यम् गए, वहां वसति दुर्लभ थी अतः वृक्ष आदि के मूल में रहकर सभी सामुदानिक मिक्षा के लिए घूमने लगे। २९२९. कम्मारणंत दारग-कलाय सभ भुज्जमाणि दिय दिला ते गएसु विसंते, जहिं दिट्ठा उभयभोमाई ॥ घूमते हुए उन मुनियों ने ये स्थान देखे कर्मारशाला (लोहकारशाला), नन्तकशाला (जुलाहे की शाला), दारकशाला (पाठशाला), कलादशाला (स्वर्णकारशाला), सभास्थल ये सारे स्थान दिन में उपभोग में आने वाले दृष्टि - गोचर हुए। लोहकार आदि कार्य करने वालों के कार्य पूर्ण हो जाने पर, संध्या समय में उनकी आज्ञा लेकर उन शालाओं में प्रवेश करते हैं। वहां दोनों भूमियांउच्चार और प्रस्रवण भूमियां प्रत्युपेक्षित कर रात्री में वहां रह जाते हैं। २९३०, मझे व देउलाई बाहिं व ठियाण होइ अइगमणं । सावय मक्कोडग तेण वाल मसयाऽयगर साणे ॥ मुनि गांव के मध्य देवकुल में ठहरे हुए हैं या गांव के बाहर मंदिर में ठहरे हैं - उन स्थानों से उनका रात्री में अतिगमन - गांव में प्रवेश होता है, क्योंकि लोग कहते हैं-यहां रहने पर श्वापद, मकोड़ों, चोरों, सर्प, मशक, अजगर, कुत्तों आदि का भय रहता है। इन कारणों से वे गांव में जाते हैं। २९३१ दिवसट्टिया वि रनिं, दोसे मोडगाहए नाउं । अंतो वयंति अन्नं, वसहिं बहिया व अंतो उ॥ देवकुल आदि स्थानों में दिन में रहे और वहां मकोड़ों आदि दोषों को जानकर ग्राम के अन्दर जाए और वहां अन्य वसति में ठहरे, उसके प्राप्त न होने पर बाहरिका में स्थित देवकुल आदि में चले जाते हैं। दिन में वहां रहे और वहां भी वे ही दोष हों तो बाहरिका से गांव के अन्दर आ जाते हैं। २९३२.पुव्वट्ठिए व रत्तिं, दट्ठूण जणो भणाइ मा एत्थं । निवसह इत्थं सावय-तक्करमाइ उ अहिलिति ॥ २९३३. इत्थी नपुंसओ वा, खंधारो आगतो त्ति अइगमणं । गामाशुगामि एहि वि होज्ज विगालो हमेहिं तु ॥ देवकुल आदि में पूर्वस्थित साधुओं को रात्री में देखकर लोग कहते हैं - यहां मत रहो। यहां श्वापद, तस्कर आदि आते हैं। यहां रात्री में स्त्री, नपुंसक तथा स्कंधावार आदि आते हैं। यह सुनकर वे बाहरिका से गांव में प्रवेश करते हैं। ग्रामानुग्राम विहरण करने वाले मुनियों के लिए भी इन कारणों से विकाल रात्री हो सकती है। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक २९९ २९३४.वितिगिट्ठ तेण सावय, आदि सभी परित्यक्त हो जाते हैं, क्योंकि दीपक के अभाव फिडिय गिलाणे व दुब्बल नई वा। में सर्पदंश, श्वाभक्षण आदि आत्मविराधना होती है। पडिणीय सेह सत्थे, २९३९.बाहिं काऊण मिए, गीया पविसंति पुंछणे घेत्तुं। न उ पत्ता पढमबिइयाई॥ देउल सभ परिभुत्ते, मग्गंति सजोइए चेव॥ मासकल्प के पश्चात् जिस गांव में जाना है, वह जो मृग-अगीतार्थ मुनि हों, उनको गांव के बाहर व्यतिकृष्ट-दूर है, मार्ग में स्तेनों और श्वापदों का भय है, बिठाकर गीतार्थ मुनि प्रोंछन-दारुदंडक लेकर पहले गांव में मार्ग से भटक गए हों, ग्लान और दुर्बल मुनि साथ में हैं, नदी प्रवेश करे और देवकुल, सभा आदि, जो काम में ली जा का पूर आ गया हो, प्रत्यनीक ने मार्ग अवरुद्ध कर दिया हो, रही हैं, जो ज्योति-दीप सहित हों, उनकी याचना करे। कोई शैक्ष प्राप्त होने वाला हो, वह जिसके साथ आ रहा है (यदि ज्योति न हो तो गृहस्थों से कहे या स्वयं जाकर वह सार्थ मंदगति से आ रहा है-इन कारणों से प्रथम द्वितीय लाएं। फिर उच्चार आदि भूमी की प्रत्युपेक्षा कर बहिस्थित या तृतीय-चतुर्थ प्रहर में भी वे वहां पहुंच नहीं सके अर्थात् मुनियों को बुला लें।)। रात्री में वहां पहुंचते हैं। उनको भी गांव में विधिपूर्वक प्रवेश २९४०.परिभुज्जमाण असई, सुन्नागारे वसंति सारविए। करना चाहिए, अविधि से नहीं। अहणुव्वासिय सकवाड निब्बिले निच्चले चेव॥ २९३५.अइगमणे अविहीए, चउगुरुगा पुव्ववन्निया दोसा। यदि परिभुज्यमान वसति की प्राप्ति न हो तो ‘सारवित' आणाइणो विराहण, नायव्वा संजमाऽऽयाए। प्रमार्जित शून्यगृह जो अभी-अभी शून्य हुआ है, जो कपाटअविधि से अतिगमन-प्रवेश करने पर चतुर्गुरु का सहित, बिलरहित और निश्चल है, उसकी गवेषणा करे। प्रायश्चित्त तथा पूर्ववर्णित दोष (षट्कायविराधना आदि), २९४१.जइ नाणयंति जोई, गिहिणो तो गंतु अप्पणा आणे। आज्ञाभंग तथा संयम और आत्मविराधना आदि दोष कालोभयसंथाराण भूमिओ पेहए तेणं॥ ज्ञातव्य हैं। यदि गृहस्थ ज्योति नहीं लाते हैं तो गीतार्थ मुनि स्वयं ले २९३६.सव्वे वा गीयत्था, मीसा वा अजयणाए चउगुरुगा। आए। उस प्रकाश में कालभूमी, संज्ञाभूमी, कायिकीभूमी आणाइणो विराहण, पुव्विं पविसंति गीयत्था॥ तथा संस्तारकभूमी-इन चारों की प्रत्युपेक्षा करे। यदि सभी मुनि गीतार्थ हों तो सभी प्रवेश करते हैं यदि २९४२.असई य पईवस्सा, गोवालाकंचु दारुदंडेणं। मिश्र हों और अयतना से प्रवेश करते हैं तो चतुर्गुरु का बिल पुंछणेण ढक्कण, मंतेण व जा पभायं तु॥ प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग आदि दोष तथा संयम और आत्म- यदि प्रदीप की व्यवस्था न हो तो मुनि गोपालकंचुक को विराधना होती है। उसमें यतना यह है-गीतार्थ पहले प्रवेश धारण कर दारुदंडक से वसति का प्रमार्जन करे। वहां करते हैं। बिलों को पादपोंछन से ढंक दे, अथवा मंत्र से सर्प आदि २९३७.जइ सव्वे गीयत्था, सव्वे पविसंति ते वसहिमेव।। का स्तंभन करे और प्रातः होते ही पादपोंछन आदि को विहि अविहीए पवेसो, मिस्से अविहीइ गुरुगा उ॥ निकाल ले। यदि सभी गीतार्थ हों तो सभी एक साथ वसति में प्रवेश २९४३.एमेव य भूमितिए, हरियाई खाणु-कंट-बिलमाई। करते हैं। यदि अगीतार्थमिश्र हो तो विधि या अविधि से दोसदुगवज्जणट्ठा, पेहिय इयरे पवेसंति॥ प्रवेश होता है। अविधि से प्रवेश करने पर चतुर्गुरु का पूर्वोक्त विधि गीतार्थ मुनियों की है। साथ में अगीतार्थ प्रायश्चित्त आता है। मुनि हों तो उनको गांव के बाहर स्थापित कर गीतार्थ मुनि २९३८.विप्परिणामो अप्पच्चओ य दुक्खं च चोदणा होइ। गांव में प्रवेश कर वसति को प्राप्त कर, वहां भूमीत्रिक अर्थात् पुरतो जयणाकरणे, अकरणे सव्वे वि खलु चत्ता॥ संज्ञाभूमी, कायिकीभूमी और कालभूमी-इन तीनों भूमियों की गीतार्थ मुनि यदि ज्योति दीपक आदि स्वयं लाने की प्रत्युपेक्षा करे, हरियाली, स्थाणु, कंटक, बिल आदि यतना करते हैं तो शैक्ष मुनियों के मन में विपरिणाम होता है प्रत्युपायों तथा दोषद्वय-संयम और आत्मविराधना के वर्जन और उनमें गीतार्थ मुनियों के प्रति अविश्वास हो जाता है। के लिए पूरी वसति का निरीक्षण कर बहिस्थित अगीतार्थ फिर उन शैक्ष मुनियों को सामाचरी की यथार्थ पालना के मुनियों को गांव में बुला ले। लिए प्रेरणा देना कष्टप्रद हो जाता है। और यदि गीतार्थ मुनि २९४४.ठाणासई य बाहिं, तेणगदोच्चा व सव्वे पविसंति। ज्योति-दीपक आदि की यतना नहीं करते हैं तो आचार्य गुरुगा उ अजयणाए, विप्परिणामाइ ते चेव॥ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =बृहत्कल्पभाष्यम् यदि गांव के बाहर स्थान न मिले और वहां स्तेनों का २९४९.गिहि जोइं मग्गंतो, मिगपुरओ भणइ चोइओ इणमो। भय हो तो सभी मुनि एक साथ गांव में प्रवेश कर लें। णाभोगेण मउत्तं, मिच्छाकारं भणामि अहं ।। अयतना होने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा विपरिणाम, यदि कोई मुनि अगीतार्थ मुनियों के सामने गृहस्थ से अविश्वास आदि वे ही दोष होते हैं। प्रदीप की मांग करता है और कोई अगीतार्थ मुनि उसे कहता २९४५.अविगीयविमिस्साणं, जयण इमा तत्थ अंधकारम्मि। है यह सावध प्रवृत्ति क्यों कराते हो? तब मुनि कहता है आणणऽणाभोगेणं, अणागयं कोइ वारेइ॥ मैंने अज्ञात अवस्था में ऐसा कह दिया। मैं उसका 'मिच्छामि अंधकारमय वसति में अगीतार्थमिश्र मुनियों की यह दुक्कडं' कहता हूं। यतना है-अगीतार्थ मुनि न जान पाएं, इस प्रकार अन्य किसी २९५०.एमेव जइ परोक्खं, जाणंति मिगा जहेइणा भणिओ। बहाने प्रदीप मंगाया जाए। यदि गृहस्थ न लाए तो उसके घर तत्थ वि चोइज्जंतो, सहसाऽणाभोगओ भणइ॥ जाकर कहा जाए, जिससे कि वह दीप लेकर आए। यदि कोई इसी प्रकार कोई मुनि अगीतार्थ मुनियों के परोक्ष में उसकी वर्जना करता है तो उसे शिक्षा दे। गृहस्थ को इस सावध प्रवृत्ति के लिए कहता है और वे २९४६.अम्हेहि अभणिओ अप्पणो णु आओ णु अम्ह अट्ठाए। अगीतार्थ मुनि इसे जान जाते हैं कि इस मुनि ने गृहस्थ को आणेइ इहं जोई, अयगोलं मा निवारेह॥ कहा है, और वह मुनि उस मुनि को सावध प्रवृत्ति न करने यदि कोई गृहस्थ वहां दीपक लेकर आता है और कोई की प्रेरणा देता है तो वह मुनि कहता है-मैंने सहसाकार या मुनि उसकी वर्जना करता है तो मुनि को कहना चाहिए हमने अजानकारी में कह दिया। इसका मैं 'मिच्छामि दुक्कडं' इसको दीपक लाने के लिए नहीं कहा है। यह अपने प्रयोजन करता हूं। के लिए अथवा हमारे लिए यहां दीपक ला रहा है तो हमें २९५१.गिहिगम्मि अणिच्छंते, सयमेवाणेइ आवरित्ताणं। इसकी चिन्ता क्यों करनी चाहिए? गृहस्थ लोहे के गोले के जत्थ दुगाई दीवा, तत्तो मा पच्छकम्मं तु॥ समान होता है। इसकी वर्जना मत करो। गृहस्थ प्रदीप लाना नहीं चाहता तो मुनि स्वयं जाकर २९४७.गिहिणं भणंति पुरओ, प्रदीप को आवृत कर ले आता है। वह वैसे घर से दीपक अइतमसमिणं न पस्सिमो किंचि। लाता है जहां दो-तीन दीपक जल रहे हो। जहां केवल एक ही आणंति जइ अवुत्ता, दीपक हो उस घर से दीपक न लाए क्योंकि वहां पश्चातकर्म तहेव जयणा निवारंते॥ की संभावना रहती है। यदि गृहस्थ स्वयं वहां दीपक नहीं लाते तो मुनि उनको २९५२.उज्जोविय आयरिओ, किमिदं अहगं मि जीवियट्ठीओ। कहते हैं-वसति में बहुत अंधेरा है। वहां कुछ भी दिखाई नहीं आयरिए पन्नवणा, नट्ठो य मओ य पव्वइओ। देता। यदि ऐसा कहे बिना भी वे प्रदीप ले आते हैं तो बहुत प्रतिश्रय के उद्योतित होने पर आचार्य मुनि को कहते अच्छा। जो उसकी वर्जना करता है उसके प्रति वही यतना- हैं-'यह तुमने क्या किया?' वह कहता है-'मैं आज भी प्रेरणा है। जीवितार्थी हूं।' तब आचार्य (मायापूर्वक) उसे कहते हैं२९४८.गंतूण य पन्नवणा, आणण तह चेव पुब्वभणियं तु।। प्रव्रजित होकर ऐसा कार्य करते हो तो सन्मार्ग से परिभ्रष्ट भणण अदायण असई, पच्छायण मल्लगाईसु॥ और मृत-संयम जीवन से रहित हो। कैसा है तुम्हारा जीवित इतना कहने पर भी यदि गृहस्थ न समझे तो जाकर रहना? मुनि उन्हें स्पष्टरूप से प्रज्ञापित करे। तब वे यदि २९५३.तस्सेव य मग्गेणं, वारणलक्खेण निति वसभा उ। प्रदीप लाते हैं और कोई मुनि वर्जना करता है तो पूर्वोक्त भूमितियम्मि उ दिद्वे, पच्चप्पिय मो इमा मेरा॥ विधि से मुनि को समझाए। यदि कोई मुनि गृहस्थ से उसी प्रदीप लाने वाले साधु के निवारण के मिष से उसके कहे-प्रदीप ले आओ और दूसरा मुनि उस मुनि से पीछे वृषभ निर्गत होते हैं। भूमीत्रिक को देख लेने पर तथा कहे-यह सावध प्रवृत्ति क्यों कराते हो? तब उसके समक्ष प्रदीप को प्रत्यर्पित कर देने पर यह मर्यादा है, सामाचारी है। मिथ्या दुष्कृत कहना चाहिए। यदि गृहस्थ प्रदीप लाना नहीं २९५४.खरंटण वेंटिय भायण, चाहता है तो गीतार्थ मुनि प्रदीप को मल्लक आदि से ढंक गहिए निक्खिवण बाहि पडिलेहा। कर ले आए, जिससे कि वह अगीतार्थ मुनियों को वसभेहि गहियचित्ता, दृष्टिगोचर न हो। इयरे पसाइंति कल्लाणं ।। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक आचार्य उस मुनि की खरंटना करे। वह मुनि अपने उपकरण और पात्र लेकर बाहर चला जाए। यह उसको गच्छ से पृथक् करना केवल बहाना मात्र है। वह बाहर रहकर प्रत्युपेक्षा तथा प्रतिक्रमण करता है। वृषभ भावना को समझते हुए तथा इतर मुनि आचार्य को प्रसन्न करते हैं और तब आचार्य उस मुनि को पांच कल्याणक का प्रायश्चित्त देकर गच्छ में सम्मिलित कर लेते हैं। २९५५. तुम्ह य अम्ह य अट्ठा, एसमकासी न केवलं सभया । खामेमु गुरु पविसउ, बहुसुंदरकारओ अहं ॥ वृषभ तथा इतर मुनि आचार्य से कहते हैं-आर्य इस मुनि ने आपके लिए तथा हम सबके लिए ऐसा किया था, केवल स्वयं के भयनिवारण के लिए नहीं । अतः आप इसे पुनः गच्छ में प्रवेश दें, हम सब आपसे क्षमायाचना करते हैं। यह हम सबके लिए बहुत कल्याणकारक हुआ है, मुनि भी और प्रतिश्रय भी । (गुरु कहते हैं- ओह! तुम सभी उसके पक्षधर हो गए ।) २९५६. अत्रे व विवेहि, अलमज्जो! अहव तुम्भ मरिसेमि तेसि पि होइ बलियं, अकज्जमेयं न य सुदंति ॥ गुरु कहते हैं - आर्य ! यह मुनि इस प्रकार करता हुआ अन्य मुनियों को भी बिगाड़ देगा। अब इससे हमारा बहुत हो चुका। (साधु कहते हैं-गरुदेव ! अब आगे यह इस प्रकार नहीं करेगा। आप इसे एक बार क्षमा करें।) आचार्य कहते हैं- यदि ऐसा है तो मैं तुम्हारी बात मानकर इसे गच्छ में लेता हूं।' यह सब सुनकर अन्यान्य अगीतार्थ मुनियों के भी यह भावना अत्यंत हृदय में समा जाती है कि ऐसा करना अकार्य है। फिर उनको सावद्य कार्य न करने की प्रेरणा देने पर वे व्यथा का अनुभव नहीं करते। २९५७. एसो विही उ अंतो, बाहि निरुद्धे इमो विही होइ । सावय तेणय पडिणीय देवयाए विही ठाणं ॥ यह विधि ग्राम में प्रविष्ट मुनियों के लिए कही गई है। ग्राम के बहिस्थित मुनियों की यह विधि होती है। अध्वनिर्गत मुनि विकाल में ग्राम पहुंचे। उस समय नगरद्वार निरुद्ध अर्थात् बंद हो गए। उस कारण से उन्हें बाहर रुकना पड़ा। यदि वहां श्वापद, स्तेन तथा प्रत्यनीक का भय हो तो देवता को आहूत करने के लिए विधिपूर्वक स्थान- कायोत्सर्ग करे । तथा कपाटवाले भूमीगृह अथवा देवकुल में ठहरे। वे स्थान कपाटवाले न मिले तो आवरणरहित स्थान में रहे। वे विद्या द्वारा द्वार को स्थगित कर दे, विद्या द्वारा दिशाओं को बांध दे, जिससे कि श्वापद ३०९ आदि प्रवेश न कर सकें। विद्या के अभाव में अचित्त कंटक आदि से, उसके अभाव में मिश्र कंटक, उसके अभाव में सचित्त कंटक आदि से द्वार को स्थगित करे। उसके अभाव में 'गुरु आणा'- गुरु आज्ञा अर्थात् भगवती आज्ञा की प्ररूपणा यह है-आचार्य आदि के मारणान्तिक उपसर्ग उपस्थित होने पर जो मुनि समर्थ हो, वह अपने सामर्थ्य के अनुसार उस उपसर्ग के निवारण के लिए पराक्रम करे। २९५८. भूमिघर देउले वा, सहियावरणे व रहियआवरणे । 3 रहिए विज्जा अच्चित्त मीस सच्चित्त गुरु आणा ॥ २९५९. सकवाडम्मि उ पुब्विं, तस्सऽसई आणईति उ कवाडं । विज्नाए कंटियाहि व अचित्त चित्ताहि वि उयंति ॥ पहले सकपाटवाले भूमीगृह अथवा देवकुल में ठहरें । उसके अभाव में अकपाटवाले स्थान में ठहर कर अन्य स्थान से कपाट लाए। कपाट न मिलने पर विद्या से द्वार का स्थगन कर, या अचित्त, मिश्र या सचित्त कंटकों से स्थगित करे । २९६०. एएसिं असईए, पागार वई व रुक्ख नीसाए । परिखेव विज्ज अच्चित्त मीस सच्चित्त गुरु आणा ॥ भूमीगृह या देवकुल आदि न मिलने पर प्राकार, वृत्ति या वृक्ष की निश्रा में रहे। वहां भी विद्या से परिक्षेप का निर्माण करे। उसके अभाव में क्रमशः अचित्त, मिश्र या सचित्त कंटकों से परिक्षेप करे गुरु आज्ञा इस प्रकार है। २९६१. गिरि-नइ-तलागमाई, एमेवागम ठएंति विज्जाई । एग दुगे तिदिसिं वा, ठएंति असईए सव्वत्तो ॥ गिरि या नदी या तालाब आदि की निश्रा में रहे। इनमें जहां एक ही प्रवेश हो वहां रहे, उसके अभाव में दो दिशाओं अथवा तीन दिशाओं में प्रवेश हो वहां भी रहा जा सकता है। उनके आगम-प्रवेशमुख को विद्या आदि से स्थगित करे । इनके अभाव में खुले आकाश में रहना पड़े तो सभी ओर से विद्याप्रयोग से स्थगन करे या दिशा बंध करे। २९६२. नाउमगीयं बलिणं, अविजाणंता व तेसि बलसारं । घोरे भयम्मि थेरा, भणति अविगीययेज्जत्थं ॥ २९६३.आयरिए गच्छम्मि य, कुल गण संघे य चेइय विणासे । आलोइयपडिकंतो, सुद्धो जं निज्जरा विउला ॥ खुले आकाश में स्थित मुनि किसी अगीतार्थ मुनि क समर्थ जानकर अथवा साथवाले मुनियों के बलसार को जानते हुए, घोर भय उपस्थित होने पर स्थविर आचार्य अगीतार्थ मुनियों के स्थिरीकरण के लिए कहते आचार्य, गच्छ, कुल, गण, संघ या चैत्य का बमें उपस्थित होने पर उसका निवारण करने के लिए सार्थ साधु पराक्रम करता है और उसमें कोई दोष होता, वे . Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ आलोचना, प्रतिक्रमण करने से शुद्ध हो जाता है और उसके विपुल निर्जरा होती है। २९६४. सोऊण य पन्नवणं, कयकरणस्सा गयाइणो गहणं । सीहाई चेव तिंग, तवबलिए देवयद्वाणं ॥ आचार्य की यह प्रज्ञापना सुनकर कृतकरण मुनि गदा आदि लेकर रात को जागता रहता है। वह सिंहत्रिक को भगा देता है या मार डालता है। उसके अभाव में जो मुनि तपोबलिक होता है, वह देवता को आहूत करने कायोत्सर्ग करता है। (सभी मुनि सो रहे थे। एक कृतकरण मुनि हाथ में गदा लेकर जाग रहा था। इतने में एक सिंह आ गया। मुनि ने उस पर प्रहार किया। वह वहां से कुछ दूरी पर गिरा और मर गया। दूसरा सिंह आया। मुनि ने सोचा, वही सिंह पुनः आ गया है। उस पर तीव्रता से प्रहार किया। वह भी कुछ दूर जाकर मर गया। तीसरा सिंह आया मुनि ने तीव्रतम प्रहार किया और वह भी मर गया । रात्री सुखपूर्वक बीत गई ।) २९६५. हंत म्मि पुरा सीहं, खुड्याइ झ्याणि मंदथामो मि तिन्नाऽऽवाए सीहो, रत्तिं, पहओ मया न मओ ।। प्रातः वह गुरु के पास जाकर बोला- भंते! पहले मेरा शरीर शक्तिसंपन्न था। मैंने खडका ( हाथ के चपेटा) मात्रा से सिंह को मार डाला था। अब मेरे शरीर की शक्ति मंद हो गई है। रात्री में एक सिंह तीन बार आया मैंने उस पर तीन बार प्रहार किया, वह मरा नहीं, भाग गया। गुरु ने उसे मिच्छामि दुक्कडं का दंड दिया, क्योंकि उसका परिणाम शुद्ध था। २९६६. नितेहिं तिन्नि सीहा, आसन्ने नाइदूर दूरे य । निम्गयजीहा दिठ्ठा, स चावि पुट्टो इमं भणइ ॥ प्रभात में बाहर जाते समय आचार्य ने तीन सिंहों को मरे हुए देखा। उन तीनों की जिह्वा बाहर निकली हुई थी । एक सिंह निकट ही मरा पड़ा था, दूसरा कुछ दूरी पर और तीसरी उससे आगे मरा पड़ा था। आचार्य ने उस मुनि से पूछा ये तीन सिंह कैसे मरे ? वह बोला २९६७. मा मरिहिइति गाढं न आहओ तेण पठमओ दूरे। गाढतर बिइय तइओ, न य मे नायं जहन्नन्नो ॥ भंते! जब पहला सिंह आया, मैंने सोचा यह मर न जाए इसलिए उस पर गाढ़ प्रहार नहीं किया, हल्का प्रहार किया। वह बहुत दूर जाकर मर गया। दूसरी बार सिंह आया। मैंने सोचा वही पुनः आ गया है, इसलिए उस पर गाढ़ प्रहार किया वह भी कुछ दूर जाकर मर गया। तीसरी बार १. वृतिकृता एतत् स्वतंत्रसूत्रं स्वीकृतम् । बृहत्कल्पभाष्यम् सिंह के आने पर मैंने गाढतर प्रहार किया, वह निकट भूमी पर ही मर गया। मैं नहीं जान पाया कि ये पृथग् पृथम् तीन सिंह थे। २९६८. खमओ व देवयाए, उस्सग्ग करेइ जाव आउट्टा । रक्खामि जा पभायं, सुवंतु जइणो सुवीसत्था ॥ ऐसे कृतकरण मुनि के अभाव में मुनि देवता को आहूत करने के लिए कायोत्सर्ग करे। जब वह देवता आराधित हो जाता है, तब आकर कहता है-मुनिवर्य ! आप कायोत्सर्ग को संपन्न करें। प्रभात होने तक मैं आप सबकी श्वापदों से रक्षा करूंगा। आप सभी मुनि विश्वस्त होकर सुखपूर्वक सोएं। २९६९, जह सेज्जाऽणाहारो, वत्थादेमेव मा अइपसंगा। दियदिवत्थगहणं, कुज्जा उ निसिं अतो सुत्तं ॥ जैसे शय्या - वसति अनाहार है इसी प्रकार वस्त्र भी अनाहार है इसलिए रात्री में उनको ग्रहण करना कल्पता है। अतः अतिप्रसंग से दिन में देखा हुआ वस्त्र रात्री में ग्रहण न कर ले इसलिए यह सूत्र है। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा रातो वा वियाले वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पडिग्गाहेत्तए । नन्नत्थ एगाए हरियाहडियाए । सा वि परिभुत्ता वा धोया वा रत्ता वा घट्टा वा मट्ठा वा संपधूमिया वा ।।' (सूत्र ४३) २९७०. रातो वत्थग्गहणे, चउरो मासा हवंति उन्घाया। आणाइणो य दोसा, आवज्जण संकणा जाव । रात्री में वस्त्र ग्रहण करने पर चार अनुद्घात मास का प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं यावत् पांचों महाव्रत के प्रति आपत्ति तथा शंका उत्पन्न होती है। २९७१. विइयं विहे विवित्ता, पडिसत्थाई समिच्च रवणीए । ते य पए च्चिय सत्था, चलिहिंतुभए व इक्को वा ।। उत्सर्गतः रात्री में वस्त्र ग्रहण करना नहीं कल्पता, किन्तु द्वितीयपद - अपवाद में इन कारणों से ग्रहण किया जा सकता है । अध्वनिर्गत होने पर मार्ग में, चोरों द्वारा लूटे जाने पर या प्रतिसार्थवाह को प्राप्त कर रात्री में वस्त्र लिया जाता है। प्रातःकाल होते ही सार्थ और प्रतिसार्थ दोनों चले जायेंगे या दोनों में से कोई एक रवाना हो जाएगा यह सोचकर रात्री में वस्त्र ग्रहण करते हैं। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = ३०३ २९७२.उद्दहरे सुभिक्ख, अद्धाणपवज्जणं तु दप्पेण। लहुगा पुण सुद्धपदे, जं वा आवज्जई जत्थ। ऊर्ध्वदर और सुभिक्ष के चार भंग होते हैं(१) ऊर्ध्वदर तथा सुभिक्ष। (२) ऊर्ध्वदर असुभिक्ष। (३) सुभिक्ष न ऊर्ध्वदर। (४) न ऊर्ध्वदर और न सुभिक्ष। . इनमें दूसरे और चौथे भंग में अध्वगमन करना चाहिए। पहले और तीसरे भंग में दर्प से कोई अध्वगमन करता है तो शुद्धपद में भी चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है तथा संयमविराधना आदि होने पर तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त भी आता है। २९७३.नाणट्ठ दंसणट्ठा, चरित्तट्ठा एवमाइ गंतव्वं। उवगरण पुव्वपडिलेहिएण सत्थेण गंतव्वं ॥ प्रथम तथा तृतीय भंग में इन कारणों से गमन विहित है-ज्ञान के लिए, दर्शन के लिए तथा चारित्र के लिए। गमन करने वाले-जाने वाले तलिकादि उपकरण लेकर जाएं तथा पूर्व प्रत्युपेक्षित सार्थ के साथ जाए। २९७४.सत्थे विविच्चमाणे, असंजए संजए तदुभए य। मग्गंते जयण दाणं, छिन्नं पि हु कप्पई घेतुं॥ चार प्रकार के स्तेन (चोर) होते हैं१. असंयतप्रान्त ३. उभयप्रान्त २. संयतप्रान्त ४. उभयभद्रक। असंयतप्रान्त स्तेन सार्थ को लूटते समय साथ वाले मुनियों से वस्त्र मांगते हैं। उस समय यतनापूर्वक दान करना चाहिए। वे स्तेन यदि फाड़ा हुआ वस्त्र भी प्रत्यर्पित करें तो उसे ग्रहण करना कल्पता है। २९७५.संजयभद्दा गिहिभद्दगा य पंतोभए उभयभद्दा। तेणा होति चउद्धा, विगिंचणा दोसुं तू जइणं ।। स्तेन चार प्रकार के होते हैं१. संयतभद्रक परन्तु गृहस्थप्रान्त। २. गृहस्थभद्रक परन्तु संयतप्रान्त । ३. दोनों के लिए प्रान्त । ४. दोनों के लिए भद्रक। दूसरे और तीसरे भंगवर्ती स्तेन यतियों के वस्त्रों का विवेचन-पृथक्करण करते हैं, उनके वस्त्र लूट लेते हैं। २९७६.जइ देंतजाइया जाइया व न वि देंति लहुग गुरुगा य। सागार दाण गमणं, गहणं तस्सेव नऽन्नस्स॥ गृहस्थों के वस्त्र लूट लिए जाने पर यदि मुनि गृहस्थों के बिना मांगे ही उनको वस्त्र देते हैं तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त १. समनोज्ञ-समनोज्ञया-परस्परसदृशया सामाचार्या वर्तन्ते इति। आता है और यदि मांगने पर भी नहीं देते हैं तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। गृहस्थों को प्रातिहारिक कहकर वह वस्त्र दे और जिस पथ से गृहस्थ जाएं, उसी पथ से मुनि विहरण करें। यदि दूसरे मार्ग से जाते हैं तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। छिन्न हो जाने पर भी उसी वस्त्र का ग्रहण करे, दूसरे वस्त्र का नहीं। २९७७.दंडपडिहारवज्जं, चोल-पडल-पत्तबंधवज्जं च। परिजुण्णाणं दाणं, उड्डाह-पओसपरिहरणा।। उन गृहस्थों को दंडपरिहार अर्थात् अत्यंत जीर्णकम्बल, चोलपट्ट, पडलक तथा पात्रबंध-इनको छोड़कर अन्य परिजीर्ण वस्त्र दे। यह दान गृहस्थों के उड्डाह तथा प्रद्वेष निवारण के लिए होता है। २९७८.धोयस्स व रत्तस्सव, अन्नस्स वऽगिण्हणम्मि चउलहुगा। तं चेव घेत्तु धोउं, परिभुजे जुण्णमुज्झेज्जा॥ गृहस्थ यदि उस वस्त्र को धो दे या रंग दे, तो भी उसी का ग्रहण करना चाहिए। दूसरा वस्त्र लेने पर अथवा उस धोए, रंगे वस्त्र को न लेने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त विहित है। अतः साधु उसी वस्त्र को ग्रहण कर, उसे धोकर, उसका परिभोग करे और जो अतिजीर्ण हो गया हो उसका परिष्ठापन कर दे। २९७९.सट्ठाणे अणुकंपा, संजय पडिहारिए निसिटे य। असईअ तदुभए वा, जयणा पडिसत्थमाईसु॥ स्वस्थान अनुकंपा अर्थात् साधुओं के वस्त्र यदि लूट लिए गए हों तो साध्वियां अनुकंपा करे, वस्त्र दें। साधु उनसे प्रातिहारिक वस्त्र ग्रहण करें। यदि साध्वियों के वस्त्र लूट लिए गए हों तो साधुओं के लिए साध्वियां स्वस्थान हैं, अतः उन पर अनुकंपा कर उन्हें वस्त्रदान दें। उनको प्रातिहारिक वस्त्र नहीं अपने निज के वस्त्र दें। यदि निजक अधिक न हों तो प्रातिहारिक वस्त्र भी दिए जा सकते हैं। यदि साधु-साध्वी-दोनों के वस्त्र लूट लिए गए हों तो प्रतिसार्थ आदि में वस्त्रान्वेषण की यतना करनी चाहिए। २९८०.न विवित्ता जत्थ मुणी,समणी य गिही य जत्थ उडूढा। सट्ठाणऽणुकंप तहिं, समणुन्नियरासु वि तहेव।। जहां साधुओं के वस्त्र नहीं लूटे गए किन्तु साध्वियां और गृहस्थों के वस्त्र लूट लिए गए हों तो स्वस्थान अर्थात् साध्वी वर्ग के प्रति अनुकंपा कर साधु उनको वस्त्रदान करे। साध्वियां दो प्रकार की हैं-समनोज्ञ' (सांभोगी) और Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ अमनोज्ञ (असांभोगी)। दोनों के लिए पर्याप्त वस्त्र हों तो दोनों को दे अन्यथा स्वस्थान अर्थात् समनोज्ञ साध्वियों को दे । २९८१. लिंगट्ठ भिक्ख सीए, गिण्हंती पाडिहारियमिमेसु । अमणुन्नियरगिहीसुं, जं लब्द्धं तन्निभं दिति ॥ यदि साधु लूटे जा चुके हो तो वे लिंग के लिए रजोहरण और मुखवस्त्रिका, भिक्षा के लिए पात्रबंध और पटलक आदि तथा शीतरक्षा के लिए प्रावरण आदि प्रातिहारिक रूप में अमनोज्ञ या पार्श्वस्थ आदि से तथा गृहस्थों से ले सकते हैं। चोलपट्ट आदि जब प्रातिहारिक के सदृश प्राप्त हो उसे ग्रहण कर अमनोज्ञ आदि को प्रत्यर्पित कर दे । २९८२.उद्दूढे व तदुभए, सपक्ख परपक्ख तदुभयं होइ । अहवा वि समण समणी, समणुन्नियरेसु एमेव ॥ दोनों के मुषित होने पर यहां तदुभय (अर्थात् दोनों) के ये अर्थ हैं - स्वपक्ष और परपक्ष । अथवा श्रमण और श्रमणियां | अथवा समनोज्ञ और अमनोज्ञ । २९८३.अमणुन्नेतर गिहि- संजईसु असइ पडिसत्थ- पल्लीसु । तिuesट्ठा गहणं, परिहारिय एतरे चेव ॥ अमनोज्ञ, इतर अर्थात् पार्श्वस्थ आदि, गृहस्थ, साध्वीइनके वस्त्रों को चुरा लिए जाने पर ये प्रतिसार्थ अथवा पल्ली में वस्त्र की एषणा करे। तीन कार्यों के लिए प्रतिहारिक या निसृष्ट वस्त्र ग्रहण करे - लिंग, भिक्षा और शीतपरित्राण । २९८४. एवं तु दिया गहणं, अहवा रत्तिं मिलेज्ज पडिसत्थो । गीएसु रत्ति गहणं, मीसेसु इमा तहिं जयणा । इस प्रकार वस्त्र ग्रहण दिन में करे। यदि रात्री में प्रतिसा मिले और वहां सभी गीतार्थ हों तो रात्री में भी ग्रहण करे। यदि मुनि मंडली अगीतार्थमिश्र हो तो यह यतना है । २९८५. वत्थेण व पाएण व, निमंतएऽणुग्गए व अत्थमिए । आइच्चो उदिउ त्ति य, गहणं गीयत्थसंविग्गे ॥ प्रतिसार्थ में यदि कोई सूर्योदय से पूर्व अथवा सूर्यास्त के पश्चात् वस्त्र अथवा पात्र ग्रहण के लिए निमंत्रण दे और वह सार्थ यदि रात्री में ही प्रस्थान कर रहा हो तो वे गीतार्थसंविग्न मुनि रात्री में ही वस्त्र ग्रहण कर सूर्योदय के समय मुनि मंडली से मिल जाते हैं। २९८६. खंडे पत्ते तह दब्भचीवरे तह य हत्थपिहणं तु । अद्धाणविवित्ताणं, आगाढं सेसऽणागाढं ॥ साध्वियों के यदि वस्त्र लूट लिए गए हों तो उन्हें चर्मखंड या शाकपत्र आदि पहनने के लिए देने चाहिए। अथवा दर्भ को सघनरूप से ग्रथित कर अर्पित करना चाहिए। सर्वथा परिधान के अभाव में साध्वियां अपने गुह्यस्थान को हाथ से १. उडूढ - देशीशब्द, मुषित-लूट लिए गए। बृहत्कल्पभाष्यम् ढंक लें। अध्वगत मुषित साध्वियों का यह आगाढ़कारण है, शेष अनागादकारण है। २९८७. असई निग्गया खुड्डगाइ पेसंति चउसु वग्गेसु । अप्पाहिंति वऽगारं, साहु व वियारमाइगयं ॥ प्रतिसार्थ अथवा पल्ली में वस्त्रों की प्राप्ति न होने पर अध्वनिर्गत साधु-साध्वी उद्यान में पहुंच कर क्षुल्लक मुनि या क्षुल्लिका साध्वी को गांव में इन चार वर्गों - संयत, संयती, श्रावक, श्राविका के पास भेजकर वस्तुस्थिति बतानी चाहिए। यदि क्षुल्लक साधु-साध्वी न हों तो गांववासी किसी गृहस्थ को अथवा गांव से विचारभूमी में आए हुए मुनि साथ संदेश भेजना चाहिए कि गांव के बाहर साधु-साध्वी स्थित हैं। मार्ग में उनके वस्त्र लूट लिए गए हैं। अतः उनके लिए योग्य वस्त्रों की व्यवस्था करें। २९८८. खुड्डी थेराणऽप्पे, आलोगितरी ठवित्तु पविसंति । ते वि य घेत्तुमइगया, समणुन्नजढे जयंतेवं ॥ (जहां साध्वियां साधुओं को और साधु साध्वियों के लिए वस्त्र ले जाते हैं वहां यह विधि है - ) क्षुल्लिका साध्वी स्थविर साधु को वस्त्र दे आती है। क्षुल्लिका न हो तो मध्यमा या तरुण साध्वियां स्थविर साधुओं के आलोक में वस्त्रों को स्थापित कर गांव में प्रवेश कर जाती हैं। ( इसी प्रकार क्षुल्लक मुनि या अन्य मुनि स्थविरा साध्वी के पास वस्त्र स्थापित कर आते हैं।) वे मुनि साध्वी द्वारा दत्त वस्त्रों को पहन कर गांव में जाते हैं, वहां स्वयोग्य वस्त्रों का उत्पादन कर पहले वाले वस्त्र साध्वियों को पुनः अर्पित कर देते हैं। जहां समनोज्ञ मुनि न हों वहां यह यतना है। २९८९.अद्वाणनिग्गयाई, संविग्गा सन्नि दुविह अस्सण्णी । संजइ एसणमाई, असंविग्गा दोण्णि वी वग्गा ॥ अध्वनिर्गत आदि, संविग्न, संज्ञी - श्रावक, असंज्ञी - दो प्रकार के । संयती, एषणा आदि, असंविग्न के दोनों वर्ग । (यह नियुक्ति गाथा है । व्याख्या आगे की गाथाओं में)। २९९०.संविग्गेतरभाविय, सन्नी मिच्छा उ गाढऽणागाढे । असंविग्ग मिगाहरणं, अभिग्गहमिच्छेसु विस हीला ॥ संज्ञी दो प्रकार के हैं-संविग्नभावित और असंविग्नभावित । मिथ्यादृष्टि के भी दो प्रकार हैं- आगादमिथ्यादृष्टि और अनागादमिथ्यादृष्टि । सबसे पहले संविग्नभावित संज्ञीश्रावकों में वस्त्र की एषणा करे, वहां न मिलने पर अनागाढ़ मिथ्यादृष्टि से वस्त्र प्राप्त करे, किन्तु असंविग्नभावित या आगादमिथ्यादृष्टि से याचना न करे। क्योंकि Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ३०५ इस प्रक उसको मिला उसका अकमेण पर असंविग्नभावित व्यक्ति अकल्प्य वस्त्र दे सकता है। यहां 'लुब्धक' का दृष्टांत (गाथा १६०७ वत्) जानना चाहिए। आभिग्राहिक मिथ्यादृष्टि व्यक्ति विष दे सकता है, हीलना कर सकता है। २०९१.असंविग्गभाविएसुं, आगाढेसुं जयंति पणगादी। उवएसो संघाडग, पुव्वग्गहियं व अन्नेसु॥ असंविग्नभावित से वस्त्र ग्रहण करे। उनके अभाव में आगाढ़मिथ्यादृष्टि से वस्त्र ग्रहण करे, यदि आत्मा तथा प्रवचन का उपघात न हो तो। वहां भी प्राप्त न होने पर पंचक आदि प्रायश्चित्त की परिहानि से संविग्नभावित आदि व्यक्तियों से याचना करे। फिर अन्यतीर्थिक कुलों से, जहां _ पहले उपदेश दिया था वहां से, पश्चात् संघाटक के पास से, फिर उन्होंने जो वस्त्र पहले से लिए हुए हों, उनमें से ले। २९९२.उवएसो संघाडग, तेसिं अट्ठाए पुव्वगहियं तु। अभिनव पुराण सुद्धं, उत्तर मूले सयं वा वि॥ पहले अन्यसांभोगिक के उपदेश से वस्त्र ग्रहण के लिए पर्यटन करे। फिर उसके संघाटक के साथ। यदि वस्त्र प्राप्त न हो तो अन्यसांभोगिक उनके वस्त्रों के लिए पर्यटन करते हैं अथवा उनके द्वारा पूर्वगृहीत वस्त्र लेते हैं। वह वस्त्र नया हो या पुराना-ले लेते हैं। वह मूल-उत्तरगुण शुद्ध हो तो ले, अन्यथा नहीं। इतने पर भी यदि वस्त्र प्राप्त न हो तो कृतकरण मुनि स्वयं कपड़ा बुनकर उपभोग करे। २९९३.उवएसो संघाडग, पुव्वग्गहियं व निइयमाईणं। अभिनव पुराण सुद्धं, पुवमभुत्तं ततो भुत्तं॥ पार्श्वस्थ तथा नित्यवासी आदि साधुओं के उपदेश से वस्त्र प्राप्त करे। उसके अभाव में उनके ही संघाटक से, उसके अभाव में उन्हीं के द्वारा पूर्वगृहीत, नया या पुराना, शुद्ध, पूर्व अभुक्त वस्त्र ग्रहण करे। उसके अभाव में भुक्त वस्त्र भी लिया जा सकता है। २९९४.उत्तर मूले सुद्धे, नवे पुराणे चउक्कभयणेवं। परिकम्मण परिभोगे, न होंति दोसा अभिनवम्मि॥ मूलगुण और उत्तरगुण से विशुद्ध वस्त्र संबंधी चतुभंगी। १. मूलगुण और उत्तरगुण-दोनों से शुद्ध। २. मूलगुणशुद्ध, उत्तरगुणशुद्ध नहीं। ३. मूलगुणशुद्ध नहीं, उत्तरगुणशुद्ध। ४. दोनों से शुद्ध नहीं। इन चारों भंगों में प्रत्येक के साथ नये और पुराने वस्त्र विषयक जो चतुर्भगी होती है, उसकी भजना है। अभिनव वस्त्र में परिकर्म (अविधि से सीए हए आदि) तथा परिभोग (धोना, सुगंधित करना) आदि दोष नहीं होते। २९९५.असईय लिंगकरणं, पन्नवणट्ठा सयं व गहणट्ठा। आगाढे कारणम्मी, जहेव हंसाइणो गहणं॥ इस प्रकार भी यदि वस्त्र प्राप्ति न हो तो अन्यलिंगी के वेश में उन उपासकों को यह प्रज्ञापित करे कि मुनियों को वस्त्रदान दे अथवा स्वयं अन्यलिंगी का वेश पहनकर वस्त्र का उत्पादन करे, वस्त्र-ग्रहण करे। क्योंकि आगाढ़ कारण में जैसे हंसतैल आदि के ग्रहण की अनुज्ञा है, वैसे ही वस्त्रग्रहण की अनुज्ञा भी जान लेनी चाहिए। २९९६.सेडुय रूए पिंजिय, पेलु ग्गहणे य लहुग दप्पेणं। तव-कालेहि विसिट्ठा, कारणे अकमेण ते चेव ॥ 'सेडुग' का अर्थ है कपास। उसका बीज निकाल देने पर रूई होती है। उसको पिंजित कर पूणिका के रूप में तैयार करने पर 'पेलु' बन जाती है। यदि मुनि पेलु को दर्प से ग्रहण करता है, बिना कारण ग्रहण करता है तो तप और काल से विशिष्ट चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। कारण में इनको अक्रम से (अर्थात् पहले पेलुक, फिर पिंजित, फिर रूई और फिर सेडुक) ग्रहण करने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। (सेडुक तीन वर्षों के पश्चात् विध्वस्तयोनिक हो जाता है।) २९९७.कडजोगि एक्कओ वा, असईए नालबद्धसहिओ वा। निप्फाए उवगरणं, उभओपक्खस्स पाओग्गं॥ (सेडुक आदि लेकर क्या करे?) यदि कोई मुनि कृतयोगी हो (रूई कातना, कपड़ा बुनना आदि जानता हो) वह गच्छ में वस्त्र का अभाव होने पर एकाकी अथवा नालबद्धसंयतीसहित, निर्जन भूभाग में, साधु-साध्वियों के प्रायोग्य वस्त्रों का निष्पादन करे। २९९८.अगीयत्थेसु विगिंचे, जहलाभं सुलभउबहिखेत्तेसु। पच्छित्तं च वहंति, अलंभे तं चेव धारेंति॥ अगीतार्थ मुनि यदि उपधि की सुलभप्राप्ति वाले क्षेत्रों से जो-जो वस्त्रलाभ लेकर आते हैं, उसके आधार पर व्यूतवस्त्र की विगिंचना-परिष्ठापना कर देते हैं। यदि वस्त्र प्राप्त नहीं होता है तो वह स्वयं द्वारा व्यूतवस्त्र को धारण करते हैं, उसका परिभोग करते हैं। २९९९.एमेव य वसिमम्मि वि, झामिय ओम हिय वूढ परिजुन्ने। ____ पुबुट्ठिए व सत्थे, समइच्छंता व ते वा वि॥ इसी प्रकार गांव आदि में रहने वाले मुनियों की उपधि दग्ध हो गई, अवमौदर्य में विक्रीत हो गई, चोरों द्वारा अपहृत हो गइ, पानी में बह गई या परिजीर्ण हो गई-इन सबमें पूर्वोक्त विधि ही माननी चाहिए। यदि गांव में समागत सार्थ सूर्योदय से पूर्व ही प्रस्थान कर देता है, उस सार्थ को, वे Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ उपधिरहित मुनि चलते हुए रात्री में प्राप्त करते हैं, वहां वे रात्री में ही यतनापूर्वक वस्त्र ग्रहण करते हैं। ३०००.सो वि य नत्तं पत्तो, नत्तं चिय चलिउमिच्छइ भयं च। ते वा नत्तं पत्ता, गिण्हिज्ज पए चलिउकामा॥ वह सार्थ भी रात्री में ही गांव में पहंचा। स्तेनों के भय के कारण वह रात्री में ही वहां से आगे जाना चाहता है। वे उपधिरहित साधु भी रात्री में ही गांव में पहुंचे और वे प्रग- सूर्योदय से पूर्व ही वहां से आगे विहरण करना चाहते हैं तो वे सार्थ से रात्री में ही उपधि ग्रहण कर सकते हैं। ३००१.सुत्तेणेव य जोगो, हरियाहडि कप्पए निसिं घेतुं। हरिऊण य आहडिया, छूढा हरिएसु वाऽऽहट्ट॥ सूत्र से ही सूत्र का संबंध है। पूर्वसूत्र में रात्री में वस्त्र- ग्रहण का निषेध किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में कहा है-जो हृताहृतिक (या हारिताहृतिक) वस्त्र है, उस रात्री में लेना कल्पता है। पहले वस्त्र का हरण कर पुनः उसे लाना यह हृताहृतिक कहलाता है। अथवा वस्त्र का हरण कर उसे हरित पर प्रक्षिप्त कर दिया वह हरिताहृतिक है। ३००२.अद्धाणमणद्धाणे, व विवित्ताणं तु होज्ज आहडिया। अविहे वसंति खेमे, विहं न गच्छे सइ गुणेसु॥ जो मार्ग में या अमार्ग में लूटे गए हों, उनके लिए हताहतिक होता है। जो अध्वगत नहीं हैं वे निरूपद्रव क्षेत्र में रहते हैं। ज्ञान आदि गुण होने पर मार्ग में प्रवेश न करे अर्थात् विहरण न करे। ३००३.उद्दहरे सुभिक्खे, अद्धाणपवज्जणं तु दप्पेणं। लहुगा पुण सुद्धपए, जं वा आवज्जई जत्थ॥ ऊर्ध्वदर और सुभिक्ष के चार भंग होते हैं(१) ऊर्ध्वदर तथा सुभिक्ष। (२) ऊर्ध्वदर असुभिक्ष। (३) सुभिक्ष न ऊर्ध्वदर। (४) न ऊर्ध्वदर और न सुभिक्ष। इनमें दूसरे और चौथे भंग में अध्वगमन करना चाहिए। पहले और तीसरे भंग में दर्प से कोई अध्वगमन करता है तो शुद्धपद में भी चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है तथा संयमविराधना आदि होने पर तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त भी आता है। ३००४.नाणट्ठ दंसणट्ठा, चरित्तट्ठा एवमाइ गंतव्वं । उवगरण पुव्वपडिलेहिएण सत्थेण गंतव्वं॥ प्रथम तथा तृतीय भंग में इन कारणों से गमन विहित है-ज्ञान के लिए, दर्शन के लिए तथा चारित्र के लिए। गमन करने वाले जाने वाले तलिकादि उपकरण लेकर जाएं तथा पूर्व प्रत्युपेक्षित सार्थ के साथ जाए। =बृहत्कल्पभाष्यम् ३००५.अद्धाण पविसमाणा, गुरुं पवादिति ते गता पुरतो। अह तत्थ न वादेती, चाउम्मासा भवे गुरुगा। प्रस्थान करने से पूर्व अपने गुरु का वृत्तान्त बताते हुए कहते हैं-हमारे आचार्य आगे चले गए हैं, अतः हम भी प्रस्थान कर रहे हैं। यदि यह प्रवाद नहीं कहते हैं तो वे चतुर्गुरु प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। ३००६.गुरुसारक्खणहेउं, तम्हा थेरो उ गणधरो होइ। विहरइ य गणाहिवई, अद्धाणे भिक्खुभावेणं॥ गुरु के संरक्षण के लिए स्थविर मुनि गणधर रूप में प्रस्तुत होता है। मार्ग में मूल गणाधिपति एक सामान्य भिक्षु के वेश में विहरण करते हैं। ३००७.हयनायगा न काहिंति उत्तरं राउले गणे वा वि। अम्हं आहिपइस्स व, नायग-मित्ताइएहिं वा॥ अध्वगत मुनियों के वस्त्र लूटने के पश्चात् वे चोर सोचते हैं ये साधु आचार्यरहित हैं, अतः ये राजकुल में या गण में या हमारे नायक के समक्ष या उसके ज्ञातिजनों या मित्रों को जाकर लूटे जाने की शिकायत नहीं करेंगे। ३००८.संजयपंता य तहा, गिहिभद्दा चेव साहुभद्दा य। तदुभयभहा पंता, संजयभद्देसु आहडिया॥ चोर चार प्रकार के होते हैं१. संयतप्रान्त गृहस्थभद्रक ३. उभयभद्रक २. साधुभद्रक गृहस्थप्रान्त ४. उभयप्रान्त। जो संयतभद्रक होते हैं उनसे संबंधित है-हृताहतिका अर्थात् वे वस्त्रों का हरण करके भी पुनः अर्पित कर देते हैं। ३००९.सत्थे विचिच्चमाणे, आहिपई भद्दओ व पंतो वा। भहो दट्टण निवारणं व गहियं व पेसेइ॥ सार्थ को लूटते समय चोराधिपति भद्रक या प्रान्त हो सकता है। जो भद्रक होता है, वह लूटते समय चोरों को यतियों के वस्त्र लूटने का निषेध करता है और यदि वह वहां सन्निहित न हो तो लूटे हुए वस्त्रों को पुनः भेज देता है। ३०१०.नीयं ददृण बहि, छिन्नदसं सिव्वणीहि वा नाउं। पेसे उवालभित्ताण तक्करे भद्दओ अहिवो॥ वह चोराधिपति लूटकर लाए हुए वस्त्रों को देखकर सोचता है इन वस्त्रों के किनारी नहीं है तथा इनकी सीने की विधि भिन्न है। उनको देखकर जान लेता है कि ये वस्त्र साधुओं के हैं। वह अपने साथी चोरों को उपालंभ देता है और वह भद्रक चोराधिपति उन्हीं चोरों को साधुओं के वस्त्रों को अर्पित करने के लिए भेजता है। ३०११.वीसत्थमप्पिणंते, भएण छड्डित्तु केइ वच्चंति। बहिया पासवण उवस्सए व दिम्मि जा जयणा।। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक - ३०७ स्तेन दो प्रकार के होते हैं-आक्रान्तिक और अनाक्रान्तिक। जो आक्रान्तिक होते हैं, वे निर्भय होते हैं। चोराधिपति के कहे जाने पर वस्त्रों को विश्वस्तरूप से साधुओं को दे देते हैं। जो अनाक्रान्तिक होते हैं वे साधुओं को पुनः देने के लिए लूटे हुए वस्त्र ले जाते हैं, परन्तु भय के कारण उन वस्त्रों को उपाश्रय के बाहर, प्रस्रवणभूमी में या उपाश्रय के मध्य में रखकर भाग जाते हैं। साधु जब उन वस्त्रों को देखते हैं तब यह यतना करनी चाहिए। ३०१२.गीयमगीया अविगीयपच्चयट्ठा करिति वीसुं तु। जइ संजई वि तहियं, विगिंचिया तासि वि तहेव॥ (यदि गच्छ में सभी गीतार्थ मुनि हों तो उन उपकरणों को अपने मौलिक उपकरणों के साथ मिलाकर अपनी रुचि के अनुसार उनका परिभोग करे।) यदि गच्छ में गीतार्थ और अगीतार्थ-दोनों प्रकार के मुनि हों तो गीतार्थ मुनि अगीतार्थ मुनियों के प्रत्यय के लिए हृताहृतिक उपकरण पृथक रखते हैं। यदि साध्वियों के वस्त्र भी अपहृत हो गए हों उनके उपकरण भी पृथक् कर देते हैं। ३०१३.जो वि य तेसिं उवही, अहागडऽप्पो य सपरिकम्मो य। तं पि य करिति वीसुं, मा अविगीयाइ भंडेज्जा। उन साधुओं का यथाकृत, अल्पपरिकर्मित और परिकर्मित जो उपधि है उसको भी पृथक् कर देते हैं। यह इसलिए कि अगीतार्थ मुनि परस्पर कलह न करें। ३०१४.पंतोवहिम्मि लुद्धो, आयरिए इच्छए विवादेउ। कयकरणे करणं वा, आगाढे किसो सयं भणइ। यदि चोराधिपति प्रान्त हो और वह उपकरणों में लुब्ध हो तो वह आचार्य को मारने की इच्छा करता है। उस स्थिति में कृतकरण मुनि उसको उपशांत करे। इस प्रकार की परिस्थिति आने पर, इस प्रकार के आगाढ़ कारण में जो कोई कृश मुनि है, वह स्वयं को आचार्य कहता है। ३०१५.को तुब्भं आयरितो, एवं परिपुच्छियम्मि अद्धाणे। जो कहयइ आयरियं, लग्गइ गुरुए चउम्मासे॥ प्रान्त चोराधिपति पूछता है तुम्हारे में कौन आचार्य है? इस प्रकार अध्वगत अवस्था में पूछे जाने पर जो मुनि आचार्य को बता देता है उसे चतुर्गुरु मास का प्रायश्चित्त आता है। ३०१६.सत्थेणऽन्नेण गया, एहिंति व मग्गतो गुरू अम्हं। __ सथिल्लए व पुच्छह, हयं पलायं व साहिति॥ पूछे जाने पर साधु कहे हमारे गुरू दूसरे सार्थ के साथ आगे चले गए हैं अथवा पीछे से आ रहे हैं। यदि हमारी प्रतीति न हो सार्थ के पुरुषों को पूछ लें अथवा कहे हमारे आचार्य मारे गए हैं अथवा पलायन कर गए हैं। ३०१७.जो वा दुब्बलदेहो, जुंगियदेहो असब्भवको वा। गुरु किल एएसि अहं, न य मि पगब्भो गुरुगुणेहिं॥ ३०१८.वाहीण व अभिभूतो, खंज कुणी काणओ व हं जातो। मा मे बाहह सीसे, जं इच्छह तं कुणह मज्झं। अथवा जो मुनि दुर्बल शरीर वाला हो, विकलांग हो, जो असमंजसप्रलापी हों, वह चोराधिपति को कहता है-मैं इन मुनियों का गुरु हूं परंतु मैं गुरु के गुणों से परिपूर्ण नहीं हूं। मैं रोग से अभिभूत हूं, लंगड़ा और लूला हूं और काणा हूं। मैं ऐसा हो गया हूं। अतः मेरे शिष्यों को तुम बाधित मत करो। जो कुछ तुम करना चाहते हो वह मेरे साथ ही करो। ३०१९.इहरा वि मरिउमिच्छं, संतिं सिस्साण देह मं हणह। मयमारगत्तणमिणं, जं कीरइ मुंचह सुते मे॥ अन्यथा भी मैं मरना चाहता हूं। मुझे मार दो, परंतु मेरे शिष्यों को शांति प्रदान करो। मुझे मारने का तात्पर्य होगा मरे हुए को मारना। इसलिए मेरे शिष्यों को तुम छोड़ दो। ३०२०.एयं पिताव जाणह, रिसिवज्झा जह न सुंदरी होइ। इह य परत्थ य लोए, मुंचंतऽणुलोमिया एवं॥ और यह भी तुम जान लो कि ऋषिहत्या इहलोक और परलोक के लिए सुंदर परिणामवाली नहीं होती। इस प्रकार अनुकूल उपदेश देने पर वे तस्कर सभी को छोड़ देते हैं। ३०२१.