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________________ २१६ =बृहत्कल्पभाष्यम् हैं। वे अव्याप्त होती हैं, फिर भी उनका यह सौन्दर्य विशेष यह है कि वे अभ्यन्तर और बाहिरिका दोनों में चार होता हैं मास पूरा करें। २१०२.रूवं वन्नो सुकुमारया य निद्धच्छवी य अंगाणं। २१०७.चउण्हं उवरि वसंती, पायच्छित्तं च होति दोसा य। होति किर सन्निरोहे, अज्जाण तवं चरंतीणं॥ नाणत्तं असईए उ, अंतो वसही बहिं चरइ। रूप, वर्ण, कोमलस्पर्श तथा उनके शरीर के अवयवों की यदि चार मास से अधिक निवास होता है तो वही स्निग्ध चमड़ी होती है। अनेक उपकरणों से आच्छादित होने पूर्वोक्त प्रायश्चित्त और दोष प्राप्त होते हैं। अपवादपद भी पर भी तथा तपस्या करते रहने पर भी यह रूप, लावण्य पूर्वोक्त ही है। नानात्व अर्थात् विशेष यह है यदि बाहिरिका आदि होता है, अतः वह यतना युक्त है। में शय्यातर और वसति प्रायोग्य न हो तो उसके अभाव २१०३.नइ वि य महव्वयाई, निग्गंथीणं न होति अहियाई। में आभ्यन्तर वसति में रहे और भिक्षाचर्या बाहिरिका में तह वि य निच्चविहारे, हवंति दोसा इमे तासिं॥ ही करे। (शिष्य ने पूछा साधुओं को एकत्र एक मास और २१०८.जोग्गवसहीइ असई, तत्थेव ठिया चरिंति बाहिं तु। साध्वियों को दो मास रहने की अनुज्ञा क्यों? क्या उनके पुव्वगहिए विगिंचिय, तत्तो च्चिय मत्तगादी वि॥ महाव्रत अधिक हैं ?) आचार्य कहते हैं-यद्यपि आर्यिकाओं के बाहिरिका में साध्वियों के प्रायोग्य वसति के अभाव में महाव्रत अधिक नहीं होते, फिर भी नित्यविहार अर्थात् प्रत्येक आभ्यन्तर वसति में रहकर बाहिरिका में भिक्षाचारी करे। मास में क्षेत्र-संक्रमण से ये दोष होते हैं पूर्वगृहीत मात्रक, डगलक, तृण आदि का परित्याग कर, २१०४.मसाइपेसिसरिसी, वसही खेत्तं च दुल्लभं जोग्गं। बाहिरिका से ही दूसरे मात्रक, तृण आदि लाने चाहिए। एएण कारणेणं, दो दो मासा अवरिसासु॥ २१०९.गच्छे जिणकप्पम्मि य, आर्यिकाएं मांसादि पेशी के सदृश होती हैं। उनके दोण्ह वि कयरो भवे महिड्डीओ। प्रायोग्य क्षेत्र और वसति दुर्लभ होती है। इन कारणों से निप्फायग-निप्फन्ना, चातुर्मास के सिवाय अन्य काल में एकत्र निवास के दो-दो दोन्नि वि होती महिड्डीया॥ मास की अनुज्ञा है। शिष्य ने पूछा-गच्छ और जिनकल्पी मुनि के मध्य २१०५.दोण्हं उवरि वसंती, पायच्छित्तं च होति दोसा य। कौन महर्द्धिक होता है? आचार्य ने कहा-निष्पादक और बिइयपयं च गिलाणे, वसही भिक्खं च जयणाए॥ निष्पन्न की अपेक्षा दोनों महर्द्धिक हैं। गच्छ सूत्रार्थ का यदि आर्यिकाएं दो मास से एक स्थान में अधिक रहती प्रदाता है। उसी के आधार पर जिनकल्प होता है। गच्छ हैं तो प्रायश्चित्त आता है तथा अनेक दोष होते हैं। अपवाद । जिनकल्पत्व का निष्पादक होने के कारण महर्द्धिक है। पद में ग्लान के प्रति वसति और भिक्षा यतनापूर्वक लेनी जिनकल्प ज्ञान-दर्शन-चारित्र में परिनिष्ठित होता है, चाहिए। इसलिए वह महर्द्धिक है। २११०.दसण-नाण-चरित्ते, जम्हा गच्छम्मि होइ परिखुट्टी। से गामंसि वा जाव रायहाणिंसि वा एएण कारणेणं, गच्छो उ भवे महिड्डीओ।। सपरिक्खेवंसि सबाहिरियंसि कप्पइ गच्छ में दर्शन, ज्ञान और चारित्र की परिवद्धि होती है। निग्गंथीणं हेमंत-गिम्हासु चत्तारि मासा इसलिए गच्छ महर्द्धिक है। वत्थए-अंतो दो मासे, बाहिं दो मासे। २१११.पुरतो व मग्गतो वा, जम्हा कत्तो वि नत्थि पडिबंधो। अंतो वसमाणीणं अंतो भिक्खायरिया, एएण कारणेणं, जिणकप्पीओ महिड्डीओ।। बाहिं वसमाणीणं बाहिं भिक्खायरिया॥ आगे या पीछे जिसके कोई प्रतिबंध नहीं होता, जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से प्रतिबंधमक्त होते हैं-इन कारणों से (सूत्र ९) जिनकल्प महर्द्धिक होता है। २१०६.एसेव कमो नियमा, सपरिक्खेवे सबाहिरीयम्मि। २११२.दीवा अन्नो दीवो, पइप्पई सो य दिप्पइ तहेव। नवरं पुण नाणतं, अंतो बाहिं चउम्मासा॥ सीसो च्चिस सिक्खंतो, आयरिओ होइ नऽन्नत्तो॥ यही पूर्व सूत्रोक्त क्रम नियमतः सपरिक्षेप तथा एक दीपक से दूसरा दीपक जलाया जाता है और पूर्व सबाहरिका क्षेत्र में रहने वाली आर्यिकाओं के लिए है। दीपक भी प्रद्योतित रहता है, इसी प्रकार शिक्षमाण शिष्य ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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