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पहला उद्देशक
आचार्य होता है, अन्य प्रकार से नहीं । अतः स्थविरकल्पिक मुनि ही तपः आदि भावनाओं से भावित होता हुआ क्रमशः जिनकल्प को स्वीकार करता है, अन्यथा नहीं।
२११३. दिवंतो गुहासीहे, दोन्नि य महिला पया य अपया य । गावीण दोत्रि वग्गा, सावेक्खो चैव निरवेक्खो || पूर्वोक्त गाथा के समर्थन में तीन दृष्टांत हैं१. गुफावासी सिंह |
२. दो महिलाएं - एक पुत्रवती, दूसरी निःसंतान ।
३. गायों के दो वर्ग एक सापेक्ष और दूसरा निरपेक्ष । २११४. सी पाले गुहा, अविहार्ड तेण सा महिड्डीया । तस्स पुण जोव्वणम्मिं, पओअणं किं गिरिगुहाए ॥ सिंहशिशु का पालन-रक्षण गुफा करती है, इसलिए गुफा महर्द्धिक है। जब सिंहशिशु यौवन को प्राप्त कर पूर्ण शक्तिसंपन्न हो जाता है तब उस गिरिगुफा का क्या प्रयोजन। अब सिंह महर्द्धिक है।
२११५. दव्वावइमाईसुं
कुसीलसंसग्गि - अन्नउत्थीहिं । रक्खइ गणीपुरोगो, गच्छो अविकोवियं धम्मे ॥ शक्तिसपंन्न आचार्य द्वारा पालित गच्छ सभी प्रकार की द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावगत आपत्तियों से मुनिजन का रक्षा करता है, कुशील तथा अन्यतीर्थिकों के संसर्ग से बचाता है, धर्म में अप्रतिबुद्ध शिष्यों को प्रतिबुद्ध करता है, इसलिए गच्छ महर्द्धिक होता है। २११६.आणा-इस्सरियसुहं, एगा अणुभवइ जइ वि बहुतत्ती । देहस्स य संठप्पं, भोगसुहं चेव कालम्मि ॥ २११७. परवावारविमुक्का, सरीरसक्कारतप्परा निच्वं । मंडण वक्खित्ता, भत्तं पि न चेयई अपया ॥ एक महिला सप्रसवा है। वह प्रसवकाल में बहुत कष्टों का अनुभव करती है और संतान के पालन-पोषण में भी उसे निरंतर व्याप्त रहना होता है परंतु गृहस्वामिनी बनकर वह आज्ञा और ऐश्वर्य का अनुभव करती है और कालान्तर में देह का संस्थापन कर भोगसुख को प्राप्त होती है।
दूसरी निःसंतान महिला परव्यापार अर्थात् संतान के पालन-पोषण आदि चिंता से विप्रमुक्त रहती हुई निरंतर शरीर के संस्कार में तत्पर रहती है तथा शरीर के मंडन आदि में व्यस्त रहती हुई भोजन करना भी मूल जाती है।
२११८. वेयावच्चे चोयण वारण-वावारणासु य बहूसु । एमादीवक्खेवा, सययं झाणं झाणं न गच्छम्मि ॥
१. अविहाडं - देशीभाषया बालकः । (वृ. पृ. ६०८)
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गच्छ भी सप्रसवा स्त्री की भांति अनेक कार्यों में व्यापूत रहता है। वैयावृत्त्य में व्यापृत होना होता है। मुनिचर्या में स्खलना करने वाले को नोबना - प्रेरणा देना, अकृत्य की प्रतिसेवना करने वाले को वर्जना, अनेक प्रवृत्तियों में व्यापारणा करनी होती है। ये सब व्याक्षेप हैं। इसलिए गच्छ में सतत ध्यान नहीं हो सकता।
२११९. सहूलपोइयाओ, नस्संतीओ वि णेव घेणूओ ।
मोत्तूणं तण्णगाहं वयंति सपरक्रमाओ वि॥ २१२०. न वि वच्छएस सज्जति वाहिओ नेव वच्छमाऊसु ।
सबलमगृहंतीओ, नस्संति भएण वग्घस्स ॥ नई ब्याई हुई गायें व्याघ्र से त्रस्त होने पर भी इधरउधर होती हुई भी अपने लघु वत्सों को छोड़कर, समर्थ होने पर भी शीघ्र पलायन नहीं करती, क्योंकि वे अपत्यसापेक्ष हैं। जो धेनू वंध्या होती है, वह न वत्सों में और न वत्सों की माताओं में ममत्व करती है। वह अपने बल का गोपन न कर व्याघ्र के भय से पलायन कर जाती हैं। वह निरपेक्ष होती है।
२१२१. आयसरीरे आयरिय बाल वुढेसु आवि सावेक्खा ।
कुल- गण - संघेसु तहा, चेइयकज्जाइएसुं च ॥ इसी प्रकार गच्छवासी मुनि अपने शरीर के प्रति, आचार्य, बाल, वृद्ध तथा कुल, गण, संघ तथा चैत्य कार्यों में सापेक्ष होते हैं।
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२१२२. रयणाय उ गच्छो, निष्फादओ नाण दंसण चरिते । एएण कारणेणं, गच्छो उ उ भवे महिड्डीओ ॥ गच्छ रत्नाकर होता है वह ज्ञान, दर्शन और चारित्र का निष्पादक होता है। इन कारणों से गच्छ महर्द्धिक होता है।
२१२३. रवणेसु बहुविहेसुं नीणिज्जंतेसु नेव नीरयणो । अतरो तीरइ काउं, उप्पत्ती सो य रयणाणं ॥ २१२४.इय रयणसरिच्छेसुं विणिग्गएसुं पि नेव नीरयणो ।
जायइ गच्छो कुणइ य, रयणब्भूते बहू अन्ने ॥ जिसको तैरा नहीं जा सकता, वह अतर होता है। वह है रत्नाकर। अनेक प्रकार के रत्नों को निकालने पर भी उसको रत्नरहित नहीं किया जा सकता क्योंकि वह रत्नों का उत्पादक है।
इसी प्रकार गच्छरूपी रत्नाकर भी रत्नसदृश जिन कल्पिकों के विनिर्गत होने पर भी नीरत्न रत्नरहित नहीं हो जाता क्योंकि बाद में भी वह दूसरे मुनियों को रत्नभूत बनाता रहता है।
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