धम्मकहा चुण्णेहि व, मंत निमित्तेण वा वि विज्जाए। नित्थारेइ बलेण व, अप्पाणं चेव गच्छं च॥ यदि इतने पर भी तस्कर मुक्त न करे तो धर्मकथा, चूर्णप्रयोग, मंत्र, निमित्तबल अथवा विद्या के द्वारा चोर. सेनापति को उपशांत करे। अथवा कोई शक्तिशाली मुनि अपनी शक्ति से सेनापति पर विजय प्राप्त कर स्वयं को तथा गच्छ को उबार ले। ३०२२.वीसज्जिया व तेणं, पंथं फिडिया व हिंडमाणा वा। गंतूण तेणपल्लिं, धम्मकहाईहिं पन्नवणा॥ उपरोक्त सामग्री के अभाव में चोर साधुओं के उपधि को लूटकर साधुओं को मुक्त कर देता है तब वे मुनि चोरपल्ली में जाकर उपधि की गवेषणा करें। मार्ग में किसी के पूछने पर कहे-हम मार्ग से भटक गए थे अथवा विहरण करते-करते यहां आए हैं। चोरपल्ली में धर्मकथा की प्रज्ञापना करे।। ३०२३.भद्दमभई अहिवं, नाउं भहे विसंति तं पल्लिं। फिडिया मु ति य पंथ, भणंति पुट्ठा कहिं पल्लिं॥ चोरपल्ली में जाने से पूर्व यह ज्ञात कर ले कि वहां का चोराधिपति भद्र है या प्रान्त। यदि भद्र हो तो उस पल्ली में Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ = =बृहत्कल्पभाष्यम् प्रवेश करे। पल्ली में क्यों आए यह पूछने पर कहे- हम मार्ग हे सुविहित ! हृताहृतिक यदि पांच वर्णवाले भी कर लिए में भटक गए थे, अतः इधर आ गए। जाते हैं, उन्हें भी पुनः लेना कल्पता है। वे वस्त्र परिभुक्त हों ३०२४.मुसिय त्ति पुच्छमाणं, या अपरिभुक्त, वे लिए जा सकते हैं, किन्तु उस विषयक को पुच्छइ किं व अम्ह मुसियव्वं।। अल्पबहुत्व को जान लेना चाहिए। अहिवं भणंति पुट्विं, ३०३०.आधत्ते विक्कीए, परिभुत्ते तस्स चेव गहणं तु। अणिच्छे सन्नायगादीहिं॥ अन्नस्स गिण्हणं तस्स चेव जयणाए हिंडंति॥ कोई यह पूछे कि क्या आप लूटे गए हैं ? उसे कहे-हमें वस्त्र चोरों ने लेकर रख दिया हो, उसको बेच दिया हो, कौन पूछता है? हमारे पास लूटने जैसा है ही क्या? पल्ली उसका परिभोग कर लिया हो और वे यदि उसके बदले में जाकर सबसे पहले चोराधिपति को अपहृत उपधि के दूसरा वस्त्र देना चाहे तो कहे-हमें वही वस्त्र दो। उसी वस्त्र विषय में पूछते हैं। यदि वह देना न चाहे तो उसके स्वजनों, को ग्रहण करे, न प्राप्त होने पर अन्य वस्त्र का ग्रहण करे। मित्रों को प्रज्ञापित करते हैं। उस चोराधिपति द्वारा साथ में भेजे गए आदमी के साथ ३०२५.उवसंतो सेणावइ, उवगरणं देइ वा दवावेइ। वस्त्रान्वेषण के लिए यतनापूर्वक घूमे। गीयत्थेहि य गहणं, वीसुं वीसुं च से करणं॥ ३०३१.अन्नं च देइ उवहिं, सो वि य नातो तहेव अन्नातो। चोराधिपति उपशांत होने पर स्वयं उपकरणों को दे देता सुद्धस्स होइ गहणं, असुद्धि घेत्तुं परिढवणा॥ है या अपने साथियों से दिला देता है। गीतार्थ मुनि उनको __ वह चोराधिपति दूसरा वस्त्र दे, वह वस्त्र ज्ञात भी हो ग्रहण कर उनको पृथक्-पृथक् कर स्थापित करते हैं। सकता है और अज्ञात भी। उसमें जो शुद्ध हो वह ले और जो ३०२६.सत्थो बहू विवित्तो, गिण्हह जं जत्थ पेच्छह अडता। अशुद्ध है, उसे लेकर परिष्ठापित कर दे। ___ इहइं पडिपल्लीसु य, रूसेह बिइज्जओ हं भे॥ ३०३२.तं सिव्वणीहि नाउं, पमाण हीणाहियं विरंगं वा। चोराधिपति कहता है हमारे अनेक साथियों ने सार्थ को इतरोवहिं पि गिण्हइ, ता अहिगरणं पसंगो वा॥ लूटा है। आप घूमते हुए देखें और अपने वस्त्र ग्रहण कर लें। उस वस्त्र के सीने की विधि से प्रमाण से हीन या तब मुनि कहे-आप अपना एक आदमी हमारे साथ भेजें। एक अधिक तथा बदरूप देखकर यह जान ले कि यह दूसरों का आदमी को साथ भेजने पर वह कहता है। इस पल्ली में या है, फिर भी उसे ग्रहण कर ले क्योंकि ग्रहण न करने पर प्रतिपल्ली में जो-जो आपके वस्त्र है उन्हें आप 'रूसेह'-ढूंढ अधिकरण-असंयत व्यक्तियों के परिभोग का प्रसंग लें। मैं आपके साथ दूसरा व्यक्ति हूं। उपस्थित हो सकता है। ३०२७.अम्हं ताव न जातो, जह एएसिं पि पावइ न हत्थं। ३०३३.अन्नस्स व पल्लीए, जयणा गमणं तु गहण तह चेव। तह कुणिमो मोसमिणं, छुभंति पावा अह इमेसु॥ गामाणुगामियम्मि य, गहिए गहणे य जं भणियं॥ चोर सोचते हैं-यह लूट हमारे हस्तगत नहीं हुई तो हम यदि हृतोपकरण का कुछ भाग अन्य चोरपल्ली में चला ऐसा उपाय करें कि लूटा हुआ सामान साधुओं के हस्तगत गया हो तो उस पल्ली में यतनापूर्वक गमन करे और भी न हो, इसलिए वे चोर उस सामान को निम्न स्थानों में यतनापूर्वक वस्त्र ग्रहण करे। यदि ग्रामानुग्राम विहरण करने फेंक देते हैं। वाले मुनि लूट लिए गए हों तो वस्त्रान्वेषण के लिए गमन ३०२८.पुढवी आउक्काए, अगड-वणस्सइ-तसेसु साहरई। और वस्त्र-ग्रहण में पूर्वोक्त यतना करणीय है। सुत्तत्थजाणएणं, अप्पाबहुयं तु नायव्वं॥ ३०३४.तत्थेव आणवावेइ तं तु पेसेइ वा जहिं भद्दो। पृथ्वीकाय पर, अप्काय पर, कूए में, वनस्पति पर, बस सत्येण कप्पियारं, व देइ जो णं तहिं नेइ॥ जीवों पर अपहृत उपकरणों का निक्षेप कर डालते हैं। इस यदि मूल पल्लीपति भद्र हो तो उन वस्त्रों को वहीं मंगा स्थिति में सूत्रार्थ को जानने वाला मुनि उन उपकरणों को लेता है अथवा अपने आदमी को भेजकर प्राप्त कर लेता है। ग्रहण करने या न करने से होने वाले दोषों के अल्प-बहत्व अथवा सार्थ के साथ वहां जाना चाहिए। यदि सार्थ प्राप्त न हो को जान ले। तो पल्लीपति से एक आदमी की मांग करनी चाहिए। ३०२९.हरियाहडिया सुविहिय!, पंचवन्ना वि कप्पई घेत्तुं। पल्लीपति 'कल्पितार'-मार्गदर्शक अपने आदमी को देता है, परिभुत्तमपरिभुत्ता, अप्पाबहुगं वियाणित्ता॥ वह साधुओं को उस पल्ली में ले जाता है। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ३०३५. अणुसट्टाई तत्थ वि, काउ सपल्लि इतरीसु वा घेत्तुं । सत्थेणेव जणवय, उविंति अह भद्दए जयणा ॥ वहां भी मुनि धर्मकथा करे, अपने उपकरण लेकर मूलपल्ली में आ जाए। वहां आकर किसी सार्थ के साथ जनपद में चले जाए। यह भद्रक पल्लीपति विषयक यतना है। ३०३६. फडुपए पंते, भणति सेणावहं तहिं पंते। फड्डुगपइए उत्तरउत्तर माटुंबियाइ जा पच्छिमो राया ॥ मूल पल्लीपति के अधीनस्थ कोई स्पर्द्धक पल्लीपति प्रान्त हो और वह लूटे हुए वस्त्र देना न चाहे तो मूल पल्लीपति को प्रज्ञापित करे। वह उससे वस्त्र दिला देता है। यदि वह भी प्रान्त हो तो माडंबिक- मडंब के अधिपति को कहना चाहिए। इसी प्रकार उत्तरोत्तर प्रज्ञापित करते करते अंत में राजा तक बात पहुंचानी चाहिए। ३०३७. वसिमे वि विवित्ताणं, एमेव य वीसुकरणमादीया । वोसिरणे चडलहूगा, जं अहिमरणं च हाणी जा ।। जनपद में भी लूट लिए जाने पर इसी प्रकार वस्त्रों को पृथक् पृथक करना आदि सारी विधि पूर्ववत् है। गवेषणा के श्रम से कतरा कर कोई लूटे गए वस्त्रों का व्युत्सर्जन करता है, उसे चतुर्लघु का प्रायश्चित्त तथा अधिकरण- अपड़त वस्त्रों के प्रक्षालन आदि का दोष और वस्त्रों के अभाव में संयमयोगों की हानि भी होती है। अद्धाण-पदं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा राओ वा वियाले वा अद्वाणगमणं एत्तए । संखडि वा संखडिपडियाए इत्तए ' ॥ (सूत्र ४४) - ३०३८. हरियाहडियट्टाए, होज्ज विहेमाहयं न वारेमो । जं पुण रत्तिं गमणं, तदट्ठ अन्नट्ठ वा सुत्तं ॥ हृताहृत के प्रयोजन से जाना, पल्ली आदि में वस्त्रगवेषणा के लिए गमन करना, हम उसका वर्जन नहीं करते हैं। हताहतिक के प्रयोजन से अथवा अन्य प्रयोजन से रात्री में जाना नहीं कल्पता, यह इस सूत्र का आशय है। ३०३९. अहवा तत्थ अवाया, वच्चंते होज्ज रत्तिचारिस्स । जइ ता विहं पि रत्तिं, वारेतऽविहं किमंग पुणो ॥ १. वृत्तिकृता एतत् स्वतंत्रसूत्रं स्वीकृतम् । २. कुछ आचार्य कहते हैं- जिससे संध्या शोभित होती है वह है रात्री । संध्या का बीत जाना-विकाल है। कुछ आचार्य कहते हैं-संध्या के ३०९ रात्रीचारी मुनि के मार्गगत अनेक अपाय दोष हो सकते हैं, इसलिए रात्रीगमन का निषेध है । रात्री में विहरण का निषेध है, परन्तु अवि-गांव आदि में घूमने का निषेध क्यों ? ३०४०. इहरा वि ता न कप्पर, अद्धाणं किं तु राहविसयम्मि । अत्थावत्ती संसद, कप्पड़ करने दिया नूणं ॥ मुनि को अन्यथा विहरण करना भी नहीं कल्पता तो फिर रात्रीविषयक बात ही क्या? सूत्र रात्रीविषयक निषेध करता है। अर्थापत्ति के आधार पर कहा जा सकता है कि कार्य उपस्थित होने पर दिन में विहरण किया जा सकता है। ३०४१. अाणं पिय दुविहं, पंथो मम्मो य होइ नायव्वो । पंथम्म नत्थि किंची, मग्गो सग्गामो गुरु आणा ॥ अध्वा के दो प्रकार हैं-पंथ और मार्ग । पंथ वह है जिससे विहरण करने पर कोई भी गांव, नगर, पल्ली आदि नहीं आते और मार्ग वह है जिसमें गांव आदि प्राप्त होते हैं। दोनों प्रकार के अध्वा से रात्री गमन करने पर चतुर्गुरु और आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। ३०४२.तं पुण गम्मिज्ज दिवा, रत्तिं वा पंथ गमण मग्गे वा । रत्तिं आएसदुगं, दोसु वि गुरुगा य आणादी ॥ अध्वा अर्थात् पथ या मार्ग में रात या दिन में जाया जाता है । रात्रीगमन में दो परंपराएं हैं। इनके अनुसार पथ या मार्ग से रात्री या विकाल में विहरण करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। ३०४३.मिच्छत्ते उड्डाहो, विराहणा होइ संजमा ऽऽयाए । रीयाइ संजमम्मी, छक्काय अचक्खुविसयम्मि ॥ रात्री में विहार करने पर मिथ्यात्व, उड्डाह तथा संयम और आत्मा की विराधना होती है। संयमविराधना में ईर्यासमिति का अशोधन, रात्री में अचक्षुविषय - न दीखने के कारण षट्काय विराधना होती है (यह द्वार गाथा है अर्थ विस्तार आगे)। ३०४४. किं मण्णे निसि गमणं, जतीण सोहिंति वा कहं इरियं । जहवेसेण व तेणा, अडंति महणाह उड्डाहो ॥ संयमी मुनियों का रात्रीगमन क्यों ? रात्री में ईर्यासमिति का शोधन कैसे होता है? ये यतिवेश में चोर घूम रहे हैं। इसलिए उनको पकड़ लेने या राजकुल आदि में ले जाने पर प्रवचन का उड्डाह होता है। ३०४५.संजमविराहणाए, महव्वया तत्थ पढम छक्काया । बिइए अतेण तेणं, तइए अदिनं तु कंदाई ॥ बीत जाने पर चोर, पारदारिक आदि जिसमें सक्रिय होते हैं वह है रात्री । संध्या में वे विरत रहते हैं अतः वह है विकाल । संध्या और रात्री के मध्य का जो काल है, वह है विकाल । www.jainelibrary.arg Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० बृहत्कल्पभाष्यम् __संयमविराधना दो प्रकार की होती है-मूलगुणविषयक ग्लान के लिए रात्री अथवा संध्या में जाना कल्पता है। तथा उत्तरगुणविषयक। मूलगुण में महाव्रतों की विराधना जिस मार्ग से जाना है वह पूर्वदिष्ट होना चाहिए। आरक्षिक होती है। रात्री में अध्वगमन से छहकाय की विराधना होती को पहले कह देना चाहिए। है। यह प्रथम महाव्रत की विराधना है। द्वितीय महाव्रत में ३०५१.दुविहो य होइ पंथो, छिन्नद्धाणंतरं अछिन्नं च। अचोर को चोर कहलाता है। तृतीय महाव्रत में अदत्त कंद छिन्नम्मि नत्थि किंची, अछिन्न पल्लीहिं वइगाहिं।। आदि ग्रहण कर लिया जाता है। पथ दो प्रकार के हैं-छिन्नाध्वान्तर, अछिन्नाध्वान्तर। ३०४६.दियदिन्ने वि सचित्ते, जिणतेन्नं किमुय सव्वरीविसए। छिन्नाध्वान्तर मार्ग में कोई गांव, नगर नहीं होता और जेसिं व ते सरीरा, अविदिन्ना तेहिं जीवहिं॥ अछिन्नाध्वान्तर में पल्ली, वजिका आदि होते हैं। यद्यपि कन्द आदि दत्त ग्रहण करता है, फिर भी वह ३०५२.छिन्नेण अछिन्नेण व, रत्तिं गुरुगा य दिवसतो लहुगा। सचित्त होने के कारण तीर्थंकरों के द्वारा वह अनुज्ञात नहीं है, उद्दहरे पवज्जण, सुद्धपदे सेवती जं च॥ अतः दिन में भी उसे ग्रहण करना स्तैन्य है तो फिर रात्री में छिन्न या अछिन्न पथ से रात्री में जाने पर चतुर्गुरु और ग्रहण करने की बात ही क्या! जो कन्द आदि के शरीर हैं वे दिन में जाने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। जहां उन जीवों द्वारा अदत्त होने के कारण इससे तीसरे महाव्रत का ऊर्ध्वदर पूर्ण किए जाते हैं वहां की यात्रा करने पर उस शुद्ध भंग होता है। पद में भी यह प्रायश्चित्त है। उसमें जो अकल्पनीय आदि की ३०४७.पंचमे अणेसणादी, छटे कप्पो व पढम बिइया वा। प्रतिसेवना की जाती है उसका पृथक् प्रायश्चित्त आता है। __ भग्गवउ ति य जातो, अपरिणतो मेहुणं पि वए॥ ३०५३.उद्दहरे सुभिक्खे , खेमे निरुवहवे सुहविहारे। अनेषणीय का ग्रहण पांचवें महाव्रत का हनन तथा छठे जइ पडिवज्जति पंथं, दप्पेण परं न अन्नेणं ।। व्रत में अध्वकल्प का परिभोग तथा पहले दूसरे परीषह से ऊर्ध्वदर, सुभिक्ष, क्षेम, निरुपद्रव और सुखविहार इस व्याकुल होकर खाने-पीने से छठे व्रत की विराधना होती है। प्रकार के जनपदों में जाने के लिए छिन्न-अछिन्न पथ को 'मैं भग्नव्रत हो गया हूं', यह सोचकर वह मैथुन का सेवन भी स्वीकार करते हैं। यह दर्प प्रतिसेवना अर्थात् देश-दर्शन के कर लेता है अथवा अपरिणत अपरिपक्व होने के कारण निमित्त की जा सकती है, अन्य प्रयोजन से नहीं। मैथुन का सेवन कर लेता है। यह सारी मूलगुणविराधना है। ३०५४.आणा न कप्पइ त्ति य, ३०४८.रीयादऽसोहि रत्ति, भासाए उच्चसहवाहरणं। अणवत्थ पसंगताए गणणासो। न य आदाणुस्सग्गे, सोहए कायाइ ठाणाई।। वसणादिसमावण्णे, रात्री में ईर्यासमिति आदि का शोधन नहीं होता, परस्पर मिच्छत्ताराहणा भणिया।। उच्चस्वर से बोलने के कारण भाषा समिति का, उदका शिष्य ने पूछा-ऐसा करने से क्या होता है? आचार्य आदि न देख सकने के कारण एषणासमिति का, अप्रत्युपेक्षित कहते हैं- भगवान् की आज्ञा है कि निग्रंथ को विहरण करना भूभाग पर स्थान, निषीदन आदि करने से आदाननिक्षेप- नहीं कल्पता-इस आज्ञा की विराधना होती है तथा अनवस्था समिति का, अस्थंडिल में कायिकी आदि का उत्सर्ग करने से का दोष और प्रसंग से अर्थात् परंपरा से गण का नाश होता उत्सर्गसमिति का इस प्रकार रात्री में पांचों समितियों का है। विहरण करने पर मार्ग में कोई व्यसन-आपदा आदि प्राप्त शोधन नहीं हो सकता। होने पर मिथ्यात्व की आराधना होती है। ३०४९.वाले तेणे तह सावए य विसमे य खाणु कंटे य। ३०५५.वाय खलु वाय कंडग, आवडणं विसम-खाणु-कंटेसु। अकम्हाभयं आयसमुत्थं, रत्तिं मग्गे भवे दोसा॥ वाले सावय तेणे, एमाइ हवंति आयाए॥ रात्री में जाने से व्याल, स्तेन, श्वापद ये उपद्रव करते मार्ग में विहरण करते हुए खलुक-जानु आदि के संधि स्थल' हैं, विषमभूमी में स्खलन होता है, स्थाणु, कांटों आदि से पैर वायु से जकड़ जाते हैं। विषम भूमी पर या स्थाणु से टकरा कर बींध जाते हैं, आत्मसमुत्थ-अर्थात् मन की कल्पनाओं से चलते-चलते गिर सकते है, कांटें चुभते हैं, व्याल, श्वापद, कोई आकस्मिक भय उत्पन्न हो सकता है। स्तेनक आदि उपद्रव करते हैं। यह आत्म-विराधना है। ३०५०.कप्पइ गिलाणगट्ठा, रतिं मग्गो तहेव संझाए। ३०५६.छक्कायाण विराहण, उवगरणं बाल-वुड्ड-सेहा य। पंथो य पुव्वदिट्ठो, आरक्खिओ पुव्वभणिओ य॥ पढमेण व बिइएण व, सावय तेणे य मिच्छा य॥ १. 'वाय-कंडक'-जंघा में वायु के कारण कंडक-फोड़े सदृश उभर अप्ते हैं। वे कंडक कहलाते हैं। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक अध्वगत स्थिति में छह कायों की विराधना होती है। स्तेनों के भय में दंडक और चिलिमिलिका के बिना, अध्वप्रायोग्य उपकरण नंदी भाजन आदि के भार से वेदना उदककार्य में चर्मकरक आदि के बिना, रात्री में शीघ्रगमन होती है। बाल-वृद्ध तथा शैक्ष पहले अथवा द्वितीय परीषह से तथा दूरगमन में तलिका के बिना, बाल-वृद्ध को वहन करने परितप्त होते हैं। मुनियों के लिए श्वापद, स्तेन तथा म्लेच्छ के लिए कापोतिका के बिना, बाल-वृद्ध आदि शल्यविद्ध होने उपद्रव उपस्थित करते हैं। पर शस्त्रकोश के बिना इन उपकरणों के बिना अनेक दोष ३०५७.उवगरणगेण्हणे भार वेदणा तेण गम्मि अहिगरणं। होते हैं। रीयादि अणुवओगो, गोम्मिय भरवाह उड्डाहो॥ ३०६१.बिइयपय गम्ममाणे, मग्गे असतीय पंथे जतणाए। अध्वप्रायोग्य उपकरणों को लेकर विहार करने पर उनके परिपुच्छिऊण गमणं, अछिण्णे पल्लीहिं वइगाहिं।। भार से वेदना होती है। अति उपकरण होने पर चोर तथा द्वितीयपद अर्थात् अपवाद पद में अध्वगत होने पर सबसे गौल्मिक (मार्गरक्षक) उन्हें लूटते हैं, सताते हैं। उन पहले मार्ग से, उसके अभाव में पथ से यतनापूर्वक जाना अतिरिक्त उपकरणों का परिभोग करने पर अधिकरण होता चाहिए। उसमें लोगों को पूछकर पल्ली, वजिका आदि से है। भाराक्रान्त मुनियों द्वारा ईर्या में अनुपयोग होता है। अछिन्न पथ से गमन किया जा सकता है। गौल्मिक उपद्रव करते हैं। ये साधु भारवाही हैं-इस प्रकार ३०६२.असिवे ओमोदरिए, रायडुढे भये व आगाढे। उड्डाह-अवहेलना होती है। गेलन्न उत्तिमद्वे, णाणे तह दंसण चरित्ते॥ ३०५८.चम्मकरग सत्थादी, अशिव, अवमौदर्य, राजद्विष्ट, भय उत्पन्न हो जाने पर, दुलिंग कप्पे अ चिलिमिणिअगहणे। आगाढ़ कारण से, ग्लान के लिए, उत्तमार्थ-संथारा आदि के तस विपरिणमुड्डाहो, लिए, ज्ञान-दर्शन और चारित्र के लिए-इन कारणों से कंदाइवधो य कुच्छा य॥ देशान्तर जाया जा सकता है, विहार किया जा सकता है। विहरण करते समय मुनि यदि चर्मकरक नहीं लेते हैं तो ३०६३.एएहिं कारणेहिं, आगाढेहिं तु गम्ममाणेहिं। वस जीवों की विराधना होती है। शस्त्रकोश न लेने पर शैक्ष उवगरण पुव्वपडिलेहिएण सत्थेण गंतव्वं॥ विपरिणत हो सकते हैं। दुलिंग अर्थात् गृहस्थ के कपड़े तथा ये कारण जब आगाढ़रूप में प्राप्त होते हैं तब अध्वअन्यतीर्थिक का वेश साथ में न रहने पर प्रसंग पर उड्डाह हो प्रायोग्य उपकरण लेकर, पूर्व प्रत्युपेक्षित सार्थ के साथ जाना सकता है। अध्वकल्प के बिना कन्द आदि का वध होता है, चाहिए। चिलिमिलि के बिना मंडली में साधुओं को एकत्रित भोजन ३०६४.असिवे अगम्ममाणे, गुरुगा नियमा विराहणा दुविहा। करते देखकर लोग कुत्सा-जुगुप्सा करते हैं। (श्लोक के तम्हा खलु गंतव्वं, विहिणा जो वन्निओ हिट्ठा। पूर्वार्द्ध के साथ उत्तरार्द्ध का संबंध।) अशिव उत्पन्न होने पर यदि गमन नहीं किया जाता तो ३०५९.अप्परिणामगमरणं अइपरिणामा य होति नित्थक्का।। चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। वहां रहने पर नियमतः निग्गय गहणे चोइय, भणंति तइया कहं कप्पे॥ दो प्रकार की आत्म तथा संयमविराधना होती है। इसलिए मार्गगत मुनियों को यदि एषणीय का लाभ न होने पर वहां से विधिपूर्वक विहार कर देना चाहिए। विधि पंचक आदि की यतना से अनेषणीय का ग्रहण भी किया ओघनियुक्ति आदि में वर्णित है।' जाता है। अपरिणामक शिष्य उस अनेषणीय का ग्रहण नहीं ३०६५.उवगरण पुव्वभणियं, अप्पडिलेहिंते चउगुरू आणा। करता है तो मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। अतिपरिणामक ओमाण पंत सत्थिय, अतियत्तिय अप्पपत्थयणो॥ शिष्य अकल्पनीय को ग्रहण करते देख 'नित्थक'-निर्लज्ज अध्वगत मुनि यदि पूर्वकथित उपकरणों को साथ में नहीं हो जाता है। यदि वे अध्वनिर्गत स्थिति में अकल्प्य ग्रहण लेता तथा सार्थ की प्रत्युपेक्षा नहीं करता, वह चतुर्गुरु करते हैं और उन्हें यदि अकल्प्य ग्रहण न करने की प्रेरणा दी प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोषों का भागी होता है। जाती है तो वे कहते हैं-उस समय मार्गगत होने पर वह सार्थ अवमानित होकर उद्वेलित हो सकता है, सार्थिक कल्पनीय कैसे हो गया? आतियात्रिक-सार्थरक्षक या सार्थचिन्तक प्रान्त हो सकते हैं, ३०६०.तेणभयोदककज्जे, रत्तिं, सिग्घगति दूरगमणे य। सार्थ अल्प शंबल वाला हो सकता है इसलिए सार्थ की वहणावहणे दोसा, बालादी सल्लविद्धे य॥ प्रत्युपेक्षा करनी चाहिए। १. 'संवच्छरबारसएण, होही असिवं ति ते तओ निति।'......(ओघ. भा. गा. १५) Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ ३०६६.राग होसविमुक्को, सत्थं पडिलेहे सो उ पंचविहो। भंडी बहिलग भरवह, ओदरिया कप्पडिय सत्थो॥ जिस सार्थ का गंतव्य के प्रति न राग है और न द्वेष, ऐसे सार्थ की प्रत्युपेक्षा करनी चाहिए। सार्थ के पांच प्रकार' हैं-भंडीसार्थ, बहिलक सार्थ, भारवाहसार्थ, औदरिकसार्थ, कार्पटिकसार्थ। ३०६७.गंतव्वदेसरागी, असत्थ सत्थं पि कुणति जे दोसा। इअरो सत्थमसत्थं, करेइ अच्छंति जे दोसा॥ जिसका गंतव्य देश के प्रति राग होता है वह असार्थ को भी सार्थ बना देता है, वहां जो दोष होते हैं, उनसे निष्पन्न प्रायश्चित्त आचार्य को आता है। जिसका गंतव्य देश के प्रति द्वेष होता है वह सार्थ को भी असार्थ कर डालता है। वहां जो दोष होते हैं, उनके भी भागी वे ही होते हैं। ३०६८.उप्परिवाडी गुरुगा, तिसु कंजियमादिसंभवो होज्जा। परिवहणं दोसु भवे, बालादी सल्ल गेलन्ने॥ यदि उत्परिपाटी-यथोक्तक्रम का उल्लंघन कर सार्थ के साथ जाने से चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। प्रथम तीन सार्थों में कांजिक आदि मानक उपलब्ध हो सकता है। तथा प्रथम दो सार्थों में शल्यविद्ध बाल-वृद्ध तथा ग्लान मुनियों का परिवहन हो सकता है। ३०६९.सत्थं च सत्थवाहं , सत्थविहाणं च आदियत्तं च। दव्वं खेत्तं कालं, भावोमाणं च पडिलेहे॥ सार्थ, सार्थवाह, सार्थ का विधान, आतियात्रिक-सार्थ के रक्षक, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव तथा अवमान-इन द्रव्यों से संबंधित सार्थ की प्रत्युपेक्षा करनी चाहिए। (यह द्वार गाथा है। व्याख्या आगे) ३०७०.सत्थि त्ति पंच भेया, सत्थाहा अट्ठ आइयत्तीया। सत्थस्स विहाणं पुण, गणिमाई चउब्विहं होइ॥ सार्थ शब्द से पांच प्रकार के सार्थ गृहीत हैं। सार्थवाह और आतियात्रिक सार्थरक्षक आठ-आठ प्रकार के हैं। सार्थ का विधान गणिम आदि के भेद से चार प्रकार का होता है। ३०७१.अणुरंगाई जाणे, गुंठाई वाहणे अणुण्णवणा। धम्मु त्ति वा भईय व, बालादि अणिच्छे पडिकुट्ठा॥ अनुरंग आदि यान, गुंठ घोटक अथवा महिष आदि वाहन कहलाते हैं। इन यान, वाहनों की अनुज्ञापना करनी चाहिए। =बृहत्कल्पभाष्यम् ऐसे सार्थों को कहना चाहिए, हमारे बाल या वृद्ध मुनियों को आवश्यकतावश यान-वाहन में चढ़ाना होगा। यदि सार्थ धर्म मानकर स्वीकार करते हैं तो अच्छा है, अन्यथा मूल्य देकर यान-वाहन में चढ़ाने की बात करनी चाहिए। यदि वे ऐसा करना नहीं चाहते हों तो वे सार्थ प्रतिषिद्ध हैं, उनके साथ नहीं जाना चाहिए। ३०७२.दंतिक्क-गोर-तिल्ल-गुल-सप्पिएमादिभंडभरिएसु । अंतरवाघातम्मि व, तं दितिहरा उ किं देति॥ दंतिक-दन्त्यखाद्य, गोर-गेंहूं, तैल, गुड़, सर्पि-घी, इन द्रव्यों से भरे हुए भांड वाले सार्थ द्रव्यतः शुद्ध होते हैं। बीच में व्याघात हो जाने पर भी दंतिक आदि खाद्य स्वयं सार्थ खाते हैं और साधुओं को भी देते हैं। उनके अभाव में वे क्या खाये और क्या हैं? ३०७३.वासेण नदीपूरेण वा वि तेणभय हत्थि रोधे य। खोभे व जत्थ गम्मति, असिवं वेमादि वाघाता॥ व्याघात होने के कारण-अत्यधिक वर्षा, नदी का पूर, स्तेनों का भय, हाथी का भय, जिस गांव में जाना चाहते हैं वहां रोध-शत्रु राजा ने आक्रमण कर दिया हो, राज्यक्षोभ हो गया हो, अशिव हो इस प्रकार के व्याघात होते हैं। ३०७४.कुंकुम अगुरुं पत्तं, चोयं कत्थूरिया य हिंगुं च। संखग-लोणभरितेण, न तेण सत्थेण गंतव्वं ॥ कुंकुम, अगुरु, तगरपत्र, त्वक्-छाल, कस्तूरिका, हिंगुल, शंख, लवण आदि द्रव्यों से भरे हुए भांड हों, वैसे सार्थों के साथ न जाएं, क्योंकि व्याघात होने पर वे भोज्यरूप में क्या दे सकते हैं? ३०७५.खेत्ते जं बालादी, अपरिस्संता वयंति अद्धाणं। काले जो पुव्वण्हे, भावे सपक्खादणोमाणं॥ बाल-वृद्ध मुनि सुखपूर्वक बिना थकावट अनुभव किए विहरण कर सकते हैं, उतनी दूरी तक जाने वाला सार्थ क्षेत्रतः शुद्ध होता है। जो सार्थ पूर्वाह्न में ठहर जाता है वह कालतः शुद्ध और जो सार्थ स्वपक्ष-परपक्ष के भिक्षुओं को पर्याप्त भिक्षा देता है वह भावतः शुद्ध होता है। ३०७६.एक्किक्को सो दुविहो, सुद्धो ओमाणपेल्लितो चेव। मिच्छत्तपरिग्गहितो, गमणाऽऽदियणे य ठाणे अ॥ भंडीसार्थ और बहिलकसार्थ इन दोनों में प्रत्येक के दो १. (१) भंडी सार्थ-गाड़ियों से चलने वाला। (२) बहिलकसार्थ-ऊंट, बैल आदि से चलने वाला। (३) भारवाहसार्थ-भार ढोने बालों का। (४) औदारिकसार्थ-रुपये देकर मार्ग में भोजन करने वालों का। (५) कार्पटिकसार्थ-भिक्षा से निर्वाह करने वालों का। २. गणिम-गिनकर दी जाने वाली वस्तुएं। धरिम-तोल कर दी जाने वाली वस्तुएं। मेय-माप कर दिए जाने वाले पदार्थ। परिच्छेद्य-आंखों से परीक्ष्य पदार्थ, जैसे-रत्न, मोती आदि। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक दो भेद हैं-शुद्ध और अशुद्ध। शुद्ध वह है जो अवमानप्रेरित सार्थपंचक में भंडीसार्थ तथा बहिलकसार्थ ये दोनों शुद्ध (वस्तु के अभाव से प्रेरित) नहीं है, जो अवमानप्रेरित है वह अथवा प्रेरित हो सकते हैं। कालगामी-अकालगामी या अशुद्ध है। सार्थ का संरक्षक मिथ्यादृष्टि हो तो वह सार्थ कालभोजी-अकालभोजी या कालनिवेशी-अकालनिवेशी या मिथ्यात्वपरिगृहीत होता है। ऐसे सार्थ के साथ नहीं जाना स्थंडिलस्थायी-अस्थंडिलस्थायी-ये पांचों प्रकार के सार्थ हो चाहिए। जो सार्थ गमन में मंदगति वाला है, आदन-भोजन- सकते हैं। तथा आठ प्रकार के सार्थवाह और आठ प्रकार के वेला में तथा जो ठाण-स्थंडिल वेला में एक स्थान पर ठहर आदियांत्रिक होते हैं। जाता है, वह सार्थ शुद्ध है। ३०८२.एतेसिं तु पयाणं, भयणाए सयाई एक्कपन्नं तु। ३०७७.समणा समणि सपक्खो , वीसं च गमा नेया, एत्तो य सयग्गसो जयणा॥ परपक्खो लिंगिणो निहत्था य। इन पदों की भंगरचना करने पर ५१२० भंग होते हैं। आया-संजमदोसा, एत्तो-इन भंगों में शतभेदवाली यतना होती है। असईय सपक्खवज्जेण॥ ३०८३.कालुट्ठाई कालनिवेसी, ठाणट्ठाती य कालभोगी य। श्रमण और श्रमणी स्वपक्ष हैं। लिंगी-अन्यतीर्थिक और उम्गतऽणत्थमि थंडिल, मज्झण्ह धरंत सूरे य॥ गृहस्थ परपक्ष हैं। इनसे आकीर्ण सार्थ में पर्याप्त न मिलने पर जो सार्थ कालोत्थायी अर्थात् सूर्योदय होने पर प्रयाण आत्म-संयमदोष होते हैं। सार्थ में अनवमान न होने पर, करता है और कालनिवेशी अर्थात् सूर्यास्त होने पर ठहर स्वपक्ष को छोड़कर यदि परपक्षावमान होता है तो उस सार्थ जाता है। जो सार्थ स्थानस्थायी अर्थात् स्थंडिल के समय के साथ जाया जा सकता है। जिका आदि में ठहरता है और जो कालभोजी-मध्याह्न ३०७८.गमणं जो जुत्तगती, वइगा-पल्लीहिं वा अछिण्णेणं। अथवा सूर्य के रहते भोजन कर लेता है। थंडिल्लं तत्थ भवे, भिक्खग्गहणे य वसही य॥ ३०८४.एतेसिं तु पयाणं, भयणा सोलसविहा उ कायव्वा। ३०७९.आदियणे भोत्तूणं, ण चलति अवरण्हे तेण गंतव्वं । सत्थपणएण गुणिया, असिती भंगा तु णायव्वा।। तेण परं भयणा ऊ, ठाणे थंडिल्लठाई उ॥ ३०८५.सत्थाह अट्ठगुणिया, असीति चत्ताल छस्सता होति। उस सार्थ का गमन शुद्ध है जो युक्तगति-मंदगति वाला ते आइयत्तिगुणिया, सत एक्कावण्ण वीसहिया॥ होता है। वह सार्थ वजिका, पल्ली आदि से अच्छिन्न पथ से इन कालोत्थायी आदि चारों पदों के १६ विकल्प करने जाता है। वहां स्थंडिल भी प्राप्त हो जाता है, भिक्षाग्रहण तथा चाहिए। इनको पांच प्रकार के सार्थ से गुणन करने पर ८० भंग वसति भी सुलभता से प्राप्त हो जाती है। जो भोजनवेला में होते हैं अनको आठ प्रकार के सार्थवाहों से गुणन करने पर ठहर कर अपराह्न में चलता है, उस सार्थ के साथ जाना (८०४८)-६४० विकल्प होते हैं। इस संख्या को आठ प्रकार चाहिए। भोजनोपरान्त गमन की भजना है। जो सार्थगमन से के आयतियों से गुणन करने पर (६४०४८)=५१२० भंग होते उपरत होकर स्थंडिलस्थायी होता है, वह शुद्ध सार्थ है। हैं। (इन विकल्पों में जो बहुतरगुण वाला सार्थ हो उसके साथ ३०८०.पुराण सावग सम्महिट्ठि अहाभद्द दाणसड्ढे य।। गमन करना चाहिए।) अणभिग्गहिए मिच्छे, अभिग्गहे अण्णतित्थी य॥ ३०८६.दोण्ह वि चियत्त गमणं, आठ प्रकार के सार्थवाह एगस्सऽचियत्त होति भयणा उ। (१) पश्चात्कृत (५) दानश्राद्ध अप्पत्ताण णिमित्तं, (२)श्रावक (६) अनभिगृहीत मिथ्यादृष्टि पत्ते सत्थम्मि परिसाओ। (३) सम्यग्दृष्टि (७) अभिगृहीत मिथ्यादृष्टि यदि दो सार्थाधिपति हों तो दोनों की आज्ञा लेनी चाहिए। (४) यथाभद्रक (८) अन्यतीर्थिक। यदि दोनों की प्रीति हो तो गमन करना चाहिए। यदि एक की आदियात्रिक सार्थ आरक्षक भी इसी तरह आठ प्रकार के अप्रीति हो तो वहां गमन की भजना है। सार्थ अप्राप्त हो तो होते हैं। स्वयं के निमित्त-शकुन से प्रस्थान कर देना चाहिए। सार्थ के ३०८१.सत्थपणए य सुद्धे, प्राप्त हो जाने पर सार्थ के शकुन को मान्य करना चाहिए और य पेल्लिओ कालऽकालगम-भोगी। साधुओं की तीन परिषदें करनी चाहिए-मृगपरिषद, कालमकालठ्ठाई, सिंहपरिषद् और वृषभपरिषद्। आगे मृग, बीच में सिंह और सत्थाहऽहाऽऽदियत्तीया। पीछे वृषभ। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ३०८७. दोन वि समागया सत्थिगो व जस्स व वसेण वच्चति तु । अणणुण्णविते गुरुगा, एमेव य एगतरपंते ॥ सार्थवाह और आदियात्रिक दोनों एक साथ आए तो दोनों की अनुज्ञा प्राप्त करनी चाहिए जिसका सार्थ होता है, वह है सार्थवाह । उसकी अथवा जिसके वश में चलता है सार्थ उसकी अनुज्ञा लेनी होती है। बिना उनको अनुज्ञापित किए गमन करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। दोनों में से कोई एक भी प्रान्त हो और उसके साथ गमन करने पर भी यही प्रायश्चित्त है। 3 ३०८८. जो होइ पेल्लतो तं भणंति तुह बाहुछायसंगहिया । वच्चामऽणुग्गहो त्तिय, गमणं इहरा उ गुरु आणा ॥ जो उनमें प्रेरक-प्रमाणभूत होता है उसे मुनि कहेहम तुम्हारी भुजाओं की छाया में संगृहीत होकर जाना चाहते हैं तब यदि वह कहे आपका मुझ पर अनुग्रह होगा । तब मुनि उस सार्थ के साथ गमन करे। अन्यथा गमन करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। ३०८९. पडिसेहण पिच्छुभणं, उवकरणं बालमादि वा हारे । अतियत्त गुम्मिएहि व, उड्डुभंते ण वारेति ।। प्रान्त सार्थवाह वाले सार्थ के साथ गमन करने पर वह भक्तपान का प्रतिषेध, सार्थ से निष्कासन, उपकरणों तथा बालसाधुओं का चोरों से अपहरण करा देता है, और चोर आदि साधुओं को लूटते हैं तब आदियात्रिक' या गौल्मिकों द्वारा चोरों का निवारण नहीं कराता, उदासीन रहता है-ये दोष होते हैं। ३०९०. भगवयणे गमणं, मिक्खे भत्तगुणाए वसधीए । थंडिल्ल असति मत्तग, वसभा य पदेस वोसिरणं ॥ भद्रक सार्थवाह के कहने पर उस सार्थ के साथ गमन करे। भिक्षा तथा भक्तार्थना भोजन करने विषयक और वसति-विषयक यतना करे । स्थंडिल में व्युत्सर्ग करे। उसके अभाव में मात्रक में उत्सर्ग कर स्थंडिल में परिष्ठापन करे। यह वृषभों की यतना है। यदि सर्वथा स्थंडिल न मिले तो धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय तथा आकाशास्तिकाय के प्रदेशों में व्युत्सर्ग करे। ३०९१. पुव्वं भणिया जयणा, भिक्खे भत्तट्ठ वसहि थंडिल्ले । सा चैव य होति हहं णाणत्तं णवरि कप्पम्मि ॥ भिक्षा, भक्तार्थ, वसति तथा स्थंडिल विषयक यतना जो १. आदियात्रिक-सार्थआरक्षक । बृहत्कल्पभाष्यम् पूर्वभणित है, वही अध्वगत के लिए होती है। केवल कल्प अर्थात् अध्वकल्प विषयक यतना में नानात्व है। ३०९२. अग्गहणे कप्पस्स उ, गुरुमा दुविधा विराहणा णियमा । पुरिसऽद्धाणं सत्थ, गाउं वा वीण गिण्डिज्जा ॥ अध्वकल्प साथ न लेने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा नियमतः दोनों प्रकार की विराधना ( आत्मविराधना, संयमविराधना) होती है। यदि सार्थ के पुरुष संहनन और धृतिसंपन्न हों, मार्ग केवल एक-दो दिन का हो, सार्थवाह भद्रक आदि हो इन सारे तथ्यों की जानकारी कर अध्वकल्प न ले तो भी कोई दोष नहीं है। ३०९३. सक्कर- घत गुलमीसा, अगंठिमा खज्जूरा व तम्मीसा । सत्तू पिण्णामो वा घत गुलमिस्सो खरेणं वा ॥ अध्वकल्प कैसा हो ? घृत और गुड़ से मिश्रित या शर्करा और घृत से मिश्रित 'अग्रन्थिम' टुकड़े-टुकड़े किए हुए कदलीफल, अथवा घृत गुड़ से मिश्रित खर्जूर अथवा घृतगुड़ मिश्रित सनु अथवा घृत-गुड़मिश्रित पिण्याक अथवा खर तैल से मिश्रित पिण्याक ऐसा अध्यकल्प ग्रहण करना चाहिए। ३०९४. थोवा विहणंति खुहं न य तरह करेंति एते खज्जता । सुक्खोदणं वडलंभे, समितिम दंतिक्क चुण्णं वा ॥ ये अध्वकल्प थोड़े होने पर भी भूख को मिटाते हैं। इनको खाने से प्यास भी नहीं लगती। ऐसे अध्वकल्प के अभाव में सूखा ओदन या शुष्कमंडक या दंतिकचूर्ण इन सबको घृतगुड़ से मिश्रित कर रखना चाहिए। ३०९५. तिविहाऽऽमयभेसज्जे, वणभेसज्जे स सप्पि - महु-पट्टे । सुद्धाऽसति तिपरिरए, जा कम्मं णाउमछाणं ॥ अध्वगत मुनि वातज, पित्तज और श्लेमज इन तीन प्रकार के रोगों के लिए भैषज्य तथा व्रणों पर लेप करने के लिए घृतमिश्रित या मधुमिश्रित भैषज्य तथा व्रणों पर बांधने के लिए पट्टी साथ में ले। ये शुद्ध न मिले तो 'त्रिपरिरय' यतनापूर्वक अर्थात् पंचकपरिहानि से प्रारंभ कर आधाकर्म पर्यन्त दोष की प्रतिसेवना कर उसे ग्रहण करे। मार्ग अल्प है या बहुत यह जानकर उसके अनुसार अध्वकल्प ग्रहण करे। ३०९६. अद्धाण पविसमाणो, जाणगनीसाए गाहए गच्छं । अह तत्थ न गाहिज्जा, चाउम्मासा भवे गुरुगा ॥ अध्वगत होने से पूर्व आचार्य गीतार्थ की निश्रा में गच्छ २. गौल्मिक-स्थानरक्षपाल । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ३१५ को अध्वकल्प प्राप्त कराए। यदि ऐसा नहीं करते हैं तो चार ठहरते हैं। आगे के चार भंगों में सार्थ को अकालनिवेशी गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। जानकर चुडलिका के प्रकाश से संस्तारकभूमी आदि में बिल ३०९७.सभए सरभेदादी, लिंगविओगं च काउ गीयत्था। की गवेषणा करते हैं। आगे के आठ भंगों (९ से १६) रात्री में खरकम्मिया व होउं, करेंति गुत्तिं उभयवग्गे॥ प्रस्थान करने वाले सार्थ के पीछे रहकर, फिर विहार करते जहां भय हो वहां स्वरभेद-वर्णभेदकारिणी गुटिकाओं का हैं, यदि स्तेनों का भय न हो तो। प्रयोग करते हैं गीतार्थ मुनि लिंग-वियोग कर चलते हैं, ३१०३.सावय अण्णट्ठकडे, अट्ठा सुक्खे सय जोइ जतणाए। जिससे उनकी पहचान न हो सके। अथवा खरकर्मिक-शस्त्रों तेणे वयणचडगरं, तत्तो व अवाउडा होति। से सज्जित होकर चलते हैं, जिससे वे उभयवर्ग-साधु- श्वापद आदि का भय हो तो सार्थ द्वारा कृत वृत्तिपरिक्षेप साध्वी वर्ग की रक्षा कर सकें। में ठहरें या साधुओं के लिए किए हुए परिक्षेप में रहे। उसके ३०९८.जे पुव्विं उवकरणा, गहिया अद्धाण पविसमाणेहिं। अभाव में स्वयं सूखे कंटक आदि से परिक्षेप तैयार करे। जं जे जोग्गं जत्थ उ, अद्धाणे तस्स परिभोगो॥ यतनापूर्वक अग्नि का उपयोग करे। यदि चोरों का भय हो तो अध्व-प्रवेश करते समय जो पहले उपकरण साथ में लिए । मुनि परस्पर वचनचटकर-वाग आडंबर करे कि चोर सुनकर थे, उनका मार्ग में यथोचित काल में उपयोग करना चाहिए। भाग जाए। अथवा उन चोरों के अभिमुख होकर अपावृत३०९९.सुक्खोदणो समितिमा, कंजुसिणोदेहि उण्हविय भुंजे। नग्न हो जाएं। ___ मूलुत्तरे विभासा, जतिऊणं णिग्गते विवेगो॥ ३१०४.सावय-तेणपरद्धे, सत्थे फिडिया ततो जति हवेज्जा। सूखा ओदन या शुष्कमंडक को कांजी' के साथ या अंतिमवइगा विटिय, णियट्टणय गोउलं कहणा॥ उष्णोदक से गरम कर खाना चाहिए। उसमें मूलगुण और श्वापद अथवा चोरों द्वारा सार्थ पर व्याघात किए जाने उत्तरगुणों का चिंतन करना चाहिए। इस प्रकार से यतनापूर्वक पर सार्थ के लोग अनेक दिशाओं में भाग जाते हैं। यदि मुनि मार्ग को संपन्न करने के पश्चात् जो अध्वकल्प अवशिष्ट रहा इस प्रकार सार्थ से बिछुड़ जाएं। अंतिम वजिका में विंटिका। है उसका परिष्ठापन कर देना चाहिए। साधुओं का निवर्तन। गोकुल का कथन। (विस्तार आगे।) ३१००.कामं कम्मं तु सो कप्पो, णिसिं च परिवासितो। ३१०५.अद्धाणम्मि महंते, वट्टतो अंतरा तु अडवीए। तहा वि खलु सो सेओ, ण य कम्मं दिणे दिणे॥ सत्थो तेणपरद्धो, जो जत्तो सो ततो नट्ठो। ३१०१.आधाकम्माऽसतिं घातो, सई पुव्वहते त्ति य। ३१०६.संजयजणो य सव्वो, कंची सथिल्लयं अलभमाणो। जे उ ते कम्ममिच्छंति, निग्घिणा ते न मे मता। पंथं अजाणमाणो, पविसेज्ज महाडविं भीमं ।। यह अनुमत है कि अध्वकल्प आधाकर्म है तथा रात्री में सार्थ प्रस्थित है। मार्ग बहुत लंबा है। बीच में एक महान् परिवासित भी है, फिर भी वह श्रेयस्कर है। प्रतिदिन प्राप्त अटवी है। वहां चोरों ने सार्थ पर आक्रमण कर दिया। सार्थ के आधाकर्म श्रेयान नहीं है, क्योंकि प्रतिदिन होने वाले पुरुष जो जहां थे, वे वहां से पलायन कर गए। मुनिजन किसी आधाकर्म में जीवोपघात अनेक बार होता है और अध्वकल्प सार्थपुरुष को न पाकर, मार्ग को न जानते हुए, वे भयंकर में एक ही बार जीवोपघात होता है तथा पूर्वहत जीव प्रतिदिन अटवी में प्रवेश कर गए। नहीं मारे जाते। जो अध्वकल्प का परिभोग करना नहीं ३१०७.सव्वत्थामेण ततो, वि सव्वकज्जुज्जया पुरिससीहा। चाहते, किन्तु आधाकर्म का भोज्य खाने की इच्छा करते हैं, वसभा गणीपुरोगा, गच्छं धारिति जतणाए। वे निघृण-दयाहीन हैं, इसलिए वे मेरे द्वारा सम्मत नहीं हैं। वहां सर्वशक्तिसंपन्न वृषभ मुनि, जो पुरुषसिंह और सभी ३१०२.कालुट्ठाईमादिसु, भंगेसु जतंति बितियभंगादी। कार्य करने में उद्यत हैं, वे आचार्य के आगे आकर विपत्ति से लिंगविवेगोवंते, चुडलीए मग्गतो अभए॥ घिरे गच्छ को यतना से धारण करते हैं, रक्षा करते हैं। कालोत्थायी आदि भंगों में द्वितीय भंग से आगे के भंगों ३१०८.जइ तत्थ दिसामूढो, हवेज्ज गच्छो सबाल-वुड्डो उ। में यतना करते हैं। द्वितीय भंग में सार्थ को अकालभोजी वणदेवयाए ताहे, णियमपगंपं तह करेंति॥ जानकर मुनि अपने लिंग को छोड़ कर रात्री में अन्यलिंग से यदि वहां सबालवृद्ध गच्छ दिशामूढ़ हो जाता है तो मुनि भक्त-पान लेते हैं। तीसरे चौथे भंग में सार्थ को वनदेवता के आकंपन के लिए नियमप्रकंप-निश्चयपूर्वक अस्थानस्थायी जानकर बैलों आदि द्वारा आक्रांत भूमी में किया जाने वाला कायोत्सर्ग इस प्रकार करते हैं कि १. लाटदेश में अवश्रावण का अर्थ है-कांजिक। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ =बृहत्कल्पभाष्यम् वह देवता आकंपित होने पर दिशा या पथ का निर्देश कर ३११४.इहरा वि मरति एसो, अम्हे खायामो सो वि तु भएण। देता है। कंदादि कज्जगहणे, इमा उ जतणा तहिं होति॥ ३१०९.सम्मट्टिी देवा, वेयावच्चं करेंति साहणं । यह मुनि बुभुक्षा से ऐसे ही मरने वाला है तो हम उसे गोकुलविउव्वणाए, आसास परंपरा सुद्धा ।। रज्जू के सहारे आकाश में लटका कर मार देंगे और फिर हम सम्यग्दृष्टि देवता साधुओं का वैयावृत्त्य करते हैं। वे कन्दादि खायेंगे। इन प्रयोजनों में कन्द आदि के भक्षण में यह गोकुल की विकुर्वणा करते हैं। गोकुल के आश्वासन से- यतना होती है। परंपरा से मुनि जनपद तक पहुंच जाते हैं। यह परंपरा भी ३११५.फासुग जोणिपरित्ते, एगट्ठिगऽबद्ध भिन्नऽभिण्णे अ। शुद्ध है। बद्धट्ठिए वि एवं, एमेव य होइ बहुबीए।। ३११०.सावय-तेणपरद्धे, सत्थं फिडिया तओ जइ हविज्जा। प्रासुक परीत्तयोनिक, एकास्थिक, अबद्धास्थिक, भिन्न अंतिमवइगा विटिय, नियट्टणय गोउलं कहणा॥ विदारित अभिन्न-अविदारित। इसी प्रकार बद्धास्थिक तथा श्वापद या स्तेनों के आघात से सार्थ का पलायन हो जाने बहुबीज में भी भिन्न-भिन्न भंग होते हैं। वृत्ति में इन सबके ३२ पर यदि साधु भटक जाएं तो कायोत्सर्ग के द्वारा देवता को भंग बतलाए हैं। यह वृक्ष के नीचे पड़े प्रलंब के विषय में है। आकंपित करे, वह पथदर्शन करता है और वजिका की ३११६.एमेव होइ उवरिं, एगट्ठिय तह य होइ बहुबीए। विकुर्वणा कर साधुओं को जनपद तक पहुंचा देता है। अंतिम साहारणं सभावा, आदीए बहुगुणं जं च॥ व्रजिका में देवयोग से मुनि वहां विंटिका को भूल जाते है। इसी प्रकार वृक्ष के ऊपर प्रलंब आदि एकास्थिकपद तथा उसे लेने पुनः लौटते हैं, वहां गोकुल को नहीं देखने और बहुबीजपद के साथ भी बत्तीस भंग होते हैं। इनमें जो फिर आचार्य को गोकुल की बात बताते है। गुरु जान जाते हैं स्वभावतः साधारण द्रव्य है, शरीरोपष्टंभकारक है, वह कि गोकुल देवकृत थे। ग्रहण करे। वही बहुगुण-बहुत उपकारी हो सकता है। ३१११.भंडी-बहिलग-भरवाहिगेसु एसा तु वण्णिया जतणा। ३११७.तुवरे फले य पत्ते, रुक्ख-सिला-तुप्प-मद्दणादीसु। ओदरिय विवित्तेसु य, जयण इमा तत्थ णातव्वा॥ पासंदणे पवाते, आतवतत्ते वहे अवहे। भंडी, बहिलक, भारवाही-इन सार्थों के प्रति यह यतना अध्वगत मुनि को यदि कांजिक आदि प्रासुक पानक प्राप्त कही गई है। औदारिक और विविक्त अर्थात् कार्पटिक सार्थों न हो तो निम्न पानक-एक के अभाव में दूसरा और दूसरे के के प्रति यह यतना ज्ञातव्य है। अभाव में तीसरा-इस क्रम से ले सकता है। ३११२.ओदरिपत्थयणाऽसइ, (१) तुवर फल-हरीतकी आदि तथा तुवरपत्र-पलाशपत्र __ पत्थयणं तेसि कन्द-मूल-फला। आदि से परिणामित पानक। अग्गहणम्मि य रज्जू, (२) वृक्ष के कोटर में कटक फल या पत्र से परिणामित। वलिंति गहणं च जयणाए॥ (३) सिलाजित से भावित। औदारिक सार्थ के साथ जाने पर यदि उनके पास शंबल (४) तुप्प-मृत कलेवर, वशा, घृत से भावित। का अभाव होने पर वे कन्द-मूल-फल आदि खाते हैं और (५) मर्दन हाथी आदि से आक्रांत। साधुओं को भी वही आहार देते हैं। उसको ग्रहण न करने पर (६) प्रस्यंदन-निर्झर का पानक। वे साधुओं को डराने के लिए रज्जू को बंटते हैं, अतः यतना (७) प्रपातोदक। से उसे ग्रहण करते हैं। (८) आतप से तप्त। ३११३.कंदाइ अभुंजंते, अपरिणए सत्थिगाण कहयंति। (९) अवहमान-जो बहता नहीं है। पुच्छा वेधासे पुण, दुक्खिहरा खाइउं पुरतो॥ (१०) वहमान। अपरिणत शिष्य यदि कन्द आदि नहीं खाते हैं तो ये पानक क्रमशः लिए जा सकते हैं। वृषभ मुनि सार्थिकों से कहते हैं। वे सार्थिक रज्जू को बंटते ___३११८.ओमे एसणसोहिं, पजहति परितावितो दिगिंच्छाए। हैं। पूछने पर कहते हैं जो कंद आदि नहीं खाते, हम उनको अलभंते वि य मरणे, असमाही तित्थवोच्छेदो॥ इस रस्सी से बांधकर आकाश में लटकाएंगे। अन्यथा बुभुक्षा अवमौदरिका में भूख से परितापित होकर मुनि यदि से पीड़ित इस मुनि के सामने हमारा खाना दुष्कर है, एषणाशुद्धि को छोड़ देता है अथवा भक्तपान न मिलने पर कष्टप्रद है। मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। असमाधि में मरने पर दुर्गति होती Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = है तथा भूख से अनेक मुनियों के मरने से तीर्थ का व्यवच्छेद हो जाता है। ३११९.ओमोदरियागमणे, मग्गे असती य पंथे जयणाए। परिपुच्छिऊण गमणं, चउव्विहं रायदुटुं च॥ अवमौदरिका में जाने का अवसर आए तो पहले मार्ग से जाना चाहिए। उसके अभाव में पूछ कर पथ यतनापूर्वक गमन करे। राजा के द्विष्ट होने के चार कारण हैं३१२०.ओरोहधरिसणाए, अब्भरहितसेहदिक्खणाए वा। अहिमर अणिट्ठदरिसण, वुग्गाहणया अणायारे॥ (१) किसी लिंगस्थ ने उसके अतःपुर की धर्षणा की है। (२) अभ्यर्हित राजा, अमात्य आदि का पुत्र दीक्षित हुआ (३) साधुवेश में कुछ अभिमर (चपेटा मार कर प्राण लेने वाले?) प्रवेश कर गए हैं। (४) साधुओं के दर्शन अनर्थकारी होते हैं, इस प्रकार अमात्य आदि द्वारा व्युद्ग्राहित हो जाने पर अथवा साधु को अनाचार की प्रतिसेवना करते हुए देख लेने पर-ये कारण बनते हैं। ३१२१.निव्विसउ त्ति य पढमो, बितियो मा देह भत्त-पाणं से। ततितो उवकरणहरो, जीय चरित्तस्स वा भेतो।। इस प्रकार प्रद्विष्ट होकर राजा चार प्रकार का दंड प्रयुक्त करता है १. देश से निकाल देना। २. भक्तपान देने का निषेध करना। ३. उपकरणों का हरण कर लेना अर्थात् उपकरण देने का निषेध करना। ४. मार डालना या चारित्र का भेद कर देना। ३१२२.गुरुगा आणालोवे, बलियतरं कुप्पे पढमए दोसो। __गिण्हत देंतदोसा, बितिय-तिए चरिमे दुविह भेतो॥ देश निष्काशन की आज्ञा का लोप करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त। इस आज्ञा के उल्लंघन से राजा अत्यधिक कुपित हो जाता है। यह प्रथम आज्ञा का लोप संबंधी दोष है। दूसरी और तीसरी आज्ञा का लोप होने पर अर्थात् भक्तपान और उपकरण लेने वालों तथा इनको देने वाले गृहस्थों के ग्रहणआकर्षण आदि दोष होते हैं तथा चौथे विकल्प में जीव और चारित्र-दोनों का भेद हो जाता है। ३१२३.सच्छंदेण य गमणं, भिक्खे भत्तट्ठणे य वसहीए। ___ दारे व ठितो संभति, एगट्ठ ठितो व आणावे॥ देश निष्काशन की आज्ञा प्राप्त कर मुनि वहां से स्वच्छंद गमन करे परंतु भैक्ष, भक्तार्थन तथा वसति विषयक सामाचारी का पालन करे। ग्रामद्वार पर स्थित अथवा सभादेवकुल में स्थित कोई साधुओं को रोकता है और उनको आहार करने के लिए स्वयं के पास आज्ञापित करता है तो वहां यह यतना करनी चाहिए। ३१२४.सच्छदेण उ गमणं, सयं व सत्थेण वा वि पुव्वुत्तं। तत्थुग्गमादिसुद्धं, असंथरे वा पणगहाणी॥ स्वच्छंद गमन की स्थिति आने पर मुनि स्वयं अकेला या सार्थ के साथ प्रस्थान करे तथा पूर्वोक्त (गाथा ३१०५. ३११०) यतना करे। उद्गमादि से शुद्ध भक्त-पान ग्रहण करे, अपर्याप्त होने पर पंचक परिहानि से भक्त-पान प्राप्त करे। ३१२५.तिण्हेगयरे गमणे, एसणमादीसु होति जतियव्वं । भत्तद्गुण थंडिल्ले, असती वसहीए जं जत्थ।। __ आगे कहे जाने वाले तीन प्रकार के गमन में से किसी एक प्रकार के गमन में भी एषणा आदि में यतना करनी चाहिए। भक्तार्थन (भोजन करने की विधि). स्थंडिल विषयक तथा वसति के अभाव में, जहां अल्पतर दोष हो, उसका आचरण करे। ३१२६.सच्छंदओ य एक्कं, बितियं अण्णत्थ भोत्तिहं एह। ततिए भिक्खं घेत्तुं, इह भुंजह तीसु वी जतणा। तीन प्रकार के गमन-एक है-स्वच्छंदगमन, दूसरा हैराजपुरुष कहते हैं-अन्यत्र कहीं भी भोजन कर यहां आ जाना, तीसरा है-भिक्षा लेकर यहां आकर भोजन करना-इन तीनों में भैक्ष आदि की यतना करनी चाहिए। ३१२७.सबिइज्जए व मुंचति, आणावेत्तुं व चोल्लए देति। अम्हुग्गमाइसुद्धं, अणुसट्ठि अणिच्छे जं अंतं॥ राजपुरुष भिक्षा के लिए जाने वाले साधुओं के साथसाथ घूमता है अथवा वह राजपुरुष भोजन देता है तब मुनि उससे कहे-हमें उद्गम आदि से शुद्ध आहार लेना कल्पता है। यदि वह साधुओं को मुक्त कर देता है तो वे भिक्षा के लिए चले जाते हैं। मुक्त न करने पर अनुशिष्टि करनी चाहिए। न मानें तो उसके द्वारा लाया हुआ अन्त-प्रान्त ले लेना चाहिए। ३१२८.पुव्वं व उवक्खडियं, खीरादी वा अणिच्छे जं दिति। कमढग भुत्ते सण्णा, कुरुकुय दुविहेण वि दवेण॥ राजपुरुष जो भोजन लाया है उसमें जो दूध-दही आदि पूर्व उपस्कृत हैं, वे ले लें। यदि वह उन्हें देना न चाहे तो वह जो दे, उसीका भोजन कर ले।' 'कमढक' में भोजन कर ले। भोजन कर लेने तथा संज्ञा के व्युत्सर्जन के पश्चात् दोनों प्रकार के द्रव (सचित्त या अचित्त पानी) से कुरुकुच हाथ आदि प्रक्षालित कर ले। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ ३१२९. बिए वि होइ जयणा, भत्ते पाणे अलग्भमाणम्मि | दोसीण तक्क पिंडी, समादी जतितव्वं ॥ राजविष्ट होने पर दूसरी आज्ञा जो भक्त पान निवारण की है, उसकी यतना यह है-भक्त-पान की प्राप्ति न होने पर बासी भोजन, तक्र तथा पिण्याकपिंडी इनकी एषणा में यतना करनी चाहिए। ३१३०. पुराणादि पण्णवेडं, णिसिं पि गीतत्ये होति गहणं तु । अग्गीते दिवा गहणं, सुण्णघरे वा इमेहिं वा ॥ यदि गच्छ में सभी गीतार्थ हों तो पुराने अर्थात् पश्चात्कृत या श्रावक आदि हो तो उनको प्रज्ञापित कर रात्री में भी वह लिया जा सकता है। अगीतार्थ से मिश्र होने पर दिन में ग्रहण करे या शून्यगृह, देवकुल आदि में स्थापित ग्रहण करे । · ३१३१. उंबर कोटिंबेसु व, देवउले वा णिवेदणं रण्णो । कतकरणे करणं वा असती नंदी दुविहदव्वे ॥ देवकुल आदि में उदुंबर की अर्चा के लिए कूर आदि लाया हुआ, कोहिम्ब वह स्थान जहां गोभक्त दिया जाता है, वहां स्थापित गोभक्त, अरण्य के वेवकुल में स्थापित बलि आदि ले। राजा को अपनी स्थिति निवेदित करते रहें। वह शांत न हो तो कृतकरण मुनि करण करे, राजा को बांध कर उस पर शासन करे। उसके अभाव में नंदी पात्र में दोनों प्रकार के द्रव्यों (प्रासुक अप्रासुक, परीत अनंत, परिवासित अपरिवासित, एषणीय अनेषणीय) को ग्रहण करे। ३१३२. ए वि होति जतणा वत्थे पादे अलम्भमाणम्मि । उच्छुद्ध विप्पइण्णे, विप्पण्णे, एसणमादीसु जतितव्यं ॥ तीसरे दंड विषयक यह यतना है-वस्त्र, पात्र की प्राप्ति न होने पर परित्यक्त या उकरडी पर पड़े हुए ले। इनकी एषणा आदि में यतना करे। ३१३३. हिवसेसगाण असती, तण अगणी सिक्कगा व वागा वा । पेहुणचम्मरगहणं, भत्तं तु पलास पाणिसु वा ॥ राजा ने वस्त्रों का अपहरण कर लिया। शेष कुछ भी नहीं रहा। उस स्थिति में मुनि तृण, अग्नि का सेवन करे। पात्रबंध के अभाव में सिक्कक, शण-वल्क आदि ग्रहण करे। रजोहरण के स्थान पर पेण मयूरपिच्छी काम में ले प्रस्तरण और प्रावरण के लिए चर्म ग्रहण करे। आहार आदि पलाशपत्रों या हाथ में ग्रहण करे। ३१३४. असई य लिंगकरणं, पण्णवणडा सयं व गहणड्डा । आगाढे कारणम्मिं जहेब हंसादिणं गहणं ॥ बृहत्कल्पभाष्यम् राजा उपशांत न हो तो अन्यतीर्थिक का वेश धारण करे। यह परलिंग राजा को समझाने के लिए या स्वयं भक्तपान या वस्त्र आदि पाने के लिए किया जाता है। जैसे-आगाद कारण होने पर हंस आदि का तैल ग्रहण किया जाता है वैसे ही वस्त्र-पात्र आदि ग्रहण किए जाते हैं। ३१३५. विहम्मि भैरवम्मिं विज्ज निमित्ते व चुण्ण देवी य सेट्ठिम्मि अमच्चम्मि य, एसणमादीसु जतितव्वं ॥ दो प्रकार के भयंकर आघात - स्वमरण या चारित्रभ्रंश उपस्थित होने पर राजा को विद्या, निमित्त, चूर्ण, देवता की आराधना से उपशांत करना चाहिए। यदि उपशांत न हो तो श्रेष्ठी, अमात्य आदि को प्रज्ञापित करना चाहिए। एषणा आदि में चलना करनी चाहिए। ३१३६. आगाढे अण्णलिंगं, कालक्खेवो व होति गमणं वा । कयकरणे करणं वा, पच्छायण थावरादीसु ॥ आगाढ़ कारण में अन्यलिंग से कालक्षेप करे, दूसरे देश में गमन न करे। जो कृतकरण मुनि हो वह करण का प्रयोग करे। उसके अभाव में स्थावर अर्थात् वन के वृक्षों में दिनभर छुपा रहे और रात्री में विहरण करे। ३१३७. बोहिय-मिच्छादिभए, एमेव य गम्ममाण जतणाए । दोvesट्ठा व गिलाणे, णाणादट्ठा व गम्मंते ॥ बोधिक मालवदेश के स्तेन, म्लेच्छ आदि का भय हो तो देशान्तर जाते हुए उसी प्रकार अर्थात् अशिव आदि द्वारवत् यतना करे ग्लान हो तो वैद्य और औषधि दोनों के लिए गमन किया जा सकता है। अथवा ज्ञान आदि के लिए गमन होता है। ३१३८. एगापनं च सता, वीसं चद्धाणणिग्गमा गया। एत्तो एक्कम्मिय, सतग्गसो होइ जतणाओ ॥ अध्वनिर्गमन के ५१२० भंग होते हैं (देखें ३०८२३०८५)। इनके प्रत्येक भंग में शताग्रशः यतनाएं होती हैं। ३१३९. दुविहाऽवाता उ विहे बुत्ता ते होज्ज संखडीए तु । तत्थ दिया विन कप्पति, किमु रातिं एस संबंधो ॥ अध्वनिर्गत मुनि के मार्ग में दो प्रकार के अपाय (संयमआत्मविराधनारूप) होते हैं संखडी में जाते समय भी ये ही अपाय होते हैं। उसमें जाना दिन में भी नहीं कल्पता तो फिर रात्री में कैसे ? यह पूर्व गाथा से संबंध है। ३१४०. संखंडिज्जति जहिं, आऊणि जियाण संखडी स खलु । तप्पडिताए ण कप्पति, अण्णत्थ गते सिया गमणं ॥ संखडी वह है जहां जीवों के आयुष्य का खंड खंड कर दिया जाता है अर्थात् जहां प्रचुर जीवों का घात होता है वह है संखडी संखडी में जाने की प्रतिज्ञा से संखडी में जाना नहीं Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक कल्पता। अन्यकार्य के लिए संखडी वाले ग्राम में जाने पर ३१४६.सव्वेसि गमणे गुरुगा, आयरियअवारणे भवे गुरुगा। संखडी में गमन हो सकता है। ___ वसभे गीता-ऽगीए, लहुगा गुरुगो य लहुगो य॥ ३१४१.राओ व दिवसतो वा, संखडिगमणे हवंतऽणुग्घाया। यदि सभी साधु संखडी में जाते हैं तो सबको चतुर्गुरु संखडि एगमणेगा, दिवसेहिं तहेव पुरिसेहिं॥ और आचार्य यदि उनकी वर्जना नहीं करते हैं तो उनको भी रात या दिन में संखडी में गमन करने पर चार अनुद्घात चतुर्गुरु, वृषभ यदि वर्जना नहीं करते तो चतुर्लघु, गीतार्थ का प्रायश्चित्त आता है। संखडी दिवस और पुरुषों की यदि भिक्षु की वर्जना न करे तो गुरु मास और अगीतार्थ अपेक्षा से एक अथवा अनेक होती है। वर्जना न करे तो लघुमास का प्रायश्चित्त है। ३१४२.एगो एगदिवसियं, एगोऽणेगाहियं व कुज्जाहि। ३१४७.एगस्स अणेगाण व, छदेण पहाविया तु ते संता। णेगा व एगदिवसिं, णेगा व अणेगदिवसं तु॥ वत्तमवत्तं सोच्चा, नियत्तणे होति चउगुरुगा। कोई एक व्यक्ति एक दैवसिकी संखडी करता है अथवा एक या अनेक के अभिप्राय से मुनि संखडी में गए और वह एक व्यक्ति अनेक दैवसिकी संखडी करता है। अनेक यह सुनकर की संखडी हो गई या होगी, वे निवर्तन कर देते पुरुष मिलकर एक दैवसिकी अथवा अनेक दैवसिकी संखडी हैं। उस स्थिति में चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। करते हैं। ३१४८.वेलाए दिवसेहिं व, वत्तमवत्तं निसम्म पच्चेति। ३१४३.एक्केक्का सा दुविहा, पुरसंखडि पच्छसंखडी चेव। होहिइ अमुगं दिवस, सा पुण अण्णम्मि पक्खम्मि॥ पुव्वा-ऽवरसूरम्मि, अहवा वि दिसाविभागणं॥ वेला या दिन से प्रतिबद्ध संखडी को सुनकर मुनि प्रत्येक संखडी के दो-दो प्रकार हैं--पुरःसंखडी, पश्चात्- प्रस्थित हुए, मार्ग में सुना कि संखडी समास हो गई अथवा संखडी। जो सूर्य के उदित होने पर की जाती है वह पुरः- और कभी होगी। यह सुनकर मुनि लौट आते हैं। अन्य ग्राम संखडी और जो सूर्य के अपरदिशा में जाने पर अर्थात् सायं में स्थित मुनियों ने सुना कि अमुक ग्राम में अमुक दिन की जाती है वह पश्चातसंखडी है। अथवा जिस ग्राम के पूर्व संखडी होगी। उस प्रतिनियत दिन में साधु संखडी में जाने के दिशा में की जाने वाली संखडी पूर्वसंखडी और पश्चिम दिशा लिए प्रस्थित हुए। मार्ग में सुना कि वह संखडी अमुक पक्ष में में की जाने वाली संखडी पश्चात्संखडी है। अमुक दिन होगी, आज नहीं है। ३१४४.दुविहाए वि चउगुरू, विसेसिया भिक्खुमादिणं गमणे। ३१४९.आदेसो सेलपुरे, आदाणऽट्ठाहियाए महिमाए। . गुरुगादि व जा सपदं, पुरिसेगा-ऽणेग-दिण-रातो॥ तोसलिविसए विण्णवणट्ठा तह होति गमणं वा॥ दोनों प्रकार की संखडियों में गमन करने पर चतुर्गुरु का आदेश-दृष्टांत। शैलपुर, आदान, अष्टाह्निकमहिमा। प्रायश्चित्त है। यह प्रायश्चित्त भिक्षु आदि के आधार पर तपः तोसलिविषय, विज्ञापना, वहां गमन। (विस्तार आगे की और काल से विशेषित होता है। चतुर्गुरु से प्रारंभ कर स्वपद गाथा में) पर्यन्त अर्थात् छेद तक ले जाना चाहिए। एक पुरुषकृत, ३१५०.सेलपुरे इसितलागम्मि होति अठ्ठाहिया महामहिमा। अनेक पुरुषकृत, एक दैवसिकी, अनेक दैवसिकी, रात या कोंडलमेंढ पभासे, अब्बुय पादीणवाहम्मि॥ दिन के आधार पर प्रायश्चित्त का विधान हैं। (वृत्ति में इसका ___तोसलिदेश के शैलपुरनगर में ऋषितडाग पर प्रतिवर्ष विस्तार है।) अष्टदिवसीय महान् उत्सव होता था। लोग वहां संखडी ३१४५.आययरियगमणे गुरुगा, करते थे। तथा कुंडलमेंठ नाम वाले वानमन्तर की यात्रा में वसभाण अवारणम्मि चउलहुगा। संखडी का आयोजन होता था। तथा प्रभास तीर्थ में या दोण्ह वि दोण्णि वि गुरुगा, अर्बुदपर्वत की यात्रा पर संखडी की जाती थी। तथा सरस्वती वसभ बला तेतरे सुद्धा॥ नदी के पूर्वाभिमुख प्रवाह पर आनन्दपुर के वास्तव्य लोग आचार्य यदि संखडी में जाते हैं जो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त शरद् ऋतु में संखडी करते थे। (कोई शिष्य इन संखड़ियों में है। वृषभ यदि उनकी वर्जना नहीं करते हैं तो उनको चतुर्लघु जाने के लिए गुरु को निवेदन करता है। निषेध करने पर वह का प्रायश्चित्त है। दोनों जाते हैं तो दोनों को चतुर्गुरु का कहता है-) प्रायश्चित्त तप और काल से गुरु होता है। वृषभों द्वारा वर्जना ३१५१.अत्थि य मे पुव्वदिट्ठा, चिरदिट्ठा ते अवस्स दट्ठन्वा। करने पर भी यदि आचार्य अपनी शक्ति के अहं से जाते हैं तो मायागमणे गुरुगो, तहेव गामाणुगामम्मि। वे प्रायश्चित्त के भागी हैं, वृषभ शुद्ध हैं। भंते! उस गांव में मेरे पूर्वपरिचित मित्र हैं। उनसे मिले Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० = मुझे चिरकाल हो गया है। अतः अब मुझे उनसे अवश्य मिलना है। यदि मायापूर्वक गुरु की अनुज्ञा लेकर वहां गमन करता है तो उसे एक गुरुमास का प्रायश्चित्त तथा संखडी के लिए ग्रामानुग्राम जाने पर भी गुरुमास प्रायश्चित्त है। ३१५२.गामाणुगामियं वा, रीयंता सोउ संखडिं तुरियं। छड्डेति व सति काले, गाम तेसिं पि दोसा उ॥ ग्रामानुग्राम विहरण करने वाले मुनि भी संखडी को सुनकर शीघ्रता से जाते हैं और भिक्षाकाल संप्रास होने पर भी मार्गगत ग्राम को छोड़ देते हैं तो उनके भी ये वक्ष्यमाण दोष होते हैं। ३१५३.गंतुमणा अन्नदिसिं, अन्नदिसि वयंति संखडिणिमित्तं। मूलग्गामे व अडं, पडिवसभं गच्छति तदट्ठा॥ ३१५४.एगाहि अणेगाहिं, दिया व रातो व गंतु पडिसिद्धं। आणादिणो य दोसा, विराहणा पंथि पत्ते य॥ भिक्षाचर्या के लिए अन्य दिशा में जाने का इच्छुक संखडी के निमित्त अन्य दिशा में जाता है अथवा भिक्षा के लिए मूलग्राम में घूमता हुआ प्रतिवृषभग्राम में संखडी के लिए जाता है, वह संखडी चाहे एक दिवसीय या अनेक दिवसीय हो, जिसमें रात या दिन में जाना भी प्रतिषिद्ध है, वहां जाने पर आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। अध्वगत या स्थानप्राप्स मुनियों के संयम तथा आत्मविषयक विराधना होती है। (वह आगे के श्लोकों में)। ३१५५.मिच्छत्ते उड्डाहो, विराहणा होति संजमाऽऽयाए। रीयादि संजमम्मि य, छक्काय अचक्खुविसयम्मि॥ संखडी में जाते हुए मुनियों को देखकर मिथ्यात्व की वृद्धि और उड्डाह तथा संयम और आत्मविराधना होती है। रात्री में वहां जाने पर ईर्यासमिति का शोधन नहीं होता, अंधकार के कारण षट्काय की विराधना होती है। यह संयमविराधना है। ३१५६.जीहादोसनियत्ता, वयंति लूहेहि तज्जिया भोज्जे। ___ थिरकरणं मिच्छत्ते, तप्पक्खियखोभणा चेव॥ लोग उड्डाह करते हुए कहते हैं-ये मुनि जिह्वादोष अर्थात् रसगृद्धि से रहित हैं, फिर भी रूक्ष भोजन से वर्जित होकर भोज्य संखडी में जा रहे हैं। इस प्रकार लोगों में मिथ्यात्व का स्थिरीकरण होता है तथा जो मुनिपक्ष के श्रावक होते हैं। उनमें क्षोभ उत्पन्न होता है। ३१५७.वाले तेणे तह सावते य विसमे य खाणु कंटे य। अकम्हाभयं आतसमुत्थं, रत्तेमादी भवे दोसा॥ १.भुंगारेणणदत्ता, उदकेन न कल्पितेति भावः। (वृ. पृ. ८८६) =बृहत्कल्पभाष्यम् रात्री में जाने पर ये दोष होते हैं-व्याल-सर्प, स्तेन, श्वापद आदि का व्याघात तथा निम्नोन्नत मार्ग में स्खलित होना, स्थाणु या कांटों से बींध जाना, आत्मा से उत्पन्न अकस्मात् भय से भयभीत हो जाना आदि। ३१५८.वसहीए जे दोसा, परउत्थियतज्जणा य बिलधम्मो। आतोज्ज-गीतसहे, इत्थीसहे य सविकारे॥ वसति संबंधी जो दोष, परतीर्थिकों की तर्जना, बिलधर्म, आतोघशब्द और गीतशब्द तथा स्त्रियों के सविकारशब्द (व्याख्या आगे के श्लोकों में)। ३१५९.आहाकम्मियमादी, मंडवमादीसु होति अणुमण्णा। ___ रुक्खे अब्भावासे, उवरि दोसे परूवेस्सं॥ संखडीकर्ता श्रावक साधुओं के निमित्त मंडप आदि बना देता है। यह आधाकर्म होता है। इसमें रहने पर अनुमति दोष प्राप्त होता है। यदि मुनि वहां नहीं रहते हैं तो अन्य वसति के अभाव में वृक्षमूल या अभ्रावकाश खुले आकाश में रहते हैं। वहां रहने पर जो दोष प्राप्त होते हैं, उनकी प्ररूपणा आगे की जाएगी। ३१६०.इंदियमुंडे मा किंचि बेह मा णे डहेज्ज सावेणं । पेहा-सोयादीसु य, असंखडं हेउवादो य॥ संखडी में परतीर्थिक संन्यासी भी आते हैं। वे श्रमणों को वहां आये हुए देखकर उनकी तर्जना करते हुए कहते हैं-ये इन्द्रियमुंड हैं। इन्हें कुछ मत कहना, अन्यथा ये शाप देकर जला डालेंगे। तथा श्रमणों को प्रत्युपेक्षा करते हुए तथा शौचादि करते हुए देखकर परतीर्थिक उनका उपहास करते हैं। तब कलह हो सकता है। परतीर्थिक हेतुवाद-वाद की मार्गणा करते हैं। वाद न करने पर तिरस्कार करते हैं और करने पर कलह के लिए तैयार हो जाते हैं। ३१६१.भिंगारेण ण दिण्णा, ण य तुज्झं पेतिगी सभा एसा। अतिबहुओ ओवासो, गहितो णु तुए कलहो एवं॥ (सभा आदि का वह सामान्य स्थान जहां साधु और गृहस्थ पिंडीभूत होकर रहते हैं, उसे 'बिलधर्म' कहा जाता है। ऐसे स्थान में अधिक स्थान रोकने पर गृहस्थ साधुओं को कहते हैं यह स्थान आपको भंगार से नहीं मिला है।' यह पैतृकी-परंपरा से भी प्राप्त नहीं है। इस प्रकार कलह होता है। ३१६२.तत्थ य अतिंत णेतो, संविट्ठो वा छिवेज्ज इत्थीओ। इच्छमणिच्छे दोसा, भुत्तमभुत्ते य फासादी॥ उस स्थान से आते-जाते या बैठते समय कोई साधु के Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ३२१ स्त्री का स्पर्श हो जाए तो आत्म-परोत्थ दोष होते हैं। मुनि स्त्री की प्रतिसेवना की इच्छा करता है तो संयमविराधना होती है और इच्छा न करने पर उड्डाह होता है। स्त्री के स्पर्श आदि से भुक्त-अभुक्त दोष होते हैं। ३१६३.आवासग सज्झाए, पडिलेहण भुंजणे य भासाए। वीयारे गेलण्णे, जा जहिं आरोवणा भणिया॥ आवश्यक, स्वाध्याय, प्रत्युपेक्षण, भोजन, भाषा, विचार और ग्लानत्व-इन विषयों में जहां जो आरोपणा कही गई है, वह ज्ञातव्य है। (यह द्वार गाथा है। विवरण आगे की। गाथाओं में।) ३१६४.आवासगं तत्थ करेंति दोसा, सज्झाय एमेव य पेहणम्मि। उहुंच वारेतमवारणे य, आरोवणा ताणि अकुव्वओ जा॥ श्रमणों को आवश्यक, स्वाध्याय तथा प्रत्युपेक्षा करते हुए देखकर लोग उपहास करते हैं, उनके स्वरों में विद्रूप स्वर मिलाते हैं। मनाही करने पर कलह होता है और वर्जना न करने पर प्रवचन की अवहेलना होती है। यदि इस भय से आवश्यक आदि नहीं करते हैं तो आरोपणा प्रायश्चित्त आता है। ३१६५.जं मंडलिं भंजइ तत्थ मासो, गारत्थिभासासु य एवमेव। - चत्तारि मासा खलु मंडलीए, उड्डाहो भासासमिए वि एवं॥ सभा आदि स्थानों में भोजन मंडली को तोड़ने पर मासलघु तथा गृहस्थ की भाषा बोलने पर मासलघु का प्रायश्चित्त है। वहां यदि मंडली में भोजन करते हैं तो चार लघुमास, उड्डाह भी होता है। यही भाषा समिति विषयक प्ररूपणा है। ३१६६.थोवे घणे गंधजुते अभावे, दवस्स वीयारगताण दोसा। आवायसंलोगगया य दोसा, करेंतऽकुव्वं परितावणादी॥ विचारभूमी अर्थात् शौचभूमी में गए हुए मुनियों संबंधी ये दोष होते हैं-द्रव अर्थात् पानी थोड़ा, घन-कलुषित, गंधयुक्त, है अथवा उसका अभाव है तो अवर्णवाद आदि होता है। विचारभूमी में आपात और संलोक संबंधी भी दोष होते हैं। यदि दोष के भय से संज्ञा को धारण करते हैं तो परितापना आदि दोष होते हैं। ३१६७.गिलाणतो तत्थऽतिभुंजणेण, उच्चारमादीण व सण्णिरोधा। अगुत्तसिज्जासु व सण्णिवासा, उड्डाह कुव्वंतिमकुव्वतो य॥ संखडी में अतिमात्र भोजन करने से अथवा स्थान गृहस्थों से आकीर्ण होने के कारण उच्चार आदि वेग के सन्निरोध के कारण तथा अगुप्त वसति में रहने के कारण ग्लानत्व हो जाता है। यदि ग्लान वहां उच्चार-प्रस्रवण आदि करता है तो लोग उड्डाह करते हैं। यदि नहीं करता है तो निरोध के कारण परितापना आदि होती हैं। ३१६८.बहिया य रुक्खमूले, छक्काया साण-तेण-पडिणीए। मत्तुम्मत्त विउव्वण, वाहण जाणे सतीकरणं॥ गांव के बाहर वृक्षमूल में रहने पर षट्काय विराधना होती है। कुत्ते, स्तेन या प्रत्यनीक का उपद्रव होता है। वहां मत्त-उन्मत्त व्यक्ति विकुर्वणा कर आते हैं। वाहन, यान आदि आते हैं। उनको देखकर पूर्वस्मृति उभर आती है। ३१६९.मा होज्ज अंतो इति दोसजालं, तो जाति दूरं बहि रुक्खमूले। अभुज्जमाणे तहियं तु काया, अवाउते तेण सुणा य णेगे। ग्राम में रहने पर पूर्वोक्त दोषजाल न हो इसलिए मुनि ग्राम से दूर वृक्षमूल में रहता है। अभुज्यमान उस प्रदेश में छहों कायों की विराधना होती है तथा वह स्थान अपावृत होने के कारण वहां स्तेन, कुत्ते और अनेक प्राणियों का उपद्रव होता है। ३१७०.उम्मत्तगा तत्थ विचित्तवेसा, पढंति चित्ताऽभिणया बहूणि। कीलंति मत्ता य अमत्तगा य, तस्थित्थि-पुंसा सुतलंकिता य॥ वहां उन्मत्त व्यक्ति विचित्रवेश धारण कर, अनेक प्रकार का अभिनय करते हुए आते हैं और अनेक प्रकार के श्रृंगारकाव्यों का पठन करते हैं तथा मत्त-अमत्त स्त्री-पुरुष सम्यग् प्रकार से अलंकृत होकर वहां आते हैं और क्रीडा करते हैं। ३१७१.आसे रहे गोरहगे य चित्ते, ___ तत्थाभिरूढा डगणे य केइ। विचित्तरूवा पुरिसा ललंता, हरंति चित्ताणविकोविताणं॥ वहां आने वाले स्त्री-पुरुष अश्वों, रथों, बैलगाड़ियों, Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ नाना प्रकार के युग्य में और डगण-यान विशेष में आरूढ होकर आते हैं। वे विचित्र रूप वाले पुरुष क्रीड़ा करते हुए अगीतार्थ मुनियों के चित्त का हरण कर लेते हैं, उन्हें लुब्ध . कर देते हैं। ३१७२.सामिद्धिसंदंसणवावडेण, तत्थोतपोतम्मि समंततेणं, भिक्खा - वियारादिसु दुप्पयारं ॥ वहां आने वालों की समृद्धि देखने के लिए आकुल चित्तवाले मुनि उनके मुख्य यान - वाहनों को देखते रहते हैं, इससे सूत्रार्थ का परिमंथ होता है। चारों ओर स्त्री पुरुषों से संकीर्ण हो जाने के कारण भिक्षाचर्या, विचारभूमी आदि में आना-जाना कष्टप्रद हो जाता है। ३१७३. दोसेहिं एत्तिएहिं, अगेण्हंता चेव लग्गिमो अम्हे । हामु य भुंजामु य, ण य दोस जहा तहा सुणसु ॥ शिष्य ने कहा- संखडी गमन में जो दोष आपने बताए हैं, उतने दोष तो संखडी भक्त न लेने पर भी हमारे लग जाते हैं। आचार्य ने कहा- हम संखडी भक्त लेते हैं या खाते हैं, उसमें वे पूवोक्त दोष नहीं होते। वे जैसे होते हैं, वह सुनो। ३१७४. अपरिग्गहिय अभुत्ते, जति दोसा एत्तिया पसज्जंती । विप्पस्सता तेसि परेसि मोक्खे। इत्थं गते सुविहिया, वसंतु रण्णे अणाहारा ॥ शिष्य बोला- यदि संखडी भक्त न लेने और न खाने पर भी इतने दोष होते हैं तो फिर सुविहित मुनियों को अनाहार रह कर अरण्य में रहना चाहिए । ३१७५. होहिंति न वा दोसा, ते जाण जिणो ण चेव छउमत्थो । पाणियसण उवाहणाउ णाविब्भलो मुयति ॥ आचार्य ने कहा- वत्स ! ये दोष होते हैं या नहीं, यह केवल जिन जानते हैं, छद्मस्थ नहीं जान सकता। पानी की आवाज सुनकर जूते नहीं छोड़े जा सकते। जो विह्वल होता है, मूर्ख होता है, वही जूते छोड़ता है, अविह्वल नहीं छोड़ता । ३१७६. दोसे चेव विमग्गह, गुणदेसित्तेण णिच्चमुज्जुत्ता । ण हु होति सप्पलोदी, जीविउकामस्स सेयाए । देखो, तुम गुणद्वेषी होने के कारण नित्य गुणान्वेषण उद्युक्त होते हुए भी दोषों की ही मार्गणा करते हो । जो व्यक्ति जीवित रहने की कामना रखता है उसकी सर्पलुब्धि - सर्प को ग्रहण करने की इच्छा उसके श्रेयस् के लिए नहीं होती । (इसी प्रकार संयमजीवन की अभिलाषा रखने वाले व्यक्ति के लिए अरण्यवास हितकर नहीं होता ।) १. उअपोते - देशीपदत्वात् आकीर्णे । (वृ. पृ. ८८९ ) बृहत्कल्पभाष्यम् ३१७७. भण्णति उवेच्च गमणे, इति दोसा दप्पदो य जहि गंतुं । कम गहण भुंजणे या, न होंति दोसा अदप्पेणं ॥ शिष्य ने पूछा- बताएं, संखडी में कब कैसे गमन से दोष होते हैं और कब नहीं होते? आचार्य कहते हैं-यदि जानबूझकर संखडी में जाता है या दर्प से- बिना किसी कारण से जाता है तो दोष है। यदि गृहपरिपाटी के क्रम से संखडीगृह में जाता है, भोजन करता है तो कोई दोष नहीं है । तथा अदर्य-पुष्टालंबन से संखडी की प्रतिज्ञा से भी यदि जाता है तो दोष नहीं है। ३१७८. पडिलेहियं च खेत्तं पंथे गामे व भिक्खवेलाए । गामाशुगामियम्मिय, जहिं पायोग्गं तहिं लभते ॥ प्रत्युपेक्षित क्षेत्र में जाने के लिए प्रस्थित मुनियों के यदि मार्ग में अथवा उसी ग्राम में संखडी हो तो भिक्षावेला में हां जाना कल्पता है । ग्रामानुग्राम विहरण की स्थिति में भी जहां भिक्षावेला में प्रायोग्य की प्राप्ति होती है, वहां लेना कल्पता है। ३१७९. वासाविहारखेत्तं वच्चंताऽणंतरा जहिं भोज्जं । अत्तठिताण तहिं, भिक्खमडंताण कप्पेज्जा ॥ वर्षाविहार (वर्षावास) के क्षेत्र में जाते हुए बीच में कहीं भोज्य- संखडी प्राप्त हो और वहां संखडी के निमित्त नहीं, किन्तु स्वप्रयोजन से रहना हो तो भिक्षा के लिए घूमते हुए गृहपरिपाटी से संखडी से भक्त पान लेना कल्पता है। ३१८०.नत्थि पवत्तणदोसो, परिवाडीपडित मो ण याऽऽइण्णा । परसंसद्वं अविलंबियं च गेण्हंति अणिसण्णा ॥ वहां जाने पर प्रवर्तनादोष भी नहीं होता। गृहपरिपाटी में संखडी गृह आ जाने पर वह वहां भोजन ले सकता है। वह संखडी आकीर्ण भी नहीं है । न वहां परसंसृष्ट दोष होता है। वहां बिना रुके अविलंबित रूप से भिक्षा प्राप्त हो जाती है। ३१८१. संतऽन्ने वऽवराधा, कज्जम्मि जतो ण दोसवं जेसु । जो पुण जतणारहितो, गुणो वि दोसायते तस्स ॥ और भी अनेक अपराध (अनेषणीय आदि ग्रहणरूप) होते हैं, परन्तु कार्य अर्थात् पुष्टालंबन के कारण यतनापूर्वक प्रतिसेवना करने पर भी दोषभाक् नहीं होता। जो मुनि यतनारहित होता है उसके गुण भी दोष हो जाते हैं। ३१८२.असढस्सऽप्पडिकारे, अत्थे जततो ण कोइ अवराधो । सप्पडिकारे, अजतो, दप्पेण व दोसु वी दोसो ॥ जो मुनि अशठ - रागद्वेष रहित है, उसका किसी प्रयोजन में प्रतिसेवना के बिना कोई प्रतिकार नहीं है वह यदि यतनापूर्वक संखडी में जाता है तो कोई अपराध नहीं है। जो Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ३२३ प्रयोजन प्रतिकार के योग्य है, वहां यदि यतना नहीं की ३१८८.काएहऽविसुद्धपहा, सावय-तेणा पहे अवाया उ। जाती, दर्प से प्रतिसेवना करता है तो उसके अयतना और दंसण-बंभवता-ऽऽता, तिविधा पुण होति पत्तस्स ।। दर्प दोनों का दोष लगता है। ३१८९.दसणवादे लहुगा, सेसावादेसु चउगुरू होति। ३१८३.निद्दोसा आदिण्णा, दोसवती संखडी अणाइण्णा। जीविय-चरित्तभेदा, विस-चरिगादीहि गुरुका उ॥ सुत्तमणाइण्णाते, तस्स विहाणा इमे होति॥ अविशुद्धपथ वाली संखडी में जाने से कायनिष्पन्न निर्दोष, संखडी आचीर्ण है और सदोष संखडी अनाचीर्ण प्रायश्चित्त आता है। प्रत्यपाय दो प्रकार के होते हैं-पथगत है। प्रस्तुत सूत्र अनाचीर्ण संखडी संबंधी है। उस अनाचीर्ण । और स्थानप्राप्त। पथगत अपाय दो प्रकार के है-श्वापद और संखडी के ये विधान-भेद हैं। स्तेन और स्थानगत अपाय तीन हैं-दर्शनअपाय, ब्रह्मव्रत३१८४.जावंतिया पगणिया, अपाय और आत्मअपाय। सक्खित्ताऽखित्त बाहिराऽऽइण्णा। दर्शन अपाय में चतुर्लघु और शेष अपायों में चतुर्गुरु का अविसुद्धपंथगमणा, प्रायश्चित्त है। यदि संखडीकर्ता अन्यतीर्थिक हो तो वह जहर सपच्चवाता य भेदाय॥ देकर जीवितभेद कर सकता है। चरिक आदि चारित्रभेद कर संखड़ियों के ये भेद हैं सकते हैं। प्रत्येक में चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। १. यावन्तिका ५. बाहिरा ३१९०.कप्पइ गिलाणगट्ठा, संखडिगमणं दिया व रातो वा। २. प्रगणिता ६. आकीर्णा दव्वम्मि लब्भमाणे, गुरुउवदेसो त्ति वत्तव्वं ।। ३. सक्षेत्रा ७. अविशुद्धपथगमना ग्लान के प्रयोजन से दिन या रात में संखडी में ४. अक्षेत्रा ८. सप्रत्यपाया जाना कल्पता है। वहां ग्लान-प्रायोग्य द्रव्य की प्राप्ति यह जीवित भेद और चरण भेद के लिए होती है। होने पर उतनी ही मात्रा में वह ले, जितनी मात्रा ग्लान (व्याख्या आगे) के लिए उपयुक्त हो। अधिक लेने का आग्रह करने पर ३१८५.आचंडाला पढमा, बितिया पासंडजाति-णामेहिं। उसे कहे-गुरु अर्थात् वैद्य का इतनी मात्रा का ही सक्खेत्ते जा सकोस, अक्खित्ते पुढविमाईसु॥ उपदेश है। __ प्रथम अर्थात् यावन्तिका संखडी चांडाल पर्यन्त दातव्य ३१९१.पुव्विं ता सक्खेत्ते, असंखडी संखडीसु वी जतति। होती है। दूसरी अर्थात् प्रगणिता संखडी में पाषंडियों की पडिवसभमलब्भंते, ता वच्चति संखडी जत्थ॥ जाति अथवा नामों की गणना कर दिया जाता है। सक्षेत्रा ग्लान के लिए प्रायोग्य द्रव्य की सबसे पहले स्वग्राम की संखडी वह है जो सक्रोशयोजन पर होती है। अक्षेत्रा संखडी असंखडी में गवेषणा करनी चाहिए। वहां न होने पर संखडी सचित्त पृथ्वी आदि पर प्रतिष्ठित होती है। में गवेषणा की जाती है। उसके अभाव में प्रतिवृषभग्राम ३१८६.जावंतिगाए लहुगा, चउगुरु पगणीए लग सक्खेत्ते।। में प्रयत्न करे। उसके अभाव में जिस ग्राम में संखडी हो मीसग-सचित्त-ऽणंतर-परंपरे कायपच्छित्तं॥ वहां जाए। यावन्तिका में जाने पर चतुर्लघु, प्रगणिता में चतुर्गुरु, ३१९२.उज्जेंत णायसंडे, सिद्धसिलादीण चेव जत्तासु। सक्षेत्रा में चतुर्लघु, अक्षेत्रा यदि मिश्र, सचित्त, अनन्तर और सम्मत्तभाविएसुं, ण हुति मिच्छत्तदोसा उ॥ परंपरा प्रतिष्ठित है तो कायप्रायश्चित्त आता है। (अथवा संखडी दो प्रकार की होती है-सम्यग्दर्शन.३९८७.बहि वुड्डि अद्धजोयण, गुरुगादी सत्तहिं भवे सपदं। भाविततीर्थ विषयक तथा मिथ्यादर्शनभाविततीर्थ विषयक।) चरगादी आइण्णा, चउगुरु हत्थाइभंगो य॥ उज्जयंत, ज्ञातखंड, सिद्धशिला-इन सम्यक्त्वभावित क्षेत्र के बाहर संखडी में जाने पर चतुर्लघु, उसके बाद तीर्थों में होने वाली यात्रा संखडी में जाने से मिथ्यात्वआधे योजन की वृद्धि से चतुर्गुरु से प्रारंभ कर सात स्थिरीकरण आदि दोष नहीं होता। वृद्धियों से स्वपद अर्थात् पारांचिक प्रायश्चित्त पर्यंत होता ३१९३.एतेसिं असईए, इतरीउ वयंति तत्थिमा जतणा। है। चरक आदि से आकुल संखडी आकीर्ण कहलाती है। पुट्ठो अतिक्कमिस्सं, कुणति व अण्णावदेसं तु॥ इसमें जाने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। वहां इन तीर्थों में होनेवाली संखडी के अभाव में इतर अर्थात् अत्यधिक संमर्द से हाथ, पैर आदि के टूटने की संभावना मिथ्यात्वभाविततीर्थ में होनेवाली संखडी में जाया जा सकता होती है। है। वहां जाने की यह यतना है-किसी के पूछे जाने पर Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ कहे-मैं संखडी का अतिक्रमण कर दूंगा अथवा अन्यापदेश से प्रत्युत्तर दे। ३१९४.तहियं पुव्वं गंतुं, अप्पोवासासु ठाति वसहीसु। जे य अविपक्कदोसा, ण णेति ते तत्थ अगिलाणे॥ संखडी वाले ग्राम में पहले ही जाकर अल्पावकाश वाली वसति में रह जाए। जो मुनि अविपक्वदोष-अजितेन्द्रिय हों वे ग्लानकार्य के अभाव में बाहर न जाएं। ३१९५.विणा उ ओभासित-संथवेहिं, जं लब्भती तत्थ उ जोग्गदव्वं। गिलाणभुत्तुव्वरियं तगं तु, न भुंजमाणा वि अतिक्कमंति॥ वहां बिना याचना और संस्तुति के ग्लानप्रायोग्य जो द्रव्य प्राप्त हो उसे ग्रहण करे। ग्लान के खाने के पश्चात् उसमें से बचे भक्त को अन्य मुनि खाते हुए भी भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते। ३१९६.ओभासियं जं तु गिलाणगट्ठा, तं माणपत्तं तु णिवारयंति। तुब्भे व अण्णे व जया तु बेति, भुंजेत्थ तो कप्पति णऽण्णहा तू॥ ग्लानप्रायोग्य जो द्रव्य याचना से प्राप्त है, वह प्रामाणोपेत ही ग्रहण करे, अधिक का निवारण करे। उस समय यदि गृहस्थ कहे-आप या अन्य साधु इसका परिभोग करें तो प्रमाण से अधिक भी ग्रहण किया जा सकता है, अन्यथा =बृहत्कल्पभाष्यम् के पात्र में डालती हैं। अतः आर्यिकाओं के हाथों से ग्लानप्रायोग्य द्रव्य लिया जाता है। ३१९९.अलब्भमाणे जतिणं पवेसे, अंतपुरे इन्भघरेसु वा वि। उज्जाणमाईसु व संठियाणं, अज्जाउ कारिंति जतिप्पवेसं॥ उद्यान आदि में रहे हुए मुनियों का अन्तःपुर तथा इभ्यगृहों में प्रवेश न हो पाने की स्थिति में आर्यिकाएं प्रयत्न कर उन स्थानों में मुनियों का प्रवेश कराती हैं। (आर्यिकाएं अन्तःपुर आदि में जाकर उनको प्रभावित करती हैं और तब यतिप्रवेश सुलभ हो जाता है।) ३२००.पुराणमाईसु व णीणवेंति, गिहत्थभाणेसु सयं व ताओ। अगारिसकाए जतिच्चएही, हिट्ठोवभोगेहि अ आणवेती॥ आर्यिकाएं गृहस्थ के भाजन में ग्लान प्रायोग्य द्रव्य लेकर पुराणपुरुष आदि श्रावक के साथ वह साधु के पास भेजती हैं। यदि ऐसा गृहस्थ न मिले तो वे स्वयं उसे ले जाती हैं। गृहस्थ यह शंका करता है ये गृहस्थ के भाजन में उत्कृष्ट द्रव्य लेकर किसी गृहस्थ को देंगी। अतः उसे मुनियों के अधस्ताद्-उपभोग्य भाजन अर्थात् असंभोज्य भाजन में ले आती हैं। ३२०१.तेसामभावा अहवा वि संका, गिण्हति भाणेसु सएसु ताओ। अभोइभाणेसु उ तस्स भोगो, गारत्थि तेसेव य भोगिसू वा॥ यदि असंभोग्य भाजन न हों अथवा उन भाजनों में लेने पर गृहस्थों को शंका होती है तो वे आर्यिकाएं अपने भाजन में भक्त लेकर जाती हैं तब मुनि असंभोग्य भाजनों में वह लेकर उस द्रव्य का भोग करते हैं। असंभोज्य भाजनों के अभाव में गृहस्थों के भाजनों का उपयोग करे और उनके अभाव में संयतियों के भाजन में भोजन करे। संयतियों को अपने भाजनों की शीघ्र जरूरत हो तो सांभोगिकों के भाजनों का उपयोग करें। ३२०२.अद्धाणनिग्गयादी, पविसंता वा वि अहव ओमम्मि। उवधिस्स गहण लिंपण, भावम्मि य तं पि जयणाए। अध्वनिर्गत या अध्व में प्रवेश करने के इच्छुक अथवा अवम-दुर्भिक्ष होने पर या उपधि आदि तथा लेप लेने के लिए या शैक्ष का भाव हो जाने पर संखडी में यतनापूर्वक जाया जा सकता है। नहीं। ३१९७.दिणे दिणे दाहिसि थोव थोवं, दीहा रुया तेण ण गिहिमोऽम्हे। ण हावयिस्सामो गिलाणगस्सा, तुब्भे व ता गिण्हह गिण्हणेवं॥ मुनि उन गृहस्थों से कहे-ग्लान का रोग दीर्घकाल तक रहने वाला है। अतः यदि तुम प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा दोगे तो वह ग्लान के काम आ जायेगा, अतः हम ज्यादा नहीं लेंगे। यदि तब गृहस्थ कहे-हम ग्लान के प्रायोग्य द्रव्य में कभी कमी नहीं आने देंगे। आप भी ग्रहण करें। ऐसा कहने पर मुनि ग्रहण करें। ३१९८.न वि लब्भई पवेसो, साधूणं लब्भएत्थ अज्जाणं। वावारण परिकिरणा, पडिच्छणा चेव अज्जाणं॥ अन्तःपुर आदि में जहां साधुओं का प्रवेश नहीं होता वहां आर्यिकाओं का प्रवेश हो सकता है। अतः ग्लानप्रायोग्य द्रव्य की प्राप्ति के लिए आर्यिकाओं को व्यापृत करनी चाहिए। ग्लान प्रायोग्य द्रव्य लाकर साधुओं Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक - ३२५ एगागिगमण-पदं नो कप्पइ निग्गंथस्स एगाणियस्स राओ वा वियाले वा बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा। कप्पइ से अप्पबिइयस्स वा अप्पतइयस्स वा राओ वा वियाले वा बहिया वियारभूमि वा विहारभूमिं वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा॥ (सूत्र ४५) ३२०३.पविटुकामा व विहं महंत, विणिग्गया वा वि ततोऽधवोमे। अप्पायणट्ठाय सरीरगाणं, अत्ता वयंती खलु संखडीओ॥ लंबे मार्ग में प्रवेश करने के इच्छुक, अथवा उसके लिए प्रस्थित अथवा दुर्भिक्ष हो जाने पर, शरीर को परिपुष्ट करने के लिए अथवा जो आप्त हैं, गीतार्थ हैं वे संखडी में जाते हैं। ३२०४.वत्थं व पत्तं व तहिं सुलभं, __णाणादिसिं पिंडियवाणिएसु। पवत्तिसं तत्थ कुलादिकज्जे, लेवं व घेच्छामो अतो वयंति॥ उस क्षेत्र में अनेक देशों से, नाना दिशाओं से समागत व्यापारी एकत्रित होते हैं। वहां वस्त्र और पात्रों की प्राप्ति सुलभ होती है। अथवा उस क्षेत्र में जाकर हम कुल, गण, संघ के कार्य संपन्न करेंगे। वहां लेप की प्राप्ति हो सकती है। इस प्रकार के प्रयोजनों से संखडी में जाते हैं। ३२०५.सेहं विदित्ता अतितिव्वभावं, गीया गुरुं विण्णवयंति तत्थ। जे तत्थ दोसा अभविंसु पुव्विं, दीवेत्तु ते तस्स हिता वयंति॥ शैक्ष का संखडी के गांव में जाने का अतितीव्रभाव हो जाता है तब गीतार्थ मुनि गुरु को विज्ञापित करते हैं। तब आचार्य शैक्ष को वृषभ मुनियों के साथ जाने के लिए कहते हैं। संखडी में जाते हुए वृषभ मार्ग में होने वाले तथा संखडी में होने वाले सारे दोषों की जानकारी शैक्ष को कराते हैं, जिससे उसका हित हो सके। शैक्ष को लेकर वे संखडी में जाते हैं। ३२०६.पुव्वोदितं दोसगणं च तं तू, वज्जेंति सेज्जाइजुतं जताए। संपुण्णमेवं तु भवे गणित्तं, जं कंखियाणं पविणेति कंखं॥ प्रागुक्त शय्या आदि के दोषों का यतनापूर्वक वर्जन करते हैं। शिष्य ने प्रश्न किया कि आचार्य शैक्ष को संखडी गमन की आज्ञा क्यों देते हैं ? उत्तर में कहा गया कि गणी के गणित्व की अर्थात् आचार्य के आचार्यत्व की संपूर्णता इसी में है कि वे शिष्यों की कांक्षा'-अभिलाषा का विनयन करें। १.कखियस्स कंखं पविणित्ता भवइ त्ति-दशाश्रुतस्कंध, चौथी दशा। ३२०७.आहारा नीहारो, अवस्समेसो तु सुत्तसंबंधो। तं पुण ण प्पडिसिद्धं, वारे एगस्स निक्खमणं । पूर्वसूत्र में आहार विषयक चर्चा है। आहार के पश्चात् नीहार अवश्यंभावी होता है। यह पूर्वसूत्र से संबंध है। नीहार प्रतिषिद्ध नहीं है। एकाकी व्यक्ति का निष्क्रमण वर्जित है। ३२०८.रत्तिं वियारभूमी, णिग्गंथेगाणियस्स पडिकुट्ठा। लहुगो य होति मासो, तत्थ वि आणाइणो दोसा॥ रात्री में अकेले निग्रंथ को विचारभूमी में जाना प्रतिकुष्ट है। विचारभूमी के दो प्रकार हैं-कायिकीभूमी और उच्चारभूमी। कायिकीभूमी में रात्री में एकाकी जाने पर लघुमास का प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। ३२०९.तेणाऽऽरक्खिय-सावय-पडिणीए थी-णपुंस-तेरिच्छे। ओहाणपेहि वेहाणसे य वाले य मुच्छा य॥ एकाकी जाने पर ये सात द्वार हैं-स्तेन, आरक्षिक, श्वापद, प्रत्यनीक, स्त्री, नपुंसक, तिर्यंच। वह अकेला मुनि परितापित होता हुआ वहां से पलायन कर सकता है, फांसी लगा सकता है, व्याल-सर्प से डसे जाने पर तथा मूर्छा से गिर कर परितापना पा सकता है। (निम्न गाथा इसीसे संबंधित है।) ३२१०.थी पंडे तिरिगीसु व, खलितो वेहाणसं व ओधावे। सेसोवधी-सरीरे, गहणादी मारणं जोए॥ स्त्री तथा नपुंसक उसको एकाकी देखकर बलात् पकड़ सकते हैं। पशु उसका उपघात कर सकते हैं अथवा वह मुनि किसी तिर्यंची के साथ मैथुन की प्रतिसेवना कर सकता है। इससे उसके मन में अपराध भावना उत्पन्न होने पर वह अवधावन कर लेता है या फांसी लगा कर मर जाता है। शेष उपरोक्त जो द्वार हैं, उनसे यह हानि होती है। स्तेन उसकी Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ बृहत्कल्पभाष्यम् उपधि का या स्वयं का अपहरण कर लेते हैं। आरक्षिक उस तीन मुनि हैं। एक ग्लान हैं। एक मुनि ग्लान के पास एकाकी मुनि को चोर समझ कर पकड़ लेते हैं। श्वापद आदि बैठता है दूसरा मुनि पूछकर कायिकी आदि भूमी में जाता है। से मुनि का उपघात-मृत्यु हो सकती है। उसको यदि विलंब हो जाए तो ग्लान के पास स्थित मुनि ३२११.दुप्पभिई उ अगम्मा, ण य सहसा साहसं समायरति। जागते हुए ग्लान मुनि को पूछकर बाहर जाता है। वारेति च णं बितिओ, पंच य सक्खी उ धम्मस्स। ३२१७.जहितं पुण ते दोसा, तेणादीया ण होज्ज पुव्वुत्ता। रात्री में यदि दो-तीन आदि मुनि कायिकीभूमी में जाते हैं एक्को वि णिवेदेतुं, णितो वि तहिं णऽतिक्कमति॥ तो वे स्तेन, आरक्षिकों द्वारा अगम्य होते हैं। दो आदि मुनि जो पूर्वोक्त स्तेन आदि के दोष न हों तो अकेला साधु जो होते हैं तो कोई प्रतिसेवना आदि का साहस नहीं कर जाग रहा हो, उसे कहकर यदि वह अकेला भी रात्री में जाता सकता। कोई प्रतिसेवना करनी चाहे तो दूसरा-तीसरा मुनि है तो वह भगवद् आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता। उसे वारित करता है। धर्म के पांच साक्षी होते हैं अर्हन्त, ३२१८.बहिया वियारभूमी, दोसा ते चेव अधिय छक्काया। सिद्ध, साधु, सम्यग्दृष्टि देवता और आत्मा। पुव्वहिढे कप्पइ, बितियं आगाढ संविग्गो॥ ३२१२.एए चेव य दोसा, सविसेसुच्चारमायरंतस्स। रात्री में विहारभूमी-स्वाध्यायभूमी में एकाकी जाने पर वो सबितिज्जगणिक्खमणे, परिहरिया ते भवे दोसा॥ ही दोष होते हैं तथा षट्कायविराधना का दोष अधिक होता रात्री में मुनि यदि एकाकी उच्चारभूमी में जाता है तो ये है। इसमें अपवादपद यह है कि पूर्वदृष्ट अर्थात् दिन में पूर्वोक्त दोष सविशेष होते हैं। यदि मुनि रात्री में एक मुनि को प्रत्युपेक्षित स्वाध्यायभूमी में जाना कल्पता है। इसमें भी साथ ले प्रतिश्रय से निष्क्रमण करता है तो ये सारे दोष आगाढ़ कारण होने पर संविग्न मुनि ही जा सकता है। परिहृत हो जाते हैं। ३२१९.ते तिण्णि दोण्णी अह विक्कतो उ, ३२१३.जति दोणि तो णिवेदित्तु णेति तेणभए ठाति दारेको। नवं च सुत्तं सपगासमस्स। सावयभयम्मि एक्को, णिसिरति तं रक्खती बितिओ। सज्झातियं णत्थि रहं च सुत्तं, यदि दो मुनि व्युत्सर्ग के लिए रात्री में बाहर जाते हैं तो वे ण यावि पेहाकुसलो स साहू॥ जागृत मुनि को बताकर जाते हैं। यदि स्तेन का भय हो तो वे मुनि तीन, दो या एक भी जा सकते हैं। किसी मुनि के एक द्वार पर बैठा रहता है। यदि श्वापद का भय हो तो एक सूत्र नया सीखा हुआ है। वह अर्थ-सहित उसका परावर्तन उत्सर्ग करने के लिए जाता है और दूसरा मुनि उसकी रक्षा करना चाहता है। उस समय वसति में स्वाध्यायिक नहीं है। में तत्पर रहता है। अथवा रहस्यसूत्र (निशीथ आदि) का परावर्तन करना है। वह ३२१४.सभयाऽसति मत्तस्स उ, एक्को उवओग डंडओ हत्थे। मुनि अनुप्रेक्षा में कुशल नहीं है-इन आगाढ़ कारणों से जाया वति-कुडतेण कडी, कुणति य दारे वि उवयोगं॥ जा सकता है। यदि भय हो और दूसरा मुनि प्राप्त नहीं है तो मात्रक में ३२२०.आसन्नगेहे दियदिट्ठभोम्मे, उत्सर्ग करे। मात्रक न होने पर उपयोगपूर्वक दंड को हाथ में घेत्तूण कालं तहि जाइ दोस। लेकर वृति या भींत के अन्त में अर्थात् पार्श्व में कटी करके वस्सिंदिओ दोसविवज्जितो य, उत्सर्ग करे तथा द्वार से स्तेन आदि का प्रवेश न हो, इसका णिद्दा-विकारा-ऽऽलसवज्जितप्पा॥ उपयोग रखे। काल को ग्रहण कर प्रादोषिक स्वाध्याय करने के लिए ३२१५.बितियपदे उ गिलाणस्स कारणा अहव होज्ज एगागी। निकट के घर में, दिन में प्रत्युपेक्षित भौम में जाता है। वह पुव्व ट्ठिय निहोसे, जतणाए णिवेदिउच्चारे॥ मुनि वश्येन्द्रिय, दोष अर्थात् क्रोध आदि से विवर्जित, निद्रा, अपवादपद में कारण से अकेला भी जा सकता है अथवा विकार, आलस्य से वर्जित हो। मुनि किसी स्थिति में अकेला हो जाए तो अकेला जा सकता ३२२१.तब्भावियं तं तु कुलं अदूरे, है। अथवा पहले निर्दोष अर्थात् निर्भय मानकर रहे और बाद किच्चाण झायं णिसिमेव एति। में समय हो गया हो तो यतनापूर्वक निवेदन कर उच्चारभूमी वाघाततो वा अहवा वि दूरे, या प्रस्रवणभूमी में जाए। सोऊण तत्थेव उवेइ पादो॥ ३२१६.एगो गिलाणपासे, बितिओ आपुच्छिऊण तं नीति। जिस घर में मुनि स्वाध्याय के लिए जाए वह कुल चिरगते गिलाणमितरो, जग्गंतं पुच्छिउँ णीति॥ साधुओं से भावित हो, दूर न हो। वहां स्वाध्याय संपन्न कर Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ३२७ मुनि रात्री में ही उपाश्रय में आ जाए। रात्री में आने पर कोई जिससे लोग भयभीत हों, मृदु प्रकृतिवाला हो, आर्यिकाओं व्याघात की आशंका हो या दूर हो तो वहीं सोकर प्रातः का शय्यातर ऐसा हो। उपाश्रय में आ जाए। ३२२६.पत्थारो अंतो बहि, अंतो बंधाहि चिलिमिली उवरिं। तं तह बंधति दारं, जह णं अण्णा ण याणाई। नो कप्पइ निग्गंथीए एगाणियाए राओ आर्यिकाओं के प्रतिश्रय के बाहर एक प्रस्तार-कट और वा वियाले वा बहिया वियारभूमिं वा एक भीतर करना चाहिए। भीतर वाले कट पर चिलिमिलिका विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए बांधनी चाहिए। उससे द्वार को इस प्रकार बांधे की अन्य वा। कप्पइ से अप्पबिइयाए वा साध्वी उसे खोल न सके। अप्पतइयाए वा अप्पचउत्थीए वा राओ वा ३२२७.संथारेगंतरिया, अभिक्खणाऽऽउज्जणा य तरुणीणं। वियाले वा बहिया वियारभूमिं वा पडिहारि दारमूले, मज्झे अ पवत्तिणी होति॥ विहारभूमिं वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए आर्यिकाएं एकान्तरित संस्तारक करें-एक तरुण साध्वी, एक वृद्ध साध्वी के क्रम से करें। प्रवर्तिनी और प्रतिहारी वा॥ (सूत्र ४६) बार-बार तरुण साध्वियों की उपयोजना-संघट्टना करे। ३२२२.सो चेव य संबंधो, नवरि पमाणम्मि होइ णाणत्तं।। प्रतिहारी साध्वी द्वारमूल में सोए, मध्य प्रदेश में प्रवर्तिनी जे य जतीणं दोसा, सविसेसतरा उ अज्जाणं॥ सोए। प्रस्तुत सूत्र में भी पूर्व सूत्रोक्त संबंध है। केवल प्रमाण में ३२२८.निक्खमण पिंडियाणं, अग्गहारे य होइ पडिहारी। नानात्व है। मुनियों के लिए जो दोष कहे गए हैं वे ही दारे पवत्तिणी सारणा य फिडिताण जयणाए॥ सविशेषतर रूप में आर्यिकाओं के होते हैं। रात्री में आर्यिकाएं पिंडीभूत होकर उपाश्रय से बाहर ३२२३.बहिया वियारभूमी, णिग्गंथेगाणियाए पडिसिद्धा। निकले। प्रतिहारी द्वार को खोलकर अग्रद्वार में बैठ जाए। चउगुरुगाऽऽयरियादी, दोसा ते चेव आणादी॥ प्रवर्तिनी द्वार पर बैठ कर बाहर से प्रवेश करने वाली साध्वी एकाकिनी आर्यिका का रात्री में बाह्य विचारभूमी- के कपोल और वक्ष का स्पर्श कर उसे प्रवेश दे। जो द्वार से स्वाध्यायभूमी में जाना प्रतिषिद्ध है। यदि यह सूत्र आचार्य भटक गई हों उन्हें यतनापूर्वक मूल द्वार की स्मृति कराए। प्रवर्तिनी को नहीं बताते हैं तो चतुर्गुरु, प्रवर्तिनी भिक्षुणियों ३२२९.बिइयपद गिलाणाए, तु कारणा अहव होज्ज एगागी। को नहीं कहती है तो चतुर्गुरु और भिक्षुणियां स्वीकार नहीं आगाढे कारणम्मि, गिहिणीसाए वसंतीणं॥ करती हैं तो मासलघु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि अपवाद पद में संयती के ग्लान हो जाने पर एकाकी दोष होते हैं। आर्यिका भी विचारभूमी में जा सकती है। अथवा किसी ३२२४.भीरू पकिच्चेवऽबला चला य, कारण से एकाकी हो जाने पर जा सकती है। अब आगाढ़आसंकितेगा समणी उ रातो।। आत्यन्तिक कारण हो जाने पर गृही की निश्रा में रहने वाले मा पुप्फभूयस्स भवे विणासो, आर्यिकाओं की विधि कही जा रही है। सीलस्स थोवाण ण देति गंतुं॥ ३२३०.एगा उ कारण ठिया, अविकारकुलेसु इत्थिबहुलेसु। स्त्री प्रकृति से भीरु, अबला, चंचल होती है। उसे रात्री तुभ वसीहं णीसा, अज्जा सेज्जातरं भणति॥ में अकेली देखकर लोगों में आशंका होती है। पुष्प की एक आर्यिका कारणवश स्त्रीबहुल तथा अविकारकुल में भांति सुकोमल साध्वी के शील का विनाश न हो, स्थित थी। उसने शय्यातर से कहा-'मैं तुम्हारी निश्रा में यहां इसलिए स्तोक अर्थात् एकाकी साध्वी का रात्री में जाना रह रही हूं। निषिद्ध है। ३२३१.अपुव्वपुंसे अवि पेहमाणी, ३२२५.गुत्ते गुत्तदुवारे, कुलपुत्ते इत्थिमज्झे निहोसे। वारेसि धूतादि जहेव भज्ज। भीतपरिस महविदे, अज्जा सिज्जायरे भणिए॥ तहाऽवराहेसु मम पि पेक्खे, साध्वियों का उपाश्रय गुप्त-वृति आदि से परिक्षिप्त हो, जीवो पमादी किमु जोऽबलाणं॥ गुप्तद्वार-कपाटवाला हो, शय्यातर कुलपुत्र हो। वह उपाश्रय हे आर्य शय्यातर! जैसे तुम बेटी, भगिनी तथा भार्या को स्त्रीवाले गृहों के मध्य हो, निर्दोष हो। शय्यातर ऐसा हो अदृष्टपूर्वपुरुषों की ओर देखती हुई का वर्जन करते हो वैसे Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ बृहत्कल्पभाष्यम् ही जब मेरे से कुछ अपराध हो तो मुझे भी उसी प्रकार वर्जन करना क्योंकि जीव प्रमादी होता है, फिर चाहे वह स्त्री का संबंधी भी क्यों न हो? ३२३२.पायं सकज्जग्गहणालसेयं, बुद्धी परत्थेसु उ जागरूका। तमाउरो पस्सति णेह कत्ता, दोसं उदासीणजणो जगं तु॥ क्योंकि प्रायः बुद्धि स्वयं के हित-अहित कार्य के परिच्छेद करने में अलस होती है और पर-प्रयोजन में जागरूक होती है। इस जीवलोक में कार्य करने में आतुर कर्ता दोष को नहीं देखता, तटस्थ व्यक्ति उस दोष को देख लेता है। (आर्या कहती है। इसलिए हे भद्र शय्यातर! अहित में प्रवृत्त होते समय मुझको तुम निवारित करना। ३२३३.तेणिच्छिए तस्स जहिं अगम्मा, वसंति णारीतो तहिं वसेज्जा। ता बेति रत्तिं सह तुब्भ णीहं, अणिच्छमाणीसु बिभेमि बेति॥ यदि आर्यिका का कथन शय्यातर स्वीकार करता है तो वह अकेली आर्या उस शय्यातर की जो अगम्य अर्थात् माता, भगिनी आदि स्त्रियां रहती हैं वहां वह रहे। वे स्त्रियां उस आर्या को कहती हैं-जब तुमको कायिकी आदि के लिए बाहर जाना हो तो हम साथ चलेंगी। ऐसा कहने पर भी यदि वे रात्री में बाहर जाना न चाहें तो आर्या उनसे कहे-मैं अकेली बाहर जाने से डरती हूं। ३२३४.मत्तासईए अपवत्तणे वा, सागारिए वा निसि णिक्खमंती। तासिं णिवेदेतु ससह-दंडा, ___ अतीति वा णीति व साधुधम्मा॥ यदि कोई स्त्री साथ देना न चाहे तो मात्रक में कायिकी का उत्सर्ग करे। यदि मात्रक में कायिकी का प्रवर्तन-उत्सर्जन न होता हो अथवा स्थान सागारिकबहुल होने के कारण वह अकेली आर्या रात्री में बाहर जाती हुई, शय्यातरी को निवेदन करे तथा दंड हाथ में लेकर, खांसी जैसा शब्द करती हुई बाहर जाए और कार्य संपन्न कर प्रवेश करे। यह उसकी साधुसमाचारी है। ३२३५.एगाहि अणेगाहि व, दिया व रातो व गंतु पडिसिद्धं । चउगुरु आयरियादी, दोसा ते चेव जे भणिया॥ एकाकिनी अथवा अनेक आर्यिकाओं के लिए दिन या रात्री में विहारभूमी स्वाध्यायभूमी में जाना प्रतिषिद्ध है। यदि यह तथ्य आचार्य प्रवर्तिनी को नहीं कहते हैं तो उन्हें चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। प्रवर्तिनी भिक्षुणियों को न कहे तो चतुर्गुरु और भिक्षुणियां इसे स्वीकार न करें तो लघुमास का प्रायश्चित्त है। जो दोष पूर्व में कहे गए हैं, वे ही दोष यहां भी होते हैं। ३२३६.गुत्ते गुत्तदुवारे, दुज्जणवज्जे णिवेसणस्संतो। संबंधि णिए सण्णी, बितियं आगाढ संविग्गे॥ अपवादपद में आर्यिकाएं गुप्त, गुप्तद्वारवाले तथा दुर्जनजनरहित गृह में स्वाध्याय के लिए जा सकती हैं, यदि वह गृह उस पाटक के भीतर हो। यदि वैसा गृह प्राप्त न हो तो आर्यिकाओं के संबंधी के या मित्र के या श्रावक के घर में जाया जा सकता है। यह अपवाद पद आगाढ़योग में प्रवृत्त संविग्न आर्यिका के लिए है। ३२३७.पडिवत्तिकुसल अज्जा, सज्झायज्झाणकारणुज्जुत्ता। मोत्तूण अब्भरहितं, अज्जाण ण कप्पती गंतुं। आगादयोग में प्रवृत्त साध्वी के साथ प्रतिपत्तिकुशल अर्थात् उत्तर देने में निपुण साध्वी को सहायक के रूप में भेजनी चाहिए। आगाढ़योग प्रतिपन्न साध्वी स्वाध्याय को एकाग्रता से करने में उद्युक्त रहे। जहां आर्यिकाओं का जाना-रहना गौरवार्ह माना जाता है, उस गृह को छोड़कर अन्यत्र स्वाध्याय के लिए जाना नहीं कल्पता। ३२३८.सज्झाइयं नत्थि उवस्सएऽम्हं, आगाढजोगं च इमा पवण्णा। तरेण सोहद्दमिदं च तुब्भं, संभावणिज्जातो ण अण्णहा ते॥ (यदि गृहस्थ पूछे कि आप यहां क्यों आई हैं? तब प्रतिपत्तिकुशल साध्वी कहे-) हे श्रावक! हमारे उपाश्रय में आज स्वाध्यायिक नहीं है। यह साध्वी आगाढ़योग में प्रवृत्त है। शय्यातर के साथ तुम्हारा यह सौहार्द है, यह सोचकर हम यहां आई हैं। अतः तुम हमको अन्यथा न मानना, संभावना मत करना। ३२३९.खुद्दो जणो णत्थि ण यावि दूरे, पच्छण्णभूमी य इहं पकामा। तुब्भेहि लोएण य चित्तमेतं, सज्झाय-सीलेसु जहोज्जमो णे॥ यहां कोई क्षुद्रजन भी नहीं है। यह स्थान हमारे उपाश्रय से दूर भी नहीं है। यहां विस्तृत प्रच्छन्नभूमी है। आप लोगों का चित्त प्रतीत है, इसलिए स्वाध्यायशीलवाली हम यहां उद्यम कर सकेंगी। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक आरियखेत्त-पदं कप्पs निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पुरत्थिमेणं जाव अंग- मगहाओ एत्तए, दक्खिणं जाव कोसंबीओ कोसंबीओ एत्तए, पच्चत्थिमेणं जाव धूणाविसयाओ एत्तए, उत्तरेणं जाव कुणालाविसयाओ एत्तए । एतावताव कप्पइ । एतावताव आरिए खेते । णो से कप्पर एत्तो बाहिं । तेणं परं जत्थ नाण- दंसण- चरित्ताइं उस्सप्पति ॥ -त्ति बेमि ॥ (सूत्र ५०) ३२४०. इति काले पडिसेहो, परूवितो अह हदाणि खेत्तम्मि | चउदिसि समणुण्णायं, मोत्तूण परेण पडिसेहो ॥ पूर्वसूत्र में काल विषयक प्रतिषेध प्ररूपित हुआ है। प्रस्तुत सूत्र में क्षेत्र विषयक प्ररूपणा है। चारों दिशाओं में जितना क्षेत्र समनुज्ञात है, उसको छोड़कर शेष क्षेत्रों में विहार करना प्रतिषिद्ध है। ३२४१. ट्ठा विपडिसेहो, दव्वाही दव्वे आदिसुत्तं तु । घडिमत्त चिलिमिणीए यत्यादी चेव चत्तारि ॥ ३२४२. वगडा रच्छा दगतीरगं च विह चरमगं च खित्तम्मि । सारिय पाहुड भावे, सेसा काले य भावे य॥ पूर्वसूत्रों में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावविषयक प्रतिषेध हुआ है। द्रव्य प्रतिषेध विषयक आदि सूत्र (सू. १-५), घटीमात्रसूत्र (१६,१७), चिलिमिलिका सूत्र (१८), वस्त्र आदि के प्रतिषेधक चार सूत्र (३८-४१) – ये सब द्रव्य विषयक प्रतिषेध करने वाले सूत्र हैं। बगडा सूत्र (१०,११), रथ्या आदि (४६), और यह प्रस्तुत चरम सूत्र (५०) - ये सारे क्षेत्र प्रतिषेध विषयक सूत्र हैं सागारिक सूत्र (२२-२४) प्राभृत सूत्र (३४ ) ये भाव प्रतिषेध करने वाले सूत्र हैं। शेष अर्थात् मासकल्पप्रकृत आदि सूत्र (६-८) ये सभी काल और भाव दोनों का प्रतिषेध करते हैं। ३२४३. अहवण सुत्ते सुत्ते, दव्वादीणं चउण्हमोआरो सोय अधीणो वत्तरि, सोतरि य अतो अणियमोऽयं ॥ अथवा प्रत्येक सूत्र में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव- चारों का समवतार होता है। यह समवतार वक्ता और श्रोता के अधीन होता है। अतः यह नियम नहीं है कि प्रतिसूत्र में द्रव्य आदि चतुष्क का समवतार निरूपित हो । ३२९ ३२४४. जो एतं न वि जाणह, पढमुद्देसस्स अंतिमं सुत्तं । अहवण सव्वऽज्झयणं, तत्थ उ नायं इमं होइ ॥ जो आचार्य प्रस्तुत प्रथम उद्देशक का अन्तिम सूत्र नहीं जानता अथवा सारा कल्प अध्ययन नहीं जानता तो उसके लिए यह ज्ञात-उदाहरण होता है। ३२४५. उज्जालितो पदीवो, चाउस्सालस्स मज्झयारम्मि । पमुहे वा तं सव्वं, चाउस्सालं पगासेति ॥ चतुःशाला वाले घर के मध्यभाग में अथवा उसके प्रवेश और निर्गमन के स्थान पर दीपक जलाकर रख दिया जाता है तो वह दीपक संपूर्ण चतुःशाला को प्रकाशित कर देता है। (इसी प्रकार सारे अध्ययनों के मध्यवर्ती यह अंतिम सूत्र, जो प्रथम उद्देशक का अन्त्यसूत्र है, उसको जो नहीं जानता वह अन्य सामाचारी का ज्ञाता नहीं हो सकता। उसे गण का साधु भी नहीं कहा जा सकता ।) ३२४६. जो गणहरो न याणति, जाणतो वा न देसती मम्गं । सो सप्पसीसगं पिव, विणस्सती विज्जपुत्तो वा ॥ ३२४७. सी. उन्ह- वासे य तमंधकारे, णिच्चं पि गच्छामि जतो मि णेसी । गंतव्वए सीसग ! कंचि कालं, अहं पि ता होज्न पुरस्सरा ते ॥ बज्नेमि मोरे णउलादिए य माता विसूराहि अजाण एवं ॥ पुरस्सरं ताव भवाहि अज्ज । ३२४८. ससक्करे कंटइले व मग्गे, बिले य जाणामि अदुट्ठ दुट्टे, ३२४९. तं जाणगं होहि अजाणिगा है, एसा अहं णंगलिपासणं, लग्गा दुअं सीसग ! वच्च वच्च ॥ ३२५०. अकोविए ! होहि पुरस्सरा मे, अलं विरोहेण अपंडितेहिं । वंसस्स छेदं अमुणे इमस्स, दडुं जतिं गच्छसि तो गता सि ॥ जो गणधर यथोक्त सामाचारी को नहीं जानता अथवा जानता हुआ भी उस मार्ग का उपदेश नहीं देता वह सर्पशीर्ष तथा वैद्यपुत्र की भांति विनाश को प्राप्त हो जाता है। एक सर्प सुखपूर्वक विहरण करता था। एक बार उसकी पूंछ ने कहा-'तुम सदा आगे चलते हो मैं तुम्हारे पीछे-पीछे शीत, ताप, वर्षा, अंधकार में, जहां तुम ले जाते हो, वहां जाती हूं। हे शीर्षक! कुछ समय तक मैं तुम्हारे आगे होकर चलना चाहती हूं।' शीर्षक बोला-'हे पूंछ आगे चलता हुआ मैं " . Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० : बृहत्कल्पभाष्यम् कंकर, पत्थर, कंटक तथा मयूर और नकुल वाले मार्ग को ३२५४.बुद्धीबलं हीणबला वयंति, छोड़ देता हूं। मैं अदुष्ट और दुष्ट बिलों को जानता हूं। तू किं सत्तजुत्तस्स करेइ बुद्धी। इनमें से एक भी नहीं जानती। इस अज्ञान के कारण तुम खिन्न किं ते कहा णेव सुता कतायी, मत होना। वसुंधरेयं जह वीरभोज्जा॥ पुच्छिका कहती है-हे शीर्षक! तुम ज्ञायक बने रहो, मैं सर्पशीर्ष के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर पूंछ बोलती अज्ञायिका ही रहंगी। अच्छा, तुम आज आगे-आगे चलो। मैं है-हीन बल अर्थात् निःसत्व व्यक्ति ही बुद्धिबल को बड़ा नंगलीपाशक से लग कर यहीं रह जाती हूं। हे शीर्षक! तुम बता सकते हैं। जो सत्वयुक्त हैं उनका बुद्धि क्या करेगी? शीघ्रता कर यहां से चलो, चलो। सत्व ही कार्यसिद्धि का प्रतीक होता है। क्या तुमने कभी यह शीर्षक बोला-'हे अकोविदे! हे मूर्खे! तुम मेरे से आगे हो नहीं सुना कि यह वसुधा-पृथ्वी शूरवीर व्यक्तियों द्वारा भोग्य जाओ। अपंडित मूर्ख से विरोध करना अच्छा नहीं होता। हे होती है। कहा हैमूर्खे! यदि तू मेरे वंश का उच्छेद देखकर भी जाती है तो नेयं कुलक्रमायाता, शासने लिखिता न वा। तेरा भी विनाश ही होगा। खड्गेनाक्रम्य भुजीत, वीरभोग्या वसुन्धरा॥ ३२५१.कुलं विणासेइ सयं पयाता, ३२५५.असंसयं तं अमुणाण मग्गं, नदीव कुलं कुलडा उ नारी। गता विधाणे दुरतिक्कमम्मि। निब्बंध एसो णहि सोभणो ते, इमं तु मे बाहति वामसीले!, जहा सियालस्स व गाइतव्वे॥ अण्णे वि जं काहिसि एक्कघातं॥ स्वच्छंदरूप में चलने वाली कुलटानारी दोनों कुलों- शीर्षक बोला-'निस्सन्देह तुम मूों के मार्ग को प्राप्त हो पितृकुल और श्वसुरकुल का विनाश वैसे ही कर देती है, गई हो अर्थात् आत्मोपघात करने पर तुली हुई हो। क्योंकि जैसे महाप्रवाह से नदी अपने दोनों कूलों-तटों का विनाश । विधान अर्थात् भवितव्यता दुरतिक्रम होती है। हे वामशीले। कर देती है। हे पूच्छिके! इस प्रकार का निर्बन्ध-कदाग्रह । प्रतिकूल पथगामिनी! मुझे यही बाधा पहुंचाता है कि तुम तुम्हारे लिए सुन्दर नहीं होगा, जैसे शृगाल का गाने का स्वयं के अतिरिक्त दूसरों को भी एकघात करोगी-मार दोगी। कदाग्रह उसके विनाश का कारण बना।' ३२५६.सा मंदबुद्धी अह सीसकस्स, ३२५२.उल्लत्तिया भो! मम किं करेसी, सच्छंद मंदा वयणं अकाउं। थाम सयं सुट्ट अजाणमाणी। पुरस्सरा होतु मुहुत्तमेत्तं, सुतं तया किण्ण कताइ मूढे !, अपेयचक्खू सगडेण खुण्णा॥ जं वाणरो कासि सुगेहियाए॥ वह मंदबुद्धिवाली पुच्छिका शीर्षक के वचन को नहीं हे पुच्छिके! तुम अपनी शक्ति को भलीभांति न जानती मानती हुई, स्वच्छंद मति से पुरस्सर होकर मंदगति से जाने हुई मेरी ओर मुड़कर भी मेरा क्या कर लोगी? हे मूढ़े! क्या चली। वह अपेतचक्षु-अंधी पुच्छिका मुहूर्त्तमात्र आगे चली तुमने कभी यह नहीं सुना जो बंदर ने सम्मुख होकर उस और एक शकट से क्षुण्ण होकर मृत्युधाम में पहुंच गई। सुगृहवाली बया पक्षी का किया था। ३२५७.जे मज्झदेसे खलु देस-गामा, ३२५३.न चित्तकम्मस्स विसेसमंधो, अतिप्पितं तेसु भयंतु! तुज्झं। संजाणते णावि मियंककंति। लुक्खण्ण-हिंडीहिं सुताविया मो, किं पीढसप्पी कह दूतकम्म, अम्हं पिता संपइ होउ छंदो॥ __ अंधो कहिं कत्थ य देसियत्तं॥ जो अगीतार्थ शिष्य हैं, वे आचार्य से कहते हैं-भदन्त! देख, अंधा व्यक्ति चित्रकर्म की रमणीयता को नहीं जान आर्यक्षेत्र में जो देश हैं, गांव हैं, वहां विहरण करना अत्यंत पाता और न वह चन्द्रमा की कान्ति को जान पाता है। कहां प्रिय है। किन्तु रूक्षान्न मात्र खाते रहने से तथा इधर-उधर तो पीठसी अर्थात् पंगु और कहां दूतकर्म करने वाला परिभ्रमण करने से अत्यंत तापित हो गए हैं। अतः अब हम संदेशहारक! कहां तो अंधा व्यक्ति और कहां मार्गदर्शक! भी स्वच्छंदरूप से विहरण करना चाहते हैं। १,२. पूरे कथानक के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं.८४,८५। Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक ३२५८. देहोवहीतेणग-सावतेहिं, पदुट्ठमेच्छेहि य तत्थ तत्थ । तदा विजाणिस्सह मे विसेसं ॥ आचार्य ने कहा - भद्रशिष्यो ! जब तुम प्रत्यन्त देश में विहरण करोगे और जब देहस्तेन, उपधिस्तेन श्वापद तथा प्रद्विष्टम्लेच्छों से वहां परितापित होकर संयम से परिभ्रष्ट होओगे तब तुम जान पाओगे कि मैंने क्या कहा था। ३२५९, वेज्जस्स एगस्स अहेसि पुत्तो, मतम्मि ताते अणधीयविज्जो । जता परिब्भस्सध अंतदेसे, गंतुं विदेसं अह सो सिलोगं, घेत्तूणमेगं सगदेसमेति ॥ वैद्यपुत्र का दृष्टांत - एक गांव में एक वैद्य का पुत्र रहता था। पिता की मृत्यु हो गई पुत्र ने वैद्यक शास्त्र नहीं पढ़ा था। राजा ने उसको वृत्ति नहीं दी तब वह वैद्यक शास्त्र का अध्ययन करने विदेश में गया। वहां एक वैद्य के पास वैद्यक शास्त्र के अध्ययन के लिए रहा। एक दिन वैद्य से यह श्लोक सुना 'पूर्वाह्न वमनं दद्यादपराह्न विरेचनम् । वातिकेष्वपि रोगेषु, पथ्यमाहुर्विशोषणम् ॥' उसने सोचा- वैद्यक का रहस्य यही है वह इस श्लोक को लेकर अपने देश आ गया। ३२६०. अहाऽऽगतो सो उ सयम्मि देसे, रणो णियोगेण सुते तिगिच्छं, लखूण तं चैव पुराणवित्तिं । कुव्वंतु तेणेव समं विणट्ठो ॥ उसके अपने देश में आ जाने पर राजा से वही पुरानी वृत्ति प्राप्त कर वैद्यगिरी करने लगा। एक बार राजा की आज्ञा १. १. द्रव्य आर्य - नामन आदि के योग्य तिनिश वृक्ष आदि । २. क्षेत्र आर्य-साढ़े पचीस जनपद तथा वहां के निवासी । ३. जात्यार्य - अंबट्ट आदि छह इभ्यजातियां । ४. कुलार्य - इक्ष्वाकु आदि छह कुलों में उत्पन्न । ५. भाषार्य - अर्धमागधी भाषाभाषी । २. आर्यजनपद (आर्य क्षेत्र) और उनकी राजधानियां। १. मगध - राजगृह २. अंग- चंपा ३. बंग तालिम ४. कलिंग - कंचनपुर ५. काशी - वाराणसी ६. कौशल - साकेत ७. कुरु-गजपुर ८. कुशा-सौर्यपुर ९. पांचाल - कंपिल्ख १०. जंगल-अहिच्छत्रा ११. सौराष्ट्र-द्वारवती १२. विदेह - मिथिला १३. वत्स - कौशांबी १४. संडिब्भ-नंदीपुर ३३९ से वह राजपुत्र की चिकित्सा उसी श्लोक के माध्यम से करने लगा। राजपुत्र उस अपप्रयोग से मर गया। वैद्यपुत्र भी उसीके साथ मार डाला गया। (इसी प्रकार जो आचार्य इस कल्पाध्ययन को नहीं जानते अथवा कुछ अंश जानते हुए संघ का प्रवर्तन करते हैं वे स्वयं संसारचक्र में परिभ्रमण करते हुए अनेक जन्म-मरण करते हैं।) । ३२६१. साएयम्मि पुरवरे, सभूमिभागम्मि वज्रमाणेण । सुत्तमिणं पण्णत्तं, पडुच्च तं चेव कालं तु ॥ साकेत नगर के सभूमीभाग उद्यान में भगवान् वर्द्धमान ने इस सूत्र की उस वर्तमान काल के आधार पर श्रमणश्रमणियों के सम्मुख प्रज्ञापना की। उन्होंने कहा३२६२. मगहा कोसंबी या भ्रूणाविसओ कुणालक्सिओ य एसा विहारभूमी, एतावंताऽऽरियं खेतं॥ पूर्व दिशा में मगधजनपद, दक्षिण दिशा में कौशाम्बी, पश्चिम दिशा में स्थूणा जनपद और उत्तर दिशा में कुणाल जनपद-इतना ही आर्यक्षेत्र है। अतः साधुओं की यह विहार भूमी है। इससे आगे विहरण करना नहीं कल्पता । ३२६३. नामं ठवणा दविए, खेत्ते जाती कुले य कम्मे य भासारिय सिप्पारिय, णाणे तह दंसण चरिते ॥ आर्यपद के १२ निक्षेप हैं १. नाम आर्य २. स्थापनाआर्य ३. द्रव्य आर्य ४. क्षेत्र आर्य ५. जात्यार्य ६. कुलार्य ६. शिल्पार्थ तंतुवाय आदि । ७. ज्ञानार्य-मतिज्ञान आदि के धारक । ८. दर्शनार्थ- सरागदर्शनार्य वीतरागदर्शनायें । ९. चारित्रार्य-पांच प्रकार के चारित्र के धारक । १५. मलय विपुर १६. वत्स - वैराट १७. अच्छ-वरण १८. दशार्ण - मत्तियावती १९. चेदी - सुप्तीवती २०. सिन्धुसौवीर - वीतभय २१. शूरसेन - मथुरा ७. कर्मार्थ ८. भाषार्य ९. शिल्पार्थ १०. ज्ञानार्य ११. दर्शनार्य १२. चारित्रार्य २२. भंगी-पावा २३. वर्त्त - मासपुर २४. कुणाल - श्रावस्ती २५. लाढ - कोटिवर्ष २५ कैकेयी अर्द्ध-श्वेतविका (वृ. पृ. ९१३) Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ बृहत्कल्पभाष्यम् ३२६४.अंबट्ठा य कलंदा, विदेहा विदका ति य। ३२७०.एत्थ किर सण्णि सावग, हारिया तुंतुणा चेव, छ एता इब्भजातिओ।। जाणंति अभिग्गहे सुविहियाणं। अंबष्ठ, कलिन्द, वैदेह, विदक, हारित, तुन्तुण-ये छह एतेहिं कारणेहिं, इभ्यजातियां मानी जाती थीं। इन जातिवाले व्यक्ति जात्यार्य बहिगमणे होंतिऽणुग्घाया। कहलाते थे। ३२७१.आणादिणो य दोसा, विराहणा खंदएण दिट्ठतो। ३२६५.उग्गा भोगा राइण्ण खत्तिया तह य णात कोरव्वा। एतेण कारणेणं, पडुच्च कालं तु पण्णवणा॥ __ इक्खागा वि य छट्ठा, कुलारिया होति नायव्वा॥ यहां आर्यक्षेत्र में संज्ञी-अविरतसम्यग्दृष्टि मनुष्य तथा उग्र, भोग, राजन्य, क्षत्रिय, ज्ञात, कौरव, इक्ष्वाकु-ये श्रावक रहते हैं। वे सुविहित साधुओं के अभिग्रह को जानते छह (क्षत्रिय और कौरव को एक मानने पर) कुलार्य माने हैं। उसकी पूर्ति यहां होती है। इन कारणों से आर्यक्षेत्र में जाते हैं। विहरण करना चाहिए। उसके बाहर जाने पर चार अनुद्घात ३२६६.जम्मण-निक्खमणेसु य, मास का प्रायश्चित्त विहित है। आज्ञाभंग आदि दोष तथा तित्थकराणं करेंति महिमाओ। आत्म-संयमविराधना भी होती है। यहां स्कंधक का दृष्टांत भवणवइ-वाणमंतर-जोइस है। यह वर्धमानस्वामी के काल की अपेक्षा से कहा गया है। वेमाणिया देवा॥ अब महाराज संप्रति के काल की अपेक्षा से प्रज्ञापना की जा आर्यक्षेत्र में विहार का कारण रही है-जहां-जहां ज्ञान-दर्शन और चारित्र का उत्सर्पण होता आर्यक्षेत्र में तीर्थंकरों के जन्म, निष्क्रमण आदि के अवसर हो उस-उस क्षेत्र में विहार करना चाहिए। पर भवनपति, वानमंतर ज्योतिष्क और वैमानिक देव महिमा ३२७२.दोच्चेण आगतो खंदएण वादे पराजितो कुवितो। कैरते हैं। खंदगदिक्खा पुच्छा, णिवारणाऽऽराध तव्यज्जा॥ ३२६७.उप्पण्णे णाणवरे, तम्मि अणंते पहीणकम्माणो। ३२७३.उज्जाणाऽऽयुध णूमण, णिवकहणं कोव जंतयं पुव्वं । तो उवदिसंति धम्म, जगजीवहियाय तित्थकरा॥ बंध चिरिक्क णिदाणे, कंबलदाणे रयोहरणं ।। उस क्षेत्र में घाती कर्मों के क्षीण होने पर तीर्थंकरों के ३२७४.अग्गिकुमारुववातो, चिंता देवीय चिण्ह रयहरणं। अनन्तज्ञान केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है और तब वे जगत् खिज्जण सपरिसदिक्खा, जिण साहर वात डाहो य॥ के जीवों के हित के लिए धर्म का उपदेश देते हैं। पालक श्रावस्ती नगरी में दूत बनकर आया। वहां वाद ३२६८.लोगच्छेरयभूतं, ओवयणं निवयणं च देवाणं। में स्कंदक से पराजित हो गया। वह स्कंदक पर अत्यंत संसयवाकरणाणि य, पुच्छंति तहिं जिणवरिदे॥ कुपित हो गया। स्कंदक सुव्रतस्वामी के पास दीक्षित हो मनुष्यलोक में देवों का आश्चर्यकारी गमन-आगमन गया। एक दिन उसने भगवान् से पूछा-मैं कुंभकारकृत नगर देखकर अनेक जीव प्रतिबुद्ध होते हैं। आर्यजनपद में अनेक जाना चाहता हूं। भगवान् ने निवारण करते हुए कहा-वहां जीव अपने संशयों का निवारण करने के लिए जिनेन्द्र भगवान् उपसर्ग होगा। तुम्हारे अतिरिक्त सभी आराधक होंगे। को पूछते हैं और समाधान प्राप्त करते हैं। जिनेश्वर देव भी स्कंदक अपने पांच सौ मुनियों के साथ चला और असंख्य प्रश्नकर्ताओं के प्रश्नों का एक साथ उत्तर देकर कुंभकारकृत नगर के बाहर एक उद्यान में ठहरा। पालक ने उनके संशयों को मिटा देते हैं। उद्यान में आयुधों को छपाकर रखवा दिए। राजा से ३२६९.समणगुणविदुऽत्थ जणो, कहा-आपका राज्य हड़पने आया है। राजा कुपित हो गया। सुलभो उवधी सतंतमविरुद्धो। पालक ने तब साधुओं को पीलना प्रारंभ किया। स्कन्दक ने आरियविसयम्मि गुणा, कहा-पहले मुझे पीलो। पालक ने उसे खंभे से बांध डाला। णाण-चरण-गच्छवुड्डी य॥ जो मुनि कोल्हू में पीले जा रहे थे उनके रक्त से सने वस्त्रों आर्यक्षेत्र के लोग श्रमणगुणों को जानने वाले होते हैं। वहां को देखकर स्कंदक ने निदान किया। उसकी बहन ने साधुओं के लिए उपयुक्त उपधि सिद्धान्तानुसार सुलभता से कंबलरत्न दिया था। स्कंदक ने उसका रजोहरण कर दिया। प्राप्त होती है। आर्यक्षेत्र में विहरण के ये गुण हैं तथा यहां स्कंदक मरकर अग्निकुमारदेवों में उपपन्न हुआ। रक्त से ज्ञानवृद्धि, चरणवृद्धि तथा गच्छवृद्धि भी होती है। सने रजोहरण को देखकर रानी ने सोचा-सभी साधुओं के Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला उद्देशक = ३३३ साथ भाई भी मारा गया। उसने राजा से कहा। बहुत खेद आदिपुरुष चन्द्रगुप्त से बिन्दुसार और उससे अशोकश्री और प्रगट किया। परिवारसहित रानी दीक्षा के लिए उद्यत हुई। उससे उत्कृष्ट संप्रति महाराज रहे। उन्होंने नगर के द्वारजिनेश्वरदेव के पास सबका संहरण किया। अग्निकुमारदेव संलोक-चारों द्वार पर दान का प्रवर्तन किया, वणि विपणि" में उपपन्न स्कन्दक ने संवर्तक वायु की विकुर्वणा कर सारे से साधुओं को वस्त्र दान की व्यवस्था की। महाराज संप्रति नगर का दाह कर डाला।' त्रसजीवों के प्रतिक्रामक (संरक्षक) तथा श्रमणसंघ के ३२७५.कोसंबाऽऽहारकते, अज्जसुहत्थीण दमगपव्वज्जा। प्रभावक थे। ___ अव्वत्तेणं सामाइएण रणो घरे जातो॥ ३२७९.ओदरियमओ दारेसु, चउसु पि महाणसे स कारेति। कौशाम्बीनगर में आहार के लिए एक द्रमक आर्य जिंताऽऽणिते भोयण, पुच्छा सेसे अभुत्ते य॥ सुहस्ती के पास प्रवजित हुआ। वह अव्यक्त सामायिक में ३२८०.साहण देह एयं, अहं भे दाहामि तत्तियं मोल्लं। मरकर राजा के घर में उत्पन्न हुआ। णेच्छंति घरे घेत्तुं, समणा मम रायपिंडो ति॥ (कौशांबीनगर में आर्य सुहस्ती समवसृत हुए। साधु गांव राजा संप्रति ने सोचा-पूर्वजन्म में मैं औदरिक-द्रमक में भिक्षा के लिए घूमने लगे। द्रमक ने देखा। उसने साधुओं था। यह सोचकर उन्होंने नगर के चारों द्वारों पर सत्राकार से आहार मांगा। साधु बोले-आचार्य जाने और तुम जानो। बड़े-बड़े भोजनालय करवाये। कोई भी आते-जाते वहां वह आचार्य के पास गया। आचार्य ने ज्ञानोपयोग से जान भोजन कर सकता था। एक बार राजा ने रसोइये से पूछालिया कि यह प्रवचन का उपकारी होगा। उसे दीक्षित कर, दीन आदि को देने के पश्चात् जो भोजन बचता है उसका सामायिक कराई। वह भूखा तो था ही। बहुत खा लिया। मर क्या करते हो? उन्होंने कहा-हम घर ले जाते हैं। राजा ने कर वह उस अव्यक्तसामायिक के प्रभाव से अंधे कुणाल- कहा-वह बचा भोजन साधुओं को दान में दे दो। मैं उतने कुमार के घर में पुत्ररूप में जन्मा।) का मूल्य तुमको दे दूंगा। श्रमण मेरे महलों से भोजन लेना ३२७६.चंदगुत्तपपुत्तो य, बिंदुसारस्स नत्तुओ। नहीं चाहते, क्योंकि वे इसे राजपिंड मानते हैं। असोगसिरिणो पुत्तो, अंधो जायति काकणिं॥ ३२८१.एमेव तेल्लि -गोलिय-पूविय-मोरंड-दुस्सिए चेव। चन्द्रगुप्त के प्रपौत्र बिन्दुसार महाराज का पौत्र अशोकश्री जं देह तस्स मोल्लं, दलामि पुच्छा य महगिरिणो॥ का पुत्र कुणाल नाम का अंधापुत्र आपसे 'काकणी' अर्थात् इसी प्रकार महाराज संप्रति ने तैलिकों को तैल, गोलिकों राज्य की याचना करता है। को तक्र आदि, पौपिकों को अपूपकादि, मोरंडिकों' को तिल (राजा ने पूछा-अंधे के लिए राज्य का क्या प्रयोजन? आदि के मोदक और दौष्किकों को वस्त्र-ये सारे पदार्थ उसने कहा-उसके पुत्र के लिए याचना है। राजा ने पुत्र को साधुओं को यथेष्ट देने के लिए कह दिया। जो पदार्थ दिए देखा। उसका नाम संप्रति किया। उसे राज्य दिया।) जायेंगे, उसका मूल्य राज्य से दिया जाएगा। एक बार ३२७७.अज्जसुहत्थाऽऽगमणं, द8 सरणं च पुच्छणा कहणा। आचार्य महागिरि ने आर्य सुहस्ती से पूछा। (और कहा-आप पावयणम्मि य भत्ती, तो जाता संपतीरणो॥ जानकारी करें कि कहीं राजा लोगों को इन सब पदार्थों के एक बार आर्य सुहस्ती उज्जैनी में समवसत हए। आर्य लिए बाध्य तो नहीं कर रहा है?) सुहस्ती को देखकर राजा को जातिस्मृति हुई। उसने गुरु से ३२८२.अज्जसुहत्थि ममत्ते, अणुरायाधम्मतो जणो देती। पूछा-अव्यक्त सामायिक का क्या फल है? गुरु ने कहा संभोग वीसुकरणं, तक्खण आउट्टणे नियत्ती॥ राज्य आदि की प्राप्ति। आचार्य से और अनेक तथ्य सुनकर आर्य सुहस्ती का अपने शिष्यों के प्रति ममत्व था। महाराज संप्रति के मन में प्रवचन के प्रति भक्ति के भाव उन्होंने आचार्य महागिरी को कहा-'अनुराजधर्म' अर्थात् उत्पन्न हुए। प्रायः लोग राजधर्म का अनुवर्तन करने वाले होते हैं। अतः ये ३२७८.जवमज्झ मुरियवंसे, दाणे वणि-विवणि दारसंलोए। लोग आहार आदि देते हैं। आचार्य महागिरी ने आर्य सुहस्ती तसजीवपडिक्कमओ, पभावओ समणसंघस्स॥ के इस कथन पर उनसे संभोग विच्छेद कर डाला। यह मौर्यवंश यवमध्य की भांति है। जैसे यव मध्य में पृथुल देखकर आर्य सुहस्ती का चिंतन तत्काल मुड़ा, चिंतन किया और आदि-अन्त में क्षीण होता है, वैसे ही मौर्यवंश का और उससे निवृत्त हो गए। १,२. पूरे कथानक के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. ८७,८८। ४. विपणी-लघु आपण। ३. वणी-बृहत्तर आपण। ५. मोरंड-तिल आदि के मोदक। उसको बेचने वाले मोरंडक। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ =बृहत्कल्पभाष्यम् ३२८३.सो रायाऽवंतिवती, समणाणं सावतो सुविहिताणं। __ पच्चंतियरायाणो, सव्वे सहाविया तेणं॥ ३२८४.कहिओ य तेसि धम्मो, वित्थरतो गाहिता य सम्मत्तं। अप्पाहिता य बहुसो, समणाणं भद्दगा होइ॥ वह अवन्तीपति महाराज संप्रति सुविहित मुनियों का श्रावक हो गया। राजा ने एक बार सभी प्रात्यन्तिक राजाओं को बुलाया और उनको विस्तार से धर्म-विषयक बात बताई। उनको सम्यक्त्व प्राप्त कराई और उनको कहा-आप अपने देश में जाकर श्रमणों के प्रति भद्रक बने रहें, उनके प्रति भक्तिभाव रखें। ३२८५.अणुजाणे अणुजाती, पुप्फारुहणाइ उक्किरणगाई। पूयं च चेइयाणं ते वि सरज्जेसु कारिंति॥ __महाराज संप्रति रथयात्रा में साथ जाते थे। पुष्पारोहण तथा रथ के आगे उत्किरण अर्थात् विविध प्रकार के फल, खाद्यपदार्थ आदि, करते थे। चैत्यों की पूजा भी करते थे। अन्यान्य राजा भी अपने-अपने राज्यों में रथयात्रा आदि करवाते थे। ३२८६.जति मं जाणह सामि, समणाणं पणमहा सुविहियाणं। दव्वेण मे न कज्जं, एयं खु पियं कुणह मज्झं॥ महाराज संप्रति ने उन राजाओं से कहा यदि तुम मुझे । स्वामी मानते हो तो सुविहित श्रमणों को प्रणाम करो। मुझे द्रव्य नहीं चाहिए। मुझे केवल श्रमणों को प्रणमन करना प्रिय है। वह प्रियता आप करें। ३२८७.वीसज्जिया य तेणं, गमणं घोसावणं सरज्जेसु। साहूण सुहविहारा, जाता पच्चंतिया देसा॥ यह शिक्षा प्रदान कर महाराज संप्रति ने एकत्रित सभी राजाओं को विसर्जित किया। वे राजा अपने राज्य में गए और अमारी की घोषणा करवाई। साधुओं के लिए वे क्षेत्र सुविहार क्षेत्र हो गए। (साधुओं ने राजा से कहा ये प्रत्यन्तवासी कल्प्य-अकल्प्य को नहीं जानते, अतः वहां विहार कैसे करेंगे?' तब संप्रति ने अपने सुभटों को साधुवेश में सुशिक्षित कर वहां भेजा।) ३२८८.समणभडभाविएसुं, तेसू रज्जेसु एसणादीसु। साहू सुहं विहरिया, तेणं चिय भद्दगा ते उ॥ वे क्षेत्र श्रमणवेशधारी सुभटों से एषणा आदि में सम्यक भावित हो गए। फिर उन राज्यों में मुनि सुखपूर्वक विहार करने लगे। उसी काल से वे प्रत्यन्त देश भी भद्रक हो गए। ३२८९.उदिण्णजोहाउलसिद्धसेणो, __य पत्थिवो णिज्जियसत्तुसेणो। समंततो साहुसुहप्पयारे, अकासि अंधे दमिले य घोरे॥ महाराज संप्रति का सैन्यबल अपूर्व था। सेना प्रबल योद्धाओं से संकीर्ण तथा सर्वत्र अप्रतिहत थी। उस सेना ने समस्त विपक्षी सेनाओं को जीत लिया था। ऐसे सैन्यबल से अन्वित महाराज संप्रति ने प्रत्यपाय बहुल आंध्र, द्रविड़ आदि देशों को चारों ओर से साधुओं के सुखविहार के लिए उपयुक्त बना डाला। प्रथम उद्देशक समाप्त Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक (गाथा ३२९०-३६७८) Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक उवस्सए बीज-पदं ३२९३.नामं ठवणा दविए, भावे य उवस्सओ मुणेयव्वो। एएसिं नाणतं, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए। उवस्सयस्स अंतो वगडाए सालीणि वा उपाश्रय शब्द के चार निक्षेप हैं नाम उपाश्रय, स्थापना वीहीणि वा मुग्गाणि वा मासाणि वा उपाश्रय, द्रव्य उपाश्रय और भाव उपाश्रय। मैं उनका नानात्व तिलाणि वा कुलत्थाणि वा गोहूमाणि वा क्रमशः कहूंगा। जवाणि वा जवजवाणि वा 'उक्खिण्णाणि ३२९४.दव्वम्मि ऊ उवस्सओ, कीरइ कड वुत्थमेव सुन्नम्मि। ___भावम्मि निसिढे संजएसु दव्वम्मि इयरेसु॥ वा विक्खिण्णाणि वा' विइकिण्णाणि वा द्रव्य उपाश्रय वह है जो साधुओं के लिए बनाया जा रहा विप्पकिण्णाणि वा, नो कप्पइ निग्गंथाण है या बनाया गया है या जहां साधु रहकर अभी गए हैं और वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए। वह अभी शून्य पड़ा है। पार्श्वस्थ आदि को दिया हुआ (सूत्र १) उपाश्रय भी द्रव्य उपाश्रय है। भाव उपाश्रय वह है जो संयतों को प्रदत्त है और वे वहां रह रहे हैं।' ३२९०.एरिसए खेत्तम्मी, उवस्सए केरिसम्मि वसितव्वं। ३२९५.उवसग पडिसग सेज्जा, पुव्वुत्तदोसरहिते, बीयादिजढेस संबंधो॥ आलय वसधी णिसीहिया ठाणे। ऐसे आर्यक्षेत्र में विहरण करने वाले मुनियों को कैसे एगट्ठ वंजणाई, उपाश्रय में निवास करना चाहिए? पूर्वोक्त दोषो से उवसग वगडाय निक्खेवो॥ रहित, बीज आदि से वर्जित उपाश्रय में रहे। यह पूर्व सूत्र से उपाश्रय शब्द के सात एकार्थिक हैं-उपाश्रय, प्रतिश्रय, संबंध है। शय्या, आलय, वसति, नैषेधिकी तथा स्थान। वगडा के ३२९१.अहवा पढमे सुत्तम्मि पलंबा वण्णिया ण भोत्तव्वा।। निक्षेप करने चाहिए। तेसिं चिय रक्खट्ठा, तस्सहवासं निवारेति॥ ३२९६.एमेव होति वगडा, चउव्विहा सा उ वतिपरिक्खेवो। अथवा प्रथम उद्देशक के प्रथम सूत्र में प्रलंब का वर्णन है। दव्वम्मि तिप्पगारा, भावे समणेहि भुज्जंती॥ उनको खाने का प्रतिषेध है। उन प्रलंबों की रक्षा के लिए वे इसी प्रकार वगडा के भी चार प्रकार हैं-नाम वगडा, जहां हों वहां रहना वर्जित है। स्थापना वगडा, द्रव्य वगडा और भाव वगडा। द्रव्य वगडा ३२९२.अवि य अणंतरसुत्ते, है-घर से संबंधित वृतिपरिक्षेप। उसके तीन प्रकार हैंउवस्सतो अधिकतो णिसिं जत्थ। सचित्त, अचित्त और मिश्र। साधुओं द्वारा जिस वृतिपरिक्षेप समणाण न निग्गंतुं, का परिभोग किया जा रहा है, वह है भाव वगडा। कप्पति अह तेण जोगो उ॥ ३२९७.वलया कोट्ठागारा, हेट्ठा भूमी य होइ रमणिज्जा। यहां 'अपि' का अर्थ है कि पूर्वोक्त (३२९०,३२९१) दो बीएहिं विप्पमुक्को, उवस्सओ एरिसो होइ॥ श्लोक ही संबंध ज्ञापक नहीं हैं, तीसरा भी है। अनन्तरसूत्र जहां वलय और कोष्ठागार होते हैं, उनके नीचे की भूमी में वैसा उपाश्रय अधिकृत है जहां से अकेले श्रमण को रात्री रमणीय होती है, बीजों से रहित होती है। ऐसा उपाश्रय में बाहर जाना नहीं कल्पता। यह उस सूत्र के साथ संबंध है। बीजों से विप्रयुक्त होता है। १. जो समणट्ठाए कतो, वुत्था वा आसि जत्थ समणा उ। अहवा दव्वउवस्सओ, पासत्थदीपरिग्गहिओ॥ (वृ. पृ. ९२५) Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ ३२९८. कडपल्लाणं सण्णा, तणपल्लाणं च देसितो वलया। णिप्परिसाडिमभुज्जतगा य कयभूमिकम्मंता॥ कटपल्य, तृणपल्य और वलय-ये देशीभाषा के एकार्थ शब्द हैं। ऊपरीतल में बद्ध इनमें धान्य रखा जाता है। वहां वे धान्य परिशाटित नहीं होते, अभुज्यमान अर्थात् अव्यापार्यमाण होते हैं, तथा वहां की भूमी को लेपन आदि से तैयार कर लिया जाता है, उसके नीचे के आश्रय में रहना कल्पता है। ३२९९. चाउस्सालघरेसु व, जत्थोव्वर - कोट्ठएसु धण्णाई । निच्चदुइतमभोगा, तेसु निवास न वारेइ ॥ चतुःशाला आदि गृहों में जहां उपाश्रय हो वहां के अपवरक में, अथवा कोठों में धान्य रखा जाता है। वे सदा बंद रहते हैं और वे परिभोग में नहीं आते। उनके अतिरिक्त शेष अपवरकों तथा कोठों में रहना वर्ज्य नहीं है। ३३००. सालीहिं वीहीहिं, तिल-कुलत्थेहिं विप्पकिण्णेहिं । आदिण्णे वितिकिण्णे, अहलंद ण कप्पती वासो ॥ शालि - कलमधान, ब्रीही लालरंग वाला साठी धान, तिल और कुलत्थ - इन धान्यों से विप्रकीर्ण, आकीर्ण या व्यतिकीर्ण उपाश्रय में यथालंदकाल तक वास करना भी नहीं कल्पता । ३३०१. सालीहिं व वीहीहिं व, इति उत्ते होति एतदुत्तं तु । सालीमादीयाणं, होंति पगारा बहुविहा उ॥ पूर्व श्लोक में शालि, ब्रीही आदि में जो बहुवचन का निर्देश किया गया है, उससे यह ज्ञात होता है कि शालि आदि धान्यों के बहुविध प्रकार होते हैं। जैसे - कलमशालि, रक्तशालि महाशालि आदि । ३३०२. उक्त्ति भिन्नरासी, विक्खिते तेसि होति संबंधो। वितिकिण्णे सम्मेलो, विपइण्णे संथडं जाणे ॥ उत्क्षिप्त अर्थात् धान्यों की पृथक-पृथक राशियां, विक्षिस अर्थात् पृथक्-पृथक् धान्यराशियां परन्तु एक ओर से जुड़ी हुई, व्यतिकीर्ण अर्थात् वे सारी धान्यराशियां एक ओर से सम्मिलित व्यतिकीर्ण पद से उन सभी धान्यों का सम्मीलक और विप्रकीर्ण पद से उन धान्यों का संस्तृत - बिखराव जानना चाहिए। ३३०३. तिविहं च अहालंद, जहन्नयं मज्झिमं च उक्कोसं । उदउल्लं च जहणं, पणगं पुण होइ उक्कोसं ॥ यथालंद तीन प्रकार का है जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट | जितने समय में आर्द्र हाथ सूखता है वह जघन्य बृहत्कल्पभाष्यम् यथालंद है, पांच रात दिन का काल उत्कृष्ट यथालंद है और इनका अपान्तरालवर्ती काल मध्यम यथालंद है। ३३०४. बीयाई आइण्णे, लहुओ मासो उठायमाणस्स । आणादिणो अ दोसा, विराहणा संजमाऽऽताए । बीजों आदि से आकीर्ण उपाश्रय में रहने से लघुमास का प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग आदि दोष तथा संयम और आत्मविराधना होती है। (वृत्ति में आचार्य आदि तथा प्रवर्तिनी आदि के प्रायश्चित्त का नानात्व प्रतिपादित है।) ३३०५. उक्खित्तमाइएसं घिरा ऽधिरेसुं तु ठायमाणस्स । पणगादी जा भिण्णो, विसेसितो भिक्खुमाईणं ॥ ३३०६. साहारणम्मि गुरुगा, दसादिगं मासे ठाति समणीणं । मासो विसेसिओ वा, लहुओ साहारणे गुरुगो ॥ स्थिर अस्थिर भेद वाले उत्क्षिप्त आदि पदों में भिक्षु आदि श्रमणों के पंचक प्रायश्चित्त से प्रारंभ कर भिन्नमास पर्यन्त तप और काल से विशेषित प्रायश्चित्त विहित है। साधारण वनस्पति के बीज विषयक यही प्रायश्चित्त गुरुक हो जाता है। मुनियों के लिए यह गुरूपंचक से प्रारंभ होकर गुरुपचीस पर्यन्त होता है। श्रमणियों के लिए लघु दस रातदिन से प्रारंभ होकर लघुमास तक जाता है। अथवा भिक्षु आदि के साधारण वनस्पति के बीजों के उत्कीर्ण आदि चारों में सामान्यतः तप और काल से विशेषित मासलघु का प्रायश्चित्त है तथा अनन्तवनस्पति के बीजों के उत्कीर्ण आदि चारों में सामान्यतः तप और काल से विशेषित मासगुरु का प्रायश्चित्त विहित है। ३३०७. सालि जब अच्छि सालुग, णिस्सरणं मास मुग्गमादीसु । सस्सू गुज्झ कुतूहल, विप्पइरण मास णिस्सरणं ॥ वैसे उपाश्रय में रहने वाले साधुओं के शालि और यवों के शालुक-सूक्ष्म कण आंखों में गिर सकते हैं। वहां यदि मुद्ग और माष-उड़द आदि विकीर्ण हों तो साधुओं के गमनागमन करते समय निस्सरण फिसलन हो सकता है। यहां श्वश्रू का दृष्टान्त है - एक गृहस्थ के मन में यह कुतूहल उत्पन्न हुआ कि मैं मेरी सास का गुह्य प्रदेश देखूं उसने उसके गमनागमन के मार्ग पर उड़द बिखेर दिए। वह आई और वहां फिसल कर गिर पड़ी वह नग्नसी अवस्था में सीधी पड़ी। उस गृहस्थ का कुतूहल शांत हो गया। १. विप्रकीर्ण - इतस्ततो विक्षिप्तः । आकीर्ण-एकजातीयधान्यैः अभिव्याप्तः । व्यतिकीर्ण - अनेकजातीयधान्यैः संकुलः । २. यथालंदकाल | देखें ३३०३ श्लोक । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक ३३०८.बिइयपय कारणम्मि, पुव्विं वसभा पमज्ज जतणाए। विक्खिरणम्मि वि लहुओ, तत्थ वि आणादिणो दोसा॥ अपवाद स्वरूप 'कारण' में वहां रहा जा सकता है। पहले वृषभ मुनि यतनापूर्वक उस उपाश्रय का प्रमार्जन कर दे। यदि प्रमार्जन करते समय बीजों के विकिरण को इतस्ततः विक्षेपण करते हैं तो लघुमास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। ३३०९.गीया पुरा गंतु समिक्खियम्मि, थिरे पमज्जित्तुमहाथिरे वा। साहट्टमेगंति वसंति लंद, उक्कोसयं जाणिय कारणं वा॥ अध्वनिर्गत मुनि गांव में पहुंचे। सबसे पहले गीतार्थ मुनि गांव में जाकर वसति की प्रत्युपेक्षा करे। बीजरहित वसति न मिलने पर स्थिर संहनन वाले बीजों से आकीर्ण वसति में रहे। उसके अभाव में अस्थिर संहनन वाले बीजों से आकीर्ण वसति में रहे। उन बीजों का एक ओर संहरण कर यथालंद वहां रहे। कारण को जानकर उत्कृष्ट यथालंद काल तक भी रहा जा सकता है। अह पुण एवं जाणेज्जा-नो उक्खिण्णाइं नो विक्खिण्णाइं नो विइकिण्णाइं नो विप्पकिण्णाई रासिकडाणि वा पुंजकडाणि वा भित्तिकडाणि वा कुलियाकडाणि वा लंछियाणि वा मुद्दियाणि वा पिहिताणि वा, कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा हेमंतगिम्हासु वत्थए। (सूत्र २) ३३१०.रासीकडा य पुंजे-कुलियकडा पिहित मुदिते चेव। ठायंतगाण लहुगा, कास अगीतत्थ सुत्तं तु॥ जिस उपाश्रय में बीज राशीकृत, पुंजीकृत, कुलिकाकृत, पिहित, मुद्रित हों वहां रहने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। यह प्रायश्चित्त अगीतार्थ के लिए है। सूत्र तो गीतार्थ विषयक है। ३३११.पुंजो य होति वट्टो, सो चेव य ईसिआयतो रासी। कुलिया कुड्डल्लीणा, भित्तिकडा संसिया भित्ती॥ १. इष्टकादिरचिता भित्तिः। मृत्पिण्डादिनिर्मितं कुड्यम्। जो धान्य के ढेर वृत्ताकार होता है वह है पुंज, जो थोड़ा आयत अर्थात् लंबा होता है वह है राशि। कुलिका का अर्थ है भीत। जो कुड्यालीन अर्थात् मिट्टी की भीत के साथ रखे जाते हैं वे हैं कुलिकाकृत। जो ईंटों की भींत के आश्रित स्थापित हैं वे भित्तिकृत कहलाते हैं।' ३३१२.छारेण लंछिताई, मुद्दा पुण छाणपाणियं दिण्णं । परिकल्लाई करेत्ता, किलिंजकडएहिं पिहिताई। लांछित का अर्थ है-राख से चिन्हित और जहां गोबर का पानी दिया जाता है, छांटा जाता है वह है मुद्रित। जो चटाई आदि से ढंके जाते हैं वे हैं पिहित। (ऐसे बीज वाले स्थानों में, हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में गीतार्थ को रहना कल्पता है, अगीतार्थ को नहीं) ३३१३.नत्थि अगीतत्थो वा, सुत्ते गीतो व वण्णितो कोइ। जा पुण एगाणुण्णा, सा सेच्छा कारणं किं वा॥ प्रस्तुत सूत्र में अगीतार्थ या गीतार्थ का कोई निर्देश नहीं है। अतः आप एक को अनुज्ञा देते हैं और दूसरे को प्रतिषेध करते हैं, यह आपकी इच्छा है। यदि कोई कारण हो तो बताएं। ३३१४.एयारिसम्मि वासो, ण कप्पती जति वि सुत्तऽणुण्णातो। अव्वोकडो उ भणितो, आयरिओ उहती अत्थं॥ आचार्य ने कहा यद्यपि सूत्र में ऐसे उपाश्रय में रहना अनुज्ञात है, फिर भी वहां रहना नहीं कल्पता, क्योंकि अव्याकृत अर्थ ही सूत्र में कहा गया है। आचार्य उसके अर्थ की उत्प्रेक्षा करते हैं। (जैसे कुंभकार एक मृत्पिंड से अनेक वस्तुओं का निर्माण करता है, वैसे ही आचार्य भी एक सूत्र पद से अनेक अर्थों की विकल्पना करते हैं।) ३३१५.जं जह सुत्ते भणितं, तहेव तं जइ वियालणा नत्थि। ___किं कालियाणुओगो, दिट्ठो दिट्ठिप्पहाणेहिं। सूत्र में जो कथन जिस रूप में अर्थात् विधिरूप में या प्रतिषेधरूप में है उसे यदि वैसे ही स्वीकार किया जाए और यदि उसके युक्त-अयुक्त का विमर्श न किया जाए तो फिर दृष्टिप्रधानवाले तीर्थंकरो और गणधरी ने कालिकानुयाग आदि विभाग क्यों दिए ? अथवा भद्रबाहुस्वामी ने नियुक्ति के माध्यम से कालिकश्रुतानुयोग का प्रतिपादन क्यों किया? ३३१६.उस्सग्गसुतं किंची, किंची अववातियं भवे सुत्तं। तदुभयसुत्तं किंची, सुत्तस्स गमा मुणेयव्वा॥ सूत्र चार प्रकार के हैं-१. कुछ उत्सर्गसूत्र हैं २. कुछ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० आपवादिकसूत्र हैं ३. कुछ तदुभयसत्र होते हैं वे दो प्रकार के हैं। ४. (१) उत्सर्ग आपवादिक और (२) अपवाद औत्सर्गिक ये सूत्र के चार गम हैं-प्रकार हैं अथवा 'गम' का अर्थ है-दो बार उच्चारण करने योग्य पद। जैसे उत्सर्गोत्सर्गिक, अपवादापवादिक। इस प्रकार सूत्र के ४+२=६ भेद हो गए। ३३१७. गेस एगगहणं, सलोम णिल्लोम अकसिणे अइणे । विहिभिन्नस्स य गहणं, अववाउस्सग्गियं सुत्तं ॥ सूत्र के ये भेद भी हैं-एक के ग्रहण से अनेक का ग्रहण कराने वाले सूत्र होते हैं। कुछेक सूत्र केवल साध्वियों के लिए, कुछेक सूत्र केवल साधुओं के लिए और कुछेक सूत्र - दोनों के लिए सामान्य होते हैं। जैसे - साधुओं को निर्लोम चर्म ग्रहण करना नहीं कल्पता और सलोम चर्म ग्रहण करना कल्पता है। साध्वियों को सलोम चर्म धारण करना कल्पता नहीं और अलोम चर्म धारण करना कल्पता है। साधु-साध्वियों को धर्म के टुकड़े लेना कल्पता है यह सामान्य सूत्र है । विधिभिन्न प्रलंब ग्रहण का जो सूत्र है वह अपवादीत्सर्गिक सूत्र है।" ३३१८. उस्सग्गठिई सुद्धं, जम्हा दव्वं विवज्जयं लभति । ण व तं होइ विरुद्धं एमेव इमं पि पासामो॥ शिष्य ने पूछा- जिसकी अपवादपद में अनुज्ञा है उसका प्रतिषेध क्यों ? आचार्य ने कहा- उत्सर्गपद में जो शुद्ध द्रव्य लेने की अनुज्ञा है वही अपवाद में विपरीत हो जाती है अर्थात् अशुद्ध द्रव्य लेने की अनुज्ञा भी हो जाती है। यह ग्रहण करना विरुद्ध नहीं है। इसी प्रकार अपवादपद में अनुज्ञात होने पर भी अविधिभिन्न प्रलंब के ग्रहण का प्रतिषेध भी अविरुद्ध ही है। ३३१९. उस्सग्ग गोयरम्मी निसेज्ज कप्पाऽववादतो तिच्हं । मंसं दल मा अट्ठी, अववादुस्सग्गियं सुत्तं ॥ उत्सर्ग सूत्र गोचरी में गए हुए मुनि को दो घरों के अपान्तराल में निषद्या करना नहीं कल्पता । ३ तीन व्यक्तियों-वृद्ध, रोगी और तपस्वी को निषद्या कल्पती है यह आपवादिक सूत्र है।" अपवादौत्सर्गिक सूत्र - मांस दो, अस्थि नहीं। 'मंसं दल मा अट्ठी' । ३३२०. नो कप्पति व अभिन्नं, अववातेणं तु कप्पती भिन्नं । कप्पति पक्कं भिण्णं, विधीय अववायउस्सग्गं ॥ अभिन्न प्रलंब ग्रहण करना नहीं कल्पता" - यह उत्सर्ग १. जैसे- कषाय आदि के सूत्र में एक क्रोधनिग्रह की बात है । किन्तु उसके आधार पर मान आदि अन्य कषायों के भी निग्रह की बात अर्थतः जान लेनी चाहिए। २. देखें बृहत्कल्प, पहला उद्देशक, सूत्र ५। बृहत्कल्पभाष्यम् सूत्र है। अपवादपद में भिन्न प्रलंब कल्पता है - यह अपवाद सूत्र है। श्रमणियों को पक्व विधिभिन्न प्रलंब कल्पता है यह अपवादीत्सर्गिक सूत्र है। (उत्सर्ग आपवादिक' उत्सर्ग औत्सर्गिक' । ३३२१. कत्थइ देसग्गहणं, कत्थति भण्णंति णिरवसेसाई । उक्कम-कमजुत्ताई, कारणवसतो णिजुत्ताई ॥ सूत्र में कहीं-कहीं अभिधेयपद का देशतः ग्रहण होता है और कहीं-कहीं अभिधेयपद का निरवशेष कथन होता है। कुछ सूत्र उत्क्रमयुक्त होते हैं, कुछ क्रमयुक्त होते हैं। ये सारे कारण विशेष के आधार पर रचे गए हैं। ३३२२. देसग्गहणे बीएहि सूयिया मूलमादिणो हुति । कोहादिअणिम्गहिया, सिंचंति भवं निरवसेसं ॥ सूत्र में देशग्रहण से तज्जातीय सभी का ग्रहण हो जाता है। बीजों के सूचित होने पर मूल आदि भी गृहीत होते हैं। सूत्र में निरवशेष अभिधेय का कथन-जैसे अनभिगृहीत क्रोध आदि संपूर्ण संसार का सिंचन करते हैं। ३३२३. सत्थपरिण्णादुक्कमे, गोयर पिंडेसणा कमेणं तु । जं पि य उक्कमकरणं, तमभिणवधम्ममादऽद्वा ॥ उत्क्रम सूत्र का उदाहरण है आचारांग सूत्र का पहला अध्ययन- शस्त्रपरिज्ञा (इसमें तेजस्काय के पश्चात् वनस्पति और उसकाय का निरूपण हुआ है। उसके पश्चात् वायुकाय का निरूपण है ।) । क्रम सूत्र का उदाहरण-'आठ गोचर भूमियां, सातपिण्डेषणाएं।' जो शस्त्रपरिज्ञा में उत्क्रम किया वह सप्रयोजन है जो अभिनवधर्मा शैक्ष मुनि हैं वे सहसा वायुकाय के जीवत्व को स्वीकार नहीं कर सकते। इसलिए पहले वनस्पति और त्रस जीवों की प्ररूपणा कर फिर वायुकाय की प्ररूपणा की गई है। ३३२४. बीएहि कंदमादी, वि सुविधा तेहिं सव्व वणकाओ। भोम्मादिगा वणेण तु समेद सारोवणा भणिता ॥ प्रस्तुत सूत्र में बीजों के ग्रहण से कन्द-मूल आदि भी सूचित होते हैं कन्द आदि से समस्त वनस्पतिकाय को सूचित किया गया है। वनस्पति से भौम आदि अर्थात् पृथ्वीकाय आदि कायों का ग्रहण है। इस प्रकार भेद-प्रभेद सहित छहों काय सारोपणा अर्थात प्रायश्चित्त सहित कड़े गए हैं। ३३२५. जत्थ उ देसग्गहणं, तत्थऽवसेसाइं मोत्तृणं अहिगारं, अण योगधरा ३-४. वही, तीसरा उद्देशक, सूत्र २१-२२ । ५-८. वही, पहला उद्देशक, सूत्र १,२,५,४२ । ९. वही, चौथा उद्देशक, सूत्र १२ । सूइयवसेणं । प्रभासंति ॥ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४१ दूसरा उद्देशक जहां देशग्रहण है वहां अवशिष्ट सारे पद सूचित हैं-ऐसा जानना चाहिए। कहीं-कहीं अनुयोगधर आचार्य अधिकारप्रस्तुत अर्थ को छोड़कर, सूत्रानुपाती प्रसंगवश आए हुए अर्थ का निरूपण करते हैं। ३३२६.उस्सग्गेणं भणियाणि जाणि अववादतो तु जाणि भवे। ___कारणजातेण मुणी!, सव्वाणि वि जाणितव्वाणि॥ जितने उत्सर्गसूत्र हैं या जितने अपवादसूत्र हैं, हे मुने! तुम उन सबको सकारण जानो। कारण का अर्थ है-प्रतिषिद्ध के आचरण का हेतु। सभी सूत्र उत्सर्ग और अपवाद-इन दोनों में निबद्ध हैं, ऐसा जानना चाहिए। (उत्सर्गसूत्र में साक्षात् उत्सर्ग विषय का निबंध है, अर्थ के आधार पर कारण में उसकी अनुज्ञा भी है। अपवादसूत्र में कारण के उल्लेखपूर्वक अपवाद विषय का निबंध है, अर्थ के आधार पर वहां भी उत्सर्ग ज्ञातव्य है।) ३३२७.उस्सग्गेण निसिद्धाइं जाई दव्वाइं संथरे मुणिणो। कारणजाते जाते, सव्वाणि वि ताणि कप्पंति॥ उत्सर्गरूप में संस्तरण के आधार पर जिन द्रव्यों के ग्रहण का मुनि के लिए निषेध है, वे ही द्रव्य 'कारणजात' अर्थात् विशुद्ध आलंबन के कारण सारे ग्रहण करने योग्य हो जाते हैं, लेने कल्पते हैं। ३३२८.जं चिय पए णिसिद्धं, तं चिय जति भूतो कप्पती तस्स। एवं होतऽणवत्था, ___ण य तित्थं णेव सच्चं तु॥ साधु के लिए जिसका ग्रहण पहले निषिद्ध किया गया था, यदि उसी का ग्रहण कल्पता है तो इस प्रकार अनवस्था दोष होता है। इससे न तो तीर्थ की अव्यवच्छित्ति होती है और न सत्य-संयम की आराधना होती है। ३३२९.उम्मत्तवायसरिसं, खु दंसणं ण वि य कप्पऽकप्पं तु। अध ते एवं सिद्धी, ण होज्ज सिद्धी उ कस्सेवं॥ __ भंते! आपका यह दर्शन उन्मत्तव्यक्ति के वाक्य सदृश है। तथा यहां यह कल्प्य है और यह अकल्प्य है-ऐसी व्यवस्था भी नहीं है। यदि इस प्रकार भी आपके अभिप्रेतार्थ की सिद्धि होती है तो वैसी प्रयोजन-सिद्धि किसके नहीं होती? असंबद्ध वचन कहने वाले चरक-परिव्राजकों के भी वह होती ही है। १. जैन शासन में जो मुनि समर्थ है उसके लिए अकल्प्य का प्रतिषेध है और जो असमर्थ है, उसके लिए वही विहित है। वैद्यक शास्त्र में भी कहा है उत्पद्येत हि साऽवस्था, देशकालाऽऽमयान् प्रति। यस्यामकार्य कार्य स्यात्, कर्म कार्यं च वर्जयेत्॥ ३३३०.ण वि किंचि अणुण्णायं,पडिसिद्धं वा वि जिणवरिदेहि। एसा तेसिं आणा, कज्जे सच्चेण होतव्वं ॥ आचार्य बोले-शिष्य! जिनेश्वरदेव ने कारण के अभाव में कुछ भी अकल्पनीय की अनुज्ञा नहीं दी और कारण में कुछ भी प्रतिषिद्ध नहीं किया है। तीर्थंकरों की यह आज्ञा है कि वास्तविक कारण के प्रसंग में सत्यदर्शी होना चाहिए, माया से कुछ नहीं करना चाहिए। ३३३१.दोसा जेण निरुब्भंति जेण खिज्जंति पुव्वकम्माइं। सो सो मोक्खोवाओ, रोगावत्थासु समणं वा॥ जिस अनुष्ठान से दोषों-राग आदि का निरोध होता है, जिससे पूर्व कर्मों का क्षय होता है, वह अनुष्ठान मोक्ष का उपाय है, जैसे रोगावस्था में उसके शमन के लिए किया जाने वाला अनुष्ठान। (इसी प्रकार उत्सर्ग में उत्सर्ग का और अपवाद में अपवाद का समाचरण करते हुए श्रमण के लिए वे मोक्ष के उपाय ही हैं।) ३३३२.अग्गीयस्स न कप्पइ, तिविहं जयणं तु सो न जाणइ। अणुन्नवणाए जयणं, सपक्ख-परक्खजयणं च॥ अगीतार्थ मुनि को बीजाकीर्ण उपाश्रय में रहना नहीं कल्पता क्योंकि वह तीनों प्रकार की यतना को नहीं जानता। तीन यतनाएं ये हैं-अनुज्ञापना यतना, स्वपक्ष यतना और परपक्ष यतना। ३३३३.निउणो खलु सुत्तत्थो, ण हु सक्को अपडिबोधितो णाउं। ते सुणह तत्थ दोसा, जे तेसिं तहिं वसंताणं॥ सूत्र का अर्थ निपुण अर्थात् सूक्ष्म होता है। इसलिए वह आचार्य आदि के द्वारा अप्रतिबोधित होने पर नहीं जाना जा सकता। अतः वे जब बीजाकीर्ण उपाश्रय में रहते हैं तब जो दोष होते हैं, वे मुझसे सुनो। ३३३४.अगीयत्था खलु साहू, णवरिं दोसे गुणे अजाणंता। रमणिज्जभिक्ख गामो, ठायंतऽह धण्णसालाए॥ अगीतार्थ मुनि वसति के दोषों और गुणों को न जानते हुए, भिक्षा के लिए यह गांव रमणीय है ऐसा मानकर धान्यशाला में ठहर जाते हैं। २. शिष्य ने पूछा-अगीतार्थ ने भी सूत्र पढ़े हैं, तो फिर वह क्यों नहीं जानता ? उसके समाधान में आचार्य एक श्लोक कहते हैं सत्स्वपि फलेषु यद्वन्न ददाति फलान्यकम्पितो वृक्षः। तद्वत् सूत्रमपि बुधैरकम्पितं नार्थवद् भवति॥ (वृ. पृ. ९३६) Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ बृहत्कल्पभाष्यम् ३३३५.रमणिज्जभिक्ख गामो, वह सागारिक भीतर नहीं जाता। अतः वहां जो धान्यठायामो इहेव वसहि झोसेह। परिशाटन आदि दोष होते हैं, उसे मुनि नहीं जानते। धण्णघराणुण्णवणा, ३३४१.ते तत्थ सण्णिविट्ठा, गहिया संथारगा जधिच्छाए। जति रक्खह देमु तो भंते!॥ णाणादेसी साधू, कासइ चिंता समुप्पण्णा॥ यह ग्राम भिक्षा के लिए रमणीय है, ऐसा सोचकर वहीं ३३४२.अणुहया धण्णरसा, णवरं मोत्तूण सेडगतिलाणं। रहने का मन बना लेते हैं। रहने के लिए वसति की खोज काहामि कोउहल्लं, पासुत्तेसुं समारो॥ करते हैं। वे एक धान्यगृह की अनुज्ञापना करते हैं। गृहस्वामी वे अगीतार्थ मुनि उस उपाश्रय में स्थित होकर अपनी कहता है-भंते! यदि आप मेरे धान्यगृह की रक्षा करेंगे तो मैं इच्छानुसार वहां संस्तारक ग्रहण करते हैं। साधु नानादेश यहां रहने की अनुज्ञा देता हूं, अन्यथा नहीं। वाले होते हैं। उन साधुओं में किसी के मन में चिंता उत्पन्न हो ३३३६.वसहीरक्खणवग्गा, कम्मं न करेमो णेव पवसामो। सकती है कि मैंने अनेक धान्यों के रस का अनुभव किया है, णिच्चिंतो होहि तुमं, अम्हे रत्तिं पि जग्गामो॥ स्वाद चखा है, परंतु अभी तक 'सेडगतिल' अर्थात् सफेद वह गृहस्वामी कहता है-हम इस धान्यशालारूप वसति। तिलों के स्वाद नहीं चखा है। मैं इस अभिलाषा को पूरी की रक्षा के लिए व्यग्र रहते हैं, कृषि आदि कर्म भी नहीं करूंगा। यह सोचकर अन्यान्य साधुओं के सो जाने पर वह करते और न कहीं प्रवास में जाते हैं। तब वे मुनि कहते उन तिलों को खाने लगा। हैं तुम निश्चिन्त रहो। हम रात्री में भी जागते रहेंगे। ३३४३.विगयम्मि कोउहल्ले, छट्ठवतविराहण त्ति पडिगमणं। ३३३७.जोतिस-णिमित्तमादी, छंदं गणियं व अम्ह साधेत्था। वेहाणस ओहाणे, गिलाण सेधेण वा दिट्ठो॥ अक्खरमादी डिंभे, गाधेस्सह अजतणा सुणणे॥ कुतूहल के मिट जाने पर अर्थात् इच्छा की पूर्ति हो जाने गृहस्वामी कहता है-ज्योतिष, निमित्त आदि तथा पर उस मुनि के मन में यह भावना जाग जाती है कि मैंने छंदशास्त्र, गणितशास्त्र-ये सब आप हमें बताएं। हमारे छठे व्रत की विराधना की है। यह सोचकर वह प्रतिगमन बालकों को अक्षरज्ञान भी आप कराएं।' गृहस्वामी के ऐसा कर देता है, गृहवास में चला जाता है। अथवा फांसी लगा कहने पर यदि मुनि उसे स्वीकार करते हैं तो यह अनुज्ञापना कर मर जाता है अथवा पलायन कर पार्श्वस्थ आदि हो जाता की अयतना है। है। अथवा तिल खाते हुए उस मुनि को ग्लान या शैक्ष देख ३३३८.अणुण्णवण अजतणाए, पउत्थ सागारिए घरे चेव। लेता है। तेसिं पि य चीयत्तं, सागारियवज्जियं जातं॥ ३३४४.दट्टण वा गिलाणो, खुधितो भुजेज्ज जा विराधणता। अनुज्ञापना की अयतना से साधुओं का उस धान्यगृह में एमेव सेधमादी, भुंजे अप्पच्चयो वा सिं॥ रह जाने पर गृहस्वामी कहीं प्रवास में चला जाता है। उसके ग्लान उस मुनि को तिल खाते हुए देखकर स्वयं भूख को घर चले जाने पर साधुओं को भी प्रसन्नता होती है कि शांत करने के लिए तिल खा लेता है। उससे ग्लान के अच्छा हुआ यह धान्यशाला सागारिकरहित हो गई। परितापना आदि विराधना होती है। इसी प्रकार शैक्ष मुनि भी ३३३९.तेसु ठिएसु पउत्थो, अच्छंतो वा वि ण वहती तत्तिं।। तिल खा लेते हैं। उनके मन में अप्रत्यय होता है, साधु-संघ जति वि य पविसितुकामो,तह वि य ण चएति अतिगंतुं। के प्रति अविश्वास उत्पन्न हो जाता है। ३३४०.संथारएहि य तहिं, समंततो आतिकिण्ण विइकिण्णं। ३३४५.उड्डाहं व करेज्जा, विप्परिणामो व होज्ज सेहस्स। सागारितो ण एती, दोसे य तहिं ण जाणाती॥ गेण्हतेण व तेणं, सव्वो पुंजो समारो॥ साधुओं के वहां स्थित होने पर सागारिक निश्चिन्त ३३४६.फेडिय मुद्दा तेणं, कज्जे सागारियस्स अतिगमणं। होकर प्रवास में चला जाता है अथवा वहां रहता हुआ भी केण इमं तेणेहिं, तेणाणं आगमो कत्तो॥ धान्य की चिन्ता नहीं करता। अथवा वह धान्य की सार- शैक्ष मुनि तिलखादक का उड्डाह करते हैं, वे विपरिणत संभाल करने वहां प्रवेश करना चाहता है, फिर भी वह वहां हो जाते हैं। वह तिलखादक मुनि तिल खाते-खाते सारा प्रवेश नहीं कर सकता क्योंकि वह वहां उपाश्रय में तिलपुंज खाने लगा। उसने तिलों पर लगी मुद्रा को मिटा संस्तारकों को चारों ओर अतिकीर्ण-एक के बाद एक बिछे डाला। उस दिन किसी प्रयोजनवश गृहस्वामी ने वहां प्रवेश हुए देखकर तथा व्यतिकीर्ण-अस्त-व्यस्त बिछे हुए देखकर किया। उसने तिलपुंज को विनष्ट देखकर पूछा। साधुओं ने १. झोसेह-देशीवचनत्वाद् गवेषयत। (वृ. पृ. ९३७ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक ३४३ कहा-चोरों ने इसे विनष्ट किया है। गृहस्वामी ने पूछा-चोरों का यहां आगमन कैसे हुआ? ३३४७.इहरा वि ताव अम्हं, भिक्खं व बलिं व गिण्हह ण किचिं। एण्हिं खु तारितो मी, गिण्हह छदेण जा अट्ठो॥ ३३४८.लहुगा अणुग्गहम्मी, अप्पत्तिग धम्मकंचुए गुरुगा। कडुग-फरुसं भणंते, छम्मासा करभरे छेदो॥ यदि गृहस्वामी भद्रक हो तो वह कहेगा-आप हमारे घर से भिक्षा अथवा बलि में बचे पदार्थों को ग्रहण करें। आपकी कृपा से मैं संसार सागर से तर जाऊंगा। अन्य वस्तु भी जो आपको चाहिए वह स्वेच्छापूर्वक ग्रहण करें। यदि भद्रक इस प्रकार अनुग्रह मानता है तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। यदि गृहस्वामी प्रान्त हो तो वह अप्रीति करता हुआ कहता है ये धर्मकंचुक में प्रविष्ट लुटेरे हैं। इसमें चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। वह कटुक-परुष भाषा बोलता है तो षड्गुरु और यदि वह कहता है-अब हमें 'श्रमणकर' का वहन करना पड़ेगा। इस स्थिति में छेद का प्रायश्चित्त आता है। ३३४९.मूलं सएज्झएसु, अणवठ्ठप्पो तिए चउक्के य। रच्छा-महापथेसु य, पावति पारंचियं ठाणं ।। यदि पड़ौसी यह जान ले कि श्रमणों ने तिल खाए हैं तो मूल और यदि तिराहों-चौराहों पर यह स्तेनवाद प्रसार पाता है तो अनवस्थाप्य और गलियों में तथा राजमार्ग पर यह प्रवाद फैलता है तो पारांचिक प्रायश्चित्त आता है। ३३५०. चोरु त्ति कडुय दुब्बोडितो त्ति फरुसं हतो सि पव्वावी!। समणकरो वोढव्वो, जातो णे करभरहताणं॥ 'तुम चोर हो'-यह कटुक वचन है। 'तुम-दुर्मुण्ड हो', हे प्रव्रजित! 'तुम तो मर चुके'-यह परुषवचन है। यदि शय्यातर कहता है-हम 'कर' के भार से मुक्त हैं, किन्तु अब हमें 'श्रमणकर' वहन करना पड़ेगा। (यह स्वपक्षविषयक अयतना है।) ३३५१.परपक्खम्मि अजयणा,दारे उ अवंगुतम्मि चउलहुगा। पिहणे वि होति लहुगा, जंते तसपाणघातो य॥ परपक्ष विषयक अयतना-द्वार को खुला रखने पर चतुर्लघु और द्वार को बंद न करने पर भी चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। द्वारयंत्र में त्रस प्राणियों की घात होती है। उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त आता है। ३३५२.गोणे य साणमादी, वारण लहुगा य जं च अधिकरणं। खरए य तेणए या, गुरुगा य पदोसओ जं च॥ उस उपाश्रय का द्वार खुला रहने पर गाय प्रवेश कर धान्य खाती है। कुत्ता आदि प्रवेश कर धान्य को बिखेर देता है या खाता है। उनका निवारण करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा उनका लौटते हए किए जाने वाले अधिकरण (हरितमर्दन आदि) से निष्पन्न प्रायश्चित्त भी आता है। शय्यातर के दास-दासी या चोर धान्य को चुराने के इच्छुक हों और उनको निवारित किया जाए तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। उनके प्रद्विष्ट होने पर जो अभ्याख्यान या परितापन आदि होता है, उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त भी आता है। ३३५३.तेसि अवारणे लहुगा, गोसे सागारियस्स सिम्मि। लहुगा य जं च जत्तो, असिढे संकापदं जं च॥ उनकी वर्जना न करने पर और प्रातःकाल गृहस्वामी को कहने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। तदनन्तर गृहस्वामी उन दास-दासियों को जो परितापना, वध-बंधन आदि करता है, उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। न कहने पर चतुर्लघु और साधुओं के प्रति शंका होती है, उसमें भी चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। ३३५४.तिरियनिवारण अभिहणण मारणं जीवघातो णासंते। खरिया छोभ विसाऽगणि, खरए पंतावणादीया।। पशुओं का निवारण करने पर वे साधु का अभिघात या मारण कर सकते हैं। वहां से पशु पलायन करते हुए जीवघात कर सकते हैं। दासी का निवारित करने पर वह क्षुब्ध होकर साधु पर झूठा आरोप लगा सकती है, विष दे सकती है, वसति को अग्नि लगा सकती है और दास यदि प्रद्विष्ट होता है तो प्रान्तापना आदि कर सकता है। ३३५५.आसन्नो य छणूसवो, कज्जं पि य तारिसेण धण्णेणं। तेणाण य आगमणं, अच्छह तुण्हिक्कका तेणा॥ चोरों के कोई क्षण (एक दैवसिक उत्सव) अथवा उत्सव (बहुदैवसिक उत्सव) सन्निकट है। उनको वैसे धान्य की आवश्यकता है, जो उस धान्यगृह में है। चोरों का आगमन होता है। यदि साधु कहे कि चोर आए हैं-ऐसे कहना नहीं कल्पता। चोर आकर साधुओं को कहते हैं-मौन बैठे रहो, अन्यथा हम तुमको मार डालेंगे। ३३५६.गहियं च णेहिं धण्णं, घेत्तूण गता जहिं सि गंतव्वं । सागारिओ य भणती, सउणी वि य रक्खए णेई॥ ऐसा कहकर चोरों ने धान्य ले लिया। धान्य लेकर उन्हें जहां जाना था, वहां चले गए। प्रातः सागारिक गृहस्वामी आया और बोला-भंते! पक्षी भी अपने नीड की रक्षा करता है, आपने इतना भी नहीं किया, धान्य की रक्षा भी नहीं की। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ ३३५७.रासी ऊणे द8, सव्वं णीतं व धण्णखेरि वा। केण इमं तेणेहिं, असिढे भइतर इमं तु॥ गृहस्वामी ने धान्यराशि को न्यून देखकर सारा धान्य अपहृत हो गया है यह सोचकर अथवा धान्य की खेरी अर्थात् बिखराव को देखकर साधुओं को पूछता है-धान्य कौन ले गया ? साधु बोले-चोर। (यदि चोरों की पहचान बताते हैं तो ग्रहण-आकर्षण आदि दोष होते हैं। यदि साधु कुछ नहीं बताते तो साधुओं पर ही चोरी की शंका होती है। यदि प्रान्त हो तो उसमें अप्रीति आदि दोष होते हैं। ३३५८.लहुगा अणुग्गहम्मि, गुरुगा अप्पत्तियम्मि कायव्वा। __कडुग-फरुसं भणंते, छम्मासा करभरे छेदो॥ यदि गृहस्वामी भद्रक हो तो वह कहेगा आप हमारे घर से भिक्षा अथवा बलि में बचे पदार्थों को ग्रहण करें। आपकी कृपा से मैं संसार सागर से तर जाऊंगा। अन्य वस्तु भी जो आपको स्वेच्छापूर्वक चाहिए वह ग्रहण करें। यदि भद्रक इस प्रकार अनुग्रह मानता है तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। यदि गृहस्वामी प्रान्त हो और वह अप्रीति करता है तो इसमें चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। वह कटुक-परुष भाषा बोलता है तो षड्गुरु और यदि वह कहता है-अब हमें 'श्रमणकर' का वहन करना पड़ेगा। इस स्थिति में छेद का प्रायश्चित्त आता है। ३३५९.मूलं सएज्झएसु, अणवठ्ठप्पो तिए चउक्के य। रच्छा-महापहेसु य, पावति पारंचियं ठाणं॥ यदि पड़ौसी यह जान ले कि श्रमणों ने तिल खाए हैं तो मूल और यदि तिराहों-चौराहों पर यह स्तेनवाद प्रसार पाता है तो अनवस्थाप्य और गलियों में तथा राजमार्ग पर यह प्रवाद फैलता है तो पारांचिक प्रायश्चित्त आता है। ३३६०.एगमणेगे छेदो, दिय रातो विणास-गरहमादीया। जं पाविहिंति विहणिग्गतादि वसधिं अलभमाणा॥ यदि सागारिक प्रद्विष्ट हो जाता है तो वह एक साधु अथवा अनेक साधुओं के लिए द्रव्यों का व्यवच्छेद कर देता है। अथवा उनको दिन में या रात में निष्काशित कर देता है। उससे स्तेन तथा श्वापदों द्वारा विनाश होता है। लोगों से गर्दा प्राप्त होती है। अध्वनिर्गत होने पर, कहीं वसति न मिलने पर आत्मविराधना आदि होती है। (ये सारे अगीतार्थ मुनि के दोष हैं।) ३३६१.गीयत्थेसु वि एवं, णिक्कारण कारणे अजतणाए। कारणे कडजोगिस्सा, कप्पति तिविहाए जतणाए। गीतार्थ मुनि निष्कारण धान्यशाला में रहते हैं और कोई यतना नहीं रखते तो वे भी इन दोषों के भागी होते हैं। यदि बृहत्कल्पभाष्यम् कृतयोगी अर्थात् गीतार्थ मुनि धान्यशाला में रहे तो तीन प्रकार की यतनाओं सहित रहना कल्पता है। ३३६२.निक्कारणम्मि दोसा, पडिबद्धे कारणम्मि निद्दोसा। ते चेव अजतणाए, पुणो वि सो लग्गती दोसे॥ धान्यप्रतिबद्ध गृह में निष्कारण रहने पर ये दोष होते हैं। कारणवश यतनापूर्वक रहने पर निर्दोष हैं। कारणवश रहकर यदि यतना नहीं करते हैं तो पूर्वोक्त दोष प्राप्त होते हैं। ३३६३.अद्धाणनिग्गतादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असतीए। गीतत्था जतणाए, वसंति तो धण्णसालाए। अध्वनिर्गत मुनि तीन बार विशुद्ध वसति की मार्गणा करने पर भी यदि वसति प्राप्त नहीं होती है तब गीतार्थ मुनि धान्यशाला में रहते हैं। ३३६४.तुस-धन्नाई जहियं, णिप्परिसाड-परिसाडगाइं वा। तेसु पढमं तु ठायति, तेसऽसती दंतखज्जेसु॥ जिन स्थानों में तुषधान्य (वीही-यव आदि) परिशाटित या अपरिशाटित हों, पहले उस उपाश्रय में रहते हैं। वैसे उपाश्रय यदि नहीं मिलते हैं तो दंतखाद्य अर्थात् तिल आदि के धान्यगृहों में रहते हैं। ३३६५.ण वि जोइसं ण गणियं, ण अक्खरे ण वि य किंचि रक्खामो। अप्पस्सगा असुणगा, भातणखंभोवमा वसिमो॥ (गृहस्वामी यदि कहे कि आप हमारे बच्चों को अक्षरज्ञान, ज्योतिष आदि सिखायेंगे, घर की सार-संभाल करेंगे तो हम आपको वसति देंगे।) ऐसा कहने पर साधु उसे कहे-हम न ज्योतिष, न गणित और न अक्षरज्ञान सिखायेंगे और न घर की रक्षा करेंगे। हम आपके घर में भाजन और स्तंभ के सदृश होकर रहेंगे तथा हम अपश्यक और अश्रोता बनकर रहेंगे। यदि गृहस्वामी स्वीकार करे तो उस स्थान में रहा जा सकता है। ३३६६.निकारणम्मि एवं, कारणे दुलभे भणंतिम वसभा। अम्हे ठितेल्लग च्चि, अधापवत्तं वहह तुब्भे॥ कारण के अभाव में भी वहां रह सकते हैं। कारण में यदि शुद्ध वसति दुर्लभ हो तो धान्यशाला में रहते हुए वृषभ गृहस्वामी को कहते हैं-हम यहां स्थित हैं ही, आप भी. यथाप्रवृत्त अपना कार्य करते रहें तो हमें कोई आपत्ति नहीं है। ३३६७.आमं ति अब्भुवगते, भिक्ख-वियारादि णिग्गत मिएसु। भणति गुरू सागारिय, णाउं जे कत्थ किं धण्णं॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक यदि गृहस्वामी इसे स्वीकार करता है तो वहां रहे। साथ वाले साधु यदि मृग-अगीतार्थ हों और वे यदि भिक्षाचर्या और विचारभूमी के लिए बाहर गए हुए हों तो गुरु आचार्य उस गृहस्वामी से यह जानकारी लेते हैं कि कहां कौन सा धान्य है। ३३६८.सालीणं वीहीणं, तिल-कुलत्थाण मुग्ग-मासाणं। दिट्ठ मए सण्णिचया, अण्णे देसे कुटुंबीणं॥ ३३६९.एवं च भणितमित्तम्मि कारणे सो भणाति आयरियं। अत्थि महं सण्णिचया, पेच्छह णाणाविहे धण्णे॥ ३३७०.उवलक्खिया य धण्णा, संथाराणं जहाविधि ग्गहणं। जो जस्स उ पाउग्गो, सो तस्स तहिं तु दायव्यो। आचार्य कहते हैं-शाली, व्रीही, तिल, कुलत्थ, मूंग और उड़द-इन धान्यों का अन्य देश में हमने कृषकों के घर में देर देखे हैं। इस प्रकार आचार्य के कहने मात्र से वह गृहस्वामी आचार्य को कहता है मेरे यहां भी धान्य के देर हैं। उनमें आप नाना प्रकार के धान्यों को देखें। आचार्य ने धान्यों के ढ़ेरों को देख लिया। मुनियों के लिए यथाविधि संस्तारकों की व्यवस्था कर ली। जिस मुनि के लिए जो स्थान उपयुक्त हो, उसको वही स्थान दे दिया जाता है। ३३७१.निक्खम-पवेसवज्जण, दूरेण अभाविया तु धण्णाणं। धण्णंतेण परिणता, चिलिमिणि दिवरत्तऽसुण्णं तु॥ जहां गृहस्वामी धान्य लेने के लिए आता-जाता है, उस स्थान को छोड़कर साधुओं को बैठना-सोना चाहिए। अभावित मुनियों को धान्य से दूर रखना चाहिए। जो परिणत हैं वे धान्य के निकट रह सकते हैं। बैठने के स्थान तथा धान्यस्थान के बीच चिलिमिली बांधनी चाहिए। गीतार्थ और परिणामक मुनि दिन-रात, धान्यगृह को अशून्य करते हुए, रह सकते हैं। ३३७२.ते तत्थ सन्निविट्ठा, गहिया संथारगा विहीपुव्वं । जागरमाण वसंती, सपक्खजतणाए गीयत्था॥ ३३७३. ठाणं वा ठायंती, णिसिज्ज अहवा सजागर सुवंति। बहुसो अभिहवेंते, वयणमिणं वायणं देमि॥ वे मुनि वहां रहते हुए विधिपूर्वक संस्तारक ग्रहण करते हैं। गीतार्थ मुनि स्वपक्षयतना के लिए जागते हुए सोते हैं। अथवा वे कायोत्सर्ग करते हैं या बैठे-बैठे सूत्रार्थ की अनुचिंतना करते हैं या जागते हुए शयन करते हैं। यदि कोई मुनि बार-बार धान्य कणों का संघट्टन करता है तो आचार्य उसे कहते हैं-उठो, मैं वाचना दूंगा। ३३७४.फिडियं धण्णटुं वा, जतणा वारेति न उ फुडं बेति। मा णं सोही, अण्णो, णित्थक्को लज्ज गमणादी॥ रात्री में द्वार से भटक गए मुनि को अथवा धान्यभक्षी मुनि का आचार्य यतनापूर्वक वारण करते हैं, परुष वचनों में उपालंभ नहीं देते। क्योंकि दूसरा मुनि कोई सुन न ले, और वह दूसरों को न बता दे। इससे वह मूल मुनि लज्जित न हो तथा वह लज्जा से पलायन आदि न कर दे। ३३७५.दारं न होइ एत्तो, णिहामत्ताणि पुंछ अच्छीणि। भण जं व संकियं ते, गिण्हह वेरत्तियं भंते!॥ द्वार से भटके मुनि को कहे-आर्य! यह द्वार नहीं है। तुम निद्रा प्रमाद में हो, आंखें पौंछों और उनको खोलो। यदि तुम्हारे मन में सूत्र और अर्थ के प्रति कोई शंका हो तो बताओ, हम उसका निराकरण करेंगे। भंते-आर्य! वैरात्रिक काल ग्रहण करो, फिर स्वाध्याय करेंगे। (यह स्वपक्षयतना है।) ३३७६.परपक्खम्मि वि दारं, पिहंति जतणाए दो वि वारेति। तह वि य अठायमाणे, उवेह पुट्ठा व साहिति॥ परपक्ष यतना यह है-उपाश्रय में गाय आदि के प्रवेश की संभावना से यतनापूर्वक द्वार बंद करना चाहिए। तिर्यंच और मनुष्य प्रवेश कर रहे हों तो उनका निवारण करना चाहिए। फिर भी यदि वे धान्य को ग्रहण करने से उपरत न होते हों तो साधुओं को उपेक्षा करनी चाहिए। गृहस्वामी के पूछने पर साधु बता दें कि धान्य का अपहरण किसने किया है? ३३७७.पेहिय पमज्जिया णं, उवओगं काउ सणिय ढक्वेति। तिरिय णर दोन्नि एते, खर-खरि पुं-थी णिसिट्टितरे॥ पहले द्वार की आंखों से प्रत्युपेक्षा करे, फिर रजोहरण से उसका प्रमार्जन करे और उपयोगपूर्वक उस द्वार को ढंक दे। पशु और मनुष्य अथवा दास-दासी अथवा पुरुष और स्त्री, अथवा निसृष्ट-शय्यातर द्वारा जिसका प्रवेश अनुज्ञात है, अनिसृष्ट-जिसका प्रवेश अनुज्ञात नहीं है-ये यदि उस धान्यशाला से धान्यग्रहण करें तो उनकी वर्जना करनी चाहिए। ३३७८.गेण्हतेसु य दोसु वि, वयणमिणं तत्थ बिंति गीयत्था। बहुगं च णेसि धण्णं, किं पगतं होहिती कल्लं॥ धान्यग्रहण करने वाले स्त्री-पुरुष दोनों को देखकर गीतार्थ मुनि उनको यह वचन कहे-तुम बहुत सारा धान्य ले जा रहे हो, क्या कल कोई प्रकृत-प्रकरण अर्थात् जीमनवार होगा? ३३७९.नीसढेसु उवेहं, सत्थेण व तासिता उ तुण्हिक्का। बहुसो भणाति महिलं, जह तं वयणं सुणति अण्णो॥ यदि निसृष्ट अर्थात् आक्रांतिक चोर धान्य को चुराते हों तो उनकी उपेक्षा करे। शस्त्रों के द्वारा त्रस्त किए जाने पर Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ बृहत्कल्पभाष्यम् मुनि मौन रखें। यदि महिलाएं धान्य चुरा रही हों तो उनको इस प्रकार कहें कि दूसरे भी उन वचनों को सुन सकें। ३३८०.साहूणं वसहीए, रत्तिं महिला ण कप्पती एंती। बहुगं च णेसि धण्णं, किं पाहुणगा विकालो य॥ साधुओं के वसति में-उपाश्रय में रात्री में महिलाओं का आना नहीं कल्पता। तुम यहां से बहुत धान्य ले जा रही हो तो क्या मेहमान आ गए हैं। अथवा अभी विकाल बेला है अतः अभी धान्य ले जाने का समय नहीं है। ३३८१.तेणेसु णिसट्टेसुं, पुव्वा-ऽवररत्तिमल्लियंतेसु। तेणबियरक्खणट्ठा, वयणमिणं बेति गीतत्था॥ ३३८२.जागरह नरा! णिच्चं, जागरमाणस्स वडते बुद्धी। जो सुवति ण सो धण्णो,जो जग्गति सो सया धण्णो॥ उपाश्रय में ही पूर्वरात्र या अपरात्र में छिपे हुए निसृष्ट चोरों से धान्य की रक्षा करने के लिए गीतार्थ मुनि उच्च स्वरों में ये वचन कहेंगे-हे मनुष्यो! जागो, प्रतिदिन जागरूक रहो। जो जागता है उसकी बुद्धि बढ़ती है। जो सोता है वह धन्य नहीं होता। ज्ञानादि के योग्य नहीं होता। जो जागता है, वह सदा धन्य है। ३३८३.सीतंति सुवंताणं, अत्था पुरिसाण लोगसारत्था। तम्हा जागरमाणा, विधुणध पोराणयं कम्म॥ सोने वाले पुरुषों के अर्थ-ज्ञान आदि जो तीनों लोक में सारभूत हैं, वे क्षीण हो जाते हैं। इसलिए जागते रहते हुए पुरातन कर्मों को नष्ट कर डालो। ३३८४.सुवति सुवंतस्स सुतं, संकित खलियं भवे पमत्तस्स। जागरमाणस्स सुतं, थिर-परिचितमप्पमत्तस्स। जो सोता है उसका श्रुत भी सो जाता है, विस्मृत हो जाता है। जो प्रमत्त होता है उसका श्रुत शंकित तथा स्खलित हो जाता है। जो जागता है तथा जो अप्रमत्त रहता है उसका श्रुत स्थिर और परिचित रहता है। ३३८५.नालस्सेण समं सुक्खं, न विज्जा सह निद्दया। न वेरग्गं ममत्तेणं, नारंभेण दयालुया। जहां आलस्य है वहां सुख नहीं है। जहां निद्रालुता है वहां विद्या नहीं है। जहां ममत्व है वहां वैराग्य नहीं है और जहां आरंभ-हिंसा है, वहां दयालुता नहीं है। १. वत्स जनपद में कौशांबी नगरी का राजा शतानीक था। उसकी बहिन का नाम था जयंती। वह परम श्राविका थी। एक बार भगवान् वर्द्धमान वहां पधारे। जयंती ने भगवान से पूछा-भंते! सोना अच्छा है या जागना? भगवान् ने कहा-जयंती! धार्मिक ३३८६.जागरिया धम्मीणं, आहम्मीणं च सुत्तया सेया। वच्छाहिवभगिणीए, अकहिंसु जिणो जयंतीए॥ धार्मिक व्यक्तियों की जागरिका श्रेयस्करी है. और अधार्मिक व्यक्तियों की सुप्तता श्रेयस्करी है। इस प्रकार जिनेश्वरदेव ने वत्स जनपद के अधिपति शतानीक की बहिन जयन्ती को कहा था।' ३३८७.सुवइ य अयगरभूओ सुयं च से नासई अमयभूयं। होहिइ गोणब्भूओ, नट्ठम्मि सुए अमयभूए।। जो अजगर की भांति निश्चिंत होकर सोता है, उसका अमृतमय श्रुत नष्ट हो जाता है। अमृतमय श्रुत के नष्ट हो जाने पर वह बैल के सदृश हो जाता है। ३३८८.तासेऊण अवहिए, अचेइय हिए व गोसि साहति। जाणंता वि य तेणं, साहंति न वन्न-रूवेहिं। चोरों ने साधुओं को डरा धमका कर धान्य का अपहरण कर लिया। अनाक्रान्तिक चोर आए। साधुओं को ज्ञात नहीं हुआ। वे भी धान्य लेकर चले गए। प्रातःकाल शय्यातर को कहा-चोर धान्य लेकर चले गए। उसने पूछा-कौन थे वे? चोरों को जानते हुए भी मुनि उनके रूप-वर्ण की कुछ भी पहचान न बताएं। ३३८९.सुण सावग! जं वत्तं, तेणाणं संजयाण इह अज्ज। तेणेहिं पविट्ठहिं, जाहे नीएक्कसिं धन्न। ३३९०.ताहे उवगरणाणिं, भिन्नाणि हियाणि चेव अन्नाणि। हरिओवही वि जाहे, तेणा न लभंति ते पसरं।। ३३९१.गहियाऽऽउह-प्पहरणा, जाधे वधाए समुट्ठिया अम्हं। नत्थि अकम्मं ति ततो, एतेसि ठिता मु तुण्हिक्का॥ शय्यातर को आचार्य कहते हैं-श्रावक! यहां आज चोरों और साधुओं के मध्य जो हुआ, उसे तुम सुनो। चोर इस धान्यगृह में प्रविष्ट हुए और जब उन्होंने धान्य बाहर निकाला तब हमारे कुछेक उपकरणों को फाड़ डाला और कुछेक उपकरणों का हरण कर लिया। जब वे दूसरी बार धान्य चुराने आए तब उपधिहारक उन चोरों को हमने रोका तब वे अपने आयुध और प्रहरण से हमारे वध के लिए तत्पर हो गए और कहा-'श्रमणो! मौन बैठे रहो। अन्यथा हम सबको मार डालेंगे।' तब हमने सोचा-'इन पापियों के लिए कुछ भी अकार्य नहीं है। इसलिए हम मौन रहे।' व्यक्तियों का जागना अच्छा है, सोना अच्छा नहीं है और अधार्मिक व्यक्तियों का सोना अच्छा है, जागना अच्छा नहीं है। (भगवती १२ उ.२) Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक ३३९२. सेज्जायरो य भणती, अण्णं धण्णं पुणो वि होहिति णे । एसो अणुग्गहो मे, जं साधु ण दुक्खविओ को वि॥ शय्यातर बोला- हमारे धान्य की प्राप्ति और भी हो जाएगी। मेरे पर यह महान् अनुग्रह हुआ है कि आपके किसी भी मुनि को चोरों ने दुःख नहीं दिया, पीड़ित नहीं किया । वा अह पुण एवं जाणेज्जा -नो रासिकडाई नो पुंजकडाई नो भित्तिकडाई नो कुलियकडाई, कोद्वाउत्ताणि पल्लाउत्ताणि वा मंचाउत्ताणि वा मालाउत्ताणि वा ओलित्ताणि वा लित्ताणि वा 'लंछियाणि वा मुद्दियाणि वा पहियाणि वा', कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा वासावासं वत्थए । (सूत्र ३) ३३९३. कोट्ठात्ता य जहिं, पल्ले माले तधेव मंचे य। ओलित्त पहिय मुद्दिय, एरिसए ण कप्पती वासो ॥ जिस उपाश्रय में कोष्ठागुप्त, पल्यागुप्त, मालागुप्त, मञ्चागुप्त, अवलिप्त, पिहित, मुद्रित, लिप्त या लांछित - इस रूप में धान्य हों तो इस प्रकार के उपाश्रय में रहना कल्पता है। ३३९४. छगणादी ओलित्ता, लित्ता मट्टियकता उ ते चेव । कोट्ठियमादी पिहिता, लित्ता वा पल्ल- कडपल्ला ॥ ३३९५. आलिंपिऊण जहि अक्खरा कया लंछियं तयं विंति । जहियं मुद्दा पडिया, होति तगं मुद्दियं धण्णं ॥ जिस धान्य कोठे के द्वार गोबर आदि से लिप्त हों वे अवलिप्स और जो मिट्टी से खरंटित हों वे लिप्त, जिसके कपाट ढंके हुए हो वह पिहित है। पल्य और कटपल्य लिस होते हैं। अवलिप्स कर जहां अक्षर लिखे हैं वह लांछित कहलाता है जो मुद्रायुक्त होता है वह धान्य मुद्रित कहलाता है। ३३९६. उडुबद्धम्म अतीए, वासावासे उवतेि संते। ठायंतगाण लहुगा, कास अगीयत्थ सुत्तं तु ॥ ऋतुबद्ध काल के बीत जाने पर तथा वर्षावास का काल उपस्थित हो जाने पर कोष्ठागुप्त आदि धान्ययुक्त उपाश्रय में रहने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। १. पल्य से कटपल्य बड़ा होता है। ३४७ यह प्रायश्चित्त अगीतार्थ के लिए है। प्रस्तुत सूत्र गीतार्थ विषयक है। ३३९७. अणुभूता धण्णरसा, नवरं मुत्तूण गंधसालीणं । काहामि कोउहल्लं, बेरीए परंपणं भणियं ॥ धान्यगृह में रहते हुए किसी मुनि के मन में यह इच्छा हो सकती है- 'मैंने अनेक धान्यों के रस स्वाद चखें हैं, परन्तु गंधशाली का स्वाद कभी नहीं चखा। मैं अपना कुतूहल पूरा करूंगा' यह सोचकर वह गंधशाली निकाल कर किसी स्थविरा को रांधने के लिए देता है, कहता है-इसे पकाकर लाओ । ३३९८. इहरा कहासु सुणिमो, इमे हु ते कलमसालिणो सुरभी। थोवे वि णत्थि तित्ती, को य रसो अण्णमण्णाणं ॥ इससे पूर्व तक हम कलमशाली की बात कथाओं में सुनते आए हैं कि वे सुरभिमय होते हैं। आज तो ये प्रत्यक्ष हैं। थोड़े से इनसे तृप्ति नहीं होगी । अन्योन्यमिश्रित इनका स्वाद कैसा होता है, यह जानना चाहिए। (उस मुनि ने पल्य से शाली को निकाल कर स्थविरा श्राविका को दिया। वह पकाकर मुनि को देती। उनके स्वाद से अभिभूत मुनि प्रतिदिन ऐसा करने लगा ।) ३३९९. निग्घोलियं च पल्लं कज्जे सागारियस्स अतिगमणं । सागारिओ विसन्नो, भीतो पुण पासए कूरं ॥ ३४००, सो भइ कओ लन्दो, एसो अहं खु लखिसंपन्नो । ओभावणं व कुज्जा, पिरत्यु ते एरिसो लाभो ॥ इस प्रकार मुनि ने एक पल्य खाली कर दिया। किसी कार्यवश गृहपति वहां आया। वह शाली को खाली देखकर विषण्ण हो गया। उसे चोरों का भय लगा घूमते-घूमते उसने साधु को शालिकूर लाते देखा । गृहस्वामी ने पूछा- यह शालिकर कहां से मिला? एक साधु ने कहा- हमारा यह साधु लब्धिसंपन्न है । प्रतिदिन यह ऐसा शालिकूर लाता है। तब गृहस्थ बोला- धिक्कार है तुम्हारे ऐसे लाभ से । वह लोगों में उस मुनि का उल्लाह करता है उससे अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। ३४०१. हर वि ताव अम्हं, भिक्ख व बलिं व गिण्डड न किंचि । इण्डिं खु तारिओ मिं, ठवेमि अन्ने विजा धन्ने ॥ यदि गृहस्वामी भद्रक हो तो वह कहेगा आप हमारे घर से भिक्षा अथवा बलि में बचे पदार्थों को ग्रहण करें। आपकी Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ कृपा से मैं संसार सागर से तर जाऊंगा में और भी धान्य की प्राप्ति कर लूंगा। उवस्सए वियड पदं उवस्सयस्स वगडाए अंतो सुरावियडकुंभे वा सोवीरयवियडकुंभे वा उवनिक्खित्ते सिया, नो कप्पइ निम्गंधाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए । हुरत्या य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसति, से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ (सूत्र ४) ३४०२. पगयं उवस्सएहिं, वाघाया तेसि होंति अन्नोन्ना । साहारण पत्तेगा, जा पिंडो एस संबंधो ॥ यहां उपाश्रय का अधिकार चल रहा है। उन उपाश्रयों के व्याघात अर्थात् दोष अन्योन्य- अपरापर होते हैं उनमें जहां अल्पतर दोष हों वहां रहना चाहिए, इसकी सूचना देने के लिए साधारण सूत्र और प्रत्येक सूत्र का आरंभ किया जाता है। पिंडसूत्र (२१८) पर्यन्त इसका संबंध है। ३४०३. सालुच्छूहि व कीरति, विगडं भुत्त तिसितोदयं पिबति । आहारिमम्मि दोसा, जह तह पिज्जे वि जोगोऽयं ॥ शाली, इक्षु आदि से विकट - मद्य का निर्माण होता है । इसलिए धान्यसूत्र के पश्चात् विकटसूत्र का उपन्यास किया गया है। शालिकर आदि खाने के पश्चात् तृषा लगती है। प्यास लगने पर पानी पीया जाता है। अतः उदकसूत्र का न्यास है अथवा आहारिम-तिल आदि खाने से जो दोष होते हैं, वैसे ही मद्य आदि पीने से भी दोष होते हैं। अतः उनसे प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहना नहीं कल्पता । , ३४०४. देसीभासाह कयं जा बहिया सा भवे हुरत्या उ बंधऽणुलोमेण कयं परिहारो होइ पुव्वं तु ॥ 'हुरत्था' शब्द देशीभाषा में बाह्य अर्थ में प्रतिबद्ध है। विवक्षित उपाश्रय के बहिर्वर्ती वगडा को 'हुरत्था' कहा जाता हैं। बन्धानुलोमता से परिहारपद से पूर्व छेदपद है। १. वृत्तिकार ने यहां गाथा ३३४८ से ३३९२ की गाथाओं पर्यन्त ग्रहण करने की बात कही है। (बृ. पृ. ९५१) बृहत्कल्पभाष्यम् ३४०५. अहवण वारिज्जतो, निक्कारणओ व तिण्ह व परेणं । छेयं चिय आवज्जे छेयमओ पुव्यमाहंसु ॥ अथवा विकटयुक्त उपाश्रय में रहने की वर्जना करने पर भी यदि कोई निष्कारण ही तीन दिनरात से अधिक रहता है, तो छेद प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इसलिए छेदपद पहले कहा गया है। ३४०६. पिट्ठेण सुरा होती, सोवीरं पिट्ठवज्जियं जाणे । ठायंतगाण लहुगा, कास अगीयत्थ सुत्तं तु ॥ जो मद्य व्रीही आदि के पिष्ट से तैयार होता है उसे सुरा कहते हैं। जो बिना पिष्ट के केवल द्राक्षा, खजूर आदि से तैयार होता है उसे सौवीर कहते हैं ये दोनों जिस उपाश्रय में हो, वहां रहने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। यह प्रायश्चित्त गीतार्थ के लिए है। प्रस्तुत सूत्र गीतार्थ विषयक है। ३४०७. अणुभूआ मज्जरसा णवरिं मुत्तृणिमेसि मज्जाणं । काहामि को उहल्लं, पासुत्तेसुं समारदो ॥ वहां रहने वाले किसी साधु के मन में यह विचार उत्पन्न होता है कि मैंने मद्यरसों का अनुभव किया है, किन्तु इन मधरसों का मैंने कभी अनुभव नहीं किया, अतः मैं अपने कुतूहल को पूरा करूंगा। यह सोचकर जब अन्य मुनि सो गए तब उसने मद्यपान करना प्रारंभ कर दिया। ३४०८. इहरा कहासु सुणिमो, इमं खु तं काविसायणं मज्जं । पीते वि जायति सती, तज्जुसिताणं किमु अपीते ॥ इतने दिनों तक हम 'कापिशायन' नामक मद्य की बात कथाओं से सुनते थे। यह वही मद्य है। जिन्होंने गृहवास में यह मद्य पीया है, उनको भी इस मद्य को पीने पर स्मृति हो सकती है, बिना पीए नहीं। ३४०९. विगयम्मि कोउहल्ले, छट्टवयविराहण त्ति पडिगमणं । वेहाणस ओहाणे, गिलाणसेहेण वा दिट्ठो ॥ कुतूहल के मिट जाने पर अर्थात् इच्छा की पूर्ति हो जाने पर उस मुनि के मन में यह भावना जाग जाती है कि मैंने छठे व्रत की विराधना की है। यह सोचकर वह प्रतिगमन कर देता है, गृहवास में चला जाता है। अथवा फांसी लगा कर मर जाता है अथवा पलायन कर पार्श्वस्थ आदि हो जाता है। अथवा विकटपान करते हुए उस मुनि को ग्लान या शैक्ष देख लेता है। ३४१०, उड्डाहं व करिज्जा, विप्परिणामो व हुज्ज सेहस्स । गिण्हतेण व तेणं खंडिय विछे व भिन्ने वा ॥ २. साधारणसूत्र वह है जिसमें अनेक पद होते हैं, जैसे-विकटसूत्र, उदकसूत्र, पिंडसूत्र आदि । प्रत्येक सूत्र वह है जिसमें एक ही पद होता है, जैसे-प्रदीपसूत्र, ज्योतिःसूत्र आदि । www.jainelibrary.arg Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक शैक्ष यदि मुनि को विकटपान करते हुए देख लेता है तो वह उड्डाह करता है अथवा वह विपरिणत हो जाता है। विकटपान करने वाला मुनि विकटभाजन को ग्रहण करते हुए या रखते हुए उस भाजन को तोड़ देता है, उसके छेद कर देता है अथवा उसके टुकड़े कर देता है ये सारी क्रियाएं हो सकती हैं। ३४११. आमं ति अब्भुवगए, भिक्ख वियाराइनिग्गयमिएसु । भाइ गुरू सागारिय, कहि मज्जं जाणणडाए ॥ विकटपूरित उपाश्रय में यदि शय्यातर रहने की अनुज्ञा देता है तब आचार्य अपने अगीतार्थ मुनियों के भिक्षा के लिए या विचारभूमी में निर्गत हो जाने पर, मद्य कहां है ? यह जानने के लिए आचार्य सागारिक से कहते हैं३४१२. गोडीणं पिट्टीणं, वंसीणं चेव फलसुराणं च । दि मए सन्निचया अन्ने देखे कुटुंबीणं ॥ दिट्ठ हमने अन्य देश में एक कौटुम्बिक के घर पर गौड़ीन-गुडनिष्पन्न मदिरा, पैष्टी-व्रीही आदि धान्य से निष्पन्न मदिरा, वांशी-वंशकरीर से निष्पन्न मदिरा, फलसुरा-फलों से निष्पन्न मदिरा आदि इन मदिराओं का संचय देखा है। ( इतना कहने मात्र से वह सामारिक आचार्य को कहता है - मेरे पास भी विविध मदिराओं का महान् संचय है। आप उसको भी देखें।) ३४१३. गहियम्मि वि जा जयणा, गेलने अधव तेण गंधेणं । सागारियादिगहणं, णेयव्वं लिंगभेयाई ॥ शैक्ष के द्वारा विकट पीने पर जो यतना करनी है उसका कथन करना चाहिए। ग्लान के लिए अथवा उस विकट के गंध से जो अध्युपपन्न हो गया हो, उसके लिए सागारिक से या श्रावक से विकट का ग्रहण करना चाहिए। यदि स्वलिंग से प्राप्त न हो तो लिंगभेद आदि कर उसे प्राप्त करना चाहिए। ३४१४. पीयं जया होज्जऽविगोविएणं, तत्थाऽऽणइत्ताण रसं छुभंति । भिन्ने उ गोणादिपए करेंति, तेसिं पवेसस्स उ संभवम्मि ।। यदि कोई अकोविद मंदबुद्धिवाला शैक्ष विकट पी लेता है तब गीतार्थ मुनि उस विकटभाजन में इक्षुरस आदि डालकर उसे पुनः भर देते हैं। यदि पात्र टूट-फूट जाता है तो वे मुनि उपाश्रय के प्रांगण में गाय-बैल आदि के प्रवेश करते हुए तथा बाहर जाते हुए के पैरों का चित्रांकन कर देते हैं। यदि वहां गाय-बैल आदि का प्रवेश संभव हो सकता हो तो ३४९ गृहस्वामी मान लेता है कि गाय आदि से ही विकटभाजन टूटा-फूटा है। ३४१५. बंधित्तु पीए जयणा ठवेंति, मुद्दा जहा चिद्वह अक्खुया से। ऊणम्मि दिद्रुम्मि भांति पुट्ठा, नूणं परिस्संदति भाणमेयं ॥ विकटभाजन से विकटमय पीकर उसको पुनः लाख से स्थगित कर देते हैं, जिससे कि भाजन की मुद्रा यथावत् रह सके। गृहस्वामी उस भाजन को अपूर्ण देखकर मुनियों से पूछता है। मुनि कहते हैं - यह भाजन झरता है। ३४१६. सव्वम्मि पीए अहवा बहुम्मि, संजोगपाढी व ठयंति अन्नं । अन्नं व मग्गित्तु छुहंति तत्था, कीयंकयं वा गिहिलिंगमाई ॥ सारा मद्य या बहुत सारा मद्य पी लेने पर 'संयोगपाठी' मुनि ( उस विकट की निष्पत्ति का ज्ञाता) दूसरी मदिरा निष्पन्न कर उसमें डाल देता है। यदि संयोगपाठी न हो तो दूसरा मद्य लाकर उसमें निक्षिप्त कर देते हैं। उसके प्राप्त न होने पर क्रीतकृत अथवा लिंग परिवर्तन अर्थात् गृहलिंग से प्राप्त कर उसकी पूर्ति करे । ३४१७.तब्भावियट्ठा व गिलाणए वा, पुराण सागारिय सावए वा । वीसंभणीआण कुलाणऽभावा, गिण्हंति रुवस्स विवज्जएणं ॥ कोई मुनि प्रारंभ से ही उस विकट से भावित रहा है और कोई ग्लान उस विकट के बिना स्वस्थ नहीं हो सकता तो उनके लिए पश्चात्कृत या सागारिक या श्रावक से अथवा विश्वसनीयकुलों से उस विकट को ग्रहण करना चाहिए। इन सबके अभाव में रूप का विपर्यय कर अर्थात् लिंग को छोड़कर विकट प्राप्त करना चाहिए। ३४१८. अच्चारं वा वि समिक्खिऊणं, स्वप्पं तओ घेत दलित तरस । अन्नं रसं वावि तहिं छुभंती, संगं च से तं हवयंति तत्तो ॥ यदि ग्लान अत्यंत आतुर है ऐसी समीक्षा कर शीघ्र ही प्रतिश्रयवर्ती विकटभाजन से विकट लेकर उस ग्लान को दे दे और फिर उस भाजन में अन्य रस लाकर प्रक्षिप्त कर दे। फिर वे मुनि ग्लान के लिए इस प्रकार के विकटप्रसंग का निवारण करते हैं। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० =बृहत्कल्पभाष्यम् उवस्सए उदग-पदं उस उपाश्रय में धारोदक-पर्वत के निर्झर का पानी, महान् नदियों (गंगा, सिन्धु आदि) का जल, अनेक द्रव्यों से उवस्सयस्स अंतो वगडाए सीओदग सुवासित जल है। इन प्रकारों के पानी के प्रति प्यासे व्यक्ति वियडकुंभे वा उसिणोदगवियडकुंभे वा की अभिलाषा होती है अथवा पूर्वानुभूत व्यक्ति के मन में उवनिक्खित्ते सिया, नो कप्पइ निग्गंथाण रात-दिन स्मृति होती रहती है। वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए। ३४२३.इहरा कहासु सुणिमो, इमं खु तं विमलसीतलं तोयं। हरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो विगयस्स वि णत्थि रसो, इति सेवे धारतोयादी। हम कथाओं में ऐसे विमल और शीतल जल की बातें लभेज्जा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं सुनते थे। आज उसका प्रत्यक्षतः स्वाद चख लिया। प्रासुक वा वत्थए, जे तत्थ परं एगरायाओ वा जल में वह रस-स्वाद नहीं है, यह सोचकर धारोदक आदि दुरायाओ वा वसति से संतरा छेए वा का सेवन करता है। परिहारे वा॥ ३४२४.विगयम्मि कोउयम्मी, छट्ठवयविराहण त्ति पडिगमणं। (सूत्र ५) वेहाणस ओहाणे, गिलाणसेहेण वा दिट्ठो। ३४२५.तण्हाइओ गिलाणो, तं दट्ठ पिएज्ज जा विराहणया। ३४१९.छोढूण दवं पिज्जइ, गालिंति दवं व छोढणं तं तु। एमेव सेहमादी, पियंति अप्पच्चओ वा सिं॥ पातुं मुहं व धोवइ, तेणऽहिकारो सजीवं वा॥ पानी पीने की अभिलाषा पूरी होने पर वह मुनि सोचता पानी मिलकार मदिरापान किया जाता है, अथवा पानी है, मैंने छठे व्रत की विराधना कर दी है। इसलिए वह मिलाकर मदिरा को गालते हैं, अथवा मदिरा पीकर मुंह का प्रतिगमन या फांसी या पलायन कर लेता है। ग्लान या शैक्ष प्रक्षालन करते हैं, इसलिए मदिरा के पश्चात् पानी ने उसे पानी का सेवन करते हुए देख लिया तब प्यास से का अधिकार है। पानी सजीव और निर्जीव दोनों प्रकार का व्याकुल ग्लान भी पानी पी लेता है। उसके अनेक प्रकार की होता है। परितापना होती है, विराधना होती है। इसी प्रकार शैक्ष आदि ३४२०.सीतोदे उसिणोदे, फासुगमप्फासुगे य चउभंगो।। मुनि भी उस पानी का सेवन करते हैं और उनके मन में ठायंतगाण लहुगा, कास अगीतत्थ सुत्तं तु॥ परंपरा के प्रति अविश्वास उत्पन्न हो जाता है। शीतोदक-उष्णोदक-प्रासुक-अप्रासुक-इन पदों की (यहां भी वृत्तिकार ३३४५ से ३३५५ तक गाथाओं का चतुर्भंगी होती है। जैसे-शीतोदक प्रासुक, शीतोदक अध्याहार करने का संकेत देते हैं।) अप्रासुक, उष्णोदक प्रासुक, उष्णोदक अप्रासुक। इस प्रकार ३४२६.ऊसव-छणेसु संभारियं दगं तिसिय-रोगियट्ठाए। के उदकप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त दोहल कुतूहलेण व, हरंति पडिवेसयाईया॥ आता है। यह प्रायश्चित्त अगीतार्थ मुनि के लिए है। प्रस्तुत उत्सव और क्षण के लिए संभारित-कर्पूर आदि से अनुज्ञा विषयक सूत्र गीतार्थ के लिए कहा है। वासित पानी को प्यास बुझाने या रोगी के लिए या दोहद की ३४२१.अणुभूया उदगरसा, नवरं मोत्तुं इमेसि उदगाणं। पूर्ति के लिए या स्वाद के कुतूहल से प्रेरित होकर चोर या काहामि कोउहल्लं, पासुत्तेसुं समारद्धो॥ पड़ौसी चुरा कर ले जाते हैं। (यहां वृत्तिकार ने यह सूचना दी है कि ३३१३ से ३३४१ ३४२७.गहियं च तेहिं उदगं, चित्तूण गया जहिं सि गंतव्वं । तक की सारी गाथाएं-उदकाभिलाप से विशेषित होकर सागारिओ व भणई, सउणी वि य रक्खई निहुं॥ ज्ञातव्य हैं।) मुनि के मन में यह चिंतन उभरता है कि मैंने ___ चोरों ने पानी ले लिया। पानी लेकर उन्हें जहां जाना था, यहां प्रस्तुत उदक रसों को छोड़कर अनेक उदकरसों का वहां चले गए। प्रातः सागारिक गृहस्वामी आया और अनुभव किया है। तो अब मैं मेरी अभिलाषा को पूरी करूं। बोला-भंते! पक्षी भी अपने नीड की रक्षा करता है, आपने सभी साधुओं के सो जाने पर वह उदकपान करना प्रारंभ इतना भी नहीं किया, पानी की रक्षा भी नहीं की। करता है। ३४२८.दगभाणूणे दर्दू, सजलं व हियं दगं व परिसडियं। ३४२२.धारोदए महासलिलजले संभारिते व्व दव्वेहि। केण इमं तेणेहिं, असिढे भद्देयर इमे उ॥ तण्हातियस्स व सती, दिया व राओ व उप्पज्जे॥ किसी प्रयोजनवश गृहस्वामी वहां आता है और उदक Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक = ३५१ भाजनों को न्यून देखता है या पानी के भाजन को अपहृत ३४३२.अहवण वारिज्जतो, निक्कारणओ व तिण्ह व परेणं। देखता है, पानी को जमीन पर बिखरा हुआ देखता है तब वह छेयं चिय आवज्जे, छेयमओ पुव्वमाहंसु॥ पूछता है-पानी कौन ले गया? मुनि कहते हैं-चोर ले गए। अथवा ज्योतियुक्त उपाश्रय में रहने की वर्जना करने पर कौन चोर? इस प्रश्न का उत्तर न देने पर, सागारिक के भद्र भी यदि कोई निष्कारण ही तीन दिनरात से अधिक वहां या प्रान्त होने पर जो दोष उत्पन्न होते हैं, वे ये हैं। (यहां रहता है तो छेद प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इसलिए छेदपद गाथा ३३५८ से ३३६७ पर्यन्त अध्याहार्य हैं।) पहले कहा गया है। ३४२९.चउमूल पंचमूलं, तालोदाणं च तावतोयाणं। ३४३३.दुविहो य होइ जोई, असव्वराई य सव्वराई य। दिट्ठ मए सन्निचया, अन्ने देसे कुडुंबीणं॥ ठायंतगाण लहुगा, कास अगीयत्थ सुत्तं तु॥ आचार्य उस स्थान में पड़े उदक भाजनों की जानकारी ज्योति दो प्रकार की होती है-सार्वरात्रिक, असार्वरात्रिक। करने के लिए गृहस्वामी से कहते हैं-भद्र! हमने अन्य देश दोनों प्रकार की ज्योतियुक्त उपाश्रय में रहने पर चतुर्लघु का में एक कौटुंबिक के घर में चतुर्मूल (चार प्रकार की प्रायश्चित्त है। यह प्रायश्चित्त अगीतार्थ के लिए है। सूत्र सुरभित जड़ों से भावित), पंचमूल (पांच प्रकार की सुरभित गीतार्थ के लिए प्रवृत्त है। जड़ों से भावित), तोसलिदेश में प्रसिद्ध तालोदक तथा (यहां गाथा ३३१३ से ३३३४ पर्यन्त अध्याहार्य है।) राजगृह आदि में होने वाले तापतोय तप्तपानी के सन्निचय ३४३४.उवगरणे पडिलेहा, पमज्जणाऽऽवास पोरिसि मणे य। देखें हैं। निक्खमणे य पवेसे, आवडणे चेव पडणे य॥ (यहां गाथा ३३६९ से ३३८८ पर्यन्त द्रष्टव्य हैं।) __ ज्योतियुक्त उपाश्रय में रहने वाले मुनियों के उपकरण के प्रत्युपेक्षण में, वसति के प्रमार्जन में, आवश्यक करने में, उवस्सए जोइ-पदं सूत्रार्थ की पौरुषी करने में, मन में राग-द्वेष करने में, उवस्सयस्स अंतो वगडाए सव्वराईए निष्क्रमण और प्रवेश में क्रमशः नैषेधिकी और आवस्सही जोई झियाएज्जा, नो कप्पइ निग्गंथाण वा करने में, आपतन-टकरा कर गिरने में तथा पतन में तेजस्काय अथवा स्वयं की विराधना होती है। अतः तन्निष्पन्न निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए। हुरत्था प्रायश्चित्त आता है। दोष के भय से उपरोक्त क्रियाएं न करने य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा, एवं पर भी प्रायश्चित्त आता है। से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए। जे ३४३५.पणगं लहुओ लहुया, चउरो लहुगा य चउसु ठाणेसु। तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं लहुगा गुरुगा य मणे, सेसेसु वि होति चउलहुगा॥ वसति, से संतरा छेए वा परिहारे वा॥ उपकरणों का प्रत्युपेक्षण न करने पर जघन्य में पंचक, (सूत्र ६) मध्यम में मासलघु और उत्कृष्ट में चतुर्लघु, वसति आदि का प्रमार्जन न करने पर मासलघु, आवश्यक न करने पर ३४३०.उदगाणंतरमग्गी, सो उ पईवो व होज्ज जोई वा। चतुर्लघु, सूत्रपौरुषी न करने पर मासलघु और अर्थपौरुषी न पडिवक्खणं व गयं, समागमो एस सुत्ताणं॥ करने पर मासगुरु का प्रायश्चित्त है। इस प्रकार दोष के भय प्रस्तुत सूत्र में उदक के पश्चात् अग्नि का कथन है। से भी उपकरण की प्रत्युपेक्षा करने, वसति की प्रमार्जना अग्नि प्रदीप या ज्योति हो सकती है। अथवा प्रतिपक्षरूप में करने, सूत्रार्थ की पौरुषी करने इन चारों में प्रत्येक का यह सूत्र है, जैसे-पानी का शस्त्र है अग्नि और अग्नि का प्रायश्चित्त है चार लघुमास। मन में राग-द्वेष करने से क्रमशः शस्त्र है पानी। ये परस्पर प्रतिपक्षी हैं। यह दोनों सूत्रों का चतुर्गुरु और चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। शेष में चतुर्लघु का समागम संबंध है। प्रायश्चित्त है। ३४३१.देसीभासाए कयं, जा बहिया सा भवे हुरच्छा उ।। ३४३६.पेह पमज्जण वासग अग्गी, बंधऽणुलोमेण कयं, छेए परिहार पुव्वं तु॥ ताणि अकुव्वओ जा परिहाणी। 'हुरत्था' शब्द देशीभाषा में बाह्य अर्थ में प्रतिबद्ध है। पोरिसिभंगे अभंगि सजोई, विवक्षित उपाश्रय के बर्हिवर्ती वगडा को 'हुरत्था' कहा जाता होति मणे उ रती वऽरई वा॥ है। बन्धानुलोमता से परिहारपद से पूर्व छेद पद है। उपकरणों की प्रत्युपेक्षा, वसति की प्रमार्जना, वासय Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ अर्थात् आवश्यक का करना- इसमें अग्निविराधना से निष्पन्न प्रायश्चित्त है न करने पर संयम की परिहानि होती है। सूत्रार्थपौरुषी का भंग होने पर क्रमशः मासलघु और मासगुरु का प्रायश्चित्त है। उनको करने पर अग्निकाय की विराधना होती है। सज्योति उपाश्रय के प्रति मन में रति होने पर चतुर्गुरु और अरति होने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। ३४३७. जइ उस्सग्गे न कुणइ, तइ मासा सव्व अकरणे लहुगा । वंदण थुई अकरणे, . मासो संडासकाईसुं ॥ आवश्यक के जितने कायोत्सर्ग नहीं करता उतने लघुमास, सारा आवश्यक न करने पर चतुर्लघु, जितने वंदनक और जितनी स्तुतियां नहीं देता / करता उतने ही मासलघु और करता है तो चतुर्लघु तथा बैठते हुए संदशक (एक प्रकार की आसनगत शरीरमुद्रा) का प्रमार्जन न करने पर मासलघु और प्रमार्जन करने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित है। ३४३८. आवस्सिमा निसीहिन पमज्ज आसज्जअकरणे इमं तु पणगं पणगं लघु लघु, आवडणे लहुग जं चऽन्नं ॥ निष्क्रमण करते हुए 'आवश्यिकी' और प्रवेश करते हुए नैषेधिकी कहने पर पंचक तथा निष्क्रमण प्रवेश करते हु प्रमार्जन न करने पर तथा आसज्जशब्द न करने पर मासलघु, आपतन और पतन दोनों में लघुमास तथा इनमें आत्मविराधना होती है, तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त तथा अग्नि में प्रतापना आदि की जाती है। ३४३९. सेहस्स विसीयणया, ओसक्कऽतिसक अन्नहिं नयणं । विज्झविऊण तुअट्टण, अहवा वि भवे पलीवणया ॥ शैक्ष अग्नि में ताप कर अपनी विशीतता- शीतता से मुक्ति पा सकता है। जितनी बार हाथ-पैरों को तपाता है उतने ही चतुर्लघु का प्रायश्चित है अग्नि को शीघ्र बुझाने के लिए ईंधन निकालना, प्रज्वलित करने के लिए उसमें ईंधन डालना, उसे स्थानान्तरित करना, अग्नि को बुझाकर सोना - प्रत्येक में चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। प्रमाद के कारण दहन भी हो सकता है, आग लग सकती है। ३४४० गाउअ दुगुणावगुणं, बत्तीसं जोयणाहं चरिमपदं । चत्तारि छच्च लहु गुरू, छेओ मूलं तह दुगं च ॥ एक गव्यूति से प्रारंभ कर द्विगुण से द्विगुण की वृद्धि १. अध्वा - महदरण्यम् । (वृ. पृ. ९६२) बृहत्कल्पभाष्यम् करते हुए बत्तीस योजन पर्यन्त यह चरमपद के प्रायश्चित्त तक जाता है जैसे यदि एक गव्यूति तक वहन होता है तो चतुर्लघु, अर्द्धयोजन तक चतुर्गुरु, योजन तक षड्लघु, दो योजन का षड्गुरु, चार योजन छेद, आठ योजन मूल, सोलह योजन अनवस्थाप्य, बत्तीस योजन पारांचिक । ३४४१. गोणे व साणमाई, वारणे लहूगा य जं च अहिगरणं । लहुगा अवारणम्मिं खंभ-तणाई पलीवेज्जा ॥ गाय, श्वान आदि की वर्जना करने पर चतुर्लघु तथा उनके लौटते समय जो उनके द्वारा अधिकरण होता है उसका प्रायश्चित्त भी आता है। यदि उनका वारण न किया जाए तो भी चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। वे पशु प्रविष्ट होकर अग्नि को चालित कर स्तंभ, तृण आदि को प्रदीप्त कर सकते हैं। ३४४२.अद्धाणनिग्गयाई, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असतीए । गीवत्था जयणाए वसंति तो अगणिसालाए । अध्वा का अर्थ है - महान् अरण्य' । अध्वा से निर्गत होकर गांव में पहुंच कर तीन बार शुद्ध वसति की मार्गणा करते हैं। न मिलने पर गीतार्थ मुनि यतनापूर्वक अग्निशाला में ठहरते हैं। ३४४३. अद्धाणनिग्गयाई, तिन्हं असईए फरुससालाए । गीयत्था जयणाए, वसंति तो पयणसालाए । अध्वनिर्गत मुनि गांव में पहुंचकर तीन बार शुद्ध वसति की मार्गणा करते हैं। न मिलने पर गीतार्थ मुनि यतनापूर्वक पचनशाला - कुंभकारशाला में रहते हैं । ३४४४. पणिए य भंडसाला, कम्मे पयणे य वग्धरणसाला । इंधणसाला गुरुगा, सेसासु वि होंति चउलहुगा ॥ पणितशाला, भांडशाला, कर्मशाला, पचनशाला, व्याघरणशाला, और ईंधनशाला । ईंधनशाला में निष्कारण रहने पर चतुर्गुरु का तथा शेष शालाओं में ठहरने में चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। ३४४५.कोलालियावणो खलु, पणिसाला भंडसाल जहिं भंड। कुंभारकुडी कम्मे, पयणे वासासु आवाओ ।। ३४४६. तोसलिए वम्परणा, अग्नीकुंडं तहिं जलति निच्च । तत्थ सयंवरहेडं, चेडा चेडी य छुन्यंति ॥ कुलाल अर्थात् कुंमकार का आपण पणितशाला कहलाती है। जहां घट, शराव आदि भांड रखे जाते हैं वह है भांडशाला | कुंभकारकुटी - अर्थात् जहां कुंभकार घट आदि भाजन बनाता है। वर्षा में जहां मृत्भाजन पकाए जाते हैं वह है पचनशाला । ईंधनशाला जहां ईंधन रखा जाता है। तोसलिदेश में गांव के मध्य में जो शाला बनाई जाती है, वह है . Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक ३५३ व्याघरणशाला। वहां अग्निकुंड निरंतर प्रज्वलित रहती है। परिजीर्ण वस्त्र की प्रत्युपेक्षा करे। अग्नि के बुझ जाने पर वहां अनेक लड़के और एक स्वयंवर रचने वाली लड़की को सारोपकरणों की प्रत्युपेक्षा करे। यदि बाहर स्थान न हो और प्रविष्ट कराया जाता है। जिस लड़के को वह पसंद करती है, भय हो तो सारे उपकरणों का प्रत्युपेक्षण अग्नि के बुझ जाने उसके साथ उसका विवाह कर दिया जाता है। पर करे। ३४४७.इंधणसाला गुरुगा, आदित्ते तत्थ नासिउं दुक्खं। ३४५२.निंता न पमज्जंती, मूगाऽऽवासं तु वंदणगहीणं। दुविह विराहण झुसिरे, सेसा अगणी य सागरिए॥ पोरिसि बाहि मणेण व, सेहाण य दिति अणुसडिं।। ईंधनशाला में रहने पर चतुर्गुरु क्योंकि उसके प्रदीप्त होने ३४५३.नाणुज्जोया साहू, दव्वुज्जोवम्मि मा हु सज्जित्था। पर उसको बुझाना सुदुष्कर होता है। वहां संयम और आत्म जस्स वि न एइ निद्दा, स पाउय निमीलिओ गिम्हे। विराधना-दोनों होती हैं क्योंकि तृण आदि शुषिर होते हैं। बाहर जाते-आते भूमी का प्रमार्जन नहीं करते। वसति का पचनशाला में अग्नि दोष होता है। शेष शालाओं में केवल भी प्रमार्जन नहीं करते। आवश्यक मौनभाव से तथा वन्दनकसागारिक रहता है-विक्रेता, क्रेता आदि। रहित करते हैं। सूत्रार्थपौरुषी उपाश्रय के बाहर करते हैं। ३४४८.पढमं तु भंडसाला, तहि सागरि नत्थि उभयकालं पि। बाहर स्थान न होने पर मन ही मन कर लेते हैं। ज्योति के कम्माऽऽपणि निसि नत्थी, सेस कमेणेधणी जाव॥ प्रकाश में राग रखने वाले शैक्ष मुनियों को गीतार्थ मुनि शुद्ध उपाश्रय की प्राप्ति न होने पर पहले भांडशाला में अनुशिष्टि देते हैं-'मुनियो! साधु ज्ञान के उद्योत वाले होते क्योंकि वहां दिन-रात-दोनों समय कोई सागारिक नहीं हैं। यह भाव उद्योत है। तुम द्रव्य उद्योत में राग मत करो। रहता। कर्मशाला या आपणशाला में रात में सागारिक नहीं यदि प्रकाश में नींद नहीं आती है तो मुंह पर कपड़ा देकर सो रहता। इनके अभाव में शेष पचनशाला आदि के क्रम से रहे जाओ। ग्रीष्म में आंखें बंद कर सो जाओ।' यावत् ईंधनशाला में। ३४५४.आवास बाहि असई, ३४४९.ते तत्थ सन्निविट्ठा, गहिया संथारगा विहीपुव्वं। ठिय वंदण विगड जयण थुइहीणं। जागरमाण वसंती, सपक्खजयणाए गीतत्था॥ सुत्तत्थ बाहि अंतो, वहां रहते हुए साधु विधिपूर्वक अपने संस्तारक करें। चिलिमिणि काऊण व झरंति॥ गीतार्थ मुनि स्वपक्षयतना करते हुए जागते रहे। आवश्यक बाहर करें। बाहर स्थान न हो तो जहां स्थित ३४५०.पासे तणाण सोहण, अहिसक्कोसक्क अन्नहिं नयणं। हों वहीं करें। वन्दनक न दें। विकटन आलोचना यतनापूर्वक संवरणा लिंपणया, छुक्कारण वारणाऽऽगट्ठी॥ करे। स्तुतिमंगल मन से ही करें। सूत्रार्थपौरुषी बाहर करे। अग्नि के पार्श्व में यदि तृण आदि हों तो उनका शोधन बाहर स्थान न हो तो उपाश्रय के भीतर चिलिमिलिका को करें। श्वापद का भय होने पर अग्नि को प्रज्वलित करते हैं। बांधकर स्वाध्याय करे। चिलिमिलि के अभाव में मन ही मन तथा चोरों का भय होने पर अग्नि को मंद कर देते हैं, सोने सूत्र और अर्थ की अनुप्रेक्षा करे। के समय अग्नि को अन्यत्र ले जाते हैं। अग्नि को ढंकना, ३४५५.मूगा विसंति निति व, उम्मुगमाई कओ वि अछिवंता। स्तंभ आदि का गोबर से लिंपन करना, चोर आदि के प्रवेश सेहा य जोइ दूरे, जग्गंति य जा धरह जोई॥ करने की स्थिति में छुक्कार करना, यदि वे प्रवेश करना बंद न उपाश्रय में प्रवेश या निर्गमन मूकभाव से करें। उल्मुककरें तो उनकी वर्जना करना, आग लग जाने पर धूल आदि अलात आदि अग्नि-स्थानों का स्पर्श न करते हुए आनासे बुझाने का प्रयत्न करना ये सारे कार्य गीतार्थ को करने जाना करे। शैक्ष मुनियों को ज्योति से दूर स्थापित करे। होते हैं। गीतार्थ मुनि तब तक जागते रहें जब तक ज्योति बुझ न ३४५१.कडओ व चिलिमिणी वा, जाए। __ असती सभए व बाहि जं अंत। ३४५६.अद्धाणाई अइनिद्दपिल्लिओ गीओसक्किउं सुवइ। ठाणाऽसति य भयम्मि व, सावयभय उस्सक्के, तेणभए होइ भयणा उ॥ विज्झायऽगणिम्मि पेहिति॥ अध्व आदि से परिश्रान्त अथवा अतिनिद्रा से प्रेरित प्रत्युपेक्षणा आदि करते समय अग्नि और स्वयं के बीच गीतार्थ अग्नि को दूर हटाकर सो जाता है। श्वापद का भय कट या चिलिमिली देनी चाहिए। उनके अभाव में उपाश्रय के होने पर अग्नि को प्रज्वलित करते हैं। स्तेनों का भय होने पर बाहर प्रत्युपेक्षणा करें और यदि बाहर भय हो तो अन्त्य- अग्नि का उज्ज्वालन या विध्यापन की भजना है। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ बृहत्कल्पभाष्यम् ३४५७.अद्धाणविवित्ता वा, परकड असती सयं तु जालेति। सार्वरात्रिक दीपक वाले उपाश्रय में रहने पर चतुर्लघु का सूलाई व तवेउं, कयकज्जा छार अक्कमणं॥ प्रायश्चित्त है। यह प्रायश्चित्त किसके हैं? अगीतार्थ के। सूत्र मार्ग में जो लूटे गए हैं वे दूसरे द्वारा प्रज्वलित अग्नि से गीतार्थ विषयक है। अपने आपको तपा सकते हैं। यदि वह प्राप्त न हो तो स्वयं (आगे गाथा ३३१३ से ३३३४ पर्यन्त गाथाएं अध्याहार्य अग्नि जला सकते हैं। शूल आदि को तपाने के लिए स्वयं हैं। ऐसा वृत्तिकार ने लिखा है।) अग्नि जलाते हैं। कार्य संपन्न होने पर वे उस अग्नि को राख ३४६२.उवगरणे पडिलेहा, पमज्जणाऽऽवास पोरिसि मणे य। से ढंक देते हैं। निक्खमणे य पवेसे, आवडणे चेव पडणे य॥ ३४५८.सावयभय आणिंति व,सोउमणा वा वि बाहि नीणिंति। प्रदीपयुक्त उपाश्रय में रहने वाले मुनियों के उपकरण के बाहिं पलीवणभया, छारे तस्सऽसति निव्वावे॥ प्रत्युपेक्षण में, वसति के प्रमार्जन में, आवश्यक करने में, श्वापद का भय होने पर अन्य स्थान से अग्नि लाते हैं। सूत्रार्थ की पौरुषी करने में, मन में राग-द्वेष करने में, और सोते समय उसको बाहर रख देते हैं। बाहर आग लगने निष्क्रमण ओर प्रवेश में क्रमशः नैषेधिकी और आवस्सही का भय हो तो उसे राख से ढक देते हैं। राख का अभाव हो करने में, आपतन-टकरा कर गिरने में तथा पतन में तो अग्नि को बुझा देते हैं। तेजस्काय अथवा स्वयं की विराधना होती है। अतः तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त आता है। दोष के भय से उपरोक्त क्रियाएं न करने उबस्सए पईव-पदं पर भी प्रायश्चित्त आता है। उवस्सयस्स अंतो वगडाए सव्वराईए ३४६३.पणगं लहुओ लहुगा, चउरो लहुगा य चउसु ठाणेसु। पईवे दिप्पेज्जा, नो कप्पइ निग्गंथाण वा लहुगा गुरुगा य मणे, सेसेसु वि होति चउलहुगा॥ उपकरणों का प्रत्युपेक्षण न करने पर जघन्य में पंचक, निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए। हरत्था मध्यम में मासलघु और उत्कृष्ट में चतुर्लघु, वसति आदि का य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा, एवं प्रमार्जन न करने पर मासलघु, आवश्यक न करने पर से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए। जे चतुर्लघु, सूत्र पौरुषी न करने पर मासलघु और अर्थ पौरुषी तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं न करने पर मासगुरु का प्रायश्चित्त है। इस प्रकार दोष के वसति, से संतरा छेए वा परिहारे वा॥ भय से भी उपकरण की प्रत्युपेक्षा करने, वसति की प्रमार्जना करने, सूत्रार्थ की पौरुषी करने-इन चारों में प्रत्येक का (सूत्र ७) प्रायश्चित्त है चतुर्लधु। मन में राग-द्वेष करने से क्रमशः ३४५९.देसीभासाय कयं, जा बहिया सा भवे हुरच्छा उ। चतुर्गुरु और चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। शेष में चतुर्लघु का बंधऽणुलोमेण कयं, छेया परिहार पुव्वं तु॥ प्रायश्चित्त है। ३४६०.अहवण वारिज्जतो, निक्कारणओ व तिण्ह व परेणं। ३४६४.गुरुगा य पगासम्मि उ, लहुगा ते चेव अप्पगासम्मि। छेयं चिय आवज्जे, छेयमओ पुव्वमाहंसु॥ सायम्मि होति गुरुगा, अस्साए होति चउलहगा। 'हुरत्था' शब्द देशीभाषा में बाह्य अर्थ में प्रतिबद्ध है। यदि प्रदीप का प्रकाश रुचिकर लगता है तो चतुर्गुरु विवक्षित उपाश्रय के बहिर्वर्ती वगडा को 'हुरत्था' कहा जाता और अप्रकाश रुचिकर होता है तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। है। बन्धानुलोमता से परिहारपद से पूर्व छेदपद है। यदि प्रकाश में साता (रति) होती है तो चतुर्गुरु और असाता अथवा प्रदीपयुक्त उपाश्रय में रहने की वर्जना करने पर भी (अरति) होती है तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। यदि कोई निष्कारण ही तीन दिनरात से अधिक रहता है, तो ३४६५.पडिमाए झामियाए, उड्डाहो तणाणि वा भवे हेट्ठा। छेद प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इसलिए छेदपद पहले कहा साणाइ चालणा लाल,मूसए खंभ तणाई पलीवेज्जा। गया है। देवकुल आदि में प्रतिमा के सम्मुख जो प्रदीप रहता है ३४६१.दुविहो य होइ दीवो, असव्वराई य सव्वराई य। उसको बुझा देने पर उड्डाह होता है। नीचे संस्तारक आदि के ___ठायंते लहु लहुगा, कास अगीयस्थ सुत्तं तु॥ तृण जल जाते हैं। श्वान आदि से प्रदीप इधर-उधर हो दीपक के दो प्रकार हैं-असार्वरात्रिक और सार्वरात्रिक। सकता है। मूषक दीपक की वर्तिका को ले जाते हैं, उससे असार्वरात्रिक दीपकयुक्त उपाश्रय में रहने पर मासलघु और स्तंभ या तृणों में आग लग सकती है। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक ३५५ ३४६६.गाउय दुगुणादुगुणं, बत्तीसं जोयणाई चरिमपदं। गांव के मध्य में देवकुल आदि हैं। वे प्रातःकाल चत्तारि छ च्च लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च॥ जनसंकुल होते हैं। मुनिगण आए। दिन में बाहर ठहरे। संध्या एक गव्यूति से प्रारंभ कर द्विगुण से द्विगुण की वृद्धि वेला में गांव में आए और प्रदीप वाली वसति में ठहरे। वहां करते हुए बत्तीस योजन पर्यन्त यह चरमपद के प्रायश्चित्त रहने से जो शैक्ष संबंधी दोष होते हैं उन सबका आगाढ़ तक जाता है। जैसे यदि एक गव्यूति तक दहन होता है तो कारण में परिहार करना चाहिए। चतुर्लघु, अर्द्धयोजन तक चतुर्गुरु, योजन तक षड्लघु, दो ३४७३.अन्नाए तुसिणीया, नाए दट्ठण करण सविउलं। योजन का षड्गुरु, चार योजन छेद, आठ योजन मूल, सोलह बाहिं देउल सद्दो, समागयाणं खरंटो य॥ योजन अनवस्थाप्य, बत्तीस योजन पारांचिक। यदि प्रमादवश आग लग जाए और किसी को ज्ञात न हो ३४६७.अद्धाणनिग्गयाई, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए। कि यहां साधु हैं, तो साधु मौनभाव से पलायन कर जाएं। गीयत्था जयणाए, वसंति तो दीवसालाए॥ यदि ज्ञात हो जाए तो जोर से बोले। अथवा देवकुल से बाहर अध्वनिर्गत आदि मुनि गांव में पहुंचकर तीन बार शुद्ध निकल कर चिल्लाए। जो लोग एकत्रित हों उनके सामने वसति की मार्गणा करते हैं। यदि प्राप्त न हो तो गीतार्थ मुनि खरंटना करे कि किसी ने आग लगा दी। हमारे उपकरण भी यतनापूर्वक प्रदीपशाला में ठहर जाते हैं। जल गए। ३४६८.ते तत्थ सन्निविट्ठा, गहिया संथारगा विहीपुव्वं । उवस्सए असणाइ-पदं जागरमाण वसंती, सपक्खजयणाए गीतत्था॥ वहां रहते हुए साधु विधिपूर्वक अपने संस्तारक करें। उवस्सगस्स अंतो वगडाए पिंडए वा गीतार्थ मुनि स्वपक्षयतना करते हुए जागते रहे। लोयए वा खीरे वा दहिं वा नवणीए वा ३४६९.पडिमाझामण ओरुभण लिंपणा दीवगस्स ओरुभणं। सप्पिं वा तेल्ले वा फाणिए वा पूवे वा ओसक्कण उस्सकण, छुक्कारण वारणोकट्ठी॥ प्रतिमा के जलने की आशंका से प्रतिमा का अन्यत्र सक्कली वा सिहरिणी वा 'उक्खिण्णाणि संक्रमण कर देना चाहिए। यदि यह न हो सके तो स्तंभ का वा विक्खिण्णाणि वा' विइकिण्णाणि वा लिंपन किया जाए, प्रदीप को अन्यत्र रखा जाए। यदि प्रदीप विप्पइण्णाणि वा, नो कप्पइ निग्गंथाण वा को हटाया न जा सके तो उसकी वर्तिका का अवसर्पण निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए॥ उत्सर्पण किया जाए। श्वान, गाय आदि का छुक्कार करे, __ (सूत्र ८) प्रवेश न करने दे, दंडे आदि से उनका वारण करे या वर्तिका का अपकर्षण करे। ३४७४.देहोवहीण डाहो, तदन्नसंघट्टणाय जोतिम्मि। ३४७०.सकलदीवे वत्तिं, उव्वत्ते पीलए व मा डन्झे। संगाल चरणडाहो, एसो पिंडस्सुवग्घाओ॥ रूएण व तं नेह, घेत्तूण दिवा विगिंचिंति॥ पूर्व सूत्र में यह प्रतिपादित है कि शैक्ष या अन्य अर्थात् श्रृंखलादीप को हटाया नहीं जा सकता, इसलिए उसकी श्वान, गाय आदि के द्वारा ज्योति का संघट्टन होने पर शरीर वर्तिका का उद्वर्तन करे या निष्पीडन करे जिससे कि प्रदीप या उपधि का दाह हो जाता है। प्रस्तुत सूत्र में पिंड आदि जले नहीं। रूई से प्रदीपवर्ती तैल लेकर दिन में उसका युक्त उपाश्रय में ठहरने पर पिंड के प्रति सराग होने के कारण परिष्ठापन कर दे। चरण-चारित्र का दाह हो जाता है। इस पिंडसूत्र का पूर्व सूत्र ३४७१.हेट्ठा तणाण सोहण, ओसक्कऽभिसक्क अन्नहिं नयणं। के साथ उपोद्घात-संबंध है। आगाढे कारणम्मि, ओसक्कऽहिसक्कणं कुज्जा॥ ३४७५.पिंडो जं संपन्नं, पिंडगेज्झं व पिंडाविगई वा। प्रदीप के नीचे जो तृण हों उनका शोधन करे, प्रदीप का जं तु सभावा लुत्तं, तं जाणसु लोयगं नाम॥ अवसर्पण या अभिसर्पण या अन्यत्र संक्रमण करे। आगाढ़ जो अशन आदि संपन्न है षडरसयुक्त है, वह है पिंड। जो कारण होने पर गीतार्थ स्वयं प्रदीप का अवसर्पण या । पिंडरूप में ग्राह्य होता है वह है पिंड अथवा पिंड विकृति अभिसर्पण स्वयं करते हैं। अर्थात् सघनगुड़ आदि पिंड है। जो स्वभावतः लुस है-आहार ३४७२.मज्झे व देउलाई, बाहिं व ठियाण होइ अतिगमणं। आदि के गुणों से युक्त हैं, वे लोचक कहलाते हैं, जैसे-दही, जे तत्थ सेहदोसा, ते इह आगाढे जयणाए॥ दूध, नवनीत, घृत, तैल आदि। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ ३४७६. पूवो उ उल्लखज्जं, छुट्टगुलो फाणियं तु दविओ वा । सक्कुलिगाई सुक्कं तु खज्जगं सूयिअं सव्वं ॥ पूप- मालपुआ आर्द्रखाद्यक है। इसी श्रेणी में लपसी (लपनश्री) आदि भी आते हैं। छुट्टगुल-गीला गुड़ तथा द्रविक - पानी के साथ मिला हुआ पिंडगुड़-ये दोनों फाणित कहलाते हैं। शकुलिका - जलेबी, मोदक आदि सभी शुष्कखाद्य की सूची में आते हैं। ३४७७. जा दहिसरम्मि गालियगुलेण चउजायसुगयसंभारा। कूरम्मि छुब्भमाणी, बंधति सिहरं सिहरिणी उ॥ दही को छानकर गालित गुड़ से निष्पन्न, इलायचीजेंवत्री - तमालपत्र और नागकेशर इन चार गंध द्रव्यों से वासित, जो भात में डालने पर शिखर को बांधती है (शिखर की भाति उन्नत होती है) वह शिखरिणी कहलाती है। ३४७८. पिंडाईआइने, निग्गंथाणं न कप्पई वासो । चउरो य अणुग्घाया, तत्थ वि आणाइणो दोसा ॥ पिंड आदि से आकीर्ण उपाश्रय में ठहरना निर्ग्रन्थों (तथा निर्ग्रन्थिनियों) को नहीं कल्पता। वहां वास करने पर चार अनुद्घात मास का प्रायश्चित्त आता है तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। अहवा ३४७९. चउरो विसेसिया वा दोण्ह वि वग्गाण ठायमाणाणं । गुरुगाई, नायव्वा छेयपज्जंता ॥ वहां रहने पर दोनों वर्गों - श्रमण- श्रमणी - को चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तप और काल से विशेषित प्राप्त होते हैं। अथवा चारों (भिक्षु, वृषभ, उपाध्याय तथा आचार्य) को चतुर्गुरु प्रायश्चित्त से प्रारंभ कर छेदपर्यन्त प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। अह पुण एवं जाणेज्जा - नो उक्खत्ताई नो विक्खिण्णाई नो विइकिण्णाइं नो विप्पइण्णाइं रासिकडाणि वा पुंजकडाणि वा भित्तिकडाणि वा कुलियाकडाणि वा लंछियाणि वा मुद्दियाणि वा पिहियाणि वा । कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा हेमंतगिम्हासु वत्थए ॥ (सूत्र ९) १. कुंभी-मुख के आकार वाला कोष्ठक । बृहत्कल्पभाष्यम् ३४८०. अणुभूया पिंडरसा, नवरं मुत्तूणिमेसि पिंडाणं । . काहामो कोउहल्लं, तहेव सेसा वि भणियव्वा ॥ वहां ठहरने पर किसी मुनि की इच्छा हो सकती है कि यहां रखें हुए पिंडों के रसों को छोड़कर मैंने अनेक पिंडों के रसों का अनुभव किया है। मैं अब अपना कुतूहल पूरा करूं - यह सोचकर वह भोज्य पिंडों को खाता है। इसी प्रकार शेष भोज्यों के विषय में भी जानना चाहिए । वा अह पुण एवं जाणेज्जानो रासिकडाणि वा नो पुंजकडाणि वा नो भित्तिकाणि वा नो कुलियाकडाणि वा कोद्वाउत्ताणि वा पल्लाउत्ताणि वा मंचा उत्ताणि वा माला उत्ताणि कुंभउत्ताणि वा करभिउत्ताणि ओलित्ताणि वा विलित्ताणि वा लंछियाणि वा मुद्दियाणि वा पिहियाणि वा, कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा वासावासं वत्थए ॥ वा (सूत्र १०) ३४८१. तेल्ल-गुड-खंड - मच्छंडियाण महु- पाण- सक्कराईणं । दिट्ठ मए सन्निचया, अन्ने देसे कुटुंबीणं ॥ आचार्य उस सागारिक को कहते हैं-आर्य ! हमने अन्य देश में एक कौटुम्बिक के घर में अनेक पिंडों के सन्निचय देखें हैं। हमने तैल, गुड़, खांड, मत्स्यण्डिका, मधु-पान- शर्करा आदि के समूह देखे हैं । ३४८२. कुंभी करहीए तहा, पल्ले माले तहेव मंचे य । ओलित्त पिहिय मुद्दिय, एरिसए ण कप्पती वासो ॥ जिस उपाश्रय में कुंभी, करभी, पल्य, माल अथवा मंच - इनमें पिंड आदि निक्षिप्त कर, वे सब अवलिप्त, पिहित या मुद्रित हों तो वहां रहना कल्पता है। ३४८३. उडुबद्धम्मि अईते, वासावासे उवट्ठिए संते । ठायंतगाण गुरुया, कास अगीतत्थ सुत्तं तु ॥ ऋतुबद्धकाल के बीत जाने पर तथा वर्षावास के उपस्थित हो जाने पर जो ऐसे उपाश्रय में ठहरता है उसके चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त आता है। यह प्रायश्चित्त अगीतार्थ के लिए है। प्रस्तुत सूत्र में जो अनुज्ञा है, वह गीतार्थ विषयक है। २. करभी-घट के संस्थान वाला कोष्ठक । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक ३५७ आगमणगिहादिसुवास-पदं नो कप्पइ निग्गंथीणं अहे आगमणगिहंसि वा वियडगिहंसि वा वंसीमूलंसि वा रुक्खमूलंसि वा अब्भावगासियंसि वा वत्थए। (सूत्र ११) या ३४८४.आगमणे वियडगिहे, वंसीमूले य रुक्खमब्भासे। ठायंतिकाण गुरुगा, तत्थ वि आणादिणो दोसा॥ जो श्रमणियां आगमनगृह, विवृतगृह, वंसीमूल, वृक्षमूल तथा अभ्रावकाश इन स्थानों में ठहरती हैं, उनके चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। ३४८५.आगमगिहादिएसुं, भिक्खुणिमादीण ठायमाणीणं। गुरुगादी जा छेदो, विसेसितं चउगुरू वा सिं॥ आगमनगृह आदि में रहने वाली श्रमणियों के चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त है। उससे प्रारंभ कर वह प्रायश्चित्त छेद पर्यन्त चला जाता है। इन चारों-भिक्षुणी, अभिषेका, गणावच्छेदिनी तथा प्रवर्तिनी के चतुर्गरु का प्रायश्चित्त तप और काल से विशेषित होता है। ३४८६.आगंतुगारत्थिजणो जहिं तु, संठाति जं चाऽऽगमणम्मि तेसिं। तं आगमोगं तु विऊ वदंति, सभा पवा देउलमादियं वा॥ आगंतुक पथिक आदि आकर जहां ठहरते हैं और जो स्थान पथिकों आदि के आगमन के लिए होता है उसको विद्वान् 'आगमौक'-आगमनगृह कहते हैं। वह सभा, प्रपा या देवकुल आदि हो सकते हैं। ३४८७.आगमणगिहे अज्जा, जणेण परिवारिया अणज्जेण। द8 कुलप्पसूता, संजमकामा विरज्जति॥ आगमनगृह में स्थित आर्या को अनार्यजनों से परिवृत देखकर संयम लेने की इच्छा वाली कुलप्रसूत स्त्रियां दीक्षा लेने से विरत हो जाती हैं। वे सोचती हैं३४८८.उवस्सए एरिसए ठियाणं, ... ण सीलभारा सगला भवंति। को दाणि हंसेण किणेज्ज काकं, एवं नियत्तंति कुलप्पसूया। इस प्रकार के उपाश्रय में रहने वाली आर्यिकाओं के ब्रह्मचर्य का भार अखंड नहीं रहता, खंडित हो जाता है। वर्तमान में हमारा गृहवास हंसकल्प अर्थात् हंस के समान निष्कलंक है। इस प्रकार के प्रत्यपायवाले प्रतिश्रय में रहने वाली आर्याओं का संयमजीवन दोषयुक्त होने के कारण काकतुल्य है। कौन भला अब हंस को बेचकर काक को खरीदेगा? इस प्रकार सोचकर वे कुलप्रसूत कुलीन स्त्रियां प्रव्रज्याग्रहण से निवर्तित हो जाती हैं। ३४८९.काइय पडिलेह सज्झाए, भुंजणे वीयारमेव गेलण्णे। साणादी उवगरणे, तरुणाई जे भणिय दोसा॥ कायिकी, प्रत्युपेक्षा, स्वाध्याय, भोजन, विचार और ग्लानत्व-इनमें दोष होते हैं। श्वान आदि उपकरणों का अपहरण कर लेते हैं। तरुण आदि से होने वाले दोष जो प्रथम उद्देशक में कहे गए हैं, उनका यहां भी समवतार होता है। ३४९०.मोयस्स वायस्स य सण्णिरोहे, गेलण्ण णीसट्ठमसण्णिरोहे। पलोट्टणा घाण ससद्द मत्ते, आतोभया तत्थ भवंति कीवे॥ आगमनगृह में स्थित आर्यिकाएं गृहस्थों के संकोचवश मोक-प्रस्रवण तथा अधोवायु का निरोध करती हैं तो ग्लानत्व होता है। यदि निरोध नहीं करती हैं तो निसृष्ट अर्थात् निर्लज्ज होती हैं। यदि कायिकी को मात्रक में व्युत्सृष्ट करती हैं तो मात्रक से परिष्ठापन करते समय या पोंछते समय नाक में दुर्गन्ध उछलती है। मात्रक में प्रस्रवण करते समय वह सशब्द होता है। उससे उड्डाह होता है। आत्मसमुत्थ तथा परसमुत्थ दोष वहां होते हैं। वह संयती स्वयं क्षुब्ध होती है, यह आत्मसमुत्थ दोष है। कायिकीशब्द को सुनकर क्लीव क्षुब्ध होता है, यह परसमुत्थ दोष है। ३४९१.पेहिंति उड्डाह पवंच तेणा, अपेहणे सोहि तिहोवहिस्सा। कीरंतऽकीरंत सुते य दोसा, ण णिति भिक्खस्स निरुद्धमग्गा॥ साध्वियां यदि सागारिक के देखते प्रत्युपेक्षा करती हैं तो गृहस्थ उड्डाह करते हैं, प्रपंच करते हैं स्वयं वैसे ही वस्त्रों को देखना शुरू कर देते हैं। चोर सारवस्त्रों का अपहरण कर लेते हैं। यदि इस भय से प्रत्युपेक्षा नहीं करती हैं तो तीन प्रकार की उपधि के अप्रत्युपेक्षा का प्रायश्चित्त आता है-(जघन्य का पंचक, मध्यम का मासलघु और उत्कृष्ट का चतुर्लघु)। श्रुत अर्थात् स्वाध्याय के करने या न करने पर भी दोष होते हैं। स्वाध्याय करने पर गृहस्थ भी देखा-देखी वैसे ही बोलने लगते हैं और न करने पर श्रुत के नाश की संभावना होती है। गृहस्थों द्वारा Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ =बृहत्कल्पभाष्यम् निर्गमन-प्रवेश निरुद्ध हो जाने पर आर्यिकाएं भिक्षा के लिए ३४९६.ओभावणा कुलघरे, ठाणं वेसित्थि-खंडरक्खाणं। आ-जा नहीं सकतीं। उद्धंसणा पवयणे, चरित्तभासुंडणा सज्जो॥ ३४९२.दुक्खं च भुंजंति सति द्वितेसु, आगमनगृह में श्रमणियों का धूर्तों से परिवृत होने पर तक्विंति देते य अति दोसा। कुलगृह की निन्दा होती है। वह स्थान वेश्यास्त्रियों, भुंजंति गुत्ता अधिकारिया उ, खंडरक्षकों-यायावरों का होता है, इसलिए वह स्थान कुलुग्गया किं पुण जा अतोया॥ उद्धषणा, प्रवचन की हीलना तथा चारित्र का शीघ्र नाश करने गृहस्थों के वहां निरंतर बैठे रहने पर साध्वियों को भोजन वाला होता है। करना कष्टप्रद हो जाता है। यदि कोई गृहस्थ आहार की ३४९७.चिंताइ दट्ठमिच्छइ, दीहं णीससति तह जरे डाहे। याचना करे तो उसे देने या न देने से अनेक दोष होते हैं। भत्तारोयग मुच्छा, उम्मत्तो ण याणती मरणं॥ कुलीन तथा अधिकारसंपन्न स्त्रियां एकान्त में भोजन करती ___३४९८.मासो लहुओ गुरुओ,चउरो लहुगा य होति गुरुगा य। हैं तो फिर ये अतोया-आचमन के लिए पानी न रखने वाली छम्मासा लहु-गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च॥ आर्याओं को तो एकान्त में ही भोजन करना चाहिए। उससे वे दस प्रकार के कामवेग उत्पन्न होते हैं-चिंता, ३४९३.वीयारभोमे बहि दोसजालं, देखने की इच्छा, दीर्घनिःश्वास, ज्वर, दाह, भोजन की णिसट्ठ-बीभच्छकया य अंतो। अरुचि, मूर्छा, उन्मत्तता, कुछ न जानने की स्थिति कीरंत किच्चे य गिलाण दोसा, (निश्चेष्टस्थिति) और मरण। कालादिवत्ती य तहोसहस्स॥ प्रथम वेग में लघुमास, दूसरे में गुरुमास, तीसरे में चार यदि साध्वियां विचारभूमी के लिए बाहर जाती हैं तो लघुमास, चौथे में चार गुरुमास, पांचवें में छह लघुमास, छठे अनेक दोष होते हैं और यदि उपाश्रय में ही संज्ञा से निवृत्त । में छह गुरुमास, सातवें में छेद, आठवें में मूल, नौवें में होती हैं तो निर्लज्ज और बीभत्स मानी जाती हैं। यदि ग्लान अनवस्थाप्य और दसवें में पारांचिक। साध्वी के लिए वे कुछ कृत्य-अकल्प्य औषधि आदि देती हैं ये सारे आगमनगृह में रहने के दोष हैं।' तो अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। यदि सागारिक हैं यह सोचकर ३४९९.एए चेव य दोसा, सविसेसतरा हवंति विगडगिहे। नहीं करतीं तो औषधि के लिए कालातिपत्ति होती है, काल वसीमूलट्ठाणे, पडिबद्धे जे भणिय दोसा॥ का अतिक्रमण हो जाता है। ये ही सारे दोष विशेषरूप से विवृतगृह में ठहरने से होते ३४९४.हरंति भाणाइ सुणादिया य, हैं। वंशीमूलस्थान में ठहरने से वे दोष होते हैं जो द्रव्यतः सयंति भीया व वसंति णिच्चं। और भावतः प्रतिबद्ध उपाश्रय में ठहरने पर कहे गए हैं। णिच्चाउले तत्थ णिरुद्धचारे, ३५००.अवाउडं जं तु चउद्दिसिं पि, गग्गया होति कओ सि झाओ। तीसुंदुसुं वा वि तहेक्कतो वा। वहां आगमनगृह में श्वान आदि आकर भाजन आदि ले अहे भवे तं वियडं गिहं तु, जाते हैं। वहां श्वान आदि भयभीत होकर सदा रहते हैं, सोते उ8 अमालं च अछन्नगं वा॥ हैं। वे गृह सदा आने जाने वालों से आकीर्ण रहते हैं। आना- विवृतगृह दो प्रकार का है-अधोविवृत और ऊर्ध्वविवृत। जाना निरुद्ध न होने के कारण वहां एकाग्रता नहीं होती तो अधोविवृतगृह वह है जो चारों दिशाओं में, तीन-दो या एक वहां रहने वाली आर्याओं के स्वाध्याय कैसे होगा? दिशा में भींत रहित है, परन्तु ऊपर से आच्छन्न है। ३४९५.तरुणा-वेसित्थि-विवाह-रायमादीसु होति सतिकरणं। ऊर्ध्वविवृतगृह वह है जो पार्श्व में भींत युक्त किन्तु माला इच्छमणिच्छे तरुणा, तेणा ताओ व उवहिं वा॥ रहित और छाधरहित (अच्छन्न) है। वहां आगमनगृह में तरुण, वेश्यास्त्रियां, विवाह आदि ३५०१.अजंतिया तेण-सुणा उति, करने के लिए लोग आते हैं तथा राजा आदि की सवारियां गोणादि णिस्संकमभिवंति। देखी जाती हैं-इनसे स्मृतियां उभरती हैं। तरुणों के प्रति तेणादिया तत्थ चिलीय दोसा, इच्छा से व्रतभंग और अनिच्छा से उड्डाह होता है। स्तेन कडादिकम्मं तु सजीवघातं॥ साध्वियों का या उपधि का अपहरण कर लेते हैं। विवृतगृह में चोरों और कुत्तों का आगमन अनियंत्रित होता १. इन दसों वेगों की विस्तृत व्याख्या के लिए देखें-गाथा २२५८ से २२६२ पर्यन्त गाथाएं। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक = ३५९ है। गाय-बैल आदि निःशंक होकर आघात करते हैं। वहां युवा हैं, सविकार हैं और जो यहां रहते हैं वे सारे इस चिलिमिलिका बांधने पर चोर उसे उठा ले जाते हैं। ये दोष प्रतिश्रय में न आएं। इस प्रकार कहने पर यदि वह चाहता हो होते हैं। उसके अभाव में कट, किलिंच आदि बना कर और सबको निवारण करने में सशक्त हो तो वहां रहा जा स्थापित करने पर आधाकर्मनिष्पन्न प्रायश्चित्त तथा कट सकता है। आदि करने में जिन जीवों का घात हुआ है, तन्निष्पन्न पृथक ३५०७.भोइयकुले व गुत्ते, दुज्जणवज्जे वसंति उ पउत्थे। प्रायश्चित्त आता है। महतरगादिसुगुत्ते, वंसीमूलम्मि ठायंति॥ ३५०२.जाओ वणे वी य बहिं घरस्स, . भोजिक-नगरस्वामी का गृह जो गुप्त हो, दुर्जनजनरहित अलिंदओ वा अवसारिगा वा। ___हो, वहां रहा जा सकता है। यदि भोजिक देशान्तर गया हो गेहस्स पासे पुर पिट्ठओ वा, तो महत्तर आदि के गृह जो सुरक्षित हों तो वैसे वंशीमूल गृह तं वंसिमूलं कुसला वदंति॥ में रहा जा सकता है। जो गृह के पार्श्व में, आगे या पीछे अलिंदक और ३५०८.तस्सऽसइ उड्ढवियडे, वसंति कडगादि छोढणं उवरिं। उपसारिका-पटालिका होती है, उसे कुशल व्यक्ति तस्सऽसति पासवियडे, कडगादी पंतवत्थेहिं॥ वंशीमूलगृह कहते हैं। ऐसे स्थान में रहने पर प्रतिबद्ध सूत्रोक्त वैसे वंशीमूलगृह के अभाव में ऊर्ध्वविवृतगृह के ऊपर दोष होते हैं। कटक आदि डालकर रहा जा सकता है। उसके अभाव में ३५०३.अट्टि व दारुगादी, सउणगपरिहार पुप्फ-फलमादी। पार्श्वविवृत स्थान में रहती हैं। वहां कट आदि या प्रान्तवस्त्रों एवं तु रुक्खमूले, अब्भावासम्मि सिण्हाई॥ से चारों ओर आच्छादित कर रहती हैं। वृक्षमूल में ठहरने पर ऊपर से अस्थि, लकड़ी आदि गिर ३५०९.विहं पवन्ना घणरुक्खहेढे, सकती है, पक्षियों का परिहार-बीट आदि गिरती है, पुष्प, वसंति उस्सा-ऽवणिरक्खणट्ठा। फल आदि भी गिरते हैं। अभ्रावकाश में (खुले आकाश में) तस्साऽसती अब्भगवासिए वि, रहने पर ओस गिरता है, सचित्त रज आदि भी गिरते हैं। सुवंति चिट्ठति व उण्णिछन्ना॥ ३५०४.अद्धाणनिग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असतीये। विह अर्थात् मार्गगत साध्वियां यदि अधोविवृतगृह भी ___ वाडगआगमणगिहे, इयरम्मि य णिग्गहसमत्थे॥ प्राप्त नहीं कर सकतीं तो घने वृक्षमूल में अवश्याय तथा अध्वनिर्गत आदि श्रमणियां गांव में विशुद्ध वसति की सचित्त पृथ्वी की रक्षा के लिए रहती हैं। उसके अभाव में तीन बार मार्गणा करती हैं। यदि वह प्राप्त न हो तो वाटक के अभावकाश-खुले आकाश में और्णिक कल्प से आच्छादित मध्यवर्ती आगमनगृह में रह सकती हैं। यदि शय्यातर होकर सोती हैं या ठहरती हैं। जितेन्द्रिय तथा निग्रह करने में समर्थ हो तो वहां रहा जा __ कप्पइ निग्गंथाणं अहे आगमणगिर्हसि सकता है, अन्यथा नहीं। ३५०५.