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=बृहत्कल्पभाष्यम्
२१८ = एगत्तवासविधिनिसेध-पदं
से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा एगवगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणप्पवेसाए नो कप्पइ निग्गंथाण य निग्गंथीण य एक्कतओ वत्थए।
(सूत्र १०)
२१२५.गाम-नगराइएसुं, तेसु उ खेत्तेसु कत्थ वसियव्वं ।
जत्थ न वसति समणीमब्भासे निग्गमपहे वा॥ पूर्व सूत्रोक्त ग्राम-नगर आदि क्षेत्रों में कहां रहना चाहिए? सूत्रकार कहते हैं-जहां उपाश्रय के निकट तथा निर्गमपथ में श्रमणियां न रहती हों, वहां रहना चाहिए। २१२६.अहवा निग्गंथीओ, दट्ट ठिया तेसु गाममाईसु।
इसु। मा पिल्लेही कोई, तेणिम सुत्तं समुदियं तु॥ अथवा श्रमणियों को वहां ग्राम आदि में स्थित देखकर कोई आचार्य आदि आकर मुनियों को वहां से निकाल दे इस भावना से यह सूत्र प्राप्त है। २१२७.वगडा उ परिक्खेवो, पुव्वुत्तो सो उ दव्वमाईओ।
दारं गामस्स मुहं, सो चेव य निग्गम-पवेसो॥ वगड़ा का अर्थ है-ग्राम आदि का परिक्षेप। वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आधार पर चार प्रकार का होता है। वह पहले बताया जा चुका है। (देखें गाथा ११२३ आदि)। द्वार का अर्थ है-गांव का मुंह अर्थात् प्रवेश। वही निर्गम और प्रवेश कहलाता है। २१२८.दारस्स वा वि गहणं, कायव्वं अहव निग्गमपहस्स।
जइ एगट्ठा दुन्नि वि, एगयरं बूहि मा दो वि॥ शिष्य कहता है-भंते! द्वार पद का ग्रहण करना चाहिए अथवा निर्गम प्रवेशपथ का ग्रहण करना चाहिए। यदि दोनों पद एकार्थक हैं तो इन दोनों में से किसी एक का कथन करना चाहिए. दो का नहीं। २१२९.एगवगडेगदारा, एगमणेगा अणेग एगा य।
चरिमो अणेगवगडा, अणेगदारा य भंगो उ॥ शिष्य के इस प्रकार कथन करने पर आचार्य कहते हैं-प्रस्तुत में वगडा और द्वार के चार विकल्प हैं।
१. एक वगडा एक द्वार। जैसे–पर्वत से परिक्षिप्त कोई ग्राम। २.एक वगडा अनेक द्वार। जैसे-प्राकार से परिक्षिप्त
चार द्वार वाला नगर। ३.अनेक वगडा एक द्वार। जैसे-पद्मसरोवर आदि से परिक्षिप्त बहुपाटक ग्राम आदि।
४.अनेक वगडा अनेक द्वार। जैसे-पुष्पवाटिकाओं से
परिक्षिप्त गृहवाले ग्राम। २१३०.तइयं पडुच्च भंगं, पउमसराईहिं संपरिक्खित्ते।
अन्नोन्नदुवाराण वि, हवेज्ज एगं तु निक्खमणं॥ इन चार भंगों में से तीसरे भंग के आधार पर पद्मसर आदि से परिक्षिप्त ग्राम आदि में अनेक पाटकों के भिन्न-भिन्न द्वार होने पर भी एक ही निष्क्रमण होता है। तात्पर्य है कि तीनों दिशओं में पद्मसर आदि के व्याघात के कारण एक ही दिशा में निष्क्रमण-प्रवेश होता है। २१३१.तत्थ वि य होंति दोसा, वीयारगयाण अहव पंथम्मि।
संकादीए दोसे, एगवियाराण वोच्छिहिई। तीसरे भंग में भी संज्ञाभूमी में जाते अथवा उसी एक ही मार्ग से प्रवेश-निष्क्रमण करते अनेक दोष होते हैं। एक ही संज्ञा भूमी में जाने वाले श्रमण-श्रमणी के होने वाले शंका आदि दोषों के विषय में स्वयं आचार्य आगे कहेंगे। २१३२.एगवगडं पडुच्चा, दोण्ह वि वग्गाण गरहितो वासो।
जइ वसइ जाणओ ऊ, तत्थ उ दोसा इमे होति।। एक वगडा अथवा एक द्वार वाले ग्राम आदि में दोनों वर्गों-श्रमणवर्ग और श्रमणीवर्ग का रहना गर्हित है, निषिद्ध है। जो वर्ग जानबूझकर वहां रहता है तो ये दोष होते हैं। २१३३.एगवगडेगदारे, एगयर ठियम्मि जो तहिं ठाइ।
गुरुगा जइ वि य दोसा, न होज्ज पुट्ठो तह वि सो उ॥ एक वगडा और एक द्वार वाले क्षेत्र में पहले एक वर्ग-- श्रमणीवर्ग अथवा श्रमणवर्ग स्थित हों और वहां बाद में आकर कोई ठहरता है उसे चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। यद्यपि वक्ष्यमाण दोष न भी हों, फिर भी उसे भावतः उन दोषों से स्पृष्ट मानना चाहिए। २१३४.सोऊण य समुदाणं, गच्छं आणित्तु देउले ठाइ।
___ठायंतगाण गुरुगा, तत्थ वि आणाइणो दोसा॥
जहां पहले से ही श्रमणीवर्ग स्थित है और वहां समुदान अर्थात् भिक्षा की सुलभता है, यह सुनकर कोई आचार्य गच्छ को लेकर उस क्षेत्र में आकर देवकुल आदि स्थान में ठहर जाते हैं तो उन्हें चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। २१३५.फड्डगपइपेसविया, दुविहोवहि-कज्जनिग्गया वा वि।
उवसंपज्जिउकामा, अतिच्छमाणा व ते साहू।। २१३६.संजइभावियखेत्ते, समुदाणेऊण बहुगुणं नच्चा।
संपुन्नमासकप्पं, बिंति गणिं पुट्ठऽपट्ठा वा॥
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