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पहला उद्देशक
किसी स्पर्द्धकपति (अग्रगामी) ने अपने साधुओं को क्षेत्र- प्रत्युपेक्षण के लिए भेजा। अथवा दो प्रकार की उपधिऔधिक और औपग्रहिक लाने के लिए अथवा कुल-गणसंघ संबंधी कार्य के लिए भेजा। वे मार्ग को पार करते हुए वहां पहुंचे जहां कुछ व्यक्ति उपसंपदा ग्रहण करने वाले थे । वह क्षेत्र श्रमणी भावित था। उन्होंने भिक्षाचर्या में घूमकर जान लिया कि यह क्षेत्र बहुत गुणों वाला है। वे आचार्य के पास आए । आचार्य का मासकल्प संपूर्ण हो चुका था। आचार्य द्वारा पूछे जाने पर या बिना पूछे ही वे कहते हैं
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२१३७. तुम्भ व पुण्णो कप्पो, न य खेत्तं पेहियं में जं जोन्गं । जं पिय रुइयं तुम्भं न तं बहुगुणं जह इमं तु ॥ भंते! आपका भी मासकल्प पूरा हो गया है। आपके योग्य क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा नहीं की गई है जो क्षेत्र आपको अभिप्रेत है, वह बहुगुण संपन्न नहीं है। हमने जिस क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा की है वह बहुगुण संपन्न है।
२१३८. एगोऽथ नवरि दोसो मं पइ सो वि य न बाहए किंचि । न यं सो भावो विज्जइ, अदोसवं जो अनिययस्स ॥ परंतु वहां एक दोष है जो मेरे अभिप्राय से किंचित् भी बाधा उपस्थित नहीं करेगा। जगत् में ऐसा एक भी पदार्थ नहीं है जो अनुधमी व्यक्ति के लिए दोषवान् न हो । २१३९. अहवण किं सिद्वेणं, सिने काहिह न वा वि एवं ति
खुडमुहा संति इहं, जे कोविज्जा जिणवई पि ॥ अथवा हमारा इस प्रकार कहने का भी क्या प्रयोजन ? हमारे इस प्रकार कहने पर भी करेंगे या नहीं, हम नहीं जानते। इस गच्छ में मधुमुख - मधुर बोलने वाले आपके प्रिय शिष्य हैं जो जिनवचन को भी अन्यथा कर देते हैं। २१४०. इइ सपरिहास निब्बंधपुच्छिओ बेइ तत्थ समणीओ । बलियपरिग्गहियाओ, होह दढा तत्थ बच्चामो ॥ इस प्रकार उसके परिहासयुक्त वचन को सुनकर आचार्य ने आग्रहपूर्वक पूछा और कहा बोलो- 'दोष क्या है?" शिष्य ने कहा- वहां श्रमणियां हैं जो बलशाली आचार्य द्वारा परिगृहीत हैं । परंतु आप दृढ़ रहें। हम वहां चलें । २१४१. भिक्खू साहइ सोउं,
व भणइ जड़ वच्चिमो तहिं मासो लहुगा गुरुगा वसभे
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गणिस्स एमेवुवेहाए ॥ यदि भिक्षु ऐसा कहता है अथवा सुनकर भिक्षु ही बोलता है- अच्छा, हम वहां चलें। तो लघुमास का प्रायश्चित्त आता १. सामत्थण - देशीशब्दत्वात् पर्यालोचनं ।
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है यदि ऋषभ ऐसा कहता है या स्वीकार करता है तो चतुर्लघु और आचार्य स्वयं ऐसा कहते हैं या स्वीकार करते हैं तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। उपेक्षा करने पर यही प्रायश्चित्त है।
२१४२. सामत्थण परिवच्छे, गहणे पयभेद पंथ सीमाए ।
गामे वसहिपवेसे, मासादी भिक्खुणो मूलं ॥ यदि सामत्थण:- पर्यालोचन करते हैं कि वहां जाना चाहिए या नहीं तो मासलघु का तथा परिवच्छ र जाने का निर्णय कर लेते हैं तो मासगुरु का प्रायश्चित्त है। निर्णय कर यदि उपधि ग्रहण करता है तो चतुर्लघु, चल पड़ता है चतुर्गुरु, मार्गगमन में पहलघु, ग्राम की सीमा में जाने से षड्गुरु, गांव में जाने पर छेद, वसति में प्रवेश करने पर मूल इस प्रकार भिक्षु के लिए प्रायश्चित्त विहित है।
२१४३.गणि आयरिए सपदं, अहवा वि विसेसिया भवे गुरुगा ।
भिक्खूमाइचउण्हं, जइ पुच्छसि तो सुणसु दोसे || गणी - उपाध्याय के गुरुमास से प्रारंभ कर स्वपवपर्यन्त अनवस्थाप्य तथा आचार्य के चतुर्लघु से प्रारंभ कर स्वपदपर्यन्त पारांचिक प्रायश्चित है अथवा भिक्षु वृषभउपाध्याय और आचार्य इन चारों के तप और काल से विशेषित चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त विहित है। वहां रहने पर क्या दोष होते हैं यह तुम पूछते हो तो सुनो।
२१४४. अनतरस्स निओगा, सव्वेसि अणुप्पिएण वा ते तु ।
देउल सभ सुन्ने वा निओयपमुहे ठिया गंतुं ॥ भिक्षु या वृषभ - किसी के कथन से अथवा सभी साधुओं की अनुमति से आचार्य उस गांव में जाकर देवकुल, सभागृह, शून्यगृह अथवा ग्राम के मुख-प्रवेश पर रहते हैं तो आने जाने वाले श्रमण श्रमणियों के परस्पर दर्शन से अनेक दोष होते हैं।
२१४५. दुचिहो य होइ अग्गी, दव्वग्गी चेव तह य भावग्गी ।
दव्वग्गिम्मि अगारी, पुरिसो व घरं पलीवेंतो ॥ अग्नि के दो प्रकार हैं-द्रव्याग्नि और भावाग्नि । स्त्री या पुरुष द्रव्याग्नि को प्रदीप्त कर घर को जलाता हुआ अपना सर्वस्व जला डालता है, इसी प्रकार साधु-साध्वी परस्पर मदनाग्नि में अपना सर्वस्व जला डालते हैं।
२१४६. तत्व पुण होइ दब्बे, डहणावीणेगलक्खणी अग्गी। नामोदयपच्चइयं, दिप्पs देहं समासज्ज ॥ दोनों अग्नियों के मध्य द्रव्याग्नि की परिभाषा यह है-जो दहन आदि लक्षण वाली होती है वह द्रव्य अग्नि है। देह २. परिवच्छ- देशीशब्दोऽयं निर्णयार्थे ॥ (वृ. पृ. ६१५)
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