जं देउलादी उणिवेसणस्सा, वा वियडगिहंसि वा वंसीमूलंसि वा मज्झम्मि गुत्तं सुपुरोहडं च। रुक्खमूलंसि वा अब्भावगासियंसि वा अदुट्ठगम्भ ण य दुट्ठमज्झे, वत्थए। ___ अदूरगेहं तहियं वसंति॥ (सूत्र १२) गांव के मध्य में देवकुल आदि वृति से गुप्त तथा सुपुरोहड-रमणीय विचारभूमी से युक्त, सज्जन व्यक्तियों का ३५१०.एसेव गमो नियमा, निग्गंथाणं पि णवरि चउलहुगा। आश्रय-स्थल तथा जो दुष्ट लोगों के मध्य न हो, तथा जहां णवरिं पुण णाणतं, अब्भावासम्मि वतिगादी॥ निकट ही अन्यान्य घर हों, ऐसे स्थान में रह सकती हैं। यही अर्थात् निर्ग्रन्थी सूत्रोक्त विकल्प नियमतः निर्ग्रन्थों के ३५०६.जुवाणगा जे सविगारगा य, लिए भी है। उनके प्रायश्चित्त चतुर्लघुक है। दोषजाल पूर्ववत् पुत्तादओ तुज्झ इहं वसंति। ही है केवल अपवादपद में नानात्व है। ग्लान के लिए गोकुल मा ते वि अम्हं इह संवयंतु, आदि में जाने पर अभ्रावकाश में रह सकते हैं। इच्छंत सत्ते य वसंति तत्थ॥ ३५११.सुत्तनिवाओ पोराण आगमे भोइए व रक्खंते। वहां जो शय्यातर है उसे कहती हैं-तुम्हारे जो पुत्र आदि आराम अहेविगडे, वंसीमूले व णिहोसे॥ . Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० बृहत्कल्पभाष्यम् के निवारण के लिए शब्द करते हैं, उपयोग रखते हैं. धनष्य से या पाषाण से पक्षियों की वासना करते हैं, सोट्टाशुष्ककाष्ठ आदि जो वृक्ष पर पहले से लगे हुए हैं उनको नीचे गिराते हैं। (आगाढ़ ग्लानत्व में दूध आदि का प्रयोजन होता है। वजिकागमन के अवसर पर अभ्रावकाश में रहना कल्पता है।) ३५१७.विसोहिकोडिं हवइत्तु गामे, चिरं व कज्जं ति वयंति घोसं। अन्मासगामाऽसति तत्थ गंतुं, पडालि-रुक्खाऽसतिए अछण्णे॥ स्वग्राम में यदि शुद्धरूप में दूध आदि की प्राप्ति न होती हो तो वहीं विशुद्धिकोटि के दोषों को पंचक आदि प्रायश्चित्त के आधार पर दूध आदि लेते हैं। चिरकाल तक उसकी आवश्यकता होने पर गोकुल में जाते हैं। गोकुल के निकटस्थ गांव में रहकर दूध आदि गोकुल से लाते हैं। इसके अभाव में गोकुल में पाटलिका में रहते हैं। उसके अभाव में वृक्षमूल में और उसके अभाव में अभ्रावकाश में रहते हैं। सागारिय-पदं सूत्र का समवतार पुराने आगमनगृह अथवा जहां रहने पर भोजिक रक्षा करता है, तथा अधोविवृत आरामगृह और निर्दोष वंशीमूलगृह के लिए है। ३५१२.अभुज्जमाणी उ सभा पवा वा, गामेगपासम्मि ण याऽणुपंथे। पभू व वारेति जणं उतं, ण कुप्पती सोय तहिं तु ठंति॥ परिभोग में न आनेवाली सभा, प्रपा गांव के एक पार्श्व में होती है और वे मुख्य मार्ग के निकट नहीं होती। वहां ठहरने पर प्रभु-ग्रामस्वामी आने वालों को निवारित करता है और यदि आने वाले कुपित नहीं होते तो वहां रहा जा सकता है। ३५१३.गुम्मेहि आरामघरम्मि गुत्ते, वईय तुंगाय व एगदारे। अहे अगुत्ते छइतम्मि ठंती, _ण जत्थ लोगो बहु सण्णिलेति॥ गुल्म अर्थात् कोरण्टक आदि से गुप्त आरामगृह जो ऊंची वृति से परिक्षिप्त हो, एक द्वार वाला, अधोगुप्त और ऊपर से आच्छादित हो, वहां रहा जा सकता है। वहां बहुत लोग नहीं आते। ३५१४. वंसिमूलऽण्णमुहं च तेणं, पिहढुवार ण तओ उ छिंडी। सुणेति सई न परोप्परस्स, नकाइयं णेव य दिट्ठिवातो॥ जो वंशीमूल मूलगृह से विपरीत मुंह वाला है, पृथक् द्वार वाला है, उसके छिंडिका नहीं होती, वहां परस्पर होने वाले शब्द सुनाई नहीं देते, कायिकी एकत्र नहीं होती, परस्पर दृष्टिपात नहीं होता-ऐसे स्थान में रहना कल्पता है। ३५१५.असई य रुक्खमूले, जे दोसा तेहिं वज्जिए ठंति। अद्धाणमन्भवासे, गेलण्णागाढ वइगादी। आगमनगृह आदि के अभाव में जो दोष वृक्षमूल में रहने पर बताए गए हैं उनसे वर्जित वृक्षमूल में रहा जा सकता है। तथा मार्ग प्रतिपन्न या आगाढ़ ग्लानत्व के कारण व्रजिका आदि में गए हुए हों तो अभ्रावकाश में रह सकते हैं। ३५१६.कडं कुणंतेऽसति मंडवस्सा, कडाऽसती पोत्तिमतेणगम्मि। सहोवओगो धणुतासणा य, सोट्टादि पाडिंति य पुव्वलग्गे। वृक्षमूल में मंडप हो तो वहां रहे। उसके अभाव में कट का प्रयोग करते हैं। उसके अभाव में कपड़ों की चिलिमिलिका करते हैं, यदि चोरों का भय न हो तो। पक्षियों एगे सागारिए पारिहारिए, दो तिण्णि चत्तारि पंच सागारिया पारिहारिया, एगं तत्थ कप्पागं ठवइत्ता अवसेसे निव्विसेज्जा॥ (सूत्र १३) ३५१८.जहुत्तदोसेहिं विवज्जिया जे, उवस्सगा तेसु जती वसंता। एग अणेगे व अणुण्णवित्ता, वसंति सामि अह सुत्तजोगो॥ यथोक्त (पूर्वोक्त) दोषों से विवर्जित जो उपाश्रय हैं उनमें यदि रहते हैं तो एक या अनेक गृहस्वामियों से अनुज्ञा लेकर वहां रहते हैं। यह पूर्वसूत्र के साथ योग-संबंध है। ३५१९.सागारिउ त्ति को पुण, काहे वा कतिविहो व से पिंडो। असिज्जायरो व काहे, परिहरियव्वो व सो कस्सा। ३५२०.दोसा वा के तस्सा, कारणजाए व कप्पती कम्मि। जयणाए वा काए, एगमणेगेसु घेत्तव्यो। शय्यातर कौन होता है? शय्यातर कब होता है? उसका पिंड कितने प्रकार का होता है? अशय्यातर कब होता है? Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक किस मुनि से संबंधित शय्यातर परिहर्तव्य होता है ? सागारिकापिंड के दोष क्या हैं? किस कारण में वह पिंड कल्पता है ? किस यतना से उस पिंड को एक शय्यातर अथवा अनेक शय्यातरों से ग्रहण करने योग्य होता है? ३५२१. सागारियस्स णामा, एगट्ठा णाणवंजणा पंच । सागारिय सेज्जायर, दाता य तरे धरे चेव ॥ सागारिक के पांच नाम एकार्थक हैं, नाना व्यंजन वाले हैं। वे ये हैं-सागारिक, शय्याकर, शय्यादाता, शय्यातर और शय्याधर । ३५२२. अगमकरणादगारं, तस्सहजोगेण होइ सागारी । सेज्जाकरणे सेज्जाकरो उ दाता तु तद्दाणा ॥ ३५२३. गोवाइऊण वसहिं, तत्थ वि ते यावि रक्खिडं तरह। तद्दाणेण भवोघं च तरति सेज्जातरो तम्हा ॥ ३५२४. जम्हा धारह सिज्जं पडमाणिं छज्ज लेपमाईहिं जं वा तीए धरेती, नरगा आयं धरो तम्हा ॥ अगम अर्थात् वृक्ष । उनसे बने हुए गृह अगार हैं । अगार के साथ जिसका योग है वह है सागारिक। शय्या अर्थात् प्रतिश्रय । उसको करने वाला शय्याकर। शय्या का दान करने वाला शय्यादाता। जो शय्या वसति का संरक्षण करने में समर्थ होता है वह है शय्यातर अथवा जो शय्या में रहने वालों का संरक्षण करता है वह है शय्यातर अथवा जो शय्या के दान से संसार समुद्र को तर जाता है वह है शय्यातर । जो गिरती हुई शय्या को छादन- लेपन के द्वारा धारण करता है। वह है शय्याधर अथवा जो साधुओं को शय्या का दान कर अपनी आत्मा को नरक में गिरने से धारण करता है वह है शय्याधर । ३५२५. सेज्जायरो पभू वा, पभुसंविट्ठो व होड़ कायव्वो । एगमणेने व पभू, पशुसंविद्वे वि एमेव ॥ शय्यातर उपाश्रय का प्रभु स्वामी होता है अथवा वह भी शय्यातर होता है जो गृहस्वामी द्वारा निर्दिष्ट है। गृहस्वामी एक भी हो सकता है और अनेक भी इसी प्रकार गृहस्वामी द्वारा निर्दिष्ट व्यक्ति एक भी हो सकता है और अनेक भी। ३५२६. सागारिय संविद्वे, एगमणेगे चउक्कभयणा त। एगमणेगा बज्जा णेगेसु उ वज्जए एक्कं ॥ सागारिक द्वारा संदिष्ट एक या अनेक के आधार पर चतुर्भगी होती है १. एक प्रभु एक संदिष्ट । २. एक प्रभु अनेक संदिष्ट । ३. अनेक प्रभु एक संदिष्ट । ४. अनेक प्रभु अनेक संविष्ट । । ३६१ इसमें एक अथवा अनेक शय्यातर वर्ज्य हैं। अनेक शय्यातर होने पर एक को स्थापित कर शेष वर्ज्य है। ३५२७. अणुणविय उग्गहंगण,पायोग्गाणुण्ण अतिगते ठविते । सज्झाय भिक्ख भुत्ते, णिक्खित्ताऽऽवासए एक्को । ३५२८. पढमे बितिए ततिए, चउत्थ जामे व होज्ज वाघातो । निव्वाघाए भयणा, सो वा इतरो व उभयं वा ॥ शय्यातर कब होता है, इस विषय में अनेक आदेश मत हैं- १. जो प्रतिश्रय की अनुज्ञा देता है। २. जब सागारिक के अवराह में प्रवेश कर जाते हैं। ३. जब उसके गृहांगण में प्रवेश कर लेने पर । ४. जब तृण डगलक आदि अनुज्ञापित हो जाते हैं। ५. वसति में प्रवेश करने के पश्चात् । ६. दंडक आदि उपकरण स्थापित कर देने अथवा दानश्राद्ध आदि कुलों की स्थापना कर देने पर । ७. जब वहां स्वाध्याय प्रारंभ कर देते हैं। ८. वहां से भिक्षा के लिए निर्गत होने पर । ९. आहार प्रारंभ कर देने पर । १०. भाजनों को निक्षिप्त करने से ११. जब दैवसिक आवश्यक कर लिया हो । १२. रात्री के प्रथम याम व्यतीत हो जाने पर । १३. दूसरा याम बीत जाने पर । १४. तीसरा याम बीत जाने पर १५. चौथा याम बीत जाने पर। आचार्य कहते हैं ये सारे अनादेश हैं। क्योंकि दिन में इन सबमें व्याघात हो सकता है। निर्व्याघात होने पर रात्री में वहीं रहने पर वह गृहस्वामी शय्यातर होता है अथवा अन्य अथवा दोनों। ३५२९. जगति सुविहिया, करेंति आवासगं च अण्णत्थ । सेज्जातरो ण होती, सुत्ते व कए व सो होती ॥ यदि सुविहित मुनि रात्री के चारों प्रहरों में जागते हैं तथा प्राभातिक आवश्यक अन्यत्र जाकर करते हैं तो मूल उपाश्रयस्वामी शय्यातर नहीं होता। सोने पर तथा आवश्यक वहां करने पर वह शय्यातर होता है। ३५३०. अन्नत्थ व सेऊणं, आवासग चरममण्णहिं तु करे । दोणि वि तरा भवंती, सत्यादिसु इधरधा भयणा ॥ अन्य स्थान में सोकर, चरम अर्थात् प्राभातिक आवश्यक अन्यत्र करते हैं तो दोनों (जहां सोये तथा जहां आवश्यक किया) शय्यातर होते हैं। यह प्रायः सार्थ आदि में होता है। अन्यथा गांव आदि में रहने वालों के लिए इसकी भजना है। . Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ बृहत्कल्पभाष्यम् न करा ३५३१.असइ वसहीय वीसुं, वसमाणाणं तरा तु भयितव्वा। २. जब वसति से निर्गत हो गए तब....। तत्थऽण्णत्थ व वासे, छत्तच्छायं तु वज्जेति॥ ३. सागारिक के अवग्रह से निर्गत होने पर....। सभी साधुओं के सामने योग्य वसति के अभाव में अनेक ४.सूर्योदय से पहला प्रहर व्यतीत होने पर....। साधु दूसरी वसति में रहते हैं। ऐसी स्थिति में शय्यातर ५. दूसरा प्रहर व्यतीत होने पर....। विभक्त हो जाते हैं। मूल वसति में या अन्य वसति में रहते हैं ६. तीसरा प्रहर व्यतीत होने पर....। तो वे आचार्य के 'छत्रछाया'-मौलिक शय्यातरगृह का वर्जन ७. पूरा दिन अर्थात् चौथा प्रहर व्यतीत होने पर....। करते हैं। आचार्य कहते हैं ये सारे अनादेश हैं। सिद्धांत कहता ३५३२.दुविह चउब्विह छविह, अट्ठविहो होति बारसविहोय। है-'वुत्थे वज्जेज्जऽहोरत्तं'-जिस वसति में रहे हैं, उसका सेज्जातरस्स पिंडो, तबिवरीओ अपिंडो उ॥ अहोरात्र तक अशन आदि का वर्जन करे। शय्यातरपिंड दो, चार, छह या आठ प्रकार का होता है। ३५३७.अग्गहणं जेण णिसिं, अणंतरेगंतरं दुहिं च ततो। उसके विपरीत अपिंड होता है, शय्यातरपिंड नहीं होता। गहणं तु पोरिसीहिं, चोदग! एते अणादेसा॥ ३५३३.आहारोवहि दुविहो, बिदु अण्णे पाण ओहवग्गहिए। रात्री में भक्तपान का अग्रहण होता है अतः उसके असणादिचउर आहे, उवग्गहे छविहो एस॥ अनन्तर एक, दो, तीन, चार पौरुषी में शय्यातरपिंड ग्रहण ३५३४.अण्णे पाणे वत्थे, पादें सूयादिया य चउरट्ठ।। करने के जो कथन हैं हे शिष्य! वे सारे अनादेश हैं। आदेश असणादी वत्थादी, सूचादि चउक्कका तिन्नि॥ यह है कि रात्री के चार प्रहर शय्यातर है, उसके पश्चात् दो प्रकार का शय्यातरपिंड होता है-आहार और उपधि। अशय्यातर। अथवा द्विगुणितदो अर्थात् वह चार प्रकार का होता है-अन्न, ३५३८.सूरत्थमणम्मि उ णिग्गयाण दोण्ह रयणीण अट्ठ भवे। पान, औधिक उपकरण तथा औपग्रहिक उपकरण। छह देवसिय मज्झ चउ दिणणिग्गति वितियम्मि सा वेला। प्रकार का शय्यातरपिंड-अशन, पान, खादिम, स्वादिम, सूर्य के अस्तमनवेला में निर्गत, उस रात्री के चार प्रहर, औधिक उपकरण और औपग्रहिक उपकरण। आठ प्रकार का अपररात्री के चार प्रहर और दिन के चार प्रहर-इस प्रकार शय्यातरपिंड अन्न, पान, वस्त्र, पात्र, सूची, पिप्पलक, उत्कृष्ट अशय्यातर बारह प्रहर का होता है। यह एक मत है। नखछेदनक तथा कर्णशोधन। बारह प्रकार का शय्यातर- दूसरा मत है-सूर्योदय होने पर दिन में यदि निर्गत हैं तो पिंड-अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कंबल, दूसरे दिन उसी वेला तक अशय्यातर होता है। पादपोंछन, सूची, पिप्पलक, नखछेदनक तथा कर्णशोधनक। ३५३९.लिंगत्थस्स उ वज्जो, तं परिहरतो व भुंजतो वा वि। ३५३५. तण-डगल-छार-मल्लग-सेज्जा-संथार-पीढ-लेवादी। जुत्तस्स अजुत्तस्स व, रसावणो तत्थ दिद्वंतो॥ सेज्जातरपिंडो सो, ण होति सेहो य सोवहिओ॥ लिंगस्थ मुनि उस शय्यातर पिंड का परिहार करता तृण, डगल, क्षार, मल्लक, शय्या, संस्तारक, पीढ़, है या खाता है, वह साधुगुणों से युक्त हो या अयुक्त उसके लेप आदि शय्यातरपिंड नहीं होते। वस्त्र, पात्र सहित शैक्ष । लिए भी शय्यातर वर्जनीय होता है। यहां रसापण का (वह चाहे शय्यातर का पुत्र आदि क्यों न हो) भी दृष्टांत है। शय्यातरपिंड नहीं होता। ३५४०.तित्थंकरपडिकुट्ठो, आणा अण्णाय उग्गमो ण सुज्झे। ३५३६.आपुच्छिय उग्गाहिय, वसहीतो णिग्गतोग्गहे एगे। अविमुत्ति अलाघवता, दुल्लभ सेज्जा य वोच्छेदो॥ पढमादि जाव दिवस, वुत्थे वज्जेज्ज होरत्तं॥ तीर्थंकरों द्वारा शय्यातरपिंड निषिद्ध है। जो उसे लेते हैं वे गाथा १५३९ तथा १५४० में उक्त वचनों से आचार्य द्वारा उनकी आज्ञा का पालन नहीं करते। अज्ञातोञ्छ तथा उद्गम पूछने पर वह व्यक्ति शय्यातर नहीं होता। की भी शुद्धि नहीं होती। अविमुक्ति, अलाघवता होती है। फिर १. विहार करने के इच्छुक होकर पात्र आदि उपकरणों शय्या की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है। शय्या का विच्छेद या को कंधों पर रख लिया तब.....। भक्तपान का प्रतिषेध। १. छत्रः-आचार्यस्तस्य च्छायां वर्जयन्ति, मौलशय्यातरगृहमित्यर्थः। (वृ. पृ. ९८३) २. जैसे महाराष्ट्र देश में रसापण-मद्यविक्रयकेन्द्र पर लोगों के अवबोध के लिए एक ध्वज होता है, फिर चाहे वहां मद्य हो या न हो। ध्वज को देखकर सभी भिक्षाचर आदि उसका परिहार करते हैं। इसी प्रकार गच्छ में भी साधु गुणों से युक्त हो या न हो, परंतु जिसके पास रजोहरण ध्वज होता है उसके लिए भी शय्यातर वर्जनीय है। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = ३६३ दूसरा उद्देशक ३५४१.पुर-पच्छिमवज्जेहिं, अवि कम्मं जिणवरेहिं लेसेणं। ३५४६.उवहि सरीरमलाघव, देहे णिशाइविंघियसरीरो। भुत्तं विदेहएहि य, ण य सागरियस्स पिंडो उ। संघसग-सासभया, ण विहरइ विहारकामो वि॥ पहले और अंतिम तीर्थंकरों को छोड़कर शेष बावीस अलाघव दो प्रकार का है-उपधि अलाघव और शरीर तीर्थंकरों ने तथा महाविदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों ने आधाकर्म अलाघव। देह की अलाघवता यह है--प्रतिदिन स्निग्ध भोजन पिंड का लेश अर्थात् सूत्र के आधार पर उपभोग करने की से शरीर का उपबृंहण होता है। इस स्थिति में वह विहार अनुज्ञा दी। किन्तु सागारिक-शय्यातर पिंड की अनुज्ञा करने का इच्छुक व्यक्ति भी विहार कर नहीं सकता, क्योंकि नहीं दी। मार्ग में जाते समय शरीर की जड़ता के कारण गात्र-संघर्षण ३५४२.सव्वेसि तेसि आणा, तप्परिहारीण गेण्हता ण कता। होता है और श्वास उठने लगता है। अण्णाउंछ न जुज्जति, जहिं ठितो गेण्हतो तत्थ॥ ३५४७.सागारि-पुत्त-भाउग-णत्तुग सभी तीर्थंकरों ने शय्यातरपिंड का प्रतिषेध किया है, दाण अतिखद्ध भारभया। उन्होंने उसको लेने की आज्ञा नहीं दी। अज्ञातोञ्छ लेना भी ण विहरति ओम सावय, उपयुक्त नहीं है। जिस घर में स्थित हैं, वहीं भिक्षा ग्रहण मियडागनिभाण एज्ज ति॥ करना अज्ञातोञ्छ है।२ शय्यातर ने तथा उसके पुत्र, भाई और पौत्रों ने अत्यधिक ३५४३.बाहुल्ला गच्छस्स उ, पढमालिय-पाणगादिकज्जेसु। दान दे दिया। उस भार को उठाने के भय से वह विहार नहीं सज्झायकरणआउट्टिता करे उग्गमेगतरे॥ करता। अथवा अवम-दुर्भिक्ष के कारण विहार नहीं करता। गच्छ में साधुओं की बहुलता है। वे प्रातराश लाने, श्रावक सोचता है यह साधु उपकरणों के भार के भय से पानक आदि लाने के प्रयोजन से बार-बार उस घर में जाते हैं विहार नहीं कर रहा है। उसने मायापूर्वक साधु के उपकरण तथा स्वाध्याय और यथोक्तक्रिया करने से आकृष्ट गृहस्थ एक ओर छुपा कर वसति को आग लगा दी। साधु के पूछने उद्गमदोषों में कोई भी दोष कर सकते हैं। पर कहा-सारे उपकरण जल गए, केवल दो पात्र बचे हैं। तुम ३५४४.दव्वे भावऽविमुत्ती, दव्वे वीरल्ल ण्हारुबंधणता। अब विहार करो। पुनः लौट कर आना। सउणग्गहणे कड्डण, पइद्ध मुक्को वि आणेइ॥ ३५४८.भिक्खा पयरणगहणं, दोगच्चं अण्णआगमे ण देमो। अविमुक्ति के दो प्रकार हैं-द्रव्यतः और भावतः। द्रव्य पयरण णत्थि ण कप्पति, असाहु तुच्छे य पण्णवणा॥ अविमुक्ति में वीरल्ल-बाज पक्षी का दृष्टांत है। बाज पक्षी के एक घर में अनेक साधु ठहरे। वे प्रतिदिन प्रतरणभिक्षापैरों की सन्धि को एक डोरी से बांधकर जहां तीतर आदि सबसे पहले दी जाने वाली भिक्षा लेने लगे। कालान्तर में पक्षी हों, वहां उसे छोड़ते हैं। जब वह किसी पक्षी को पकड़ सेठ दरिद्र हो गया। एक बार अन्य साधुगण आए और उसी लेता है तब उस डोरी को खींच लेते है। वह बाज उस पक्षी सेठ से वसति की याचना की। उसने कहा नहीं देंगे। 'क्यों' के साथ वहां आ जाता है। व्यक्ति हाथ में मांस का खंड के उत्तर में कहा-प्रतरण-प्रथमदेय भिक्षा नहीं है। साधु रखता है। बाज उस मांस-खंड में आसक्त हो जाता है। फिर बोले-प्रतरण लेना नहीं कल्पता। उसने कहा-यह तो मेरे उसे बंधनमुक्त कर दिया जाता है, परन्तु वह पक्षियों को लिए असाधु है, अमंगल है। क्योंकि मेरे घर से साधु तुच्छ लाता है और वहीं रहता है। भाजन (खाली भाजन) लेकर जाएं। फिर साधुओं ने उसे ३५४५.भावे उक्कोस-पणीयगेहितो तं कुलं ण छड्डेति। प्रज्ञापित किया कि साधुओं को वसति देना परम मंगल है। पहाणादी कज्जेसु व, गतो वि दूरं पुणो एति॥ उसने वसति दी। भाव अविमुक्ति यह है-उत्कृष्ट द्रव्य और प्रणीत भोजन ३५४९.थल देउलिया ठाणं, सतिकालं दट्ट दट्ट तहिं गमणं। की गृद्धि से वह शय्यातरकुल का परिहार नहीं करता। निग्गए वसहीभंजण, अण्णे उभामगाऽऽउट्टा। अथवा स्नान-रथयात्रा आदि पर्यों में तथा कार्यों अर्थात् कुल- किसी गांव के मध्य में एक स्थल था। ग्रामवासियों ने गण-संघ आदि के प्रयोजनों से दूर चले जाने पर भी पुनः वहां एक देवकुलिका का निर्माण कर दिया। वहां साधु ठहरे। उसी कुल के लिए लौट आता है। वे मुनि सत्काल-भिक्षा का देश-काल देख-देखकर उन घरों १. बावीस तीर्थंकरों के तथा महाविदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों के जिस साधु के लिए आधाकर्म किया है, उसी के लिए वह नहीं कल्पता, शेष साधु उसे ग्रहण कर सकते हैं। इस प्रकार उन्होंने यत्किंचित् रूप में आधाकर्म की अनुज्ञा दी है। २. अज्ञातस्य-अविदितस्य यद् उठछं-भैक्षग्रहणं तदज्ञातोञ्छमिति कृत्वा। - म Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ में भिक्षा के लिए जाते हैं। मिक्षा ग्रहण करते हैं, पीछे कुछ नहीं बचता। एक बार ग्रामवासियों ने मुनियों के वसति के बाहर निर्गत होने पर, वसति को नष्ट कर डाला। इसी प्रकार किसी अन्य ग्राम में मुनि देवकुलिका में ठहरे वे उद्भ्रामक भिक्षाचर्या करते थे। तब गृहस्थ उनसे प्रभावित होकर एकत्रित होकर अपने घरों में भिक्षा के लिए निमंत्रित करने लगे। उन्होंने कहा-'हम बाल तथा वृद्ध मुनियों के लिए भिक्षा लेंगे।' इस प्रकार भिक्षा भी सुलभ हो गई और वसति का ध्वंस भी नहीं हुआ । ३५५०. दुविहे गेलन्नम्मी, निमंतणे दव्वदुल्लभे असिवे । ओमोदरिय पओसे, भए व गहणं अणुण्णायं ॥ शय्यातर का पिंड सात कारणों से अनुज्ञात है१. आगाढ़ या अनागाढ़ ग्लानत्व में २. निमंत्रण ३. दुर्लभद्रव्य ४. अशिव ५. अवमौदर्य ६. प्रद्वेष अथवा राजद्विष्ट ७ भय । ३५५१. तिपरिरयमणागाढे, आगाढे खिप्पमेव गहणं तु । कज्जम्मि छंदिया पेच्छिमोति ण य बेंति उ अकप्पं ॥ अनागाद ग्लानत्व में तीन बार परिभ्रमण करे, फिर भी यदि द्रव्य न मिले तो शय्यातर पिंड ले । आगाढ़ ग्लानत्व में तत्काल ले सकता है। यदि शय्यातर भिक्षा लेने के लिए निमंत्रित करे तो साधु कहे- प्रयोजन होने पर लेंगे। ऐसा न कहे- तुम्हारा भक्तपान नहीं कल्पता । ३५५२. जं वा असहीणं तं भणंति तं देह तेण णे कज्जं । णिब्बंधे चेव सई, घेत्तूण पसंग वारेंति ॥ जो द्रव्य शय्यातर के घर में अस्वाधीन है अर्थात् नहीं है, मुनि उसकी याचना करते हुए कहते हैं, हमारे उस द्रव्य से प्रयोजन है शय्यातर यदि अतीव आग्रहपूर्वक कोई द्रव्य दे तो उसको एक बार ग्रहण कर ले परन्तु पुनः द्रव्य दे तो उसके प्रसंग का निवारण करे। ३५५३. दुल्लभदव्वं व सिया, संभारघयादि घेप्पती तं तु । ओमऽसिवे पणगाविस, जतिऊणमसंबरे गहणं ॥ दुर्लभद्रव्य अथवा संभारघृत (अनेक द्रव्यों से संयुक्त घृत) आदि शय्यातर के घर में हो, वह ग्लान आदि के निमित्त लिया जाता है। इसी प्रकार अवमौदर्य तथा अशिव में असंस्तरण की स्थिति में पंचक हानि के आधार पर शय्यातर के घर से पिंड लिया जा सकता है। ३५५४. उवसमण पट्टे, सत्यो वा जा ण लब्भते ताव। अच्छंता पच्छण्णं, गेण्हंति भए वि एमेव ॥ राजा के प्रद्विष्ट हो जाने पर उसके उपशमन के लिए रहते हुए अथवा राजा साधुओं को देशनिष्काशन की आज्ञा दे बृहत्कल्पभाष्यम् देता है तो जब तक किसी सार्थ का आगमन नहीं होता तब तक मुनि प्रच्छन्न रहकर शय्यातर का पिंड लेते हैं। इसी प्रकार भय की स्थिति में भी वैसा किया जा सकता है। ३५५५. तिक्खुत्तो सक्खेत्ते, चउद्दिसिं मग्गिऊण कहयोगी। दव्वस्स य दुल्लभया, सागारियसेवणा दव्वे ॥ अपने क्षेत्र में चारों दिशाओं में तीन बार शुद्ध भिक्षा की मार्गणा करे। यदि प्राप्त न हो तो कृतयोगी - गीतार्थ मुनि द्रव्य की दुर्लभता को जानकर शय्यातरपिंड की प्रतिसेवना करते हैं। ३५५६. गेसु पिया पुत्ता, सवत्ति वणिए घडा वए चेव । एएसिं णाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुव्वी ॥ (एक शय्यातर विषयक चर्चा के अनन्तर अनेक शय्यातर विषयक चर्चा ) अनेक शय्यातरों के ये भेद हैं- पिता-पुत्र, पत्नियां, व्यापारी, गोष्ठीपुरुष तथा गोकुल में इनका नानात्व विभाग यथानुपूर्वी प्ररूपित करूंगा। ३५५७. पित्त पुत्त धेरए या, अप्पभु दोसा य तम्मि उपउत्थे । जेद्वातिअणुण्णवणा, पाहुणए पाहुणए जं जं विधिग्गहणं ॥ - यदि पिता और पुत्र दोनों स्वामी हों तो दोनों की अनुज्ञा लेनी चाहिए। यदि पिता स्थविर हो, पुत्र बाल हो तो दोनों अप्रभु हैं, इनकी अनुज्ञा आवश्यक नहीं होती । अनुज्ञा लेने पर वे ही दोष होते हैं। यदि मूल स्वामी देशान्तर गया हुआ हो तो उसके ज्येष्ठ आदि पुत्र की अनुज्ञा लेनी चाहिए अथवा जो उनका प्राघूर्णक है उसकी अनुज्ञा लेनी होती है। इन सबमें विधिपूर्वक ग्रहण ही अनुज्ञात है। ३५५८. दुप्पभिइ पिया- पुत्ता, जहिं होंति पभू ततो भणइ सव्वे । णातिक्कमंति जं वा, अपभुं व पभुं व तं पुव्वं ॥ जहां दो आदि अनियत पिता पुत्र प्रभु होते हैं तो सबकी अनुज्ञा प्राप्त की जाती है अथवा जिस प्रभु या अप्रभु का अतिक्रमण नहीं होता, उसकी अनुज्ञा पहले ली जाती है। ३५५९. अप्पभु लहुओ दिव णिसि, पभुणिच्छूढे विणास गरहा य । असहीणम्मि पभुम्मि उ, सहीणजेद्वादऽणुण्णवणा ॥ अप्रभु की अनुज्ञा लेने पर मासलघु प्रभु द्वारा दिन में । निष्काशन करने पर चतुर्लघु और रात्री में निष्काशन करने पर चतुर्गुरु रात्री में निष्काशन होने पर विनाश होता है तो लोगों में निन्दा होती है। प्रभु यदि अस्वाधीन हो वहां नहीं हो तो जो ज्येष्ठपुत्र आदि स्वाधीन हों उनसे अनुज्ञा प्राप्त करनी चाहिए। यदि सभी प्रभु हों तो एक साथ सबकी अनुज्ञा लेनी चाहिए। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक = ३६५ ३५६०.पाहुणयं च पउत्थे, भणंति मेत्तं व णातगं वा से। यदि वह पुत्रवती न हो और छोटी भार्या पुत्रवती हो अथवा तं पि य आगतमेत्तं, भणंति अमुएण णे दिण्णं॥ दोनों में जो ज्येष्ठपुत्रा हो, जो पुत्र प्रभु हो अथवा जो भार्या प्रभु के देशान्तर चले जाने पर उसके प्राघूर्णक या मित्र स्वयं प्रभु हो, प्रमाणभूत हो उसकी अनुज्ञा ली जा सकती है। या ज्ञातक की अनुज्ञा ली जाती है। प्रभु के देशान्तर से ३५६४.तम्मि असाहीणे जेहपुत्तमाया व जा व से इट्ठा। लौटने पर उसे कहते हैं-अमुक ने हमें यह वसति दी है। ____ अह पुत्तमाय सव्वा, जीसे जेट्ठो पभू वा वि॥ ३५६१.अप्पभुणा उ विदिण्णे, भणंति अच्छामु जा पभू एती। यदि गृहस्वामिनी वहां न हो तो ज्येष्ठ भार्या अथवा पुत्र पत्ते उ तस्स कहणं, सो उ पमाणं ण ते इतरे॥ ___माता, अथवा गृहपति की जो वल्लभ पत्नी हो उससे वसति यदि वहां अप्रभु हो तो उसे कहे-हम यहां तब तक रह की अनुज्ञा ले। यदि सभी पत्नियां पुत्रमाताएं हो तो जिसका रहे हैं जब तक वसतिस्वामी न आ जाएं। जब अप्रभु उस पुत्र ज्येष्ठ हो, उसकी माता से अनुज्ञा ली जाए। यदि ज्येष्ठ वसति की अनुज्ञा देता है तो वहां रह जाएं और प्रभु के आने पुत्र प्रभु न हो तो जिसका पुत्र कनिष्ठ होने पर भी प्रभु हो तो पर उसे सारी बात बता दें। प्रभु उस वसति की अनुज्ञा दे या उस माता की अनुज्ञा लेनी चाहिए। वहां से निष्काशन कर दे, वही अर्थात् प्रभु ही प्रमाणभूत ३५६५.असहीणे पभुपिंडं, वज्जंती सेसए तु भहादी। होता है, इतर अर्थात् पहले वाला अप्रभु नहीं। साहीणे जहिं भुंजइ, सेसे वि उ भद्द-पंतेहिं॥ ३५६२.इय एसाऽणुण्णवणाजतणा पिंडो पभुस्स ऊ वज्जो। गृहस्वामी वहां न हो और उसकी पत्नी प्रभु हो तो भी __ सेसाणं तु अपिंडो, सो वि य वज्जो दुविहदोसा॥ उसका पिंड वर्ण्य है। शेष पत्नियों के घर का पिंड इस प्रकार प्रतिश्रय की अनुज्ञापना में यह यतना कही गई शय्यातरपिंड नहीं होता परन्तु भद्रक-प्रान्तकृत दोषों के है। प्रभु अर्थात् शय्यातर के पिंड का वर्जन करना चाहिए। कारण वर्जनीय है। शय्यातर जिस पत्नी के घर में खाता है, शेष जो अप्रभु हैं उनका अपिंड अर्थात् शय्यातर पिंड नहीं वह शय्यातरपिंड है। वह वर्ण्य है। शेष पत्नियों के घर का होता। वह भी दो प्रकार के दोषों-भद्रक और प्रान्तकृतदोष पिंड भी भद्रक-प्रान्त दोषों के परिहार के कारण वर्जनीय है। के कारण वर्जनीय है। ३५६६.एगत्थ रंधणे भुंजणे य वज्जेंति भुत्तसेसं पि। ३५६३.एगे महाणसम्मी, एक्कतो उक्खित्ते सेसपडिणीए। एमेव वीसु रद्धे, भुंजंति जहिं तु एगत्था॥ ___ जेट्टाए अणुण्णवणा, पउत्थे सुय जेट्ठ जाव पभू॥ एकत्र पकाया और एकत्र खाया-इस प्रथम विकल्प में शय्यातर के देशान्तरगमन करने पर उसकी जो पत्नियां शेष भोजन का ग्रहण भी वर्जनीय है। इसी प्रकार पृथक् हैं उनके भोजन विषयक चार विकल्प हैं पकाया और एकत्र खाया-इस तृतीय विकल्प में शेष बचे १. एक स्थान पर पकाया, एक स्थान पर खाया। भोजन का ग्रहण भी वर्ण्य है। २. एक स्थान पर पकाया, पृथक् पृथक् स्थानों पर ३५६७.निययं व अणिययं वा, जहिं तरो भुंजती तु तं वज्ज। खाया। सेसासु वि ण य गिण्हति, मा छोभगमादि भहाई॥ ३. पृथक् स्थानों पर पकाया, एक स्थान पर खाया। शय्यातर जिस पत्नी के घर में नियत-प्रतिदिन भोजन ४. पृथक् स्थानों पर पकाया, पृथक् स्थानों पर खाया। करता है अथवा अनियत-बारी-बारी से भोजन करता एक रसोईघर में पकाया और एकत्र खाया-यह पहला है-दोनों वयं हैं। शेष पत्नियों के घर से भी भोजन भंग गृहीत है। एक स्थान पर खाया और पृथक् स्थान पर ग्रहण नहीं करते क्योंकि उसमें भद्रक-प्रान्तकृत क्षोभक दोष पकाया-यह तीसरा भंग है। शेष प्रत्यानीत अर्थात् एकत्र होते हैं।' पकाया और एकत्र खाया और जो शेष बचा उसको पत्नियां ३५६८.दोसु वि अव्वोच्छिण्णे, सव्वं जंतम्मि जं च पाउम्गं। अपने-अपने घर ले गई। भद्रक और प्रान्त दोषों को ध्यान में खंधे संखडि अडवी, असती य घरम्मि सो चेव॥ रखकर उस पिंड का भी वर्जन करना चाहिए। शय्यातर की कोई शय्यातर देशान्तर जाने का इच्छुक होकर गांव के अनुपस्थिति में उसकी ज्येष्ठ भार्या से अनुज्ञा लेनी चाहिए। बाहर रहता है। उसके दोनों नगर के भीतर का घर और १. भद्रक शय्यातर शेष पत्नियों के घर में भोजन सामग्री का कल्पता है तो मेरे आधार पर जीवन यापन करने वाली मेरी पत्नियों छोभक-प्रेक्षेप करा देते हैं। वह सोचता है-मेरे घर से भोजन ग्रहण के घर का पिंड कैसे कल्पता है? इस प्रकार वह प्रविष्ट होकर नहीं करेंगे, वहां से तो ले ही लेंगे। ऐसा करके भी मैं पुण्य का उपार्जन साधुओं को प्रतिश्रय से निकाल देता है। करूं। प्रान्तक शय्यातर सोचता है-यदि मेरे घर का पिंड नहीं Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ बृहत्कल्पभाष्यम् बाहर का घर जहां वह ठहरा हुआ है, घरों में अव्यवच्छिन्न प्रकार देवकुल में, यज्ञ आदि में की जाने वाली संखडी तथा भक्तपान लाया जाता है वह नहीं कल्पता। शय्यातर शंबल लेकर काठ के निमित्त अटवी में जाते समय में उनमें से प्रस्थित होकर जा रहा है, तब सारा अर्थात् उस दिन लाया कुछ नहीं लेना चाहिए। हुआ या अन्य दिन लाया हुआ भक्त-पान नहीं कल्पता, ३५७३. मुत्तूण गेहं तु सपुत्त-दारो, फिर चाहे वह प्रासुक ही क्यों न हो। शय्यातर कंधे पर वाणिज्जमादी जति कारणेहि। सामान रखकर दूसरे गांव में बेचने ले जाता है, वह यदि सयं व अण्णं व वएज्ज देसं, उस वस्तुजात में से दूध-दही मुनियों को देता है, संखडी सेज्जातरो तत्थ स एव होति॥ बनाता है और उसमें से मुनियों को देता है, अथवा अटवी शय्यातर साधुओं को वसति की अनुज्ञा देकर अपने में जाते समय जो पाथेय साथ में हो, उसमें से मुनियों को पुत्र और भार्या को साथ ले व्यापार आदि कारण के निमित्त देता है-इन तीनों में ग्रहण करना नहीं कल्पता। यदि वह अपने या दूसरे के देश में जाता है, वहां भी वही शय्यातर शय्यातर सपुत्र-पशु-बांधव घर में न रहे तो देशान्तर में होता है। स्थित होने पर भी वही शय्यातर है। ३५७४.महतर अणुमहतरए, ललियासण कडुअ दंडपतिए य। ३५६९.निग्गमगाइ बहि ठिए, अंतो खेत्तस्स वज्जए सव्वं । एतेहिं परिग्गहिया, होति घडातो तदा काले॥ बाहिं तद्दिणणीए, सेसेसु पसंगदोसेण॥ महत्तर, अनुमहत्तर, ललितासनिक, कटुक और दंडपतिवणिक ने देशान्तर जाने के लिए घर से प्रस्थान किया। इन पांचों से परिगृहीत ही पूर्वकाल में घटाएं--गोष्ठियां गांव के बाहर ठहरा। यदि उसके ठहरने का स्थान क्षेत्र के होती थीं। भीतर हो तो शय्यातरपिंड के कारण सारा वर्ण्य है। यदि वह ३५७५.सव्वत्थ पुच्छणिज्जो, तु महतरो जेट्टमासण धुरे य। क्षेत्र से बाहर स्थित है तो उस दिन लाया हुआ पिंड तहियं तु असण्णिहिए, अणुमहतरतो धुरे ठाति॥ शय्यातरपिंड है, वह वयं है। शेष दिवस लाया हआ प्रसंग जो सर्वत्र प्रच्छनीय होता था, जिसका आसन दोष के आधार पर अग्राह्य है। बृहत्तर होता था, जो सबसे आगे बैठता था, वह है महत्तर। ३५७०.ठितो जया खेत्तबहिं सगारो, जो महत्तर की अनुपस्थिति में आगे बैठता है, वह है भत्तादियं तस्स दिणे दिणे य। अनुमहत्तर। अच्छिण्णमाणिज्जति णिज्जती य, ३५७६.भोयणमासणमिटुं, ललिए परिवेसिया दुगुणभागो। गिहा तदा होति तहिं वि वज्जे॥ ___कडुओ उ दंडकारी, दंडपती उग्गमे तं तु॥ शय्यातर क्षेत्र के बाहर स्थित है, उसके लिए प्रतिदिन जिसके मनोनुकूल भोजन और आसन किया जाता है, भक्त घर से बाहर लाया जाता है और बाहर से घर ले जाया । जिसके परोसनेवाली स्त्री होती है और जिसको इष्ट भोजन जाता है, वह सारा वहां रहने पर वर्जनीय होता है। दुगुना दिया जाता है, वह है ललितासनिक। अपराध पर दंड ३५७१.बाहिं ठिय पठियस्स उ, सयं व संपत्थिया उ गेण्हति। देने वाला है कटुक और जो उस दंड को क्रियान्वित करता है तत्थ उ भद्दगदोसा, ण होति ण य पंतदोसा उ॥ वह है दंडपति। शय्यातर क्षेत्र से बाहर स्थित होकर वहां से आगे ३५७७.उल्लोमाऽणुण्णवणा, अप्पभुदोसा य एक्कओ पढम। प्रस्थित हो जाता है तथा साधु भी स्वयं आगे जाने के लिए जेट्ठादिअणुण्णवणा, पाहुणए जं विहिग्गहणं ।। प्रस्थित हो गए हों तो वे उस शय्यातर से प्रासुक भक्तपान जो मुनि महत्तर आदि के क्रम का उल्लंघन कर विपरीत ग्रहण कर सकते हैं। उस समय लेने पर भद्रक और प्रान्त क्रम से देवकुल-सभा आदि की अनुपालना करता है उसके दोष नहीं होते। मासलघु प्रायश्चित्त तथा अप्रभुदोष होते हैं, निष्काशन ३५७२.अंतो बहि कच्छउडियादि ववहरंते पसंगदोसा उ। आदि हो सकता है। अतः सभी एक साथ मिलते हों तो देउल-जण्णगमादी, कट्ठादऽडविं व वच्चंते॥ पहले उनकी अनुज्ञा लेनी चाहिए। न मिलते हों तो ज्येष्ठ क्षेत्र के अभ्यन्तर या बाहर कक्षापुटिकादि लेकर कोई महत्तर के क्रम से अनुज्ञापना लेनी चाहिए। यदि महत्तर वणिक् अन्य गांवों में व्यापार के निमित्त जाता है और वह आदि कोई घर पर न मिले तो उनके प्राघूर्णक से अनुज्ञा ली साधुओं को दूध-दही आदि दिलाता है, उसका ग्रहण नहीं जा सकती है। इस विधि से उपाश्रय का ग्रहण ही करना चाहिए क्योंकि प्रसंग दोष की संभावना रहती है। इसी विधिग्रहण माना जाता है। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ दूसरा उद्देशक = ३५७८.उल्लोम लहू दिय णिसि, तेणेक्कहिं पिंडिए अणुण्णवणा। असहीणे जेहादि व, जइ व समाणा महतरं वा॥ विलोम से अनुज्ञापना करने पर मासलघु प्राप्त होता है। इसलिए उन पांचों का एकत्र मिलन पर पांचों की अनुज्ञा लेनी होती है। यदि पांचों का एकत्र मिलन न हो तो महत्तर आदि के घरों में जो ज्येष्ठ हो उसकी अनुज्ञा ले। जितने वहां हों उनकी अनुज्ञा ले। अथवा एक महत्तर की ही अनुज्ञा ली जा सकती है। ३५७९.बाहिं दोहणवाडग, दुद्ध-दही-सप्पि-तक्क-णवणीते। आसण्णम्मि ण कप्पति, पंच पए उप्परिं वोच्छं। किसी शय्यातर के गांव के बाहर दोहनवाड़ी है। वहां दूध, दही, घृत, तक्र और नवनीत-ये पांचों होते हैं। क्षेत्र के भीतर देने पर इनका ग्रहण नहीं कल्पता। ये पांचों द्रव्य क्षेत्र के बाहर होते हैं। इनके ग्रहण की विधि मैं आगे कहूंगा। ३५८०.निज्जतं मोत्तूणं, वारग भति दिवसए भवे गहणं। छिण्णं भतीय कप्पति, असती य घरम्मि सो चेव॥ गोकुल से जो दूध आदि शय्यातर के घर ले जाया जा रहा है वह शय्यातरपिंड होता है। उसको छोड़कर गोकुल में जो दूध आदि ग्रहण किया जाता है वह शय्यातरपिंड नहीं होता। जिस दिन गोपाल की बारी हो उस दिन वह शय्यातरपिंड नहीं होता, उसे ग्रहण किया जा सकता है। भृति (गोपाल को दिया जाने वाला दूध आदि का हिस्सा) विभक्त हो जाने पर उसे लेना कल्पता है। यदि शय्यातर घर में रहकर, पुत्र और पत्नी सहित वजिका आदि में चला जाए तो भी वही शय्यातर है। ३५८१.बाहिरखेत्ते छिण्णे, वारगदिवसे भतीय छिण्णे य। सो उण सागरिपिंडो, वज्जो पुण दिट्ठि भद्दादि। जो दूध आदि बहिरक्षेत्र में छिन्न-विभक्त किया है वह, गोपाल के बारी के दिन का तथा जो प्रति दिवस प्राप्त भृति से विभक्त दूध आदि-यह सारा सागारिक पिंड-शय्यातर पिंड नहीं होता, फिर भी शय्यातर के देखने पर भद्रक-प्रान्त दोष न हों, इसलिए उसका भी वर्जन करना चाहिए। ३५८२.एगं ठवे णिव्विसए, दोसा पुण भद्दए य पंते य। __णिस्साए वा छुभणं, विणास गरहं व पावंति॥ अनेक शय्यातर होने पर भी यदि निष्कारण एक शय्यातर की स्थापना कर, शेष शय्यातरों का भक्तपान लिया जाता है तो भद्रक-प्रान्तदोष होते हैं। भद्रक व्यक्ति स्थापित शय्यातर के घर पर भक्तपान निक्षिप्त कर देता है। जो प्रान्त होता है वह साधुओं का निष्काशन कर सकता है और तब वे साधु विनाश तथा गर्दा को प्राप्त होते हैं। ३५८३.सड्ढेहि वा वि भणिया, एग ठवेत्ताण णिव्विसे सेसे। गणदेउलमादीसु व, दुक्खं खु विवज्जिउं बहुगा॥ (उत्सर्ग पद में अनेक शय्यातरों में से एक को स्थापित करना नहीं कल्पता, परन्तु अपवादपद में वह किया जा सकता है)। यदि श्रावक यह कहें कि आप एक शय्यातर को स्थापित कर शेष के घरों में भक्तपान ग्रहण करें। इस प्रकार कहने पर एक की शय्यातररूप में स्थापना कर शेष घरों में भिक्षा ली जा सकती है। अथवा बहुजनसामान्य देवकुल, सभा आदि में स्थित मुनि एक को स्थापित कर शेष घरों में भिक्षाचर्या करे। अनेक घरों का वर्जन करना कष्टकर होता है। ३५८४.गिण्हंति वारएणं, अणुग्गहत्थीसु जह रुई तेसिं। पक्कण्णपरीमाणं, संतमसंतेयरे दव्वे॥ सभी शय्यातर अनुग्रहार्थी हों और उनकी रुचि बढ़ती जाए यह ध्यान में रखकर बारी-बारी से उनसे भिक्षा ग्रहण करे। वहां पके हुए अन्न का परिमाण अवश्य देखे और यह भी जाने कि वह द्रव्य उसके घर में विद्यमान था या नहीं? यदि पूर्वपरिमाण से सद्रव्य का उपस्कार करते हैं तो वह कल्पता है अन्यथा उसके ग्रहण की भजना है। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सागारियपिंडं बहिया अनीहडं असंसद्वं वा संसद्वं वा पडिग्गाहित्तए॥ (सूत्र १४) ३५८५.अंतो नूण न कप्पइ, कप्पइ णिक्खामिओ हु मा एवं। पत्तेय विमिस्सं वा, पिंडं गेण्हेज्जऽतो सुत्तं॥ निश्चित ही घर के भीतर शय्यातरपिंड नहीं कल्पता, परंतु घर से बाहर निष्क्रामित होने पर वह कल्पता है, ऐसा सोचकर कोई प्रत्येक अर्थात् असंसृष्ट और विमिश्र अर्थात् संसृष्ट पिंड ग्रहण न करे, इसलिए प्रस्तुत सूत्र की रचना है। ३५८६.वाडगदेउलियाए, इच्छा देतम्मि गहण तह चेव। णीसट्ठमणीसढे, गहणा-ऽगहणे इमे दोसा। शय्यातर के वाटक के मध्य में एक देवकुलिका है। वाटक वास्तव्य लोग संखडी करते हैं और भिक्षाचरों को देना चाहते हैं। उसका ग्रहण पूर्वसूत्र में कथित विधि से करना चाहिए। उसमें निसृष्ट-वानमंतरदेव को बली आदि दे दिए Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ जाने पर या अनिसृष्ट-न दिए जाने पर ग्रहण - अग्रहण करने में ये दोष होते हैं। ३५८७. उप्पत्तियं वा वि धुवं व भोज्जं, तस्सेव मज्झम्मि उ वाडगस्स । अमिस्सिते सागरिचोल्लगम्मि, अहिं सो चेव उ तस्स पिंडो ॥ शय्यातर के वाटक के मध्य देवकुलिका को वानमंतर देव के उद्देश्य से लोग संखडी करते हैं। वह दो प्रकार की होती है- औत्पत्तिकी अर्थात् आकस्मिक, जब कभी की जाने वाली और ध्रुव अर्थात् पर्वतिथियों (नवमी, दशमी) में की जाने वाली। वहां अन्य भोजनों के साथ शय्यातर को भोजन मिश्रित न हो तो वह भोजन लिया जा सकता है। केवल वही भोजन शय्यातरपिंड होता है, जो शय्यातर का अपना है। ३५८८. भद्दो तन्नीसाए, पंतो घेप्पंते दहूणं भणइ । अंतोघरे ण इच्छह, इह गहणं दुट्ठधम्मो त्ति ॥ जो शय्यातर भद्रक होता है, वह देवबली के साथ अपने निश्रा के भोजन का प्रक्षेप कर देता है। जो शय्यातर प्रान्त होता है, वह उसको ग्रहण करते हुए देखकर कहता है - अन्तरगृह में दिया जाने वाला पिंड आप लेना नहीं चाहते और इस प्रकार ग्रहण करते हैं। आप दुष्टधर्मा हैं। ३५८९. तेसु अगिण्हंतेसु य, तीसे परिसाए एवमुप्पज्जे । को जाणइ किं एते, साहू घेत्तुं ण इच्छंति ॥ जब वे साधु शय्यातर के निवेदनापिंड नहीं लेते, तब संखडी करने वाले लोगों की परिषद् को यह चिंता होती है - कौन जानता है कि ये साधु इस शय्यातरपिंड को लेना क्यों नहीं चाहते ? ३५९०. नूनं से जाति कुलं व गोत्तं, आगंतुओ सो य तहिं सगारो । भूणग्धऽसोयं व ततो च्चएवि, जं अम्ह इच्छंति ण सेज्जदातुं ॥ निश्चित ही ये साधु शय्यातर के कुल और गोत्र को जानते हैं। वह शय्यातर इस गांव में आगंतुक है (बाहर से आया हुआ है। ) । इसलिए इसके कुल और गोत्र को कोई नहीं जानता। वे लोग सोचते हैं यह शय्यातर 'भ्रूणघ्न'बालमारक है, अशौच है इसलिए ये मुनि इसके भोजन को छोड़कर हमारा पिंड लेना चाहते हैं । शय्यादाता के पिंड को लेना नहीं चाहते । ३५९१. ओभामिओ णेहि सवासमज्झे, चंडालभूतो य कतो इमेहिं । गेहे वि णिच्छंति असाधुधम्मा, अतो परं किं व करेज्ज अण्णं ॥ तब शय्यातर यह सोचता है - मैं अपने सहवासीलोगों के मध्य इन श्रमणों से अवमानित हुआ हूं। मैं इनके द्वारा चंडालतुल्य बना दिया गया हूं। ये असाधुधर्मा मुनि मेरे घर से पिंड लेना भी नहीं चाहते। इससे आगे अब वे मेरा और क्या करना चाहते हैं ? ३५९२. राओ दिया वा वि हु णेच्छुभेज्जा, बृहत्कल्पभाष्यम् एगस्स गाण व सेज्जछेदं । अद्वाण णिता व अलंभे जं तू, पावेज्ज तं वा वि अगिण्हमाणा ॥ तब वह रात में या दिन में श्रमणों को प्रतिश्रय से निकाल देता है। इस प्रकार एक या अनेक मुनियों के लिए शय्या का व्यवच्छेद कर देता है। तब अध्व में निर्गत मुनि वसति के अलाभ से जो परिताप आदि प्राप्त करते हैं उसके मूल जनक वे मुनि हैं जिन्होंने उस शय्यातर के पिंड को ग्रहण नहीं किया था । ३५९३. संसस्स उ गहणे, तहियं दोसा इमे पसज्जंति । तण्णीसाए अभिक्खं, संखडिकारावणं होज्जा ।। अन्य भोजन से संसृष्ट शय्यातरपिंड ग्रहण करने से ये दोष उसकी निश्रा से उत्पन्न होते हैं - वह शय्यातर यह सोचता है - यदि अन्यपिंड से संसृष्ट मेरा पिंड इन श्रमणों को कल्पता है तो मैं बार-बार इनको पिंड दूंगा - यह सोचकर बार-बार संखडी करने के लिए लोगों को प्रेरित करता है। ३५९४. अलऽम्ह पिंडेण इमेण अज्जो !, साहू ण इच्छंति इमस्स दोसा, भुज्जो ण आणेति जहेस इत्थं । अम्हे विवज्जेमु ण को वि एस ॥ तब साधु गृहस्थों को कहते हैं - आर्य ! इस संसृष्टपिंड से हमारा बहुत हो चुका। वे ऐसा इसलिए कहते हैं, जिससे कि वह शय्यातर फिर पिंड नहीं लाता। यह सुनकर गृहस्थ सोचते हैं- 'यदि इस शय्यातर के दोष के कारण मुनि यह पिंड लेना नहीं चाहते तो हम भी इसके साथ दान ग्रहण आदि का व्यवहार की वर्जना करेंगे। यह आगंतुक होने के कारण यह जान नहीं सकेगा। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक ३५९५. अगम्मगामी किलिबोऽहवाऽयं, बोट्टी व हुज्जा से सुणादिणा वा । तेण जहिं सगारो, पिंड ए तत्थ उ णाभिगच्छे ॥ यह अगम्यगामी क्लीव हो जाएगा अथवा वह बहिष्कृत होकर शुनक आदि की भांति उसका पिंड अस्पृश्य माना जाने लगेगा। इस प्रकार बहुत दोष होते हैं। जहां शय्यातर संखडी आदि में अपना पिंड ले जाता है वहां नहीं जाना चाहिए। दोसा बहू नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सागारियपिंड बहिया नीहडं असंस परिग्गाहित्तए । (सूत्र १५) कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सागारियपिंड बहिया नीहडं संस पडिग्गाहित्तए ॥ (सूत्र १६) ३५९६. बहिया उ असंसट्टे, दोसा ते चेव मोत्तु संसद्वं । संसदृमणुण्णायं, पेच्छउ सागारितो मा वा ॥ शय्यातर के वाटक से बाहर निष्काशित संखडी पिंड लेने में वे ही दोष हैं जो पूर्वसूत्र में कहे गए हैं । संसृष्ट पिंड में वे दोष नहीं होते। इसीलिए वाटक से बाहर संसृष्टपिंड प्रस्तुत सूत्र में अनुज्ञात है। शय्यातर उसको देखे या न देखे । ३५९७. नीसट्टमसंसट्ठो, वि अपिंडो किमु परेहिं संसट्टो । अप्पत्तियपरिहारी, सगारदि परिहरति ॥ जो पिंड निसृष्ट होने पर भी असंसृष्ट है, वह शय्यातरपिंड नहीं होता, फिर वह अन्य भोजनों से ही संसृष्ट क्यों न हो? परन्तु अप्रीति का परिहार करने वाले होने के कारण सागारिकदृष्ट का भी परिहार करते हैं । ३५९८. अट्टिस्स उ गहणं, असती तव्वज्जितेण दिट्ठस्स । दिट्ठे व पत्थियाणं, गहणं अंतो व बाहिं वा ॥ सबसे पहले सागारिक के द्वारा अदृष्ट, फिर संस्तरण के अभाव में उस एक सागारिक को छोड़कर शेष कुटुम्ब द्वारा दृष्ट संसृष्टपिंड का ग्रहण अनुज्ञात है । साधु ग्रामान्तर के लिए प्रस्थित हों तो दृष्ट, संसृष्ट या असंसृष्ट अथवा वाटक के आभ्यन्तर या बहिर् - सर्वत्र ग्रहण अनुज्ञात है। ३६९ ३५९९. पाहुणगा वा बाहिं, घेत्तुमसंसगं च वच्वंति । अंतो वा उभयं पी, तत्थ पसंगादओ णत्थि ।। वहां प्राघूर्णक आए हैं। वे वाटक से बाहर निष्क्रामित पिंड, निसृष्ट या अनिसृष्ट लेकर (खाकर ) जाते हैं। वाटक के भीतर उभय अर्थात् प्राघूर्णक और साधु- दोनों पिंड ग्रहण करते हैं। वहां प्रसंग आदि दोष नहीं होते। (प्रसंग का अर्थ है - उनकी निश्रा से पुनः संखडी करवाना) । ३६००. जो उ महाजणपिंडेण मेलितो बाहि सागरियपिंडो । तस्स तहिं अपभुत्ता, ण होति दिट्ठे वि अचियत्तं ॥ ३६०१. जं पुण तेसिं चिय भायणेसु अविमिस्सियं भवे दव्वं । तं दिस्समाण गहियं, करेज्ज अप्पत्तियं पभुणो ॥ ३६०२. जं पुण तेण अदिट्ठे, दुघाण गहणं तु होतऽसंसट्टे । यं ताणि कधिज्जा, ण यावि ण य आयरो तत्थ ॥ जो सागारिक पिंड वाटक से बाहर महाजनपिंड के साथ मिश्रित हो गया, उसका ग्रहण कल्पता है। क्योंकि वहां सागारिक का अप्रभुत्व है, महाजन का ही प्रभुत्व है । सागारिक द्वारा देखे जाने पर भी उसमें अप्रीति नहीं होती । जो द्रव्य शय्यातर के मनुष्यों के भाजन में ही हो, वह अविमिश्रित होता है। उसको देखते हुए लेने पर शय्यातर के मन में अप्रीति पैदा हो सकती है, अतः उसे नहीं लेना चाहिए। शय्यातर द्वारा अदृष्ट होने पर दुघाण - 'दुर्भिक्ष' के समय असंस्तरण के कारण पिंड का ग्रहण करने पर, वे शय्यातर के मनुष्य जाकर शय्यातर को कहते हैं पर शय्यातर उस कथन को आदर नहीं देता। 'नो कप्पर निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सागारियपिंड बहिया नीहडं असंसट्टं संस करेत्तए' जे खलु निग्गंथे वा निग्गंथी वा सागारियापिंड बहिया नीहडं असंसट्ठ संसद्वं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ, से दुहओ वि अइक्कममाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ॥ (सूत्र १७) ३६०३. संसस्स उ करणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्घाता । आणादिणो य दोसा, विराहणा संजमा - ऽऽदाए ॥ असंसृष्ट लेना नहीं कल्पता, यह सोचकर यदि संसृष्ट करता है तो चार अनुद्घातमास का प्रायश्चित्त आता Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० =बृहत्कल्पभाष्यम् १७म, है। तथा आज्ञा आदि दोष और संयम तथा आत्मविराधना ६.जब तक वह भुक्त भोजन जीर्ण नहीं हो तब तक। होती है। आचार्य कहते हैं-ये सारे अनादेश हैं। सिद्धान्तपक्ष यह ३६०४.सयमेव उ करणम्मी, उदगप्फुस भंडणुण्हवण पंते। है-जब तक वह संयत इस क्रिया की आलोचना-प्रतिक्रमण तेणा चारभडा वा, कम्मबंधे पसज्जणया॥ नहीं करता, तब तक कर्मबंध होता रहता है। स्वयं करने में ये दोष होते हैं-संयत ने हमारे भाजनों का ३६०७.णिच्छंति व मरुगादी, ओभावण जं च अंतरायं तु। स्पर्श किया है, यह सोचकर उनका उदक से प्रक्षालन करते कुज्जा व पच्छकम्मं, पवत्तणं घाय बंधं वा॥ हैं, भंडन-कलह भी हो जाता है, उण्हवण-उन भाजनों को यह भोजन संयत द्वारा स्पृष्ट है, यह सोचकर अग्नि में शुद्ध किया जाता है-ये प्रान्त संखडीकारी व्यक्ति मरुक ब्राह्मण आदि उसे लेना नहीं चाहते। यह मुनियों का करते हैं। स्तेन और चारभट-राजपुरुष संयतसंसृष्ट पिंड का अपमान है और उस पिंड को न खाने वाले ब्राह्मणों आदि के अपहरण कर ले जाते हैं। कर्मबंध की प्रसज्जना होती है। वह अंतराय होता है। गृहस्थ उनके लिए पश्चात्कर्म करता है। संयत पुनः ऐसा नहीं करता। भद्रक श्रावक उस अन्न को पवित्र समझकर अपने घर ले ३६०५.भिंदेज्ज भाणं दवियं व उज्झे, जाते हैं और जो प्रान्त होते हैं वे संयतों का घात या बंधन डज्झेज्ज उण्हेण कडी व भुज्जे।। करते हैं। संसत्तगं तं व जहिं व छुब्भे, ३६०८.कारावणमण्णेहिं, अणुमोदण उम्हमादिणो दोसा। विरोहि दव्वं व जहिं व छड्डे॥ दुविहे वतिक्कमम्मि, पायच्छित्तं भवे तिविहं।। संयत सागारिक पिंड को अन्यत्र डालता हुआ भाजन का मुनि संसृष्ट करने में असमर्थ होने पर दूसरों से कराते हैं भेद कर डालता है अथवा भाजन में जो द्रव्य है उसका या संसृष्ट करने वालों का अनुमोदन करते हैं। इसमें उष्मा परित्याग करता है अथवा वह द्रव्य अतीव उष्ण होने के आदि दोष होते हैं। दो प्रकार के व्यतिक्रम-लौकिक और कारण वह संयत उससे जल जाए, कटी वक्र हो जाए। जहां लोकोत्तरिक-में तीन प्रकार का प्रायश्चित्त है-करना, वह सागारिकपिंड का प्रक्षेप करता है, वह द्रव्य जंतुसंसक्त करवाना और अनुमोदन करना। होने पर संयमविराधना होती है। अथवा वह द्रव्य विरोधी हो, ३६०९.लोउत्तरं च मेरं, अतिचरई लोइयं च मेलतो। उसे खाने पर अनेक रोग उत्पन्न हो सकते हैं, यह अहवा सयं परेहि य, दुविहो तु वतिक्कमो होति॥ आत्मविराधना है। जहां उस द्रव्य का निक्षेपण किया जाता है ३६१०.पढमिल्लुगम्मि ठाणे, दोहि वि गुरुगा तवेण कालेण। वहां छहकाय विराधना संभव है। ___ बितियम्मि य तवगुरुगा, कालगुरू होति ततियम्मि। ३६०६.तं तेण छूढं तहिगं च पत्ता, लोकोत्तर मर्यादा यह है-असंसृष्ट को संसृष्ट करना नहीं तेणा भडा घोड कुकम्मिगा य। कल्पता। लौकिक मर्यादा यह है-भोजन को नहीं मिलाना आसत्त णामऽद्वित आउ मंसा, चाहिए। वह इस दोनों मर्यादाओं का अतिक्रमण करता है। ण जिण्णऽणादेस ण जा विउट्टे॥ अथवा स्वयं करना तथा दूसरों से करवाना-इस प्रकार दो उस संयत ने उस द्रव्य को भाजन में डाला और उसी प्रकार का व्यतिक्रम होता है। इनमें प्रथम स्थान में अर्थात् समय स्तेन, भट-राजपुरुष, घोट-पंचालचट्ट तथा कुकर्मी स्वयं करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त, तप और काल से भी वहां आ गए और उस भाजन का अपहरण कर ले गए। इस गुरु। दूसरे स्थान में अर्थात् दूसरों से करवाने पर वही विषयक कर्मबंध में ये मत-मतान्तर हैं प्रायश्चित्त है, तप गुरुकयुक्त। तीसरे स्थान में अर्थात् १. सातवें कुल के अनुवर्तन पर्यंत संयत के कर्मबंध होगा। अनुमोदन करने पर वही प्रायश्चित्त काल गुरुकयुक्त होता है। २. जब तक उनका नाम-गोत्र का अनुवर्तन होगा। ३६११.अम्हच्चयं छूढमिणं किमट्ठा, ३. जब तक उनकी अस्थियां रहेंगी। तं केण उत्ते कहिते जतीहिं। ४. जब तक वे जीवित रहेंगे। ते चेव तोयादि पवत्तणा य, ५. जब तक उस द्रव्य के अशन के परिणामस्वरूप असिह तेणे व असंखडादी। मांसोपचय होगा। कलह करने वाले कहते हैं-यह द्रव्य हमारा था इसको १. जो गृहस्थ जिस द्रव्य से संसृष्ट करता है, वह अत्यंत उष्ण होने के है, उस द्रव्य का स्वामी उससे कलह कर सकता है-तुमने मेरे द्रव्य कारण उसके हाथ तप्त हो जाते हैं। जो द्रव्य वह उसमें प्रक्षिप्त करता का स्पर्श क्यों किया? इत्यादि दोष होते हैं। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक किसने और क्यों दूसरे द्रव्य में प्रक्षिप्त किया? इस प्रकार कहने पर रक्षपाल कहता है यतियों ने यह व्रज्य मिलाया है। इस पर पूर्वोक्त उदकस्पर्शन बर्तनों को धोना, भंडन आदि दोष होते हैं। जो भद्रक होते हैं वे उसे पवित्र मानकर घर ले जाते हैं। लोगों को न कहने पर रक्षपाल के साथ ही कलह आदि करने लग जाते हैं। ३६१२.अद्बाणणिग्गयादी, पविसंता वा वि अहव ओमम्मि । अणुमोदन कारावण, पभुणिक्खंतस्स वा करणं ॥ अध्वनिर्गत विहार कर आए हुए अथवा अशिव क्षेत्र से आए हुए अथवा अध्व में प्रवेश करने के इच्छुक अथवा मौदर्य में संसृष्ट पिंड का अनुमोदन करते हुए या कराते हुए या प्रभु के निष्क्रमण करने पर स्वयं भी संसृष्टपिंड कर सकते हैं। ३६१३. पुराण सामं व महत्तरं वा, अण्णं व माहेति तहिं च छोड़। सागारिओ वा वि विगोवितो जो, स पिंडमण्णेस तु संदधाति ॥ संसृष्ट किससे कराए ? पहले पश्चात्कृत से, उसके अभाव में श्रावक से, पश्चात् महत्तर से अथवा अन्य जो प्रमाणभूत हो उससे अन्यपिंडों में सामारिक पिंड को मिलाने के लिए प्रज्ञापना करते हैं। अथवा जो शय्यातर विकोविद है वह स्वयं ही अन्यपिंडों में स्वयं के पिंड को मिला देता है। ३६१४. सम्मिस्सियं वा वि अमिस्सियं वा, गिण्हंति गीता इतरेहिं मिस्सं । कारेंतऽदिट्टं चऽविगोवितेसू, दिहं च तप्पच्ययकारि गीता ॥ यदि गच्छ में सभी गीतार्थ हों तो वे सम्मिश्रित या अमिश्रित सागारिक पिंड ग्रहण करते हैं। यदि गच्छ अगीतार्थ मुनियों से युक्त होता है तो मिश्र - संसृष्ट लेते हैं, असंसृष्ट नहीं। अकोविद अगीतार्थ संत न देखे इस प्रकार वे संसृष्ट कराते हैं उनमें प्रत्यय होता है तब प्रत्ययकारी गीतार्थं उनके देखते हुए संसृष्ट कराते हैं। ३६१५. जो उज्जिओ आसि पभू व पुव्वं, तप्पक्खिओ राय-गणच्चिओ वा । सवीरिओ पक्खिवती इमं तु. वोनूण किं अच्छइ एस वीसुं। पहले इस गांव का अधिपति ऊर्जित-शक्तिशाली था। वह तत्पाक्षिक गांव का हितैषी तथा राजगणांचित - राजसम्मत था। ऐसा शक्तिशाली वह सागारिकपिंड को अन्यपिंड में ३७१ प्रक्षिप्त कर देता है, यह वचन कहकर कि यह पिंड पृथक क्यों पड़ा है। सागारियस्स आहडिया सागारिएण पडिम्गाहिया, तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए । (सूत्र १८) सागारियस्स आहडिया सागारिएण अपडिम्गाहिया, तम्हा दावए एवं से कप्पड़ पडिम्गाहित्तए । (सूत्र १९) ३६१६. नीहडसागरिपिंडस्स विवक्खो आहडो अह उ जोगो । नीडसुत्ते पुणरवि, जोगो संदओ नाम ॥ पूर्वसूत्र में निर्हृतसागारिक पिंड के विषय में कहा गया था प्रस्तुत सूत्र में उसके विपक्ष आहत का प्रतिपादन है। यह प्रस्तुत सूत्र के साथ योग है तथा इस सूत्र के पश्चात् पुनः निईतसूत्र होगा। यह सन्वष्टक योग है अर्थात् आदि में निर्हृतसूत्र, मध्य में आहृतसूत्र और अन्त में पुनः निर्हृतसूत्र । ३६१७. आइडिया उ अभिघरा, कुलपुत्तग भगिणि मट्टिगालिते। दव्वे खेत्ते काले, भावम्मि य होह आहडिया || आहृतिका का अर्थ है-अभिघर अर्थात् दूसरे के गृह से प्राप्त होने वाला विशेष खाद्यद्रव्य । एक कुलपुत्र ने उसी गांव में ब्याही हुई अपनी बहन के लिए कुछ मिठाई भेजी। बहन उस समय मृत्तिका का लेप कर रही थी। उसके हाथ मृत्तिका से लिप्त थे। उसने मिठाई एक ओर रखवा दी। इस आहृतिका के चार प्रकार हैं- द्रव्याहतिका क्षेत्राद्वतिका, कालाहतिका और भावाहृतिका । · ३६१८. आएस विसेसे, सति काले भगिणि संभरित्ताणं । भज्जिं भज्जाहत्थे, कुलओ पेसेति भगिणीए ॥ कुलपुत्र ने प्राचूर्णक के लिए विशेष खाद्यद्रव्य बनाए । भोजन के समय अपनी बहन की स्मृति होने पर उसने अपनी भार्या के हाथ से भर्जिका प्रहेणक अपनी बहिन के निमित्त भेजा। यह आहृतिका है। (इसके चार विकल्प होते हैं १. द्रव्यतः स्वीकृत भावतः नहीं। २. भावतः स्वीकृत द्रव्यतः नहीं । Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ बृहत्कल्पभाष्यम् ३. भावतः और द्रव्यतः स्वीकृत। द्रव्यतः अच्छिन्न है। सागारिक द्वारा अदृष्ट होने पर क्षेत्रतः ४. दोनों से स्वीकृत नहीं।) अच्छिन्न है। जहां वेला का निर्देश नहीं है वह कालतः ३६१९.उच्छंगे अणिच्छाए, ठविया दव्वगहिया ण पुण भावे। अच्छिन्न है और जहां ले जाने का भाव अव्यवच्छिन्न है वह एत्थ पुण भद्द-पंता, अचियत्तं चेव घेप्पंते॥ भावतः अच्छिन्न है। ३६२०.वावार मट्टिया-असुइलित्तहत्था उ बिइयओ भंगो। ३६२३.भावो जाव न छिज्जइ,विप्परिणय गेण्ह मोत्तु खेत्तं तु। दोसु वि गहिए तइओ, चउत्थभंगे उ पडिसेहो। खेत्ते वि होति गहणं, अद्दिद्वे विप्परिणतम्मि॥ भाई द्वारा प्रेषित भर्जिका (प्रहेणक) को बहिन ने स्वीकार जब तक भाव व्यवच्छिन्न नहीं होता तब तक नहीं नहीं किया। उसके न चाहते हुए भी उसे लाने वाली ने कल्पता। 'जब नहीं ले जाऊंगा'-यह भाव विपरिणतउसको बहिन की ननद की गोद में रख दिया। यह आहृतिका व्यवच्छिन्न हो जाता है तब ग्रहण करना कल्पता है, किन्तु द्रव्यतः स्वीकृत है, भावतः नहीं। इसमें भद्रक और प्रान्त क्षेत्रछिन्न नहीं कल्पता। क्षेत्रछिन्न भी लेना तब कल्पता है जब दोष होते हैं तथा इसको ग्रहण करने पर अप्रीति उत्पन्न होती। ले जाने का भाव विपरिणत हो जाता है और सागारिक के है। यह प्रथम भंग है। द्वारा अदृष्ट होता है। वह भगिनी उस समय किसी कार्य में व्याप्त हो, मृत्तिका ३६२४.पुरतो पसंग-पंता, अचियत्तं चेव पुव्वभणियं तु। अथवा अशुचि से हाथ लिप्स हों तो कहती है-इसको यहां रख बितिय-ततिया उ पिंडो, पढम-चउत्था पसंगेहिं। दो। यह भावतः स्वीकृत है, द्रव्यतः नहीं। यह द्वितीय भंग सागारिक के सामने ग्रहण करने पर भद्रक और प्रान्त है। तृतीय भंग में द्रव्यतः और भावतः स्वीकृत है और चतुर्थ का प्रसंग आता है। पूर्वभणित अप्रीतिक की बात भी आती भंग में द्रव्यतः और भावतः प्रतिषेध है। है। दूसरे और तीसरे भंगवर्ती पिंड, शय्यातरपिंड होने (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से चार प्रकार की के कारण परिहर्तव्य है। पहले और चौथे भंगवर्ती पिंड आहृतिकाओं के दो-दो भेद और हैं-छिन्न और अच्छिन्न।) शय्यातर पिंड नहीं होते, परन्तु प्रसंगदोष के भय से वे भी ३६२१.संकप्पियं व दव्वं, दिट्ठा खेत्तेण कालतो छिन्नं। वर्ण्य हैं। दोसु उ पसंगदोसा, सागारिए भावतो दुविहो॥ ३६२५.कप्पइ अपरिग्गहिया, णिक्खेवे चउ दुगं अजाणता। अमुक द्रव्य उसके घर ले जाना है, इस प्रकार का जाणता वि य केई, सम्मोहं काउ लोभा वा॥ संकल्प करना या इस प्रकार संकल्प कर उस द्रव्य को कुछ आचार्य कहते हैं-निक्षेप चतुष्क (श्लोक ३६१८) अलग रख देना यह द्रव्यतः छिन्न है। आहृतिका को में पहले और चौथे भंग के आधार पर प्रस्तुत सूत्र प्रवृत्त सागारिक ने देख लिया वह क्षेत्रतः छिन्न है। जिसमें काल की हुआ है। वे इस सूत्र के अर्थ को न जानते हुए या जानते हुए मर्यादा की है वह कालतः छिन्न है। द्रव्य को ले जाने का भाव भी कुछ अगीतार्थ मुनियों का मोह कर लोभवश यह निवृत्त हो जाने पर वह भावतः छिन्न है। कहते हैं-सागारिक द्वारा अपरिगृहीत आहृतिका का ग्रहण पहला और चौथा भंग सागारिकपिंड नहीं है, परन्तु कल्पता है। प्रसंगदोष के कारण ये दोनों वर्ण्य हैं। दूसरा और तीसरा भंग ३६२६. आहडं होइ परस्स हत्थे, सागारिकपिंड होने के कारण नहीं कल्पता। जंणीहडं वा वि परस्स दिन्नं । ३६२२.संकप्पियं वा अहवेगपासे, तं सुत्तछंदेण वयंति केई, सगारिदि8 अमुगं तु वेलं। कप्पं ण चे सुत्तमसुत्तमेवं॥ नियट्ट भावे नऽमुगं अदिट्ठा, कुछेक आचार्यदशीय सोचते हैं जो आहृतक काले ण निद्देस अछिन्न भावे॥ (आहृतिका) शय्यातर के घर में ले जाया जा रहा है, वह विशेष द्रव्य ले जाने का संकल्प किया अथवा एक दूसरे के हाथ में है-यह प्रस्तुत सूत्र का विषय है। जो पार्श्व में रख दिया यह द्रव्यतः छिन्न है। सागारिक ने अपने आहतक शय्यातर के घर से निष्काशित है और जो दूसरे घर लाते हुए उसे देख लिया, वह क्षेत्रतः छिन्न है। अमुक के हाथ में है, इससे वक्ष्यमाणसूत्र गृहीत है। इस प्रकार का वेला में यह नेतव्य है-यह कालतः छिन्न है और ले जाने द्रव्य सूत्र के अभिप्राय से कल्प्य है। यदि इसे कल्प्य न का भाव निवृत्त हो जाना भावतः छिन्न है। ले जाने वाले मानें तो सूत्र असूत्र हो जाएगा, अप्रमाण हो जाएगा। इसके द्रव्य का न संकल्प किया और न उसे पृथक् रखा, यह उत्तर में सूरी कहते हैं Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक ३७३ ३६२७.सुत्तं पमाणं जति इच्छितं ते, अर्थावबोध करा देता है। अतः अर्थ पर अवलंबित सूत्र ही ण सुत्तमत्थं अतिरिच्च जाती। प्रमाण होता है।) अत्थो जहा पस्सति भूतमत्थं, ३६३१.अप्पस्सुया जे अविकोविता वा, तं सुत्तकारीहिं तहा णिबद्धं॥ . ते मोहइत्ता इमिणा सुएण। यदि तुम सूत्र को प्रमाणरूप में मानते हो तो सोचो कि तेसिं पगासो वि तमंतमेति सूत्र अर्थ का अतिरेक नहीं करता। अर्थ जैसे अभिधेय को निसाविहंगेसु व सूरपादा॥ देखता है, सूत्रकर्ताओं ने उसी अभिप्राय से सूत्र की संरचना जो अल्पश्रुत और अकोविद-अगीतार्थ हैं, उनको इस की है। सूत्र ने मोह लिया है। इसके आधार पर वे सागारिक ३६२८.छाया जहा छायवतो णिबद्धा, का आहृतिकापिंड ग्रहण करते हैं। उनका यह प्रकाश भी संपत्थिए जाति ठिते य ठाति। प्रबल अंधकार में परिणत होता है। जैसे निशाचारी पक्षियों अत्थो तहा गच्छति पज्जवेसू, (उल्लू आदि) के लिए सूर्य की किरणें भी अंधकारमयी सुत्तं पि अत्थाणुचरं तहेव॥ होती हैं। छायावान् पुरुष की जैसे छाया निबद्ध है-परतंत्र है, पुरुष ३६३२.अहभावविप्परिणए, अहिट्ठ सुयं तु तम्मि उ पउत्थे। के प्रस्थित होने पर वह चलती है, उसके बैठने पर वह भी नीहडियाए पुरओ, संछोभगमादिणो दोसा। स्थित हो जाती है, ठहर जाती है। इसी प्रकार अर्थ जिन-जिन यदि आहृतिका को ले जाने वाले का भाव स्वतः बदल पर्यायों में जाता है, सूत्र भी अर्थ का अनुचर होकर उन-उन जाता है तो उसे लेना कल्पता है। अथवा वह जिसके लिए पर्यायों को छूता है। आहृतिका ले जा रहा है, मार्ग में वह सुनता है कि वह व्यक्ति ३६२९.जं केणई इच्छइ पज्जवेण, ग्रामान्तर गया हुआ है, तब वह सोचता है उसके लिए क्यों अत्थो ण सेसेहि उ पज्जवेहि। ले जाऊं-इस प्रकार वह विपरिणत होने पर, सागारिक द्वारा विही व सुत्ते तहि वारणा वा, अदृष्ट होने पर वह ग्रहण किया जा सकता है। यह इस सूत्र उभयं व इच्छंति विकोवणट्ठा॥ का कथन है। वक्ष्यमाण सूत्र का कथन है कि निर्हतिका को जो सूत्र जिस अर्थ को जिस किसी पर्याय से ग्रहण करना सागारिक के देखते हुए लेने पर संछोभक-प्रक्षेपक आदि चाहता है वहां उसी को प्रमाण मानना चाहिए, शेष पर्यायों । दोष होते हैं। अतः सागारिक के समक्ष उसे नहीं लेना को नहीं। कहीं सूत्र में विधि का निरूपण है और कहीं सूत्र में चाहिए। वारणा का, प्रतिषेध का निरूपण है और कहीं-कहीं शिष्य ३६३३.नीयं पि मे ण घेच्छति, धम्मो व जतीण होति देंतस्स। की मति को बढ़ाने के लिए ही सूत्र में विधि-प्रतिषेध-दोनों वसणऽब्भुदओ वा सिं, भंडणकम्मे व अद्दण्णा॥ निबद्ध हैं। आहृतिका ले जाने वाला सोचता है मैं इसे ले जा रहा ३६३०.उस्सग्गओ नेव सुतं पमाणं, हूं, परंतु वह इसे स्वीकार नहीं करेगा अथवा यतियों को ण वाऽपमाणं कुसला वयंति। ऐसा द्रव्य देने से धर्म होता है अथवा जिनके पास ले जाया अंधो य पंगुं वहते स चावि, जा रहा है उनके कोई शोक हो गया है अथवा कोई कहेति दोण्हं पि हिताय पंथं॥ अभ्युदय-उत्सव आदि आ गया है अथवा कोई कलह हो तीर्थंकर या गणधर कहते हैं कि सामान्यतः सूत्र न रहा है अथवा वे कृषि आदि कर्म में व्याकुल हैं-अतः ये प्रमाण है और न अप्रमाण। (किन्तु जो सूत्र पूर्वापर विरुद्ध इसे स्वीकार नहीं करेंगे। नहीं है तथा पारंपरिक अर्थ से युक्त है, वह है प्रमाण, अन्यथा ३६३४.इति भावम्मि णियत्ते, तेहि अदिट्ठस्स कप्पती गहणं। अप्रमाण) जैसे अंधा व्यक्ति पंगु को अपने कंधों पर वहन कर छेत्तादिणिग्गतेसु व, कप्पति गहणं जहिं सुत्तं॥ चलता है। वह पंगु भी दोनों के हित के लिए मार्ग का कथन इस प्रकार भावना की निवृत्ति हो जाने पर, जिनके पास करता है, मार्ग दिखाता है। (इसी प्रकार अर्थ से वह आहृतिका ले जाई जा रही है उन शय्यातर मनुष्यों द्वारा अप्रतिबोधित सूत्र अंध सदृश है। जब वह पंगुस्थानीय अदृष्ट होने पर उसका ग्रहण कल्पता है। अथवा क्षेत्र आदि अर्थ को वहन करता है, तब वह अर्थ सूत्र की निश्रा से से निर्गत होने पर ग्रहण कल्पता है। यह सूत्र के अवतरण का चलता हुआ अपने गन्तव्य तक पहुंच जाता है, सम्यग् विषय है। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ = बृहत्कल्पभाष्यम् सागारियस्स नीहडिया परेण अशूद्रान्नव्रत दंभ है वैसे ही इन श्रमणों का शय्यातरपिंडअपडिग्गाहिता, तम्हा दावए नो से कप्पइ परिहारव्रत दंभ मात्र है।) पडिग्गाहित्तए॥ ३६३८.दुविहे गेलन्नम्मी, णिमंतणे दव्वदुल्लभे असिवे। ओमोदरिय पओसे, भए य गहणं अणुण्णायं ।। (सूत्र २०) शय्यातर का पिंड सात कारणों से अनुज्ञात हैसागारियस्स नीहडिया परेण १. आगाढ़ या अनागाढ़ ग्लानत्व में। २. निमंत्रण। पडिग्गाहिया, तम्हा दावए एवं से कप्पइ ३. दुर्लभद्रव्य। ४. अशिव। ५. अवमौदर्य। ६. प्रद्वेष अथवा पडिग्गाहित्तए॥ राजद्विष्ट। ७. भय। ३६३९.निब्बंधनिमंतेंते, भणंति भन्जिं दलाहि जा एसा। (सूत्र २१) तं पुण अविगीतेसुं, गीया इतरं पि गेण्हंति॥ शय्यातर द्वारा हठपूर्वक निमंत्रित होने पर साधु कहते ३६३५.पढम-चउत्था पिंडो, हैं-यह भर्जिका (आहृतिका या निर्हतिका) हमें दो। यह बितिओ ततिओ य होति उ अपिंडो। अगीतार्थ मुनियों के लिए ली जाती है। गीतार्थ मुनि तो दूसरा पुरतो ते वि विवज्जे, सागारिकपिंड भी लेते हैं। __ भद्दग-पंतेहिं दोसेहिं॥ ३६४०.णेच्छंतमगीतं एतिणेव सुत्तेण पत्तियाति। सागारिक पिंड जो अन्यत्र ले जाया जाता है, उसे सच्छंदण ण भणिमो, फुड-वियडमिणं भणति सुत्तं। निर्हतिका कहते हैं। उसके चार विकल्प हैं यदि अगीतार्थ मुनि आहृतिका और निर्हृतिका को ग्रहण १. द्रव्यतः प्रतिगृहीत, भावतः नहीं। करना नहीं चाहते, उनको इसी सूत्र से विश्वास दिलाते हुए २. भावतः प्रतिगृहीत, द्रव्यतः नहीं। कहा जाता है-आर्य! हम स्वच्छंदरूप से कुछ नहीं कह रहे ३. द्रव्यः और भावतः प्रतिगृहीत। हैं, किन्तु प्रस्तुत सूत्र स्फुटरूप से स्पष्टाक्षरों में इस तथ्य को कह रहा है। ४. द्रव्यतः और भावतः प्रतिगृहीत नहीं। ३६४१.जो तं जगप्पदीवहिं पणीयं सव्वभावपण्णवणं। इनमें प्रथम और चतुर्थ भंग शय्यातरपिंड है, द्वितीय और ण कुणति सुतं पमाणं, ण सो पमाणं पवयणम्मि॥ तृतीय भंग शय्यातरपिंड नहीं होता। परन्तु इसे भी सागारिक जो कोई श्रमण जगत् के लिए प्रदीप स्वरूप तीर्थंकरों के देखते नहीं लेना चाहिए क्योंकि इसमें भद्रक और प्रान्त द्वारा प्रणीत तथा समस्त भाव के प्रज्ञापक श्रुत को प्रमाण दोष होते हैं। रूप में नहीं मानता, वह मुनि प्रवचन अर्थात् धर्मसंघ में ३६३६.केणावि अभिप्पाएण दिज्जमाणं पिणेच्छिउं पुब्दि।। प्रमाण नहीं होता। अम्हे ओभावंता, पुरओ च्चि णे पडिच्छंति॥ ३६४२.जस्सेव पभावुम्मिल्लिताई तं चेव हयकतग्घाई। जो प्रान्त शय्यातर है वह यह सोचता है-पहले इन कुमुदाई अप्पसंभावियाई चंदं उवहसंति॥ श्रमणों ने हमारे द्वारा दिया जाने वाला पिंड किसी भी जिस चंद्रमा के प्रभाव से कुमुद खिलते हैं, वे कृतघ्नता अभिप्राय से नहीं लिया और अब ये हमारा तिरस्कार करते के कारण 'हम ही शोभायमान हैं।' इस आत्मश्लाघा से हुए हमारे सामने वही द्रव्य ले रहे हैं। प्रेरित होकर चन्द्रमा का उपहास करते हैं। इसी प्रकार ३६३७.किं तं न होति अम्हं, खेत्तरियं व किं विसमदोस।। आर्यो! जिस श्रुत के प्रभाव से तुम उबुद्ध हुए हो उसी को सुव्वत्त सोत्तिगादिव, चरेंति जतिणो वि डंभेणं। अप्रमाण मानना कृतघ्नता है। वे सोचते हैं क्या यह द्रव्य हमारा नहीं है? क्या क्षेत्रान्तरित विष दोष के लिए नहीं होता? ये मुनि होकर भी सागारियस्स अंसियाओ अविभत्ताओ व्यक्तरूप से ब्राह्मणों की भांति दंभ से आचरण करते हैं। अव्वोच्छिन्नाओ अव्वोगडाओ अनिज्जूढाओ, (जैसे ब्राह्मण शूद्रों के घर भोजन नहीं करते परन्तु वहां से तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए॥ तंदुल आदि ग्रहण कर लेते हैं। जैसे उन ब्राह्मणों का (सूत्र २२) Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक सागारियस्स अंसियाओ विभत्ताओ वोच्छिन्नाओ वोगडाओ निज्जूढाओ, तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्त ॥ (सूत्र २३) ३६४३. छिन्नममत्तो कप्पति, पत्तेगं वा भणितो, इयाणि साहारणं भणिमो ॥ यदि सागारिक ने अपने ममत्व को मिटा दिया है तो उसका अंशिकापिंड लेना कल्पता है और यदि ममत्व को नहीं हटाया है तो वह नहीं कल्पता । यह पूर्वसूत्र से प्रस्तुत सूत्र का योग-संबंध है। पहले प्रत्येक-एक-एक सागारिक के पिंड के विषय में कहा गया है। अब सागारिक तथा साधारण पिंड के विषय में विधि बतलाई जा रही है। ३६४४. सागारियस्स अंसिय, अविभत्ता खेत्त जंत-भोज्जेसु । स्वीरे मालाकारे, सगारवि परिहरति ॥ सागारिक- शय्यातर के क्षेत्र, यंत्र, भोज्य, क्षीर, मालाकार संबंधी जो अंशिका है, इनमें हिस्सा है, वह जब तक अविभक्त है, उसे लेना नहीं कल्पता । सागारिक द्वारा दृष्ट का सर्वत्र परिहार किया जाता है। ३६४५. अंसो ति व भागो ति व एगट्ठा पुंज एव अविभत्ता । कतभागो वि ण सव्वो, वोच्छिज्जति सा अवोच्छिण्णा ॥ अंश और भाग- ये दोनों एकार्थक हैं। सागारिक का भोजन जो पुंजरूप में है, अविभक्त है, वह अविभक्त अंशिका है। भाग कर देने पर भी मूलराशि का सारा व्यवच्छेद नहीं होता, वह अव्यवच्छिन्न अंशिका है। अच्छिण्णो ण कप्पती अह तु जोगो । ३६४६. अव्वोगडा उ तुज्झं, ममं तु वा जा ण ताव णिद्दिसति । तत्थेव अच्छमाणी, होति अणिज्जूहिया अंसी ॥ सभी के भाग स्थापित कर दिए परन्तु जब तक यह निर्दिष्ट नहीं होता कि यह तुम्हारा है और यह मेरा, तब तक उसे अव्याकृत कहा जाता है। निर्दिष्ट कर देने पर भी वहां से अन्यत्र नहीं ले जाया जाता तब वह अनिगूढा अंशिका कहलाती है। ३६४७. सीताइ जनो पहुगादिगा वा, - साली - फलादीण व णिक्कयम्मि, जे कप्पणिज्जा जतिणो भवंति । पडेज्ज तेल्लं लवणं गुलो वा ॥ ३७५ शय्यातर तथा अन्य व्यक्तियों का सम्मिलित एक खेत है। क्षेत्रपूजा के समय शाली आदि पकाए जाते हैं अथवा मुनियों के लिए वहां कल्पनीय पृथक् - चिउडा आदि होते हैं, खेत में शाली, फल आदि होते हैं। उनको बेचने पर तैल, लवण, गुड़ आदि खरीदे जाते हैं यह सारी क्षेत्रविषयक सागारिक की अंशिका है। ३६४८. जंते रसो गुलो वा तेल्लं चक्कम्मि तेसु वा जं तु । विक्रेज्नते पडितं पवत्तणंते य पमयं वा ॥ शय्यातर तथा अन्य व्यक्तियों का सम्मिलित इक्षुयंत्र तथा तिलयंत्र है। इक्षुयंत्र में रस या गुड़ होता है। तिलयंत्र को चक्र कहा जाता है उसमें तिल आदि का तैल होता है। उनके विक्रय से तन्दुल, घृत, वस्त्र आदि लिए जाते हैं। यह यंत्रविषयक अंशिका है। ३६४९. गण-गोडिमादि भोज्जा, भुत्तव्यरियं व तत्थ जं किंचि भाउगमादीण पओ, अविभत्तं जं व गोवेणं ॥ गण, गोष्ठी - जिसमें महत्तर आदि पांच विशिष्ट व्यक्ति होते हैं उनके लिए अथवा अन्य महाजनों के लिए जो भोज्य होते हैं, वह भोज्यविषयक अंशिका है। सागारिक के भाई, भतीजे का दूध जो सागारिक के साथ अविभक्त है अथवा गोपाल के साथ वाला दूध जो अविभक्त है वह क्षीर विषयक अंशिका है। ३६५०. पुप्फपणिएण आरामिगाण पडियं ण जाव उ विरिक्कं । पक्खेवगादि समुहं अधियत्तादी य पुब्बुत्ता ॥ फूलों के विक्रय से मालाकार घी आदि खरीदता है वह अभी तक सागारिक के साथ विभक्त नहीं हुआ है। यदि सागारिक के सम्मुख उसमें से भक्त आदि लिया जाता है तो भद्रककृत प्रक्षेपक आदि दोष होते हैं और प्रान्तकृत पूर्वोक्त दोष होते हैं। ३६५१. अहवा विमालकारस्स अंसियं अवणयंति भुज्जेसु । सो य सगारो तेसिं, तं पि ण इच्छंति अविभत्तं ॥ अथवा भोज आदि में मालाकार की अंशिका को पहले ही निकाल कर अलग रख देते हैं। वह मालाकार उन साधुओं का शय्यातर है तो साधु अविभक्त मालाकार की अंशिका को लेना नहीं चाहते। ३६५२. गेलण्णमाईसु उ कारणेसू, माऽदिप्पसंगो ण य सव्वे गीता । गिण्हंति पुंजा अविरेडियातो, तस्सऽण्णतो वा वि विरेडियाओ। अपवादपद में ग्लानत्व, अवमौदर्य आदि कारणों में सर्वप्रथम शय्यातरपिंड लेने में अतिप्रसंग न हो तथा सभी Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ मुनि गीतार्थ नहीं होते अतः सबसे पहले वे अविभक्त पुंज से, पश्चात् अन्य विभक्त राशि से सागारिक पिंड ग्रहण करे। सागारियस्स पूयाभत्ते उद्देसिए चेइए पाहुडियाए, सागारियस्स उवगरणजाए निट्ठिए निसढे पाडिहारिए, तं सागारिओ देइ सागारियस्स परिजणो देइ, तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए॥ (सूत्र २४) ३६५३.दव्वे छिण्णमछिण्णं, ण कप्पती कप्पए य इति वुत्तं। इदमण्णं पुण भावे, अव्वोच्छिण्णम्मि पडिसिद्धं॥ द्रव्य से छिन्न-विभक्त अंशिकाद्रव्य ग्रहण करना कल्पता है, अच्छिन्न-अविभक्त नहीं कल्पता, यह कहा गया है। प्रस्तुत सूत्र में यह अन्य बात कही जा रही है कि सागारिक की अव्यवच्छिन्न अंशिका भावतः प्रतिषिद्ध है। ३६५४.अविसेसिओ व पिंडो, हेट्ठिमसुत्तेसु एसमक्खातो। इह पुण तस्स विभागो, सो पुण उवकरण भत्ते वा॥ अथवा पूर्व सूत्रों में अविशेषित-अविभक्त सागारिक पिंड कहा गया है। प्रस्तुत सूत्र में सागारिक पिंड के विभाग का कथन है। वह उपकरण अथवा भक्त हो सकता है। ३६५५.संबंधी सामि गुरू, पासंडी वा वि तं समुहिस्स। पूया उक्खित्तं ति य, पट्टगभत्तं च एगट्ठा॥ सागारिक का कोई संबंधी उसका स्वामी, गुरु अथवा पाषंडी-अन्यतीर्थिक है वह पूज्य होता है। उसको उद्दिष्ट कर जो किया जाता है वह पूज्यभक्त कहलाता है। पूज्यभक्त, उत्क्षिप्तभक्त तथा पट्टकभक्त-ये सभी एकार्थक हैं। ३६५६.चेइय कडमेगट्ठ, पाहुडिय पहेणगं च एगट्ठा। उवगरणं वत्थादी, जाव विभागो व जोग्गं वा॥ चेतित और कृत-ये एकार्थक हैं। प्राभृतिका और प्रहेणक-ये एकार्थक हैं। उपकरण का अर्थ है-वस्त्र आदि। जितने विभाग उपकरणों के किए जाते हैं तथा जिसके लिए जो उपकरण योग्य है, वह वक्तव्य है। ३६५७.निविय कडं च उक्कोसकं च दिण्णं तु जाणसु णिसहूँ । भुत्तुव्वरियं पडिहारियं तु इयरं पुणो चत्तं। निष्ठित और कृत एकार्थक हैं। अथवा जो उत्कृष्ट वस्त्र आदि का निर्माण किया वह निष्ठित कहलाता है। जो दिया जाता है वह निसृष्ट कहलाता है। भोजन के पश्चात् जो शेष बचे वह हमें अर्पित करना है, वह प्रातिहारिक है। इतरत् बृहत्कल्पभाष्यम् अर्थात् अप्रातिहारिक वह है जिसका सागारिक ने पुनर् अदेयरूप में दे दिया है। सागारियस्स पूयाभत्ते उद्देसिए चेइए पाहुडियाए, सागारियस्स उवगरणजाए निट्ठिए निसटे पाडिहारिए, तं नो सागारिओ देइ नो सागारियस्स परिजणो देइ, सागारियस्स पूया देइ, तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए॥ (सूत्र २५) सागारियस्स पूयाभत्ते उद्देसिए चेइए पाहुडियाए सागारियस्स उवगरणजाए निट्ठिए निसट्ठे अपाडिहारिए, तं सागारिओ देइ सागारियस्स परिजणो देइ, तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए॥ (सूत्र २६) सागारियस्स पूयाभत्ते उद्देसिए चेइए पाहुडियाए सागारियस्स उवगरणजाए निट्ठिए निसढे अपाडिहारिए, तं नो सागारिओ देइ, नो सागारियस्स परिजणो देइ, सागारियस्स पूया देइ, तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए॥ __ (सूत्र २७) ३६५८.पूयाभत्ते चेतिए, उवकरणे णिट्ठिते णिसटे य। तं पि ण कम्पति घेत्तुं, पक्खेवगमादिणो दोसा। पूजा के निमित्त जो भक्त बनाया है, जो उपकरण निष्ठित किया है, वह अप्रातिहारिकरूप में दे दिया, उसे ग्रहण करना भी नहीं कल्पता, क्योंकि उसमें प्रक्षेपक आदि दोष तथा भद्रक, प्रान्तकृत दोष होते हैं। वत्थ-पदं कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा 'इमाइं पंच' वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा, तं जहा-जंगिए भंगिए साणए 'पोत्तए तिरीडपट्टे' नामं पंचमे॥ (सूत्र २८) Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७ दूसरा उद्देशक ३६५९.उवगरणं चिय पगयं, तस्स विभागो उ बितिय-चरिमम्मि। आहारो वा वुत्तो, इदाणि उवधिस्स अधिकारो॥ पूर्वसूत्र में उपकरण का अधिकार था। अतः उपकरण के विभाग की प्ररूपणा द्वितीय उद्देशक के अंतिम दो सूत्रों में है। अथवा पूर्वसूत्र में आहार का कथन था, प्रस्तुत सूत्र में उपकरण का अधिकार है। ३६६०.ताई विरूवरूवाई देइ वत्थाणि ताणि वा घेत्तुं। सेस जतीणं देज्जा, तत्थ इमे पंच कप्पंति॥ शय्यातर उन विरूपरूप वस्त्रों को अपने पूज्य कलाचार्य आदि को देता है। वे पूज्य व्यक्ति उनमें से बचे वस्त्रों को यतियों को देते हैं। उन दीयमानवस्त्र में से इन पांच प्रकार के वस्त्रों को ग्रहण करना कल्पता है। ३६६१.जंगमजायं जंगिय, तं पुण विगलिंदियं च पंचिंदी। ___एक्केवं पि य एत्तो, होति विभागेणऽणेगविहं॥ जंगम प्राणियों से उत्पन्न जंगिक कहलाता है। वह द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय प्राणियों से निष्पन्न होता है। इनमें प्रत्येक विभाग के अनेक प्रकार होते हैं। ३६६२.पट्ट सुवन्ने मलए, अंसुग चीणंसुके च विगलेंदी। उण्णोट्टिय मियलोमे, कुतवे किट्टे त पंचेंदी॥ विकलेन्द्रिय से निष्पन्न-पट्टसूत्रज, सुवर्ण-सुवर्ण वर्णवाले सूत्र कई कृमियों के होते हैं, उनसे निष्पन्न, मलयज-मलय देश में उत्पन्न, अंशुक-चिकने या सूक्ष्म तंतुओं से बना, चीनांशुक-कोशिकार नामक कृमि से निष्पन्न अथवा चीन देश में निष्पन्न। पंचेन्द्रिय से निष्पन्न और्णिक, औष्ट्रिक, मृगरोमज, कुतप छाग के रोम से निष्पन्न और किट्टपंचेन्द्रिय प्राणी (छाग आदि) के रोम से निष्पन्न । ३६६३.अतसी-वंसीमादी, उ भंगियं साणियं च सणवक्के। पोत्तय कप्पासमयं, तिरीडरुक्खा तिरिडपट्टो॥ अतसीमय अथवा वंशकरीत से निर्मित भांगिक, सनवृक्ष की छाल से निर्मित सानक, कार्पासमय पोतक तथा तिरीटवृक्ष की छाल से निर्मित तिरीटपट्टक कहलाता है। ३६६४.पंच परूवेऊणं पत्तेयं गेण्हमाण संतम्मि। कप्पासिगा य दोण्णि उ, उण्णिय एक्को य परिभोगो।। इन पांच प्रकार के वस्त्रों (जांगिक, भांगिक, सानक, पोतज और तिरीटपट्ट) की प्ररूपणा कर प्रत्येक साधु के प्रायोग्य वस्त्र ग्रहण करते हुए यदि प्राप्ति हो तो कासिक कल्प और एक और्णिक कल्प का उपभोग करना चाहिए। ३६६५.एक्कोन्नि सोत्ति दोण्णी, तिण्णि वि गेण्हिज्ज उण्णिए लहुओ। पाउरमाणे चेवं, अंतो मज्झे व जति उण्णी॥ एक और्णिक और दो सौत्रिक कल्प-प्रत्येक मुनि के लिए ग्राह्य है। यदि तीनों कल्प और्णिक या सौत्रिक ग्रहण किए जाते हैं तो मासलघु का प्रायश्चित्त है। यदि एक और्णिक कल्प को ही प्रावरण के काम में लेता है, अथवा अन्तर या मध्य में और्णिक (दोनों सौत्रिक कल्पों के मध्य भाग में) का प्रावरण करता है तो भी मासलघु का प्रायश्चित्त आता है। ३६६६.अभिंतरं व बाहिं, बाहिं अभिंतरं करेमाणे। परिभोगविवच्चासे, आवज्जइ मासियं लहुअं॥ जो मुनि प्रावरणों का व्यत्यय करता है अर्थात् अभ्यंतर प्रावरण को बाहर और बाहर प्रावरण को अभ्यन्तर में प्रयोग करता है, उसे मासलघु का प्रायश्चित्त आता है। (विधि यह है-सौत्रिक भीतर और और्णिक बाहर।) ३६६७.छप्पइय-पणगरक्खा , भूसा उज्झायणा य परिहरिया। सीतत्ताणं च कतं, खोम्मिय अभिंतरे तेण॥ और्णिक को भीतर रखने पर जूंएं पड़ जाती हैं और उसमें पनक लग सकती है। विधियुक्त उसका परिभोग होने पर पनक की रक्षा हो सकती है। सौत्रिक को बाहर रखने से विभूषा होती है। इस विधि से परिभोग करने पर 'उज्झायणा'-दुर्गन्ध का भी परिहार हो जाता है। इससे शीतत्राण भी होता है। अतः क्षौमिक अर्थात् कासिक वस्त्र को भीतर ओढ़ा-पहना जाए। ३६६८.कप्पासियस्स असती, वागय पट्टे य कोसियारे य। असती य उण्णियस्सा, वागत कोसेज्ज पट्टे य॥ यदि कासिक वस्त्र की प्राप्ति न हो तो वल्कज, उसके अभाव में पट्टवस्त्र और उसके अभाव में कौशिकारवस्त्र ग्रहण करे। और्णिक वस्त्र के अभाव में वल्कज, उसके अभाव में कौशेय, उसके अभाव में पट्टज वस्त्र ग्राह्य होता है। ३६६९.ण उण्णियं पाउरते तु एक्वं, दोण्णी जता खोम्मिय उण्णियं च। दो सुत्ति अंतो बहि उण्णि तीसु, दुगादि उण्णी वि बहिं परेणं॥ केवल एक और्णिक कल्प का प्रावरण न करे। अकेले सौत्रिक कल्प का प्रावरण किया जा सकता है। जब दो कल्पों का परिभोग करना होता है तब सौत्रिक भीतर और और्णिक बाहर। तीनों कल्पों का परिभोग, करना हो तो दो सौत्रिक भीतर और एक और्णिक बाहर। यदि दो-तीन Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ और्णिक कल्पों का उपभोग करना हो तो सौत्रिक के ऊपर उनको रखे। ३६७०.पंचण्हं वत्थाणं, परिवाडीगाए होइ गहणं तु। उप्परिवाडी गहणे, पच्छित्ते मग्गणा होइ॥ जंगिक आदि पांचों प्रकार के वस्त्रों का ग्रहण परिपाटी से करें। परिपाटी यह है-कासिक, और्णिक, वल्कज, पट्टज आदि। इस परिपाटी का उल्लंघन कर ग्रहण करने पर प्रायश्चित्त की मार्गणा होती है-जैसे जघन्य उपधि को परिपाटी का उल्लंघन कर ग्रहण करने पर पांच रात-दिन, मध्यम का मासलघु और उत्कृष्ट का चतुर्लघु। ३६७१.अलंभऽहाडस्स उ अप्पकम्म, अलंभे तस्सावि उ जं सकम्म। एतं अकाउं चउरो उ मासा, भवंति वत्थे परिवाडिहीणे॥ यथाकृत वस्त्र वह है जिसमें छेदन, सीबन और संधान इनमें से किसी भी प्रकार का परिकर्म नहीं होता। यदि यथाकृत वस्त्र की प्राप्ति न हो तो अल्प परिकर्म वाला वस्त्र ले और यदि उसकी भी प्राप्ति न हो तो सकर्म अर्थात् बहुत परिकर्म वाला वस्त्र ग्रहण करे। यदि इस क्रम का उल्लंघन होता है तो प्रायश्चित्त है चार लघुमास। यथाकृत आदि के विपर्यास से वस्त्र ग्रहण करने पर उत्कृष्ट का चतुर्लघु, मध्यम का मासिक और जघन्य का पंचक। यह परिपाटीहीन ग्रहण का प्रायश्चित्त है। प्राघूणक ३६७२.अद्धाणमाईसु उ कारणेसुं, कज्जा अलंभम्मि उ उक्कम पि। गेलन्नमादीसु विवज्जयं वा, असतीय कुज्जा खलु खुम्मियस्स। मुनि बहुत लंबे मार्ग से चल रहे हैं अथवा दूर से चलकर आए हैं आदि कारणों से वस्त्र का अलाभ होने पर वे उत्क्रम से भी वस्त्र ले सकते हैं। ग्लानत्व आदि कारणों में वस्त्रों के परिभोग में भी विपर्यास किया जा सकता है। क्षौमिक कल्प की अप्राप्ति होने पर अकेले और्णिककल्प का भी परिभोग किया जाता है। बृहत्कल्पभाष्यम् ३६७३.उदितो खलु उक्कोसो, उवही मज्झिममिदाणि वोच्छामि। संखा व एस सरिसी, पाउंछण सुत्तसंबंधो।। पूर्वसूत्र में उत्कृष्ट उपधि का कथन किया गया है। अब मध्यम उपधि-रजोहरण का कथन करूंगा। संख्या की दृष्टि से दोनों-वस्त्र और रजोहरण (पादप्रोञ्छन) समान हैं। यह पूर्वसूत्र का प्रस्तुत सूत्र के साथ संबंध है। ३६७४.अभिंतरं च बज्झं, हरति रयं तेण होइ रयहरणं। तं उण्णि उट्टि सणयं, वच्चयचिप्पं च मुंजं च॥ आभ्यन्तर और बाह्य रजों का हरण करता है इसलिए इसे रजोहरण कहा जाता है। वह पांच प्रकार का है-और्णिक, औष्ट्रिक, शनक, वच्चकचिप्पग और मुंजचिप्पक। ३६७५.वच्चक मुंजं कत्तंति चिप्पिउं तेहि वूयए गोणी। पाउरणऽत्थुरणाणि य, करेति देसि समासज्ज॥ वच्च (दर्भाकार तृणविशेष) और मूंज-पहले इनको कूट कर, फिर काता जाता है। उस वर्चक सूत से तथा मूंज सूत से बोरा बनाया जाता है। कई देश विशेष में इनसे प्रावरण और आस्तरण भी बनाए जाते हैं। उनसे निष्पन्न रजोहरण वच्चकचिप्पक और मूंजचिप्पक कहा जाता है। ३६७६.रयहरणपंचगस्सा, परिवाडीयाए होति गहणं तु। उप्परिवाडी गहणे, आवज्जति मासियं लहुअं॥ रजोहरण पंचक का ग्रहण परिपाटी से होता है। परिपाटी के विपरीत ग्रहण करने पर लघु मासिक प्रायश्चित्त आता है। ३६७७.तिविहोन्निय असतीए, उट्टियमादीण गहण धरणं तु। उप्परिवाडी गहणे, तत्थ वि सट्ठाणपच्छेत्तं। यथाकृत आदि के भेद से तीन प्रकार के और्णिक रजोहरण हो उनको पहले ग्रहण करना चाहिए। यदि और्णिक न मिले तो औष्ट्रिक आदि चारों प्रकार के रजोहरणों का यथाक्रम ग्रहण करे। परिपाटी का उल्लंघन कर ग्रहण करने पर स्वस्थान प्रायश्चित्त अर्थात् मध्यम उपधि का प्रायश्चित्त लघुमास प्राप्त होता है। ३६७८.उट्ट-सणा कुच्छंती, उल्ला इयरेसु महवं णत्थि। . तेणोणियं पसत्थं, असतीय उ उक्कम कुज्जा॥ औष्ट्रिक और शनज-दोनों प्रकार के रजोहरण वर्षाकाल में आर्द्रता के कारण कुथित हो जाते हैं। वच्चकचिप्पक और मुंजचिप्पक रजोहरण मृदु नहीं होते। इसलिए और्णिक रजोहरण प्रशस्त है। उसकी प्राप्ति न होने पर उत्क्रम से भी ग्रहण किया जा सकता है। द्वितीय उद्देशक समाप्त रयहरण-पदं कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाइं पंच रयहरणाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा, तं जहा-'उण्णिए उट्टिए' साणए वच्चापिच्चिए मुंजापिच्चिए नाम पंचमे॥ -त्ति बेमि॥ (सूत्र २९) Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परंपरा में मुख्यरूप से चार भाष्य प्रचलित हैं- दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ इनका निर्यूहण पूर्वो से हुआ, इसलिए इनका बहुत महत्त्व है। इनके निर्यूहणकर्त्ता भद्रबाहु 'प्रथम' माने जाते हैं। 'बृहत्कल्पभाष्य के प्रणयिता संघदास-गणी हैं। प्रस्तुत ग्रंथ के टीकाकार आचार्य मलयगिरि और आचार्य क्षेमकीर्ति हैं। मलयगिरि ने प्रारंभिक ६०६ गाथाओं की टीका लिखी। तत्पश्चात् क्षेमकीर्ति ने उसे आगे बढ़ाकर टीका संपन्न की। शिष्य ने प्रश्न किया कि मूल आगमों के होते हुए छेदसूत्रों का क्या महत्त्व है? आचार्य कहते हैं-अंग, उपांग आदि मूलसूत्र हैं। वे मार्गदर्शक और प्रेरक हैं। परन्तु यदि साधु संयम में स्खलना करता है और वह अपनी स्खलना की शुद्धि करना चाहता है तो वे मूल आगम उसको दिशा-निर्देश नहीं दे सकते। दिशा-निर्देश और स्खलना की विशुद्धि छेदसूत्रों द्वारा ही हो सकती है वे प्रायश्वितसूत्र हैं और प्रत्येक स्खलना की विशोधि के लिए साधक को प्रायश्चित्त देकर स्खलना का परिमार्जन और विशोधि कर साधक को शुद्ध कर देते हैं, इसीलिए उनका महत्त्व है। भाष्यों की वाचना के विषय में कहा जाता है कि हर किसी को, हर किसी वेला में इनकी वाचना नहीं देनी चाहिए ये रहस्य सूत्र है। सामान्य आगमों से इनकी विषयवस्तु भिन्न है। इनमें उत्सर्ग और अपवाद-विषयक अनेक स्थल हैं। हर कोई उन स्थलों को पढ़कर या सुनकर पचा नहीं सकता और तब वह निर्ग्रन्थ प्रवचन से विमुख होकर स्वयं भ्रांत होकर, अनेक व्यक्तियों को भ्रांत कर देता है, इसीलिए इनकी वाचना के विषय में पात्र-अपात्र का निर्णय करना बहुत आवश्यक हो जाता है। गृहस्थों को तो इनकी याचना देनी ही नहीं है, साधुओं में सभी साधु इनकी वाचना देने योग्य नहीं होते। सम्पादकीय से . Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विश्व भारती द्वारा प्रकाशित आगम साहित्य वाचना प्रमुख : आचार्य तुलसी संपादक - विवेचक : आचार्य महाप्रज्ञ 565 (मूल पाठ पाठान्तर शब्द सूची सहित) ग्रंथ का नाम मूल्य अंगसुत्ताणि भाग-१ (दूसरा संस्करण) 700 (आयारो, सूयगडो, ठाणं, समवाओ) अंगसुत्ताणि भाग-२ (दूसरा संस्करण) 700 (भगवई-विआहपण्णत्ती) अंगसुत्ताणि भाग-३ (दूसरा संस्करण) 500 (नायाधम्मकहाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, अणुत्तरोववाइयदसाओ, पण्णावागरणाइं, विवागसुयं) उवंगसुत्ताणि खंड-१ (ओवाइयं, रायपसेणइयं, जीवाजीवाभिगम) उवंगसुत्ताणि खंड-२ 600 (पण्णवणा, जंबूद्दीवपण्णत्ती, चंदपण्णत्ती, कप्पवडिं सियाओ, निरयावलियाओ, पुफ्फियाओ, पुफ्फचूलियाओ, वण्हिदसाओ) नवसुत्ताणि (द्वितीय संस्करण) 665 (आवस्सयं, दसवेआलियं, उत्तरज्झयणाणि, नंदी, अणुओगदाराई) 500 नंदी 500 (मूल, छाया, अनुवाद, टिप्पण, परिशिष्ट-सहित) ग्रंथ का नाम मूल्य आयारो 200 आचारांगभाष्यम् 500 सूयगडो (तीसरा संस्करण) 600 ठाणं 700 समवाओ (दूसरा संस्करण) प्रेस में भगवई (खंड-१) भगवई (खंड-२) 665 भगवई (खंड-३) 500 भगवई (खंड-४) 500 भगवई (खंड-५) प्रेस में 300 अणुओगदाराई 400 दसवेआलियं (तीसरा संस्करण) 500 उत्तरज्झयणाणि (चौथा संस्करण) 600 नायाधम्मकहाओ दसवेआलियं (गुटका) उत्तरज्झयणाणि (गुटका) 25 अन्य आगम साहित्य नियुक्तिपंचक (मूल, पाठान्तर) सानुवाद व्यवहार भाष्य 500 व्यवहार भाष्य 700 (मूल, पाठान्तर, भूमिका, परिशिष्ट) बृहत्कल्पभाष्यम् खण्ड-१ (सानुवाद) 500 बृहत्कल्पभाष्यम् खण्ड-२ (सानुवाद) 500 गाथा 350 (आगमों के आधार पर भगवान महावीर का जीवन दर्शन रोचक शैली में) आत्मा का दर्शन 500 (जैन धर्म : तत्त्व और आचार) प्राप्ति स्थान : जैन विश्व भारती लाडनूं - 341306 (राज.) कोश 500 आगम शब्दकोष 300 (अंगसुत्ताणि तीनों भागों की समग्र शब्द सूची) श्री भिक्षु आगम विषय कोश, भाग-१ 500 * श्री भिक्षु आगम विषय कोश, भाग-२ 500 देशी शब्दकोश 100 निरुक्त कोश 60 * एकार्थक कोश 70 जैनागम वनस्पति कोश (सचित्र) 300 जैनागम प्राणी कोश (सचित्र) 250 जैनागम वाद्य कोश (सचित्र) 250 अन्य भाषा में आगम साहित्य भगवती जोड़ खंड-१ से 7 श्रीमज्जयाचार्य सेट का मूल्य 2600 * आयारो (अंग्रेजी) 250 आचारांगभाष्यम् (अंग्रेजी) 400 भगवई खंड-१ (अंग्रेजी) 500 उत्तरज्झयणाणि भाग-१,२ (गुजराती)१००० सूयगडो (गुजराती) ISBN-81-7195-132-5